Book Title: Anekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 --------------------------------------------------------------------------  Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 निकाल प्रधान सम्पादक-६० जुगलकिशोर मुख्तार - - - SIK मम्पादक-मण्डल पण्डित दरबारीलाल न्यायाचार्य कोठिया पण्डित अयोध्याप्रसाद 'गोयलीय' इम मण्डल में एक दो विद्वानोके नाम अभी और शामित दोनेको हैं। स्वीकृति । मिलगपर उनको प्रकट किया जायगा। sunda i n SARARAMBI E विषय-गदी १-समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने (युक्त्यनुशासन)-[सम्पादक) २-रत्नकरण्डके कर्तृत्वविषयमें मेरा विचार और निर्णय-सम्पादक ३-श्राप्तमीमांसा और रत्नकरण्डका भिन्नकर्तृत्व-डा०हीरालाल जैन एम.ए०] ४-जैन कालोनी और मेरा विचार पत्र-[जुगलकिशोर मुख्तार ५-न्यायकी उपयोगिता-[पं० दरबारीलाल कोठिया] ६-स्व० मोहनलाल दलीचन्द देसाई-[भंवरलाल नाहटा, ७-आचार्यकल्प पं० टोडरमल्ल जी-[पं० परमानन्द जैन शास्त्री। ८-समन्तभद्रभाष्य-५० दरबारीलाल कोठिया) -समयसारक' महानता-[पूज्य कानजी स्वामी] १०-शंका समाधान-[२० दरबारीलाल कोठिया ११-विविध १२-साहित्य परिचय और समालोचन जनवरी १९४८ SNE Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तकी नई व्यवस्था और नया प्रायोजन श्राज पाठकोंको यह जानकर बड़ी प्रसन्नता होगी, का प्रधान श्रेय गोयलीयजीको ही प्राप्त है। गोयलीकि अब उन्हें अनेकान्तके समय पर प्रकाशित न होने- यजीने मंत्रीकी हैसियतसे ज्ञानपीठकी सारी जिम्मेदाजैसी किसी शिकायतका अवसर नहीं मिलेगा। साथ रियों और पत्रसम्बन्धी व्यवस्थाओंको अपने ऊपर ही पत्र भी अधिक उन्नत अवस्थाको प्राप्त होगा क्योंकि ले लिया है। वे एक उत्साही नवयुवक हैं, अपनी धुन दानवीर साह शान्तिप्रसादजीने अब उसे अपनी सर- के पक्के हैं, अच्छे लेखक हैं और समाजके शुर्भाचपरस्ती में लेलिया है और अपनी संस्था भारतीयज्ञान- न्तक ही नहीं किन्तु उसके ददको भी अपने हृदय में पीठ काशीके साथ उसका सम्बन्ध जोड़ दिया है। इस लिये हए हैं। उनके इस सक्रिय सहयोग और साहू वर्षके शुरूसे ही पत्रके सम्पादन-विभागकी जिम्मेदारी शान्तिप्रसाद जीकी सार्थक सरपरस्तीसे मुझे अनेकान्तवीर-सेवा-मन्दिर के ऊपर रहेगी, जिसके लिये एक का भविष्य अब उज्जवल ही मालूम होता है, वह सम्पादक-मण्डलकी भी योजना हो गई है. और जरूर समय पर निकला करेगा और शीघ्र हीर शेष पत्रके प्रकाशन, संचालन एवं आर्थिक आयोजन उच्चकोटि के आदशेपत्रका रूप धारण करके लोक आदिकीसारी जिम्मेदारी ज्ञानपीठके ऊपर होगी। साहू गौरवान्वित होगा ऐसी मेरी दृढ़ प्राशा है और उसके जी अनेकान्तको जीवनमें स्फूर्तिदायक महत्त्वके लेखोस साथ भावना भी है। इस आयोजनसे पत्र के प्रकाशन परिपूर्ण ही नहीं, किन्तु सुरुचिपूर्ण छपाई श्रादिसे भी और आर्थिक प्रायोजनादि सम्बन्धी कितनी ही चिश्राकक बने हुए एक ऐसे श्रादर्श पत्रके रूपमें देखना न्ताओंसे मै मुक्त हो जाऊँगा और उसके द्वारा मेरी चाहते हैं जो नियमित रूपसे समय पर प्रकाशित होता जिस शक्तिका संरक्षण होगा वह दूसरे संकल्पित रहे। इसके लिये विशेष प्रायोजन हो रहा है। सत्कार्यो में लगसकेगी इसके लिये मै गोयलीय जी और भाई अयोध्याप्रसादजी गोयलीय, जो अनेकान्तके साह साहब दोनोंका ही हृदयसे आभारी। जन्मकालसे ही उसके (तीन वपतक) प्रकाशक तथा ऐसी स्थिति में अब पत्र बराबर समयपर (हर व्यवस्थापक रहे हैं और जिनके समय में अनेकान्तने महीने के अन्त में) प्रकाशित हुआ करेगा यह प्राय: काफी उन्नप्ति की है और यह समय पर बराबर निक- सुनिश्चित है। और अब उसमे अधिकांश लेख विद्वानों लता रहा है, आजकल ज्ञानपीठ के मंत्री हैं, अनेकान्त के उपयोगके ही नहीं रहेगें बल्कि सर्वसाधारणोपयोगी से हार्दिक प्रेम रखते हुए भी कुछ परिस्थितियोंके वश लेखोंकी ओर भी यथेष्ट ध्यान दिया जायेगा, जिससे पिछले कई वर्षसे वे उसमें कोई सक्रिय सहयोग नहीं यह पत्र सभीके लिये उपयोगी-सिद्ध हो मके। दे रहे थे; परन्तु उसी प्रेमके कारण उन्हें अनेकान्तका अत: विद्वानोंसे सानुरोध निवेदन है कि वे अब अपने समय पर न निकलना और विशेष प्रगति न करना लेखोंको शीघ्र ही भेजनेकी कृपा किया करें जिससे बराबर अखर रहा था। और इस लिये उस सम्बन्ध समय पर उनका प्रकाशन हो सके। में मुझसे मिलकर बातें करने के लिये वे जनवरीके नये वर्षकी यह प्रथम किरण पाठकोंके पास वी० शुरूमेंही (ता०५ को) वीरसेवामन्दिर में पधारे थे, उन पी० से नहीं भेजी जा रही है जिसके भेजे जाने की से अनेकान्तके सम्बन्धमें काफी चर्चा हुई और उसे अ- पिछली किरणमें सूचना की गई थीअाशा है इस किरण धिक लोकप्रिय एवं व्यापक बनानेकी योजनापर विचार को पानेके बाद ग्राहकजन शीघ्र ही अपने अपने किया गया। अन्तको मेरी स्वीकृति लेने के बाद वे चन्देके )रु० मनीआर्डरसे भेजनेकी कृपा करेंगे और बनारसमें साहशान्तिप्रसाद जीसे भी साक्षात मिले हैं। इस तरह वीरसेवामन्दिरको अगली किरण वी० पी० और उनकी पूर्ण स्वीकृति लेकर अनेकान्तकी उस नई से भेजने की मंझटसे बचाकर आभारके पात्र बनेगें व्यवस्था एवं योजनाके करने में सफल हुए हैं जिसका और समयपर किरणको प्राप्त कर सकेंगे। उपर उल्लेख किया गया है। अत: इस सारे आयोजन -जुगलकिशोर मुख्तार Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम स्ततत्त्व-सपातक 000 स्वतत्त्व-प्रकाशक वार्षिक मूल्य ५) एक किरणका मूल्य ) ) नीतिविरोधकसीलोकव्यवहारवर्तकःसम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥ जनवरी वर्ष किरण १ वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा जि० सहारनपुर पौष, वीरनिर्वाण-संवत् २४७३, विक्रम संवत् २००४ - समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने युक्त्यनुशासन अवाच्यमित्यत्र च वाच्यभावादवाच्यमेवेत्ययथाप्रतिज्ञम् । स्वरूपतश्चेत्पररूपवाचि स्वरूपवाचीति वचो विरुद्धम् ॥२६॥ ('अशेष तत्त्व सर्वथा श्रवाच्य है ऐसीएकान्त मान्यता होने पर) तत्त्व अवाच्य ही है ऐसा कहना अयथाप्रतिज्ञ-प्रतिज्ञाके विरुद्ध-होजाता है, क्योंकि 'अवाच्य' इस पदमें ही वाच्यका भाव है- वह किसी बातको बतलाता है, तब तत्त्व सर्वथा अवाच्य न रहा। यदि यह कहा जाय कि तत्त्व स्वरूपसे अवाच्य ही है तो 'सर्व वचन स्वरूपवाची है' यह कथन प्रतिज्ञाके विरुद्ध पड़ता है। और यदि यह कहा जाय कि पररूपसे तत्त्व अवाच्य ही है तो 'सर्ववचन पररूपवाची है। यह कथन प्रतिज्ञाके विरुद्ध ठहरता है।' [इस तरह तत्त्व न तो भावमात्र है, न अभावमात्र है, न उभयमात्र है, और न सर्वथा अवाच्य है, इन चारों मिथ्याप्रवादीका यहां तक निरसन किया गया है। इसी निरसनके सामर्थ्यसे सदवाच्यादि शेष मिथ्याप्रवादांका भी निरसन हो जाता है। अर्थात न्यायकी समानतासे यह फलित होता है किन तो सर्वथा सदवाच्य तत्त्व है, न असदवाच्य, न उभयाऽवाच्य और न अनुभयाऽवाच्य।] Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष सत्याऽनृतं वाऽप्यनृताऽनृतं वाऽप्यस्तीह किं वस्त्वतिशायनेन । युक्तं प्रतिद्वन्द्यनुबन्धि-मिश्रन वस्तु तादृक् त्वदृते जिनेदृक् ॥३०॥ 'कोई वचन सत्याऽनृत ही है, जो प्रतिद्वन्द्वीसे मिश्र है- जैसे शाखा पर चन्द्रमाको देखो, जिसमें 'चन्द्रमाको देखो' तो सत्य है और "शाखा पर' यह वचन विसंवादी होनेसे असत्य है-; दूसरा कोई वचन अनताऽनत ही है, जो अनुबन्धिसे मिश्र है - जैसे पर्वत पर चन्द्रयुगलको देखो, जिसमें 'चन्द्रयुगल' वचन जिस तरह असत्य है उसी तरह 'पर्वत पर' यह वचन भी विसंवादि-ज्ञानपूर्वक होनेसे असत्य है । इस प्रकार हे वीर जिन ! आप स्याद्वादीके विना वस्तुके अतिशायनसे - सवेथा प्रकारसे अभिधेयके निर्देश द्वारा- प्रवर्तमान जो वचन है वह क्या युक्त है ? - युक्त नहीं है । (क्योंकि) स्याद्वादसे शून्य प्रकारका अनेकान्त वास्तविक नहीं है-वह सवेथा एकान्त है और सवथा एकान्त अवस्तु होता है। सह-क्रमाद्वा विषयाऽल्प-भूरि-भेदेऽनृतं भेदि न चाऽऽत्मभेदात् । आत्मान्तरं स्याद्भिदुर समं च स्याचाऽनृतात्माऽनभिलाप्यता च ॥३१॥ 'विषय (अभिधेय) का अल्प-भूरि भेद-अल्पाऽनल्प विकल्प-होनेपर अनृत (असत्य) भेदवान् होता है, जैसे जिस वचनमें अभिधेय अल्प असत्य और अधिक सत्य हो उसे 'सत्याऽनृत' कहते हैं, इसमें सत्य-विशेषणसे अनृतको भेदवान् प्रतिपादित किया जाता है। और जिस बचनका अभिधेय अल्प सत्य और अधिक असत्य हो उसे 'अनृताऽनृत' कहते हैं, इसमें अनृत विशेषणसे अनृतको भेदरूप प्रतिपादित किया जाता है। प्रात्मभेदसे अनृत भेदवान् नहीं होता- क्योंकि सामान्य अनृतात्माके द्वारा भेद घटित नहीं होता। अनृतका जो आत्मान्तर आत्मविशेष लक्षण-है वह भेद-स्वभावको लिये हुए है-विशेपणके भेदसे, और सम (अभेद) स्वभावको लिये हुए है-विशेषणभेदके अभावसे । साथ ही ('च' शब्दसे) उभयस्वभावको लिये हुए है-हेतुद्वयके अर्पणाक्रमको अपेक्षा। (इसके सिवाय) अनृतात्मा अनभिलाप्यता (अवक्तव्यता) को प्राप्त है-एक साथ दोनों धर्मोका कहा जाना शक्य न होने के कारण; और (द्वितीय 'च' शब्दके प्रयोगसे) भेदि अनभिलाप्य, अभेदि-अनभिलाप्य और उभय (भेदाऽभेदि) अनभिलाप्यरूप भी वह हैअपने अपने हेतुको अपेक्षा। इसतरह अनृतात्मा अनेकान्तदृष्टिसे भेदाऽभेदकी सप्तभङ्गीको लिये हुए है। न सच्च नाऽसच्च न दृष्टमेकमात्मान्तरं सर्व-निषेध-गम्यम् । दृष्टं शिमिश्र तदुपाधि-भेदात्स्वमेऽपि नैतत्त्वषः परेषाम् ॥३२॥ 'तत्त्व न तो सन्मात्र–सत्ताद्वैतरूप-है और न असन्मात्र–सर्वथा अभावरूप-है; क्योंकि परस्पर निरपेक्ष सत्तत्त्व और असत्तत्त्व दिखाई नहीं पड़ता किसी भी प्रमाणसे उपलब्धि न होनेके कारण उसका होना असम्भव है। इसी तरह (सत. असत्. एक, अनेकादि) सर्वधर्मों के निषेधका विषयभूत कोई एक आत्मान्तरपरमब्रह्म-तत्त्वभी नहीं देखा जाता-उसका भी होना असम्भव है। हां, सत्वाऽसत्वसे विमिश्र परस्पराऽपेक्षरूप तत्त्व जरूर देखा जाता है और वह उपाधिके-स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप तथा परद्रव्य-क्षेत्र-कालभावरूप विशेषणोंके भेदसे है अर्थात सम्पूर्णतत्त्व स्यात् सनुरूप ही है, स्वरूपादिचतुष्टयकी अपेक्षाः स्यात् असदरूप ही है, पररूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा; स्यात उभयरूप ही है, स्व-पररूपादिचतुष्टय-द्वय के क्रमापणाकी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने अपेक्षा स्यात् अवाच्यरूप ही है, स्व-पररूपादि चतुष्टयद्वयके सहापणकी अपेक्षाः स्यात्सदवाच्यरूप है, स्वरूपादि-चतुष्टयकी अपेक्षा तथा युगपत्स्व-पर-स्वरूपादिचतुष्टयके कथनकी अशक्तिकी अपेक्षा स्यात् असदवाच्य रूप ही है, पररूपादि-चतुष्टयको अपेक्षा तथा स्व पररूपादि चतुष्टयोंके युगपत् कहनेकी अशक्तिकी अपेक्षा और स्यात सदसदवाच्यरूप है, क्रमार्पित स्वपररूपादि-चतुष्टय-द्वयकी अपेक्षा तथा सहार्पित उक्त चतुष्टयद्वय की अपेक्षा। इस तरह सत् असत् श्रादिरूपविमिश्रित तत्त्व देखा जाता है और इसलिये हे वीर जिन ! वस्तुके अतिशायनसे (सर्वथा निर्देश द्वारा) किश्चित् सत्यानृतरूप और किश्चिन असत्याऽनृतरूप वचन आपके ही युक्त है। आप ऋपिराजसे भिन्न जो दूसरे सर्वथा सत् श्रादि एकान्तवादी हैं उनके यह वचन अथवा इस रूप तत्त्व स्वप्नमें भी सम्भव नहीं है।' (यदि यह कहाजाय कि निर्विकल्पकप्रत्यक्ष निरंश वस्तुका प्रतिभासी ही है, धर्मि-धर्मात्मकरूप जो सांश वस्तु है उसका प्रतिभासी नहीं-उसका प्रतिभासी वह सविकल्पक ज्ञान है जो निर्विकल्पक प्रत्यक्षके अनन्तर उत्पन्न होता है। क्योंकि उसीसे यह धर्मी है यह धर्म है ऐसे धर्मि-धर्म-व्यवहारकी प्रवृत्ति पाई जाती है। अत: सकल कल्पनाओंसे रहित प्रत्यक्षके द्वारा निरंश स्वलक्षणका जो प्रदर्शन बतलाया जाता है वह असिद्ध है. तब ऐसे असिद्ध श्रदर्शन साधनसे उस निरंश वस्तुका अभाव कैसे सिद्ध किया जासकता है? बौद्धौके इस प्रश्नको लेकर प्राचार्यमहोदय अगली कारिफाको अवतरित करते हुए कहते हैं-) प्रत्यक्ष-निर्देशवदप्यसिद्धमकल्पकं ज्ञापयितुं ह्यशक्यम् । विना च सिद्ध नै च लक्षणार्थो न तावक-द्वेषिणि वीर ! सत्यम् ॥३३॥ 'जो प्रत्यक्ष के द्वारा निर्देशको प्राप्त (निर्दिष्ट होनेवाला) हो-प्रत्यक्ष ज्ञानसे देखकर 'यह नीलादिक है। इस प्रकार के वचन-विना ही अंगुलीसे जिसका प्रदर्शन किया जाता हो-ऐसा तत्त्वभी असिद्ध है; क्योंकि जो प्रत्यक्ष अकल्पक है-सभी कल्पनाओंसे रहित निर्विकल्पक है-वह दूसरोंको (संशयित विनेयों अथवा संदिग्ध व्यक्तियोंको) तत्त्वके बतलाने-दिखलाने में किसी तरह भी समर्थ नहीं होता है। (इसके सिवाय) निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी प्रसिद्ध है; क्योंकि (किसी भी प्रमाणके द्वारा) उसका ज्ञापन अशक्य है-प्रत्यक्षप्रमाणसे तो वह इस लिये ज्ञापित नहीं किया जा सकता क्योंकि वह पर प्रत्यक्षके द्वारा असंवेद्य है। और अनुमान प्रमाणके द्वारा भी उसका ज्ञापन नहीं बनता; क्योंकि उस प्रत्यक्षके साथ अधिनाभावी लिङ्ग (साधन) का ज्ञान असंभव है-दूसरे लोग जिन्हें लिङ्ग-लिङ्गीके सम्बन्धका ग्रहण नहीं हुआ उन्हें अनुमानके द्वारा उसे कैसे बतलाया जा सकता है ? नहीं बतलाया जा सकता। और जो स्वयं प्रतिपन्न है-निर्विकल्पफ प्रत्यक्ष तथा उसके अविनाभावी लिङ्गको जानता है-उसको निर्विकल्पक प्रत्यक्षका ज्ञापन करानेके लिये अनुमान निरर्थक है। समारोपादिकी-भ्रमोत्पत्ति और अनुमानके द्वारा उसके व्यवच्छेदकी बात कहकर उसे सार्थक सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि साध्य-साधनके सम्बन्धसे जो स्वयं अभिज्ञ है उसके तो समारोपका होना ही असंभव है और जो अभिज्ञ नहीं है उसके साध्य साधन सम्बन्धका ग्रहण ही सम्भव नहीं है, और इसलिये गृहीतकी विस्मृति जैसी कोई बात नहीं बन सकती। इस तरह अकल्पक प्रत्यक्षका कोई ज्ञापक न होनेसे उसकी व्यवस्था नहीं बनती; तब उसकी सिद्धि कैसे हो सकती है ? और जब उसकी ही सिद्धि नहीं तब उसके द्वारा निर्दिष्ट होनेवाले निरंश वस्तुतत्त्वकी सिद्धि तो कैसे बन सकती है? नहीं बन सकती। अत: दोनों ही प्रसिद्ध टटरते हैं। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्षे प्रत्यक्षकी सिद्धिके विना उसका लक्षणार्थ भी नहीं बन सकता-'जो ज्ञान कल्पनासे रहित है वह प्रत्यक्ष है। ('प्रत्यक्ष कल्पनापोढम्' 'कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम') ऐसा बौद्धोंके द्वारा किये गये प्रत्यक्ष-लक्षणका जो अर्थ प्रत्यक्षका बोध कराना है वह भी घटित नहीं हो सकता। अतः हे वीर भगवन् ! आपके अनेका. न्तात्मक स्याद्वादशासनका जो द्वषो है-सर्वथा सत् आदिरूप एकान्तवाद है-उसमें सत्य घटित नहीं होताएकान्ततः सत्यको सिद्ध नहीं किया जा सकता।' . कालान्तरस्थे क्षणिके ध्र वे वाऽपृथक्पृथक्त्वाऽवचनीयतायाम् । विकारहाने ने च कर्तृ कार्य वृथा श्रमोऽयं जिन ! विद्विषां ते ॥३४॥ ‘पदार्थके कालान्तरस्थायी होने पर-जन्मकालसे अन्यकाल में ज्योंका त्यों अपरिणामीरूपसे अवस्थित रहने पर-, चाहे वह अभिन्न हो भिन्न हो या अनिर्वचनीय हो, कर्ता और कार्य दोनों भी उसी प्रकार नहीं बन सकते जिस प्रकार कि पदार्थके सर्वथा क्षणिक अथवा ध्रव (नित्य) होने पर नहीं बनते१; क्योंकि तब विकारकी निवृत्ति होती है- विकार परिणामको कहते हैं, जो स्वयं अवस्थित द्रव्यके पूर्वाकारके परित्याग, स्वरूपके अत्याग और उत्तरोत्तराकारके उत्पादरूप होता है। विकारकी निवृत्ति क्रम और अक्रमको निवृत्त करती है। क्योंकि क्रम अक्रमकी विकारके साथ व्याप्ति (अविनाभाव सम्बन्धकी प्राप्ति) है। क्रम-अक्रमकी निवृत्ति क्रियाको निवृत करती है, क्योंकि क्रियाके साथ उनकी व्याप्ति है। का अभाव होने पर कोई कर्त्ता नहीं बनताः क्योंकि क्रियाधिष्ट स्वतंत्र व्यके ही कर्तृत्वकी सिद्धि होती है। और कर्ताके अभावमें कार्य नहीं बन सकता-स्वयं समीहित स्वर्गाऽपर्वगादिरूप किसी भी कार्यको सिद्धि नहीं हो सकती। (अत:) हे वीर जिन! आपके द्वेषियोंका- आपके अनेकान्तात्मक स्याद्वादशासनसे द्वेष रखनेवाले (बौद्ध, वैशेषिक, नैय्यायिक, सांख्य आदि) सर्वथा एकान्तवादियोंका- यह श्रमस्वर्गाऽपवर्गादिकी प्राप्तिके लिये किया गया यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि आदि रूप संपूर्ण दृश्यमान तपोलक्षण प्रयास-व्यर्थ है-उससे सिद्धान्तत: कुछ भी साध्यकी सिद्धि नहीं बन सकती। [यहां तकके इस सब कथन-द्वारा प्राचार्य महोदय स्वामी समन्तभद्रने अन्य सब प्रधान प्रधान मतोंको सदोष सिद्ध करके 'समन्तदोषं मतमन्यदीयम' इस आठवों कारिकागत अपने वाक्यको समर्थित किया है। साथ हो, 'त्वदीयं मप्तमद्वितीयम्' (श्रापका मत-शासन अद्वितीय है) इस छठी कारिकागत अपने मन्तव्यको प्रकाशित किया है। और इन दोनोंके द्वारा 'त्वमेव महान इतीयत्प्रतिवक्तुमीशाः वयम' ('आप ही महान हैं' इतना बतलानेके लिये हम समर्थ हैं) इस चतुर्थ कारिकागत अपनी प्रतिज्ञाको सिद्ध किया है। १ देखो, इसी ग्रन्थकी कारिका ८, १२, अादि तथा देवागमकी कारिका ३७, ४१ श्रादि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तत्व-विषयमें मेरा विकार और निर्णय [सम्पादकीय ] रत्नकरण्डश्रावकाचारके कर्तृत्व-विपयकी वर्तमान इसमें संदेह नहीं कि दोनों विद्वानोंने प्रकृत विषयको चर्चाको उठे हुए चारवप हो चुके-प्रोफेसर हीरालाल सुलझाने में काफी दिलचस्पीसे काम लिया है और जी एम० ए० ने 'जन इतिहासका एक विलुप्र अध्याय' उनके अन्वेषणात्मक परिश्रम एवं विवेचनात्मक नामक निबन्धमें इसे उठाया था. जो जनवरी सन प्रयत्नके फलस्वरूप कितनी ही नई बातें पाठकों के १६४४ में होनेवाले अखिल भारतवर्षीय प्राच्य सम्मे- सामने आई हैं। अच्छा होता यदि प्रोफेसर साहब लनके १२वें अधिवेशनपर बनारसमें पढ़ा गया था। न्यायाचार्यजोके पिछले लेग्वकी नवोद्भावित युक्तियां उस निबन्धमें प्रो० सा० ने, अनेक प्रस्तुत प्रमाणांसे का उत्तर देते हुए अपनी लेखमालाका उपसंहार करते, पुष्ट होती हुई प्रचलित मान्यताके विरुद्ध अपने नये जिससे पाठकोंको यह जाननेका अवसर मिलता कि मतकी घोपणा करते हुए, यह बतलाया था कि 'रत्न- प्रोफेसर साहब उन विशेप युक्तियोंके सम्बन्धमें भी करण्ड उन्ही ग्रन्थकार (स्वामी समन्तभद्र) की रचना क्या कुछ कहना चाहते हैं । हो सकता है कि प्रो० सा० कदापि नहीं हो सकती जिन्होंने प्राप्तमीमांसा लिखी के सामने उन युक्तियोंके सम्बन्धमें अपनी पिछली थी; क्योंकि उसके 'क्षुत्पिपासा' नामक पद्यमें दोषका बातोंके पिष्टपेपणके सिवाय अन्य कुछ विशेष एवं जो स्वरूप समझाया गया है वह प्राप्तमीमांमाकारके समुचित कहने के लिये अवशिष्ट न हो और इसीलिये अभिपायानुसार हो ही नहीं सकता।' साथ ही यह भी उन्होंने उनके "उत्तरमें न पड़कर अपनी उन चार सुझाया था कि इम ग्रन्धका का रत्नमालाके कर्ता आपत्तियोंको ही स्थिर घोषित करना उचित सममा शिवकोटिका गुरु भी हो सकता है। इसी घोषणाके हो, जिन्हें उन्होंने अपने पिछले लेख (अनेकान्त वर्ष प्रतिवादरूपमें न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठिया - किरण ३) के अन्तमें अपनी युक्तियोंके उपसंहारने जुलाई सन १६४४ में 'क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार रूपमें प्रकट किया था। और सम्भवत: इसी बातको स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है' नामका एक लेख दृष्टिमें रखते हए उन्होंने अपने वर्तमान लेखमें निम्न लिखकर अनेकान्त में इस चर्चाका प्रारम्भ किया था पाक्याँका प्रयोग किया हो: और तबसे यह चर्चा दोनों विद्वानोंके उत्तर प्रत्युत्तर- "इस विषयपर मेरे 'जैन इतिहासका एक विलुप्त रूपमें बराबर चली आ रही है। कोठियाजीने अपनी अध्याय' शीर्षक निबन्धसे लगाकर अभी तक मेरे और लेग्यमालाका उपसंहार अनेकान्तकी गतकिरण १०.११ पं० दरबारीलालजी कोठियाके छह लेख प्रकाशित हो में किया और प्रोफेसर साहब अपनी लेग्वमालाका चुके हैं, जिनमें उपलब्ध साधक-बाधक प्रमाणोंका उपसंहार इसी किरणमें अन्यत्र प्रकाशित 'रत्नकरण्ड विवेचन किया जा चुका है। अब कोई नई बात और आप्तमीमांसाका भिन्नकर्तृत्व' लेग्वमें कर रहे हैं। मन्मुख आनेकी अपेक्षा पिष्टपेषण ही अधिक होना दोनों ही पक्षके लेखामें यद्यपि कहीं कहीं कुछ पिष्ट- प्रारम्भ हो गया है और मौलिकता केवल कटु शब्दों के पेपण तथा खींचतानसे भी काम लिया गया है और प्रयोगमें शेष रह गई है।" एक दुसरेके प्रति आक्षेपपरक भापाका भी प्रयोग हुआ (आपत्तियांके पुनरुल्लेखानन्तर) "इस प्रकार है, जिससे कुछ कटुताको अवसर मिला। यह सब रत्नकरण्डश्रावकाचार और आप्तमीमांसाके एक कर्तृत्व यदि न हो पाता तो ज्यादह अच्छा रहता। फिर भी के विरुद्व पूर्वोक्त चारों आपत्तियां ज्योकी त्यों आज भी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ६ खड़ी हैं, और जो कुछ ऊहापोह अब तक हुई है उससे होना स्वाभाविक है, प्रधानता लेकर ही मै इस लेखके वे और भी प्रबल व अकाट्य सिद्ध होती हैं।" लिखने में प्रवृत्त हो रहा हूं। कुछ भी हो और दूसरे कुछ ही समझते रहें, सबसे पहले मैं अपने पाठकोंको यह बतला देना परन्तु इतना स्पष्ट है कि प्रो० साहब अपनी उक्त चार चाहता हूं कि प्रस्तुत चर्चाके वादी-प्रतिवादी रूपमें श्रापत्तियोंमेंसे किसीका भी अब तक समाधान अथवा स्थित दोनों विद्वानांके लेखांका निमित्त पाकर मेरी समुचित प्रतिवाद हुआ नहीं मानते, बल्कि वर्तमान प्रवृत्ति रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यपर सविशेषरूपसे ऊहापोहके फलस्वरूप उन्हें वे और भी प्रबल एवं विचार करने एवं उसकी स्थितिको जांचनेकी ओर हुई अकाट्य समझने लगे हैं। अस्तु । .. और उसके फलस्वरूप ही मुझे वह दृष्टि प्राप्त हुई जिसे अपने वर्तमान लेखमें प्रो० साहबने मेरे दो पत्रों ___ मैंने अपने उस पत्र में व्यक्त किया है जो कुछ विद्वानों और मझे भेजे हए अपने एक पत्रको उद्धृत किया है को उनका विचार मालुम करने के लिये भेजा गया था इन पत्रांको प्रकाशित देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई- और जिसे प्रोफेसर साहबने विशेष महत्वपूर्ण एवं उनमें से किसीके भी प्रकाशनसे मेरे ऋद्ध होने जैसी निर्णयाथ आवश्यक समझकर अपने वर्तमान लेखमें तो कोई बात ही नहीं हो सकती थी, जिसकी प्रोफेसर साहबने अपने लेखमें कल्पना की है। क्योंकि उद्धृत किया है। विद्वानोंको उक्त पत्रका भेजा जाना उनमें प्राइवेट जैसी कोई बात नहीं है, मै तो स्वयं ही प्रोफेसर साहबकी प्रथम आपत्तिके परिहारका कोई उन्हें 'समीचीनधर्मशास्त्र की अपनी प्रस्तावनामें खास प्रयत्न नहीं था, जैसा कि प्रो० साहबने समझा खास प्रयत्न नहा था, प्रकाशित करना चाहता था-चुनांचे लेखके साथ है बल्कि उसका प्रधान लक्ष्य अपने लिये इस बातका भेजे हुए पत्रके उत्तरमें भी मैंने प्रो० साहबको इस निर्णय करना था कि 'समीचीन धर्मशास्त्र में जो कि बातकी सूचना कर दी थी। मेरे प्रथम पत्रको, जो कि प्रकाशनके लिये प्रस्तुत है, उसके प्रति किस प्रकारका रत्नकरण्डके 'क्षुत्पिपासा' नामक छठे पद्य के संबन्धमें व्यवहार किया जाय-उसे मूलका अङ्ग मान लिया उसके ग्रन्थका मौलिक अङ्ग होने-न होने-विषयक जाय या प्रक्षिप्त। क्योंकि रत्नकरण्डमें 'उत्सन्नदोष गम्भीर प्रश्रको लिये हुए है, उद्धृत करते हुए प्रोफेसर प्राप्त'के लक्षणरूपमें उसकी स्थितिके स्पष्ट होनेपर साहबने उसे अपनी "प्रथम आपत्तिके परिहारका एक अथवा 'प्रकीत्यते के स्थानपर 'प्रदोषमुक' जैसे किसी विशेष प्रयत्न" बतलाया है, उसमें जो प्रश्न उठाया है पाठका आविर्भाव होनेपर में आप्तमीमांसाके साथ उसे बहुत ही महत्वपूर्ण' तथा 'रत्नकरण्डके कर्तृत्व- उसका कोई विरोध नहीं देखता है। और इसी लिये विषयसे बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध रखनेवाला घोषित किया तत्सम्बन्धी अपने निर्णयादिको उस समय पत्रों में है और 'तीनों ही पत्रोंको अपने लेख में प्रस्तुत करना प्रकाशित करने की कोई जरूरत नहीं समझी गई, वह वर्तमान विषय के निर्णयार्थ अत्यन्त आवश्यक सूचित सब समीचीनधर्मशास्त्रकी अपनी प्रतावनाके लिये किया है। साथ ही मुझसे यह जानना चाहा है कि सुरक्षित रक्खा गया था। हां, यह बात दूसरो है मैंने अपने प्रथम पत्रके उत्तर में प्राप्त विद्वानोंक पत्रों कि उक्त. 'क्षुत्पिपामा' नामक पदाके प्रतित होने अथवा आदिके आधारपर उक्त पद्यके विषय में मुलका अङ्ग मल ग्रन्थका वास्तविक अङ्ग सिद्ध न होनपर होने न-होनेको बाबत और समूचे ग्रन्थ (रत्नकरण्ड) साहबकी प्रकृत चर्चाका मूलाधार ही समाप्त हो जाता के कतृत्व विषय में क्या कुछ निर्णय किया है। इसी है; क्योंकि रत्नकरण्डके इम एक पद्यको लेकर ही जिज्ञासाको, जिसका प्रो० मा० के शब्दों में प्रकृत उन्होंने प्राप्तमीमांसागत दोष-स्वरूपके साथ उसके विषयसे रचि रखनेवाले दमरे हृदयों में भी उत्पन्न विरोधकी कल्पना करके दोनों ग्रन्थोंके भिन्न कतै वकी Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] रत्नकरण्डके कर्तत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय चर्चाको उठाया था-शेष तीन आपत्तियां तो उसमें करता है। रही सर्वज्ञता, उसके सम्बन्धमें कुछ नहीं बादको पुष्टि प्रदान करने के लिये शामिल होती रही कहा है इसका कारण यह जान पड़ता है कि प्राप्त हैं। और इस दृष्टिसे प्रोफेसर साहबने मेरे उस मीमांसामें उसकी पृथक विस्तारसे चर्चा की है इसलिये पत्र-प्रेषणादिको यदि अपनी प्रथम आपत्तिके परिहार- उसके सम्बन्धमें कुछ नहीं कहा। श्लोक ६ में यद्यपि का एक विशेष प्रयत्न समम लिया है तो वह स्वाभा. सब दोप नहीं आते, किन्तु दोषोंकी संख्या प्राचीन विक है, उसके लिये में उन्हें कोई दोष नहीं देता। मैंने परम्परामें कितनी थी यह खोजना चाहिये। शोककी अपनी दृष्टि और स्थितिका स्पष्टीकरण कर दिया है। शब्दरचना भी समन्तभद्रके अनुकूल है, अभी और मेरा उक्त पत्र जिन विद्वानोंको भेजा गया था। विचार करना चाहिये।" (यह पूरा उत्तर पत्र है)। उनमें से कुछ का तो कोई उत्तर ही प्राप्त नहीं हा, "इम समय बिल्कुल फुरसतमें नहीं हैं .. .. कुछने अनवकाशादिके कारण उत्तर देने में अपनी यहां तक कि दो तीन दिन बाद आपके पत्रको पूरा असमर्थता व्यक्त की, कछने अपनी महमति प्रकट की पढ़ सका। - ... पद्यके बारेमें अभी मैंने कुछ भी और शेपने असहमति । जिन्होंने सहमति प्रकट की नहीं सोचा था, जो समस्यायें आपने उसके बारे में उपस्थित की हैं वे आपके पत्रको देखने के बादही उन्होंने मेरे कथनको 'बुद्धिगम्य तकपूर्ण' तथा युक्ति मेरे सामने आई हैं, इसलिये इसके विषय में जितनी वादको 'अतिप्रबल' बतलाते हए उक्त छठे पद्यको संदि गहराईके साथ आप सोच सकते हैं मैं नहीं, और ग्धरूपमें तो स्वीकार किया है। परन्तु जब तक किसी फिर मुझे इस समय गहराईके साथ निश्चित होकर भी एक प्राचीन प्रतिमें उसका अभाव न पाया जाय सोचनेका अवकाश नहीं इसलिये जो कुछ मैं लिख तब तक उसे 'प्रक्षित' कहने में अपना संकोच व्यक्त रहा हूं उसमें कितनी दृढ़ता होगी यह मैं नहीं कह किया है। और जिन्होंने असहमति प्रकट की है सकता फिर भी आशा है कि आप मेरे विचारों पर उन्होंने उक्त पद्यको ग्रन्थका मौलिक अङ्ग बतलाते हुए ध्यान देंग" उसके विषय में प्रायः इतनी ही सूचना की है कि वह इतना हा सूचना का है कि वह हां, इन्हीं विद्वानों मेंसे तीनने छठे पद्यको संदग्धि पर्षे पामें वर्णित आपके तीन विशेपणासे 'उत्सन्न- अथवा प्रक्षित करार दिये जाने पर अपनी कछ शंका दोष, विशेषण के स्पष्टीकरण अथवा व्याख्यादिको लिये अथवा चिन्ता भी व्यक्त की है, जो इस प्रकार है:हए है। और उस सूचनादि पर से यह पाया जाता है "(छठे पद्यक संदग्धि होनेपर) ज्वें पद्यकी पटाके संदधि होने कि वह उनके सरसरी विचारका परिणाम है-प्रश्नके संगति श्राप किस तरह बिटलाएंगे और यदि वे अनुरूप विशेष ऊहा पोहसे काम नहीं लिया गया की स्थिति संदग्ध होजाती है तो वां पा भी अपने अथवा उसके लिये उन्हें यथेष्ट अवसर नहीं मिल सका। आप मंदग्धिताकी कोटि में पहुंच जाता है।" चुनांचे कुछ विद्वानोंने उसकी सूचना भी अपने पत्रों में "यदि पद्य नं० ६ प्रकरण के विरुद्ध है, तो की है जिसके दो नमने इस प्रकार हैं: ७ और भी संकटमें ग्रस्त हो जायेंगे।" "रत्नकरण्डश्रावकाचारके जिस शोककी ओर "नं०६ के पद्यको टिप्पणीकारकृत स्वीकार आपने ध्यान दिलाया है, उसपर मैने विचार किया किया जाय तो मूलग्रन्थकारद्वारा लक्षण में विशेषण मगर मैं अभी किसी नतीजेपर नहीं पहुंच सका। देकर भी ७.