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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ गुणहाणीओ संभवंति तो तासिमण्णोण्णभत्थरासी गुणसंकमभागहारेण किं सरिसी संखेजगुणा असंखेजगुणा संखेजगुणहीणा असंखेज्जगुणहीणा वा ति गणिच्छओ काउं सक्विजदि । तहा च कथमेदस्स असंखेज्जगुणतं परिछिज्जदे १ ण च तत्थ असंखेज्जाओ गुणहाणीओ पत्थि चेवे ति वोत्तु जुत्त, तदभावग्गाहयपमाणाणुवलंभादो त्ति । एवं विरुदबुदीए सिस्सेण कारणविसयाए पुच्छाए कदाए कारणपरूवणादुवारेण तस्संदेहणिरायरणहमुत्तरमुत्तमाइरिओ भणदि
__ सम्मत्त उव्वेल्लिदे सम्मामिच्छत्त जेण कालेण उव्वेल्लो दि एवम्मि काले एक पि पदेसगुणहाणिहाणंतरं णत्थि एदेण कारणेण ।
२१२. एदस्स मुत्तस्स अवयवत्थो सुगमो। एत्थ पुण पदसंबंधो एवं कायव्वो। सम्मत्ते उव्वेल्लिदे संते जेण कालेण सम्मामिच्छत्तमुव्वेल्लेदि एदम्मि काले एक्कं पि पदेसगुणहाणिहाणंतरं जेण पत्थि एदेण कारणेण सम्मत्तादो सम्मामिच्छत्तस्स असंखेजगुणतं ण विरुज्झदे इदि । जइ वि पुवमेव सम्मत्त संतकम्मे जहण्णे जादे पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तमदाणमुवरि गंतूण सम्मामिच्छत्तपदेससंतकम्मं जहण्णं जादं तो वि तदो तस्स असंखेजगुणत्तं जुज्जदे, तस्स कालस्स एगगुणहाणीए असंखे०भागत्तेण तेत्तियमेत्तमदाणं गदस्स वि थोवयरगोवुच्छाविसेसाणं भीतर असंख्यात गुणहानियाँ सम्भव होवें तो उनकी अन्योन्याभ्यस्तराशि गुणसंक्रमभागहारके क्या समान होती है या संख्यातगुणी होती है या असंख्यातगुणी होती है या संख्यातगुण हीन होती है या असंख्यातगुण हीन होती है यह निश्चय करना शक्य नहीं है और ऐसी अवस्था में इसका असंख्यातगुण होना कैसे जाना जाता है ? वहाँ असंख्यात गुणहानियाँ नहीं ही हैं ऐसा कहना युक्त नहीं है, क्योंकि उनके अभावका ग्राहक प्रमाण नहीं उपलब्ध होता। इस प्रकार विरुद्ध बुद्धिवाले शिष्यके द्वारा कारणविषयक पृच्छा करने पर कारणकी प्ररूपणा द्वारा उसके सन्देहका निराकरण करनेके लिए आचार्य आगेका सूत्र कहते हैं
* इसका कारण यह है कि सम्यक्त्वकी उद्वेलना होने पर जितने कालमें सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना होती है उस कालके भीतर एक भी प्रदेशगुहानिस्थानान्तर नहीं है।
६२१२. इस सूत्रका अवयवरूप अथ सुगम है। यहाँ पर पदसम्बन्ध इस प्रकार करना चाहिए-सम्यक्त्वकी उद्वेलना हो जाने पर जितने काल द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करता है इस कालमें यतः एक भी प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर नहीं है इस कारणसे सम्यक्त्वके द्रव्यसे सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यका असंख्यातगुणा होना विरोधको प्राप्त नहीं होता। यद्यपि सम्यक्त्वका सत्कर्म पहले ही जघन्य हो गया है और उससे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान आगे जा कर सम्यग्मिथ्यात्वका प्रदेशसत्कर्म जघन्य हा है तो भी सम्यक्त्वके व्यसे सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य असंख्यातगुणा है यह बात बन जाती है, क्योंकि वह काल एक गणहानिके असंख्यातवे भागप्रमाण है, इसलिए उतने स्थान जाकर भी बहुत थोड़े गोपुच्छाविशेषोंकी ही हानि देखी जाती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
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