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________________ २५६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ MarNirmirmirrrrrrrrr/ ककी कितनी स्थितिमें उत्कर्षण हो सकता है ? (२) पूर्व प्ररूपणासे इस प्ररूपणामें तात्त्विक अन्तर क्या है ? (३) पूर्व प्ररूपणामें क्या अवस्तु विकल्प सम्भव हैं यदि हों तो उनका उस प्ररूपणका विवेचन करते समय कथन क्यों नहीं किया ? इनका क्रमशः खुलासा इस प्रकार है (१) जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है कि कर्मों में दो प्रकारकी स्थिति होती हैएक व्यक्तस्थिति और दूसरी शक्तिस्थिति । जिस कर्मकी जितनी उत्कृष्ट कर्मस्थिति होती है उस कर्मके अन्तिम निषेककी वह व्यक्तस्थिति है। उस अन्तिम निषेकमें शक्ति स्थिति नहीं पाई जाती । किन्तु शेष निषेकोंमें यथासम्भव शक्तिस्थिति और व्यक्तस्थिति दोनों पाई जाती हैं। उदाहरणार्थ एक कर्मकी ४८ समय कर्मस्थिति है। इसमेंसे प्रारम्भके १२ समय आवाधाके निकाल देने पर शेष ३६ समयोंमें निषेक रचना हुई। इस प्रकार पहले निषेककी १३ समय स्थिति पड़ी और दूसरे निषेककी १४ समय स्थिति पड़ी। इसप्रकार उत्तरोत्तर एक एक निषेक की एक एक समयप्रमाण स्थित बढ़ कर अन्तिम निषेककी ४८ समय स्थिति पड़ी। यह सबकी सब स्थिति व्यक्तस्थिति है। अब जो प्रथम निषेककी १३ समय स्थिति पड़ी है सो उसके सिवा उसकी शेष ३५ समय स्थिति शक्तिस्थिति है। दूसरे निषेककी १४ समय के सिवा शेष ३४ समय शक्तिस्थिति है । इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये । इस उदाहरणसे स्पष्ट है कि उत्कृष्ट कर्मस्थितिके अन्तिम निषेकमें शक्तिस्थिति नहीं पाई जाती। किन्तु शेष निषेकोंमें शक्तिस्थिति और व्यक्तस्थिति दोनों प्रकारकी स्थितियाँ पाई जाती हैं। अब किसी एक जीवने बन्धावलिके बाद नवकबन्धका अपकर्षण करके उसका उदयावलि के ऊपर प्रथम स्थितिमें निक्षेप किया और तदनन्तर समयमें वह उसका उत्कर्षण करना चाहता है तो यहां यह विचार करना है कि इस अपकर्षित द्रव्यका तत्काल बंधनेवाले कर्म के ऊपर कितनी स्थितिमें उत्कर्षण हो कर निक्षेप होगा। यह अपकर्षण बन्धावलिके बाद हुआ है, इसलिये एक आवलि तो यह कम हो गई और एक समय अपकर्षणमें लगा, इसलिये एक समय यह कम हो गया। इस प्रकार प्रकृत कर्मस्थितिमेंसे एक समय अधिक एक आवलिके घटा देने पर जो शेष कर्मस्थिति बची है तत्काल बंधनेवाले कर्मकी उतनी स्थितिमें इस अपकर्षित द्रव्यका उत्कर्षण हो सकता है । उदाहणार्थं पहले जो ४८ समय स्थितिवाले नवकबन्धका दृष्टान्त दे आये हैं सो उसके अनुसार बन्धावलिके ३ समय बाद चौथे समयमें आबाधाके ऊपरके द्रव्यका अपकर्षण करके उसे उदयावलिके ऊपरकी स्थितिमें निक्षेप किया। यहां बन्धावलिके बाद उदयावलि ले लेना चाहिये और उदयावलिके बाद एक समय छोड़कर अगली स्थितिमें अपकर्षित द्रव्यका निक्षेप कराना चाहिये, क्योंकि एक समय अपकर्षणरूप क्रिया में लग कर दूसरे समयमें वह उदयावलिमें प्रविष्ट हो जाता है। इस हिसाबसे अपकर्षित होकर स्थित हुए द्रव्यका आठवें समयमें उत्कर्षण होगा। पर यह उत्कर्षण की क्रिया बन्धावलिके बाद दूसरे समयमें हो रही है इसलिये सर्व स्थिति ४८ समयमेंसे बन्धावलिके ३ और अपकर्षणका १ इस प्रकार ४ समय घटा देने पर तत्काल बंधनेवाले कर्ममें आवाधाके बाद १३ समयसे लेकर ४४ वें समयतक इस द्रव्यका निक्षेप होगा। इस प्रकार इसकी स्थिति एक समय अधिक बन्धावलिसे न्यून ४४ समय प्राप्त हुई। यह यत्स्थिति है । उत्कर्षण और संक्रमणके समय जो स्थिति रहे वह यस्थिति है। किन्तु उत्कर्षण उदयावलिके ऊपरके निषेक में स्थित द्रव्यका हुआ है, इसलिये निषेकस्थितिमें एक समय अधिक एक वलि और घट जाती है, इसलिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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