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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ४६. जहण्णए पयदं। दुविहो गिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मिच्छ०-एकारसक०-णवणोक० जहण्णाजहण्णपदे० णत्थि अंतरं । सम्म०-सम्मामि०जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० एगस०, उक्क० उवडपोग्गलपरियट्टा । अणंताणु०चउक्क. जह• पत्थि अंतरं। अजह० जह० अंतोमु०, उक्क वेछावहिसागरो. देसणाणि । लोभसंज० ज० पत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक्क एमसमओ । ५०. आदेसेण णेरइएसु मिच्छ -तिण्णिवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं जह० गत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक्क० एगस०। बारसक०-भय-दुगुंछा. जहण्णाप्रकृतियाँ हैं। इनका कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक कुछ कम इकतीस सागर तक सत्त्व नहीं पाया जाता। तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्क विसंयोजना प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनका कमसे कम अन्तर्मुहूर्त तक और अधिकसे अधिक कुछ कम इकतीस सागर काल तक सत्त्व नहीं पाया जाता, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशबिभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। भवनवासियोंसे लेकर नौ नवेयक तकके देवोंमें यह अन्तर प्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनमें सामान्य देवोंके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र इनकी भवस्यिति अलग अलग है, इसलिए इनमें कुछ कम इकतीस सागरके स्थानमें कुछ कम अपनी अपनी भवस्थिति ग्रहण करनेकी सूचना की है। अनुदिशसे लेकर आगेके सब देवोंमें भवके प्रथम समयमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है। यह जी अन्तरप्ररूपणा कही है इसे ध्यानमें रखकर आगेकी मार्गणाओंमें वह घटित की जा सकती है, इसलिए उनमें इसी प्रकार ले जानेकी सूचना की है। . इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तरकाल समाप्त हुआ। ४६. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य प्रदेश विभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण है। लोभसंज्वलनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। विशेषार्थ—ओंघसे मिथ्यात्व आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति अपनी अपनी क्षपणाके समय योग्य स्थानमें होती है, इसलिए इनकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिके अन्तरकालका निषेध किया है। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व उद्वेलना प्रकृतियाँ हैं और अनन्तानुबन्धीचतुष्क विसंयोजना प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल बन जानेसे उसका अलगसे उल्लेख किया है। तथा लोभसंज्वलनकी जघन्य प्रदेशविभक्ति एक समय तक होनेके बाद भी अजघन्य प्रदेश विभक्ति होती है, इसलिए इसकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहा है। ६५०. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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