८में दोका ही समर्थन या स्पष्टीकरण शोक ५ में उच्छिन्नदोष, सर्वज्ञ और आगमेशीको प्राप्त किया गया पूर्व विशेपणके सम्बन्धमें कोई स्पष्टीकरण कहा है, मेरी दृष्टि में उच्छिन्नदोपको व्याख्या एवं पुष्टि नहीं किया यह दोपापत्ति होगी।" भोक करता है और बागमेशीकी व्याख्या भोक । इन तीनों आशंकाओं अथवा आपत्तियोंका Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त . [ ३५१ आशय प्राय: एक ही है और वह यह कि यदि छठे चायने 'आप्तस्य वाचिका नाममाला प्ररूपयन्नाह' पद्यको असंगत कहा जावेगा तो ७३ तथा वें पद्यको इस प्रस्तावना वाक्यके द्वारा यह सूचना की है। भी असंगत कहना होगा। परन्त बात ऐसी नहीं है। वं पद्यमें प्राप्तकी नाममालाका निरूपण है। परन्तु छठा पद्य ग्रन्थका अंग न रहने पर भी वे तथा वें उन्होंने साथमें प्राप्तका एक विशेषण 'उक्तदोपैविवर्जिपद्यको असंगत नहीं कहा जा सकताः क्योंकि वें तस्य' भी दिया है. जिसका कारण पूर्वमें उत्सन्न. पद्यमें सर्वज्ञकी, आगमेशीकी अथवा दोनों विशेषणोंकी दोषकी दृष्टिसे प्राप्तके लक्षणात्मक पद्यका होना कहा व्याख्या या स्पष्टीकरण नहीं है, जैसाकि अनेक जा सकता है। अन्यथा वह नाममाला एकमात्र विद्वानोंने भिन्न भिन्न रूपमें उसे समझ लिया है। 'उत्सन्नदोषाप्त' की नहीं कही जा सकती; क्योंकि उसमें तो उपलक्षणरूपसे प्राप्तकी नाम-मालाका उसमें 'परंज्योति' और 'सर्वज्ञ' जैसे नाम सर्वज्ञ उल्लेख है, जिसे 'उपलाल्यते पदके द्वारा स्पष्ट प्राप्तके, 'साव:' और 'शास्ता' जैसे नाम आगमेशी घोषित भी किया गया है, और उसमें प्राप्तके तीनों (परमहितोपदेशक) प्राप्तके स्पष्ट वाचक भी मौजूद हो विशेषणोंको लक्ष्य में रखकर नामोंका यथावश्यक हैं। वास्तवमें वह श्राप्तके तीनों विशेषणोंको संकलन किया गया है। इस प्रकारकी नाम-माला लक्ष्यमें रखकर ही संकलित की गई है, और इसलिये देनेकी प्राचीन समय में कुछ पद्धति जान पड़ती है, वे पद्यकी स्थिति ५वें पद्यके अनन्तर ठीक बैठ जिसका एक उदाहरण पूर्ववर्ती श्राचये कुन्दकुन्दके जाती है, उसमें असंगति जैसी कोई भी बात नहीं है। 'मोक्खपाहुड' में और दसरा उत्तरवर्ती प्राचार्य ऐसी स्थिति में ७वें पद्यका नम्बर ६ होजाता है और पूज्यपाद (देवनन्दी) के 'समाधितंत्र में पाया जाता तब पाठकोंको यह जानकर कुछ आश्चर्यसा होगा है। इन दोनों ग्रन्थों में परमात्माका स्वरूप देनेके कि इन नाममालावाले पद्योंका तीनों ही प्रन्थोंमें ६टा अनन्तर उसकी नाममालाका जो कुछ उल्लेख किया नम्बर पड़ता है, जो किसी आकस्मिक अथवा है वह ग्रन्थ क्रमसे इस प्रकार है : रहस्यमय-घटनाका ही परिणाम कहा जा सकता है। मलरहिओ कलचत्तो प्रणिदिनो केवलो विसुद्धप्पा इस तरह ६ठे पाके अभावमें जब ७वां पद्य असंगत नहीं रहता तब दवां पद्य असंगत हो ही नहीं निर्मलः केवलः शद्धो विविक्तः प्रभुरव्ययः ।। सकता; क्योंकि वह वें पद्यमें प्रयुक्त हुए 'विरागः और 'शास्ता' जैसे विशेषण-पदोंके विरोधकी शंकाके परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ॥६॥ समाधानरूप में है। इन पद्यों में कुछ नाम तो समान अथवा इसके सिवाय, प्रयत्न करने पर भी रत्नकरण्डसमानार्थक हैं और कुछ एक दूसरेसे भिन्न हैं, और की सी कोई प्राचीन प्रतियां मुझे अभी तक उपलब्ध इससे यह स्पष्ट सूचना मिलती है कि परमात्माको नहीं हो सकी है, जो प्रभाचन्द्रकी टीकासे पहले की उपलक्षित करनेवाले नाम तो बहुत हैं, ग्रन्थकारोंने अथवा विक्रमकी ११ वीं शताब्दीको या उससे भी अपनी अपनी रुचि तथा आवश्यकताके अनुसार पहलेकी लिखी हुई हों। अनेकवार कोल्हापुरके उन्हें अपने अपने प्रन्याम यथास्थान ग्रहण किया है। प्राचीनश स्त्र भण्डारको टटोलने के लिये डा एएन० समाधितंत्रग्रन्थके टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्रने, उपाध्ये जीसे निवेदन किया गया; परन्तु हरबार 'तद्वाचिका नाममालां दर्शयन्नाह' इस प्रस्तावना- यही उत्तर मिलता रहा कि भट्रारकजी मठमें मौजूद वाक्य के द्वारा यह सूचित भी किया है कि इस छठे नहीं हैं, बाहर गये हुये हैं- वे अक्सर बाहर ही श्लाकमें परमात्माक नामकी वाचिका नाममालाका घुमा करते हैं- और बिना उनकी मौजूदगीके मठके निदर्शन है। रत्नकरण्डकी टीकामें भी प्रभाचन्द्रा- शास्त्रमंडारको देवा नहीं जा सकता। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरण १] रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका भिन्नक त्व ऐसी हालतमें रत्नकरण्डका छठा पद्य अभी तक मानकर ही प्रोफेसर सा० की चारों आपत्तियोंपर मेरे विचाराधीन हो चला जाता है। फिलहाल, अपना विचार और निर्णय प्रकट कर देना चाहता हूं। वर्तमान चर्चाके लिये, मैं उसे मूलग्रन्थका अंग और बह निम्नप्रकार है। (भगलो किरणमें समाप्य) रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका मिन्नकर्तव ( लेखक- डा. हीरालाल जैन, एम० ए० ) रत्नकरएटश्रावकाचार और प्राप्तमीमांसा एक गुणस्थानवर्ती साधुका अभिप्राय है। किन्तु न तो ही प्राचार्यकी रचनाएँ हैं, या भिन्न भिन्न, इस वे यह बतला सके कि छठे गुणस्थानीय साधुको विषयपर मेरे 'जैनइतिहासका एक विलुप्त अध्याय' वीतराग व विद्वान विशेषण लगानेका क्या प्रयोजन शीर्षक निबन्धसे लगाकर अभी तक मेरे और है, और न यह प्रमाणित कर सके कि उक्त गुणपं० दरबारीलालजी कोठियाके छह लेख प्रकाशित स्थानमें सुग्व दुःखको वेदना होते हुए पाप-पुण्यके हो चुके हैं, जिनमें उपलब्ध साधक-बाधक प्रमाणों बन्धका अभाव कैसे संभव है। और इसी बातपर का विवेचन किया जा चुका है। अब कोई नई उक्त कारिकाको युक्ति निर्भर है। अत: उन दोनों बात सन्मुख पानेकी अपेक्षा पिष्टपेषण ही अधिक प्रन्थोंके एक-कर्तृत्व स्वीकार करने में यह विरोध होना प्रारम्भ हो गया है और मौलिकता केवल बाधक है। कट-वाक्योंके प्रयोगमें शेष रह गई है। अतएव में दसरी आपत्ति यह थी कि शक संवत १४७ से प्रस्तुत लेग्बमें संक्षेपत: केवल यह प्रकट करना पूर्वका कोई उल्लेख रत्नकरण्डाका नहीं पाया चाहता कि उक्त दोनों रचनाओंको एक ही प्राचार्य जाता और न उसका आप्रमीर्मासाके साथ एककर्तृत्व की कृतियां मानने मे जी श्रापत्तियां उपस्थित हुई थी संबन्धी कोई स्पष्ट प्राचीन प्रामासिक उल्लेख उपलउनका कहांतक समाधान होसका है। ब्ध है। यह आपत्ति भी जैसोकी तैसी उपस्थित है। __मैंने अपने गत लेग्यके उपसंहारमें चार तीसरी भापत्ति यह थी कि रत्नकरण्डका जो सर्व आपत्तियोंका उल्लेख किया था जिनके कारण रत्न- प्रथम उल्लेख शक संवत १४७ में वादिराज कप्त पार्श्व. करण्ड और श्राप्तमीमांसाका एककतत्व सिद्ध नहीं नाथ चरितमें पाया जाता है उसमें वह स्वामी समन्तहोता। प्रथम आपत्ति यह थी कि रत्नकरण्डा- भद्र-कृत न कहा जाकर योगीन्द्र-कृत कहा गया है। नुसार प्राप्तमें नप्रिपासादि असातावेदनीय कर्मजन्य और वह उल्लेख स्वामी-कृत देवागम (प्तमीमांसा) वेदनाांका पाव होता है, जबकि आममीमांसाकी और देव-कृत शब्दशास्त्रके उल्लेखोंके पश्चात किया कारिका १३ में बीतराग सर्वज्ञके दुःखकी वेदना गया है कि हरिवंशपुराण व श्रादिपुराण जैसे प्राचीन स्वीकार की गई है जो कि कम सिद्धान्तकी प्रामाणिक ग्रंथोंमें 'देव' शब्दद्वारा देवनन्दि पूज्यपाद व्यवस्थाओंके अनुकूल है। पंडितजीका मत है और उनके व्याकरण पंथ जैनेन्द्र व्याकरणका ही कि उक्त कारिकाके वीतगगग विद्वान मुनिसे सटे उत्तेव पाया जाता है, अतः स्पष्ट है कि वादिराजने Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष । - भी उस बीचके श्लोक द्वारा देवनन्दिकृत जैनेन्द्र- पद आये हैं जिनका अभिप्राय 'अकलंक' 'विद्यानन्द व्याकरणका ही उल्लेख किया है। और उसके और देवनन्दि पूज्यपादकृत 'सर्वार्थसिद्धि' से भी हो व्यवधान होनेसे योगीन्द्रकृत रत्नकरण्डका देवागमसे सकता है। श्लेष-काव्यमें दूसरे अथकी अभिएककर्तृत्व कदापि वादिराज-सम्मत नहीं कहा जा व्यक्ति पयर्यायवाची शब्दों व नामैकदेशद्वारा की सकता। इस आपत्तिको पंडितजीने भी स्वीकार जाना साधारण बात है। उसकी स्वीकारताके लिये किया है, किन्तु उनकी कल्पना है कि यहां 'देव' से इतना पर्याप्त है कि एक तो शब्दमें उस अर्थके देनेका श्राभिप्राय स्वामी समन्तभद्रका ग्रहण करना चाहिये। सामर्थ्य हो और उस अर्थसे किसी अन्यत: सिद्ध किन्तु इसके समर्थनमें उन्होंने जो उल्लेख प्रस्तुत बातका विरोध न हो। इसीलिये मैने इस प्रमाणको किये हैं उन सबमें 'देव' पद 'समन्तभद्र' पदके साथ सबके अन्त में रग्वा है कि जब उपर्युक्त प्रमाग्गोंगे साथ पाया जाता है। ऐसा कोई एक भी उल्लेख रत्नकरण्ड अानमीमांसाके काकी कृति सिद्ध नहीं नहीं जहां स्वल 'देव' शब्दसे समन्तभद्रका अभिप्राय होता तब उक्त श्लोक में श्लेपद्वारा उक्त प्राचार्या व प्रकट किया गया हो। ग्रन्थक संकेतको ग्रहण करनम कोई आपत्ति नहीं योगीन्द्रसे समन्तभद्रका अभिप्राय ग्रहण करनेके रहती। यदि उक्त श्लोकमें कोई श्लेपार्थ ग्रहण समर्थन में उन्होंने प्रभाचन्द्रकृत कथाकोषके अवतरण न किया जाय तो उसकी रचना बहुत अटपटी प्रस्तुत किये हैं जिनमें समन्तभद्रको योगी व योगीन्द्र माननी पड़ेगी, क्योंकि उसकी शब्द-योजना सीध कहा गया है। किन्तु पंडितजीने इस बात पर ध्यान वाच्य-वाचक मम्बन्धकी बोधक नहीं है। उदानहीं दिया कि उक्त कथानकमें समन्तभद्रको केवल हरणार्थ केवल 'मम्यक' के लिये 'वीतकलंक' शब्द उनके कपटवेषमें ही योगी या योगीन्द्र कहा है, का प्रयोग अपमिद्ध या अप्रयुक्त जैसा दोप उत्पन्न उनके जैनवेष में कहीं भी उक्त शब्द का प्रयोग नहीं करता है, क्योंकि वह शब्द उम अर्थमे रूढ़ या पाया जाता। सबसे बड़ी आपत्ति तो यह है कि सुप्रयुक्त नहीं है। एसी शब्दयोजना तभी क्षम्य समन्तभद्रके ग्रन्थकर्ताके रूपसे सैकड़ों उल्लेख या तो मानी जा सकती है जबकि उसके द्वारा रचयिताको स्वामी या समन्तभद्र नामसे पाये जाते हैं, किन्त कुछ और अथे व्यजित करना अभीष्ट हो। श्लेष 'देव' या 'योगीन्द्र' रूपसे कोई एक भी उल्लेख रचनाम 'वीनकलंक' से अकलंकका अभिप्राय ग्रहण अभीतक सन्मुख नहीं लाया जा सका। फिर उनका करना तनिक भी आपत्तिजनक नही, तथा 'विद्या' बनाया हुआ न तो कोई शब्द-शास्त्र उपलब्ध है स विद्यानन्द व सर्वार्थ-सिद्धिस तन्नामक ग्रन्थकी और न उसके कोई प्राचीन प्रामाणिक उल्लेख पाये सूचना स्वीकार करने मे उक्त प्रमाणांके प्रकाशानुसार जाते हैं। इसके विपरीत देवनन्दिकी 'देव' नाम काई कठिनाई दिग्वाई नहीं देती। प्रख्याति साहित्य में प्रसिद्ध है, और उनका बनाया इस प्रकार रत्नकरण्ड श्रावकाचार और पापहुआ महत्त्वपूर्ण व्याकरण प्रन्ध उपलब्ध भी है। मीमांसाके कतृत्वके विरुद्ध पूर्वोक्त चारों आपत्तियां अतएव वादिराजके उल्लेखोंमें सुस्पष्ट प्रमाणोंके ज्योंकी त्यों आज भी खड़ी है, और जो कुछ विपरीत 'देव' से और 'योगीन्द्र' से समन्तभद्रका ऊहापोह अबतक हुई है उससे वे और भी प्रबल व अभिप्राय ग्रहण करना निष्पक्ष आलोचनात्मक दृष्टि अकाटय सिद्ध होती हैं। से अप्रामाणिक ठहरता है। उपयुक्त प्रथम आपत्तिके परिहारका एक विशेष अन्तिम बात यह थी कि रत्नकरण्डके उपान्त्य प्रयत्न पण्डित जुगलकिशोर जी मुख्तारद्वारा किया गया श्लोकमें वीतकलंक' 'विद्या' और 'सर्वार्थ-सिद्धिः था। उन्होंने रत्नकरण्डश्रावकाचारके क्षुत्पिपामादि Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] पथके सम्बन्ध में जेन पण्डितोंका मत जानना चाहा था कि क्या वे उस पथको प्रन्थका मौलिक अंश समझते हैं या प्रक्षिप्त इस सम्बन्धमें उन्होंने जो रत्नकरण्ड और प्तमीमांसाका भिन्नकर्तृत्व पत्र घुमाया था उसे मैंने अभी तक कहीं प्रकाशित नहीं देखा और न फिर इस बातका ही पता चला कि उन्हें परितका क्या मत मिला और उसपर उन्होंने क्या निर्णय किया। किन्तु उनका वह पत्र प्रकृत विषय से इतना सम्बद्ध है कि उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। वद्द वह सर्वथा साहित्य विषयक है और उसमें कोई वेवफिफ गोपनीय बात भी नहीं है। अतएव यदि मे आज उनके उस पत्रको यहां उपस्थित कम तो आशा हैं उसमें कोई अनौचित्य न होगा और मान्य मुख्तार जी मुझपर क्रुद्ध न होंगे। उनका वह पत्र इस प्रकार था- "प्रिय महानुभाव, सस्नेह जयजिनेन्द्र | आज मैं आपके सामने रत्नकरण्ड श्रावकाचार के एक सम्बन्ध में अपना कुछ विचार रखना चाहता हूँ । आशा है आप उसपर गम्भीरता तथा व्यापक दृष्टि से विचार करके मुझे शीघ्र ही उत्तर देने की कृपा करेंगे वह पद्य 'चुत्पिपासा' नामका छठा पद्म है जिसमें आप्तका पुन: लक्षण कहा गया है, और जो लक्षण पूर्व लक्षण से भिन्न हो नहीं, किन्तु कुछ विरुद्ध भी पडता है, और अनावश्यक जान पड़ता है-खासकर ऐसी हालत में जय कि पूर्व लक्षणको देते हुये यहां तक कह दिया है कि नया द्यामता भवेत' और साथ में 'नियोगेन पदका प्रयोग करके उसे और भी एड किया गया है। यदि उसमें मात्र दोपों का नामोल्लेख होता और 'यस्याप्तः स प्रकोत्यते' न कहा जाता. तो पूर्व पथके साथ उसका सम्बन्ध जुड़ सकता था. जैसा कि नियमसारमे आप्तका स्वरूप देनेके बाद दीपक नामोल्लेख वाली एक गाथा है। दोपांक नाम उक्त पद्य में पूरे आये भी नहीं, और इसलिये उन्हें पूरा करनेके लिये चौथे चरण का उपयोग किया जा सकता था। परन्तु वैसा न करके "यस्यातः स प्रकीत्यते" कहना स्वामी समन्तभद्र जैसों की लेखनीसे उसके वहां ११ प्रसूत होनेमें सन्देह पैदा करता है। जब स्वामीजी पूर्व पदमें आम लक्षण के लिए, उसनदोष, सर्वज्ञ और आगमेशी वे तीन विशेषण निर्धारित कर चुके और स्पष्ट बतला चुके कि इनके विना श्रातता होती ही नहीं, तब वे अगले ही पयमें चातका दूसरा ऐसा लक्षण कैसे प्रस्तुत कर सकते हैं जिसमें उक्त तीनों विशेषण न पाये जाते हों। अगले पद्य में श्राप्तका जो लक्षण दिया है, उसमें सर्वज्ञ और आगमेशी ये दो विशेषण देखन में नहीं अते. और इसलिये 'सः' के बाद 'अपि शब्दको अभ्याहत मानकर यदि यह कहा भी जाता कि जिसके ये शुभादिक नही, यह भी बत कहा जाता है, तो उसमें पूर्व पद्यका 'नान्यथा ह्याप्तता भवेत्' यह वाक्य बाधक पड़ता है । यदि यह प्र नियामक वाक्य न होना तो वैसी कल्पना की जा सकती थी । और यदि स्वामी समन्तभद्रको उत्सन्नदो स्वरूप वहां कहना अभीए होता तो वे आप्त मात्रके लक्षण कथन-जैसी सूचना न कर के वैसे आपकी लक्षण निर्देशकी स्पष्ट सूचना करते, अर्थात् 'यम्यानः स प्रकोश्यते' के स्थानपर 'यस्थाप्रः स प्रदोष मुक' जैसे किसी वाक्यका प्रयोग करते । परन्तु ऐसा नहीं है। टीकाकार प्रभाचन्द्र भी इसमें कुछ सहायक नहीं होते। वे उक्त छठे पद्यको देते हुए प्रस्तावना वाक्य तो यह देते हैं- 'अथ के पुनस्ते दोषा ये तत्रोत्सना इत्याशङ्कया परन्तु टीका करते हुए लिखते हैं- “तेादश दोपा यस्य न सन्ति स प्राप्तः प्रकीत्यंत प्रतिपाद्यते ।" इससे यह दोपका निर्देशमात्र अथवा उत्सन्नदोष प्राप्तका लक्षण न रहकर श्राप्त मात्रका ही दूसरा लक्षण हो जाता है जिसके लिये उन्होंने 'अधि' शब्दका भी उद्भावन नहीं किया और दूसरी बहस छेड़ दी। साथ ही वैसी स्थिति में तब समन्तभद्र आगे 'सर्वज्ञ आप्त' और 'आगमेशी आत का भी लक्षण प्रतिपादन करते, जो नहीं पाया जाता। इससे उस छठे पची स्थिति बहुत सन्दिग्ध जान पड़ती है । और वह सन्देह और भी पुष्ट होता है Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अनेकान्त [ वर्ष जब हम देखते हैं कि प्रन्थभरमें अन्यत्र कहीं भी एक मेरे विचारोंसे सहमत न हों तो कृपया उन आधारों के दो लक्षण नहीं कहे गये हैं। आगम, तपोभृत, तथा युक्तिप्रमाणोंसे अवगत कीजिये जिनसे वे मूल त्रिमूढों और अष्टङ्गों और स्मयादि सबके लक्षण प्रन्थके अङ्गसिद्ध हो सकें। इस कृपा और कष्टके लिये एक एक पद्यमें ही दे दिये गये हैं। हो सकता है कि मैं आपका बहुत आभारी हूंगा। आशा है आप मेरी किसीने उत्सन्नदोषकी टिप्पणीके तौर पर इस पद्यको प्रस्तावनाके उक्त पृष्ठोंको देखकर मुझे शीघ्र ही उत्तर लिख रक्खा हो, और वह प्रभाचन्द्रसे पहले ही मूल देने की कृपा करेंगे। प्रतियों में प्रविष्ट हो गया हो। यदि ऐसा सम्भव नहीं है, और आपकी रायमें यह मूलरूपमें समन्तभदको इसका मैने तत्काल ही उन्हें यह उत्तर लिख भेजा कृति है, तो कृपया इसकी स्थिति जो सन्देह उत्पन्न था- "रत्नकरण्डश्रावकाचारको प्रस्तावनामें आपने कर रही है, उसे स्पष्ट कीजिये और सन्देहका निरसन जिन पद्यांको संदिग्ध बतलाया है उनका ध्यान मुझे कीजिये। इसलिये में आपका आभारी हंगा। और था ही। आपके आदेशानुमार मैन वह पूरा प्रकरण यदि आप भी मेरी ही तरह अब इसकी स्थितिको फिरसे देख लिया है। मैं आपसे इस बातपर पूर्णत: संदिग्ध समझते हैं और आपको भी इसे मलग्रन्थका सहमत हूं कि उन पद्योंकी रचना बहुत शिथिल प्रयत्नसे वाक्य कहने में संकोच होता है तो वैसाम्प लिखिये। हुई है, अतएव प्राप्तमीमांसादि प्रन्थोंके कतो द्वारा उत्तर जितना भी शीघबन सके देनेकी कपा करें। उनके रचे जानको बात बिलकुल नहीं जंचती। किन्तु शीघ्र निर्णयके लिये उसकी बड़ी जरूरत है। रत्नकरण्डश्रावकाचारमें वे मूल लेखककी न होकर -भवदीय जुगलकिशोर प्रक्षिप्त हैं इसके कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं, विशेषतः श्री मुख्तारजीने यहां उक्त पद्यके सम्बन्धमें एक जब कि प्राचीनतम टीकाकारने उन्हें स्वीकार किया है, बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्रको उठाया था जिसका उक्त और कोई प्राचीन प्रतियां ऐसी नहीं पाई जाती जिनमें प्रन्थ-कर्तृत्वके विषयसे बहुत घनिष्ट सम्बन्ध है। वे पद्य सम्मिलित न हों। केवल रत्नकरण्डश्रावकाकिन्तु इसपर विद्वानोंके क्या मत आये, उनपर से चारको दृष्टि में रखते हुये वे पद्य इतने नहीं ग्वटकते मुख्तार साहबका क्या निर्णय हश्रा, और वह अभी जितने आप्तमीमांसा आदि ग्रन्थों के कर्तृत्वको ध्यानमें तक क्यों प्रकट नहीं किया गया, यह जिज्ञासा इस रखते हुए खटकते हैं। क्योंकि रत्नकरण्डकी रचनामें विषयके रुचियोंको स्वभावत: उत्पन्न होती है। मेरे वह तार्किकता दृष्टिगोचर नहीं होती। अतएव इम पास तो उक्त विषयसे कुछ स्पशे रखता हा मख्तार विचार-विमर्शका परिणाम भी वही निकलता है कि साहबका एक प्रश्न उक्त पत्र लिखे जानेके कोई एक वर्ष रत्नकरण्डश्रावकाचार प्राप्तमीमांसाके कर्ताकी कृति पश्चात यह पाया था कि-'रत्नकरण्डश्रावकाचारको नह। ६।" प्रस्तावनामें पृष्ठ ३२ से ४१ तक मैंने जिन सात पद्यों- इस प्रश्नोत्तरको भी कोई डेढ दो वर्ष हो गये को संदिग्ध करार दिया है उनके सम्बन्धमें आपकी किन्तु अभी तक तत्सम्बन्धी कोई मुग्तारजीका निर्णय क्या राय है? क्या मेरे हेतुओंको ध्यानमें रखते हुए मुझे देखनेको सुनने नहीं मिला। तो भी इन सब पत्रोंको पाप भी उन्हें संदिग्ध करार देते हैं, अथवा आपकी यहां प्रस्तुत करना वर्तमान विपयके निर्णयार्थ अत्यदृष्टिमें वे संदिग्ध न होकर मूल ग्रन्थके ही अङ्ग हैं? न्त आवश्यक था। ताकि यह दिशा भी पाठकोंकी यह बात मैं आपसे जानना चाहता हूं। यदि आप दृष्टिसे ओमज न रहे। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कालोनी और मेरा विचार-पत्र -XXX श्राजकल जैन - जीवनका दिनपर दिन हास होता जा रहा है, जैनत्व प्रायः देखने को नहीं मिलता-कहीं कहीं और कभी कभी किसी अंधेरे कोने में जुगनूके प्रकाशकी तरह उसकी कुछ फलक मी दीख पड़ती है। जैनजीवन और जैनजीवन में कोई स्पष्ट अन्तर नजर नही आता। जिन राग-द्वेप, काम-क्रोध, छल-कपट झूठ - फरेब, धोग्वा - जालसाजी, चोरी-सीनाजोरी, अतितृष्णा, विलासता नुमाइशीभाव और विषय तथा परिग्रहलोलुपता आदि दोषोंसे अजैन पीडित हैं उन्हीं से जैन भी सनाये जा रहे हैं। धर्मके नामपर किये जानेवाले क्रियाकाण्ड में कोई प्राण मालूम नहीं होता अधिकाश जाब्तापूरी, लोकदिखावा अथवा दम्भका ही सर्वत्र साम्राज्य जान पड़ता है। मूलमें विवेकके न रहने से धर्मकी सारी इमारत डांवाडोल हो रही है । जब धार्मिक ही न रहे तब धर्म किसके आधारपर रद्द सकता है ? स्वामी समन्तभद्रने कहा भी है कि 'न धर्मो धार्मिकविना ' । अतः धर्मकी स्थिरता और उसके लोकहित जैसे शुभ परिणामोंके लिये सच्चे धार्मिकों की उत्पत्ति और स्थितिकी ओर सविशेषरूप से ध्यान दिया ही जाना चाहिये, इसमें किसीको भी विवाद के लिये स्थान नहीं है । परन्तु आज दशा उलटी है - इस ओर प्राय: किसोकाभी ध्यान नहीं है। प्रत्युत इसके देशम जैसी कुछ घटनाएं घट रही हैं और उसका वातावरण जैसा कुछ क्षुब्ध और दूषित हो रहा है उससे धर्म के प्रति लोगोंकी श्रश्रद्धा बढ़ती जा रही है, कितने ही धार्मिक संस्कारोंसे शून्य जनमानस उसकी बगावत पर तुले हुए हैं और बहुतों की स्वार्थपूर्ण भावनाएं एवं अविवेकपूर्ण स्वच्छन्दप्रवृत्तियां उसे तहस-नहस करनेके लिये उतारू हैं; और इस तरह वे अपने तथा उसे देशके पतन एवं विनाश का मार्ग आप ही साफ कर रहे हैं। यह सब देखकर भविष्य की भयङ्करताका विचार करते हुए शरीरपर रोंगटे खड़े होते हैं और समझ में नहीं आता कि तब धर्म और धर्मायतनोंका क्या बनेगा। और उनके अभाव में मानव-जीवन कहां तक मानवजीवन रह सकेगा !! दूषित शिक्षा-प्रणाली के शिकार बने हुए संस्कारविहीन जैनयुवकों की प्रवृत्तियां भी आपत्तिके योग्य हो चली हैं, वे भो प्रवाहमे बहने लगे हैं, धर्म और धर्मायतनोंपर से उनकी श्रद्धा उठती जाती है, वे अपने लिये उनकी जरूरत हो नहीं समझते, आदर्शकी थोथी बातों और थोथे क्रियाकाण्डोंसे वे ऊब चुके हैं, उनके सामने देशकालानुसार जैन-जीवनका कोई जीवित आदर्श नहीं है, और इसलिये वे इधर उधर भटकते हुजिधर भी कुछ आकर्षण पाते हैं उधरके ही हो रहते हैं । जैनधर्म और समाज के भविष्यको दृष्टिसे ऐसे नवयुवको का स्थितिकरण बहुत ही आवश्यक है और वह तभी हो सकता है जब उनके सामने हरसमय जैन- जीवनका जीवित उदाहरण रहे । इसके लिये एक ऐसी जैनकालोनी - जैनबस्तीके बसाने की बड़ी जरूरत है जहां जैन जीवनके जीते जागते उदाहरण मौजूद हों - चाहे वे गृहस्थ अथवा साधु किसी भी वर्ग के प्राणियोंके क्यों न हो; जहां पर सवत्र मूर्तिमान जैनजीवन नजर आए और उससे देखनेवालोंको जैनजीवनकी सजीव प्रेरणा मिले; जहांका वातावरण शुद्ध - शांत प्रसन्न और जैन जीवन के अनुकूल अथवा उसमें सब प्रकार के सहायक हो; जहां प्राय: ऐसे ही सज्जनोंका अधिवास हो जो अपने जीवनको जैन जीवन के रूपमें ढालने के लिये उत्सुक हों; जहां पर अधिवासियोंकी प्रायः सभी जरूरतों को पूरा करनेका समुचित प्रबन्ध हो और जीवनको ऊंचा उठान के यथासाध्य सभी साधन जुटाये गये हों; जहां Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष के अधिवासी अपनेको एक ही कुटुम्बका व्यक्ति सममें तथा आकौक रूप में प्रचुर साहित्यके वितरण-द्वारा एक ही पिताको सन्तानके रूपमें अनुभव करें, और जहां अपने धर्मका प्रचार कर रहे हैं वहां मांसाहारको एक दूसोके दुख-सु वमें बराबर साथी रहकर पूर्णरूप भी काफी प्रोत्तेजन दे रहे हैं, जिससे आश्चय नहीं से सेवाभावको अपनाएँ तथा किसीको भी उसके कष्टमें जो निकट भविष्यमें सारा विश्व मांसाहारी हो जायः यह महसूस न होने देवें कि वह वहांपर अकेला है। और इस लिये उनके हृदयमें यह चिन्ता उत्पन्न हुई समय-समयपर बहुतसे सज्जनोंके हृदय में धार्मिक कि यदि जैनी समयपर सावधान न हए तो असंभव जीवनको अपनानेकी तरंगें उठा करती हैं और कितने नहीं कि भगवान महावीरकी निगमिष-भोजनादि. हो सद्गृहस्थ अपनी गृहस्थीके कर्तव्योंको बहुत कुछ सम्बन्धी सुन्दर देशनाओंपर पानी फिर जाय और पूरा करलेने के बाद यह चाहा करते हैं कि उनका शेष वह एकमात्र पोथी पत्रों की ही बात रह जाय। इसी जीवन रिटायर्डरूप में किसी ऐसे स्थानपर और ऐसे चिन्ताने जैनकालोनीके विचारको उनके मानसमें सत्सङ्ग में व्यतीत हो जिससे ठीक ठीक धर्मसाधन और जन्म दिया और जिसे उन्होंने जनवरी सन १६४५ के लोक-सेवा दोनों ही कार्य बन सकें। परन्तु जब वे पत्र में मुझपर प्रकट किया। उस पत्रके उत्तरमें २७ समाजमें उसका कोई समुचित साधन नहीं पाते और जनवरी माघ पूढी १५ शनिवार सन १६४५को जो पत्र आस पासका वातावरण उनके विचारोंके अनुकूल नहीं देहलीसे उन्हें मैने लिया था वह अनेक दृष्टियोंसे होता तब वे यों ही अपना मन मसोसकर रह जाते हैं अनेकान्त-पाठकों के जानने योग्य है। बहुत सम्भव समर्थ होते हा भी बाह्य परिस्थितियोंके वश कुछ भी है कि बाबू छोटेलाल जीको लक्ष्यकरके लिया गया यह कर नहीं पाते, और इस तरह उनका शेप जीवन इधर पत्र दूसरे हृदयोंको भी अपील करे और उनमें से कोई उधरके धन्धों में फंसे रहकर व्यर्थ ही चला जाता है। माईका लाल ऐसा निकल आवे जो एक उत्तम जैन और यह ठीक ही है, बीजमें अंकुरित होने और कालोनीकी योजना एवं व्यवस्थाके लिये अपना सब अच्छा फलदार वृक्ष बननेकी शक्तिके होते हुए भी उसे कुछ अपर्ण कर दे, और इस तरह वीरशासनको यदि समयपर मिट्टी पानी और हवा आदिका समुचित जड़ोंको युगयुगान्तरके लिये स्थिर करता हुआ अपना निमित्त नहीं मिलता तो उसमें अंकुर नहीं फूटता एक अमर स्मारक कायम कर जाय। इमी सदुद्दे और वह यों ही जीर्ण-शीण होकर नकारा हो जाता श्यको लेकर आज उक्त पत्र नीचे प्रकाशित किया है। ऐसी हालतमें समाजकी शक्तियोंको सफल बनाने जाना है। यह पत्र एक बड़े पत्रका मध्यमांश है, जो अथवा उनसे यथेट काम लेनेके लिये संयोगोंको मौनके दिन लिखा गया था, उस समय जो विचार मिलाने और निमित्तोंको जोड़ने की बड़ी जरूरत रहती धाग-प्रवाहरूपसे आते गये उन्हींको इस पत्र में अङ्कित है। इस दृष्टिसे भी जैनकालोनीकी स्थापना समाजके किया गया है और उन्हें अङ्कित करते समय ऐसा लिये बहुत लाभदायक है और वह बहुतोंको सन्मार्ग- मालूम होता था मानों कोई दिव्य-शक्ति मुझसे वह पर लगाने अथवा उनकी जीवनधाराको समुचितरूपसे सब कुछ लिखा रही है। मैं मममताहूँ इसमें जैन बदलने में सहायक हो सकती है। धर्म, समाज और लोकका भागे हित मन्निहित है। श्राज दो वर्ष हुए जब बाब छोटेलालजी जैन रईस कलकत्ना मद्रास-प्रान्तस्थ श्राग्यवरमके सेनिटोरि- जनकालोनी-विषयक पत्रयममें अपनी चिकित्सा करा रहे थे। उम समय "जैन कालोनी आदि सम्बन्धी जो विचार आपने वहांके वातावरण और ईसाई मजनोंके प्रेमालाप प्रस्तुत किये हैं और बाबू अजितप्रमाद जी भी जिनके एवं सेवाकार्योसे वे बहुत ही प्रभावित हुए थे। साथ लिये प्रेरणा कर रहे हैं वे सब ठीक हैं। जैनियों में ही यह मालूम करके कि ईसाईलीगामी सेवा सम्धाओं सेवाभावकी स्पिरिटको प्रोत्तेजन देने और एकवर्ग Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] जैनकालोनी और मेरा विचार पत्र १५ सच्चे जैनियों अथवा वीरके सच्चे अनुयायियोंको आदर्शवादोन बनकर आदर्शको अपनाना चाहिये तैयार करनेके लिए ऐसा होना ही चाहिए। परन्तु ये और उत्साह तथा साहसको वह अग्नि प्रज्वलित करनी काम साधारण बातें बनानेसे नहीं हो सकते, इनके चाहिये जिसमें सारी निर्बलता और सारी कायरता लिये अपनेको होम देना होगा, दृढसङ्कल्पके साथ भस्म हो जाय। आप युवा हैं, धनाढ्य हैं, धनसे कदम उठाना होगा, 'कार्य साधयिष्यामि शरीरं अलिप्त हैं, प्रभावशाली हैं, गृहस्थके बन्धनसे मुक्त है पातयिष्यामि वा' को नोतिको अपनाना होगा, किसी और साथ ही शुद्धहदय तथा विवेको हैं, फिर आपके के कहने-सुमने अथवा मानापमानकी कोई पर्वाह लिये दुष्करकाये क्या होसकता है ? थोड़ोसी स्वास्थ्य नहीं करनी होगी और अपना दुख-सुम्ब आदि की खराबीसे निराश होने जैसी बातें करना आपको सब कुछ भूल जाना होगा। एक ही ध्येय और शोभा नहीं देता। आप फलकी आतुरताको पहलेसे एक ही लक्ष्यको लेकर बराबर आगे बढ़ना होगा। हो हृदयमें स्थान न देकर दृढ़ सङ्कल्प और Full तभी रूढ़ियोंका गढ़ टूटेगा, धर्मके आसनपर जो will power के साथ खड़े हो जाइये, सुखी पाराम रूढ़ियां आमीन हैं उन्हें आसन छोड़ना पड़ेगा और तलब जैसे-जीवनका त्याग कीजिये और कष्ट सहिष्णु हृदयों पर अन्यथा संस्कारोंका जा खोल चढ़ा हुआ बनिये, फिर आप देखेंगे अस्वस्थता अपने आप ही है वह सब चूरचूर होगा। और तभी समाजको खिसक रही है और आप अपने शरीरमें नये तेज नये वह दृष्टि प्राप्त होगी जिससे वह धमक वास्तविक- बल और नई स्फूर्तिका अनुभव कर रहे हैं। दूसरोक स्वरूपको देख सकेगी। अपने उपास्य देवताको उत्थान और दसरोंके जीवनदानकी सच्ची सक्रिय ठीक रूप में पहचान सकेगी, उसकी शिक्षाके भमको भावनाएं कभी निष्फल नहीं जाती-उनका विद्य तका समझ सकेगी और उसके आदेशानुसार चलकर सा पासर हए बिना नहीं रहता। यह हमारी अश्रद्धा अपना विकास सिद्ध कर सकेगी। इस तरह समाजका है अथवा आत्मविश्वासको कमी है जो हम अन्यथा रुख ही पलट जायेगा और वह सच्चे अर्थीमें एक कल्पना किया करते हैं। धार्मिक समाज और एक विकासोन्मुख आदर्शसमाज मेरे खयालम तो जो विचार परिस्थितयोंको देख बन जायगा। और