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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेशविहत्तीए अंतरकालपरूवणा ३६. सव्वदृसिद्धिम्मि मिच्छ०-सम्मामि०-बारसक०-इत्थि-पुरिस-णqसयवेद-भय-दुगुंछाणं जह० पदे० जहण्णुक० एगस० । अज० जह० तेत्तीसं सागरोवमाणि समऊणाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरो । सम्म० जह० पदे० जहग्णुक्क एगस० । अज० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि । अणंताणु० चउक्क०-हस्स-रदिअरदि-सोगाणं जह० पदे० जहण्णुक० एगस० । अन० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । एवं कालाणुगमो समत्तो । * अंतरं । ३७. पइज्जासुत्तमेदं सुगमं । ॐ मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेससंतकम्मियंतरं जहण्णु कस्सेष अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । ३६. सर्वार्थसिद्धिमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेश विभक्तिका जघन्य काल एक समय कम तेतीस सागर है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । अनन्तानुबन्धीचतुष्क, हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इस प्रकार जान कर अनाहारक मागणा तक जाना चाहिए। विशेषार्थ- यहाँ मिथ्यात्व आदिकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समयमें होनेसे इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम तेतीस सागर कहा है। कृतकृत्यवेदकका एक समय काल यहाँ उपलब्ध हो सकता है, इसलिए सम्यक्त्वकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्क आदि प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्ति यहाँ अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्भव है, इसलिए उसका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है। सब प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल पूरा तेतीस सागर है यह स्पष्ट ही है। यहाँ तक जो काल कहा है उसे देखकर वह अनाहारक मार्गणातक घटित कर लेना चाहिए, इसलिए उसे इसके समान ले जानेकी सूचना की है। __इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। ॐ अन्तर। $ ३७. यह प्रतिज्ञा सूत्र सुगम है । * मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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