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________________ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं ४०६ तदणंतरहेहिमसमयम्मि बद्धसमयपबद्धं सादिरेयदिवडगुणहाणीए भागं घेतूण लद्धदव्वमेत्तं होद्ग पुणो द्विदिपरिहाणीए लद्ध असंखेजभागमेत्तदव्वेण अहियं होइ । इमं च तिस्से अहियारहिदीए ओकड्डुक्कड्डणाहि गच्छमाणं पि दव्वं पेक्खियूण असंखेजभागब्भहियं होइ । तं कथं ? गच्छमाणदव्वस्सोवट्टणे ठविज्जमाणे एवं पंचिंदियसमयपबद्ध ठविय पुणो एदस्स ओकड्डुक्कड्डणभागहारोवट्टिददिवडगुणहाणिमेत्तभागहारे ठविदे चिराणसंचयदव्वमागच्छदि। पुणो एदस्स ओकड्डुक्कड्डणभागहारे ठविदे सादिरेयदिवडगुणहाणिसमयपबद्धस्स पयदगोवुच्छवयागमण भागहारो जादो। पुव्वुत्तसंचओ पुण समयपबद्धं सादिरेयदिवडगुणहाणीए खंडिय तत्थेयखंड द्विदिपरिहीणदव्वं च दो वि घेत्तूण होइ, तेणेसो अणंतरहेडिमसमयसंचयादो संपहियसमयम्मि गच्छमाणदव्वादो च असंखेज्जदिमागब्भहिओ होइ त्ति सिद्धं । संपहियसंचएण चिराणसंतकम्मसंचयदव्वं पेक्खियूण असंखेजभागवडी चेव होइ । कुदो? ओकड्डुक्कड्डणभागहारोवट्टिददिवडगुणहाणिखंडिदेगसमयपबद्धमेत्तचिराणसंचयादो एदस्स वट्टमाणसमयसंचयस्स असंखेज्जगुणहीणत्तदंसणादो । एवमधापवत्तकरणपढमसमयसंचयपरूवणा कदा । एत्तो अंतोमुहुत्तमेत्तकालं सव्वमेगमवहिदहिदि बंधइ ति हैं-अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे उसके अनन्तरवर्ती नीचेके समयमें बंधे हुए समयप्रबद्धमें साधिक डेढ़ गुणहानिका भाग देनेपर जितना लब्ध आवे उतना ग्रहणकर वह लब्ध द्रव्यप्रमाण होकर पुनः स्थितिकी परिहानिसे प्राप्त हुए असंख्यात भागप्रमाण द्रव्यसे अधिक होता है। और यह द्रव्य उस अधिकृत स्थितिमें अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा व्ययको प्राप्त होनेवाले द्रव्यकी अपेक्षा असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक होता है। शंका-सो कैसे ? समाधान-क्योंकि, जो द्रव्य व्ययको प्राप्त होता है उसको लानेके लिये भागहारके स्थापित करनेपर पंचेन्द्रियका एक समयप्रबद्ध स्थापित करे। फिर इसका अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे भाजित डेढ़ गुणहानिप्रमाण भागहार स्थापित करनेपर प्राचीन संचित द्रव्य प्राप्त होता है । फिर इस संचित द्रव्यके नीचे अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारको स्थापितकर भाग देनेपर प्रकृत गोपुच्छामेंसे व्ययका प्रमाणला नेके लिये वह साधिक डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रवद्धका भागहार हो जाता है। परन्तु पूर्वोक्त संचय तो एक समयप्रबद्धको साधिक डेढ़ गुणहानिसे भाजित करनेपर वहाँ प्राप्त हुआ एक भाग और स्थितिपरिहीन द्रव्य इन दोनोंको मिलाकर होता है, इसलिए यह द्रव्य अनन्तरवर्ती नीचेके समयमें संचयको प्राप्त हुए द्रव्यसे और वर्तमान कालमें व्ययको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे असंख्यातवें भाग अधिक होता है यह सिद्ध हुआ। किन्तु इस वर्तमान कालीन संचयमें प्राचीन संचय द्रव्यकी अपेक्षा असंख्यातभागवृद्धि ही होती है, क्योंकि डेढ़ गुणहानिमें अपकर्षणउत्कर्षण भागहारका भाग देनेपर जो एक भाग प्राप्त हो उसका एक समयप्रबद्धमें भाग देनेपर प्राचीन संचय द्रव्य आता है। उससे यह वर्तमान समयका संचय असंख्यातगुणा हीन देखा जाता है। इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें जो संचय होता है उसका कथन किया। अब इससे आगे एक अन्तर्मुहूर्त कालतक पूरी अवस्थित स्थितिका बन्ध होता है, इसलिये वहाँ अवस्थित संचय ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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