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गा० २२] सत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहु अपरूवणा
१०५ घेव परिहाणिदसणादो ति वुत्तं होदि । एदम्मि अदाणे पदेसगुणहाणिहाणंतरं गत्थि त्ति एदं कुदो परिच्छिज्जदे ? एदम्हादो चेव जिणवयणादो। न च पमाणं पमाणंतरमवेक्खदे, अणवत्थापसंगादो। ण च एदस्स पमाणतं सज्झसमं, जिणवयणतण्णहाणुववत्तीदो एदस्स पमाणभावसिद्धीदो। कथं सज्झ-साहणाणमेयत्तमिदि ण पञ्चवयं', स-परप्पयासयपदीव-पमाणादीहि परिहरिदत्तादो। तदो सत्तं पमाणत्तादो पमाणतरणिरवेक्वमिदि सिद्धं ।
* अणंताणुबंधिमाणे जहण्णपद ससतकम्ममसंखेजगुणं । ...
६२१३. एत्थ सपणंतरादीददेसामासियमुत्तेण आदिदीवयभावेण सूचिदं कारणपरूवणं भणिस्सामो । तं जहा--दिवड्डगुणाहाणिगुणिदेगेइंदियसमयपवद्धे अंतोमुहुत्तोवटिदओकड्ड क्वड्डण-अधापवत्तभागहारेहि वेछावहिअभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासिणा च चरिमफालिगुणिदेणोवट्टिदे असंखेज्जसमयपवद्धपमाणमणंताणुवंधिमाणजहण्णदव्वमागच्छदि । एदं पुण पुग्विल्लजहण्णदव्वादो असंखेज्जगुणं, तत्थ इह वुत्तासेस भागहारेसु संतेसु दीहुव्वेलणकालब्भंतरणाणागुणहाणि.
शंका-इस अध्वानमें प्रदेशगुणाहानिस्थानान्तर नहीं है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है।
समाधान--इसी जिनवचनसे जाना जाता है। और एक प्रमाण दूसरे प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि ऐसा होने पर अनवस्था दोष आता है। इसकी प्रमाणता साध्यसम है यह कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि अन्यथा वह जिनवचन नहीं बन सकता, इसलिए उसकी प्रमाणता सिद्ध है।
शंका--साध्य और साधन एक ही कैसे हो सकता है ?
समाधान-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि दीपक और प्रमाण आदिक स्व-पर प्रकाशक होते हैं, इनसे उस शंकाका परिहार हो जाता है। इसलिए सूत्र प्रमाण होनेसे प्रमाणान्तरकी अपेक्षा नहीं करता यह सिद्ध हुआ।
* उससे अनन्तानुबन्धी मानमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है ।
६२१३. यहाँ पर इससे अनन्तर पूर्व कहा गया देशामर्षक सूत्र आदिदीपक भावरूप है, इसलिए उस द्वारा सूचित होनेवाले कारणका कथन करते हैं। यथा-डेढ़ गुणहानिगुणित एकेन्द्रिय सम्बन्धी समयप्रबद्धमें अन्तमुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार, अधःप्रवृत्तभागहार और अन्तिम फालिसे गुणित दो छयासठ सागरके भीतरकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि इन सबका भाग देने पर अनन्तानुबन्धी मानका असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण जघन्य द्रव्य आता है । परन्तु यह सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य द्रव्यसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि वहाँपर यहाँ कहे गये समस्त भागहार तो हैं ही। साथ ही दीर्घ उद्वेलना
१. प्रा०प्रतौ 'पञ्चवटिठ्य' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'एदेण पुग्विल्लजहएणव्वादो' इति पाठः ।
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