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________________ गा० २२ ] पदेस वित्तीए कीणाझीणचूलियाए सामित्तं ३३५ अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णएण कम्मेण सह गदो तिपलिदो मिएस उववण्णो ति एत्थ पदसंबंधो। किमहमेसो तिपलिदोवमिएसुप्पा इदो चे ? ण, णवुंसय वेदबंध - विरहिएस सुहतिलेस्सिएस पज्जत्तकाले तब्बंधवोच्छेदं काऊणाएण विणा अधहिदीए परपयडिसकमेण च थोवयरगोबुच्छाओ गालिय अइजहण्णीकयणिरुद्ध गोवुच्छगहण ह तत्थुपायादो । तदो चेय तेण गालिदतिपलिदोवममेत्तणकुंसयवेदणिसेएण सगाउए तोमुहुतसे सम्मतं लद्धं वेदावद्विसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालिदमिदि सुत्तावयवो सुसंबद्धो । सम्मत्तपाहम्मेण बंधविरहियस्स णवुंसयवेदस्स तत्थ वेद्यावद्विसामरोवमपमाणधूलगोबुच्छाओ गालिय अइसहगोवुच्छाहिं जहण्णसामित्तविहाण्ड' तहा भमाणस्स सहलत्तदंसणादो। एत्थेव विसेसं तर परूवणह संजमासंजमं संजमं च बहुसो गदो ति सुत्तावयवस्स अवयारो। ण बहुवारं संजमा संजमादिलंभो णिरत्थओ, गुणसे विणिज्जराए णवुंसयवेदपयदणिसेयाणं णिज्जरणेण तस्स सहलतदंसणादो । किमेसो वेवसागरोवमाणमव्यंतरे चेय असई संजमा संजम - अणंताणुबंधिविसंजोयणपरियट्टणवारे करेइ आहो तत्तो पुव्यमेवेति पुच्छिदे तत्तो पुव्वमेव अभवसिद्धिय अभव्यों के योग्य जघन्य कर्मके साथ गया और तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ इस प्रकार यहाँ पदों का सम्बन्ध कर लेना चाहिये । शंका- इस जीवको तीन पल्यकी आयुवालोंमें क्यों उत्पन्न कराया है ? समाधान- नहीं, क्योंकि एक तो वहाँ नपुंसक वेदका बन्ध नहीं होता दूसरे शुभ तीन लेश्याएँ पाई जाती हैं इसलिये वहाँ पर्याप्त कालमें नपुंसकवेदकी बन्ध व्युच्छित्ति कराकर आायके बिना अधःस्थितिके द्वारा और परप्रकृति संक्रमणके द्वारा स्तोकतर गोपुच्छाओं को गलाकर विवक्षित कर्मके प्रति जघन्य गोपुच्छा प्राप्त करनेके लिये इस जीवको तीन पल्की आयु वालों में उत्पन्न कराया है । तदन्तर तीन पल्य प्रमाण नपुंसकवेदके निषेकोंको गलाकर जब आयु में अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है तब सम्यक्त्वको ग्रहण कर उसने दो छयासठ सागर काल तक उसका पालन किया। इस प्रकार सूत्रके पद सुसंबद्ध हैं । फिर सम्यक्त्व के प्रभावसे वहाँ बन्धरहित नपुंसक वेद के दो छयासठ सागरप्रमाण स्थूल गोपुच्छाओंको गलाकर अतिसूक्ष्म गोपुच्छाओंके द्वारा जघन्य स्वामित्वको प्राप्त करनेके लिये इस प्रकारके परिभ्रमण कराने में लाभ देखा जाता है। तथा इसीमें विशेष अन्तरका कथन करनेके लिये 'संयमासंयम और संयमको बहुत बार प्राप्त हुआ' सूत्रके इस हिस्सेकी रचना हुई है । संयमासंयम आदिका बहुत बार प्राप्त करना निरर्थक भी नहीं है, क्योंकि गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा नपुंसकवेदके प्रकृत निषेकोंकी निर्जरा हो जानेसे उसकी सफलता देखी जाती है । शंका- क्या यह दो छयासठ सागर कालके भीतर ही अनेक बार संयमासंयम और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना के परिवर्तन वारोंको करता है या इससे पहले ही ? समाधान – दो छयासठ सागर कालको प्राप्त होनेके पूर्व ही जब यह जीव अभव्यों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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