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________________ पदेसवित्तीय मीणा भी चूलियाए सामित्तं गा० २२ ] उदयमागदाणि तावे तस्स पढमसमयसम्मामिच्छाइहिस्स उक्कस्सयमुदयादो भीडिदियं । ९ ४६६, एत्थ जो गुणिदकम्मंसिओ संजमा संजम - संजमगुणसेढीओ काऊण ता सम्मामिच्छतं गदो जाधे पढमसमयसम्मामिच्छाइहिस्स गुणसेढिसीसयाणि उदयमागयाणि ति पदसंबंधो कायव्वो । सेसपरूवणाए मिच्छत्तभंगो । ४६७, एत्थ के वि आइरिया एवं भणति – जहा सम्मामिच्छत्तस्स उदयादो झी हिदियं णाम अत्थसंबंधेण संजदासंजद-संजदगुणसेंढीओ काऊण पुणो अनंताणुविजयणगुणीए सह जाधे एदाणि तिण्णि वि गुणसेढिसीसयाणि पढमसमयसम्मामिच्छास्सि उदयमागच्छति ताघे तस्स उक्कस्तयं होइ, अणंताणुबंधिविसंजोयणगुणसेडीए सुत्तपरुविददोगुणसेढीहिंतो पदेसरगं पडच असंखेज्जगुणत्तादो । जइ वि संजमा संजम - संजमगुणसेढीओ अनंताणुबंधिविसंजोयणाए ण लब्धंति तो वि एदीए चेव पज्जतं तत्तो असंखेज्जगुणत्तादो | णवरि अनंताणुबंधिविसंजोयणगुणसेढिसीसयं गंथयारेण ण जोइदमिदि ण एदं घडदे | कुदो १ अनंताणुबंधिविसंजोयणगुणसेढी अणि सरूवाए अच्छंतीए सम्मामिच्छत्तगुणपरिणमणाभावादो । एदं कुदो वदे १ एदम्हादो चैव सुत्तादो। ण च संतमत्थं ण परूवेदि सुचं, तम्स अव्वावयत्तसमय गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त होते हैं तो प्रथम समयवर्ती वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है । $ ४६६. यहाँ पर जो गुणितकर्माशिवाला जीव संयमासंयम और संयम सम्बन्धी गुणश्रेणियोंको कर तब सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ जब सम्यग्मिध्यादृष्टि के प्रथम समय में गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त होते हैं इस प्रकार पदोंका सम्बन्ध कर लेना चाहिये । शेष प्ररूपणा मिथ्यात्वके समान है । २८६ ४७. यहाँपर कितने ही आचार्य इस प्रकार कथन करते हैं कि उदयसे सम्यग्मिथ्यात्वका झीनस्थितिपना जैसे किसी एक गुणितकर्यांशवाले जीवने संयतासंयत और संयतकी गुणश्रेणियोंको किया । फिर उसके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणश्रेणिशीर्षके साथ जब ये तीनों ही गुणश्रेणिशीर्ष सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के प्रथम समय में उदयको प्राप्त होते हैं तब उसके उत्कृष्ट झोनस्थिति द्रव्य होता है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणश्रेणिसूत्रमें कही गईं दो गुणश्रेणियाँ कर्मपरमाणुओं की अपेक्षा संख्यातगुणी होती हैं । यद्यपि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके समय संयमासंयम और संयमसम्बन्धी गुण खियाँ नहीं प्राप्त होती हैं तो भी यही केवल पर्याप्त है, क्यों कि यह उन दोनोंसे असंख्यातगुणी होती है । किन्तु ग्रन्थकारने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणश्रेणिशीर्ष को नहीं जोड़ा है इसलिये यह बात नहीं बनती, क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुण के निजी हुए बिना रहते हुए सम्यग्मिथ्यात्वगुणकी प्राप्ति नहीं होती । शंका यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान -- इसी सूत्र से जाना जाता है । ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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