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________________ गा०२२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूपणा १२७ रासीए उक्कड्डणभागहारपदुप्पणाए असंखेजगुणहीणत्तावलंबणेण पयददोसपरिहारो समंजसो, तत्तो तिस्से असंखेजगुणत्तपदुप्पाययउवरिमप्पाबहुअदंडएण सह विरोहप्पसंगादो। वेलावहिसागरोवमणाणागुणहाणिसलागाणं पि तत्थ तत्तो भसखेजगुणतुवलंभादो उव्वेल्लणकालणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासीदो वि तस्सासंखेज्जगुणहीणत्तस्साणंतरमेव परूविदत्तादो च । तम्हा सामित्ताहिप्पारणेवंविहेण हेछ वरि णिवदेयव्वमेदेणप्पाबहुएण ? तहाभुवगमो जुज्जंतओ, मुत्तेणेदेण सह विरोहादो। ण चेदमण्णहा काउं सक्किज्जइ, जिणाणमणण्णहावाइत्तादो। तदो ण पुव्वुत्तमणंताणुबंधिजहण्णसामित्तगुणगारो वा घडतओ त्ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-- सच्चमेवेदं जइ सामित्तं तहाविहमेत्थ जहणतणावलंबियं, तत्थ समणंतरपरूविददोसस्स परिहरेउमसक्कियत्तादो । किं तु अणंताणुबंधीणं पि मिच्छत्तस्सेव वेछावहीओ भमाडिय जहण्णसामित्तविहाणेण पयददोसपरिहारो दहव्वो, तस्स गिरवज्जत्तादो। ण एत्थ वि पुवपरूविददोसो आसंकणिज्जो, वयाणुसारिआयावलंबणेण तस्स परिहारादो। ण संजुत्तावत्थाए वि एस पसंगो, तदण्णत्थ एवं विहणियमभुवगमादो भमिदवेछावहिअसंख्यातगुणी हीन होती है, अतः इस बातका अवलम्बन लेनेसे प्रकृत दोषका परिहार बन जायगा सो उसका ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक तो इस कथनका उससे अर्थात् अधःप्रवृत्तभागहारसे उसे अर्थात् दो छयासठ सागर कालके भीतर प्राप्त हुई अन्योन्याभ्यस्त राशिको असंख्यातगुणा उत्पन्न करनेवाले उपरिम अल्पबहुत्वदण्डकके साथ विरोधका प्रसङ्ग आता है, दूसरे वहाँ पर दो छयासठ सागर कालके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाऐं भी उससे असंख्यातगुणी, उपलब्ध होती हैं, तीसरे उद्वेलन कालके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे भी वह अधःप्रवृत्तभागहार असंख्यातगुणा हीन होता है यह अनन्तर पूर्व ही कह आये हैं, इसलिए स्वामित्वके अभिप्रायके अनुसार इस अल्पबहुत्वको इस प्रकार अर्थात् हमारे द्वारा बतलाई गई विधिके अनुसार आगे पीछे रखना चाहिए । परन्तु वैसा मानना युक्त नहीं है, क्योंकि इस सूत्रके साथ विरोध आता है और इस सूत्रको अन्यथा कर नहीं सकते, क्योंकि जिनेन्द्रदेव अन्यथावादी नहीं होते। इसलिए अनन्तानुबन्धीके जघन्य स्वामित्वका पूर्वोक्त गुणकार घटित नहीं हाता ? । समाधान-अब यहाँ पर इस शंकाका परिहार करते हैं-यह सत्य ही है यदि उस प्रकारके.जघन्य स्वामित्वका यहाँ पर अवलम्बन किया जावे, क्योंकि उस प्रकारसे जघन्य स्वामित्वके अवलम्बन करने पर अनन्तर पूर्व कहे गये दोषका परिहार करना अशक्य है। किन्तु मिथ्यात्वके समान ही दो छयासठ सागर कालके भीतर परिभ्रमण कराकर अनन्तानुबन्धियोंके जघन्य स्वामित्वका विधान करनेसे प्रकृत दोषका परिहार जान लेना चाहिए, क्योंकि यह कथन निर्दोष है। यदि कोई यहाँ पर भी पहले कहे गये दोषकी आशंका करे तो उसका ऐसा करना ठीक नहीं है, क्योंकि व्ययके अनुसार आयका अवलम्बन करनेसे उसका परिहार हो जाता है। संयुक्तावस्थामें भी यही प्रसङ्ग श्राता है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि एक तो उस १. 'ता०प्रतौ पदुप्पाइय उवरिम' इति पाठः । २. ताप्रती 'ण तस्थ वि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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