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________________ गा ०२२ ] पदे सवित्तीय झीणाझीणचूलियाए परूवणा $ ४४४ एवमेतिएण पबंधेण पुव्वणिरुद्धाए हिदीए उक्कडगादो झीणाझीणडिदियपदेसग्गगवेसणं काऊण तस्संब घेण च पसंगागयमत्रत्युवियप्पपरूवणं समाजिय संपति पदमत्थमुत्रसंहरेमाणो इदमाह * एदे वियप्पा जा समयाहियउदयावलिया तिस्से हिंदीए पदेसग्गस्स | ४४५ यत्थमेदमुवसंहारसृत्तं । एवं विस्सरणालुआणं सिस्साणं पुव्वुत्तमह संभालिय संपहि एदेसिमेव वियप्पाणमप्पणमुवरि वि एदेण समाणपरूवणे द्विदिविसेसे कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ די निषेकस्थिति ४४ समय न प्राप्त होकर ४० समय प्राप्त होगी । इस प्रकार अपकर्षित द्रव्यका उत्कर्ष के समय बंधनेवाले कर्मकी कितनी स्थितिमें उत्कर्षण हो सकता है इसका विचार हुआ । २५७ (२) प्रथम प्ररूपणा में सत्कर्मकी अपेक्षा विचार किया है उसमें बतलाया है कि जिस कर्मकी केवल एक समय अधिक उदयावलिप्रमाण कर्मस्थिति शेष रही है उसका उत्कर्षण नहीं हो सकता । जिसकी दो समय अधिक उद्यावलिप्रमाण कर्मस्थिति शेष है उसका भी उत्कर्षण नहीं हो सकता। तात्पर्य यह कि उत्कर्षण के समय बँधनेवाले कर्मको जितनी आबाधा पड़े उतना स्थितिके शेष रहने तक सत्ता में स्थित कर्मों का उत्कर्षण नहीं हो सकता । हाँ सत्कर्मकी बाधा से अधिक स्थितिके शेष रहने पर नूतन बन्धमें उसका उत्कर्षण हो सकता है। इस प्रकार प्रथम प्ररूपणामें सत्कर्मकी अपेक्षा पूर्वानुपूर्वीसे विचार किया है । किन्तु इस दूसरी प्ररूपणा में यह बतलाया है कि नूतन बन्ध होने पर बन्धावलि तक तो वह तदवस्थ रहता है । हां बन्धावलिके बाद अपकर्षण होकर उसका तत्काल बँधनेवाले कर्ममें उत्कर्षण हो सकता है। इस प्रकार दूसरी प्ररूपणा में पश्चादानुपूर्वीसे नूतन बन्धके उत्कर्षणका विचार किया है, इसलिये इन दानों प्ररूपणाओं में तात्त्विक भेद है । (३) जब यह बतला दिया कि जिस कर्मकी स्थिति एक समय अधिक एक आवलि शेष है उसका उत्कर्ष नहीं हो सकता तब यह अर्थ सुतरां फलित हो जाता है कि जिस कर्मकी एक समय, दो समय तीन समय इसी प्रकार उदयावलिप्रमाण स्थिति शेष है उसका न तो उत्कर्षण ही हो सकता है और न उस स्थितिके कर्मं परमाणुओं का एक समय अधिक उदयावलिक अन्तिम स्थिति में ही पाया जाना सम्भव है । यही कारण है कि प्रथम प्ररूपणा में एक आवलिप्रमाण वस्तु विकल्पोंके रहते हुए भी उनका निर्देश नहीं किया है । ६. ४४. इस प्रकार इतने प्रबन्धके द्वारा दो बातोंका विचार किया । प्रथम तो यह विचार किया कि पूर्व निरुद्ध स्थितिमें कौनसे कर्मपरमाणु उत्कर्षंणसे झीन स्थितिवाले हैं और कौनसे कर्मपरमाणु उत्कर्ष से अमीन स्थितिवाले हैं । दूसरे इसके सम्बन्धसे प्रसंगानुसार अवस्तु विकल्पोंका कथन किया । अब प्रकृत अर्थके उपसंहार करनेकी इच्छासे अगला सूत्र कहते हैं* एक समय अधिक उदयावलिकी जो अन्तिम स्थिति है उसके कर्म परमाणुओंके इतने विकल्प होते हैं । Jain Education International ६ ४४५. इस उपसंहार सूत्रका अर्थ गतार्थ है । इस प्रकार विस्मरणशील शिष्योंको पूर्वोक्त की संम्हाल करा कर अब जिन स्थितियोंकी प्ररूपणा इस स्थितिके समान है उनमें इन सब विकल्पों को बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं - ३३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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