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________________ गा०२२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए परूषणा २६५ हेहिल्लहिदीहितो अपुणरुतो वियप्पविसेसो हेहिमहिदिपदेसग्गाणमाषाहासेसमेत्तमधिच्छाविय तदणंतरोवरिमाए एकिस्से हिदीए णिक्खेवुवलंभादो । गवकबंधमस्सियूण पुण श्रावलियमेत्ता चेय अवत्थुवियप्पा पुव्वं व सव्यत्य अणूणाहिया होति त्ति पत्थि तत्थ णाणतं । वरि पुवपरूविदाणमावलियमेत्तणवकबंधाणं मझे पढमसमयपद्धस्सावलियाविच्छिदबंधस्स जहा णिसे यसरूवेण वत्थुत्तमेत्य दीसइ, हेडिमसमए चेव तदाबाहापरिच्छित्तिदसणादो। तं पि कुदो ? जहण्णाबाहाए चेव सब्वत्थ विवक्खियत्तादो। कथं पुण संपुण्णावलियमेत्तपमाणमेत्थ तब्वियप्पाणमिदि णासंकणिज्जं, तकालियणवकबंधेण सह तेसिं तदविरोहादो। एत्तिओ चेव विसेसो, णत्थि अण्णो को इ विसेसो ति जाणावणहमुत्तरमुत्तं तेण परमज्झीणहिदियं । ६४५५. तत्तो समयुत्तरवाहापरिहीणविदिक्कतकम्मटिदियादो णिरुदहिदिपदेसग्गादो परमण्णं पदेसग्गमज्झीणहिदियमुक्कड्डणादो ति अहियारवसेणाहिसंबंधो । कुदो एदमझीणद्विदियं ? अधिच्छावणा-णिक्खेवाणमेत्य संभवादो। केत्तियमेत्ती विकल्प पूर्व की स्थितियोंसे अपुनरुक्त है; क्योंकि पूर्वकी स्थितियोंके कर्मपरमाणुओंकी जो श्राबाधा शेष रहती है उसे अतिस्थापनारूपसे स्थापित करके उससे आगेकी एक स्थिति में निक्षेप पाया जाता है। नवकबन्धकी अपेक्षा तो सर्वत्र न्यूनाधिकतासे रहित पहलेके समान एक आवलिप्रमाण ही अवस्तु विकल्प होते हैं, इसलिये उनके कथनमें सर्वत्र कोई भेद नहीं है । किन्तु इतनी विशेष । है कि पहले जो एक आवलिप्रमाण नवकबन्ध कहे हैं उनमें से जिसे बधे एक आवलि हो गया है ऐसे प्रथम समयप्रबद्धके निषेकोंकी जैसी रचना हुई उसके अनुसार सद्भाव यहाँ विवक्षित स्थिति में दिखाई देता है; क्योंकि इससे पूर्वके समयमें ही उस समयप्रवद्धके आबाधाका अन्त देखा जाता है। शंका-सो कैसे ? समाधान—क्योंकि सर्वत्र जघन्य आबाधा ही विवक्षित है। यदि ऐसा है तो फिर यहाँ पर नवकबन्धसम्बन्धी अवस्तुविकल्प पूरी आवलिप्रमाण कैसे हो सकते हैं सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि तत्कालिक नवकबन्धके साथ उन्हें पूरी प्रावलिप्रमाण माननेमें कोई विरोध नहीं आता। यहाँ इतनी ही विशेषता है अन्य कोई विशेषता नहीं है इस प्रकार इस बातके जतानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * उससे आगे अझीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु हैं। ४५५. उमसे आगे अर्थात् पहले जो एक समय अधिक आबाधासे हीन कर्मस्थिति और इस स्थितिके जो कर्मपरमाणु कहे हैं उनसे आगे अन्य कर्मपरमाणु उत्कर्षणसे अझीन स्थितिवाले हैं ऐसा यहाँ अधिकारके अनुसार अर्थ करना चाहिये। शंका-ये कर्म परमाणु अझीन स्थितिवाले क्यों हैं ? समाधान-क्योंकि यहाँ अतिस्थापना और निक्षेप दोनों सम्भव हैं। ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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