फिर उसके द्वारा कितनोंका उ- कर आपके हृदयमें उत्पन्न हुआ है वह बहुत ही शुभ स्थान होगा, कितनांका भला होगा, और कितनांका है, श्रेयस्कार है और उसे शीघ्र ही कायमे परिणत कल्याण होगा, यह कल्पनाके बाहरकी बात है। इनना करना चाहिये। जहां तकमै समझता हूं जैन कालोनी बड़ा काम कर जाना कुछ कम श्रेय, कम पुण्य अथवा के लिये राजगृह तथा उसके आस पासका स्थान कम धमेकी बात नही है। यह तो समाजभरके बहत उत्तम है। वह किसी समय एक बहुत बड़ा स. जीवनको उठानका एक महान आयोजन होगा। इसके द्धिशाली स्थान रहा है, उसके प्रकृत्ति प्रदत्त चश्मेलिये अपनको बीजरूपमं प्रस्तुत कीजिये। मत सोचिये गर्म जलक कुण्ट-अपूर्व हैं। स्वास्थ्यकर हैं, और कि मैं एक छोटासा बीज हूं। बीज जब एक लक्ष्य जनताको अपनी ओर श्रावपित किये हुए हैं। होकर अपनेको मिट्टीमें मिला देता है, गला देता और उसके पहाड़ी दृश्य भी बड़े मनोहर हैं और अनेक खपा देता है, तभी चहु औरसे अनुकुलना उसका प्राचीन स्मृतियों नथा पृवे गौरवकी गाथाओंको अपनी अभिनन्दन करती है और उसमे वह लह लहाता पौधा गोद में लिये हा है। स्वास्थ्यकी दृष्टिस यह स्थान तथा वृक्ष पैदा होता है जिसे देखकर दुनियां प्रमन्न बुग नही है। स्वास्थ्य सुधार के लिये यहां लोग होती है, लाभ उठाती है आशीर्वाद देती है। और फिर महीनी श्राकर ठहरते हैं। वर्षाऋतुम मच्छर साधा. उसस स्वत: ही हजारों बीजांकी नई सृष्टि हो जाती रणत. सभी स्थानांपर होते हैं-यहां वे कोई विशेषहै। हमें वावपट न होकर कायपटु होना चाहिये, रूपस नहीं होते और जो होते हैं उसका भी कारण Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अनेकान्त [ वर्ष तब वहां आवश्यकताके योग्य आदमियोंकी कमी नहीं रहेगी। यह हमारा काम करनेसे पहले का भयमात्र है। अतः ऐसे भयोंको हृदय में स्थान न देकर और भगवान महावीरका नाम लेकर काम प्रारम्भ कर दीजिये । आपको जरूर सफलता मिलेगी और यह कार्य श्रापके जीवनका एक अमर कार्य होगा । मैं अपनी शक्ति के अनुसार हर तरहसे इस कार्य में आपका हाथ बटानेके लिये तय्यार हूं । वृद्ध हो जानेपर भी आप मुझमें इसके लिये कम उत्साह नहीं पाएँगे । जैनजीवन और जैनसमाजके उत्थानके लिये मै इसे उपयोगी समझता हूं । सफाई का न होना है। अच्छी कालोनी बसने और सफाईका समुचित प्रबन्ध रहनेपर यह शिकायत भी सह जही दूर हो सकती है। मालूम हुआ यहां दरियागञ्ज में पहले मच्छरों का बड़ा उपद्रव था गवर्नमेंटने ऊपरसे गैस वगैरह - छुड़वाकर उसको शांत कर दिया और star बड़ी रौनकपर है और वहां बड़े बड़े कोठी बंगले तथा मकाना और बाजार बन गए हैं। ऐसी हालत में यदि जरूरत पड़ी तो राजगृह में भी वैसे उपायोंसे काम लिया जा सकेगा; परन्तु मुझे तो जरूरत पड़ती हुई ही मालूम नहीं होती । साधारण सफाई के नियमोंका सख्तीके साथ पालन करने और कराने से ही सब कुछ ठीक-ठाक हो जायगा । अतः इसी पवित्र स्थानको फिर से उज्जीवित Relive करनेका श्रेय लीजिये, इसीके पुनरुत्थानमें अपनी शक्तिको लगाइये और इसीको जैन कालोनी बनाइये। अन्यस्थानोंकी अपेक्षा यहां शीघ्र सफलता को प्राप्ति होगी। यहां जमीनका मिलना सुलभ हैं और कालोनो बसाने की सूचनाके निकलते ही आपके नक्शे आदि के अनुसार मकानात बनानेवाले भी आसानी से मिल सकेंगे और उसके लिये आपको विशेष चिन्ता नहीं करनी पड़ेगी। कितने ही लोग अपना रिटायर्ड जीवन वहीं व्यतीत करेंगे और अपने लिये वहां मकानात स्थिर करेंगे । जिस संस्थाकी बुनियाद अभी कलकत्ते में डाली गई वह भी वहां अच्छी तरहसे चल सकेगी। कलकत्ते जैसे बड़े शहरोंका मोह छोड़िये और इसे भी भुला दीजिये कि वहां अच्छे विद्वान नहीं मिलेंगे। जब आप कालोनी जैसा आयोजन करेंगे लाला जुगल किशोर जी ( काराजी) आदि कुछ सज्जनो से जो इस विषय में बातचीत हुई तो वे भी इस विचारको पसन्द करते हैं और राजगृहको ही इसके लिये सर्वोत्तम स्थान समझते हैं । इस सुन्दर स्थान को छोड़कर हमें दूसरे स्थानकी तलाश में इधर उ भटकनेकी जरूरत नहीं । यह अच्छा मध्यस्थान है-पटना, आरा आदि कितने ही बड़े बड़े नगर भी इसके आस पास हैं और पावापुर आदि कई तोथक्षेत्र भी निकटमें हैं । अतः इस विषय में विशेष विचार करके अपना मत स्थिर कीजिये और फिर लिखिये । यदि राजगृह के लिये आपका मत स्थिर हो जाय तो पहले साहू शान्तिप्रसादजीको प्रेरणा करके उन्हें वह जमीदारी खरीदवाइये, जिसे वे खरीदकर तीर्थक्षेत्रको देना चाहते हैं, तब वह जमीदारी कालोनी के काम में आ सकेगी। - जुगलकिशोर मुख्तार Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय की उपयोगिता एक पत्र और उसका उत्तर affभवन सागरके विद्यार्थी धन्यकुमार जैनने एक जिज्ञासापूर्ण पत्र लिखा है, जिसमें उन्होंने 'न्याय पढ़ने से क्या लाभ है ?' इस प्रश्न पर प्रकाश डालने की प्रेरणा की है। अत: उनके पूरे पत्र और अपने उत्तरको नीचे दिया आता है । “वर्तमान में छात्रोंको न्याय से अरुचि सी होती जा रही है । यद्यपि बहुतसे छात्र जैन विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने के कारण बाध्य होकर पढ़ते हैं। परन्तु बहुतसे छात्र केवल किसी प्रकार उत्तीर्ण होने का प्रयत्न करते हैं। मैं भी एक न्यायके छोटेसे ग्रन्थका पढ़नेवाला छात्र हूं। मुझे न्याय पढ़ते हुये डेढ़ व होचुका । परन्तु में अभीतक न्यायको उपयोगिता नहीं समझ पाया। अतः कृपया मेरे "न्याय पढ़ने से क्या लाभ है ?" इस प्रश्नपर प्रकाश डालें। ताकि मुझ ऐसे अल्पज्ञ छात्र न्याय पढ़ने से लाभोंको समझकर उसे पढ़ने में मन लगावें । जबतक किसी विपयकी उपयोगिता समझ में नहीं आती तबतक उसके विषय में कुछ भी प्रयास करना व्यर्थ सा होता है।" हमारा खयाल है कि वि० धन्यकुमारका यह पत्र अपने व विचारोंका प्रकाशक हैं, जो कुछ विचार न्यायके पढ़ने के बारेमें उनने प्रकट किये हैं वही प्राय: अन्य न्याय पढ़नेवाले जैन छात्रोंके भी होंगे। मैं भी जब न्याय पढ़ता था तो मुझे भी प्रारम्भमें न्याय पढ़नेसे अरुचि रहा करती थी । क्षत्रचूड़ामणि और चन्द्रप्रभचरित के पढ़ने में और उनके लगाने में जितनी स्वाभाविक रुचि होती थी उतनी परीक्षामुख और न्यायदीपिका पढ़ने में नदी । जब न्याय - दीपिकाकी पंक्तियोंको रटकर सुनाना पड़ता था तब उससे जी कतराता था । पर अब यह अरुचि नहीं है। बल्कि अनुभव करता हूं कि न्यायशास्त्रका अध्ययन योग्य विद्वत्ता प्राप्त करनेके लिये बहुत आवश्यक है उसके बिना बुद्धि प्रायः तर्कशील और पैनी नहीं होती । अतः न्यायशास्त्र के अध्ययनसे बड़ा लाभ है । प्रत्येक योग्य छात्र उससे अधिक विद्वत्ता और साहित्य-सेवा का लाभ उठा सकता है और साहित्यिक, दार्शनिक तथा सामान्य द्व में अपनी ख्यातिके साथ साथ अपना स्थान बना सकता है। प्रसिद्ध दार्शनिक और साहित्यिक विद्वान राधाकृष्णन और राहुल सांकृत्यायन अपनी दार्शनिक विद्वत्ता और रचनाओंके कारण ही आज विश्वविख्यात हैं | अपनी समाजके पं० सुखलाल जी, पं० महेन्द्रकुमार जी आदि विद्वान उक्त जगतमें ऐसे ही ख्याति प्राप्त विद्वान कहे जा सकते हैं । मतलब यह है कि न्याय - विद्या बुद्धिको तोच्ण करने के लिये बड़ी उपयोगी और लाभदायक श्रेष्ठ विद्या है और इस लिये उसका अभ्यास नितांत आवश्यक है । हम यह नहीं कहते कि शिक्षासंस्थाओं में पढ़ने वाले हरेक छात्रको जबरन न्याय पढ़नेके लिये मजबूर किया ही जाय। जिनकी रुचि हो, अथवा उचित आकर्षण ढंगसे न्याय पढ़नेको उपयोगिता एवं लाभ बतला कर जिनको रुचि बनाई जा सकती हो उन्हें ही न्याय पढ़ाना उचित है । यह मानी हुई बात है कि सभी छात्र नैयायिक, वैयाकरण, कवि, ऐतिहासिक, सैद्धान्तिक, पुरातत्त्वविद् आदि नहीं बन सकते। उन्हें अपनी अपनी रुचि के अनुसार ही बनने देना चाहिये। बनारस विद्यालय में एक छात्र थे । वे न्यायाध्यापक जीके पास पढ़ते वक्त Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वपे पुस्तकको तो खोलके रख लेते थे, परन्तु उनकी दृष्टि देगा कि अपना और अपने बच्चों, बीबी आदिका बचाकर इधर कागज घोड़ा, बन्दर, हाथी, आदमी पेट भरने (भरण-पोपण करने) के लिये करता है। आदि के चित्र खींचते रहते थे। पीछे वे नैयायिक उससे पुनः पूछिये कि यदि तुम कामपर समयपर तो नहीं बन सके पर पेन्टर अच्छे बने। न पहुंचो या कभी न जाओ तो क्या हर्ज है ? वह यह जरूर है कि प्रारम्भमें छात्र इतने विचारक चट उत्तर देगा कि मालिक खफा होगा और मजदरी तो नहीं होते कि वे अपने पठनीय विपयका अच्छी में से पैसे काट लेगा। इसी तरह किसी छात्रसे प्रश्न तरह स्वयं निर्णय कर सकें और इसलिये उन्हें अपने करिये कि तुमने यदि अपना सबक याद न किया तो गुरुजनोंका परामर्श लेना अथवा निश्चित कोपके गुरूजी तुमसे क्या कहेंगे ? वह उत्तर देगा कि वे अनुसार चलना आवश्यक होता है। यह एक प्रकार हमसे नाराज होंगे और हमें दण्ड देगे। फिर से अच्छा भी है। क्योंकि अनुभवी गुरुजनोंका परा- पृछिये कि यदि तुमने अपना पाठ याद करके उन्हें मर्श अथवा अनेक विद्वानोंकी रायसे तैयार किया सुना दिया तो क्या होगा? वह तुरन्त जबाब गया कोर्ष उस समय उन अनुभवहीन छात्रों के लिये दंगा कि हम उनकी नाराजीसे बच जावेंगे - वे पथ-प्रदर्शनका काम करता है। परन्तु गुरुजनोंको हम पर प्रसन्न रहेंगे और इसी तरह अपना पाठ परामर्श देते समय उनको रुचिका खयाल अवश्य याद करते रहने पर हम परीक्षा में पास हो जायेंगे। रखना चाहिये और उन्हें पूरी तरह संतोपित करना यही सब बातें हमारे परीक्षामुख (न्यायशास्त्र के चाहिये, केवल एक दो बार कह देनेसे पिण्ड नही पहिले ग्रन्थ) में- 'हिताहितप्राप्तिपरिहार-समर्थ छड़ा लेना चाहिये और न "बाबावाक्यं प्रमाणम्” हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत्'- इस सूत्रमें रूपसे आदेशका श्राश्रय लेना चाहिये। उन्हें उतने बतलाई गई हैं। अन्य विद्वानोंका यह भी कहना प्रकारोंसे पाठ्य-विषयके लाभालाभ (गुण-दोप) को है कि श्रद्धाके अन्तर्गतभी सूक्ष्मतर्फ निहित रहता है। बताना चाहिये जितनोंसे वह उनके गले उतर जाय कहनेका तात्पर्य यह है कि बालकों या मन भरजाय। आदि सबका दिमाग कुछ न कुछ तशील स्वभाव जहां तक मैं जानता हूं आजका न्यायशास्त्रका से ही होता है। अतएव प्रारम्भमें छात्रांको शिक्षण भी सन्तोप-जनक और छात्ररुचि-वधक नहीं न्यायशास्त्रका शिक्षण प्राय: बातचीत के ढंगमे होता। प्रारम्भमें तो उसकी और भी बुरी दशा है। अथवा प्रश्नोत्ता के रूपमें दिया जाना चाहिए साथ पंक्तियोंका मात्र अर्थ करके उन्हें वे पंक्तियां रटने को में जल्दी समममें आनेवाले अनेक उदाहरण भी, कहा जाता है। न्याय विपय एक तो वैसे ही रूखा जो आम तौर पर प्रसिद्ध हों, देना चाहिये। इससे है और फिर उसका शिक्षण भी रूखा हो तो कोमल छात्रोंको न्यायका पढ़ना अरुचिकर या भाररूप बुद्धि पत्रोंकी रुचि उसके अध्ययनमें कैसे हो सकती मालूम नहीं पड़ेगा- उसे वे रुचिके साथ पढ़ेंगे। है ? कोमल बुद्धि तो सहज-ग्राह्य चीजको बातचीत न्यायशास्त्रका शिक्षण वस्तुत: साहित्य सादिके के ढङ्गमें ग्रहण करना चाहती है। विद्वानोंका मत शिक्षणसे बिल्कुल जुदा है। उसके शिक्षकके लिये है कि प्रत्येक व्यक्तिकी बुद्धि में तर्क और उसको प्रतिदिनके पाठ्यविषय को पहले हृदय इम समझने की शक्ति रहती है और वह हर काम में उसका (परिभावित) करना और फिर पढ़ाना बड़ा उपयोग करता है। एक मजदरसे सवाल करिये कि आवश्यक है। ऐन मौके पर (उसी पढ़ाते समय) त मज दरी किस लिये करता है ? वह फौरन जवाब ही उसकी तैयारी नहीं होना चाहिये। ग्रन्थके Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ न्याय की उपयोगिता भावको अपनी बोलचालकी भाषा और शब्दों में न्यायशाला के शिक्षक को अपने दिमारा पर मुख्यतः ही प्रकट करना चाहिये। इससे जहां छात्रोंको जोर देना चाहिये। इतना प्रकृतोपयोगी प्रसङ्गानुन्याय पढ़ने में रुचि नहीं होगी वहां शिक्षकको सार कह कर अब मूल प्रश्न पर प्रकाश डाला जाता एक फायदा यह होगा कि वह स्वतन्त्र चिन्तक हैबनेगा- वह टीकादि ग्रन्थों मे हुई भूलों के १-हम पहिले कह पाये हैं कि हरेक व्यक्तिकी दहराने एवं अनुसरण करने से बच जाता है। बुद्धि स्वभावत: कुछ न कुछ तर्कशील रहती है। पर अन्यथा वह गतानुगनिक बना रहेगा। उदाहरण न्यायशास्त्रके अध्ययनसे उस तर्कमें विकास स्वरूप न्यायदोपिकाम असाधारण धमको लक्षण होता है, बुद्धि परिमार्जित होती है. प्रश्न करने का लक्षण मानने वालों के लिये अव्याप्ति, और उसे जमा कर उपस्थित करनेका बुद्धिमें अतिव्याप्ति, असम्भव यह तीन दोष दिये गये हैं। मादा पाता है। बिना तबकी बुद्धि कभी कभी इसकी हिन्दी टीकामें टीकाकार पं० खूबचन्दजी से ऊट पटांग- जीको स्पर्श न करने वाले प्रश्न कर असम्भव दोष का खुलासा करने में एक भूल हो गई बैठती है, जिससे व्यक्ति हास्यका पात्र बनता है। है। वहां कहा गया है २- न्याय प्रन्थोंका पढ़ना व्यवहार कुशलता के लिये भी उपयोगी है। उससे हमें यह मालूम __'लक्ष्य और लक्षण ये दोनों एक ही अधिकरण होजाता है कि दुनिया में भिन्न भिन्न विचारोके में रहते हैं, ऐसा नियम है। यदि ऐसा न मानोगे लोग हमेशासे रहे हैं तो घट का लक्षण पट भी मानना पड़ेगा परन्तु विचार ठीक और सत्य हैं और दूसरेके विचार और रहेंगे। यदि हमारे प्रवादी के माने हुए लक्षण के अनुसार लक्ष्य तथा ठीक एवं सत्य नहीं हैं तो दर्शनशास्त्र हमें दिशा लक्षण का रहना एक ही अधिकरण में नहीं बन दिखाता है कि हम सत्यके साथ सहिषा भी बनें सकता। क्योंकि उसके मतानुसार लक्षण लक्ष्य और अपनेसे विरोधी विचार वालों को अपने में रहता है और लक्ष्य अपने अवयवों में रहता है। तों द्वारा ही सत्यकी ओर लाने का प्रयत्न करें, जैसे पृथ्वी का लक्षण गन्ध है वह गन्ध पृथ्वी में जोर जबरदस्ती से नहीं। जैन दर्शन सत्यके साथ रहता है और पृथ्वी अपने अवयवों में रहती है। सहिष्ण है इसीलिये वह और उसका सम्प्रदाय इसी प्रकार सभी उदाहरणों में लक्ष्य तथा लक्षण में भारत में टिका चला रहा है अन्यथा बौद्ध आदि भिन्नाधिकरणता ही सिद्ध होती है। कहीं भी दर्शन की तरह उसका टिकना अशक्य था। अन्धएकाधिकरगाता नहीं बनती। इसलिये इस श्रद्धाको हटाने, वस्तुस्थितिको समझने और लक्षण के लक्षण मे असम्भव दोप आता है। विभिन्न विचारोंका समन्वय करनेके लिये भ्याय न्यायदीपिकामें उक्त लक्षण के लक्षण में एवं दाशनिक ग्रन्थाका पढ़ना, मनन करना, चिन्तन जो असम्भव दोप कहा गया है वह शाब्द करना जरूरी है। न्याय ग्रन्थों में जो आलोचना सामानाधिकरण्य के अभाव को लेकर है, आथ पाई जाती है उसका उद्देश्य केवल इतना ही है सामानाधिकरण्य के अभाव को लेकर नहीं। इस सम्बन्ध में पं० वंशीधर जी व्याकरणाचाये कई वर्ष १ मैने भी स्पष्ट किया है देखो न्यायदीपिका पृ० १० पूर्व स्पष्ट कर चुके हैं। परन्तु न्यायदीपिका के अनेक [प्रस्ता०], पृ० १४१ [हिन्दी टीका] तथा परि० नं०७ शिक्षक अभी भी उक्त भूल को दुहराते हैं। अत: पृ०२३८ । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वह - - कि सत्य का प्रकाशन और सत्य का ग्रहण हो। किसी तरहके साहित्य का निर्माण ही कर सकता है। न्यायालयमें भी झठे पक्षकी आलोचना की ही और यह प्रकट है कि चलता दिमाग मुख्यतः न्याय जाती है। न्यायशास्त्रका अध्येता प्राय: परीक्षा शास्त्रसे होता है उसे दिमागको तीक्षण एवं द्रत चक्षु कहा जाने योग्य होता है। गति से चलता करनेके लिये उसका अवलम्बन जरूरी है। सोने में चमक कसौटी पर ही की जाती है। । अत: साहित्यसेवी और विद्वान बनने के लिये न्याय न्यायशास्त्र से होता है। जाड़ामें रुई से भरा या का पढना उतनाही जरूरी है जितना आज राजनीति ऊन से बना कपड़ा लोग क्यों पहिनते हैं ? गरीब और इतिहासका पढ़ना जरूरी है। लोग आग जला जला कर क्यों तापते हैं ? इसका। ६-न्यायशास्त्र में कुशल व्यक्ति सब दिशाओं में उत्तर है कि उन चीजोंसे ठंड दूर होती है जासकता है और सब क्षेत्रोमें अपनी विशिष्ट उन्नति उसके कारण हैं और ठंड दर होना उनका कार्य है और कारणसे कार्य होता है आदि बातोंका ज्ञान कर सकता है - वह असफल नहीं होसकता। सिर्फ शर्त यह कि वह न्याय प्रन्थोंका केवल भारतर्कशास्त्र से होता है। यह अलग बात है कि जो तकशास्त्र नहीं पढ़ा उसे भी उक्त प्रकारका ज्ञान वाही न हो। उसके रससे पूर्णत: अनुप्राणित हो। होता है परन्तु यह अवश्य है कि उसका ज्ञान तो -निसर्गज तर्क कम लोगों में होता है। देखा देखी है और तर्कशास्त्र के अभ्यासीका ज्ञान अधिकांश लोगोंमें तो अधिगमज तर्कही होता है अनुमान प्रमाणसे स्वयं का निर्णात ज्ञान है वह जो साक्षात अथवा परम्परया न्यायशास्त्र-तर्कशास्त्र उसकी व्यवस्थित मीमांसा जानता है। के अभ्याससे प्राप्त होता है। अतएव जो निसर्गत: तकशील नहीं हैं उन्हें कभी भी हताश नहीं होना ४-न्यायशास्त्र का प्रभाव क्षेत्र व्यापक है, चाहिये और न्यायशास्त्र अध्ययन द्वारा अधिगमज व्याकरण, साहित्य, राजनीति, इतिहास, सिद्धान्त तक प्राप्त करना चाहिये। इससे वे न केवल आदि सब पर इसका प्रभाव है। कोई भी विपय अपनाही फायदा उठा सकते हैं किन्तु वे साहित्य ऐसा नहीं है जो न्याय के प्रभाव से अछूता हो। और समाजके लिये भी अपूर्व देनकी सृष्टि कर व्याकरण और साहित्य के उच्च ग्रन्थों में न्यायसूये सकते हैं। का तेजस्वी और उज्ज्वल प्रकाश सर्वत्र फैला हुआ मिलेगा। मैं उन मित्रों को जानता हूँ जो व्याकरण -समन्तभद्र. अकलंक, विद्यानन्द आदि जो बड़े बड़े दिग्गज प्रभावशाली विद्वानाचार्य हये हैं वे और साहित्य के अध्ययन के समय न्याय के अध्ययनकी अपनेमें कमी महसूस करते हैं और सब न्यायशास्त्रक अभ्यास से ही बने हैं। उन्होंने उसको आवश्यकता पर जोर देते हैं। इससे न्यायशास्त्र रत्नाकरका अच्छी तरह अवगाहन करके ही उत्तम उत्तम ग्रन्थ रत्न हमें प्रदान किये हैं स्पष्ट है कि न्यायका पढ़ना कितना उपयोगी और जिनका प्रकाश आज जग जाहिर है और जो हमें लाभदायक है। धरोहरके रूपमें सौभाग्य से प्राप्त हैं। हमारा ५- किसीभी प्रकारको विद्वत्ता प्राप्त करने और कर्तव्य है कि हम उन रत्नोंकी प्राभाको अधिकाधिक किसीभी प्रकारके साहित्यनिर्माण करनेके लिये रूपमें दुनियांके कोने कोने में फैलायें जिससे जैन चलता दिमाग चाहिये। यदि चलता दिमाग़ नहीं शासनकी महत्ता और जैन दर्शनका प्रभाव लोकमें है तो वह न तो विद्वान बन सकता है और न ख्यात हो। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ स्व० मोहनलाल दलोचन्द देसाई ये कुछ चंद बातें हैं जिनसे न्याय के पढ़नेकी और लाभदायक विषय है जिसका अध्ययन लौकिक उपयोगिता और लाभोंपर कुछ प्रकाश पड़ सकता है। और पारमार्थिक दोनों दृष्टियोंसे आवश्यक हैअत: ज्ञात होता है कि न्याय एक बहुत उपयोगी उसकी अपेक्षा नहीं करनी चाहिये । -दरबारीलाल कोटिया -: जनसाहित्य महारथी :स्क० मोहनलाल दलीचन्द देसाई (ले-श्री भंवरलाल नाहटा ) शत्रजय, गिरनार आदि तीर्थोसे पवित्रित प्रीवियस पासकी। तदन्तर गोकुलदास तेजपाल सौराष्ट्र-काठियावाड़ देशने कई महान व्यक्तियोंको बोडिगमें रहकर सन् १९०६ में बी०ए० की परीक्षा जन्म दिया जिनमें से वतमान युगके तीन जैन पास की। तेजस्वी नक्षत्रों- जो आज विद्यमान नहीं हैं- बी०ए०पासकर इन्होंने माधवजी कामदार एण्ड का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अध्यात्म साधनाके छोटूभाई सोलीसिटर्सके यहां रु०३०) मासिकमें श्रेष्ठतम साधक श्रीमद् राजचन्द्र, जैन साहित्य नौकरी करली। वहां नौकरी करते हुए इन्होंने महारथी मोहनलाल दलीचन्द देसाई एवं लोक- एल० एल० बी० का अभ्यास चालू रखा और साढ़े साहित्य के महान लेखक मवेश्चन्द मेघाणी ये तीनों तीन वर्षमें अर्थात १६१० की जुलाइमें एल० एल० बी० इसी पवित्रभूमि के रत्न थे। इनमें जैनसाहित्यकी होगये। इसके बाद सेप्टेम्बर महीने में इन्होंने सेवा करने में श्रीयुत मोहनलाल दलीचन्द देसाईने वकालतकी सनद प्राप्त की उस समय आपको फीसके सतत प्रयत्न कर जो ठोसकृतियां जैन समाजको दी लिय सेठ हेमचन्द अमरच-दसे कर्जके तौरपर इसके लिये जैनसमाज आपका सर्वदा ऋणी रहेगा। रुपये लेने पड़े थे जो पीछे सुविधानुसार लौटा दिये हिन्दी पाठकोंकी जानकारी के लिये श्रीयत दमाईकी गये थे। सेवाका संक्षिप्त परिचय यहां दिया जारहा है। श्रीयुत देसाई वकील होकर अपना स्वतंत्र बीकानेर (काठियावाड) रियासतके लगासर व्यापार करनेलगे और सन १६११ में पहिला विवाह गांव में सन १८८y ई० के अप्रेल, मासमे इनका अभयचन्द कालीदायकी पुत्री मरिग बहनस हा जन्म हुआ था। ये दशा श्रीमाली जातिके जिससे लाभलक्ष्मी और नटवरलाल नामक दो श्वेताम्बर मृत्तिपूजक जन श्रीवलोचन्द देसाईके पुत्र सन्तान हुई। मणिबहनका देहान्त होजाने पर सन् थे। उनकी माताका नाम उजानबाई था। इनके १६२० के दिसम्बरमे प्रभावती बहिनके साथ आपका जीवननिर्माण में राजकोटनिवामी श्रीयत प्राणजीवन द्वितीय विवाह हुश्रा। जिससे रमणीकलाल और मरारजी साहका विशेष हाथ रहा है, जो इनके जयसुखलाल नामक पुत्र और ताराबहिन व रमाबहिन मामा होते थे। पिताकी स्थिति अत्यन्त साधारण नामको पुत्रियां उत्पन्न हुई। होने के कारण ५ वर्षको बाल्यावस्थामे ही प्राणजीवन अपने व अपने परिवारके आजीविका मामा इन्हें अपने यहां ले आये। पढ़ाईका समुचित -वकालत या कोईभी धन्धा प्रत्येक व्यक्ति करता है प्रबन्ध करदिया, जिससे मामाके पास रहकर इन्होंने परन्तु आदर्श व्यक्ति वही कहा जासकता है जो Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वह समाज और साहित्यसेवा में अधिकसे अधिक समय सह महत्त्वपूर्ण परिचय दिया है। इस भागमें कुल का भोग देता है। स्वर्गीय देसाई सच्चे लगनशील २८७ जैनकवि और ५४१ पद्यकृतियोंका परिचय और निरन्तर ठोस कायकर्ता थे। हाईकोर्टकी छट्रियों में है, तदनन्तर गद्यग्रन्थों की सूची, कवि व कृतियोंकी तो आप अधिकतर प्रवासमें आकर जैनहस्तलिखित अकारादिको सूचीके साथ १०१० पृष्ठों में ग्रन्थ समाप्त प्रतियोंका अवलोकनकर विवरण लिखतेही पर अन्य हुआ है, जिसमें प्रारम्भमें ३२० पृष्ठको प्रस्तावना समय भी दिनरात उनका कार्य चालू रहता था। में 'जूनी गुजराती भाषानो संक्षिप्त इतिहास' शीर्षकसे आफिसमें भी अपने पोथीपत्रे साथ रखते और जब भाषा साहित्यका इतिहास लिखा है जो विद्वानोंके फुरसत मिली सरस्वती उपासनामें जुट जाते। घर लिये बड़े ही कामकी वस्तु है। इसके ५ वर्ष बाद पर भी जब सब लोग सोये रहते, देसाई महोदय द्वितीयभाग प्रकाशित हुआ, जिसमें १८ची शताब्दीके रातमें दो दो बजे तक अपनी साहित्य-साधनामें १७६ कवियोंकी ४०१ कृतियोंका परिचय, गद्य-कृतियें संलग्न रहते थे। आलस्य-प्रमादको पासभी नहीं जैनकथाकोश, खरतर तथा अंचल गच्छकी फटकने देते थे, जहां कहींभी साहित्यिक कार्य होता पट्टावलिये, राजावली आदि परिशिष्टोंयुक्त ८४५ स्वयं तत्काल जा पहुंचते थे। आपने अपनी पृष्ठोंमें दिये हैं। तीसरा भाग दो खंडोमें है, जिनके साहित्य-साधनाकी सबसे अधिक सेवा श्रीजैन कुल २३४० पृष्ठ हैं। इसमें ५२० कवियोंके ११११ श्वेताम्बर कान्फ्रेन्सको दी। जैनश्वे० कौ० हेरल्डके कृतियोंका एवं १४५ ग्रन्थकारोंकी ५६६ गद्यकृतियोंका ७ वर्षे तक आप संपादक रहे। "जैनयुग" मासिक तथा २५४ अज्ञातकर्तृक गद्यकृतियोंका परिचय, १२८ का ५ वर्ष तक सम्पादन किया, जो अन्वेषण और पृष्ठकी कवि, कृति, स्थल एवं राजाओंआदिको अनुसाहित्यिक जैनपत्रों में अपना खास स्थान रखता था। क्रमणिका, २७२ पृष्ठामे देशियोंकी महत्त्वपूर्ण विस्तृत जैनसाहित्यसंशोधकके बाद उच्चकोटिके पत्रों में सूची सत्पश्चात जनतर कवि एवं कृतियोंका परिचय, जैनयुगका हो नम्बर लिया जासकता था, यदि वह कतिपय गच्छोंकी परम्परा-पट्टायली श्रादिके पश्चात बन्द न होता तो अबतक न जाने कितना महत्त्वपूर्ण देसाई महोदयके ग्रन्थोंपर विद्वानोंके अभिप्राय जैनसाहित्य प्रकाश में आजाता। प्रकाशित हैं। आपने इस ग्रन्थकी महत्त्वपूर्ण ५०० देसाई महोदयको जैनसाहित्य के प्रति प्रगाढ प्रेम पृष्ठकी प्रस्तावना+ लिखनेका विचार हमें सूचित किया और अनन्यभक्ति थी। गुजराती भाषा के लिये आप +दम प्रम्नावना के सम्बन्धमे हम निम्नोक्त मचनाये ने बहुत कुछ किया एवं जैन भाषासाहित्य के प्राचीन अपने पत्राम दी थी :प्रन्थांको गुर्जरभाषा-भाषी जनतामें प्रकाशमें लाने के ५- ता० ५२-१२-४७ के पत्रमे "प्रस्तावना ५०० पृष्ठ हेतु आपने हजारों पृष्ठोमें "जैनगुर्जरकवियो" के नी लग्यवानी बाकी छे ते लम्बवानी छे त माटे छुटक तीन भाग प्रकाशित कर सैकड़ों जैन कवियोंको छूटक लवायु छ न भेगु करवानुछे।” उच्चासन प्राप्त कराया एवं हजारों कृतियोंको विद्वत् २- ता० २७-१-४३ के पत्रमे "प्रस्तावना लिग्बी जारही समाजके सन्मुख रखकर गुर्जर-गिरा, जैनसाहित्य है पृ०५०० करीब मुद्राकित होगा।” जैन गुर्जर माहित्यका और जैनशासनको अमूल्य सेवा की। जैनगुर्जर इतिहास" यह मेरी प्रस्तावनाका शीर्षक है, उममे लवलीन कवियोंका प्रथमभाग मं० १६१२ में प्रकाशित हुआ, हूं समुद्रमंथन चल रहा है। क्या टालू क्या नहीं ? जिसमें १३वीं शताब्दीसे ७वीं शताब्दीके अपनश, वाग्देवी महाय करे और ग्राप जैसेकु सहाय देनेकी प्रेरणा हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी भाषाके दि० श्वे० करे। ग्रापका माहित्य-लेग्य परिश्रमके लिये हृदयपूर्वक बैनेतर कवि और उनकी रचनाओंका आदि अन्न- धन्यवाद देकर - लि० सा० मेवक मोहनलालका नमना । