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गा० २२]
पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्त पुत्वावरविरोहदोससंभवो वि, उवएसंतरपदंसण तत्थ तहा परूवियत्तादो ।
७०४. संपहि जहाणिसेयहिदिपत्तयस्स जहण्णसामित्तं परूवेमाणो पुच्छाए अवसरं करेइसंचित होनेवाला द्रव्य बहुत होता है इस अभिप्रायसे यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है और इससे पूर्वापर विरोध दोष प्राप्त होना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि उपदेशान्तरके दिखलानेके लिये वहाँपर उस प्रकारसे कथन किया है।
विशेषार्थ-जिस समय जो द्रव्य उदयमें आता है वही उस समय उदयसे झीनस्थितिवाला द्रव्य माना गया है, क्योंकि वह द्रव्य उदयप्राप्त होनेसे निजीणे हो जानेवाला है अतः उसमें पुनः उदयकी योग्यता नहीं पाई जाती। इस प्रकार विचार करनेपर उदयस्थितिप्राप्त द्रव्य और उससे झीनस्थितिवाला द्रव्य ये दोनों एक ही ठहरते हैं। यों जब ये एक हैं तो इनका जघन्य और उत्कृष्ट स्वामित्व भी एक ही होना चाहिये। अर्थात् जो उदयसे झीनस्थितिवाले द्रव्यका उत्कृष्ट स्वामी होगा वही उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका उत्कृष्ट स्वामी होगा और जो उदयसे झीनस्थितिवाले द्रव्यका जघन्य स्वामी होगा वहीं उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामी होगा । यद्यपि स्थिति ऐसी है तथापि मिथ्थात्वकी अपेक्षा इन दोनोंका जघन्य स्वामी एक नहीं बतलाया है। उदयसेझीनस्थितिवाले द्रव्यका जघन्य स्वामित्व बतलाते समय यह जघन्य स्वामित्व उपशमसम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वको प्राप्त करनेके समयसे लेकर उदयावलिके अन्तिम समयमें दिया है किन्तु उदयस्थिति प्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामित्व बतलाते समय यह जघन्य स्वामित्व उपशमसम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें दिया है। इसप्रकार देखते हैं कि इन दोनों कथनोंमें पूर्वापर विरोध है जो नहीं होना चाहिये था। टीकामें इस विरोधका जो समाधान किया गया है उसका आशय यह है कि पूर्वोक्त कथन इस आशयसे किया गया है कि मिथ्याष्टि होनेके प्रथम समयसे लेकर उदयावलिके अन्तिम समय तक एक समय कम उदयावलिके भीतर गोपुच्छ विशेषका जो द्रव्य संचित होता है उससे उस कालके भीतर अपकर्षण द्वारा संचित होनेवाला द्रव्य न्यून होता है। किन्तु यह कथन इस अभिप्रायसे किया गया है कि द्वितीयादि समयोंमें संचित होनेवाला द्रव्य गोपुच्छविशेषोंसे अधिक होता है, इसलिए उक्त दोनों कथनोंमें कोई विरोध नहीं है । इसप्रकार कौन कथन किस अभिप्रायसे किया गया है इसका पता भले ही लग जाता है तथापि इससे विरोधका परिहार नहीं होता है, क्योंकि आखिर यह प्रश्न तो बना ही रहता है कि मिथ्यादृष्टि होनेके प्रथम समयके द्रव्य और वहाँसे जाकर उद्यावलिके अन्तिम समयके द्रव्य इनमेंसे कौन कम है और कौन अधिक है ? इस शंकाका टीकामें जो समाधान किया है उसका आशय यह है कि इस विषयमें दो सम्प्रदाय पाये जाते हैं। एक सम्प्रदायके मतसे मिथ्याष्टि होनेके प्रथम समयसे लेकर उद्यावलिके अन्तिम समयमें जो द्रव्य होता है बह न्यून होता है।
और दूसरा सम्प्रदाय यह है कि मिथ्यादृष्टि होनेके प्रथम समयमें जो द्रव्य होता है वह न्यून होता है । चूर्णिसूत्रकारके सामने ये दोनों ही सम्प्रदाय रहे हैं, इसलिये उन्होंने एकका उल्लेख मिथ्यात्वके उदयसे झीनस्थितिवाले द्रव्यके जघन्य स्वामित्वको बतलाते हुए कर दिया और दूसरेका उल्लेख यहाँ किया है। सत्कर्मप्राभृत और श्वेताम्बर मान्य कर्मप्रकृति व पंचसंग्रह इनमें प्रथम मतका ही उल्लेख है। अर्थात् वहाँ मिथ्यादृष्टि होनेके प्रथम समयसे लेकर उदयावलिके अन्तिम समयमें ही जघन्य स्वामित्व बतलाया है।
६७०४. अब यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यके जघन्य स्वामित्वका कथन करते हुए पृच्छासूत्र कहते हैं
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