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________________ ३४५ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं एदस्स चेव जाणावणहमिदमाह-तदो विकड्डिदाओ द्विदीओ ति । सव्वेसि कम्माणं हिदीओ मिच्छत्तसहगदतिव्ययरसंकिलेसवसेण सम्मादिहिबंधादो वियडिदाओ वि दूरमक्खिविय पबद्धाओ संतहिदीओ च णिरुद्धहिदीए सह वट्टमाणाओ दूरयरमुक्कड्डिय मिक्खित्ताओ ति वुत्तं होइ । तप्पाओग्गसव्वरहस्साए मिच्छत्तद्धाए एत्य सव्वरहस्सग्गहणेण ओघजहण्णमिच्छत्तकालस्स गहणं पसज्जइ ति तप्पडिसेहह तप्पाअोग्गविसेसणं कदं। एईदियुप्पत्तिप्पाओग्गसव्वजहण्णमिच्छत्तकालेणे ति भणिदं होइ। एवमेत्तिएण कालेण उक्कड्डणाए उक्कस्सहिदिबंधाविणाभाविणीए वावदो पयदगोवुच्छं सण्हीकरिय एईदिएसु उववण्णो, अण्णहा अइजहण्णणqसयवेदोदयासंभवादो । एत्थुद्देसे वि पयदोवजोगिपयत्तविसेसपदुप्पायणमाह-तत्थ वि तप्पाओग्गउक्कस्सयं संकिलेसं गदो त्ति । तत्थ वि उक्कस्सयसंकिलेसं किमिदि णीदो ? उदीरणाबहुत्तणिरायरण। ५६६. एवमेत्तिएण लक्खणेणोवलक्खियस्स तस्स पढमसमयएइंदियस्स णqसयवेदसंबंधी जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं होइ । एत्थ विदियसमयप्पहुडि उवरि गोवुच्छविसेसहाणिवसेण जहण्णसामित्तं गेण्हामो सि भणिदे ण तहा घेप्पड़, कम होती है इसलिये ऐसा स्वीकार किया गया है। इस प्रकार इसी बातके जतानेके लिये 'तदो विकड्डिदाओ द्विदीओ' यह सूत्रवचन कहा है। मिथ्यात्वके साथ प्राप्त हुए अति तीव्र संक्लेशरूप परिणामोंके कारण सब कर्मों की स्थितियोंको सम्यग्दृष्टिके बन्धसे बढ़ाकर अर्थात् बहुत दूर निक्षेप करके बाँधा और विवक्षित स्थितिके साथ जो सत्कर्मकी स्थितियां विद्यमान हैं उन्हें बहुत दूर उत्कर्षित करके निक्षिप्त किया यह उक्त सूत्रवचनका तात्पर्य है। तप्पाओग्गसव्वरहस्साए मिच्छत्तद्धाए' इस सूत्रवचनमें जो 'सव्वरहस्स' पदका ग्रहण किया है सो इससे ओघ जघन्य मिथ्यात्वके कालका ग्रहण प्राप्त होता है, इसलिये उसका निषेध करनेके लिये 'तत्प्रायोग्य' विशेषण दिया। इससे यहाँ एकेन्द्रियोंमें उत्पत्तिके योग्य सबसे जघन्य काल विवक्षित है यह तात्पर्य निकलता है । इस प्रकार इतने कालके द्वारा उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अविनाभावी उत्कर्षणमें लगा हुआ उक्त जीव प्रकृत गोपुच्छाको सूक्ष्म करके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ, अन्यथा अत्यन्त जघन्य नपुंसकवेदका उदय नहीं बन सकता है। इस प्रकार एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर भी उक्त जीव प्रकृतमें उपयोगी पड़नेवाले जिस प्रयत्नविशेषको करता है उसका कथन करनेके लिये 'तत्थ वि तप्पाओग्गउक्कस्सयं संकिलेसं गदो' यह सूत्रवचन कहा है। शंका-- एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर भी इस जीवको उत्कृष्ट संक्लेश क्यों प्राप्त कराया गया ? समाधान-जिससे इसके बहुत उदीरणा न हो सके, इसलिये इसे उत्कृष्ट संक्लेश प्राप्त कराया गया है। ६५६६. इस प्रकार इतने लक्षणोंसे उपलक्षित प्रथम समयवर्ती वह एकेन्द्रिय जीव नपुंसकवेदके उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका स्वामी होता है। यहाँ पर कितने ही लोग दूसरे समयसे लेकर ऊपर गोपुच्छविशेषकी हानि होनेके कारण जघन्य स्वामित्वको ग्रहण ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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