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ स्व० मोहनलाल दलीचन्द था और उसके नोटिसभी तैयार होगये थे पर उनके आपने श्रीमद् यशोविजयजीका जीवनचरित्र एवं एकाएक अस्वस्थ हो जानेसे वह कार्य सम्पन्न न हो नयकर्णिका ग्रन्थ संकलित किये । सिघी जैन ग्रन्थमाला सका। अगर यह प्रस्तावना प्रकाशित होजाती तो से प्रकाशित सिद्धिचन्द्रगणि कृत भानुचन्द्रचरित्रको जैनसाहित्यके सम्बन्धमें बहुत कुछ जानकारी प्राप्त हो भी इंग्रेजीकी विस्तृत प्रस्तावनायुक्त सम्पादित किया। सकती थी। गुजराती में (१) जैनसाहित्य अने श्रीमन्तो नु कर्त्तव्य ___ स्वर्गीय देसाई महोदयने अपनी सारी शक्ति (२) जिनदेवदशन (३) सामायिक सूत्र-रहस्य लगाकर जिस महान ग्रन्थको लिखा वह है- जैन (४) जैनकाव्यप्रवेश (५) समकितना ६७ बोल नी साहित्यनो संक्षिप्रा तिहास का समाय (अर्थसहित) ६) जैनऐतिहासिक रासमाला १२५० और ६० चित्र हैं। इसमें भगवान महावीर (भा०१) (७) नयकर्णिका (5) उपदेशरत्नकोश से लेकर अबतकके साहित्यका इतिहास. टीमोटी (ह) स्वामी विवेकानन्दना पत्रो (१०) श्रीमुजप्तवेलि(?) समस्त रचनाओंका उल्लेख एवं जैनाचार्यो. श्रावको. इत्यादि पुस्तक लिखीं एवं सम्पादन को । आदिको सभी धार्मिक, सामाजिक आदि प्रवृत्तियोंका इनके अतिरिक्त हमारी पुस्तक युग-प्रधान श्री संक्षेपमें किन्तु बड़ाही सारगर्भित एवं सुरुचिपूर्ण जिनचन्द्रसूरिकी आपने विस्तृत प्रस्तावना लिखी। लेखन बड़ी ही प्रमाणिकताके साथ किया गया है। श्रात्मानन्द-शताब्दी स्मारक ग्रन्थका आपने विद्वत्तायह ग्रन्थ विद्वान लेखकके महान धैर्य विद्वत्ता और पर्वक सम्पादन किया। सामयिक पत्रों में समय लेखनकौशलका परिचायक है। इसके संकलनमें समय पर आपके शोधपूर्ण लेख आते रहते थे। लगा २० वर्षका श्रम सफल होगया। आज यह कविवर समयसुन्दर पर आपने विस्तृत खोज की ग्रन्थ विद्वानों के लिये पथप्रदर्शक है। इसका हिन्दीभाषा- और सुन्दर निबन्ध लिखकर गुजराती साहित्य भाषी जनतामें प्रचार करने के लिये हिन्दीमें अनुवाद परिषदको अधिवेशन में सुनाया, वह लेग्व होना परमावश्यक है। जैनमाहित्यसंशोधक एवं आनन्दकाव्यमहोदधिके देसाई जी ने स्वयं अकेले ग्रन्थों के लेखन एवं ७वें मौक्तिकमें भी चार प्रत्येक बुद्ध रामके साथ प्रकाशन आदिसे अन्ततक परिश्रम किया। उन्होंने छपा है। इसी प्रकार कवि ऋपभदासका विस्तृत निजी खर्चसे साहित्यिक यात्रायें की, ज्ञानभंडार देखे. परिचय मौक्तिक में प्रकाशित हुआ है। हमारी पुस्तकें संग्रहीत की। लेखन, प्रफ अवलोकन, अन- साहित्य प्रवृत्तिमें प्रधानत: (खासकर) महाकवि क्रमणिका-निमोणादि समस्त कार्य बिना किसीकी समयसुन्दरजीकी कृतियां ही प्रेरणादात्री हुई और साहाय्यसे करना और अपने वकालत पेशे में भी श्रीयत देसाईक इस विद्वत्तापूर्ण लेखन हमें मार्ग संलग्न रहना उनकी जैनमाहित्य के प्रति महान प्रीति दिखाया। बम्बईको पर्य पणपर्व-व्याख्यानमालामें एवं एक लग्नशील कितना काम कर सकता है भी आप बड़ी दिलचस्पीसे भाग लेते और जनताको इमका ज्वलंत उदाहरण है। वास्तवमें देसाईजीकी अपने विद्वत्तापूर्ण व्याख्यानों द्वारा लाभान्वित सेवासे कान्फ्रेन्सका गौरव बढ़ा, यह स्वीकार करनेमे करते रहे हैं। संकोच नहीं होना चाहिये। सभा सोसाइटियोंसे आपको विशेष प्रेम था । देसाईजीको अविश्रान्त लेग्वनी जैनसाहित्योद्धार- नागरी प्रचारिणी सभाके श्राप सदस्य थे ही। जैनधर्म प्रकाशनार्थ जीवन भर चली, जिसके फलस्वरूप प्रसारकसभा, श्रात्मानन्दसभा (भावनगर) और उपयुक्त ग्रन्थों एवं पत्रों के सम्पादकके अलावा 'सनातन जैनएज्युकेशनलबोडे बम्बईके श्राप आजीवनजैनक भी दो वर्षतक उपसम्पादक रहे। इंग्रेजीमें सभासद थे। जैन श्वे० कौन्फ्रन्सकी स्टेण्डिग Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अनेकान्त कमिटीके, महावीर जैन विद्यालय की मैनेजिंग कमेटी के, श्रीमांगरोल जैनसभाकी मैनेजिंग कमेटीके भी आप सदस्य थे। हमारे साथ आपका वर्षोंसे घनिष्ठ सम्बन्ध था। फुरसत मिलने पर आप हमारे पत्रोंका विस्तृत उत्तर देते, आपके कतिपय पत्र तो दस दस पन्द्रह पन्द्रह पेज लम्बे हैं। आप कई वर्षोंसे बीकानेर का विचार कर रहे थे । एकबार आपका आना निश्चित होगया था और आपकी प्रेरणा से हमने श्रीचिन्तामणिजी के भण्डारको प्राचीन प्रतिमाएँ भी प्रयत्न कर निकलवायें इधर देसाई महोदय बम्बईसे बीकानेर के लिये रवाना होकर राजकोट भी आगये पर सालीक ब्याह पर रुक जाना पड़ा। इसप्रकार कईबार विचार करते करते सन १६४० में हमारे यहां पधारे और १५-२० दिन हमारे यहां ठहर के अविश्रांत परिश्रम कर हमारे संग्रहकी समस्त भाषाकृतियें (रास, चौपाई आदि) एवं बीकानेर के अन्य समस्त संग्रहालयोंक रास चौपाई आदि के विवरण तैयार किये। जिनका उपयोग जैन गुर्जर कविओो भा० ३ में किया। इस ग्रन्थकी तैयारी में अत्यधिक मानसिक परिश्रम आदिके कारण सन १६४४ में आपका मस्तिष्क शून्यवत होगया और अन्तमे २-१२-४५ के रविवार के प्रातः काल राजकोट में स्वर्ग सिधारे । अपने श्रीमद् यशोविजयजीकी समस्त लघुकृतियाका संग्रह किया था। उसे प्रकाशन करने के लिये किसी मुनिराजने देसाई महोदय से सारी कृतियें लेकर उन्हीस संकलन सम्पादन कराके प्रकाशित कीं पर सम्पादकका नाम देसाई महोदय का न रखकर प्रस्तावना में उल्लेखमात्र कर दिया देसाई महोदय के प्रति यह अन्यायही हुआ । यद्यपि स्वर्गीय देसाई महोदयको नामका लोभ तनिक भी नहीं था किन्तु नैतिकता के नाते ऐसा कार्य किसीभी मुनि कहलानेवाले तो क्या पर गृहस्थको भी उचित नहीं है | देसाई महोदय यह चाहते तो इस विषय में हस्तक्षेप कर सकते पर उन्हें नामकी परवाह नहीं, वप ६ कामका ख्याल था और इसी दृष्टिसे उन्होंने कभी शब्दोच्चारण भी इस विषय में नहीं किया । हमारा कर्त्तव्य - आपने बारामासोंका परिश्रमपूर्वक विशाल संग्रह किया जिसे अपने मित्र मंजूलाल मजुमदारको दिया, वह अब तक अप्रकाशित है जिसे अवश्य प्रकाशित कराना चाहिये । देसाईजी बड़े परिश्रमी और अध्यवसायी थे जहां कहीं इतिहास, भाषा या साहित्य सम्बन्धी कोई महत्वपूरण कोई कृति मिलती स्वयं नकल कर लेते या संग्रह कर लेते थे । इस तरह आपके पास बड़ाही महत्त्वपूर्ण विशाल संग्रह होगया था । इस संग्रहकी सुरक्षाके हेतु हमने चैनपत्रादि मे लेख एवं पत्रद्वारा कान्फ्रेंस श्रादिका ध्यान आकृष्ट किया पर अद्यावधि कार्य कुछभी हुआ प्रतीत नहीं होता। अब एक बार हम पुनः जैन श्वे० कान्फ्रेंसका ध्यान निम्नोक्त बातोंकी तरफ आकृष्ट करते हैं। आशा है, कान्फ्रेंस, उनके मित्र, सहयोगीवगं सक्रिय योगदान पृथक स्वर्गीय देसाई महोदय के प्रति फजे अदा करेंगे। श्वे० कान्फ्रेंस एवं जैनसमाजके कतिपय आवश्यक कर्त्तव्य इस प्रकार हैं १- देसाईजीक संग्रहको सुरक्षित कर कान्फ्रेंस, उसे सुसम्पादित करवाके प्रकाशन आदि द्वारा सर्वे सुलभ करे । २- उनके जीवनचरित्र व पत्रादि सामप्री जिनके पास हो संग्रहकर प्रकाशित करें । ३- उनकी स्मृति में एक स्मारक ग्रन्थ, विद्वानों के लेख, संस्मरणादि एकत्र कर प्रकाशित करें । ४- उनकी स्मृति में एक ग्रन्थमाला चालू करें जो इतिहास, साहित्य, पुरातत्त्व और जैन स्थापत्यादि विषयों पर उत्तमोत्तम ग्रन्थ प्रकाशित करे । ५- आपके " जैन गुर्जर साहित्य के इतिहास " की सामग्रीको इकठ्ठा कर एवं अधिकारी विद्वानसे सम्पादित कराके प्रकाशन करना परमावश्यक है । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत गौरव प्राचार्यकल्प पं० टोडरमल्लजी (ले०- पं० परमानन्द जैन, शास्त्री) जीवन-परिचय मैं हूं जीवद्रव्य नित्य चेतनास्वरूप मेरोहिन्दी साहित्यके दिगम्बर जैन विद्वानों में पण्डित लग्यो है अनादित कलङ्क कर्ममलको, टोडरमलजीका नाम खासतौरसे उल्लेखनीय है। आप ताहीको निमित्त पाय रागादिक भाव भये हिन्दीके गद्य-लेग्वक विद्वानों में प्रथम कोटिके विद्वान भयो है शरीरको मिलाप जैसौ खलको । हैं। विद्वत्ताके अनुरूप आपका स्वभावभी विनम्र रागादिक भावनिको पायके निमित्त पुनिऔर दयालु था। स्वाभाविक कोमलता और मदा होत कर्मबन्ध ऐसी है बनाव कलको, चारिता श्रापके जीवनके सहचर थे। अहङ्कार तो एसे ही भ्रमत भयो मानुष शरीर जोग प्रापको छू भी नहीं गया था। आन्तरिकभद्रता और बने तो बनै यहां उपाव निज थलको ॥३६।। वात्सल्यका परिचय आपकी सौम्य श्राकृतिको देखकर रमापति स्तुतगुन जनक जाको जोगीदास । महजही हो जाता था। आपका रहन-सहन बहुतही सोई मेरो प्रान है धार प्रकट प्रकाश ।।३७।। सादा था। साधारण अङ्गरखी, धोती और पगड़ी मैं आतम अरु पुगलखंध, मिलिके भयो परस्पर बंध। पहना करते थे। आध्यात्मिकताका तो आपके जीवनके सो असमान जातिपर्याय, उपज्यो मानुष नाम कहाय ।। साथ घनिष्ट सम्बन्ध था। श्रीकुन्दकुन्दादि महान मात गर्भ में सो पर्याय, करिके पूरण अङ्ग सुभाय । आचाकि आध्यात्मिक-ग्रन्थों के अध्ययन, मनन बाहर निकसि प्रकट जबभयो, तब कुटुम्बको भेलो भयो एवं परिशीलनसे आपके जीवनपर अच्छा प्रभाव पड़ा नाम धरयो तिन हर्षित होय, टोडरमल्ल कहें सब कोय । हुआ था। अध्यात्मको चर्चा करते हुए श्राप आनन्द एसो यहुमानुष पर्याय, वधतभयो निज काल गमाय । विभोर हो उठते थे, और श्रोता-जन भी आपकी देम दढाइड मांहि महान, नगर सवाई जयपुर थान । वाणीको मनकर गदद हो जाते थे। संस्कृत और तामें ताको रहनौ घनो, थोगे रहनो श्रोढे बनो।॥४॥ प्राकृत दोना भापायके आप अपने समय के अद्वितीय तिसपर्याय वि जो कोथ, देखन जाननहारो सोय। और सयोग्य विद्वान थे। श्रापका क्षयोपशम आश्च- म जीवद्रव्य गुनभूप, एक अनादि अनंत अरूप ॥ यकारी था, और वस्तुतत्त्वके विश्लेपणमे आप बहुत कर्म उदयको कारण पाय, रागादिक हा दुग्वदाय । ही दक्ष थे। आपका आचार एवं व्यवहार विवेकयुक्त ते मेरे श्रीपाधिकभाव, इनिकी विनशै में शिवराव ।। और मृदु था। वचनादिक लिखनादिकक्रिया, वर्णादिक अगइन्द्रियहिया यद्यपि पण्डितजीन अपना और अपने माता ये सब है पुलका खेल, इनिमें नांहि हमारो मेल |४|| पितादि फुटुम्बिजनीका कोई परिचय नही दिया और इन पद्योंपर से जहां उनका आध्यात्मिक जीवनन अपने लौकिक जीवनपर ही कोई प्रकाश डाला है। परिचय मिलता है वहां यह भी प्रकट है कि आपके फिर भी लब्धिसार ग्रन्थकी टीका-प्रशस्ति आदि लौकिक जीवनका नाम टोडरमल्ल था और पिताका सामग्रीपर से उनके लौकिक और आध्यात्मिक जीवन नाम जोगीदास तथा माताका नाम रमादेवी था। का बहुत कुछ पता चल जाता है। प्रशस्तिक वे पद्य दसर स्रोतांसे यह भी स्पष्ट है कि आप खण्डेलवाल इस प्रकार है: जानि के भूपण थे और आपके वंशज साह कार Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वह कहलाते थे। पण्डितजी विवाहित थे और उनके दो विशिष्ट श्रोताजन पाते थे। उनमें दीवान रतनचन्दजी२ पुत्र थे। एफका नाम हरिचन्द और दुसरेका नाम अजबरायजी. त्रिलोकचन्दजी पाटनी, महारामजी३ गुमानीराम था। हरिचन्दको अपेक्षा गुमानीरामका त्रिलोकचन्दजी सोगानी, श्रीचन्दजी सोगानी और क्षयोपशम विशेष था, वह प्रायः अपने पिताके समान नेनचन्दजी पाटणीके नाम खासतौरसे उल्लेखनीय ही प्रतिभा सम्पन्न थे और इस लिये पिताके - - - - - - अध्ययन तत्त्वचर्चादि कार्यो में यथायोग्य सहयोग २ दावान रतनचन्दजी और बालचन्दजी उस समय देते रहते थे। ये स्पष्टवक्ता थे और शात्रसभामें जयपर के माधर्मियों में प्रमुख थे। बड़े ही धर्मात्मा और श्रोताजन उनसे खूब सन्तुष्ट रहते थे। इन्होंने पिता। उदार सज्जन थे। रतनचन्द जीके लथुम्राता वधीचन्द जी के स्वर्गगमनके दश बारह वर्षे बाद लगभग सं०१८३७ दीवान थ । दीवान स्तनचन्दजी वि० सं० १८२१ से पहले ही में गुमानपंथकी स्थापना की थी। गजा माधयमिह जीके ममयमे दीवान पद पर श्रामीन हप थे और वि० मं. १८२६ म जयपरके गजा पृथ्वीमिह के इस गुमानपंथका क्या स्वरूप था और उसमें ममयम थ, और उसके बादभी कुछममय रहे है। पंदोलन किन किन बातोंकी विशेषता थी यह अभी ज्ञात नहीं हो सका, जयपुरमें गुमानपंथका एक मन्दिर बना हुआ रामजीने दीवान रतन चन्द जीकी प्रणाम वि० मं. है जिसमें पं० टोडरमल्ल जीके सभी ग्रंथांकी स्वहस्त १८२७ में पं टोडरमल्लजीकी परुपामिद्ध्युपायकी लिखित प्रतियां सुरक्षित हैं। यह मंदिर उक्त पथकी अधूरी टीकाको पूर्ण किया था जैमाकि उमकी प्रशस्तिक स्मृतिको आज भी ताजा बनाये हुये है। निग्नवाक्योमे प्रकट है : सामिनम मुख्य है रतनचन्द दीवान । पंडित टोडरमल्ल जीके घर पर विद्याभिलापियां पृथ्वीमिह नरेशको श्रद्धावान सुजान ॥६॥ का खासा जमघट लगा रहता था, विद्याभ्यासके लिए तिनके प्रति रुचि धर्ममौ माघमिनमी प्रीत । घर पर जो भी व्यक्ति आता था उसे बड़े प्रेमके दव-शास्त्र-गुरुकी मदा उम्मे महा प्रतीत ॥७॥ साथ विद्याभ्यास कराते थे। इसके सिवाय तत्वचर्चा अानन्द सुत तिनको मन्या नाम जु दोलतगम । का तो वह केन्द्र ही बन रहा था। वहां तत्वचर्चाके भृत्य भूप को कुल वणिक जाके बमये धाम || रसिक मुमुक्ष जन बगबर आते रहते थे और उन्हें आपके साथ विविध विषयोंपर तत्त्वचर्चा करके तथा कछु इक गुरु प्रतापत कीनो ग्रन्थ अभ्याम । अपनी शंकाओंका समाधान सुनकर बडा ही संतोप लगन लगी जिन धर्ममी जिन दामनको दाम ||६|| होता था। और इस तरह वे पंडितजीके प्रेममय विनम्र ताम रतन दीवानने कही प्रीति धर येह । व्यवहारसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते थे। आपके करिये टीका प्ररणा उर धर धर्म मनेद ॥१०॥ शास्त्र प्रवचनमें जयपुरके सभी प्रतिष्ठित चतुर और तब टीका पूरी करी भाषा रूप निधान ॥ कुशल होय चह संघको लह जीव निज जान||१|| १ चुनाचे श्वेताम्बरी मनि शानिविजय जी भी अपना अटारमै ऊपरै संवत मानवधर्मसंहिता (शातसुधानिधि) नामक पुस्तक के पृष्ठ १६७ मनावीस ॥ मे लिग्यते हैं। कि- "धीम पंथमेमे फु(फ.) टकर मंबत १७२६ मगशिर दिन शनिवार है मुदि दोयज रजनीम ||१३|| में ये अलग हप, जयपरके तेरापंथियांम प० टोडरमल्ल ३ महाराम जी अोमवालजानिके उदामीन श्रावक थे । के पुत्र गुमानीराम जीने संवत १८३७ में गुमान पंथ बड़े ही बुद्धिमान थे और यह पं टोडरमल्ल जीके साथ निकाला।" चर्चा करनेम विशेष रम लेन थे। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] श्राचार्यकल्प पं० टोडरमल्लजी [ २७ हैं। बसवा निवासी पं०देवीदास गोधा को भी आपके रागादिक भावही बरे हैं। सो या ऐसी समम नाहीं पास कुछ समय तक तत्त्वचर्चा सुनने का अवसर यह पर द्रव्यनिका दोपदेखि तिनविष द्वापरूप उदासीप्राप्त हुआ था। नता करें है। सांची उदासीनता तौ वाका नाम है जो ५० टोडरमल्लजी केवल अध्यात्मनोंके ही कोई भी परद्रव्यका गुण वा दोष न भास, तात काह नेत्ता या रसिक नहीं थे; किन्त साथमें व्याकरण, को भला बुरा न जाने, परतें किछ भी प्रयोजन मेरा साहित्य, सिद्धान्त और दर्शनशास्त्रके अच्छे विद्वान नाहीं. ऐसा मानि साक्षिभूत रहे, सो ऐसी उदासीनता थे । आपकी कृतियांका ध्यानसे समीक्षण करने पर ज्ञानी ही के होय।" इस विषय में संदेहको कोई गुजायश नहीं रहती। (पृ०२४३-४) आपके टीका ग्रन्थोंकी भाषा यद्यपि द्वंदारी (जयपुरी) यहां पंडितजी ने सम्यग्दृष्टिकी आत्मपरिणतिरूप है फिर भी उसमें ब्रज भापाकी पूट है और वह इतनी वस्तुतत्वका भी फितना सुन्दर विवेचन किया है जो परिमार्जित है कि पढ़ने वालोंका उसका सहज ही अनुभव करते ही बनता है। परिज्ञान हो जाता है। आपकी भाषामें प्रौढ़ता सरसता समकालीन धार्मिकस्थिति और विद्वद्गोष्ठी-- और सरलता है वह श्रद्धा नि:स्पृहता और नि:स्वार्थ भावना से ओत-प्रोत है जो पाठकोंको बहुत ही रुचि उस समय जयपुरको ख्याति जैनपुरीके रूप में हो कर प्रतीत होती है। उसमे आकर्षण मधुरता और रही थी, वहां जैनियोंक सात-आठ हजार घर थे, जैनियोंकी इतनो गृहसंख्या उस समय सम्भवत: अन्यत्र लालित्य पद पद मे पाया जाता है और इसीसे जैन कहीं भी नहीं थी। इसीसे ब्रह्मचारी रामलालजीके समाजमें उसका आज भी समादर बना हुआ है। जैसा शब्दोंमें वह साक्षात 'धर्मपुरी थी। वहां के अधिकि उनके मोक्षमागे प्रकाशकको निम्न पंक्तियोंसे काश जैन राज्य के उच्च-पदापर नियुक्त थे, और वे प्रकट है: राज्य में सर्वत्र शांति एवं व्यवस्थामें अपना पूरा पूरा "कोऊ कहेगा सम्य म्हष्टि भी तो बुरा जानि सहयोग देते थे। दीवानग्तनचन्द जी और बालचन्द परद्रव्यको त्याग है। ताका समाधान- सम्यग्दृष्टि जी उनमे प्रमुख थे। उस समय माधवसिंहजी प्रथम पर द्रव्यानिकों बुग न जाने है । आप मरागभावको का राज्य चल रहा था, वे बड़े प्रजावत्सल थे। राज्य छोरे, तात ताका कारणका भी त्याग हो है। में जीव-हिमाकी मनाई थी। और वहां कलाल, वस्तु विचारें कोई परद्रव्य तो भला बुग है नाई।। कसाई और वेश्याएं नहीं थीं। जनता प्राय: सप्तको ऊ कहेगा, निमित्तमात्र तो है । ताका उत्तर-परद्रव्य व्यमनस रहित थी। जैनियों में उस समय अपने जोरावरी ते क्याई विगारता नाही। अपने भाव विगरे । धर्मके प्रति विशेष प्रेम और आकर्पण था और तब वह भी बाह्य निमित्त है। बहरि वाका निमित्त प्रत्येक साधर्मी भाईके प्रति वात्सल्य तथा उदारताका बिना भी भाव विगरे हैं । ताने नियमरूप निमिन भी व्यवहार किया जाता था। जिनपूजन, शास्त्रस्वाध्याय नाहीं । ऐसे परद्रव्यका दोष देखना मिथ्या भाव है। नयी सामायिक और पाकिमान श्रद्धा, भक्ति और विनयका अपूर्व दृश्य देखने में आता १ "मो दिल्लीमू पढ कर वम्या ग्राय पाई जयपरम था। कितने ही स्त्री-पुरुष गोम्मटसारादि सिद्धांतथोड़े दिन टोडरमल्ल जी महाबुद्धिमान के पामि मुननेका ग्रन्थांकी तत्त्वचर्चासे परिचित हो गये थे। महिलाए निमिन भल्या, वसुवा गा" भी धार्मिक क्रियात्राक सद्अनुष्टानमें यथेष्ठ भाग लेने दगी मिदानमारकी टीकापशनि लगी थी। पं० टोडरमलजीक शास्त्र-प्रवचनमें Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] अनेकान्त [ वह श्रोताओंको अच्छी उपस्थिति रहती थी और जिनकी है। इसमें आध्यात्मिक प्रभोंका उत्तर कितने सरल संख्या सातसौ-श्राठसौसे अधिक हो जाया करती एवं स्पष्ट शब्दोंमें विनयके साथ दिया गया है, यह थी। उस समय जयपुर में कई विद्वान् थे और देखते ही बनता है । चिट्ठीगत शिष्टाचार-सूचक निम्न पठन-पाठनकी सब व्यवस्था सुयोग्यरीतिसे चल रही वाक्य तो पण्डितजीकी श्रान्तरिक-भद्रता तथा वात्सल्य थी। आज भी जयपुर में जैनियोंकी संख्या कई सहन का ग्यासतौरसे द्योतक हैहै और उनमें कितने ही राज्यके पदोंपर भी प्रतिष्ठित "तम्हारे चिदानन्दघनके अनुभवसे सहजानंदकी वृद्धि चाहिये।" ___ सं० १८२१ मे जयपुरमें इन्द्रध्वज पूजाका महान् गोम्मटमारादि की सम्यग्ज्ञानचन्द्रिकाटीकाउत्सव हुआ था। उम समयको ब्रह्मचारी रामलाल गोम्मटसारजीवकांड, कर्मकाण्ड, लब्धिमार क्षपजी की लिखी हुई पत्रिकासे ज्ञात होता है कि उसमें राज्यकी ओरसे सब प्रकारको सुविधा प्राप्त थी, और रणामार और त्रिलोकसार इन मूल-चन्के रचयिता दरबारसे यह हुक्म आया था कि "थां की पूजाजी प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती हैं। जो वीरनन्दि इन्द्रनदिके वत्म तथा अभयनन्दिके पत्र थे। और के अर्थि जो वस्तु चाहिजे मो ही दरबारसे ले जावो" जिनका समय विक्रमकी ११वीं शताब्दी है। इसी तरहको सुविधा वि० की १५वीं १६वीं शताब्दीमें ग्वालियर में राजा डूङ्गरसिंह और उनके पुत्र कीर्तिसिह गोम्मटसार ग्रन्थपर अनेक टीकाएँ रची गई हैं के राज्य-कालमें जैनियोंको प्राप्त थी, और उनके किन्तु वतमानमें उपलब्ध टीकाओं में मन्दप्रबोधिका राज्य में होने वाले प्रति महोत्सवों में राज्यकी ओरसे सबसे प्राचीन टीका है। जिसके कर्ता अभय चन्द्र सब व्यवस्था की जाती थी। सैद्धांतिक हैं। इस टीकाके आधारसे ही केशव वर्णीने, जो अभयमूरिके शिष्य थे, कर्नाटक भाषामें रचनाएं और रचनाकाल 'जीवतत्त्वप्रबोधिका' नामकी टीका भट्रारक धर्मभूषणके पं०टोडरमल्लजीकी कुल नौ रचनाएं हैं। उनके आदेश से शक सं० १२८१ ( वि० सं०१४१६) में नाम इस प्रकार हैं बनाई है। यह टीका कोल्हापुरके शास्त्रभण्डारमे १-गोम्मटसारजीवकांडटीका, २-गोम्मटसार- सरक्षित है और अभी तक अप्रकाशित है। मन्दकमकाण्डटीका, ३-लब्धिसार-क्षपणामारटीका, प्रबोधिका और केशववर्गीकी उक्त कनड़ी टीकाका ४-त्रिलोकसारटीका, ५-आत्मानुशासनटीका, ६-पुरु- आश्रय लेकर भट्टारक नेमिचन्द्रने अपनी संस्कृत टीका षार्थसिद्ध्युपायटोका, ७-अर्थसंहणिअधिकार, बनाई है और उसका नाम भी कनड़ी टोकाकी तरह -रहस्यपूर्ण चिट्ठी, - और मोक्षमागे प्रकाशक । 'जीवतत्त्वप्रबोधिका' रखा गया है। यह टीकाकार इनमें आपको सबसे पुरानी रचना रहस्यपूण नमिचन्द्र मूलसंघ शारदागच्छ बलात्कारगणके विद्वान् चिट्टी है जो कि विक्रम सम्बत् १८११ को फाल्गुणवदि थे, और भद्रारक ज्ञानभूपणके शिष्य थे। भट्टारक पञ्चमीको मुलतानके अध्यात्मरसके रोचक खानचंदजी ज्ञानभूपणका समय विक्रमकी १६वीं शताब्दी है। गङ्गाधरजी, श्रीपालजी, सिद्धारथजी आदि अन्य क्यांकि इन्होंने वि० सं०१५६० में 'तत्त्वज्ञानतरङ्गिनी' साधर्मी भाइयों को उनके प्रश्नांके उत्तररूपमे लिखी गई नामक ग्रन्थकी रचना की है । अत: टीकाकार नेमिचंद्र थी। यह चिट्ठी अध्यात्मरसक अनुभवसे श्रोत-प्रोत का भी ममय वि० की १६ वी शताब्दी है। इनकी जीव तत्वप्रबोधिका' टोका ममिभूपाल अथवा मा नुवदेखो, नीरवाणी ३ मनिगा नामक गजाक समय में लिखी गई है और Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] आचार्यकल्प पं० टोडरमल्लजी [ २४ - जिनका समय डा० ए० एन० उपाध्येने ईसाकी १६ वीं सम्यग्ज्ञान-चन्द्रिका धरयो है याका नाम । शताब्दी का प्रथम चरण निश्चित किया है । इससे सो ही होत है सफल ज्ञानानंद उपजाय कैं। भी इस टीका और टीकाकारका उक्त समय अर्थात् कलिकाल रजनीमें अर्थको प्रकाश करे । ईसाकी १६ वीं शताब्दीका प्रथमचरण व विक्रमकी यात निज काज कीने इष्टभावभायक ॥३०॥ १६ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध सिद्ध है। इस टीकामें उन्होंने आगमानुसार ही अर्थ प्रतिपादन भ० नेमिचन्दकी इस संस्कृत टोकाके आधारसे लिया जी भोरसे कषाय कळभी नहीं ही पंडित टोडरमल्ल जीने अपनी भाषाटीका लिखी लिवा यशाहै। और उस टीकासे उन्होंने भ्रमवश केशववर्णाको टीका समझ लिया है। जैसा कि जीवकाण्ड टीका आज्ञा अनुसारी भये अर्थ लिखे या मांहि । प्रशस्तिके निम्न पद्यसे प्रकट है : धरि कपाय करि कल्पना हम कछु कीनों नाहि॥३३॥ केशववर्णी भव्य विचार,कर्णाटक टीका अनुसार । टीकाप्रेरक श्रीरायमल्ल और उनकी पत्रिकासंस्कृत टीका कीनी एह, जो अशुद्ध सो शुद्ध करेहु ॥ इस टीकाकी रचना अपने समकालीन रायमल्ल पंडित जीको इस भाषाटीकाका नाम 'सम्यग्ज्ञान- नामके एक साधर्मी श्रावकोत्तमकी प्रेरणासे की गई चन्द्रिका' है जो उक्त संस्कृत टीकाका अनुवाद होते हुए है जो विवेकपूर्वक धर्मका साधन करते थे१ । रायमल्ल भी उसके प्रमेयका विशद विवेचन करती है पंडित जी बाल ब्रह्मचारी थे एक देश संयमके धारक थे। टोडरमल्ल जीने गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड जैन धर्म के महान श्रद्धानी थे और उसके प्रचारमें लब्धिसार-क्षपणासार-त्रिलोकसार इन चारों प्रथों संलग्न रहते थे साथ ही बड़े ही उदार और सरल थे। की टोकाएं यद्यपि भिन्न भिन्न रूप से की हैं किन्तु उन उनके प्राचारमें विवेक और विनयकी पुट थी। वे में परस्पर सम्बन्ध देखकर उक्त चारों प्रथोंको अध्यात्म शास्त्रोंके विशेष प्रेमी थे और विद्वानोंसे टीकाको एक करके उनका नाम 'सम्यग्ज्ञान तत्त्व-चर्चा करने में बड़ा रस लेते थे पं० टोडरमल्लचन्द्रिका' रकखा है। जैसाकि पं० जी लब्धिसार भाषा- जीकी तत्त्व-चर्चासे वे बहुत ही प्रभावित थे। इनकी टीका प्रशस्तिके निम्न पद्यसे स्पष्ट है : इस समय दो कृतियां उपलब्ध हैं-एक ज्ञानानंद "या विधि गोम्मटसार लब्धिसार ग्रंथनि की, निर्भर निजरस-श्रावकाचार और दूसरी कृति चर्चाभिन्न भिन्न भाषाटीका कोनो अर्थ गाय के। संग्रह है जो महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक चर्चाओंको लिये हये इनिकै परस्पर सहार पनौ देख्यौ। है। इनके सिवाय दो पत्रिकायें भी प्राप्त हुई हैं जो तात एक करिडम तिनिको मिलायक ॥ 'वीरवाणी' में प्रकाशित हो चुकी हैं। उनमें से प्रथम पत्रिकामें अपने जीवनकी प्रारम्भिक घटनाओंका (पिछले २८ पृष्ठकी यह टिप्पणी है भूलसे वहा न छप मकी) नेशा पति मोटामल जीमे गोमा* अभयचन्द्रकी यह टीका अपूर्ण है, और जीवकाइको सारकी टीका बनाने की प्रेरणाकी गई है और वह ३८३ गाथा तक ही पाई जाती है, इममे ८३ नं. की सिघाणा नगर में कब और कैसे बनी इसका पूरा गाथाकी टीका करते हा एक 'गोम्मटमार पञ्चिका' टीकाका विवरण दिया गया है। वह पत्रिका इस प्रकार हैउल्लेव निम्न शब्दोमे किया है। "अथवा मम्मूर्छनग - पात्तान्नाश्रित्य जन्म भवतीति गोम्मटमारपश्चिकाकागदीनाम- १ रायमल्ल माधर्मी एक, धर्ममधैया सहित विवक । + देखो, अनेकान्त वर्ष ४ किरण १ भिप्रायः" सो नानाविध प्ररक भयो, नव यह उत्तम कारज थयो * देग्यो, अनेकान्त वर्ष ४ किरण १ २ देखो, वीरवागी वर्ष १ अङ्क २, ३ । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] अनेकान्त । वर्ष - "पीठे सेखावटीवियु सिंघाणा ना तहां टोडर- हजार टीका भई। पीछे सवाई जयपुर आये तहां मल्लजी एक दिली (ल्ली) का बड़ा साहूकार साधर्मी गोम्मटसारादिच्यारों प्रथोंकू सोधि याको बहुत प्रति ताके समीप कर्म-कार्यके अर्थि वहां रहे, तहां हम गए उतराई। जहां सैली थी तहां तहां सुधाइ सुधाइ पधराई अर टोडरमल्लजीसे मिले, नाना प्रकारके प्रश्न ऐसे या ग्रंथांका अवतार भया"। किये । ताका उत्तर एक गोम्मटसार नामा ग्रंथको इस पत्रिकागत विवरण परसे यह स्पष्ट है कि साखिसू देते गए। ता ग्रन्थकी महिमा हम पूर्व मणी उक्त सम्यग्ज्ञानचन्द्रिकाटीका तीन वषमें बनकर थी तासूविशेष देखी, अर टोडरमल्लजीका (के) ज्ञानकी समाप्त हुई थी जिसकी श्लोक संख्या पैसठ हजारके महिमा अद्भुत देखी, पीछे उनसू हम बही-तुम्हारै करीब है । और जिसके संशोधनादि तथा अन्य प्रतिया ग्रंथका परचै निमल भया है, तुमकरि याकी योंके उतरवाने में प्राय: उतनाही समय लगा होगा। भापाटीका होय तौ घणां जीवांका कल्याण होय श्रर इसीसे यह टीका सं० १८१८ में समाप्त हुई है। इस जिनधर्मका उद्योत होइ। अबहीं कालके दोष करि टीकाके पूर्ण होने पर पण्डितजी बहत आल्हादित जीवांकी बुद्धी तुच्छ रही है तौ श्रागै यातै भी अल्प हुए और उन्होंने अपनेको कृतकृत्य सममा। साथ रहेगी। तातै ऐसा महान ग्रंथ पराक्रत साकी मूल गाथा । ही अन्तिम मङ्गलके रूपमें पञ्चपरमेष्ठीकी स्तुति की और पंद्रहस+ १५०० ताकी टीका संस्कृत अठारह हज़ार उन जैसी अपनी दशाके होनेकी अभिलाषा भी व्यक्त १८०८० ताविर्षे अलौकिक चरचाका समूह संदृष्टि वा की१ । यथागणित शास्त्रांकी आम्नाय संयुक्त लिख्या है ताकी भाव आरंभो पूरण भयो शास्त्र सुखद प्रासाद । अब भये कृतकृत्य हम पायो अति पाल्हाद ।। भासना महा कठिन है। अर याके ज्ञानकी प्रवर्ति पूर्व + + + + + + दीर्घकाल पर्यत लगाय अब ताई नाहीं तो आग भी अरहन्त सिद्ध सूर उपाध्याय साधु सर्व, याकी प्रवर्ती कैसे रहेगी, तात तुम या ग्रंथकी टीका अथके प्रकाशी मङ्गलीक उपकारी हैं। करनेका उपाय शीघ्र करौ, आयुका भरोसा है नाहीं। तिनको स्वरूप जानि रागत भई भक्ति. पी ऐसें हमारे प्रेरकपणाका निमित्त करि इनके टीका कायकों नमाय स्तुतिको उचारी है। करने का अनुराग भया। पूर्व भी याकी टीका करने धन्य धन्य तुमही सब काज भयो, का इनका मनोरथ था ही, पाछै हमारे कहने करि विशेष कर जोरि बारम्बार बंदना हमारी है। मनोरथ भया, तब शुभदिन मुहूरत विर्षे दीका करने मङ्गल कल्याण सुग्व ऐसो हम चाहत हैं, का प्रारम्भ सिघाणा नग्रवि भया । सो वे तो टीका होह मेरी ऐसी दशा जैसी तुम धारी है। वणावते गए हम बांचते गये। बरस तीनमें गोम्मट यही भाव लब्धिसारटीका प्रशस्तिमें गद्यरूपमें सारपथको अडनीसहजार ३८००० लब्धिमार-क्षप- प्रकट किया है। णासारथकी तेरहहजार १३००० त्रिलोकसारग्रंथ लब्धिसारकी टीका वि०सं०१८१८ की माघशुक्ला की चौदाहजार १४००० सब मिलिच्यारि प्रथांकी पैसठ --- १ "प्रारम्भ कार्यकी मिद्धि होने करि हम आपको __+ रायमल्लजीने गोम्मटमारकी मूल गाथा मंख्या पंद्रह कृतकृत्य मानि इम कार्य करनेकी याकुलता रहित होइ मुग्नी सौ १५०० बतलाई है जब कि उमकी संख्या मत्तरट्मौ पाच भये, याक प्रमादने सर्व प्राकुलता दर होइ हमार शीघ्र ही १७७५ है, गोमटमार कर्मकाण्डकी ६७२ और जीत काडकी स्वात्मज मिद्धि-जनित परमानन्दकी प्राप्ति होउ।" ७३३ गापा मख्या मृद्रिा प्रतियाम पाई जाती है। लगिमारटी प्रशलि Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ । [ ३१ पञ्चमीके दिन पूर्ण हुई है, जैसा कि उसके प्रशस्ति पद्यसे पदार्थका विवेचन बहुत ही सरल शब्दों में किया गया स्पष्ट है:है । और जीवोंके मिध्यात्वको छुड़ाने का पूरा प्रयत्न किया गया है, यह मल्लजीकी स्वतन्त्र रचना है। यह ग्रन्थभी, जिसकी लोकसंख्या बीसहजारके करीब है; सं० १८२१ से पहले ही रचा गया है; क्योंकि ब्रह्मचारी रायमल्लजीने इन्द्रध्वज पूजाकी पत्रिकामें इसके रवे जानेका उल्लेख किया है। मालूम होता है कि यह ग्रन्थ बादको पूरा नहीं हो सका । पुरुषार्थसिद्ध्युपाय टीका - श्राचार्य कल्प १० टोडरमल्लजी संवत्सर शक्त, अष्टादशशत लौकिकयुक्त । माघशुक्ल पञ्चमदिन होत, भयो ग्रन्थ पूरन उद्योत ।। लब्धिसार-क्षपणासारकी इस टीकाके अन्त में अर्थसंदृष्टि नामका एक अधिकार भी साथ में दिया हुआ है, जिसमें उक्त ग्रन्थमें आनेवाली असंदृष्टियों और उनकी संज्ञाओं तथा अलौकिक गणितके करण - सूत्रों का विवेचन किया गया है। यह संदृष्टि अधिकार उस संदृष्टि अधिकारसे भिन्न है जिसमें गोम्मटसार जीवकाण्ड - कर्मकाण्डको संस्कृतटीकागत अलौकिक गणितके उदाहरणों, करणसूत्रों, संख्यात, असंख्यात और अनन्तकी संज्ञाओं और असंदृष्टियोंका विवेचन स्वतन्त्र ग्रन्थके रूप में किया गया है, और जो 'अर्थसंदृष्टि' इस सार्थक नामसे प्रसिद्ध है । यद्यपि टीका ग्रन्थोंके आदि में पाई जाने वाली पीठिकामें ग्रन्थगत संज्ञाओं एवं विशेषताओंका दिग्दर्शन करा दिया है। जिससे पाठकजन उस ग्रन्थके विपयसे परिचित हो सकें । फिर भी उनका स्पष्टीकरण करनेके लिये उक्त अधिकारोंकी रचना की गई है। इसका पर्यालोचन करने से संदृष्टि-विषयक सभी बातोंका बोध हो जाता है | हिन्दी भाषा के अभ्यासी त्वाध्याय- प्रेमी सज्जन भी इससे बराबर लाभ उठाते रहे हैं । आपकी इन ही दिगम्बर समाजमें कर्मसिद्धान्त के पठा पाटनका प्रचार बढा है और इनके स्वाध्यायी सज्जन कर्मे सिद्वान्त से अच्छे परिचित देखे जाते हैं। इस सबका श्रेय पं० टोडरमल्ल जीको ही प्राप्त है। आत्मानुशासन टाका इसका निर्माण कब किया गया यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका । मोक्षमार्गप्रकाशक यह ग्रन्थ बड़ा ही महत्वपूर्ण है जिसकी जोड़का इतना प्रांजल और धार्मिक - विवेचनापूर्ण दूसरा हिन्दी गद्यन्थ अभी तक देखनेमें नहीं आया। इसमें यह उनकी अन्तिम कृति जान पड़ती है। यही कारण है कि यह अपूर्ण रह गयी । यदि आयुवश वे जीवित रहते तो वे अवश्य पूरी करते। बादको यह टीका श्रीरतन चन्दजी दीवानकी प्रेरणा से पण्डित' दौलतराम जीने सं० १८२७ में पूरी की है; परन्तु उनसे उसका वैसा निर्वाह नहीं हो सका है, फिर भी उसका अधूरापन तो दूर हो ही गया है। कृतियों का रचनाकाल सं० १=११ से १८१८ तक तो निश्चित ही है। फिर इसके बाद और कितने समय तक चला, यद्यपि यह अनिश्चित है, परन्तु फिर भी सं० १८२४ के पूर्व तक उसकी सीमा जरूर है। पं० टोडरमल्लजीकी ये सब रचनाएं जयपुर नरेश माधवसिहजी प्रथमके राज्यकाल में रची गई हैं । जयपुर नरेश माधवसिंह प्रथमका राज्य वि० सं० १८९१ से १=२४ तक निश्चित माना जाता है । पं दौलतरामजीने जब सं० १८२७ मे पुरुषार्थसिद्ध्युपायी अधूरी टीकाको प्रण किया तब जयपुर मे राजा पृथ्वीसिका राज्य था । अतएव संवत् १८२७ से पहले ही माधवसिहका राज्य करना सुनिश्चित है । पंडितजी की मृत्यु और समय पंडितजीको मृत्यु कब और कैसे हुई यह विषय अर्से से एक पहेलीसा बना हुआ है। जैन समाज में इस