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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ षदेसविहती ५ ७४. तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु छब्बीसं पयडीणमुक्क० लोग० असंखे०भागो । अणुक्क० सव्वलोगो । सम्म० सम्मामि० उक्क० खेत्तं । अणुक० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । सव्वपंचिदियतिरिक्खेसु अट्ठावीसं पयडीणं उक्क० लोगस्स असंखे० भागो । अणुक० लोगस्स असंखे० भागो सव्वलोगो वा । एवं सव्वमणुस्साणं । ४६ ९ ७५. देवगदीए देवे अट्ठावीसं पयडीणमुक्क० खेत्तभंगो । अणुक्क० लोग० असंखे० भागो अटु णवचोदसभागा देणा । एवं सोहम्मीसाणागं । भवण० - वाण०जोइसि० अट्ठावीसं पयडीणमुक्क० खेत्तं । अणुक० लोग० असंखे० भागो अजुङ- अह चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेषार्थ —— यहां जिस नरकका जो स्पर्शन है उसे ध्यान में रखकर सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका अतीत स्पर्शन कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । $७४. तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्चों में छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवांने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार सब मनुष्योंमें जानना चाहिए । विशेषार्थ — तिर्यञ्च समस्त लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवों का वर्तमान और अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण कहा है। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, इसलिए इनकी उक्त प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण कहा है। सम्यक्त्वfast अपेक्षा कही गई विशेषता सब पञ्च ेन्द्रिय तिर्यों में अट्ठाईस प्रकृतियों की अपेक्षा भी बन जाती है, इसलिए उनमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोक संख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण कहा है। सब मनुष्यों में भी यही व्यवस्था बन जाती है, इसलिए उनमें सब पञ्च ेन्द्रिय तिर्यञ्चों के समान जाननेकी सूचना की है। शेष कथन सुगम है । ७५. देवगतिमें देवों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असं ख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्प में जानना चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवांने लोक असं ख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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