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________________ २६४ जयधवलाहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ सीसयाणि उदयमागदाणि होज्ज ताधे तस्स उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियमिदि । सम्माइडिम्मि अणंताणुबंधीणमुदयाभावेण उदीरणा पत्थि ति गुणसेढिसीसएसु आवलियपइट सु उदीरणादव्वसंगहहमेसो मिच्छत्तं णेदव्यो ति णासंकणिज्ज, तत्थ पुवमेव संकिलेसवसेण लाहादो असंखेजगुणसेढिदव्बस्स हाणिदसणादो। ण च विसोहिपरतता गुणसेहिणिज्जरा उदीरणा वा संकिलेसकाले बहुगी होइ, विरोहादो । * अण्हं कसायाणमुक्कस्सयमोकड्डणादितिण्हं पि झीणहिदियं कस्स? ५०३. सुगमं । ॐ गुणिदकम्मंसिओ कसायक्खवणाए अन्भुहिदो जाधे अहण्हं समयमें दोनों ही गुणश्रेणिशीर्ष उद्यको प्राप्त हुए उसी समय उसके उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणु होते हैं। यदि यह कहा जाय कि सम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धियोंका उदय नहीं होनेसे उदीरणा नहीं होती अतएव उदीरणाद्रव्यके संग्रह करनेके लिए जब गुणणिशीर्ष आवलिके भीतर प्रविष्ट हो जाय तभी इसे मिथ्यात्वमें ले जाना चाहिये सो ऐसी आशंका भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि वहाँ पहले ही संक्लेशके वशसे लाभकी अपेक्षा असंख्यातगुणे श्रेणिद्रव्यकी हानि देखी जाती है। और जो गुणश्रेणिनिर्जरा विशुद्धिके निमित्तसे होती है वह संक्लेशकालमें उदीरणाके समान बहुत होगी सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है। विशेषार्थ--इस सूत्रमें अनन्तानुवन्धीकी अपेक्षा उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओं के स्वामीका निर्देश किया है। जो गुणितकाशकी विधिसे आकर अतिशीघ्र संयमासंयम और संयमकी गुणनोणियाँ करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उसके वहाँ प्रथम समयमें ही यदि उक्त गुणश्रेणियोंके शीर्ष उदयमें आ जाते हैं तो उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होता है यह इस सूत्रका भाव है। यहाँ एक शंका यह की गई है कि उदय समयमें ही इस जीवको मिथ्यात्वमें न लाकर एक श्रावलि पहलेसे ले आना चाहिये। इससे लाभ यह होगा कि उदीरणाका द्रव्य प्राप्त हो जानेसे गुणश्रेणिशीर्षके परमाणु और अधिक हो जायेंगे। इस शंकाका जो समाधान किया गया है उसका भाव यह है कि संक्लेश परिणामोंके बिना तो मिथ्यात्व गुणस्थानकी प्राप्ति होती नहीं। अब जब कि गुणश्रोणिशीर्षके आवलिके भीतर प्रवेश करते ही इसे मिथ्यात्वमें ले जाना है तो पूर्वमें ही संक्लेश परिणाम हो जानेसे उदीरणाके द्वारा होनेवाले लाभसे असंख्यातगुणे द्रव्यकी हानि हो जाती है, क्योंकि इतने समय पहलेसे ही इसकी गुणश्रेणिरचनाका क्रम बन्द हो जायगा। इसलिये ऐसे समय ही इसे मिथ्यात्वमें ले जाना चाहिये जब मिथ्यात्वमें पहुँचते ही गुणश्रेणिशीका उदय हो जाय । * आठ कषायोंके अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है। ६५०३. यह सूत्र सुगम है। * जिस गुणितकौशवाले जीवने कपायोंकी क्षपणाका आरम्भ किया है वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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