सम्बन्धमें कई प्रकारकी किंवदन्तियां प्रचलित हैं। * देखो, 'भारत के प्राचान राजवंश' भाग ३ पृ० २३६ २४०॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ । अनेकान्त [ व परन्तु उनमें हाथोके पैरतले दबवाकर मरवानेको उसमें आश्चर्यको कोई स्थान नहीं रहता। यही घटनाका बहुत प्रचार है। यह घटना कोरी कल्पना ही कारण है कि उस समयके विद्वानोंने राज्यके भयसे नहीं है, किन्तु उसमें उनकी मृत्युका रहस्य निहित है। उनकी मृत्यु आदिके सम्बन्धमें स्पष्ट कुछभी नहीं पहिले मेरी यह धारणा थी कि इस प्रकारकी जिखा; क्योंकि रियासतोंमें खासतौर पर मृत्युभय अकल्पित घटना पंटोडरमल्लजी जैसे महान विद्वानके और धनादिके अपहरणकी सहस्रों घटनार्य घटता साथ नहीं घट सकती; परन्तु बहुत कुछ अन्वेषण रहती हैं, और उनसे प्रजामें घोर आतंक बना रहता तथा उसपर काफी विचार करने के बाद अब मेरी है। किन्तु आज परिस्थितियां बदल चुकी हैं और यह दृढ़ धारणा होगई है कि उपरोक्त किम्बदन्ती अब प्रायः इस प्रकारकी घटनायें कहीं सुनने में नहीं असत्य नहीं है किन्तु वह किसी तथ्यको लिये हुये पाती। अवश्य है। जब हम उसपर गहरा विचार करते अब प्रश्न केवल समयकरह जाता है कि उक्त हैं और पं० जीके व्यक्तित्व तथा उनकी सोधी सादी घटना कब घटी ? यद्यपि इस सम्बन्धमें इतनाही कहा भद्र परिणतिको ओरभी ध्यान देते हैं। जो स्वप्नमें भी जा सकता है कि सं०१८२१ और सं०१८२४ के मध्य कभी पीड़ा देनेका भाव नहीं रखते थे, तब उनके में माधवसिहजी प्रथमके राज्य कालमें किसी समय प्रति विद्वेषवश अथवा उनके प्रभाव तथा व्यक्तित्वके घटी है. परन्तु उसको अधिकांश सम्भावना सं० १८२४ साथ घोर ईर्षा रखनेवाले जैनेतर व्यक्तिके द्वारा में जान पड़ती है। चूंकि पं० देवीदास जीकी जयपुरसे साम्प्रदायिक व्यामोहवश सुझाये गये अकल्पित एवं बसवा जाने, और उससे वापिस लौटनेपर पुनः पं० अशक्य अपराधके द्वारा अन्धश्रद्धावश बिना किसी टोडरमल्लजी नहीं मिले, तब उन्होंने उनके लघुपुत्र निणेयके यदि राजाका कोप सहसा उमड़ पड़ा हो, पण्डित गुमानीरामजी के पासही तत्त्वचर्चा सुनकर और राजाने पंडितजीके लिये बिना किसी अपराधके करज्ञान प्राप्त किया, यह उल्लेख सं०१८२४ के बादका भी उक्त प्रकारसे मृत्युदण्ड' का फतवा दे दिया हो तो है। और उसके अनन्तर देवीदास जी जयपुरमें सं० कोई आश्चर्यको बात नहीं है जब हम उस समयकी १८३८ तक रहे हैं। भारतीय रियासतीय परिस्थितियों पर ध्यान देते हैं। वीर सेवामन्दिर और उनके अन्धश्रद्धावश किये गये अन्याय- ६-१-१६४८ सरसावा अत्याचारोंकी झांकीका अवलोकन करते हैं, तब समन्तभद्र भाष्य समन्तभद्र के भाष्यकी समस्या विचार कके लिये एक नहीं किया और जब समन्तभद्र तथा उनके ग्रथों के खास विचारणीय वस्तु बनी हुई है। अभीतक में स्वयं उल्लेखको लिये हये कोई नया ग्रन्थ दृष्टि में श्राता है इस निष्कपर पहुंचा था कि समन्तभद्र के द्वारा तोमैं बड़ी उत्सुकतासे उसे देखने में प्रवृत्त होता हूं। रचागया जो भाष्य माना जाता है और जिसे तत्त्वा- और यह जाननेको उत्सुक रहता हूं कि इसमें समन्त भाष्य अथवा गन्धहस्ति महाभाष्य कहा जाता है भद्रके तथाकथित भाष्यका उल्लेख तो नहीं है ? वह एक कल्पनामात्र है और उस कल्पना के जनक चुनांचे अभी हाल में 'लक्षणावली' में जिन प्रकि अभयचन्द्र सूरि हैं। परन्तु मैंने अपनी खोज को बन्द लक्षणोंका संकलन नहीं हुआ था उनके लक्षण Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] समयसार की महानता [ ३३ संकलन करनेकेलिये भास्करनन्दिकी हालमें प्रकाशित सं० १०५० में रचे गये 'पुराणतिलक' में चामुण्डराय होकर प्राप्त तत्त्वार्थवृत्ति हाथमें आई। इस ग्रन्थको की विशेष कृपाका उल्लेख किया है। यही चामुण्डराय प्रस्तावनामें पं० शान्तिराजजी शास्त्रीने समन्तभद्रके प्रसिद्ध गोम्मटेश्वरको के निर्माता और नेमिचन्द्र भाष्यके सम्बन्धमें विचार किया है। उन्होंने समन्तभद्र- सिद्धान्तचक्रवर्तीद्वारा अतिशय प्रशस्य हुए हैं। मतभाष्यके उल्लेखोंमें एक उल्लेख विद्वानों के लिये खास लब यह कि चामुण्डरायका उक्त उल्लेख बहुत कुछ तौरसे विचारने योग्य और प्रसिद्ध उल्लेखोंसे प्राचीन प्रामाणिक और असन्दिग्ध है। उसमें दो वातोंका एवं नया उपस्थित किया है। यह उल्लेख निम्न प्रकार स्पष्ट निर्देश है एक तो यह कि समन्तभद्रदेवने तत्त्वा थेभाष्य रचा हैं और दसरी यह कि वह तकशास्त्र अभिमतमागिरे 'तत्वा ग्रन्थ है। नहीं कहा जा सकता कि भाष्यमं तर्कशास्त्रम' बरेदुवचो-। चामुण्डगयने समन्तभद्रके भाष्यका उल्लेख किस श्राधारसे किया ? क्या उन्हें उक्त ग्रन्थ प्राप्त था अथवा विभवदिनिलेगेसेद 'समं अनुश्र ति मात्र थी? इस सम्बन्धमें समन्तभद्रभाष्यतभद्रदेवर' समानरेबरुमोलरे ॥५॥ प्रेमी विद्वानोंको अवश्य विचार करना चाहिये और यह उल्लेख चामुण्डरायके प्रसिद्ध त्रिपष्टि लक्षण उसका अनुसन्धान करते रहना चाहिये। महापुराणका है जो कनड़ी भाषामें रचा गया है और उक्त उल्लेखमें एक बात यह भी ध्यान देने योग्य जिसे उन्होंने शक सं० १०० - वि० सं० १०३५ है कि समन्तभद्र वादिराजसूरिसे पूर्व भी 'देव' उपपदमें समाप्त किया है। चामुण्डाराय गंगनरेश __ के साथ स्मृत होते थे और 'समन्तभद्रदेव' इस नामसे राचमल्लके प्रख्यात मंत्री थे। राचमल्लका भी विद्वान उनका गुण कीर्तन करते थे। राज्यकाल वि० सं० १०३१ से १०४१ तक है। १०जनवरी, १९४८ दरबारीलाल कोठिया कनड़ी भाषाके प्रसिद्ध कवि रन्नने अपने वि० १ देखा, प्रेमीजीकृत -जौन साहित्य और इतिहास । समयसार की महानता ( प्रवक्ता- पूज्य श्रीकानजी ) [पाटकगण, श्रीकानजी स्वामीसे अपरिचित नही करते रहते हैं। परन्तु अभी हाल में श्रीकानजी स्वामीका हैं। वे वर्तमान युगके उन मन्तोंमें हैं जो जडवादक 'आत्म-धर्म' में वह प्रवचन प्रकट हुआ है जिसे उन्होंजालसे व्यान इस विश्व में अध्यात्मका उद्दीप्त दीपक ने गत श्रु तपञ्चमीके अवसरपर किया था। इस जलाये हए हैं और जिसके प्रकाशको न केवल आस- प्रवचनमें श्रीकानजी महाराजने समयसार पर जो पास ही, अपितु भारतके सुदूरवर्ती अनेक कोनों में भी, उद्गार प्रकट किये हैं उनसे समयसारकी महानता अपने विद्वत्ता और मार्मिकतासे भरे हुए प्रवचनोंद्वारा और अगाधताका जैसा कुछ परिचय मिलता है. वह प्रमृत कर रहे हैं। यों तो आप और यापका विवेको . देखते ही बनता है। हम पाठकोंके लिये उनके इस संघ दोनों 'ममयसार' के महत्व और उमको अगाधता- प्रवचनके कुछ अंशको यहां दे रहे हैं। को खब यनुभव करते हैं तथा मदेव उसे प्रकट भी -म० सम्पादक Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] अनेकान्त [ वर्ष आज यह समयसार आठवीं वार पढ़ा जा रहा है तब यह समयसार शुद्धात्मतत्त्वको बसलाकर तत्त्वके -सभामें प्रवचनरूपसे आठवीं बार पढ़ा जा रहा है वियोगको भुला देता है और निश्चय स्वभावको प्रकट फिर भी यह कुछ अधिक नहीं है। इस समयसारमें करता है। ऐसा गढ-रहस्य भरा हश्रा है कि यदि इसके भावोंको समयसारका प्रारम्भ करते हए श्री कुन्दकुन्दाचार्यजीवनभर मनन किया जाय तो भी इसके भाव पूरे देवने प्रारम्भिक मङ्गलाचरणमें कहा है कि- 'वंदित्त प्राप्त नहीं किये जा सकते। केवलज्ञान होनेपर ही सव्वसिद्ध अनन्त सिद्ध भगवन्तोंको वंदना करता समयसारके भाव पूरे हो सकते हैं। समयसारके हूं, सब कुछ भूलकर अपने प्रात्मामें सिद्धत्वको स्थाभावका आशय समझकर एकावतारी हुआ जा सकता पित करता हूं। इस प्रकार सिद्धत्वका ही आदर किया है। समयसारमें ऐसे महान् भाव भरे हुए हैं कि है। जो जिसकी बंदना करता है उसे अपनी दृष्टिमें श्रतकेवली भी अपनी वाणीके द्वारा विवेचन करके आदर हुए विना यथार्थ वन्दना नहीं हो सकती। उसके सम्पूर्ण सारको नहीं कह सकते। यह प्रन्था अनन्त सिद्ध हो चुके हैं, पहिले सिद्ध दशा नहीं धिराज है, इसमें ब्रह्माण्डके भाव भरे हुए हैं। इसके थी और फिर उसे प्रगट किया, द्रव्य ज्योंका त्यों स्थित अन्तरङ्गके श्राशयको समझकर शुद्धात्माकी श्रद्धा ज्ञान- रहा. पर्याय बदल गया, इस प्रकार सब लक्ष्य में लेकर स्थिरताके द्वारा अपने समयसारको पूर्णता की जा अपने श्रात्मामें सिद्धत्वकी स्थापना की है, अपनी सकती है, भले ही वर्तमानमें विशेष पहलुओंसे जानने- सिद्ध दशाकी ओर प्रस्थान किया है। मैं अपने का विच्छेद हो; परन्तु यथार्थ तत्त्वज्ञानको समझने आत्मामें इस समय प्रस्थान-चिह्न स्थापित करता हूं योग्य ज्ञानका विच्छेद नहीं है। तत्त्वको समझनेकी और मानता है कि मै सिद्ध हं अल्पकालमें सिद्ध होने शक्ति अभी भी है जो यथार्थ तत्त्वज्ञान करता है उसे वाला हूँ; यह प्रस्थान-चिह्न अब नहीं उठ सकता; मैं एकावतारीपनका नि:सन्देह निर्णय हो सकता है। सिद्ध ऐसी श्रद्धाके जम जानेपर आत्मामें से भगवान कुन्दकुन्दाचायने महान् उपकार किये हैं। विकारका नाश होकर सिद्ध भाव ही रह जाता है। यह समयसार-शास्त्र इस कालमें भव्यजीवोंका महान् अब सिद्धके अतिरिक्त अन्य भावोंका आदर नहीं है आधार है। लोग क्रियाकाण्ड और व्यवहारके पक्ष- यह सनकर हां करनेवाला भी सिद्ध है। मैं । पाती हैं, तत्त्वका वियोग हो रहा है, और निश्चय और तू भी सिद्ध है-इस प्रकार आचार्यदेवने सिद्धत्व स्वभावका अन्तर्धान हो गया है-वह ढक गया है; से ही मांगलिक प्रारम्भ किया है। तत्व.चर्चा शंका समाधान [कितने ही पाठकों व इतर सजनोंको अनुसन्धानादि-विषयक शंकाएँ पैदा हुआ करती हैं और वे कभी कभी उनके विषयमें इधर उधर पूछा करते हैं। कितने हो को उत्तर नहीं मिलता और कितनोंको संयोगाभावके कारण पूछनेको अवसर ही नहीं मिलता, जिससे प्राय: उनकी शंकाएँ हृदयको हृदयमें हो विलीन हो जाया करती हैं और इस तरह उनकी जिज्ञासा अतृप्त हो बनी रहती है। ऐसे सब सज्जनोंकी सविधा और लाभको दृष्टिमें रखकर 'अनेकान्त' में इस किरणसे एक 'शंका समाधान' स्तम्भ भी खोला जा रहा है जिसके नीचे यथासाध्य ऐसी सब शंकाओंका समाधान रहा करेगा। आशा है इससे सभी पाठक लाभ उठा सकेंगे। -सम्पादका Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] समयसार की महानता ३५ १ शंका-कहा जाता है कि विद्यानन्द स्वामीने सं० १४५४ को लिखी अर्थात् साढ़े पांचसौ वर्षे "विद्य नन्दमहोदय' नामका एक बहुत बड़ा ग्रन्थ लिखा पुरानी अधिक शुद्ध अष्टसहस्रीको प्रति प्राप्त हुई है, जिसके. उल्लेख उन्होंने स्वयं अपने श्लोकवात्तिक, है, जो मुद्रित अष्टसहस्रीमें सैकड़ों सूक्ष्म तथा स्थूल अष्टसहस्री आदि ग्रन्थों में किये हैं। परन्तु उनके बाद अशुद्धियों और त्रुटित पाठोंको प्रर्शित करती है। यह होनेवाले माणिक्यनन्दि, वादिराज, प्रभाचन्द्र आदि भी प्राचीन प्रतियोंकी सुरक्षाका एक अच्छा उदाहरण बड़े बड़े प्राचार्यों में से किसीने भी अपने प्रन्थों में है। इससे 'विद्यानन्दमहोदय' के भी श्वेताम्बर शास्त्र उसका उल्लेख नहीं किया, इससे क्या वह विद्यानन्दके भंडारेमें मिलनेकी अधिक आशा है. अन्वेषकोंको जीवनकाल तक ही रहा है-उसके बाद नष्ट होगया? उसकी खोजका प्रयत्न करते रहना चाहिये। १समाधान-नहीं, विद्यानन्दके जीवन-कालके २ शंका-विद्वानोंसे सुना जाता है। कि बड़े बाद भी उसका अस्तित्व मिलता है। विक्रमकी बारहवीं अनन्तवीर्य अर्थात् सिद्धिविनिश्चयटीकाकारने अकतेरहवीं शताब्दीके प्रसिद्ध विद्वान वादी देवसूरिने लंकदेवके 'प्रमाणसंग्रह' पर 'प्रमाणसंग्रहभाष्य' या अपने 'स्याद्वादरत्नाकर' (द्वि० भा० पृ०,३४६ ) में 'प्रमाणसंग्रहालंकार' नामका वृहद् टीका-प्रन्थ लिखा 'विद्यानन्दमहोदय' प्रथकी एक पंक्ति उद्धृत करके है परन्तु आज वह उपलब्ध नहीं होरहा। क्या उसके नामोल्लेखपूर्वक उसका समालोचन किया है। यथा अस्तित्व प्रतिपादक कोई उल्लेख हैं जिनसे विद्वानोंकी उक्त अनुश्र तिको पोषण मिले ? 'यत्तु विद्यानन्द महोदये च "कालान्तरावि. स्मरणकारणं हि धारणाभिधानं ज्ञानं संस्कारः प्रती २ समाधान-हां, प्रमाणसंग्रहभाष्य अथवा त वदन संस्कारधारणयोरैकायमचकथत्। प्रमाणसंग्रहालकारके उल्लेख मिलते हैं। स्वयं सिद्धि विनिश्चयटोकाकारने सिद्धिविनिश्चयटीकामें उसके ___इससे स्पष्ट जाना जाता है कि 'विद्यानन्दमहोदय' भनेक जगह उल्लेख किये हैं और उसमें विशेष विद्यानन्द स्वामीके जीवनकालसे तीनसौ चारसौ वर्ष जानने तथा कथन करनेकी सूचनाएँ की हैं। यथाबाद तक भी विद्वानोंकी ज्ञानचर्चा और अध्ययनका विषय रहा है। आश्चर्य नहीं कि उसको सैकडोंकापियां (१) 'इति चर्चित प्रमाणसंग्रहभाष्ये' -*सिक न हो पानेसे वह सब विद्वानोंको शायद प्राप्त नहीं हो वि० टी० लि० ५० १२ । सका अथवा प्राप्त भी रहा हो तो अष्टसहस्री आदिको (२) 'इत्युक्त प्रमाणसंग्रहालंकारे'-सि० लि०प०१६। तरह वादिराज आदिने अपने ग्रंथों में उसके उद्धरण (३) 'शेषमत्र प्रमाणसंग्रहमाष्यात्प्रत्येयम' -सि०प० प्रहण न किये हों । जो हो, पर उक्त प्रमाणसे निश्चित ३६२। है कि वह बननेके कईसौ वर्ष बाद तक विद्यमान रहा (४) 'प्रपंचस्तु नेहोक्तो प्रथगौरवात् प्रमाणसंग्रहहै। संभव है वह अबभी किसी लायब्रेरी या सरस्वती भाष्याज्ञयः'-सिलि०प०६२१ भंडार में दीमकोंका भक्ष्य बना पड़ा हो। अन्वेषण (1) 'प्रमाणसंग्रहभाष्ये निरस्तम्'-सि० लि. प० करमेपर अकलंक देवके प्रमाणसंग्रह तथा अनन्तवीर्य की सिद्धिविनिश्चयटीकाकी तरह किसी श्वेताम्बर (६) 'दोषो रागादिाख्यातः प्रमाणसंग्रहभाष्ये'शास्त्र भंडार में मिल जाय; क्योंकि उनके यहां शास्त्रों सि० लि० ५० १२२२ । की सुरक्षा और सुव्यवस्था यति-मुनियोंके हाथोंमें - --- रही है और अबभी कितने ही स्थानों पर चलती है * वीर सेवा मन्दिरमे जो सिद्धिविनिश्चय टीकाकी हालमें हमें मुनि पुण्यविजयजीके अनुग्रहसे वि० लिन्वित प्रति मौजद है उसके पत्रों की संख्या डालीगई है। ११०३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] अनेकान्त । वर्षे इन असंदिग्ध उल्लेखोंसे 'प्रमाणसंग्रहभाष्य' कहना था कि अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थवार्तिकमें षट्खअथवा 'प्रमाणसंग्रहालंकार' की अस्तित्वविपयका एडागमका उपयोग किया ही नहीं। क्या उनका यह विद्वद्-अनुश्रुतिको जहां पोपण मिलता है वहां उसकी कहना ठीक है ? यदि है तब आपने तत्त्वार्थवार्तिकमें महत्ता. अपूर्वता और वृहत्ता भी प्रकट होती है। ऐसा षट्खण्डागमके सूत्रोंका अनुवाद कैसे बतलाया ? अपूर्वग्रन्थ मालूम नहीं इस समय मौजूद है अथवा ४ समाधान-हम आपको ऐसे अनेक प्रमाण हागया ह ? यदि नष्ट नहीं हुआ और किसा नीचे देते हैं जिनसे आप और वे विद्वान यह माननेको लायरीमें मौजूद है तो उसका अनुसंधान होना बाध्य होंगे कि अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थवातिकमें षट्चाहिये। कितने खेदकी बात है कि हमारी लापरवाही खण्डागमका खूब उपयोग किया है, यथासे हमारे विशाल साहित्योद्यानमेंसे ऐसे ऐसे सुन्दर (१) 'एवं हि समयोऽवस्थित: सत्प्ररूपणायां और सुगन्धित ग्रन्थ-प्रसून हमारी नज़रोंसे अोझल हो गये। यदि हम मालियोंने अपने इस विशाल कायानुवादे-"घसा द्वीन्द्रियादारभ्य आ अयोगकेवबागकी जागरूक होकर रक्षा की होती तो वह आज लिन इति"' -तत्त्वा० पृ०५८ कितना हरा-भरा दिखता और लोग उसे देख देखकर यह पटवण्डागमके निम्न सूत्रका संस्कृतानुवाद हैजैन-साहित्यपर कितने मुग्ध और प्रसन्न होते। हा "तसकाइया बोइदिय-प्पहडि जाव अजोगिकेविद्वानोंको ऐसे ग्रन्थोंका पता लगानेका पूरा उद्योग वाल र वलि ति। -पदख० १-१-४४ करना चाहिये। (२) 'पागमे हि जीवस्थानादिसदादिष्वनुयोग३ शंका-गोम्मटसार जीवकाण्ड और धवला द्वारेणादेशवचने नारकाणामेवादौ सदादिप्ररूपणा -तत्त्वा० पृ०५५ में जो नित्यनिगोद और इसर निगोदके लक्षण पाये इसमें सत्प्ररूपणाके २५ वें सूत्रकी ओर स्पष्ट जाते हैं क्या उनसे भी प्राचीन उनके लक्षण मिलते संकेत है। ___ (३) 'एवं हि उक्तमा वर्गणायां बन्धविधाने ३ समाधान-हां, मिलते है । तत्त्वार्थवार्तिकमें में नोआगमद्रव्यबन्धविकल्पे सादिवैनसिकबन्धनिर्देशः अकलङ्कदेवने उनके निम्न प्रकार लक्षण दिये हैं- प्रोक्तः विषमरूततायांच बन्ध: समस्निग्धतायां सम 'त्रिष्यपि कालेषुत्रसभावयोग्या ये न भवन्ति रूततायां च भेदः इति तदनुसारेण सूत्रमुक्तम' ते नित्यनिगोताः, सभावमवाप्ता अवाप्स्यन्ति -तत्त्वा०पृ०२४२ यहां पांचवें वर्गणा खण्डका स्पष्ट उल्लेख है। च ये तेऽनित्यनिगोताः। --त०वा० पृ० १०० (४) 'स्यादेतदेवमागमः प्रवृत्तः। पंचेन्द्रिया ____ अर्थात् जो तीनों कालोंमें भी प्रसभावके योग्य असंज्ञिपंचेन्द्रियादारभ्य आ अयोगकेवलिन:' पृ० ६३ नहीं हैं वे नित्यनिगोत हैं और जो सभाधको प्राप्त यह पटखण्डागमके इस सूत्रका अक्षरश: संस्कृहुए हैं तथा प्राप्त होंगे ये अनित्यनिगोत हैं। तानुवाद हैशंका-'संजद' पदको चर्चा के समय आपने "पंचिदिया असएिणपंचिदिय-प्पहडि जाव 'संजद पदके सम्बन्धमें अकलदेवका महत्वपूर्ण अजोगिकेवल ति" -१-१-३७ । अभिमत' लेखमें यह बतलाया था कि अकलङ्कदेवने इन प्रमाणोंसे असंदिग्ध है कि अकलङ्कदेवने तत्त्वाथैवार्तिकके इस प्रकरण में पट्खण्डागमके सूत्रोंका तत्त्वार्थवात्तिकमें पटवण्डागगका अनुवादादिरूपसे प्रायः अनुवाद दिया है। इसपर कुछ विद्वानोका उपयोग किया है। कृता। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] शंका समाधान ५- शंका - मनुष्यगति में आठ वर्षको अवस्था में भी सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाता है, ऐसा कहा जाता है, इसमें क्या कोई गम प्रमाण है ? । ५-समाधान-हां, उसमें आगम प्रमाण है तत्वार्थवार्त्तिकमें कलङ्गदेवने लिखा है कि 'पर्याप्तक मनुष्य ही सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं, अपर्याप्तक मनुष्य नहीं और पर्याप्तक मनुष्य आठ चपकी अवस्था से ऊपर उसको उत्पन्न करते हैं, इससे कममें नहीं' । यथा 'मनुष्या उत्पादयन्तः पर्याप्तका उत्पादयन्ति नापर्याकाः । पर्याप्त काश्वावस्थितेरुपर्युत्पादयन्ति नाधस्तान्' । - पृ० ७१ । ६- शंका - दिगम्बर मुनि जब विहार कर रहे हों और रास्ते में सूर्य अस्त हो जाय तथा आस-पास कोई गांव या शहर भी न हो तो क्या विहार बंद करके वे वहीं ठहर जायेंगे अथवा क्या करेंगे ? ६ - समाधान - जहां सूर्य अस्त होजायगा वहीं ठहर जायेंगे उससे आगे नहीं जायेंगे। भले ही वहां गांव या शहर न हो। क्योंकि मुनिराज ईर्यासमिति के पालक होते हैं और सूर्यास्त होनेपर ईर्यासमितिका पालन बन नहीं सकता और इसीलिये सूर्य जहां उदय होता है वहांसे वे तब नगर या गांव के लिये विहार करते हैं, जैसा श्राचार्य जटासिंहनन्दिने वरांङ्गचरितमें कहा है: यस्मिंस्तु देशेऽस्तमुपैति सूर्य स्तत्रैव वासमुखा बभ्रुवुः । pathi प्राप सहस्ररश्मि- तास्ततोऽथा पुरि वाऽप्रसंगाः ॥ ३०-४७ इसी बात को मुनियोंके आचार-प्रतिपादक प्रधान ग्रन्थ मूलाचार में (७८४) निम्न रूपसे बतलाया है--- म्ममा सरीरे जत्थत्थमिदा व संति णिएदा । सवा अपविद्धा विज्जू तह दिट्टड्डा या || ३७ अर्थात् 'वे साधु शरीरमें निर्मम हुए जहां सूर्य अस्त हो जाता है वहां ठहर जाते हैं कुछ भी अपेक्षा नहीं करते। और वे किसीसे बन्धे हुए नहीं, स्वतन्त्र हैं, बिजलीके समान दृष्टनष्ट हैं, इसलिये अपरिग्रह हैं। ७- शंका-- लोग कहते हैं कि दिगम्बर जैन मुनि वर्षावास (चतुर्मास ) के अतिरिक्त एक जगह एक दिन रात या ज्यादासे ज्यादा पांच दिन-रात तक ठहर सकते हैं। पीछे वे वहांसे दूसरी जगहको जरूर विहार कर जाते हैं। इसे वे सिद्धान्त और शास्त्रोंका कथन बतलाते हैं। फिर आचार्य शांतिसागरजी महाराज अपने संघ सहित वर्षभर शोलापुर शहर में क्यों ठहरे ? क्या कोई ऐसा अपवाद है ? ७- समाधान - लोगों का कहना ठीक है। दिगम्बर जैन मुनि गांव में एक रात और शहरमें पांच रात तक ठहरते हैं। ऐसा सिद्धान्त है और उसे शास्त्रों में बतलाया गया है। मूलाचार में और जटासिंहनन्दिके airataमें यही कहा है । यथा गामेरादिवासी यरे पंचाहवासिणो धीरा । सवा फाबिहारी विवित्तएगंतवासी य ।। -मूला० ७८५ ग्रामकरात्रं नगरे च पञ्च समृपुग्व्यग्रमनः प्रचाराः विजिह्न : || -वरांग० ३०-४५ न किंचिदप्यप्रतिबाधमाना विहारकाले समिता परन्तु गांव या शहरमें वर्षों रहना मुनियों के लिये न उत्सर्ग बतलाया और न अपवाद । भगवती आराधना में मुनियोंके एक जगह कितने काल तक ठहरने और बादमें न ठहरनेके सम्बन्धमें विस्तृत विचार किया गया है। लेकिन वहां भी एक जगह वर्षों ठहरना मुनियोंके लिये विहित नहीं बतलाया। नौवें और दशवें स्थितिकल्पोंकी विवेचना करते हुए विजयोदया और मृलाराधना दोनों टीकाओं में सिर्फ इतना ही प्रतिपादन किया है कि नौवें कल्प में मुनि एक एक ऋतुमें एक एक मास एक जगह ठहरते हैं। यदि ज्यादा दिन ठहरें तो 'उनमादि दोपों का Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] अनेकान्त [ वर्ष । परिहार नहीं होता, वसतिकापर प्रेम उत्पन्न होता है, अलसता, सौकुमार्यभावना, ज्ञातभिक्षाग्राहिता च सुखमें लम्पटपना उत्पन्न होता है, आलस्य आता है, दोषाः। पज्जो समणकप्पो नाम दशमः । वषोसुकुमारताकी भावना उत्पन्न होती है, जिन श्रावकोंके । यहां आहार पूर्व में हुआ था वहां ही पुनरपि आहार कालस्य चतुषु मासेषु एकत्रवावस्थानं भ्रमणलेना पड़ता है, ऐसे दोष उत्पन्न हो जाते हैं । इसलिये त्यागः । स्थावरजङ्गमजीवाकुलो हि तदा क्षितिः मुनि एक ही स्थानमें चिरकाल तक रहते नहीं हैं।' तदा भ्रमणे महानसंयमः, वृष्टया शीतवातपातेन दशवें स्थितिकल्पमें चतुर्मासमें एक ही स्थानपर रहने का विधान किया है और १२० दिन एक स्थानपर रह वात्मविराधना । पतेद् वाप्यादिषु स्थाणुकएटसकनेका उत्सर्ग नियम बतलाया है। कमती बढ़ती कादिभिर्वा प्रच्छन्नजलेन कद्देमेन बाध्यत इति दिन ठहरनेका अपवाद नियम भी इसप्रकार बतलाया विंशत्यधिक दिवसशतं एकत्रावस्थानमित्ययमुहै कि श्रुतग्रहण, (अभ्यास) वृष्टिकी बहुलता शक्तिका त्सर्गः। कारणापेक्षया तु हीनाधिकं वासस्थान, अभाव, वैयावृत्य करना आदि प्रयोजन हो तो ३६ दिन और अधिक ठहर सकते हैं अर्थात् आषाढशुक्ला संयतानां आषाढशुद्धदशम्यां स्थितानां उपरिष्टाच दशमीसे प्रारम्भ कर कार्तिक पौर्णमासीके श्रागे तीस दिन तक एक स्थानमें और अधिक रह सकते हैं। बहुलता, श्रतग्रहणं, शक्त्यभाववैयावृत्यकरणं कम दिन ठहरनेके कारण ये बतलाये हैं कि मरी रोग, प्रयोजनमुद्दिश्य अवस्थानमेकत्रेति उत्कृष्ट--- दुर्भिक्ष, ग्राम अथवा देशके लोगांको राज्य-क्रान्ति श्रादिसे अपना स्थान छोड़कर अन्य प्रामादिकोंमें कालः । मायौं, दुर्भिक्षे, ग्रामजनगदचलने वा जाना पड़े, संधके नाशका निमित्त उपस्थित हो जाय गच्छनाशनिमिचे समुपस्थिते देशान्तरं याति । आदि, तो मुनि चतुर्मासमें भी अन्य स्थानको विहार अवस्थाने सति रत्नत्रयविराधना भविष्यतीति । कर जाते हैं। विहार न करनेपर रत्नत्रयके नाशकी पौर्णमास्यामापोट्यामतिक्रान्तायां प्रतिपदादिषु सम्भावना होती है। इसलिये आषाढ़ पूर्णिमा बीत जानेपर प्रतिपदा आदि तिथियों में दूसरे स्थानको जा दिनेषु याति । यावच्च त्यक्ता विंशति-दिवसा सकते हैं और इसतरह एकसौबीस दिनोंमेसे बीस दिन एतदपेक्ष्य हीनता कालस्य एष दशमः स्थिति-- कम हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त वर्षों ठहरनेका वहां कल्पः" -विजयोदया टी० पृ०६१६ । कोई अपवाद नहीं है। यथा आचार्य शान्तिसागर महाराज सङ्घ सहित वषभर __"ऋतुषु पटसु एकेकमेव मासमेकत्र वसति- शोलापुर शहर में किस दृष्टि अथवा किस शास्त्रके रन्यदा विहरति इत्ययं नवमः स्थितिकल्पः। आधारसे ठहरे रहे। इस सम्बन्धमें सबको अपनी दृष्टि स्पष्ट कर देना चाहिए, जिससे भविष्यमे दिगएकत्र चिरकालावस्थाने नित्यमुद्गमदोपं च न म्बर मुनिराजाम शिथिलाचारिता और न बढ़ जाय । परिहतुं क्षमः। क्षेत्रप्रतिबद्धता, सातगुरुता, -दरबारीलाल कोठिया Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ঞ্জিন্ধিক্ষকল্পে १-केन्द्रीय शिक्षा-संस्थाका उद्घाटन और है। इसकी ओर भी पूरा ध्यान दिया जाना चाहिये। लेडी माउन्टबेटनका भाषण अच्छे नागरिक तैयार करने के लिये जो लड़ाई हमें दिसम्बरको दिल्ली में एक केन्द्रीय शिक्षा- लड़नी है उसमें इस बातका विशेष महत्व होगा। २-उद्योगसम्मेलनमें पं० नेहरूका अभिसंस्थाकी स्थापना होकर .उसका उद्घाटन समारोह मनाया गया था। उद्घाटन महामाननीया लेडी मांउ- भाषणटबेटनने किया था। इस अवसरपर भाषण करते अभी हालमें १८ दिसम्बर १९४७ को उद्योग मंत्री हुए आपने राष्ट्रीय अध्यापकोंको योग्यता और चरित्र डा० मुखर्जी द्वारा एक उद्योगसम्मेलन बुलाया गया था निर्माणपर महत्त्वपूर्ण जोर दिया । आपने कहा:- उममें भारतके प्रधान-मंत्री पं० जवाहरलाल नेहरूने 'इस केन्द्रीय शिक्षा-संस्थाका द्वार खोलते हुए औद्योगिक शान्तिकी आवश्यकता व उत्पादन में वृद्धि मुझे बड़ी प्रसन्नता होरही है । यह कहना अत्युक्तिपूर्ण करने के महत्व पर जोर देते हुए एक विस्तृत अभिन होगा कि भारत के अध्यापकोंको योग्यतापर ही भाषण किया था। आपने कहा:भावी सभ्यताके प्रति भारतका कार्य-भार अधिकांशत: 'मैत्री-पर्ण सहयोगमें हडतालों तथा तालेबंदियों निर्भर करेगा। पिछले तीन महीनामें हमारा ध्यान को बन्द करके कुछ समय तक औद्योगिक शान्ति अधिकतर मनुष्योंका जीवन बचानेके कार्य में लगारहा कायम रखना चाहिये। मौजूदा कितने ही आधारभूत है, किन्तु यह शिक्षा-संस्था खोलकर सरकारने स्पष्ट उद्योगोंका राष्ट्रीयकरण होना चाहिये । परन्तु समस्या कर दिया है कि कठिन समस्याओंमें फंस जाने के कारण का अधिकतम हल यह हो सकता है कि सरकारको वह दीर्घकालीन रचनात्मक कार्यक्रम प्रति उदा- नये उद्योगोंकी ओर अधिक ध्यान देना चाहिये और सीन नहीं है। उन्हींका अधिक मात्रामें नियंत्रण होना चाहिये । यह शिक्षामंत्री महोदयने अपने भाषणमें बताया है। सब मैं इसलिये कहरहा हूं कि मै वैज्ञानिक ढंगसे सोच कि यदि ११ वप तककी अवस्था वाले प्राय: ३ करोड़ विचार करनेका आदी रहा है,मै स्थिर रहनेको अपेक्षा बालकोंकी प्रारम्भिक शिक्षा-व्यवस्था करनी है तो आगे बढ़नेकी बात सोचता हूं। आज कल व्यवसा यापकाका आवश्यकता योंके सम्बन्धमें विचार करते समय लोग जीवापड़ेगी। और हर शिक्षित व्यक्तिसे इस कार्य में सहायता दियों, समाजवादियों अथवा कम्यूनिष्टोंकी बात सोचते लेनी होगी । शिक्षाके प्रसार-कायमे, क्या मै शैक्षिक हैं। किन्तु ये बातें वर्तमान स्थिति पर कायम रहनेकी फिल्मों तथा बेतारके माध्यमोंको शिक्षाप्रद उपयोगिता हैं, आगे बढ़नेकी नहीं। यह विचारधारा गये-बीते का भी सुझाव रख सकती हूं मै समझती हूं इस कार्यके युगको हैं। और इसे हमें त्याग देना चाहिये । कुछ लिये उक्त दोनों ही साधनोंके विस्तारके लिये भारतमें प्रगति शाल दृष्टिकोण रखने पर हम साफ देखते हैं काफी बड़ा क्षेत्र है। कि यह एक महत्त्वपूर्ण संक्रान्तिकाल है जिसमें शक्ति हम सभी जान चुके हैं कि केवल पुस्तकोय के नये स्रोतका अनुसंधान किया जा रहा है। यह योग्यता तथा विशिष्ट कुशलता पर्याप्त नहीं है और प्रौद्योगिक क्रान्ति या वैद्यत्निक क्रान्ति है। किन्त चरित्र-बलका उपार्जन भी परमावश्यक है। अध्यापक महत्त्व में इससेभी अधिक व्यापक है। इसमें दस पंद्रह गण अपने छात्रोंको, केवल अपनी योग्यतासे ही या बीस साल लग जायेंगे और आज का सभी कुछ नहीं, बल्कि अपने चरित्रसे भी प्रभावित कर सकता पुराना पड़ जायगा । सम्भव है आज आप जिस Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष । उद्योगको प्राप्त करनेकी चेष्टामें हों, कल उसका कोई ४-हमारा पड़ोसी देश वर्मा स्वतंत्र और महत्त्वहीन रहजाय । यदि आप भविष्य के खयालसे भारतद्वारा अपूर्व स्वागतदेखेंतो वर्तमानके कितने ही संघर्ष व्यर्थ जान पड़ने लगेंगे या उनका स्वरूप बदल जायेगा और तब श्राप ४ जनवरी १९४८ को वर्मा कितने ही वर्षोंकी अपनेको पुराने विचारोंकी गुलामीसे मुक्त पाने लगेंगे ब्रिटिश पराधीनताके जुएसे उन्मुक्त होकर सर्वतंत्र स्वतंत्र होगया। यह स्मरणीय रहे कि वर्माको ___ जहांतक मेरा ताल्लुक है, मैं देशकी बड़ी योजनाओंको और किसी भी चीजसे ज्यादा महत्व देता हूं, यह स्वतंत्रता भारतकी तरह बिना रक्तपात किये ही प्राप्त होगई है। भारतद्वारा उसकी इस स्वतंत्रताका मेरा विचार है कि देशमें इन्हींसे नयी सम्पत्ति प्राप्त होगी। जब कभी मैं भारतका कोई मानचित्र देखता हूं. __ अपूर्व स्वागत किया गया और भारतवपैकी तो हिमालय पर्वत-श्रेणीपर मेरी दृष्टि पड़ती है राजधानी देहलीमें विभिन्न स्थानोंपर इस स्वाधीनता और मैं उस अनन्तशक्तिकी बात सोचता हूं दिवसके उपलक्षमें अनेक समारोहोंका आयोजन जो उस श्रेणीमें बेकार छिपी पड़ी है, जिसे किया गया। इस अवसरपर भारतवर्षके गवर्नरकाममें लायाजा सकता है और जिसका जनरल लाडे माउण्ट वेटन, भारतके प्रधानमंत्री यदि तेजीसे विकास किया जासके तो जो सम्पर्ण भारत ५० जवाहरलाल नेहरू, उप-प्रधानमंत्री सरदार को ही बदल सकती है यह शक्तिका श्राश्चर्य-जनक । पटेल, राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाद तथा मंत्रिमंडलके और सम्भवत: संसार में सबसे महान् स्त्रोत है। इसी अन्य सदस्यों- जैसे सरदार बलदेवसिह, डा. लिये मैं महान् नदी घाटी योजनाओं, बांधों, विशाल श्यामाप्रसाद मुखर्जी, डा०बी० आर० अम्बेदकर, जलकुण्डों तथा जलविद्य त-केन्द्रोंको अधिक महत्व राजकुमारी अमृतकौर, श्रीजगजीवनराम, डा० जानमथाई, श्री एन० गोपाल स्वामी अय्यंगर, देता हूं । ये सब आपको आगे ले जायेंगे। पर शक्ति उत्पन्न करनेसे पहले हमें उसका नियंत्रण और उपयोग डा० रीफ, बर्मास्थित हाईकमिश्नर, प्रोफेसर भी तो जानना चाहिये। राधाकृष्णन, मर सी० बी० रमन, डा० कालीदास मुझे श्राशा है कि इस सम्मेलनमें कमसे कम नाग, और प्रोफेसर बी० एम० बरुआ-ने सन्देश यह ठोस परिणाम तो अवश्य निकलेगा कि हम लोग एवं भाषण दिये पाएडत नेहरू ने बर्माकी स्वतंत्रता मैत्रीपूर्ण ढंगसे काम प्रारम्भ करके एक अवधिके लिये को एशिया विशेष कर भारतके लिये बड़े महत्त्वकी प्रोद्योगिक शान्ति बनाये रखनेका फैसला कर लेगें घटना बतलाते हुए कहा-'भारत व बर्माका परस्पर और एक ऐसा ढंग निकाल लेंगे, जिससे प्रत्येक व्यकि इतना घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है कि यदि एक देश में के प्रति न्याय का व्यवहार होसके। इस बीच में हम कुछ होता है तो दूसरे पर उसका प्रभाव अवश्य शान्तिपूर्वक बैठकर व्यापक नीतियोंके सम्बन्धमें सोच पड़ता है। मुझे इसमें कुछ भी सन्देह नहीं हैं कि विचार कर सकेंगे। भविष्य में हमारा सम्बन्ध और भी अधिक घनिष्ठ होगा। यह सिर्फ हमारी एक जैसी भावनाका ही ३ सरकारी कागजातोंमे 'श्री' या 'श्रीमान' नहीं, बल्कि विश्व और एशियाको घटनाओंका भी शब्दोंका प्रयोग तकाजा है। शीघ्र ही वह समय आने वाला है जब पंजाबको सरकारने आदेश जारी किये हैं कि अब अन्य देशोंके साथ मिलकर हम सहयोगकी एक से आगे समस्त सरकारी कागजात और फाइलोंमें व्यवस्थाका निर्माण कर सकेंगे। 