SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ संबंधो कायव्यो । किमविसेसेण ? नेत्याह-णqसयवेदेण उवहिदखवयस्स पुणो वि तिम्लेव विसेसणमावलियचरिमसमयअसंलोहयस्से त्ति । जो आवलियमेत्तकालेण चरिमसमयअसंछोहओ होहिदि तस्स आवलियमेत्तगुणसेढिगोवुच्छाओ घेत्तूण सामित्तमेदं दहव्वमिदि वुत्तं होइ । * उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं तस्सेव चरिमसमयणqसयवेदक्खवयस्स । ६५२६. तस्सेव चरिमसमयणQसयवेदक्खवयभावेणावहियस्स णयुसयवेदसंबंधिपयदुक्कस्ससामित्तं होइ। सेसं सुगमं । * छण्णोकसायाणमुक्कस्सियाणि तिगिण वि झीगहिदियाणि कस्स? ५२७. सुबोहमेदं पुच्छासुत्तं । 8 गुणिदकम्मसिएण खबएण जाधे अंतरं कीरमाणं कदं तेसिं चेव कम्मसाणमुदयावलियाओ उदयवज्जाबो पुण्णाओ ताधे उक्कस्सयाणि तिरिण वि झीणहिदियाणि । ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिये। तो क्या यह स्वामित्व सामान्यसे सभी गुणितकर्माशवाले जीवोंके होता है ? नहीं होता, बस यही बतलानेके लिये 'जो नपुंसकवेदके उद्यसे आपकोणि पर चढ़ा है' यह कहा है। और फिर इसका भी विशेषण 'प्रावलियचरिमसमयअसंछोह्यस्स' दिया है । जो एक वलिप्रमाण कालके द्वारा अन्तिम समयमें अपकर्षणादि नहीं करेगा उसके एक श्रावलिप्रमाण गुणश्रोणिगोपुच्छाओंकी अपेक्षा यह स्वामित्व जानना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * तथा वही अन्तिम समयवर्ती नपुंसकवेदी क्षपक जीव उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है । ६५२६. जो अन्तिम समयमें नपुंसकवेदकी क्षपणा करता हुआ स्थित है उसीके नपुंसकवेदसम्बन्धी प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है। शेष कथन सुगम है। * छह नोकषायोंके अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ? ६ ५२७. इस पृच्छासूत्रका अर्थ समझनेके लिये सरल है। * जो गुणितकर्माशवाला क्षपक जीव अन्तरकरण करनेके बाद जब उन्हीं कर्मपरमाणुओंकी गुणश्रेणि द्वारा उदय समयके सिवा उदयावलिको भर देता है तव वह अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy