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________________ जयधक्लासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ गलिदासंखेजगुणहाणित्तादो।गुणिदकम्मंसियउक्कड्डिदमिच्छत्तदव्वे जहासरूवेण सम्मत्तसम्मामिच्छत्तेसु संकते असंखे०भागहीणं किण्ण जायदे ! ण, सम्मादिहिओकड्डणाए थूलीफयहेडिमगोवुच्छासु असंखे गुणहाणिमेत्तासु गलिदासु असंखे० गुणहाणिदंसणादो। एवं पढमाए। विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्म० उक्क० पदे०विहत्तिगो मिच्छ ०-सोलसक०-णवणोक० . णियमा अणुक० असंखे०भागहीणा । सम्मामि० णियमा उक० । एवं सम्मामि।। ६७. तिरिक्ख०--पंचिंदियतिरिक्ख--पंचि०तिरि०पज्जत्त० देवगदीए देव० सोहम्मादि जाव उवरिमगेवजा त्ति रइयभंगो। पंचिंदियतिरिक्वजोणिणीसु विदियपुढविभंगो । एवं भवण०--वाण.--जोदिसियाणं । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तभंगो। गवरि सम्म० उक्क० पदेसविहत्ति० सम्मामि० तं तु वेहाणपदिदं अणंतभागहीणं असंखे०भागहीणं । सेसपदा णियमा अणुक्क० असंखे०देवोंमें असंख्यात गुणहानियाँ गल जाती हैं। शंका--गुणितकमांशिक जीवके द्वारा मिथ्यात्वके द्रव्यका उत्कर्षण करके और उसे उसी रूपमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त कर देने पर इनका द्रव्य असंख्यातभाग हीन क्यों नहीं होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके अपकर्षणके द्वारा अधस्तन गोपुच्छाओंके स्थूल हो जानेसे असंख्यात गुणहानियोंके गल जाने पर असंख्यातगुणहानि देखी जाती है। ___ इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिये। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातभाग हीन होती है। इसके सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यतासे सन्निकर्षे जानना चाहिए। विशेषार्थ-सामान्यसे नारकियोंमें और पहली पृथिवीमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनमें सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके समय मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका सत्त्व नहीं होनेसे उनका सन्निकर्ष नहीं कहा। परन्तु द्वितीयादि पृथिवियोंमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते, इसलिए वहाँ सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके समय सबका सत्त्व स्वीकार किया है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ६७. तियञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त, देवगतिमें सामान्य देव और सौधर्म कल्पसे लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है । पञ्चन्द्रियतिर्यश्च योनिनियोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए । पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवके सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट ,प्रदेशविभक्ति भी होती है और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति भी होती है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्तभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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