'मिस्टर' और 'एसकायर' इन अंग्रेजी शब्दों के स्थान उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने अपने सन्देश में 'श्री' या 'श्रीमान्' शब्दों का प्रयोग किया जाय । में कहा-'हम जानते हैं और अनुभव करते हैं कि Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] विविध भारतकी स्वाधीनता अन्य उन देशोंको स्वाधीनताकी इस अवसरपर मैं स्वर्गीय जनरल आंगसानके भूमिकामात्र है, जो अभी पराधीनतामें पड़े हुए हैं। प्रति श्रद्धांजलि प्रकट करता हूं। वे देशभक्त थे और इतिहासमें भारतके बर्मासे निकटतम सम्बन्ध रहे उनकी यह प्रबल अभिलाषा थी कि उनका देश सदा हैं। लगभग एक शताब्दी तक दोनों ही देश स्वतंत्र रहे और यही कारण था कि उन्होंने अपने विदेशी बेड़ियोंमें जकड़े रहे हैं। बर्माके आर्थिक आपको और अपनी वर्मी देशभक्त सेनाको जापानके जीवनमें भारतीयोंने जो हिस्सा लिया है, वह कुछ विरुद्ध लड़नेके लिये मुझे सौंप दिया था। उन्होंने थोड़ा नहीं है। हम सदासे बर्माके स्वाधीनता- और उनकी सेनाने जो हमारी सेनाको सहायता दीवह संग्रामके प्रति अपनी हार्दिक सहानुभूति प्रकट करते बहुत सराहनीय थी। वर्मा मुक्त हो जानेके बाद उन्होंने रहे हैं। जैसे-जैसे व बीतते जायेंगे वैसे-वैसे उच्चकोटिकी राजनीतिका परिचय दिया। रंगून और स्वाधीनतामें साथीपनकी भावनाका विकास होता कैन्डी में मेरी उनसे कई बार मुलाकात हुई। मुझे जायगा - इसी तरह जिस तरह कि पराधीनताको विश्वास होगया था। कि वे अवश्य ही देशके महान बेडियों में जकड़े रहने पर भी इनके दृष्टिकोणम नेता बनेंगे। मुझे आशा थी कि कितने ही वर्षों तक साम्य था। हमारी कामना है कि 'वर्मा पूनर्निर्माण वर्माका भाग्य-निर्माण करने के लिये वे चिरकाल तक तथा पुनस्संस्थापनके काय में प्रगति करे। जीवित रहेंगे। उनको भीषण हत्यासे हृदय-विदारक ___ डा. राजेन्द्रप्रसाद ने जिन्होंने रंगूनके स्वा क्षति पहुंची है। अपनी उपाधिके साथ बर्माका नाम सम्बद्ध करने धीनता समारोहमें बर्मा जाकर भारतका प्रतिनिधित्व किया, हिन्दीमें दिये हुए अपने सन्देशमें बर्मा राष्ट्र का मुझे गौरव प्राप्त है। इस देशसे मेरा घनिष्ठ सम्पर्क रहा है। इसलिये इस दिवसको विशिष्ट रूपसे को भारतीय राष्ट्रीयकांग्रेसकी तरफसे. बिहारकी मनाने के लिये मैं उत्सक था। मेरी इच्छा थी कि भारत तरफसे जहां बुद्धको बोधिसत्त्वका ज्ञानका प्रकाश की ओरसे वर्माको कोई उपहार दिया जाय। मिला था, सम्पूर्ण भारतकी तरफसे, विधानपरिषद कलकत्ताके अजायबघर में बर्माका एक राजकी तरफसे और स्वयं अपनी तरफसे बधाई दी। सिंहासन रखा हुआ है। मांडलेमें लुटदाभवनमें जब ___ लार्ड माउण्ट बैटनने बर्माके प्रति भारतको सद्भा- वाके नरेश थीषा गयेथे वे इसपर बैठे थे। यह उच्च वना प्रकट करते हुए अपने महत्वके भाषणमें कहा- सिंहासन सागौन लकड़ीका बना है और इसमें सोनेका आज बर्माका स्वाधीनता दिवस है। मुझे प्रसन्नता है प्रचुरतासे काम किया हुआ है। और नरेश थीवाके कि हमारे स्वाधीनता दिवसके कुछ समय बाद ही यह उस प्रसिद्ध सिंहासनका यह प्रतिरूप है।जब मैं हालही मनाया जारहा है। गत चार वर्षोंसे बर्माके मामलों में में लन्दन गया था तो मैंने सम्राटसे इस सम्बन्धमें में घनिष्ठतासे निरन्तर रुचि लेता रहा हूं और इस परामर्श किया भारत सरकारके इस प्रस्तावको उन्होंने प्रकार वर्मा देश और वर्मी लोगोंके लिये मेरे हृदय बड़ी प्रसन्नतासे मान लिया कि बर्माकी स्वाधीनताके में वास्तविक स्नेह उत्पन्न हो गया है। दक्षिण पूर्वी अवसरपर यह सिंहासन उसे भेंट कर दिया जाय। एशिया कमानके स्थापित होतेही वर्मा क्षेत्रके शासन यह सिहासन इतना भारी है कि यह यहां नहीं लाया का भार मुझे सौंप दिया गया था। ज्यों ज्यों जापा- जा सकता था। इसे कलकत्तासे ही सीधे रंगून भेज नियोंको हम पीछे हटाते थे त्यो त्यों यह क्षेत्र बढ़ता दिया जायेगा। मुझे आशा है कि मार्च में वर्मा जाने जाता था । वर्माको जापानसे मुक्त कराने के समय तक का मैं वर्मा के प्रधान-मंत्रीका निमंत्रण स्वीकार कर और इसके कुछ महीने बाद तक मैं इस प्रकारसे धर्मा सकूँगा । यदि ऐसा हुआ तो उस समय मैं स्वयं यह का सैन्य गवर्नर था। सिंहासन भेंट कर सकूगा । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ अनेकान्त [ वर्ष ६ कलकत्ताके सरकारी भवनमें सिंहासनभवनके कष्टपूर्ण घड़ियोंसे गुजरना पड़ रहा है । स्वतंत्रताके पश्चिमी भागमें एक छोटासा तख्त पोश है। यहभी जन्मसे पूर्व कष्टोंका भोगना अनिवार्य है। फिर भी नरेश थीवाका है और १८८५ में वर्माके तृतीय युद्धमें कष्टोंसे स्वाधीनताका उदय होता है और कल्याण मांडलेके राजमहलसे लाया गया था। यही तख्तपोश होता है और मुझे आशा है कि भविष्यमें वर्मी जनता आपके सामने है जो कलकत्ता-स्थित राजसिंहासनके के लिये कल्याणकारी और रचनात्मक कार्य होगा। अतिरिक्त मैं सम्राट और भारतकी सरकार तथा भारत अतोतकी तरह भविष्य में भी भारतीय राष्ट्र वमी के लोगोंकी ओरसे वर्मा-राजदूत की मार्फत वर्माके कंधोंसे कंधा लगा कर खड़ा होगा और. हमें सौभाग्य लोगोंको भेंट कर रहा है। इन दोनों उपहारकि साथ या दर्भाग्य जिसका भी सामना करना पड़े हम एक वर्माकं प्रति हम भारतकी सहृदयतापूर्ण शुभ कामनाऐं साथ ही उसका सामना करेंगे। भेजरहे हैं। हमारी यह प्रबल आशा और दृढविश्वास है कि भविष्य में वर्मा शान्ति और स्वतंत्रताके वाता ५-भगवान महावीरके जन्म दिवसकी वरण में फूले फलेगा'। यू० पी० प्रान्तमें छुट्टीकी सरकारी घोषणा___ इसी अवसर पर पण्डित नेहरू ने दिल्लीके दर- पाठकोंको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि संयुक्तबारभवनमें दिये अपने अन्य भापणमें वर्मा और प्रान्तको लोकप्रिय राष्ट्रीय सरकारने संयुक्तप्रान्तमें भारतके सम्बन्धोंपर प्रकाश डालते हए कहा भगवान महावीर के, जो अहिसा और अपरिग्रह के ___ 'मैं भारतकी सरकार और जनताकी तरफसे वर्मी अनन्य उपासक तथा सर्वोच्च प्रचारक थे, जन्मदिनकी सङ्घ के प्रजातन्त्रका अभिवादन करता हूं। केवल वर्मा एक दिनकी इस वर्षसे छुट्टकी घोषणा कर दी है। के लिये ही नहीं, बल्कि भारत तथा सम्पूर्ण एशियाके अब समस्त प्रांतमें महावीर-जयन्तीको सार्वजनिक लिये यह एक महान् तथा पवित्र दिन है । हम भारतमें छटो रहा करेगी। कई वर्षोंसे समाज और जैनसंदेश इससे विशेष रूपसे प्रभावित हुए हैं, क्योंकि न जाने आदि पत्र इस छटीके लिये लगातार प्रयत्न कर रहे कितने वर्षोंसे हमारा वर्मासे सम्बन्ध रहा है। अतीत थे। यद्यपि यह छठी बहुत पहले ही घोषित हो जानी कालसे हमारे प्राचीन ग्रन्थों में वर्माको स्वर्ग देश कहा चाहिये थी फिर भी सरकारने अपनी लोक-प्रियताका जाता रहा है । अतीत कालमें ही किन्तु कुछ समय परिचय देकर जो सार्वजनिक छुट्टीकी घोषणा को है बाद हमने वर्माको एक सदेश दिया, जो भारतके उसके लिये हम समाजकी ओरसे उसे धन्यवाद दिये महानतम पुत्र गौतम बुद्धका संदेश था। इस संदेशके विना नहीं रह सकते । अबतक निम्न स्थानोंमें महाकारण वर्मा और भारत इन २००० या कुछ अधिक वीर जयन्तीकी छड़ी स्वीकृत हो चुकी है वर्षों में एक अटूट बन्धनों में बंधे रहे हैं । अन्य बातोंके बिहार, सी० पी०, इन्दौर, रीवां, भोपाल, भरतपुर, अतिरिक्त इसमें शान्ति तथा सदाचरणका सन्देश बिजावर, बरार प्रान्त, अलवर, बून्दी, कोटा, ओरछा, था और आज अन्य किसी भी बातकी अपेक्षा शान्ति बीकानेर, अजयगढ़, अकलकोट, अलीराजपुर आंध, और सदाचरणको आवश्यकता है। और इस लिये अवागढ़, अजमतगढ़, अथमौलिक, बडवानी, बाघाट, आज हम वर्मा के प्रजातंत्रके अविर्भावका स्वागत बजाना, बालसीनौर, बालसन, वनेड़ा, बांसवाड़ा, बरवाला, भोट, बिलखा, बगसरा, बरम्बा, बोनई, ___ अतीतमें हम दोनों ही काफी अरसे तक पृष्ठभूमिमें खंभात, छगभारवर, चम्बा, छतरपुर, चूड़ा, छोठा, रहे हैं । हम दोनोंही हर्ष और विपादमें भागीदार रहे उदैपुर, चौमू, चुरेरवान दासपला, दतिया, धार, हैं और स्वाधीनता प्राप्तिके समय हम दोनोंको अनेक घरमपुर, धौलतपुर, ध्रांगधरा, धौल, दुजाना, डूंगर Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] साहित्यपरिचय और समालोचन [ ४३ पुर, दांता, देवासजुनियर, देवाससीनीयर, घोड़ासर, भारतके शिक्षामंत्रीके कार्यालयसे प्रकाशित एक हिंडौल, हथवा, ईडर, जयपुर, जामनगर, माबुआ, विज्ञप्तिमें सूचित किया गया है कि १८५१ की लन्दन मालावाड़, मोंद, जोधपुर, जूनागड, जम्बूगोड़ा, प्रदर्शनीके शाही कमिश्नरोंद्वारा इसवर्ष भारतीय विश्वकरौली, कटोसन. कवर्धा. क्योंमर. खडौल. खजर- विद्यालयों अथवा जिन संस्थाओं में विज्ञानको शिक्षा गांव खंडेला, खनियाधाना, खिरासरा, कोठी, कोटरा- देनेका पोस्ट ग्रेजुएट विभाग विद्यमान है उमके विसांगानी, कुरुन्दवाड़ सीनियर, किशनगढ़, केकड़ी द्यार्थियोंको विज्ञान-सम्बन्धी अनुसन्धानके लिये एक खेरागढ़, कोल्हापुर, कन्केर कुरवई, लखतर, लाठी, छात्रवृत्ति दी जायगी। यह छात्रवृत्ति ३५० पौड वालोम्बड़ी, लोधीका, लुनावाडा, महीयर, मलिया, मां- षिक होगी जो दो साल के लिये दी जायेगी। यह छात्रडवा, मांगरौल, मिरजजनियर, मौहनपुर, मली. वृत्ति उस विद्यार्थीको दी जायेगी, जिसने विश्व विद्यासुस्थान, मोहम्दी, मनिपुर, मानसा, मकराई, नागौद, लयका अपना पूरा कोर्स समाप्त कर लिया हो और नलागढ़, नन्दगांवराज; नयागढ़, नरसिंहगढ़, नान- जिसमें मौलिक वैज्ञानिक अनुसन्धानकी प्रतिभा पाई पाड़ा, नाभा, पन्ना, जुनिया, पटना पाटौदी पंचकोट, जाती हो । निर्वाचित विद्यार्थीको कमिश्नग द्वारा स्वीपादड़ी, परतापगढ़, पेथापुर, फल्टन, पोरबन्दर, कृत किसी भी विदेशी संस्थामे रहकर तात्त्विक अथवा रायसांकली, राजकोट, राजपीपला, रानासन, रतला- प्रयुक्त विज्ञानको किसी शाखामें अनुसन्धान करना म, सौलाना, शाहपुरा, सकती, समथर, सोट मायला, होगा। सीकर, सिरोही, सीतामऊ, सदासना, थाना देवली, इस छात्रवृत्तिके लिये भारतीय डोमीनियम अथवा टौंक, बड़ियावला, बलासना, वरसोड़ा, घसादर, भारतीय रियामतोंके सभी ऐसे प्रजाजन आवेदनवीरपुर, विठ्ठलगढ़, बढ़वान, वाव, वाई पत्र भेज सकते हैं। जिनकी श्रायु १ मई १६४८ को २६ उनियारा और कुरुम्दवाड़ जूनियर। वर्षसे कम बैठती हो। भारतमें रहने वाले अथवा ___ यदि इन स्थानोंके अतिरिक्त भी और कहीं छुट्टी विदेशमें रहनेवाले विद्यार्थियोंको अपने आवेदनपत्र स्वीकृत हुई हो तो पाठक सूचित करें। अब महावीर सम्बद्ध विश्वविद्यालय अथवा संस्थाके अधिकारियों जयन्तीकी छुट्रीके समारोहको सार्वजनिक रूपसे मनाने की सिफारिश सहित सम्बद्ध विश्वविद्यालय अथवा के लिये विशिष्ट आयोजन करना चाहिये और जैनि- संस्थाके जरिये प्रान्तीय सरकारों और स्थानीय अधियोंको उस दिन अपना व्यापार तथा कारोबार बन्द कारियोंके जरिये अधिकसे अधिक १० मार्च १६४५ रखकर पूरी लगनके साथ महावीर जीवनके साथ तक भारत सरकारके शिक्षा-विभागके सेक्रेटरीके पास अपना सम्पर्क स्थापित करना चाहिये।। भज देना चाहिये। ६ वैज्ञानिक अनुसन्धान के लिये छात्र योग्य जैन छात्रों को इस दिशामें अवश्य बदना चाहिये। वृतियां साहित्य परिचय और समालोचन १-अनुभव प्रकाश- लेग्वक, स्व० ५० दीप- (मारवाड़) मूल्य, अनुभवन । चन्द शाह कासलीवाल। प्रकाशक, श्री मगनमल यह हिन्दीका एक महत्त्वपूर्ण संक्षिप्त थाध्यात्मिक हीरालाल पाटनी दि० जैन पारमार्थिक ट्रस्ट, मागेठ गाग्रन्थ है । स्वाध्याय-प्रेमियोंके लिये बहत Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] अनेकान्त [ वर्षे । उपयोगी है। इसकी प्रस्तावनामें पं० परमानन्द ५-खण्डेलवाल जैन हितेच्छुका पुराणाङ्कजैन शास्त्री, वीरसेवामन्दिर, सरसावाने लेखकके सम्पादक और प्रकाशक-६० नाथूलाल जैन संक्षिप्त जीवन-परिचय और उनकी रचनाओं पर साहित्यरत्न इन्दौर, सहसम्पादक पं० भंवरलाल जैन प्रकाश डाला है। इससे ज्ञात होता है कि लेखक न्यायतीर्थ जयपर। विक्रमकी अठारहवीं सदीके अन्तिम चरण (१७७६) यह उक्त पत्रका विशेषाङ्क अभी हाल में प्रकाशित के एक अनुभवी श्राध्यात्मिक विद्वान हैं। यह हुआ है। इसमें पुराण और पुराणके विविध भागों, स्वाध्याय प्रेमियों के कामकी चीज़ है। प्रयोजनों आदि पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। स्व० २- जैनबोधकाचा ६० वर्षाचा इतिहास- 40 टोडरमल्लजी, जैनेन्द्रजी, नेमिचन्द्रजी ज्योतिषा चाय, बा० अजितप्रसादजी एडवोकेट, पं० कैलाशचन्द्र लेखक- फुलचन्द हीगचन्द शाह, सोलापुर । प्रकाशक । जी शास्त्री, बा० कामताप्रसादजी, पं० चैनसुखदासजी पं० ववैमान पाश्वनाथ शास्त्री, मंत्री-ध० रावजी श्रादि अनेक लेखकोंको सुन्दर और महत्वपूगो रचनाएँ सखाराम दोशी स्मारकमडल, सोलापुर । मूल्य |-)। इसमें निबद्ध हैं। अङ्क पठनीय व सराहनीय है। . प्रस्तुत पुस्तक मराठी जैन बोधकके साठ वर्षका संक्षिप्त इतिहास है। इसमें कब और किन सम्पादकों ब और किन सम्पादकों ६- तत्वार्थसूत्र-(साथै)सम्पादक पं लालबहादुर ने सेवा कार्य किया, यह बतलाया गया है। सामा- शाखा, प्रकाश म. शास्त्री, प्रकाशक भा०दि० जैन समथुरा । म०।-) जिक प्रवृत्तिका इससे कितना ही निदर्शन होता है। यह संस्करण पिछले सब संस्करणोंसे अपनी ३- विवरण-पत्रिका- प्रकाशक-दि० जैन अन्य विशेषता रखता है । वह यह कि पाठ करनेवाले स्त्री-पुरुषों और पाठशालाओंके बालक बालिकाओंके शिक्षा संस्था, कटनी (मध्यप्रान्त) । लिये धारणयोग्य मूलाथै इसमें दिया गया है, जिससे यह पूज्य पं. गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य उन्हें इसको पढ़ते पढ़ते ही उसका भावज्ञान होजावेगा द्वारा संस्थापित व संरक्षित दिगम्बर जैन शिक्षा संस्था भाषा बहुत सरल और चालू है। कटनीकी वि० सं० १६८८ से वि० सं० २००२ तक पुस्तक-समाप्तिके अन्त में जो 'श्रज्ञरमात्रपदस्वरपन्द्रह वर्षोंकी रिपोर्ट है। इसमें संस्थाके विभिन्न होनं' 'दशाध्याये परिच्छिन्नो' 'तत्त्वाथसूत्रकरिं ये विभागों और उनके आय-व्यय, उन्नति आदिका तीन पद्य मूलमें ही मिला दिये गये हैं उनसे पाठकोंको संक्षिप्त विवरण दिया गया है जिससे ज्ञात होता है यह भ्रम हो सकता है कि वे तीनों पद्य सूत्रकारके ही कि संस्थाने थोड़े समयमें पर्याप्त प्रगति की है। बनाये हुये हैं ; परन्तु ऐसा नहीं है पहला पद्य ही ४- दिगम्बर जैनका स्वतन्त्रता अक- सूत्रकारका ह, अन्य दो पद्य तो पीछेसे सूत्रका माहा म्य प्रदर्शित करने के लिये किन्हीं टीकाकारादि विद्वानों सम्पादक-मूलचन्द किशनदास कापड़िया, सूरत । द्वारा जोड़ दिये गये हैं। अत: उन्हें मूलमें नहीं दिगम्बर जैन अपने विशेषाङ्कोंके लिये प्रसिद्ध है। मिलाना था। हां उन्हें मूलसे पृथक् 'तत्त्वार्थसूत्रका यह विशेषांक भारतकी म्वतन्त्रता-प्राप्तिके उपलक्ष्यमें माहात्म्य' शीर्षक देकर उसके नीचे दिया जा सकता हाल में प्रकट हुआ है। कवरके मुख-पृष्टपर स्वाधीन था। सत्रकारका संक्षिप्त जीवन-परिचय भी रहता तो भारत और राष्ट्रीय झंडके चित्रों के साथ पं० नेहरू, और भी अच्छा था। फिर भी प्रस्तुत संस्करण जिस सरदार पटेल और राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसादके उददेश्यकी पूर्ति के लिये प्रकट किया गया है उसकी निसुन्दर चित्र हैं । तृतीय पृष्ठपर अहिसाके पुजारी पूज्य श्चयही इससे पूर्ति होती है। ऐसा संस्करण निकालने वर्णी जी और महात्मा गांधोके भव्य चित्र हैं। लेख के लिये सम्पादक और प्रकाशक दोनों धन्यवादाह हैं। पठनीय हैं। कापड़ियाजीका प्रयत्न स्तुत्य है। - दरबारीलाल कोठिया Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार साहबकी ७१वीं वर्षगांठका दान वीर-सेवा-मन्दिरके संस्थापक व अधिष्ठाता रनपुर, जैनकालिज सहारनपुर, स्याद्वाद महाविद्यालय श्रीमान् पं० जुगल किशोरजी मुख्तारने अपनी ७१ वीं काशी, दि० जैनसब मथुरा, ऋ० ब्रह्मचर्याश्रम मथुरा, वर्षगांठके अवसरपर गत मंगसिर सुदि ११०५५) रु० सत्तक जैनसंस्कृत विद्यालय सागर, श्रीकुन्दकुन्द जैन का जो दान निकाला है और जिसे उन्होंने समान रूप हाईस्कूल खतौली, जैनबालाविश्राम आरा. जैन अनासे वितरित किया है वह जिन ५१ संस्थाओं आदिको थाश्रम देहली नमि जैन औषधालय देहली, जैनदिया गया है उनके नामादि इस प्रकार हैं मित्र मण्डल देहली. दिगम्बर जैन परिषद देहली, दि० ___ श्रीसम्मेदशिखर, राजगृह. पावापुर, गिरनार जैन विद्वत्परिषद् बीना, जैन औषधालय बड़नगर, शत्रञ्जय,सोनागिर, कुन्थलगिरि, गजपंथा, हस्तिनापुर जैनकालिज बड़ौत, जैनसिद्धांतभवन श्रारा, महावीर द्रोणगिरि, रेशिंदेगिरि, महावीर जी, पञ्चायती जैन- जैनगुरुकुल कार झा, दि० जैन महासभा देहली, मन्दिर सरसावा। जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी बम्बई, मत्यसमाज वर्धा, जैन___ अनेकान्त, आत्मधम, सङ्गम, वीर, वीरवाणी गुरुकुल व्यावर, वीर विद्यालय पपौरा, परिषद् जैन2-6, जैन सन्देश. जैनगजट (अंग्रेजी) खण्डल- परीक्षा बोर्ड देहली (किसी भी परीक्षामें प्रथम आने ....जैनहितेच्छु, जैन, जनमहिलादश। वाले हरिजन या मुसलमानको पारितोपक). अतिथि वीर सेवामन्दिर, जैन कन्यापाठशाला सरसावा, सेवासमिति सोनगढ़। जैनगुमफुल सहारनपुर, जैनग्वैराती शफाग्वाना सहा -दरबारीलाल कोठिया - भारतीय ज्ञानपीठ काशीके प्रकाशन " १. नहाबन्ध-(महाधवल मिद्धान्त शास्त्र) प्रथम भाग। णिक रौमॉम) ४॥) हिन्दी टीका महित १२) ८.दो हजार वपैकी पुरानी कहानियां-(६४ जैन २. कालक्रुण-(मामद्रिक शास्त्र) हिन्दी अनुवाद कहानिया) व्याख्यान तथा प्रवचनामे उदाहरण देने योग्य ३) मरिन । दारंग्या विज्ञानका नवीन ग्रन्थ । सम्पादक-प्रो. .. पथचिह्न-(हिन्दी माहित्यकी अनुपम पुस्तक) स्मृति प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम००, अमरावती । १) ग्याएं और निबन्ध । २) ३. मदनपगजय-कवि नागदेव विरचित (मूल मंस्कृत) १० पाश्चात्त्य तकशाल-(पहला भाग) एफ० ०० के भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावनामहित । जिनदेव के कामके लाजिकके पाठ्यक्रमको पम्तक । लेखक-भिक्षु जगदीशजी पराजयका सरम रूपक । मन्पादक और अनुवादक-पं. काश्यप, एम० ए०. पालि-अध्यापक, हिन्द विश्वविद्यालय राजकुमारजी मा० ८) काशी । पृष्ट ३८४ । मल्य ४||) ४. जैनशासन-जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करने ११. कुन्दकुन्दाचार्य के तीन रव-२)। - नौ मुन्दर रचना । हिन्द विश्वविद्यालय के जेन रिलीजनके १२. कन्नडप्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची-(हिन्दी) मृद्रविद्री एफ. ए. के पाठ्यक्रमम निर्धारित । कवर पर महावीरस्वामी के जैनमठ, जनभवन, सिद्धान्तबसदि तथा अन्य ग्रन्थ का तिरंगा चित्र । ४।) भण्डार कारकल और अलियूरके अलभ्य नाइपत्रोयग्रन्यांका ५. हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास-हिन्दी सविवरण परिचय । प्रत्येक मन्दिग्मे तथा शास्त्रभंडारमे विरा जैन माहित्यका तिह म तथा परिचय । || ) जमान करने योग्य । १०) ६. आधुनिक जैन कवि-वर्तमान कवियोका कलात्मक वीर सेवामन्दिरके सब प्रकाशन यहांपर मिलते हैं। परिचय और सुन्दर रचनाऐ । ३||) -प्रचाराथपुस्तक मंगाने वाले मनुभावों को विशेषमुविधा। ७. मुक्ति-दृत-अञ्चना-पवन नयका पण्य चरित्र (पोर भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. A-731. भारतकी महाविभूतिका दुःसह वियोग! भारतकी जिस महाविमूति महात्मा मोहनदास कर्मचन्दजी गान्धीके आकस्मिक निधन-समाचारोंसे सारा विश्व एक दम व्याप्त हो गया है, सर्वत्र दुःखकी लहर विद्य द्वेगसे फैल गई है. चारों ओर हाहाकार मचा हुआ है-शोक छाया हुआ है और विदेशों तकमें जिस अघटित-घटनाको महा आश्चर्यको दृष्टिसे देखा जा रहा है तथा उसपर शोक मनाया जा रहा है, उस दुःखप्रद दुःसमाचार को अनेकान्तमें कैसे प्रकट किया जाय, यह कुछ समममें नहीं आता! इस दुःसह वियोगके कारण हृदय दुःखसे परिपूर्ण है, लेखनी कांप रही है और इसलिये कुछ भी ठीक लिखते नहीं बनता बुद्धि इस बातके समझने में हैरान और परेशान है कि जो महात्मा दिन-रात अविश्रान्तरूपसे भारतकी ही नहीं किन्तु विश्वको नि:स्वार्थ भावसे सेवा कर रहा हो, सदा ही मानव-समाजको उन्नतिके लिये प्रयत्नशील हो, हृदय में किसीके भी प्रति द्वेषभाव न रखना हो, एकनिष्ठासे अहिंसा और सत्यका पूजारी हो; अहिसाकी अमोघ-शक्ति से, बिना रक्तपात के हो जिसने भारतको स्वराज्य दिलाया हो और जिसको सारी शक्तियां उस साम्प्रदायिक विषको लोक-हदयोंसे निकालने में लगी हों जो समाजको मूर्छित पतित और मरणोन्मुख किये हुये है, उस महापुरुषको मार डालने का विचार किमी मानव हृदयमें कैसे उत्पन्न हुअा ? कैसे उस लोकपूज्य लोकोत्तर परोपकारकी मृतिको तोड़ने के लिये किसी सजीव प्राणी का कदम आगे बढ़ा? और कैसे ३० जनवरीकी सन्ध्याके समय पांच बजकर पांच मिनिटपर ईश-प्रार्थनाके लिये जाते हुए उस धर्मप्राण निःशस्त्र निरपराध वृद्ध महात्मापर तीनबार गोली चलाने के लिये किसी युवकका हाथ उठा!!! मालूम नहीं वह युवक कितना निष्ठुर, कितना कठोर, कितना मिदय और कितना अधिक मानवतासे शून्य अथवा अमानुषिक हृदयको लिये हुए होगा. जो ऐसा घोर पापकर्म करने में प्रवृत्त हआ है, जिसने सारे मानव-समाजको उसके नित्यके प्रवचनों सदुपदेशों सलाह-मशविरों और सक्रिय सहयोगोंसे होने वाले लाभोंसे एकदम बंचित कर दिया है। और इसलिये जिसे मानवसमाजका बहुत बड़ा हितशत्रु सममना चाहिये। गांधीजीने उस मराठा युवकका-जिसका नाम नाथूलाल विनायक गोडसे बतलाया जाता है कोई बिगाड नहीं किया. कोई अपराध नहीं किया और न उसके प्रति कोई दुव्यवहार ही किया है, फिर भी वह उनके प्रति ऐसा अमानुषिक कृत्य करने में प्रवृत्त हुआ अथवा मजबूर हुआ। जरूर इसके पीछे-पुश्तपर कोई भारी षडयन्त्र है-कुछ ऐसे लोगोंकी बहुत बड़ी साजिश है जो सारे राजतन्त्रको ही एकदम बदलकर स्वयं सत्तारूढ होना चाहते हैं और इसलिये जो गान्धीजीको अपने मार्गका प्रधान कण्टक समझ रहे थे। इस हृदयविदारक दुर्घटनासे भविष्य बडा ही भयंकर प्रतीत हो रहा है। अत: शासनारूढ़ नेताओं को शीघ्र ही षडयन्त्रका पता लगाते हुए अब आगे बहुतही सतके एवं सावधान रहनेकी जरूरत है और बड़े प्रयत्नके साथ गांधीजीके उस मिशनको पूरा करनेकी अावश्यकता है जिसे वे अभी अधूरा छोड़ गये हैं। गांधी जी तो भारत के हितके लिये अन्तमें अपना खून तक देकर अमर हो गये। अब यह उनके अनयायियोंका परम कर्तव्य है कि वे उनके मिशनको सब प्रकारसे सफल बनायें। इसी में भारतका हित है और यही महात्माजीका वास्तविक अर्थो में श्रमर स्मारक होगा। -सम्पादक मु० प्रका०५० परमानन्दशास्त्री भारतीयज्ञानपीठ काशीके लिये अजितकुमार द्वारा अकजङ्कप्रेस सहारनपुरमें मुद्रित Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकान्त फरवरी, सन् १४ संस्थापक-प्रवर्तक वीरसेवा-मन्दिर, सरसावा सञ्चालक-व्यवस्थापक भारतीय ज्ञानपीठ, काशी BALLIENCETESTRA लेखोंपर पारितोषिक जुगलकिशोर मुख्तार प्रधान सम्पादक मुनि कान्तिसागर दरबारीलाल न्यायाचार्य अयोध्याप्रसाद 'गोयलीय डालमियांनगर (बिहार) 'भनेकान्त' के इस पूरे वर्षों प्रकाशित सर्वश्रेष्ठ लेखोंपर डेसो १५०), सौ १००) और पचास ५०) का पारितोषिक दिया जायगा। इस पारितोषिक-स्पर्धा सम्पादक, व्यवस्थापक और प्रकाशक नहीं रहेंगे । बाहरके विद्वानोंके लेखोंपर ही यह पारितोषिक दिया जायेगा। लेखोंकी | । जांच और तत्सम्पन्धी परितोषिकका निर्णय 'अनेकान्त' का सम्पादक मण्डल करेगा। -व्यवस्थापक 'भनेकान्त वर्ष किरण २ HOTES ENTES COLN LERNE UKILPAILY LIIKS KICSI TA Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १ समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने (युक्त्यनुशासन ) - [प्र० सम्पादक ४५ ५० ५६ २ संजय वेलट्ठपुत्त और स्याद्वाद - [न्या० पं० दरबारीलाल कोठिया ३ रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयमें मेरा विचार और निर्णय । - [ प्र० सम्पादक ४ साहित्य परिचय और समालोचन ६० (घ) ५ विमल भाई [ अयोध्याप्रसाद गोयलीय ६१ ६ हिन्दी-गौरव (कविता) - [पं० हरिप्रसाद विकसित ६३ ७ सोमनाथका मन्दिर - [बा० छोटेलाल जैन ६४ ८ अदभुत बन्धन (कविता) - [पं० अनूप चन्द जैन ७१ श्री भारत जैन महामडका २८ वां वार्षिक अधिवेशन व्यावर ( राजपूताना) में ता० २७, २८, २६ मार्च सन् १९४८ को श्रीमान् सेठ अमृतलालजी जैन सम्पादक 'जन्मभूमि' बम्बई के सभापतित्वमें होगा । इस अधिवेशनमें समाजके हितके कई प्रस्तावों पर विचार किया जावेगा। अतएव आपसे निवेदन है कि इस शुभ अवसरपर पधारने की कृपा करें, तथा समाजका हित किन किन बातों में है इसका लेख, तथा निबन्ध व प्रस्ताव वर्धा भेजें । निवेदकचिरञ्जीलाल बड़जात्या सहायकमन्त्री, श्री भारत जैन महामण्डल, वर्धा प्राचीन मूर्तियां- अलवर शहर में मोहोला जतोकी बगीची में (पूर्जन विहारके समीप) एक महाजनके मकानकी नींव खुदते समय दक्षिण की ओर जिधर कबरिस्तान है ता० १६. २- ४८ की दस बजे सुबह चार मूर्तियां जमोनसे ६. करनीका फल (कथा-कहानी) -- अयोध्याप्रसाद गोयलीय ७२ १० क्या सम्यग्दृष्टि अपर्याप्तकालमें स्त्रोवेदी हो सकता है ? - बा० रतनचन्द जैन मुख्तार ७३ ११ सलका भाग्योदय -1 पं० के० भुजबली शास्त्री ७५ १२ चतुर्थ वाग्भट्ट और उनकी कृतियां - पं० परमानन्द जैन शास्त्री ७६ १३ महात्मा गांधी के निधन पर शोक प्रस्ताव ८१. १४ गांधी की याद (कविता) - [ मु० फजलुलरहमान जमाली पर १५ सम्पादकीय विचारधारा - [ गोयलीय ८३ ४.५ फुटकी गहराई में निकलीं। ये जैन प्रतिमा हैं और इनपर स्थानीय जैनसमाज ने अपना अधिकार कर लिया है। इन चारों मूर्तियोंमेंसे ३ प्रतिमायें खण्डित हैं जिनमें से एकपर जो लेख है उससे प्रकट होता है। कि वह भगवान पार्श्वनाथकी है और वह बीर सं० १३०२ में प्रतिष्ठित की गई थी। शेष दो खंडित मूर्तियों पर कोई चिह्न नहीं है इसलिये उनके सम्बन्ध में निश्चितरूप से कुछ नहीं कहा जासकता कि वे कबकी निर्माण की हुई हैं। चौथी प्रतिमा भगवान ऋषभदेवकी २ फुट ऊंची है । इसपर चिह्न स्पष्ट है । यह कालको जान पड़ती है। संगमूसाकी बनी हुई है। यह विशाल होने के अलावा बहुत सुन्दर अनुपम चिन्ताकपेक है। इसे देखनेको जैन तथा अजैन दर्शक सहस्रोंकी संख्या में नित्य प्रति भारहे हैं ऐसा अनुमान है कि कब रिस्तान के नीचे कभी प्राचीन जैनमन्दिर था। खुदाईका काम जारी है। स्थानीय जैन समाजने अस्थाईरूपसे इन प्रतिमा - ओंको निकट ही विराजमान कर दिया है । - जैनसमाज, अलवर Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम् स्ततत्त्व-सस .ooo विश्वतत्वप्रकाश वार्षिक मूल्य ५) .00०. एक किरणका मूल्य ॥) TA नीतिविरोधचसीलोकव्यवहारवर्तक सम्पदा |परमागमस्यीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः। - वर्ष । वीरसेवामन्दिर (समन्तभदाश्रम), सरसावा, जि० सहारनपुर माघ, वीरनिर्वाण-संवत् २४७३, विक्रम संवत् २००४ फरवरी ११४८ किरण २ समन्तभद्र-मारतीके कुछ नमुने युक्त्यनुशासन मद्याङ्गवद्भत-समागमे ज्ञः शक्त्यन्तर-व्यकिरदैव-सृष्टिः । इत्यात्म-शिश्नोदर-पृष्टि तुष्टैनिहीं-भयहो! मृदवः प्रलब्धाः ॥