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२६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५ दोसप्पसंगादो।
४६८. अण्णं च एदस्स णिबंधणमस्थि । तं जहा--संतकम्ममहाहियारे कदि-वेदणादिचउवीसमणियोगद्दारेसु पडिबद्ध उदओ णाम अत्याहियारो डिदि-अणुभाग-पदेसाणं पयडिसमण्णियाणमुक्कस्साणुक्कस्सजहण्णाजहण्णुदयपरूवणेयवावारो, तत्थुक्कस्सपदेसुदयसामित्त साहण सम्पत्तप्पत्तियादिएकारसगुणसेढीओ परूविय पुणो जाओ' गुणसेंढीओ संकिलेसेण सह भवंतरं संकामेति ताओ वत्तइस्सामो। तं जहा--उयसमसम्मत्तगुणसेंढी संजदासंजदगुणसेढी अधापवत्तसंजदगुणसेढी ति. एदाओ तिगिण गुणसेढीओ अप्पसत्थमरणेण वि मदस्स परभवे दीसंति । सेसासु गुणसेढीमु झीणासु अप्पसत्थमरणं भवे इदि वृत्तं तं पि केणाहिप्पाएण वुत्तं, उक्कस्ससंकिलेसेण सह तासि विरोहादो त्ति । तं पि कुदो ? संकिलेसावरणकालादो पयदगुणसेढीणमायामस्स संखेज्जगुणहीणतब्भुवगमादो। तदो एदेण साहणेण एत्थ वि तासि
____ यदि कहा जाय कि सूत्र विद्यमान अर्थका कथन नहीं करता है सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर सूत्रको अव्यापकत्व दोषका प्रसंग प्राप्त होता है ।
६४६८. तथा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासम्बन्धी गुणनेणिक सद्भावमें जीव सम्यग्मिथ्यात्व गुणको नहीं प्राप्त होता इसका एक अन्य कारण है जो इस प्रकार है--कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वारोंसे सम्बन्ध रखनेवाले सत्कर्म महाधिकारमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्यरूप उदयके कथन करने में व्यापृत एक उदय नामका अधिकार है। वहाँ उत्कृष्ट प्रदेशोदयके स्वामित्वका साधन करनेके लिये सम्यक्त्वकी उत्पत्ति आदि ग्यारह गुणश्रेणियोंका कथन करने के बाद फिर “जो गणश्रेणियाँ संक्लेशरूप परिणामोंके साथ भवान्तरमें जाती हैं उन्हें बतलाते हैं। जैसे-उपशम सम्यक्त्वगुणणि, संयतासंयतगुणश्रोणि और अधःप्रवृत्तसंथतगुणश्रेणि इस प्रकार ये तीन गुणश्रेणियां अप्रशस्त मरणके साथ भी मरे हुए जीवके परभवमें दिखाई देती हैं। किन्तु शेष गुणश्रेणियों के क्षयको प्राप्त होने पर ही अप्रशस्त मरण होता है। यह कहा है सो यह किस अभिप्रायसे कहा है ? मालूम होता है कि शेष गुणश्रेणियोंका उत्कृष्ट संक्लेशके साथ विरोध है, इसलिये ऐसा कहा है।
शंका-यह भी कैसे जाना ?
समाधान-संक्लेशको पूरा करनेका जो काल है उससे प्रकृत गुणश्रोणियोंका आयाम संख्यातगुणा हीन स्वीकार किया है, इससे जाना जाता है कि शेष गुणोणियोंका उत्कृष्ट संक्लेशके साथ विरोध है।
इसलिये इस साधनसे यहाँ भी अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें भी उनका अभाव
१. ध० प्रा०, पत्र १०६५ । “तिन्नि वि पढमिल्लायो मिच्छत्ताए वि होज अन्नभवे ।'-कर्म प्र० उदय गा० १० । 'सम्मत्त प्पादगुणसेढी देसविरदगुणसेढी अहापमत्तसंजयगुणसेढी य एया तिन्नि वि पढमिल्लीनो गुणसेढीतो मिच्छत्त वि होज अन्नभवे' ति मिच्छत गंतूण अप्पसत्थं, मरणेण मनो गुणेसेढितियदलियं परभवगतो वि किं त्रिकालं वेदिजा ।'-चूर्णि ।
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