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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूवणा
१०३ सम्मामिच्छत्तसमाणहिदिहिदगोवुच्छाणमेवं विसरिसत्तं १ ण, मिच्छत्तादो सम्मत्तसरूवेण परिणमंतदव्वस्स गुणसंकमभागहारादो तत्तो चेव सम्मामिच्छत्तसरूवेण संकमंतपदेसग्गगुणसंकमभागहारस्स असंखेज्जगुणहीणत्तवलंभादों। पचेदमसिद्ध', गुणसंकमपढमसमए मिच्छत्तादो जं सम्मत्त संकमदि पदेसग्गं [तं] थोवं । तम्मि चेव समए सम्मामिच्छत्ते संकमदि पदेसग्गमसंखेज्जगुणं ति मुत्तादो तस्स सिदीए । ण च भागहारविसेसमंतरेण दव्वस्स तहाभावो जुज्जदे, विरोहादो। एत्य सम्मामि० गुणसंकमभागहारोवट्टिदसम्मत्तगुणसंकमभागहारो गुणगारो । कथं पुण विसेसघादवसेण' पुव्वमेव सम्मसस्स जहण्णत्ते संते उवरि पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तदाणं गतूण पत्तजहण्णभावं सम्मामिच्छत्तपदेसग्गं तत्तो असंखेज्जगुणं, उवरुवरि एगेगगोवुच्छविसेसाणं हाणिदंसणादो । तदो ण एदस्स असंखेज्जगुणत्तं सम्ममवगमदि त्ति संदेहेण घुलमाणहिययस्स सिस्सस्स अहिप्पायमासंकिय मुत्तयारो पुच्छा. मुत्तं भणदि
* केण काणेण ?
२११. एदस्स भावत्यो जइ उवरिमसम्मामिच्छत्तुव्वेल्लणकालभंतरे असंखेजसम्यग्मिथ्यात्वकी समान स्थितियों में स्थित गोपुच्छाएं इस प्रकार विसदृश कैसे होती हैं ?
समाधान---नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वमेंसे सम्यक्त्वरूप परिणमन करनेवाले द्रव्यके गुणसंक्रम भागहारसे उसीमेंसे सम्यग्मिथ्यात्वरूप संक्रम करनेवाले प्रदेशसमूहका गुणसंक्रम भागहार असंख्यातगुणा हीन उपलब्ध होता है। और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि गुणसंक्रमके प्रथम समयमें मिथ्यात्वमेंसे जो प्रदेशसमूह सम्यक्त्वमें संक्रमणको प्राप्त होता है वह स्तोक है और उसी समयमें सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमणको प्राप्त होनेवाला प्रदेशसमूह असंख्यातगुणा है इस सूत्रसे उसकी सिद्धि होती है और भागहारविशेषके बिना द्रव्यका उस प्रकारका होना बन नहीं सकता, क्योंकि विरोध आता है।
यहाँ पर सम्यक्त्वके द्रव्यसे सम्यग्मिथ्यात्वका असंख्यातगुण द्रव्य लानेके लिए सम्यग्मिध्यात्वके गणसंक्रमभागहारसे भाजित सम्यक्त्वका गणसंक्रमभागहार गणकार है। विशेष घातके वशसे सम्यक्त्वके द्रव्यके पहले ही जघन्य हो जाने पर उससे आगे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर जघन्यपनेको प्राप्त हुआ सम्यग्मिथ्यात्वका प्रदेशसमूह उससे असंख्यातगुणा कैसे हो सकता है, क्योंकि आगे आगे उसमें एक एक गोपुच्छ विशेषोंकी हानि देखी जाती है, इसलिए इसका असंख्यातगुणा होना समीचीन नहीं प्रतीत होता इस प्रकारके सन्देहसे जिसका हृदय घुल रहा है उस शिष्यके अभिप्रायकी आशंका कर सूत्रकार पृच्छासूत्र कहते हैं
* इसका कारण क्या है ? ६ २११. इस सूत्रका भावार्थ यह है कि यदि सम्यग्मिध्यात्वके उपरिम उद्वेलन कालके १. ताप्रती 'विसेस (पाद) धादवसेण' इति पाठः ।
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