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________________ १७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहीत्ती ५ तिरिक्खो सम्मत्तं पडिवण्णो जाधे गुणसंकमेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि पूरेयूण से काले वि.झादं पडिहिदि त्ति ताधे तस्स उक्कस्सिया वड्डी। हाणी वि सम्मामिच्छत्तस्स विज्झादे पदिदस्स पढमसमए कायव्वा । सम्पत्तस्स उक्कस्सिया हाणी ओघं । अणंताणु०४ वडी अवहाणं च मिच्छत्तभंगो। उक. हाणी कस्स ? अण्णद. गुणिदकम्मंसियस्स अणंताणुबंधी विसंजोनेंतस्स अपच्छिमे हिदिखंडए संकामिदे तस्स उक्क० हाणी । बारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछा० वड्डी अवहाणं मिच्छत्तभंगो। णवरि पुरिस० अवहाणं सम्माइहिस्स कायव्वं । उक्कस्सिया हाणी णेरइयभंगो। इत्थिणqस०-चदुणोक. उक० वड्डी मिच्छत्तभंगो। उक्कस्सिया हाणी परिसवेदभंगो। एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । गवरि जोणिणीसु सम्म०-बारसक०-णवणोक. उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० गुणिदकम्मंसियस्स संजम-संजमासंजम-सम्मत्तगुणसेढीओ कादूण तदो अविणहासु गुणसेढीसु मिच्छत्तं गंतूण जोणिणीसु उववण्णो जाधे गुणसेढिसीसयाणि उदयमागदाणि ताधे तस्स उक्क० हाणी । ३४७. पंचि०तिरिक्ख०अपज्ज० मिच्छत्त--सोलसक०-भय--दुगुंछा० उक्क० बड्डी कस्स १ अण्णद० खविदकम्मंसियस्स जो विवरीदं गंतूण पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु उववण्णो अंतोमुहुत्तेण उक्कस्सजोगं गदो उक्कस्सयं च संकिलेसं पडिवण्णो तस्स उक्क० वड्डी । तस्सेव से काले उकस्सयमवहाणं । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० तिर्यश्च जीव सम्यक्त्वको प्राप्त हो जब गुणसंक्रमके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको पूरकर अनन्तर समयमें विध्यातको प्राप्त करेगा तब उसके इनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। हानि भी सम्यग्मिथ्यात्वकी विध्यातको प्राप्त हुए तिर्यञ्चके प्रथम समयमें करनी चाहिए। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानिका भङ्ग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी , उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवाला जो अन्यतर गुणितकांशिक जीव अन्तिम स्थितिकाण्डकका संक्रमण करता है उसके इनकी उत्कृष्ट हानि होती है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदका अवस्थान पद सम्यग्दृष्टिके करना चाहिए। इनकी उत्कृष्ट हानिका भङ्ग नारकियोंके समान है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धिका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। तथा इनकी उत्कृष्ट हानिका भङ्ग पुरुषवेदके समान है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तियश्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि योनिनीतियश्चोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकांशिक जीव संयम, संयमासंयम और सम्यक्त्वकी गुणश्रेणियाँ करके अनन्तर गुणिश्रेणियोंके नष्ट हुए बिना मिथ्यात्वमें जाकर योनिनी तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न हुआ। वह उसके जब गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त हुए तब उसके इनकी उत्कृष्ट हानि होती है। ६३४७. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर गुणितकमांशिक जीव विपरीत जाकर पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हो अन्तर्मुहूर्तमें उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ उसके इनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। तथा उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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