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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अंतरकालपरूपणा जहण्ण. पत्थि अंतरं । सम्म०-सम्मामि० जह० त्यि अंतरं । अन० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसणाणि । अणंताणु०चउक्क० जह० णत्थि अंतरं । अज. जह ० अंतोमु०, उक्क तेतीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सत्तमाए पुढवीए । ५१. पढमाए जाव छहि त्ति मिच्छ०-बारसक०-इत्थि-णवूस०-भय-दुगुंछ० जहण्णाजहण्ण० णत्थि अंतरं। सम्मत्त०-सम्मामि०-अणंताणु०चउक० जह० णत्थि अंतरं । अज० ज० एगस० अंतोमु०, उक्क. सग-सगहिदीओ' देसणाओ। पंचणोक० जह० णत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक० एगस०। अन्तरकाल एक समय है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेश विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-नरक आदि चारों गतियों में सब प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति क्षपित कर्माशिक जीवके होनेके कारण प्रत्येकमें दो बार सम्भव नहीं है, इसलिए सर्वत्र इसके अन्तरकालका निषेध किया है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिके अन्तर कालका विचार करने पर नारकियों में मिथ्यात्व यादि बाठ प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति वहां उत्पन्न होनेके बाद अन्तर्मुहूर्त काल जाने पर सम्भव है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा है । सम्यक्व, सम्यग्मिथ्यात्व ये दो उद्वेलना प्रकृतियाँ हैं और अनन्तानुबन्धीचतुष्क विसंयोजना प्रकृतियाँ हैं. इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल बन जानेसे उसका अलगसे निर्देश किया है। इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके दोनों प्रकारक अन्तरकालको आगे भी इसी आधारसे घटित कर लेना चाहिए। मात्र सर्वत्र जघन्य अन्तरकाल तो एक समान है। उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण प्राप्त होता है। केवल अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा तिथंञ्चों और मनुष्योंमें वह कुछ कम तीन पल्य ही कहना चाहिए । यहाँ बारह कपाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भवके प्रथम समय में होती है, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका भी निषेध किया है। सातवीं पृथिवीमें यह प्ररूपणा अधिकल बन जाती है, इसलिए उनमें सामान्य नारकियोंके समान जाननेकी सूचना की है। ६५१ प्रथमसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। पाँच नोकषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। विशेषार्थ—प्रथमादि छह पृथिवियोंमें मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी नरकसे १. प्रा०प्रतौ 'उक्क० सगढ़िदीयो' इति पाठः । ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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