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________________ ४३४ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ पचद्धमेत्त से सदय्यमसंखेज्जाओ गुणहाणीओ गालिय पच्छा मिच्छतं गंतॄणावाहाचरिमसमए समयपबद्धस्स असंखेज्जभागमेत्तं होतॄण जहाणिसेय सरूवेण जहण्णयं होदिति । $ ७१०. एदस्स भागहारपमाणानुगमं वत्तइस्सामो । तं जहा – एयं समयपबद्धं वि पुणो एदस्स संखेज्जावलियगुणगारे ठविंदे असण्णिपंचिदिएसु देवेसु च उववज्जिय तोमुहुत्तमेत्तकालं करिय संचयदव्वं होइ । पुणो एदस्स वेळावद्विसागरोवमव्यंतरणाणागुणहाणिं विरलिय विंगं करिय अण्णोष्णव्भत्थरासिम्मि भागहारे ठविदे गलिदाव से सदव्वमागच्छइ । पुणो एदमहियारगोबुच्छपमाणेण कीरमाणं दिवडगुणहाणिमेत्तं होइ त्ति दिवगुणहाणिभागहारे उविदे अहियारगोबुच्छमागच्छइ । इमं वेळा द्विसागरोवमकालं सव्वमोकडणाए णासेइ सि । पुणो वि ओकड्डुकड्डणभागहारवेति भागा या मेणुष्पाइदणाणागुणहाणि विरलिय विगं करिय अण्णोण्णव्भासणिप्पण्णासं खेज्जलोगमेत्तरासिम्मि भागहारसरूवेण हिदे प्रोकडिदसेसं जहाणिसेय - सरूवमहिया रहिदिदव्वमा गच्छइ । एवमागच्छ ति कट्टु वेळावद्विसागरोवमणाणागुणहाणिसला गाणमण्णोष्णव्भत्थरासी दिवडुगुणहाणी असंखेज्जलोगा च अण्णोष्णपदुष्पणा संखेज्जावलियोवट्टिदा समयपबद्धस्स भागहारो भागलद्धं च पयदजहण्णसामित्तविसकयं दव्वं होइ । यह जो एक समयप्रबद्धप्रमाण द्रव्य शेष रहा है सो उसमें से भी असंख्यात गुणहानियोंको गलाकर अनन्तर मिध्यात्व में जाकर आबाधा के अन्तिम समय में जो एक समयप्रबद्धका असंख्यातवाँ भाग शेष रहता है वही यथानिषेक जघन्य द्रव्य है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । $ ७१०. अब इसके भागहार के प्रमाणका विचार करते हैं। यथा- एक समयबद्धको स्थापित करके फिर इसके संख्यात आवलिप्रमाण गुणकारके स्थापित करनेपर संज्ञी पंचेन्द्रियों और देवोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर जितने द्रव्यका संचय होता है उसका प्रमाण आता है। फिर इसकी दो छयासठ सागरके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओं को विरलन करके और दूना करके परस्पर गुणा करने से जो राशि उत्पन्न हो उसे उक्त राशिके भागहाररूप से स्थापित करने पर गलकर शेष बचे हुये द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है । फिर इसके अधिकृत गोपुच्छाके बराबर हिस्से करनेपर वे डेढ़ गुणहानिप्रमाण प्राप्त होते हैं, इसलिए डेढ़ गुणहानिको भागहार स्थापित करनेपर अधिकृत गोपुच्छा प्राप्त होती है । दो छयासठ सागर कालतक अपकर्षणके द्वारा इसका भी नाश होता रहता है, इसलिये फिर भी अपकर्षण- उत्कर्षण भागहारके दो बटे तीन भाग के भीतर जितनी नाना गुणहानियाँ प्राप्त हों उनका विरलन करके और दूना करके परस्पर गुणा करनेसे उत्पन्न हुई असंख्यात लोकप्रमाण राशिको भागहाररूपसे स्थापित करनेपर अपकर्षण होनेके बाद शेष बचा हुआ यथानिषेकरूप अधिकृत स्थितिका द्रव्य आता है । इस प्रकार अधिकृत स्थितिका द्रव्य प्राप्त होता है ऐसा मानकर दो छयासठ सागरके भीतर प्राप्त हुई नाना गुहा निशलाका अन्योन्याभ्यस्त राशि डेढ़ गुणहानि और असंख्यात लोक इनको परस्पर गुणा करके जो उत्पन्न हो उसमें संख्यात आवलियों का भाग देनेपर जो लब्ध आवे वह एक समय बा भागहार होता है और इस भागहारका एक समयप्रबद्ध में भाग देनेपर जो लव्य आवे उतना प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विषयभूत द्रव्य होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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