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________________ ४२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ संछुब्भइ । एवं च सछुढे एयसमयस चयादो दुप्पहुडि समयसचओ बहुप्रो होइ सिण तत्थ लाहो अत्थि, तदो ण तत्थ सामित्तं दाउं सकिज्जइ ति भावत्यो । ण गोवुच्छविसेसहाणिमस्सियूण पञ्चवढे यं, तत्तो विदियादिसमयसंचयस्स बहुत्तभुवगमादो। एवं चेव उदयहिदिपत्तयस्स वि जहण्णसामित्तं वत्तव्वं । गवरि एदस्स पमाणाणुगमे भण्णमाणे एयं समयपबद्धं ठविय पुणो एदस्स दिवगुणहाणिगुणयारे ठविदे विदियहिदिसव्वदव्वमागच्छइ । पणो ओकड्डिददव्वमिच्छामो त्ति ओकड्डुक्कड्डणभागहारो ठवेयव्यो। पणो वि उदीरणादव्वमिच्छिय असंखेज्जा लोगा आवलियपदुप्पण्णा भागहारसरूवेण ठवेयब्वा । एवं ठविदे पयदजहण्णसामित्तविसईकयदव्यमागच्छद। $ ७०३. एत्थ सिस्सो भणइ-उदयावलियचरिमसमए मिच्छाइडिम्मि उदयादो जहण्णझीणहिदियस्सेव पयदस्स वि जहण्णसामित्तं गेहामो, चडिददाणमेत्तगोवुच्छविस सपरिहाणिवस ण तत्थेव जहण्णत्तदसणादो । एवं णिसेयहिदिपत्तयस्स वि वत्तव्वं, अण्णहा पवावरविरोहदोसप्पसगादो ति ? ण एस दोसो, गोवुच्छविसेसेहितो विदियादिसमयसंचिददव्वबहुचाहिप्पायावलंबणेणेदस्स पयट्टत्तादो । ण स्थितिमें निक्षेप होता है। और इस प्रकार निक्षेप होनेपर एक समयके सञ्चयसे दो आदि समयोंका सञ्चय बहुत होता है, इसलिये उसमें कोई लाभ नहीं है, अतः द्वितीयादि समयोंमें स्वामित्व नहीं दिया जा सकता। यदि कहा जाय कि द्वितीयादि समयोंमें गोपुच्छविशेषकी हानि देखी जाती है, इसलिए वहाँ जघन्य स्वामित्व बन जायगा सो ऐसा निश्चय करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि गोपुच्छविशेषका जितना प्रमाण है इससे द्वितीयादि समयोंका सञ्चय बहुत स्वीकार किया है। प्रकृतमें जैसे निषेकस्थितिप्राप्तका जघन्य स्वामित्व कहा है उसी प्रकार उदयस्थितिप्राप्तके जघन्य स्वामित्वका भी कथन करना चाहिये। किन्तु इसका प्रमाण लानेकी इच्छासे एक समयप्रबद्धको स्थापित करके फिर इसका डेढ़ गुणहानिप्रमाण गुणकार स्थापित करनेपर द्वितीय स्थितिका सब द्रव्य आ जाता है। फिर अपकर्षित द्रष्य लाना है, इसलिये अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारको स्थापित करना चाहिये। फिर भी उदीरणाको प्राप्त हुए द्रव्यके लानेकी इच्छासे एक श्रावलिसे गुणित असंख्यात लोकप्रमाण भागहार स्थापित करना चाहिये। इस प्रकार स्थापित करनेपर प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विषयभूत द्रव्य श्रा जाता है। ६७०३. शंका-यहाँपर शिष्य कहता है कि जिसप्रकार उदयावलिके अन्तिम समयमें मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्वके उदयसे झीनस्थितिवाले द्रव्यका जघन्य स्वामित्व होता है उसीप्रकार प्रकृत उदयप्राप्त द्रव्यका जघन्य स्वामित्व भी उदयावलिके अन्तिम समयमें ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि उदयावलिका अन्तिम समय जितना ऊपर जाकर प्राप्त है वहाँ उतने गोपुच्छविशेषोंकी हानि हो जानेसे उदयप्राप्त द्रव्यका जघन्यपना वहींपर देखा जाता है। इसी प्रकार निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्यका भी जघन्य स्वामित्व कहना चाहिये, अन्यथा पूर्वापर विरोध दोष प्राप्त होता है ? समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि गोपुच्छविशेषोंकी अपेक्षा द्वितियादि समयों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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