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________________ १४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ २०. देवगदीए देवेसु मिच्छ०-बारसक०-सत्तणोक० उक्क० पदे. जहण्णुक्क० एग० । अणुक्क० जह० दसवस्ससहस्साणि समऊणाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरो० । एवं सम्मत्त-सम्मामि-अर्णताणु० चउक्काणं । णवरि अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० तं चेव । एवं पुरिस-णउंसयवेदाणं । णवरि अणुक्क० ज० दसवस्ससहस्साणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि। २१. भवण-वाण-जोइसि० छव्वीसं पयडीणमुक्क० पदे० जहण्णुक्क० इसका उत्कृष्ट काल कायस्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। मात्र इनमें सम्यक्त्वका उद्वेलना और क्षपणाकी अपेक्षा तथा सम्याग्मिथ्यात्वका उद्वेलनाकी अपेक्षा, अनन्तानुबन्धीचतुष्कका संयोजना होकर सासादन गुणस्थानके साथ विवक्षित पर्यायमें एक समय रहनेकी अपेक्षा और स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके बाद एक समय तक अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति के साथ विवक्षित पोयमें रहनेकी अपेक्षा उक्त प्रकातियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय बन जाने से वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा चार संज्वलन और पुरुषवेदकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त जो ओघसे घटित करके बतला आये हैं वह मनुष्यत्रिकमें सम्भव है, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। २०. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्त्र और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल वही है । पुरुषवेद और नपुंसकवेदका काल भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। विशेषार्थ-देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और सात नोकषायकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति गुणित कौशिक जीवके यहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें होती है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम दस हजार वष कहा है। उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है यह स्पष्ट ही है। शेष प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल तो यही है। मात्र जघन्य कालमें अन्तर है। सम्यक्त्वका उद्वेलना और क्षपणाकी अपेक्षा, सम्यग्मिथ्यात्व का उद्वेलनाकी अपेक्षा और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका संयोजना होकर सासादन गुणस्थानके साथ एक समय विवक्षित पर्यायमें रहनेकी अपेक्षा एक समय काल बन जाता है, इसलिए यहाँ इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति पल्योपमकी स्थितिवाले देवोंके अन्तिम समयमें होती है, इससे कम स्थितिवालेके नहीं, इसलिए तो इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल पूरा दस हजार वर्ष कहा है और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति ऐशान कल्पमें होती है, इसलिए इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका भी जघन्य काल पूरा दस हजार वर्ष कहा है। १२१. भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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