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________________ २५० जयधवलाहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ ४३८ संपहि उदयहिदीदो हेडिमारोसफम्महिदिसंचिदसमयपबद्धपदेसग्गस्स अहियारहिदीए अविसेसेण संभवविसयासंकाणिरायरणदुवारेण अवत्थुवियप्पाणं णवकबंधमस्सियूण परूवणमुत्तरमुत्ताणमवयारो । ण च एदेसि परूवणा णिरत्थिया, तप्पदुप्पायणमुहेण उकड्डणाविसए सिस्साणं णिण्णयजणणेण एदिस्से फलोवलंभादो। १ उत्कर्षणका काल---उत्कर्षण बन्धके समय ही होता है। अर्थात् जब जिस कर्मका बन्ध हो रहा हो तभी उस कर्मके सत्तामें स्थित कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण हो सकता है, अन्यका नहीं । उदाहरणार्थ-यदि कोई जीव साता प्रकृतिका बन्ध कर रहा है तो उस समय सत्तामें स्थित साता प्रकृतिके कर्मपरमाणुओंका ही उत्कर्षण होगा असाताके कर्म परमाणुओंनहीं। २ अतिस्थापना-कर्म परमाणुओंका उत्कर्षण होते समय उनका अपनेसे ऊपरकी जितनी . स्थतिमें निक्षेप नहीं होता वह अतिस्थापनारूप स्थिति कहलाती है। अव्याघात दशामें जघन्य श्रतिस्थापना एक आवलिप्रमाण और उत्कृष्ट अतिस्थापना उत्कृष्ट आबाधाप्रमाण होती है। किन्तु व्याघात दशामें जघन्य अतिस्थापना आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट अतिस्थापना एक समय कम एक आवलिप्रमाण होती है। ३ निक्षेप-उत्कर्षण होकर कर्मपरमाणुओंका जिन स्थितिविकल्पोंमें पतन होता है उनकी निक्षेप संज्ञा है। अव्याघात दशामें जघन्य निक्षेपका प्रमाण एक समय और उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण उत्कृष्ट आबाधा और एक समय अधिक एक आवलिसे न्यून सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है । तथा व्याघात दशामें जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ४ शक्तिस्थिति-बन्धके समय उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने पर अन्तिम निषेककी सबकी सब व्यक्तस्थिति होती है। आशय यह है कि अन्तिम निषेककी एक समयमात्र भी शक्तिस्थिति नहीं पाई जाती। तथा इससे उपान्त्य निषेककी एक समयमात्र शक्तिस्थिति होती है और शेष स्थिति व्यक्त रहती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक निषेक नीचे जाने पर शक्तिस्थितिका एक एक समय बढ़ता जाता है और व्यक्तस्थितिका एक एक समय घटता जाता है। इस क्रमस प्रथम निषेककी शक्तिस्थिति और व्यक्तस्थितिका विचार करने पर व्यक्तस्थिति एक समय अधिक उत्कृष्ट आबाधाप्रमाण प्राप्त होती है और इस व्यक्तिस्थितिको पूरी स्थितिमेंसे घटा देने पर जितनी स्थिति शेष रहे उतनी शक्तिस्थिति प्राप्त होती है। यह तो बन्धके समय जैसी निषेक रचना होती है उसके अनुसार विचार हुआ। किन्तु अपकर्षणसे इसमें कुछ विशेषता आ जाती हैं। बात यह है कि अपकर्षण द्वारा जिस निषेककी जितनी व्यक्तस्थिति घट जाती है उसकी उतनी शक्तिस्थिति बढ़ जाती है। यह उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा शक्तिस्थिति और व्यक्तस्थितिका विचार है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध न होने पर जितना स्थितिबन्ध कम हो उतनी अन्तिम निषेककी शक्तिस्थिति होती है और शेष निषेकोंकी इसीके अनुसार शक्तिस्थिति बढ़ती जाती है । ६४३८. अब उदयस्थितिसे नीचेकी सब कर्मस्थितियोंमें संचित हुए समयप्रबद्धों सम्बन्धी कर्म परमाणुओंके अधिकृत स्थितिमें सामान्यसे सम्भव होनेरूप आशंकाके निराकरणद्वारा नवकबन्धकी अपेक्षा अवस्तु विकल्पोंका कथन करनेके लिये आगेके सूत्र आये हैं। यदि कहा जाय कि इन विकल्पोंका कथन करना निरर्थक है सो भी बात नहीं है, क्योंकि इनके कथन करनेका यही फल है कि इससे शिष्योंको उत्कर्षणके विषयमें ठीक ठीक निर्णय करनेका अवसर मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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