३५॥ "जिस प्रकार मद्याङ्गोंके-मद्यके अङ्गभूत पिष्टोदक. गुड, धातकी आदि के समागम (समुदाय) पर मदशक्तिकी उत्पत्ति अथवा आविर्भूति होती है उसी तरह भूतोंके-पृथ्वी. जल, अग्नि, वायु तत्त्वोंके समा. गमपर चैतन्य उत्पन्न अथवा अभिव्यक्त होता है-वह कोई जुदा तत्व नहीं है. उन्हींका सुख-दुःख हर्ष-विषाद. विवात्मक स्वाभाविक परिणामविशेष है। और यह सब शक्तिविशेषको व्यक्ति है, कोई देव-सृष्टि नहीं है। इस प्रकार यह जिनका कार्यवादी अविद्धकर्णादि तथा अभिव्यक्तिवादी पुरन्दरादि चार्वाकोंका-सिद्धान्त है उन अपने शिश्न (लिङ्ग) तथा उदरकी पुष्टिमें ही सन्तुष्ट रहनेवाले निर्लजों तथा निर्भयोंके द्वाग हा! कोमलबुद्धि-भोले मनुष्य-ठगे गये है!!' व्याख्या-यहां स्तुतिकार स्वामी समन्तभद्रने उन चार्वाकोंकी प्रवृत्तिपर भारी खेद व्यक्त किया है जो अपने लिङ्ग तथा उदरकी पुष्टिमें ही सन्तुष्ट रहते हैं-उसीको सब कुछ समझते हैं। खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ' यह जिनका प्रमुख सिद्धान्त है जो मांस खाने, मदिरा पौने तथा चाहे जिससे-माता, बहिन, पुत्रीसे समझते हैं खाया, पीला, मौन Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अनेकान्त । वर्ष - - भी-कामसेवन (भोग) करने में कोई दोष नहीं देखते: जिनकी दृष्टि में पुण्य-पाप और उनके कारण शुभ-अशुभ कर्म कोई चीज नहीं जो परलोकको नहीं मानते. जीवको भी नहीं मानते और अपरिपकबुद्धि भोले जीवोंको यह कह कर ठगते हैं कि-'जाननेवाला जीव कोई जुदा पदार्थ नहीं है. पृथ्वी जल, अग्नि और वायु ये चार मूल तत्व अथवा भूत पदार्थ हैं, इनके संयोगसे शरीर-इन्द्रिय तथा विषय-संज्ञाकी उत्पत्ति या अभिव्यक्ति होती है और इन शरीर-इन्द्रिय-विषयसंज्ञासे चैतन्य उत्पन्न अथवा अभिव्यक्त होता है। इस तरह चारों भूत चैतन्यका परम्परा कारण हैं और शरीर, इन्द्रिय तथा विषयसंज्ञा ये तीनों एक साथ उसके साक्षात् कारण हैं। यह चैतन्य गर्भसे मरण-पर्यन्त रहता है और उन पृथ्वी आदि चारों भूतोंका उसी प्रकार शक्तिविशेष है जिस प्रकार कि मद्यके अङ्गरूप पदार्थों (पाटा मिला जल, गुड और धातकी आदि) का शक्तिविशेष मद (नशा) है। और जिस प्रकार मदको उत्पन्न करनेवाले शक्तिविशेषको व्यक्ति कोई देवकृत-सृष्टि नहीं देखी जाती बल्कि मद्यके अङ्गभूत असाधारण और साधारण पदार्थोंका समागम होनेपर स्वभावसे ही वह होती है उसी प्रकार ज्ञानके हेतुभुत शक्तिविशेषकी व्यक्ति भी किसी देवसृष्टिका परिणाम नहीं है बल्कि ज्ञानके कारण जो असाधारण और साधारण भूत (पदार्थ) हैं उनके समागमपर स्वभावसे ही होती है। अथवा हरीतकी (हरद) आदिमें जिस प्रकार विरेचन (जुलाब) की शक्ति स्वाभाविको है-किसी देवताको प्राप्त होकर हरीतको विरेचन नहीं करती है-उसी प्रकार इन चारों भूतोंमें भी चैतन्यशक्ति स्वाभाविकी है। हरीतकी यदि कभी और किसीको विरेचन नहीं करती है तो उसका कारण या तो हरीतकी आदि योगके पुराना हो जाने के कारण उसकी शक्तिका जीर्ण-शीर्ण हो जाना होता है और या उपयोग करनेवालेकी शक्तिविशेषकी अप्रतीति उसका कारण होती है। यही बात चारों भूतोंका समागम होने पर भी कभो और कहीं चैतन्यशक्तिको अभिव्यक्ति न होने के विषय में समझना चाहिये। इस तरह जब चैतन्य कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं और चारों भूतोंको शक्तिविशेषके रूप में जिस चैतन्यकी अभिव्यक्ति होती है वह मरणपर्यन्त ही रहता है-शरीरके साथ उसकी भी समाप्ति हो जाती है-तब परलोकमें जानेवाला कोई नहीं बनता। परलोकीके अभाव में परलोकका भी अभाव ठहरता है, जिसके विषय में नरकादिका भय दिखलाया जाता तथा स्वगांदिकका प्रलोभन दिया जाता है। और देव (भाग्य) का अभाव होनेसे पुण्य-पाप कम तथा उनके साधन शुभ-अशुभ अनुठान कोई चीज नहीं रहते-सब व्यर्थ ठहरते हैं। और इस लिये लोक-परलोकके भय तथा लजाको छोड़कर यथेष्ट रूपमें प्रवर्तना चाहिये-जो जीमें आवे वह करना तथा खाना-पीना चाहिये । साथ ही, यह भी समझ लेना चाहिये कि 'तपश्चरण तो नाना प्रकारकी कोरी यातनाएँ हैं, संयम भोगोंका वश्चक है और अग्निहोत्र तथा पूजादिक कर्म बच्चोंके खेल हैं -इन सबमें कुछ भी नहीं धरा है। इस प्रकारके ठगवचनों-द्वारा जो लोग भोले जीवोंको ठगते हैं-पाप और लोकके भयको हृदयोंसे निकालकर तथा लोक-लाजको भी उठाकर उनकी पाप में निरंकुश प्रवृत्ति कराते हैं, ऐसे लोगोंको आचार्यमहोदयने जो 'निर्भय' और 'निलज्ज' कहा है वह ठीक ही है। ऐसे लोग विवेक-शून्य होकर स्वयं विषयों में अन्धे हुए दूसरोंको भी उन पापोंमें फँसाते हैं, उनका अध:पतन करते हैं और उसमें आनन्द मनाते हैं, जो कि एक बहुत ही निकृष्ट प्रवृत्ति है। यहां भोले जीवोंके ठगाये जानेकी बात कहकर प्राचार्य-महोदयने प्रकारान्तरसे यह भी सूचित किया है कि जो प्रौढ बुद्धि के धारक विचारवान् मनुष्य हैं वे ऐसे ठग-वचनोंके द्वारा कभी ठगाये नहीं जा सकते। वे जानते हैं कि परमार्थसे जो अनादि निधन उपयोग लक्षण चैतन्य स्वरूप आत्मा है वह प्रमाण * "तपासि यातनाश्चित्राः संयमो भोगवञ्चकः । अग्निहोत्रादिकं कर्म बालक्रीडेव लक्ष्यते ॥" Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने से प्रसिद्ध है और पृथिव्यादि भूतोंके समागमपर चैतन्यका सर्वथा उत्पन्न अथवा अभिव्यक्त होना व्यवस्थापित नहीं किया जा सकता। क्योंकि शरीराकार-परिणत पृथिव्यादि भूतोंके सङ्गत. अविकल और अनुपहत वीर्य होनेपर भी जिस चैतन्यशक्तिके वे अभिव्यञ्जक कहे जाते हैं उसे या तो पहलेसे सत् कहना होगा या असत् अथवा उभयरूप। इन तीन विकल्पोंके सिवाय दूसरी कोई गति नहीं है। यदि अभिव्यक्त होनेवाली चैतन्यशक्तिको पहलेसे सत्रूप (विद्यमान) माना जायगा तो सर्वदा सतरूप शक्तिको ही अभिव्यक्ति सिद्ध होनेसे पैतन्यशक्तिके अनादित्व और अनन्तत्वकी सिद्धि ठहरेगी। और उसके लिये यह अनुमान सुघटित होगा कि- चैतन्यशक्ति कथंचित् नित्य है, क्योंकि वह सतरूप और अकारण है, जैसे कि पृथिवी श्रादि भूतसामान्य ।' इस अनुमानमें सदकारणत्व हेतु व्यभिचारादि दोपोंसे रहित होने के कारण समीचीन है और इसलिये चैतन्यशक्तिको अनादि अनन्त अथवा कथञ्चित नित्य सिद्ध करने में समर्थ ह द अनन्त अथवा कथञ्चित् नित्य सिद्ध करने में समर्थ है। यदि यह कहा जाय कि पिछोदकादि मद्यांगोंसे अभिव्यक्त होनेवाली मदशक्ति पहलेसे सतरूप होते हुए भी नित्य नहीं मानी जाती और इसलिये उस सत् तथा अकारणरूप मदशक्ति के साथ हेतुका विरोध है, तो यह कहना ठीक नहीं क्योंकि वह मदशक्ति भी कथञ्चिन्नित्य है और उसका कारण यह है कि चेतनद्रव्यके हो मदशक्तिका स्वभावपना है, सर्वथा अचेतनद्रव्योंमें मदशक्तिका होना असम्भव है; इसीसे द्रव्यमन तथा द्रव्येन्द्रियोंके, जो कि अचेतन है, मदशक्ति नहीं बन सकती-भावमन और भावेन्द्रियोंके ही. जो कि चे हैं, मदशक्तिकी सम्भावना है। यदि अचेतनद्रव्य भी मदशक्तिको प्राप्त होवे तो मद्यके भाजनों अथवा शराब की बोतलोंको भी मद अर्थात् नशा होना चाहिये और उनकी भी चेष्टा शराबियों जैसी होनी चाहिये; परन्तु ऐसा नहीं है। वस्तुत: चेतनद्रव्य में मदशक्तिकी अभिव्यक्तिका बाह्य कारण मद्यादिक और अन्तरङ्ग कारण मोहनीय कर्मका उदय है-मोहनीयकर्मके उदय बिना बाह्यमें मद्यादि का संयोग होते हुए भी मदशक्तिकी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। चुनांचे मुक्तात्माओंमें दोनों कारणोंका अभाव होनेसे मदशक्तिकी अभिव्यक्ति नहीं बनती। और इसलिये मदशक्तिके द्वारा उक्त सदकारणत्व हेतुमें व्यभिचार दोष घटित नहीं हो सकता , वह चैतन्यशक्तिका नित्यत्व सिद्ध करने में समर्थ है। चैतन्यशक्तिका नित्यत्व सिद्ध होनेपर परलोकी और परलोकादि सब सुघटित होते हैं। जो लोग परलोकोको नहीं मानते उन्हें यह नहीं कहना चाहिए कि 'पहलेसे सतरूपमें विद्यमान चैतन्यशक्ति अभिव्यक्त होती है।' यदि यह कहा जाय कि अविद्यमान चैतन्यशक्ति अभिव्यक्त होती है तो यह प्रतीतिके विरुद्ध है, क्योंकि जो सर्वथा असत् हो ऐसी किसी भी चीजकी अभिव्यक्ति नहीं देखी जाती। और यदि यह कहा जाय कि कथञ्चित् सप तथा कथंचित् असत्रूप शक्ति ही अभिव्यक्त होती है तो इससे परमतकी-स्याद्वादकीसिद्धि होती है, क्योंकि स्याद्वादियों को उस चैतन्यशक्तिकी कायाकार-परिणत-पगलोंके द्वारा अभिव्यकि अभीष्ट है जो द्रव्यदृष्टि से सतरूप होते हुए भी पर्यायदृष्टि से असत् बनी हुई है। और इसलिये सर्वथा चैतन्य की अभिव्यक्ति प्रमाण-बाधित है, जो उसका जैसे तैसे वंचक वचनोंद्वारा प्रतिपादन करते हैं उन चार्वाकोंके द्वारा सुकुमारबुद्धि मनुष्य निःसन्देह ठगाये जाते हैं। इसके सिवाय जिन चार्वाकोंने चैतन्यशक्तिको भूतसमागमका कार्य माना है उनके यहां सवे चैतन्य शक्तियों में विशेषका प्रसङ्ग उपस्थित होता है-कोई प्रकारका विशेष न रहनेसे प्रत्येक प्राणो में बुद्धि आदिका विशेष (भेद) नहीं बनता। और विशेष पाया जाता है अत: उनको उक्त मान्यता मिथ्या है। इसी बातको अगली कारिकामें व्यक्त करते हुए प्राचार्य महोदय कहते हैं Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्षे दृष्टेऽविशिष्टे जननादि-हेतौ विशिष्टता का प्रतिसत्त्वमेषाम् । स्वभावतः किं न परस्य सिद्धिरतावकानामपि हा! प्रपातः ॥३६।। 'जब जननादि हेतु-चैतन्यकी उत्पत्ति तथा अभिव्यक्तिका कारण पृथिवी आदि भूतोंका समुदाय अविशिष्ट देखा जाता है- उसमें कोई विशेषता नहीं पाई जाती और दैवमृष्टि (भाग्यनिर्माणादि)को अस्वीकार किया जाता है- तब इन (चार्वाकों) के प्राणि प्राणिके प्रति क्या विशेषता बन सकती है ? - कारणमें विशिष्टताके न होनेसे भूतसमागमकी और मज्जन्य अथवा तदभिव्यक्त चैतन्यको कोई भी विशिष्टता नहीं बन सकती; तब इस दृश्यमान बुद्धयादि चैतन्यके विशेषको किस आधारपर सिद्ध किया जायगा? कोई भी आधार उसके लिये नहीं बनता। . (इसपर) यदि उस विशिष्टताकी सिद्धि स्वभावसे ही मानी जाय तो फिर चारों भूतोंसे भिन्न पाँचवें आत्मतत्वकी सिद्धि स्वभावसे क्यों नहीं मानी जाय ?- उसमें क्या बाधा आती है और इसे न मान कर 'भूतोंका कार्य चैतन्य' माननेसे क्या नतीजा, जो किसी तरह भी सिद्ध नहीं हो सकता ? क्योंकि यदि कायाकार-परिणत भूतोंका कार्य होनेसे चैतन्यकी स्वभावसे सिद्धि है तो यह प्रश्न पैदा होता है कि पृथ्वी श्रादि भूत उस चैतन्यके उपादान कारण है या सहकारी कारण ? यदि उन्हें उपादान कारण माना जाय तो चैतन्यके भूतान्वित होनेका प्रसंग आता है-अर्थात् जिस प्रकार सुवर्णके उपादान होनेपर मुकट, कुडलादिक पर्यायोंमें सुवर्णका अन्वय (वंश)चलता है तथा पृथ्वी आदि के उपादान होनेपर शरीरमें पृथ्वी आदिका अन्वय चलता है उसी प्रकार भूतचतुष्टयके उपादान होनेपर चैतन्यमें भूतचतुष्टयका अन्वय चलना चाहिए-उन भूतोंका लक्षण उसमें पाया जाना चाहिये। क्योंकि उपादान द्रव्य वही कहलाता है जो त्यक्ताऽत्यक्त-आत्मरूप हो, पूर्वाऽपूर्वके साथ वर्तमान हो और त्रिकालवर्ती जिसका विषय हो । परन्तु भूतसमुदाय ऐसा नहीं देखा जाता कि जो अपने पहले अचेतनाकारको त्याग करके चेतनाकारको ग्रहण करता हुश्रा भूतोंके धारणईरण-द्रव-उष्णतालक्षण स्वभावसे अन्वित (युक्त) हो। क्योंकि चैतन्य धारणादि भूतस्वभावसे रहित जाननेमें आता है और कोई भी पदार्थ अत्यन्त विजातीय कार्य करता हुआ प्रतीत नहीं होता। भूतोंका धारणादि-स्वभाव और चैतन्य (जीव)का ज्ञान दर्शनोपयोग-लक्षण दोनों एक दूसरेसे अत्यन्त विलक्षण एवं विजातीय हैं। अतः अचेतनात्मक भूतचतुष्टय अत्यन्त विजातीय चैतन्यका उपादान कारण नहीं बन सकता पोनोंमें उपादानोपादेयभाव संभव नहीं। और यदि भूतचतुष्टयको चैतन्यकी उत्पत्तिय सहकारी कारण माना जाय तो फिर उपादान कारण कोई और बतलाना होगा, क्योंकि बिना उपादानके कोई भी कार्य संभव नहीं। जब दूसरा कोई उपादान कारण नहीं और उपादान तथा सहकारी कारणसे भिन्न तीसरा भी कोई कारण ऐसा नहीं जिससे भूतचतुष्टयको चैतन्यका जनक स्वीकार किया जा सके, तब चैतन्यको स्वभावसे ही भूतविशेषकी तरह तत्त्वान्तरके रूपमें सिद्धि होती है। इस तत्वान्तर-सिद्धिको न माननेवाले जो अतावक है-दरोनमोहके उदयसे आकुलित चित्त हुए आप वीर जिनेन्द्रके मतसे बाह्य हैं- उन (जीविकामात्र तन्त्रविचारकों)का भी हाय ! यह कैसा प्रपतन हुआ है, जो उन्हें संसार समुद्रके आवतमें गिराने वाला है !!' स्वच्छन्दवरोजगतः स्वभावादुच्चैरनाचार-पथेष्वदोषम् । निघष्य दीक्षासममुक्तिमानास्त्वदृष्टि-बाह्या बत विभ्रमन्ते ॥३७॥ * १ "त्यक्ता त्यक्तामरू५ य पूर्वाऽपूर्वेण वर्तते । कालत्रयेऽपि तद्रव्यमुपादान मति स्मृतम् ॥" Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ ] समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने 'स्वभाव से ही जगतकी स्वच्छन्द - वृत्ति-- यथेच्छ प्रवृत्ति- है इसलिये जगतके ऊँचे दर्जे के अनाचार - मार्गो में हिंसा. झूठ, चोरी, कुशील (अब्रह्म) और परिग्रह नामके पाँच महापापों में भी कोई दोष नहीं, ऐसी घोषणा करके उनके अनुष्ठान जैसी सदोष प्रवृत्तिको निर्दोष बतलाकर - जो लोग दीक्षा के समकाल ही मुक्तिको मानकर अभिमानी हो रहे हैं - सहजग्राह्य हृदय में मन्त्रविशेषारोपण के समय ही मुक्ति हो जाने ( मुक्तिका सर्टिफिकेट मिल जाने का जिन्हें अभिमान है— अथवा दीक्षाका निरास जैसे बने वैसे (दीक्षानुठानका निवारण करने के लिये) मुक्तिको जो ( मीमांसक) अमान्य कर रहे हैं और मांसभक्षण, मदिरापान तथा मैथुनसेवन जैसे अनाचार के मार्गोंके विषय में स्वभावसे हो जगतकी स्वच्छन्द प्रवृत्तिको हेतु बताकर यह घोषणा कर रहे हैं कि उसमें कोई दोष नहीं है + वे सब (हे वीर जिन !) आपकी दृष्टिसे - बन्ध, मोक्ष और तत्कारण- निश्चय के निबन्धनस्वरूप आपके स्याद्वाद दर्शन से - बाह्य हैं और (सर्वथा एकान्तवादी होने से ) केवल विभ्रम में पड़े हुए हैं तस्वके निश्चयको प्राप्त नहीं होते- यह बड़े ही खेद अथवा कष्टका विषय है !!" व्याख्या- इस कारिका में 'दीक्षासम मुक्तिमाना: ' पद दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । एक अर्थ में उन मान्त्रिकों (मन्त्रवादियों) का ग्रहण किया गया है जो मन्त्र -दीक्षा के समकाल ही अपनेको मुक्त हुआ समझ कर अभिमानी बने रहते हैं, अपनी दीक्षा को यम-नियम रहिता होते हुए भी अनाचारको क्षयकारिणी समर्थदीक्षा मानते हैं और इस लिए बड़ेसे बड़ा अनाचार - हिंसादिक घोर पाप करते हुए भी उसमें कोई दोप नहीं देखते - कहते हैं 'स्वभावसे ही यथेच्छ प्रवृत्ति होने के कारण बड़े से बड़े अनाचार के माग भी दोष के कारण नहीं होते और इसलिये उन्हें उनका आचरण करते हुए भी प्रसिद्ध जीवन्मुक्तिकी तरह कोई दोष नहीं लगता।' दूसरे अर्थ में उन मीमांसकोंका भइण किया गया है जो कर्मों के क्षयसे उत्पन्न अनन्तज्ञानादिरूप मुक्तिका होना नहीं मानते. यम-नियमादिरूप दीक्षा भी नहीं मानते और स्वभाव से ही जगत के भूतों (प्राणियों) की स्वच्छन्द-प्रवृत्ति बतलाकर मांसभक्षण, मदिरापान और यथेच्छ मैथुन सेवन - जैसे अनाचारों में कोई दोष नहीं देखते। साथ ही वेद-विहित पशुवधादि ऊंचे दर्जे के अनाचार मार्गोको भी निर्दोष बतलाते हैं, जबकि वेद-बाह्य ब्रह्महत्यादिको निर्दोष न बतलाकर सदोप ही घोषित करने हैं। ऐसे सब लोग वीर- जिनेन्द्र की दृष्टि अथवा उनके बतनाये हुए सन्मार्ग से बाह्य हैं, ठीक तत्त्वके निश्चयको प्राप्त न होने के कारण सदोषको निर्दोष मानकर विभ्रममें पड़े हुए हैं और इसीलिये आचाय महोदयने उनकी इन दृपित प्रवृत्तियोंपर खेद व्यक्त किया है और साथ ही यह सूचित किया है कि हिसादिक महा अनाचारोंके जो मागें हैं वे सब सदोष हैं उन्हें निर्दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता, चाहे वे वेदादि किसी भी आगमविहित हों या अनागमविहित हों । जानता । + १ 'न मामभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।" सवार मणियां ४६ १ जो अपनेको जानता है वह सबको जानता। जो अपनेको नहीं जानता वह सबको नहीं कुन्द कुन्द - सुकरात २ हमारी इच्छाएँ जितनी कम हों, उतने ही हम देवताओंके समान हैं। ३ यह भी हो सकता है कि गरीबी पुण्यका फल हो और अमीरो पापका । ४ कुशाग्रबुद्धि महान् कार्योंको प्रारम्भ करती है; पर परिश्रम उन्हें पूरा करता है । -म० गांधी एमर्सन Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय वेलट्टिपुत्त और स्याहाद (लेखक-न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाल जैन, कोठिया) दर्शनके स्याद्वाद सिद्धान्तको कितने ही (१) है ?-नहीं कह सकता। जैन विद्वान ठीक तरहसे समझनेका प्रयत्न (२) नहीं है ?-नहीं कह सकता। नहीं करते और धर्मकीर्ति एवं शङ्करा- (३) है भी नहीं भी नहीं कह सकता। चार्यकी तरह उसके बारेमें भ्रान्त (४) न है और न नहीं है ?-नहीं कह सकता। उल्लेख अथवा कथन कर जाते हैं, इसकी तुलना कोजिए जैनोंके सात प्रकारके यह बड़े ही खेदका विषय है। काशी हिन्दविश्ववि- स्याद्वादसेद्यालयमें संस्कृत-पाली विभागके प्रोफेसर पं० बलदेव (१) है ? हो सकता है (स्याद् अस्ति) उपाध्याय एम० ए० साहित्याचायने सन् १९४६ में (२) नहीं है ?-नहीं भी हो सकता (स्यानास्ति) 'बौद्ध-दर्शन' नामका एक प्रन्थ हिन्दीमें लिखकर प्रका- (३) है भी नहीं भी ?-है भी और नहीं भी हो शित किया है, जिसपर उन्हें इक्कीससौ रुपयेका सकता है (स्यादस्ति च नास्ति च) डालमियां-पुरस्कार भी मिला है। इसमें उन्होंने, उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा सकते (वक्तव्य) बुद्धके समकालीन मत-प्रवर्तकोंके मतोंको देते हुए, है ? इसका उत्तर जैन 'नहीं' में देते हैंसंजय वेलट्रिपुत्तके अनिश्चिततावाद मतको भी बौद्धोंके (४) स्याद् (हो सकता है) क्या यह कहा जा 'दीघनिकाय (हिन्दी०पृ०२२) प्रन्थसे उपस्थित सकता (वक्तव्य) है?-नहीं, स्याद् अ-बक्तव्य है। किया है और अन्तमें यह निष्कर्ष निकाला है कि "यह (१) 'स्याद् अस्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, अनेकान्तवाद प्रतीत होता है। सम्भवतः ऐसे हो 'स्याद् अस्ति' प्रवक्तव्य है। थाट अस्ति भाधारपर महावीरका स्याद्वाद प्रतिष्ठित किया गया (६) 'स्याद नास्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्याद् नास्ति' अवक्तव्य है। इसी प्रकार दर्शन और हिन्दीके ख्यातिप्राप्त बौद्ध (७) 'स्याद अस्ति च नास्ति च' क्या यह वक्तविद्वान् राहुल सांकृत्यायन अपने 'दर्शन-दिग्दर्शन' में व्य? नहीं, 'स्याद् अस्ति च नास्ति च' अ-बक्तलिखते हैं व्य है। "माधनिक जैन-दर्शनका आधार 'स्याद्वाद' ६, दोनोंके मिलानेसे मालूम होगा कि जैनोंने संजयजो मालूम होता संजय वेलट्रिपुत्तके चार अगावाले के पहलेवाले तीन वाक्यों (प्रश्न और उत्तर दोनों) को अनेकान्तवादको (!) लेकर उसे सात अङ्गवाला किया अलग करके अपने स्याद्वादको छ भङ्गियों बनाई है, गया है। संजयने तत्त्वों (-परलोक, देवता) के और उसके चौथे वाक्य "न है और न नहीं है" को बारे में कुछ भी निश्चयात्मक रूपसे कहनेसे इन्कार करते छोड़कर 'स्याद्' भी प्रवक्तव्य है यह सातवाँ मङ्ग हुए उस इन्कारको चार प्रकार कहा है तैयार कर अपनी सप्तमङ्गी पूरी की। * १ देखो, बौद्धदर्शन पृ० ४० । उपलभ्य सामग्रीसे मालूम होता है, कि संजय + २ देखो, दर्शनदिग्दर्शन पृ० ४६६-६७ । अनेकान्तबादका प्रयोग परलोक, देवता, फर्मफल, था " Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] सञ्जय वेलट्रिपुत्त और स्याद्वाद मुक्तपुरुष जैसे-परोक्ष विषयोंपर करता था। जैन वाला राहलजी जैसा महापण्डित जैनदर्शन और उसके संजयको युक्तिको प्रत्यक्ष वस्तुओंपर लागू करते हैं। इतिहासको छिपाकर यह कैसे लिख गया कि "संजय उदाहरणार्थ सामने मौजूद घटकी सत्ताके बारेमें यदि के वादको ही संजयके अनुयायियोंके लुप्त हो जानेपर जैन-दर्शनसे प्रश्न पूछा जाय, तो उत्तर निम्न प्रकार जैनोंने अपना लिया। क्या वे यह मानते हैं कि मिलेगा जैनधर्म व जैनदर्शन और उनके माननेवाले जैन (१) घट यहां है?-होसकता है -स्यादस्ति)। संजयके पहले नहीं थे ? यदि नहीं, तो उनका उक्त (२) घट यहां नहीं है?-नहीं भी हो सकता लिखना असम्बद्ध और भ्रान्त है। और यदि मानते (स्यादु नास्ति)। हैं, तो उनकी यह बड़ी भारी ऐतिहासिक भूल है, जिसे (३) क्या घट यहां है भी और नहीं भी है स्वीकार करके उन्हें तुरन्त ही अपनीभूलका परिमार्जन है भी और नहीं भी हो सकता है (स्याद् अस्ति च । करना चाहिये। यह अब सर्व विदित होगया है नास्ति च)। और प्रायः सभी निष्पक्ष ऐतिहासिक भारतीय तथा (४) 'हो सकता है। (स्याद्) क्या यह कहा जा पाश्चात्य विद्वानोंने स्वीकार भी कर लिया कि जैनसकता है ?-नहीं, 'स्याद्' यह अ-वक्तव्य है। धर्म व जैनदर्शनके प्रवर्तक भगवान महावीर ही नहीं (३) घट यहां हो सकता है। (स्यादस्ति) क्या थे. अपितु उनसे पूर्व हो गये ऋषभदेव आदि २३ यह कहा जा सकता है?-नहीं, 'घट यहां हो सकता तीर्थकर उनके प्रवर्तक है, जो विभिन्न समयमि हुए हैं है' यह नहीं कहा जा सकता। और जिनमें पहले तीर्थकर ऋषभदेव, २२ वें तीर्थङ्कर (६) घट यहां नहीं हो सकता है' (स्याद् नास्ति) अरिष्टनेमि (कृष्णके समकालीन और उनके चचेरेक्या यह कहा जा सकता है?-नहीं, 'घट यहां नहीं भाई) तथा २३ वें तीर्थकर पाश्वनाथ तो ऐतिहासिक हो सकता' यह नहीं कहा जा सकता। महापुरुष भी सिद्ध हो चुके हैं। अत: भगवान महा(७) घट यहां 'हो भी सकता है', नहीं भी हो वीरके समकालीन संजय और उसके अनुयायियोंके सकता है, क्या यह कहा जा सकता है? नहीं, 'घट पर्व जैनधर्म व जैनदर्शन और उनके माननेवाले जैन यहां हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है। यह नहीं विद्यमान थे, और इसलिये उनके द्वारा संजयके वादको कहा जा सकता। अपनानेका राहुलजीका आक्षेप सर्वथा निराधार और इस प्रकार एक भी सिद्धान्त (=याद)की स्थापना असंगत है। ऐसा ही एक भारी आक्षेप अपने बौद्ध न करना, जो कि संजयका वाद था, उसीको संजयके प्रन्थकारोंको प्रशंसाकी धुनमें वे समप्र भारतीय विद्वाअनुयायियोंके लुप हो जानेपर जैनोंने अपना लिया, नोंपर भी कर गये, जो अक्षम्य है। वे इसी 'दर्शन और उसकी चतुर्भगी न्यायको सप्तभङ्गीमें परिणत । दिग्दर्शन' (पृष्ठ ४४८) में लिखते हैंकर दिया।" "नागार्जुन, असंग, पसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्ममालूम होता है कि इन विद्वानोंने जैनदर्शनके कोर्ति,- भारतके अप्रतिम दार्शनिक इसी पारामें स्याद्वाद-सिद्धान्तको निष्पक्ष होकर समझनेका प्रयत्न । पैदा हुए थे। उन्हींके हो उच्छिष्ट-भोजी पीछेके प्रायः नहीं किया और अपनी परम्परासे जो जानकारी उन्हें मिली उसीके आधारपर उन्होंने उक्त कथन किया। सारे ही दूसरे भारतीय दार्शनिक दिखलाई पड़ते हैं।" अच्छा होता, यदि वे किसी जैन विद्वान् अथवा दार्श- राहुलजी जैसे कलमशूरोंको हरेक बातको और निक जैन ग्रन्थसे जैनदर्शनके स्याद्वादको समझकर प्रत्येक पदवाक्यादिको नाप-जोख कर ही कहना और उसपर कुछ लिखते। हमें आश्चर्य है कि दर्शनों और लिखना चाहिए। उनके इतिहासका अपनेको अधिकारी विद्वान मानने. अब सञ्जयका वाद क्या है और जैनोंका स्याद्वाद Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष क्या है ? तथा उक्त विद्वानोंका उक्त कथन क्या संगत इन पदार्थों के बारे में उससे प्रश्न करता था तब वह एवं अभ्रान्त है ? इन बातोपर सक्षेपमें प्रस्तुत लेखमें चतुष्कोटि विकल्पद्वारा यही कहता था कि 'मैं जानता विचार किया जाता है। होऊँ तो बतलाऊँ और इसलिये निश्चयसे कुछ भी संजय वेलढिप्रत्तका वाद (मत) नहीं कह सकता।' अतः यह तो विल्कुल स्पष्ट है कि भगवान महावीरके समकाल में अनेक मत-प्रवर्तक संजय अनिश्चिततावादी अथवा संशयवादी था और विद्यमान थे। उनमें निम्न छह मत-प्रवतक बहुत उसका मत आना उसका मत अनिश्चिततावाद या संशयवादरूप था। प्रसिद्ध और लोकमान्य थे राहलजीने स्वयं भी लिखा है + कि "संजयका १ अजितकेश कम्बल, २ मक्खलि गोशाल दर्शन जिस रूपमें हम तक पहुंचा है उससे तो उसके ३ पूरण काश्यप, ४ प्रक्र ध कात्यायन, ५ संजय वेल- दर्शनका अभिप्राय है, मानवको साजबुद्धिको भ्रममें द्विपुत्त, और ६ गौतम बुद्ध । डाला जाये, और वह कुछ निश्चय न कर भ्रान्त धारइनमें अजितकेश कम्बल और मक्खलि गोशाल णाओंको अप्रत्यक्ष रूपसे पुष्ट करे ।" भौतिकवादी, पूरण काश्यप और प्रक्रुध कात्यायन जैनदर्शनका स्थाद्वाद और अनेकान्तवादनित्यतावादी, सञ्जय वेलट्रिपुत्त अनिश्चिततावादी और गौतम बुद्ध क्षणिक अनात्मवादी थे। परन्तु जैनदर्शनका स्याद्वाद संजय के उक्त अनिप्रकृप्तमें हमे सञ्जयके मतको जानना है। अतः श्चिततावाद अथवा संशयवादसे एकदम भिन्न और उनके मतको नीचे दिया जाता है। दीघनिकाय' में निर्णय-कोटिको लिये हुए है । दोनोमें पूर्व-पश्चिम उनका मत इस प्रकार बतलाया है अथवा ३६ के अंको जैसा अन्तर है । जहां संजयका "यदि आप पछे,- 'क्या परलोक है', तो यदि वाद अनिश्चयात्मक है वहां जैनदशनका स्याद्वाद निश्च मैं समझता होऊँ कि परलोक है तो आपको बतलाऊँ यात्मक है। वह मानवकी सहज बुद्धिको भ्रममें नहीं कि परलोक है। मै ए भी नही कहता वैसा भी डालता. बल्कि उसमे आभासित अथवा उपस्थित विरोधों व सन्देहोंको दूर कर वस्तु-तत्त्वका निर्णय नही कहता, दूसरी तरहसे भी नहीं कहता। मैं यह भी नहीं कहता कि 'वह नही है। मैं यह भी नहीं कराने में सक्षम होता है स्मरण रहे कि समग्र (प्रत्यक्ष कहता कि 'वह नहीं नहीं है। परलोक नहीं है, पर और परोक्ष) वस्तु-तत्त्व अनेकधर्मात्मक है- उसमे लोक नही नहीं।' देवता (=औपपादिक प्राणी) हैं... अनेक (नाना) अन्त (धर्म-शक्ति-स्वभाव) पाये जाते देवता नहीं हैं, हैं भी और नहीं भी, न हैं और न हैं और इसलिये उसे अनेकान्तात्मक भी कहा जाता नहीं हैं।...... अच्छे बुरे कम फल हैं, नहीं हैं, है। वस्तुतत्त्वकी यह अनेकान्तात्मकता निसर्गत: है, हैं भी और नही भी, न हैं और न नहीं है। तथा अप्राकृतिक नहीं। यही वस्तुमें अनेक धर्मोका गत (=मुक्तपुरुप) मरने क बाद होते है. नहीं होते स्वीकार व प्रतिपादन जैनाका अनेकान्तवाद है। हैं......? -यदि मुझसे एसा पूछे. तो मैं यदि संजयके वादको, जो अनिश्चिततावाद अथवा संशयऐसा समझता होऊँ ....तो ऐसा आपको कहं । मै वाद के नामसे उल्लिखित होता है, अनेकान्तवाद ऐसा भी नहीं कहता, वैसा भी नहीं कहता...... कहना अथवा बतलाना किसी तरह भी उचित एवं यह बौद्धोद्वारा उल्लेखित संजयका मत है। इसमें सङ्गत नहीं है, क्योंकि संजयके बाद में एक भी सिद्धांत पाठक देखेंगे कि संजय परलोक, देवता. कर्मफल की स्थापना नहीं है; जैसाकि उसके उपरोक्त मत-प्रद. और मुक्तपुरुष इन अतीन्द्रिय पदार्थों के जानने में र्शन और राहुल जीके पूर्वोक्त कथनसे स्पष्ट है। किन्तु असमर्थ था और इसलिये उनके अस्तित्वादिके बारे अनेकान्तवाद में अस्तित्वादि सभी धर्माकी स्थापना में वह कोई निश्चय नहीं कर सका। जब भी कोई + १ देखो, 'दर्शन-दिग्दर्शन' पृ० ४६२ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] संजय वेलट्टिपुत्त और स्याद्वाद और निश्चय है। जिस जिम अपेक्षासे वे धर्म उसमें अन्य शब्द नहीं, जिसका अर्थ है कथञ्चित किञ्चित, व्यवस्थित एवं निश्चित हैं उन सबका निरूपक स्या- किसी अपेक्षा, कोई एकदाष्टि, कोई एक धर्मको विवक्षा. द्वाद है। अनेकान्तवाद व्यवस्थाप्य है तो स्याद्वाद कोई एक ओर । और 'वाद' शब्दका अर्थ है मान्यता उसका व्यवस्थापक है। दमरे शब्दों में अनेकान्तवाद अथवा कथन । जो स्यात् (कथञ्चित्) का कथन वस्तु (वाच्य-प्रमेय) रूप है और स्याद्वाद निर्णायक करनेवाला अथवा 'स्यात्' को लेकर प्रतिपादन करनेवाचक तत्वरूप है। वास्तव में अनेकान्तात्मक वस्तु- वाला है वह स्याद्वाद है। अर्थात जो सर्वथा एकातत्त्वको ठीकठीक समझने-सममाने, प्रतिपादन करने. न्तका त्यागकर अपेक्षासे घस्तुस्वरूपका विधान करता कराने के लिये ही स्याद्वादका आविष्कार किया गया है वह स्याद्वाद है। कथञ्चिद्वाद, अपेक्षावाद आदि है, जिसके प्ररूपक जैनों के सभी (२४) तीर्थकर हैं। इसीके दूसरे नाम हैं-इन नामोंस भी उसीका बोध अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीरको उसका प्ररूपण होता है। जैन तार्किकशिरोमणि स्वामी समन्तभद्रने उत्तराधिकार के रूपमे २३ वें तीर्थकर भगवान पाश्व- आप्तमीमांसा और स्वयम्भूस्तोत्रमें यही कहा हैनाथसे तथा भगवान पाश्वनाथको कृष्ण के समकालीन स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात्किवृत्तचिद्विधिः। २२ वें तीथेकर अरिष्टनेमिसे मिला था। इस तरह सप्तभङ्गनयापेक्षो ध्यादेयविशेषकः ॥