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________________ २६१ गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए परूवणा आवलियाए समयूणाए ऊणियाए पायाहाए एवडिमाए हिदीए जं पदेसग्गं तस्स के वियप्पा । ४४८. पुव्वमावलियाए ऊणिया जा आवाहा तिस्से चरिमहिदीए पदेसग्गमवहिं काऊण हेहिमासेसहिदीणं वियप्पा परूविदा । संपहि तदणंतरउवरिमाए हिदीए आवलियाए समयूणाए अणिया जा आवाहा एवडिमाए जं पदेसग्गं तस्स के वियप्पा होति ? ण ताव पुव्वुत्ता चेव णिरवसेसा, तेसि हेहिमाणंतरहिदीए मज्जादाभावेण परूविदत्तादो। ण च तेसिमेत्थ वि संभवे तहा परूवणं सफलं होदि, विप्पडिसेहादो। अह अण्णे, के ते ? ण तेसिं सरूवं जाणामो त्ति एसो एदस्स . . ... H N " को विवक्षित करनेसे प्राप्त हो सकते हैं यह बात यहाँ बतलाई गई है। बात यह है कि एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिमें कितनी स्थितियोंके कर्मपरमाणु सम्भव हैं और कितनी स्थितियोंके नहीं। तथा इस स्थितिके किन कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण हो सकता है और किनका नहीं यह जैसे पहले बतलाया है वैसे ही एक आवलिकम आबाधाके भीतर सब स्थितियोंमें सामान्यसे वही क्रम बन जाता है, इसलिये इस सब कथनको सामान्यसे एक समान कहा है। किन्तु विवक्षित स्थिति उत्तर त्तर आगे आगेकी होती जानेके कारण अवस्तु विकल्प एक एक बढ़ता जाता है और झीनस्थितिविकल्प एक एक कम होता जाता है। तथा अतिस्थापना भी घटती जाती है। जब समयाधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिके कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण विवक्षित था तब अतिस्थापना समयाधिक प्रावलिसे न्यून आबाधाकाल प्रमाण थी । जब दो समय अधिक उद्यावलिकी अन्तिम स्थितिके कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण विवक्षित हुआ तब प्रतिस्थापना दो समय अधिक एक आवलिसे न्यून आबाधाकाल प्रमाण रही। इसी प्रकार आगे आगे अतिस्थापनामें एक एक समय कम होता जाता है। यहाँ इतना विशेष और जानना चाहिए कि जिस हिसाबसे अतिस्थापना कम होती जाती है उसी हिसाबसे शक्तिस्थिति भी घटती जाती है। अब देखना यह है कि यही क्रम आवलिकम आवाधासे आगेकी स्थितियों का क्यों नहीं बतलाया। टीकाकारने इस प्रश्नका यह उत्तर दिया है कि प्रावलिकम आबाधासे आगेकी स्थितियोंमें स्थित कर्मपरमाणुओंका उत्कर्पण होने पर प्रतिस्थापना निश्चितरूपसे एक आवलि प्राप्त होती है। यही कारण है कि प्रावलिकम आबाधासे आगेकी स्थितियोंका क्रम भिन्न प्रकारसे बतलाया है। * एक समय कम एक आवलिसे न्यून आबाधाप्रमाण स्थितिमें जो कर्मपरमाणु पाये जाते हैं उनके कितने विकल्प होते हैं। १४४८. पहले आवलिकम आबाधाकी अन्तिम स्थितिके कर्मपरमाणुओंकी मर्यादा करके पूर्वकी सब स्थितियोंके विकल्प कहे। अब यह बतलाना है कि उससे आगेकी जो एक समय कम एक आवलिसे न्यून आबाधा है और उसमें जो कर्मपरमाणु हैं उनके कितने विकल्प होते हैं ? यदि कहा जाय कि पूर्वोक्त सब विकल्प होते हैं सो तो बात है नहीं, क्योंकि वे सब विकल्प इससे अनन्तरवर्ती पूर्वकी स्थिति तक ही कहे हैं। अब यदि उनको यहाँ भी सम्भव मानकर इस प्रकारके कथनको सफल कहा जाय सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा कथन करना निषिद्ध है। अब यदि अन्य विकल्प होते हैं तो वे कौन हैं, क्योंकि हम उनके स्वरूपको नहीं Jain Education International - For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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