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________________ गा० २२ ] उत्तरपयडिपदेवित्तीय पोसणपरूवणा ४७ णवचोहस० देसूणा | सणक्कुमारादि जाव सहस्सारो ति अट्ठावीसं पयडीनं उक्क० खेत्तं । अणुक्क० लोग० असंखे० भागो अट्ठचो० देसूणा | आणदादि जाव अच्चुदो ति अट्ठावीसं पडी मुक्क० खेत्तं । अणुक्क० लोग० असंखे० भागो छचोहस० देसूणा | उवरि खेत्तभंगो। एवं नेदव्वं जाव अणाहारए ति । ७६. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्द सो-- ओघेण आदेसेण य । ओघेण छवीसं पयडीणं जह० लोग० असंखे० भागो ! अज० सव्वलोगो । सम्म- सम्मामि० जह० अज० लोग० असंखे० भागो अह-चो६० देसूणा सव्वलोगो वा । ९ ७७, आदेसेण णेरइएस अट्ठावीसं पयडीणं ज० लोग० असंखे ० भागो । अज० लोग • असंखे ० भागो छचोदस० देसूणा । एवं सत्तमाए । पढमाए पुढवीए खेतभंग | विदियादि जाव छट्टि ति अट्ठावीसं पयडीणं जह० खेत्तं । अज० लोग० आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोक के असं ख्यातवें भाग और सनाली के कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । नत कल्पसे लेकर अच्युत कल्पतक देवों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असं ख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आगे क्षेत्र के समान भङ्ग है । इस प्रकार अनाहारक मार्गंणातक ले जाना चाहिए । विशेषार्थ —यहाँ सर्वत्र अपने अपने वर्तमान आदि स्पर्शनको ध्यान में रख कर सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन कहा है । शेष कथन सुगम है । $ ७६. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकार है— ओघ और आदेश । घसे छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेषार्थ – सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्ति एकेन्द्रियादि जीवों के भी सम्भव है और देवोंके विहारवत्स्वस्थान आदिके समय भी हो सकती है । तथा इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है ही, इसलिए इनकी दोनों प्रकारकी प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, त्रसनाली के कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । ९ ७७. आदेशसे नारकियों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके कुछ कम छह बढे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवी में जानना चाहिए। पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान भङ्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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