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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहती ५ पदेसणिसेयस्स पडिसेहाभावादो। ® जहणियाए आबाहा, दुसमयुत्तराए पहुडि पत्थि उपाडणादो झीणहिदियं। ४७४. एदस्स मुत्तस्स अवयवत्थपरूवणा सुगमा । एत्थ चोदनो भणदिदुसमयुत्तरजहण्णावाहाओ उवरिमहिदीमु वि उक्कडगादो झीणहिदियं पदेसग्गमस्थि, तत्थेव णिहियकम्महिदियसमयपबद्धपदेसग्गप्पहुडि अइच्छावणावलियमेत्ताणमेत्य झीणहिदियवियप्पाणमुवलंभादो। ण च गवकबंधमस्सियूण अवत्थुवियप्पा गत्थि त्ति तहा परूवणं णाइयं, तेसिमेत्थ पहाणत्ताभावादो। तदो आवलियमेत्तेसु झीणहिदियवियप्पेसु आबाहादो उवरि वि हिदि पडि लब्भमाणेसु किमेदं वुच्चदे-- आबाहाए दुसमयुत्तराए पहुडि पत्थि उक्कड्डणादो झीणहिदियमिदि ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-उक्कड्डणादो झीणा हिदी जस्स पदेसग्गस्स तमुक्कड्डणादो झीणहिदियं णाम । ण च एदं दुसमयुत्तराबाहप्प हुडि उवरिमासु हिदीसु संभवइ, तत्थ समाणिदसमय बन्ध होता है उस समय भी नवकबन्धके निषेकोंका प्रतिषेध नहीं है। विशेषार्थ-तीन समय कम आवलिसे न्यून जघन्य आबाधाप्रमाण स्थितिके सम्बन्धमें जो क्रम कहा है वही क्रम एक समय अधिक आबाधाप्रमाण स्थितिके प्राप्त होने तक भी प्रत्येक स्थितिका जानना चाहिये यह इस सूत्रका आशय है। किन्तु श्राबाधाप्रमाण स्थितिसे आगेकी स्थितिमें नवकबन्धकी अपेक्षा अवस्तुविकल्प नहीं पाये जाते, यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये। इसका कारण यह है कि आबाधाके भीतर निषेकरचना नहीं होनेके कारण सर्वत्र एक आवलिप्रमाण अवस्तुविकल्प प्राप्त हो जाते हैं। पर आबाधाके बाहर तो प्रारम्भसे ही निषेकरचना पाई जाती है, इसलिये वहाँ नवकबन्धकी अपेक्षा अवस्तुविकल्प किसी भी हालतमें सम्भव नहीं हैं। ___* दो समय अधिक जघन्य आवाधाप्रमाण स्थितिसे लेकर आगे उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु नहीं हैं। ६४७४. इस सूत्रके प्रत्येक पदका व्याख्यान सुगम है। शंका--यहाँ पर शंकाकार कहता है कि दो समय अधिक जघन्य आबाधाप्रमाण स्थितिसे लेकर आगेकी स्थितियोंमें भी उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले कर्मपरमाण हैं, क्योंकि समयप्रबद्धके जिन कर्मपरमाणुओंकी कर्मस्थिति वहीं समाप्त हो गई है उन कर्मपरमाणोंसे लेकर अतिस्थापनावलिप्रमाण झीनस्थितिविकल्प यहाँ पाये जाते हैं। यदि कहा जाय कि नवकबन्धकी अपेक्षा अवस्तुविकल्प नहीं हैं, इसलिये ऐसा कथन करना न्याय्य है सो भी बात नहीं है, क्योंकि उनकी यहाँ प्रधानता नहीं है। इसलिए जब कि आबाधासे ऊपर प्रत्येक स्थितिके प्रति एक भावलिप्रमाण झीनस्थितिविकल्प पाये जाते हैं तब फिर यह क्यों कहा जाता है कि दो समय अधिक आबाधाप्रमाण स्थितिसे आगे उत्कर्षणसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु नहीं हैं ? समाधान--अब यहाँ इस शंकाका परिहार करते हैं-जिन कर्मपरमाणुओंकी स्थिति उत्कर्षणसे झीन है वे कर्मपरमाण उत्कर्षणसे झीनस्थितिबाले कहलाते हैं। किन्तु यह अर्थ दो समय अधिक आबाधासे आगेकी स्थितियोंमें सम्भव नहीं है, क्योंकि समयप्रबद्ध के जिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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