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________________ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं २९५ कसायामपच्छिमहिदिखंडयं संछुभमाणं संछुद्धताधे उक्कस्सयं तिण्हं पि झीणहिदियं । ५०४. एत्थ पदसंबंधो एवं कायव्वो-जो गुणिदकम्मंसिओ सव्वलहुमहवस्साणमंतोमुहुत्तब्भहियाणमुवरि कदासेसकरिणिज्जो होऊण कसायक्खवणाए अब्भुहिदो तेण जाधे अपुव्वाणियट्टिकरणपरिणामेहि द्विदिखंडयसहस्साणि पादेंतेण अहण्हं कसायाणमपच्छिमढिदिखंडयमावलियवज्ज संजलणाणमुपरि संछुभमाणयं संछुद्धं ताधे तस्स उकस्सयमोकड्डणादीणं तिण्हं पि झीणहिदियं होइ ति । कुदो एदमावलियपइदव्वमुक्कस्सं ? ण, समयूणावलियमेत्तखवयगुणसेढीणमेत्थुवलंभादो । हेडा चेय संजमासंजम-संनम-दसणमोहणीयक्खवणगुणसेढीओ घेत्तूण सामित्तं किमिदि ण परूविदं ? ण, तासि सव्वासि पि मिलिदाणं खवगगुणसेढीए असंखेजदिभागत्तादो। * उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं कस्स ? जब आठ कषायोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकका क्रमसे पतन कर देता है तब वह अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है। ६५०४. यहाँ पर पदोंका सम्बन्ध इस प्रकार करना चाहिये कि जो गुणितकर्माशवाला जीव अतिशीघ्र आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्तके बाद करने योग्य सब कार्यों को करके कषायोंकी क्षपणाके लिये उद्यत हुआ, वह जब अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप परिणामों के द्वारा हजारों स्थितिकाण्डकोंका पतन करके आठ कषायोंके एक आवलिके सिवा अन्तिम स्थितिकाण्डकको संज्वलनोंमें क्रमसे निक्षिप्त करता है तब वह अपकर्षण आदि तीनोंके झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है। शंका-श्रावलिके भीतर प्रविष्ट हुआ यह द्रव्य उत्कृष्ट कैसे है ? समाधान-नहीं, क्योंकि एक समय कम आवलिप्रमाण क्षपकगुणनोणियाँ यहाँ पाई जाती हैं, इसलिये यह द्रव्य उत्कृष्ट है। शंका-उसके पूर्वमें ही संयमासंयम, संयम और दर्शनमोहनीयकी क्षपणा इन तीनों गुणश्रेणियोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन क्यों नहीं किया गया है ? समाधान--नहीं, क्योंकि वे सब मिलकर भी क्षपकगुणश्रोणिके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं। विशेषार्थ—गुणितकाशवाला जो जीव आठ कषायोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकका पतन करके जब स्थित होता है तब उसके आठ कषायोंके अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु पाये जाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शेष शंकासमाधान सरल है। * उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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