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________________ गा० २२ ] उत्तरपयडिपदेसविहन्तीए सण्णियासपरूवणा णियमा अजह० असंखे० भाग०भ० | पंचणोक० णियमा तं तु वेद्वाणपदिदा अनंतभाग०भ० असंखे ० भागब्भहि० । एवं पंचणोकसायाणं । 0 $ १०३. आदेसेण णेरइएसु मिच्छ० जह० पदेसविहत्तिओ सम्म० सम्मामि० णियमा अज० असंखे ० गुणब्भहिया । बारसक०णवणोक० णियमा अज० असंखे भागभहिया । इत्थि - णवुंसयवेदाणं होदु णाम असंखे० भागव्भहियतं, मिच्छत्तं गंतूण पडिवक्खबंधगद्धाए चरिमसमयम्मिं जहण्णसंतकम्मत्तवलंभादो | ण सेसकम्माणं, तेत्तीस सागरोत्रमे पंचिंदियजोगेण एइंदियजोगं पेक्खिदूण असंखे० गुणेण संचिदत्तादो त्ति ? ण एस दोसो, खविदकम्मं सियजद्दण्णदव्वं पेक्खिदूण गुणिदकम्मंसियभुजगारकालम्मि संचिददव्यस्स असंखे ०गुणहीणत्तादो । एदं कुदो नव्वदे ! एदम्हादो चेव सण्यासादो | एवं संते जहण्णदव्वादो उकस्सदव्यमसंखे०गुणं ति भणिदवेयणा चुण्णित्तेहि विरोहो होदि त्ति ण पच्चवद्वे यं, भिण्णोवएसत्तादो । सम्म० जह० लोभसंज्वलनकी नियमसे अजघन्य प्रदेशबिभक्ति होती हैं जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है । पाँच नोकषायोंकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है या अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है । यदि जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है -या तो अनन्त भाग अधिक होती है या श्रसंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार पाँच नोकषायों की मुख्यतासे सम्निकर्ष जानना चाहिए । $ १०३. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिबाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातगुणी अधिक होती है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है । शंका - स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अजघन्य प्रदेशविभक्ति असंख्यातवें भाग अधिक हो, क्योंकि मिथ्यात्वमें जाकर प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धक कालके अन्तिम समय में जघन्य सत्कर्म उपलब्ध होता है । परन्तु शेष कर्मों की अजघन्य प्रदेशविभक्ति असंख्यातवें भाग अधिक नहीं हो सकती, क्योंकि तेतीस सागरकी युवाले जीवोंमें एकेन्द्रिय जीवके योगको देखते हुए असंख्यातगुणे पचन्द्रिय जीवके योगद्वारा उनका द्रव्य सञ्चित होता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि क्षपितकर्माशिक जीवके जघन्य द्रव्यको देखते हुए गुणितकर्माशिक जीवके भुजगार कालके भीतर सचित हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा हीन होता है। शंका – यह किस प्रमाणसे जाना जाता है । समाधान -- इसी सन्निकर्षसे जाना जाता है । शंका- ऐसा होने पर जघन्य द्रव्यसे उत्कृष्ट द्रव्य असंख्यातगुणा होता है ऐसा कथन करनेवाले वेदना चूर्णिसूत्रों के साथ विरोध आता है ? समाधान - ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह भिन्न उपदेश है । १. ता० प्रतौ 'पडिवरच रिमसमयम्मि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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