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________________ ८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ भागतणेण त्योवयराणं चेव सव्वघादिसरूवेण परिणमणमसिद्ध, भागाभागपरूवणाए तहा परूवियत्तादो । तदो देसघादिपाहम्मेण पुव्विल्लादो एदस्साणंतगुणत्तमिदि सिद्धं । को गुण ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिदाणमणंतभागमेत्तो । * रदीए उक्कस्लपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । १६४. सुबोहमेदं मुत्तं, पयडिविसेसमेत्तकारणत्तादो । * इत्थिवेदे उक्कसपदेससंतकम्म संखेजगुण । ६ १६५. कुदो ? गुणिदकम्मसियलक्खणेणागंतूण असंखेज्जवस्साउएमु इत्थिवेदपदेससंतकम्मं गुणेदूण अगदिकागदिण्णाएण दसवस्ससहस्साउअदेवेमुप्पज्जिय तसहिदीए समत्ताए एइंदिएमु सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय तिरीयण्णाएण पंचिंदिएसुववज्जिय गिरयाउअं बंधिसूण गेरइएमुप्पण्णपढमसमए वट्टमाणम्मि इत्थिवेदुक्कस्सपदेससामियणेरइयम्मि ओघपरूविदबंधगद्धामाहप्पमस्सियूण कुरवेसु लदओघुक्कस्सपदेससंतकम्मादो किंचूणस्स पयडित्थिवेदुक्कस्सदव्वस्स रदीए संखेज्जगुणहीणबंधगद्धासंचिदुक्कस्ससंतकम्मादो संखेजगुणत्तं पडि विरोहाभावादो । ण च अवंतराले गढदव्वं पेक्खिदूण तस्स तहाभावविरोहो आसंकणिजो, असंखे० भागतणेण तस्स पाहणियाभागरूपसे स्तोक परमाणुओंका ही सर्वघातिरूपसे परिणमन होता है यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि भागभागप्ररूपणमें उस प्रकार कथन कर आये हैं। इसलिए देशघातिकी प्रधानता होनेसे पूर्वोक्त प्रकृतिसे यह अनन्तगुणी है यह बात सिद्ध है। गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है। * उससे रतिमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। $ १६४. यह सूत्र सुबोध है, क्योंकि इसका कारण प्रकृतिविशेष है। * उससे स्त्रीवेदमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म संख्यातगुणा है । ६ १६५. क्योंकि जो गुणितकाशविधिसे आकर असंख्यात वर्षकी आयुवाले जीवोंमें उत्पन्न होकर और स्त्रीवेदके प्रदेशसत्कर्मको गुणित करके अगतिका गति न्यायके अनुसार दस हजार वर्षकी युवाले देवोंमें उत्पन्न होकर तथा त्रसस्थितिके समाप्त होने पर एकेन्द्रियोंमें सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर नान्तरीय न्यायके अनुसार पञ्चन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर और नरकायुका बन्ध करके नारकियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म करके स्थित है उसके यद्यपि ओघमें कहे गये बन्धक कालके माहात्म्यके अनुसार देवकुरु और उत्तरकुरुमें प्राप्त हुए ओघ उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे कुछ कम द्रव्य पाया जाता है फिर भी प्रकृति स्त्रीवेदका उत्कृष्ट द्रव्यके रतिके संख्यातगुणे हीन बन्धक कालके भीतर सञ्चित हुए उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे संख्यातगुणे होनेमें कोई विरोध नहीं आता। यदि कोई ऐसी आशंका करे कि जिस स्थलमें ओघ उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त होता है उस स्थलसे लेकर यहाँ तकके अन्तरालमें नष्ट हुए द्रव्यको देखते हुए उसका तत्प्रमाण होनमें विरोध आता है सो उसकी ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अन्तरालमें जो द्रव्य नष्ट होता है वह कुल द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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