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________________ उत्तरपयडिपदे सविहत्तीए अप्पा बहुअपरूपणा गा० २२ ] सामित्तचरिमसमए द्विदजीवम्मि मिच्छत्तपदेसग्गं पलिदोवमस्स असंखे० भागमेत्तगुणसंकमभागहारेण खंडिय तत्थ एयखंडस्स सम्मामिच्छत्तसरूवेण परिणदस्सुवलंभादो । * अपचक्खाणमाणे उक्कस्स पदेस संत कम्ममसं खेज्जगुणं' । १५२. सत्तमतुढविणेरइयचरिमसमए सयलदिवडुगुणहाणिमेत समयपबद्धाणमुलं भादो । को गुणगारो : सव्वजहण्णगुणसंकमभागहारो । * कोधे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । $ १५३. सुगमं । * मायाए उकस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । $ १५४. सुगमं । ॐ लोभे उकस्सपदेस संतकम्मं विसेसाहियौं । $ १५५. सुगममेदं, पयडिविसेसमेत्तकारणत्तादो । * पच्चक्खाणमाणे उक्कस्सपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १५६. केत्तियमेत्तेण १ अपच्चक्खाणलोभउकस्सपदेस संतकम्मे आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदे तत्थेयखंडमेतेण । कुदो ? सहावदो ! जो जीव स्वामित्व अन्तिम समयमें स्थित है उसके मिथ्यात्व के प्रदेशों में पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणसंक्रम भागहारका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे वह सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे परिणत हो जाता है । * उससे प्रत्याख्यान मानमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है । १५२. क्योंकि सातवीं पृथिवीके नारकीके अन्तिम समय में समस्त द्रव्य डेढ़ गुणहानिगुणित समयबद्धप्रमाण उपलब्ध होता है । गुणकार क्या है ? सबसे जघन्य गुणसंक्रमभागहार गुणकार है । * उससे अप्रत्याख्यान क्रोधमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ १५३. यह सूत्र सुगम है । * उससे अप्रत्याख्यान मायामें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । $ १५४. यह सूत्र सुगम है । ८३ * उससे अप्रत्याख्यान लोभमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । $ १५५. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इसका कारण प्रकृति विशेष है । * उससे प्रत्याख्यान मानमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है । $ १५६. कितना अधिक है ? अप्रत्याख्यान लोभके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म में आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना अधिक है, क्योंकि ऐसा स्वभाव है । १. ता०प्रतौ ' - संतकम्मं संखेजगुणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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