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________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहती ५ * एदे चेय वियप्पा अपरिसेसा जा दुसमयाहिया उदयावलिया तिस्से द्विदीए पदेसग्गस्स । ૨૫૮ - $ ४४६ एदस्स सुत्तस्स अत्थो उच्चदे । तं जहा — जे ते पुव्वणिरुद्धसमयाहियउदयावलचरिमहिदीए दोहि वि परूवणाहि परूविदा वियप्पा एदे चेत्र अणणाहिया वत्तव्वा जा दुसमयाहिया उदयावलिया तिस्से हिंदीए पदेसग्गस्स णिरंभणं काऊन । वरि पढमपरूवणाए कीरमाणाए एदिस्से हिंदीए पदेसग्गस्स जइ समयाहियाए आवलियाए ऊणिया कम्मडिदी विदिक्कता बद्धस्स तं कम्ममुक्कड्डणाए अवस्थु, हिमाए चैव हिदी तस्स द्विविदकम्मडिदियत्तादो । तदो हेडिमाणं पुण अवत्थतं पुत्रं व अणुत्तसिद्धं । तस्सेव पदेसग्गस्स जइ दुसमयाहियाए आवलियाए ऊणिया कम्महिदी विदिकता तं कम्ममेत्थ आदेसो होतं पि ण सक्कमुक्कडिदु; तत्तो उवरि सत्तिद्विदीए एगस्स वि समयस्स अभावादो । तस्सेव पदेसग्गस्स जइ वि तिसमयाहियाए आवलियाए ऊणिया कम्महिदी विदिकता तं पि उक्कड्डणादो झीणहिदियं । एत्थ कारणमणंतर परुविंदं । एतो उवरि पुव्वं व सेसजहण्णाबाहमेता झीणहिदियविप्पा उपायव्वा । ततो परमभीणद्विदिया, जहण्णावाहमेत्तमविच्छाविय एकिस्से हिदीए क्रिखेव स तदणंतरज्वरिमवियप्पे संभवादो । एदेण कारणेण अवत्थुवियप्पा * दो समय अधिक उदयावलिकी जो अन्तिम स्थिति है उस स्थितिके कर्म परमाणुओं के भी ये ही सबके सब विकल्प होते हैं । ६ ४४६. अब इस सूत्र का अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है— पूर्व निर्दिष्ट एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिके दोनों ही प्ररूपणाओंके द्वारा जितने भी विकल्प कहे हैं न्यूनाधिक किये बिना वे सबके सब विकल्प यहां भी दो समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिके कर्म परमाणुको विवक्षित करके कहने चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथम प्ररूपणा के करने पर यदि बन्ध होनेके बाद कर्मपरमाणुओं की एक समय अधिक आवलिसे न्यून कर्मस्थिति व्यतीत हो गई हो तो वे कर्मपरमाणु इस विवक्षित स्थिति में नहीं होते, क्योंकि इस विवक्षित स्थिति से नीचेकी स्थिति में ही उन कर्मपरमाणुओं की स्थिति समाप्त हो गयी है । किन्तु इससे नीचेकी स्थितियों के कर्मपरमाणुओंका इस विवक्षित स्थिति में नहीं पाया जाना पहले के समान अनुक्तसिद्ध है। उन्हीं कर्मपरमाणुओं की यदि दो समय अधिक आवलिसे न्यून कर्मस्थिति व्यतीत हो गई हो तो वे कर्मपरमाणु यद्यपि इस विवक्षित स्थिति में पाये अवश्य जाते हैं परन्तु उनका उत्कर्षण नहीं हो सकता, क्योंकि इसके ऊपर शक्तिस्थितिका एक भी समय नहीं पाया जाता है । उन्हीं कर्मपरमाणुओंकी यदि तीन समय अधिक आवलिसे न्यून कर्मस्थिति व्यतीत हो गई हो तो वे कर्मपरमाणु भी उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं । ये कर्मपरमाणु उत्कर्षंणसे झीन स्थितिवाले क्यों हैं इसका कारण पहले कह आये हैं । इसी प्रकार इसके आगे भी पहले के समान बाकीके जघन्य आबाधाप्रमाण भीन स्थितिविकल्प उत्पन्न कर लेने चाहिये। इससे आगे अमीन स्थितिविकल्प होते हैं, क्योंकि इसके आगे के विकल्पमें जघन्य आवाधाप्रमाण स्थितिको प्रतिस्थापनारूपसे स्थापित करके आवाधाके ऊपरकी एक स्थितिमें निक्षेप सम्भव है । इस कारण से यहाँ अवस्तुविकल्प एक अधिक होते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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