१०॥ पूर्व पूर्व तीर्थकर से अग्रिम तीर्थकरको परम्परया -आप्तमीमांसा स्याद्वादका प्ररूपण प्राप्त हुआ था। इस युगके प्रथम सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः । तीर्थकर ऋपभदेव हैं जो इस युगके श्राद्य स्याद्वाद. सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीहिते।। । प्ररूपक हैं। महान जन तार्किक समन्तभद्र + और सर्वथानियमत्यागी यथादृष्टमपेक्षकः । अकलङ्कदेव जैसे प्रख्यात जैनाचार्योने सभी तीर्थकरों स्थाच्छब्दस्तावके न्याये नान्येपामात्मविद्विषाम् ।। को स्पष्टतः स्याद्वादी-स्याद्वादप्रतिपादक बतलाया है -स्वयम्भूस्तोत्र और उस रूपसे उनका गुण-कीर्तन किया है। जैनोंको अत: 'स्यान्' शब्दको संशयार्थक, भ्रमाथक अथवा यह अत्यन्त प्रामाणिक मान्यता है कि उनके हर एक अनिश्चयात्मक नहीं समझना चाहिये। वह अविव. तीर्थकरका उपदेश 'स्याद्वादामृतगर्भ होता है और वे क्षित धर्मोकी गौणता और विवक्षित धमकी प्रधानता'स्याद्वाद पुण्योदधि' होते हैं। अत: केवल भगवान को सूचित करता हुआ विवक्षित हो रहे धर्मका विधान महावीर ही स्याद्वाद के प्रतिष्ठापक व प्रतिपादक नहीं एवं निश्चय करानेवाला है। संजयके अनिश्चितताहैं। स्यावाद जैनधर्मका मौलिक सिद्धान्त है और वाद की तरह वह अनिर्णीति अथवा वस्तुतत्त्वकी वह भगवान महावीर के पूर्ववर्ती ऐतिहासिक एवं सर्वथा अवाच्यताको घोपणा नहीं करता। उसके प्रागैतिहासिक कालस समागत है। द्वारा जैसा प्रतिपादन होता है वह समन्तभद्र के शब्दों में स्याद्वादका अर्थ और प्रयोग निम्न प्रकार है'स्याद्वाद' पद स्यात् और वाद इन दो शब्दोंसे कथञ्चित्ते सदेवेष्ट कथञ्चिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सवथा ॥१४| बना है। 'स्यात्' अव्यय निपातशब्द है, क्रिया अथवा सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । + 'बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतू बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तः। असदेव विपर्यासान्न चेन व्यवतिष्ठते ।।१५।। स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्त नैकान्तदृष्ट स्वमतो-मि क्रमाप्तिद्वयाद् द्वैतं, सहावाच्यमशक्तित:। शास्ता ॥१४॥” स्वयंभूस्तोत्रगत शंभव जिनस्तोत्र । अवक्तव्योनरा: शेपास्त्रयो भङ्गा: स्वहेतुत: ।।१६।। २ "धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमो नमः । अर्थात जैनदर्शनमें समग्र वस्तुतत्त्व कथञ्चित वृपभादिमहावीरान्तेभ्य:स्वात्मोपलब्धये ॥१॥" लघीयत्रय सतही है, कथंचित असतही है तथा कथंचित उभय Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वह हो है और कथंचित अवाच्य ही है, सो यह सब नय. सकता' जवाब दिया है और इसलिये उसे अनिश्चितविवक्षासे है, सर्वथा नहीं। तावादी कहा गया है। स्वरूपादि(स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल,स्वभाव इन) जैनोंको जो सप्तभङ्गी है वह इस प्रकार हैचारसे उसे कौन सा ही नहीं मानेगा और पररूपादि (१) बस्तु है?-कथञ्चित (अपनी द्रव्यादि चार (परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, परभाव इन) चारसे अपेक्षाओंसे) वस्तु है हो–स्याद त्येव घटादि वस्तु । कौन असत ही नहीं मानेगा। यदि इस तरह उसे (२) वस्तु नहीं है -कथञ्चित (परद्रव्यादि चार स्वीकार न किया जाय तो उसकी व्यवस्था नहीं हो अपेक्षाओंसे) वस्तु नहीं है। है-स्यानास्त्येव घटादि सकती। वस्तु। क्रमसे अर्पित दोनों (सत और असन) की (5) वस्तु है. नहीं (उभय) है -कथञ्चित् अपेक्षासे वह कथंचित् उभय ही है, एक साथ दोनों (क्रमसे अपित दोनों-वदन्यादि और परद्रव्यादि (सत और असत) को कह न सकनसे अवाच्य ही है। चार अपक्षाने) वस्तु है, नही (उभय) ही हैइसी प्रकार श्रवक्तव्य के बाद के अन्य तीन भङ्ग स्यादस्ति नाम्त्य र घटादि वस्तु । (सदवाच्य, असदवाच्य,और मदसवाच्य)भी अपनी (४) उम्त छातय है ?-कश्चित् (एक साथ विवक्षाओंसे समझ लेना चाहिए । विवक्षित स्वयादि और परद्रव्यादि दोनो अपेक्षायही जैनदर्शनका सप्तभङ्गी न्याय है जो विरोधी- असि कडी न जा सकतमे) व तु अवक्तव्य ही हैअविरोधी धर्म युगलको लेकर प्रयुक्त किया जाता है स्यादवाव्यमेव घदादि वस्तु । और तत्तन अपेक्षाओंस वस्तु-धर्मों का निरूपण करता (५) बाल है-अवतव्य है' ?- कश्चिन (स्वहै। स्याद्वाद एक विजयी योद्धा और सप्तभड़ी- द्रव्याभि और एक साथ विरक्षित दोनाव परन्याय उसका अस्त्र शस्त्रादि विजा-माधन है । अथवा द्रव्यादि का अक्षयान कही न जा सकनेस) वस्तु यों कहिए कि वह एक स्वत: सिद्ध न्यायाधीश है और है-श्रवक्तव्य ही है'-यावस्ट वक्तव्यमेव घटादि सप्तभंगी उसके निर्णयका कए साधन है । जैनदशन- वस्तु । के इन स्याद्वाद मप्रभङ्गीन्याय. अनेकान्तवाद आदिका (६) वस्तु 'नहीं-अवक्तव्य है?-कथञ्चित परविस्तृत और प्रामाणिक विवेचन प्राप्तमीमांसा. स्व. द्रव्यादिसे और एक साथ विवक्षित दोनो स्व-पर द्रव्यायम्भूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन. मन्मतिसूत्र अष्टशती. दिकी अपेक्षा कही न जा सकनेस) वस्नु नही-अबअष्टसहस्री, अनेकान्तजयपताका. स्याद्वादमतरी क्तव्य ही है' - स्थानास्य वक्तव्य मेव घटादि वस्तु । आदि जैन दार्शनिक ग्रन्थों में समुपलब्ध है। (७) वस्तु है-नही-अबक्तव्य है? कथश्वन संजयक अनिश्चिततावाद और जैनदर्शनके (क्रमसे निस्क पर द्रव्य निमें और एक साथ आपत स्वर द्रव्यादिकी अपेक्षासे कही न जा सकनेस) व स्याद्वादमें अन्तर 'है नहीं और अवक्तव्य ही है।-स्यादस्ति नास्त्यवऊपर राहुलजोने संजयकी चतुर्भङ्गी इस प्रकार क्तव्यमेव घटादि वस्तु । बतलाई है जैनांकी इस साभगीमें पहला, दूसग और चौथा (१) है?-नहीं कह सकता। ये तीन भङ्ग तो मौलिक हैं और तीमग. पोचवों, (२) नहीं है ?-नहीं कह सकता। और छठा द्विसंयोगी तथा सातवां त्रिरुयोगी भङ्ग हैं (३) है भी नहीं भी ?-नहीं कह सकता। और इस तरह अन्य चार भङ्ग मूलभूत तीन भङ्गों के (४) नहै और न नहीं है?-नहीं कह सकता। संयोगज भर हैं। जैसे नमक, मिर्च और खटाई संजयने सभी परोक्ष वस्तुओंके बारेमें 'नहीं कह इन तीनक संयोगज स्वाद चार ही बन सकते हैं Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ ] संजय वेलहिपुत्त और स्याद्वाद नमक-मिर्च, नमक-खटाई, मिर्च-खटाई और नमक- (५) देवदत्त श्रवक्तव्य है- एक साथ पिता-पुत्रा. मिर्च-खटाई-इनसे ज्यादा या कम नहीं । इन संयोगी दि दोनों अपेक्षाओंसे कहा न जा सकनेसे- 'स्यात् चार स्वादों में मूल तीन स्वादोंको और मिला देनेसे देवदत्तः श्रवक्तव्यः ।। कुल स्वाद सात ही बनते हैं। यही सप्तभङ्गोंकी बात (५) देवदत्त पिता'है-श्रवक्तव्य है- अपने है। वस्तुमें यों तो अनन्तधमे हैं. परन्तु प्रत्येक धमको पुत्रको अपेक्षा तथा एक साथ पिता-पुत्रादि दोनों लेकर विधि-निषेधकी अपेक्षासे सात ही धर्म व्यव- अपेक्षाओंसे कहा न जा सकनेसे-'स्यात् देवदत्तः स्थित हैं-सत्वधर्म, असत्वधर्म, सत्वामत्वोभय, पिता अस्त्यवक्तव्यः । अवक्तव्यत्व, सत्वावक्तव्यत्व, अमत्वावक्तव्यत्व और (६) देवदत्त 'पिता नहीं है-श्रवक्तव्य है'-अपने सत्वासत्वावक्तव्यत्व। इन मातसे न कम हैं और न पिता मामा श्रादिकी अपेक्षा और एक साथ पिता ज्यादा। अत एव शङ्काकारोंको सात ही प्रकार के पुत्रादि दोनों अपेक्षाओंसे कहा न जा सकनेसेसन्देह, सात ही प्रकारकी जिज्ञासाएं. मात ही प्रकार के स्थात् देवदत्तः नास्त्यवक्तव्यः । प्रश्न होते हैं और इसलिये उनक उत्ता वाक्य मातही (७) 'देवदत्त पिता' है और नहीं है तथा श्रवहोते हैं, जिन्हें सप्तमग या सप्तभङ्गीके नामसे कहा क्तव्य है'- क्रमसे विवक्षित पिता-पुत्रादि दोनोंकी जाता है। इस तरह जैनोंकी सप्तभङ्गी उपपत्तिपूर्ण अपेक्षासे और एक साथ विवक्षित पिता-पुत्रादि दोनों ढङ्गसे सुव्यवस्थित और सुनिश्चित है। पर संजयकी अपेक्षाओंसे कहा न जा सकनेसे- 'स्यात् देवदत्तः उपर्युक्त चतुर्भङ्गीमें कोई भी उपपत्ति नहीं है। उसन पिता अस्ति नास्ति चावक्तव्यः। प्रश्नोंका जवाब नहीं कह सकता' में ही दिया है यह ध्यान रहे कि जैनदर्शनमें प्रत्येक वाक्यमें और जिसका कोई भी हेतु उपस्थित नही किया, और उसके द्वारा प्रतिपाद्य धर्मका निश्चय कराने के लिये इसलिये वह उनके विपय में अनिश्चित है। 'एव' कारका विधान अभिहित है जिसका प्रयोग राहुल जीने जो उपर जैनोंकी सप्तमङ्गी दिखाई है वह नयविशारदाके लिये यथेच्छ है-वे करें चाहे न करें। भ्रमपूर्ण है। हम पहले कह आये हैं कि जैनदर्शनमें न करने पर भी उसका अध्यवसाय वे कर लेते हैं । 'स्याद्वाद'के अन्तगत स्यान' शब्दका अर्थ हो सकता राहुलजो जब 'स्यान्' शब्द के मूलाथक समझने में ही है। ऐसा सन्देह अथवा भ्रमरूप नही है उसका तो भारी भूल करगये तब स्याद्वादको भगियोंके मेल-जोल कञ्चिन् (किसी एक अपेक्षास) अथे है जो निर्णयरूप करनेमे भूले कर ही सकते थे और उसीका परिणाम है। उदाहरणार्थ देवदत्तको लीजिये, वह पिता-पुत्रादि है कि जैनदर्शनके सप्तभंगोंका प्रदशन उन्होंने ठीक अनेक धभरूप है। यदि जैनदर्शनसे यह प्रश्न किया तरह नही किया। हमें आशा है कि वे तथा स्याद्वादजाय कि क्या देवदत्त पिता है ? तो जैनदशन स्याद्वाद के सम्बन्धमें भ्रान्त अन्य विद्वान् भी जैनदशनके द्वारा निम्न प्रकार उत्तर देगा -- स्याद्वाद और सप्तभंगोको ठीक तरहसे ही समझने (१) देवदत्त पिता है-अपने पुत्रको अपेक्षासे- और उल्लेख करनका प्रयत्न करगे। 'स्यात देवदत्तः पिता अस्ति। ___ यदि संजय के दर्शन और चतुर्भगीको ही जैन (२) देवदत्त पिता नहीं है-अपने पिता-मामा दर्शनमें अपनाया गया होता तो जैनदाशनिक उसके आदिकी अपेक्षासे-क्योंकि उनकी अपेक्षासे तो वह दर्शनका कदापि आलोचन न करते । अष्टशती और पुत्र, भानजा आदि है-'स्यात् देवदत्त: पिता नास्ति। अष्टसहस्रीमें अकलंकदेव तथा विद्यानन्दने इस (३) देवदत्त पिता है और नहीं है- अपने पुत्र- दर्शनकी जैसी कुछ कड़ी आलोचना करके उसमें दोषोंकी अपेक्षा और अपने पिता-मामा आदिकी अपेक्षा का प्रदर्शन किया है वह देखते ही बनता है। यथासे-'स्यात् देवदत्त: पिता अस्ति च नास्ति च। 'तहेयस्तीति न भणामि, नास्तीति च न भणामि. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त । वर्ष यदपि च भणामि तदपि न भणामीति दर्शनमस्त्विति अपने स्याद्वादसिद्धान्त, अनेकान्तसिद्धान्त, सप्तभङ्गी कश्चित् , सोपि पापीयान् । तथा हिसावेतराभ्या सिद्धान्त संजयसे बहुतपहलेसे प्रचलित हैं जैसे उसके मनभिलापे वस्तुनः, केवलं मूकत्वं जगत: स्यात, अहिंसा-सिद्धान्त, अपरिग्रहःसिद्धान्त, कमै सिद्धान्त विधिप्रतिषेधव्यवहारायोगात। न हि सर्वात्मनान- आदि सिद्धान्त प्रचलित हैं और जिनकेश्राद्यप्रवर्तक मिलाप्यस्वभावं बुद्धिरध्यवस्यति । न चानध्यवसेयं इस युगके तीथकर ऋषभदेव हैं और अंतिम महावीर प्रमितं नाम, गृहीतस्यापि तादृशस्यागृहीतकल्पत्वात । हैं। विश्वासहै उक्त विद्वान अपनी जैनदर्शन व स्यामच्छोचतन्यवति ।"-अष्टस० पृ० १२४ । द्वादके बारमें हुई भ्रान्तियाका पारमाजन द्वादके बारेमें हई भ्रान्तियोंका परिमार्जन करेंगे और इससे यह साफ है कि संजयकी सदोष चतुर्भगी उसकी घोषणा कर देंगे। और दर्शनको जैनदर्शनने नहीं अपनाया। उसके २१ फरवरी १९४८] वीरसेवा मन्दिर, सरसावा रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विश्यमें मेरा विचार और निर्णय [सम्पादकीय ] ( गतकिरणसे आगे) (१) रत्ककरण्डको प्राप्तमीमांसाकार स्वामी सम- प्रोफेसर साहबने प्राप्तमीमांसाकारके द्वारा अभि न्तभद्रको कृति न बतलानेमें प्रोफेसर साहबकी जो मत दोषके स्वरूपका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं कियासबसे बड़ी दलील है वह यह है कि 'रत्नकरण्डके अपने अभिप्रायानुसार उसका केवल कुछ संकेत ही 'सिपासा' नामक पद्यमें दोषका जो स्वरूप सम- किया है। उसका प्रधान कारण यह मालूम होता है माया गया है वह प्राप्तमीमांसकारके अभिप्रायानुसार कि मूल आप्तमीमांसामें कहीं भी दोषका कोई स्वरूप हो ही नहीं सकता-अर्थात् आप्तमीमांसाकारका दोष दिया हुआ नहीं है। 'दोष' शब्दका प्रयोग कुल पांच के स्वरूप-विषय में जो अभिमत है वह रत्नकरण्डके कारिकाओं नं०४६ ५६, ६२, ८० में हुआ है जिनउक्त पद्यमें वर्णित दोष-स्वरूपके साथ मेल नहीं खाता- मेंसे पिछली तीन कारिकाओं में बुद्धयसंचरदोष, वृत्तिविरुद्ध पड़ता है, और इसलिये दोनों ग्रन्थ एक हो दोष और प्रतिज्ञा तथा हेतुदोषका क्रमश: उल्लेख है, आचार्यकी कृति नहीं हो सकते। इस दलीलको प्राप्तदोषसे सम्बन्ध रखनेवाली केवल ४थी तथा ६ठो चरितार्थ करने के लिये सबसे पहले यह मालुम होनेकी कारिका ही है। और वे दोनों ही 'दोष के स्वरूप जरूरत है कि आप्तमीमांसाकारका दोषके स्वरूपः कथनसे रिक्त हैं। और इसलिये दोषका अभिमत विषयमें क्या अभिमत अथवा अभिप्राय है और उसे स्वरूप जानने के लिये आप्तमीमांसाकी टीकाओं तथा प्रोफेसर साहबने कहांसे अवगत किया है?-मल प्राप्तमीमांसाकारकी दूसरी कृतियोंका आश्रय लेना प्राप्तमीमांसापरसे ? आप्तमीमांसाकी टोकाओंपरसे? होगा। साथ ही प्रन्थके सन्दर्भ अथवा पूर्वापर अथवा प्राप्तमीमांसाकारके दूसरे प्रन्थोंपरसे? और कथन सम्बन्धको भी देखना होगा । उसके बाद यह देखना होगा कि रत्नकरण्डके 'क्षुलि टीकाओंका विचारपासा' नामक पद्यके साथ मेल खाता अथवा सङ्गत प्रोफेसर साहबने ग्रन्थसन्दर्भके साथ टोकाओंका बैठता है या कि नहीं। आश्रय लेते हुए, अष्टसहस्रीटीकाके आधारपर, जिस Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] रत्नकरण्डके केतृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय में अकलकदेवको अष्टशती टोका भी शामिल है, यह है। घातिया कर्मके क्षय हो जानेपर इन दोनोंकी प्रतिपादित किया है कि 'दोषावरणयोोनिः' इस सम्भावना भी नष्ट होजाती है। इस तरह घातिया कर्मोंचतुर्थ-कारिका-गत वाक्य और 'स त्वमेवासि निर्दोषः' के क्षय होनेपर क्षुत्पिपासादि शेष छहों दोषोंका अभाव इस छठी कारिकागत वाक्यमें प्रयुक्त 'दोष' शब्दका होना भी अष्टसहस्री-सम्मत है, ऐसा समझना अभिप्राय उन अज्ञान तथा राग-द्वषादिक वृत्तियों चाहिये । बसुनन्दि-वृत्तिमें तो दूसरी कारिकाका से है जो ज्ञानावरणादि घातिया कर्मोंसे उत्पन्न होती भथे देते हुए, "क्षुत्पिपासाजरारुजाऽपमृत्य्वाद्यभाव: हैं और केवलीमें उनका अभाव होनेपर नष्ट हो जाती इत्यर्थः" इस वाक्यके द्वारा दुधा-पिपासादिके अभावहैं +। इस दृष्टिसे रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यमें को साफ तौर पर विग्रहादिमहोदयके अन्तर्ग उल्लेखित भय, स्मय, राग, द्वेष और मोह ये पाँच है, विग्रहादि-महोदयको अमानुषातिशय लिखा है दोष तो आपको प्रसङ्गत अथवा विरुद्ध मालूम नहीं तथा अतिशयको पूर्वावस्थाका अतिरेक बतलाया है। पड़ते; शेष क्षुधा, पिपासा, जरा, आतङ्क(रोग), जन्म और छठी कारिकामें प्रयुक्त हुए 'निर्दोष' शब्दके अर्थमें और अन्तक (मरण) इन छह दोषोंको आप असंगत अविद्या-रागादिके साथ सुधादिके अभावको भी समझते हैं- उन्हें सर्वथा असातावेदनीयादि अघा- सूचित किया है । यथा:तिया कर्मजन्य मानते हैं और उनका प्राप्त केवलीमें अभाव बतलानेपर अघातिया कर्मोंका सत्व तथा उदय बर्तमान रहने के कारण सैद्धान्तिक कठिनाई महसूस करते हैं । परन्तु अष्टसहस्रोमें ही द्वितीय कारिकाके इस वाक्यमें 'अनन्तज्ञानादिसम्बन्धेन' पद'चुदा. अन्तर्गत 'विग्रहादिमहोदयः' पदका जो अर्थ दिविरहितः' पदके साथ अपनी खास विशेषता एवं 'शश्वन्निस्वेदत्वादिः किया है और उसे 'घातिक्षयजः महत्व रखता है और इस बातको सूचित करता है कि बतलाया है उसपर प्रो० साहबने पूरी तौरपर ध्यान जब आत्मामें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख दिया मालूम नहीं होता। 'शश्वनिःस्वेदत्वादिः पदमें और अनन्तवीर्यको आविर्भूति होती है तब उसके उन ३४ अतिशयों तथा ८ प्रातिहार्योंका समावेश है सम्बन्धसे सुधादि दोषोंका स्वत: अभाव हो जाता है जो श्रीपूज्यपाद के 'नित्यं नि:स्वेदत्व' इस भक्तिपाठ- अर्थात् उनका अभाव हो जाना उसका आनुषङ्गिक गत अर्हत्स्तोत्रमें वर्णित हैं। इन अतिशयोंमें अर्हत्- फल है-उसके लिये वेदनीय कर्मका अभाव-जैसे स्वयम्भूकी देह-सम्बन्धी जो १० अतिशय हैं उन्हें किसी दूसरे साधनके जुटने-जुटानेकी जरूरत नहीं देखते हुए जरा और रोगके लिये कोई स्थान नहीं रहती। और यह ठीक ही है। क्योंकि मोहनीयकर्मके रहता और भोजन तथा उपसर्गके अभावरूप (भुक्त्यु- साहचर्य अथवा सहायके विना वेदनीयकर्म अपना पसर्गाभाव:) जो दो अतिशय हैं उनकी उपस्थितिमें कार्य करनेमें उसी तरह असमर्थ होता है जिस तरह क्षुधा और पिपासाके लिये कोई अवकाश नहीं मिलता। ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ ज्ञान वीर्याशेष 'जन्म' का अभिप्राय पुनर्जन्मसे और 'मरण' का तरायकर्मका अनुकूल क्षयोपशम साथमें न होनेसे अभिप्राय अपमृत्यु अथवा उस मरणसे है जिसके अन- अपना कार्य करनेमें समर्थ नहीं होता; अथवा चारों न्तर दूसरा भव (संसारपर्याय) धारण किया जाता घातिया कोका अभाव हो जानेपर वेदनीयकर्म * "दोषास्तावदज्ञान-राग-द्वेषादय उक्ताः" । अपना दुःखोत्पादनादि कार्य करने में उसीप्रकार असमर्थ । (अष्टसहस्त्री का० ६, पृ० ६२) होता है जिस प्रकार कि मिट्टी और पानी आदिके + अनेकान्त वर्ष ,कि० ७८, पृ० ६२ विना बीज अपना अंकुरोत्पादन कार्य करने में * अनेकान्त वर्ष ७, कि० ३-४, पृ० ३१ असमर्थ होता है। मोहादिकके अभाव में वेदनीयकी Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष । स्थिति जीवित शरीर-जैसी न रहकर मृत शरीर-जैसी उसी प्रकार युक्तिसङ्गत नहीं है जिस प्रकार कि धूमके हो जाती है, उसमें प्राण नहीं रहता अथवा जली अभावमें अग्निका भी अभाव बतलाना अथवा किसी रस्सीके समान अपना कार्य करनेकी शक्ति नहीं रहती। औषध प्रयोगमें विषद्रव्य की मारणशक्तिके प्रभावहीन इस विषयके समर्थनमें कितने ही शास्त्रीय प्रमाण हो जानेपर विषद्रव्यके परमाणुओंका ही प्रभाव प्रति आप्तस्वरूप, सर्वार्थसिद्धि. तत्त्वार्थवार्तिक, श्लोकवा- पादन करना। प्रत्युत इसके, घातिया कर्माका अभाव तिक, श्रादिपुराण और जयधवला-जैसे प्रन्थोंपरसे होनेपर भी यदि वेदनीयकमके उदयादिवश केवलीमें पण्डित दरवारीलालजीके लेखोंमें उद्धृत किये गये सुधादिको वेदनाओंको और उनके निरसनार्थभोजनाहै जिन्हें यहां फिरसे उपस्थित करनेकी जरूरत दिके ग्रहणकी प्रवृत्तियोंको माना जाता है तो उससे मालूम नहीं होती। ऐसी स्थितिमें क्षुत्पिपासा-जैसे कितनी ही दुर्निवार सैद्धान्तिक कठिनाइयां एवं बाधाएँ दोषोंको सर्वथा वेदनीय-जन्य नहीं कहा जा सकता- उपस्थित होती हैं, जिनमें से दो तीन नमूने के वेदनीयकम उन्हें उत्पन्न करने में सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है। तौर पर इस प्रकार हैं: और कोई भी कार्य किसी एक ही कारणसे उत्पन्न नहीं (क) यदि असातावेदनीयके उदय बश केवली हुआ करता, उपादान कारणके साथ अनेक सहकारी को भूख-प्यासकी वेदनाएँ सताती हैं, जो कि संक्लेश कारणोंकी भी उसके लिये जरूरत हुआ करती है, उन परिणामको अविनाभाविनी हैं ,तो केवलीमें अनंत सबका संयोग यदि नहीं मिलता तो कार्य भी नहीं सुखका होना बाधित ठहरता है। और उस दुःखको हुआ करता। और इसलिये केवलीमें सुधादिका न सह सकने के कारण जब भोजन ग्रहण किया जाता अभाव माननेपर कोई भी सैद्धान्तिक कठिनाई उत्पन्न है तो अनन्तवीये भी बाधित हो जाता है-उसका नहीं होती। वेदनीयका सत्व और उदय वर्तमान कोई मूल्य नहीं रहता-अथवा वीर्यान्तरायकर्मका रहते हुए भी, आत्मामें अनन्तज्ञान-सुख-वीर्यादिका अभाव उसके विरुद्ध पड़ता है। सम्बन्ध स्थापित होनेसे वेदनीयकमका पुदल-परमाणु- (ख) यदि तुधादि वेदनाओंक उदय वश केवपुञ्ज क्षुधादि दोषोंको उत्पन्न करने में उसी तरह असमर्थ लोमें भोजनादिकी इच्छा उत्पन्न होती है तो केवलीके होता है जिस तरह कि कोई विषद्रव्य, जिसकी मारण मोहकर्मका अभाव हुआ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि शक्तिको मन्त्र तथा औषधादिके बलपर प्रक्षीण कर इच्छा मोहका परिणाम है। और मोहके सद्भावमें दिया गया हो, मारनेका कार्य करने में असमर्थ होता केवलित्व भी नहीं बनता। दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। है। निःसत्व हुए विषद्रव्यके परमाणुओंको जिस (ग) भोजनादिकी इच्छा उत्पन्न होनेपर केवलीमें प्रकार विषद्रव्यके ही परमाणु कहा जाता है उसी नित्य ज्ञानोपयोग नहीं बनता, और नित्यज्ञानोपयोगप्रकार निःसत्व हुए वेदनीयकमैके परमाणुओंको भी के न बन सकनेपर उसका ज्ञान छद्मस्थों (असर्वज्ञों) वेदनीयकर्मके हो परमाणु कहा जाता है, और इस के समान क्षायोपशमिक ठहरता है-क्षायिक नहीं। दृष्टिसे ही श्रागममें उनके उदयादिककी व्यवस्था की और तब ज्ञानावरण तथा उसके साथी दर्शनावरण गई है। उसमें कोई प्रकारको बाधा अथवा सैद्धान्तिक नामके घातियाकर्मोका अभाव भी नहीं बनता। कठिनाई नहीं होती- और इस लिये प्रोफेसर साहबका (घ) वेदनीयकर्मके उदयजन्य जो सुख-दुःख यह कहना कि 'सुधादि दोपोंका अभाव माननेपर होता है वह सब इन्द्रियजन्य होता है और केवलोके केवलीमें अघातियाकर्मों के भी नाशका प्रसङ्ग पाता है।। इन्द्रियज्ञानको प्रवृत्ति रहती नहीं। यदि केवलीमें * अनेकान्त वर्ष ८ किरण ४-५ पृ० १५६-१६१ तुधा-तृषादिकी वेदनाएँ मानी जाएँगी तो इन्द्रिय1 अनेकान्त वर्ष ७ किरण ७-८पृ०६२ * संकिलेसाविणाभावणीए भुक्खाए दज्झमाणस (धवला) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] - रत्नकरण्ड के कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय ज्ञानको प्रवृत्ति होकर केवलज्ञानका विरोध उपस्थित नहीं पाया जाता जिससे प्रन्थकारकी दृष्टिमें उन होगा क्योंकि केवलज्ञान और मतिज्ञानादिक युगपत् अतिशयोंका केवली भगवानमें होना अमान्य सममा नहीं होते। जाय। प्रन्थकार महोदयने 'मायाविष्वपि दृश्यन्ते' (ङ) सुधादिकी पीडाके वश भोजनादिकी प्रवृत्ति तथा 'दिव्यः सत्यः दिवौकस्स्वप्यास्ति' इन वाक्यमि यथाख्यातचारित्रकी विरोधिनी है। भोजनके समय , प्रयुक्त हुए 'अपि' शब्दके द्वारा इस बातको स्पष्ट घोषित मुनिको प्रमत्त (छठा) गुणस्थान होता है और केवली कर दिया है कि वे अहत्केवली में उन विभूतियों तथा भगवान १३ वें गुणस्थानवर्ती होते हैं जिससे फिर विग्रहादि महोदयरूप अतिशयोंका सद्भाव मानते हैं छठेमें लौटना नहीं बनता। इससे यथाख्यातचारित्र परन्त इतनेसे ही वे उन्हें महान (पूज्य) नहीं समझते; को प्राप्त केवलीभगवानके भोजनका होना उनकी चर्या क्योंकि ये अतिशय अन्यत्र मायाषियों (इन्द्रजालियों) प्रत और पदस्थके विरुद्ध पड़ता है। तथा रागादि-युक्त देवोंमें भी पाये जाते-भले ही इस तरह क्षुधादिकी वेदनाएँ और उनकी प्रति- स उनमें वे वास्तविक अथवा उस सत्यरूपमें न हों मा क्रिया माननेपर केवलीमें घातियाकर्मोका अभाव हो माका अभाव हा जिसमें कि वे क्षीणकषाय अर्हत्केवलीमें पाये जाते हैं। घटित नहीं हो सकेगा, जो कि एक बहुत बड़ी सैद्धा- और इसलिये उनकी मान्यताका आधार केवल आगन्तिक बाधा होगी। इसीसे सुधादिके अभावको माश्रित श्रद्धा ही नहीं है बल्कि एक दूसरा प्रबल 'घातिकमक्षयजः' तथा 'अनन्तज्ञानादिसम्बन्धजन्य' आधार वह गुणज्ञता अथवा परीक्षाकी कसौटी है बतलाया गया है, जिसके माननेपर कोईभी सैद्धान्तिक जिसे लेकर उन्होंने कितने ही प्राप्नोंकी जांच की है बाधा नहीं रहती। और इसलिये टीकाओंपरसे और फिर उस परीक्षाके फलस्वरूप वे वीर जिनेन्द्र के सुधादिका उन दोषोंके रूप में निर्दिष्ट तथा फलित होना प्रति यह कहने में समर्थ हए हैं कि 'वह निर्दोष प्राप्त सिद्ध है जिनका केवली भगवानमे अभाव होता है। आप ही हैं। (स त्वमेवासि निपि:)। साथ ही ऐसी स्थिति में रत्नकरण्डके उक्त छठेपद्यको क्षुत्पिपासादि 'युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्' इस पदके द्वारा उस कसौटी दोषोंकी दृष्टिसे भी आप्तमीमांसाके साथ असंगत कोभी व्यक्त कर दिया है जिसके द्वारा उन्होंने प्राप्ता अथवा विरुद्ध नहीं कहा जा सकता। के वीतरागता और सवज्ञता जैसे असाधारण गुणोंकी ग्रन्थ के सन्दर्भ की जांच परीक्षा की है, जिनके कारण उनके वचन युक्ति और अब देखना यह है कि क्या ग्रन्थका सन्दर्भ स्वयं शाखसे अविरोधरूप यथार्थ होते हैं, और आगेसंक्षेप इसके कुछ विरुद्ध पड़ता है ? जहां तक मैंने प्रन्थके में परीक्षाकी तफसील भी दे दी है। इस परीक्षामें सन्दर्भकी जांच की है और उसके पूर्वाऽपर कथन-संब- जिनके आगम-वचन युक्ति-शास्त्रसे अविरोधरूप नहीं न्धको मिलाया है मुझे उसमें कहीं भी ऐसी कोई बात पाये गये उन सर्वथा एकान्तवादियोंको श्राप न मान नहीं मिली जिसके आधारपर केवलोमें क्षुत्पिपासादि. कर 'श्राप्ताभिमानदग्ध' घोषित किया है। इस तरह के सद्भावको स्वामी समन्तभद्रकी मान्यता कहा जा निर्दोष वचन-प्रणयनके साथ सर्वज्ञता और वीतरासके । प्रत्युत इसके, ग्रन्थकी प्रारम्भिक दो कारिकाओं- गता-जैसे गुणोंको प्राप्तका लक्षण प्रतिपादित किया में जिन अतिशयोंका देवागम-नभोयान-चामरादि है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि प्राप्तमें दूसरे विभूतियोंक तथा अन्तर्बाह्य-विग्रहादि-महोदयोंके रूप- गुण नहीं होते, गुण तो बहुत होते हैं किन्तु वे लक्षमें उल्लेख एवं संकेत किया गया है और जिनमें णात्मक अथवा इन तीन गुणोंकी तरह खास तौरसे घातिक्षय-जन्य होनेसे क्षुत्पिपासादिके अभावका भी व्यावर्तात्मक नहीं, और इसलिये प्राप्तके लक्षणमें वे समावेश है उनके विषयमें एक भी शब्द ग्रन्थमें ऐसा भले ही प्राह्य न हों परन्तु प्राप्तके स्वरूप-चिन्तनमें Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ] अनेकान्त ६० (क) . उन्हें अग्राह्य नहीं कहा जासकता। लक्षण और स्वरू- महत्व भी देते थे। पमें बड़ा अन्तर है-लतण-निर्देश में जहां कुछ ऐसी हालतमें प्राप्तमीमांसा ग्रन्थके सन्दर्भकी असाधारण गुणोंको ही ग्रहण किया जाता है वहां दृष्टिसे भी प्राप्त में क्षुत्पिपासादिकके अभावको विरुद्ध स्वरूपके निर्देश अथवा चिन्तनमें अशेष गणोंके लिये नहीं कहा जा सकता और तब रत्नकरण्डका उक्त गुञ्जाइश रहती है। अतः अष्टसहस्रीकारने 'विप्र- छठा पद्य भी विरुद्ध नहीं ठहरता। हां, प्रोफेसर साहब हादिमहोदय:' का जो अर्थ'शश्वग्निस्वेदत्वादिः किया ने प्राप्तमीमांसाकी हवीं गाथाको विरोधमें उपस्थित है और जिसका विवेचन ऊपर किया जा चुका है उस किया है, जो निम्न प्रकार है:पर टिप्पणी करतेहुए प्रो० साने जो यह लिखा है कि पुण्यं ध्रवं स्वतो दुःखात्पापंच सुखतो यदि । "शरीर-सम्बन्धी गुण धोका प्रकट होना न-होना वीतरागो मुनिर्विद्वांस्ताभ्यांयुञ्ज्यानिमित्ततः॥१३॥ आप्तके स्वरूप-चिन्तनमें कोई महत्व नहीं रखते" * इस कारिकाके सम्बन्धमें प्रो० सा०का कहना है कि वह ठीक नहीं है। क्योंकि स्वयं स्वामी समन्तभद्रने 'इसमें वीतराग सर्वज्ञके दुःखकी वेदना स्वीकार की गई अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें ऐसे दूसरे कितने ही गुणोंका है जो कि कर्मसिद्धान्तको व्यवस्थाके अनुकूल है; जब चिन्तन किया है जिनमें शरीर-सम्बन्धी गुण-धर्मोके कि रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यमें क्षुत्पिपासादिकका साथ अन्य अतिशय भी प्रागये हैं। और इससे अभाव बतलाकर दुःखकी वेदना अस्वीकार की गई है यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी समन्तभद्र जिसकी संगति कर्मसिद्धान्तकी उन व्यवस्थाओं के अतिशयोंको मानते थे और उनके स्मरण-चिन्तनको साथ नहीं बैठती जिनके अनुसार केवलीके भी वेद* अनेकान्त वर्ष ७, किरण ७८, पृ० ६२ नीयकर्म-जन्य वेदनाएँ होती हैं, और इसलिये + इस विषयके सूचक कुछ वाक्य इस प्रकार है रत्नकरण्डका उक्त पद्य इस कारिकाके सर्वथा विरुद्ध (क) शरीररश्मिप्रसरः प्रभोस्ते बालार्करश्मिच्छबिरा पड़ता है-दोनों ग्रन्थोंका एक कर्तृत्व स्वीकार करने में लिलेप २८ । यस्याङ्गलक्ष्मीपरिवेषभिन्नं तमस्तमोरेरिव रश्मि यह विरोध बाधक है' +। जहां तक मैंने इस कारिकाके भिन्नं, ननाश बाह्य..........." ३७ समन्ततोऽङ्गभासा ते अर्थपर उसके पूर्वापर सम्बन्धकी दृष्टिसे और परिवेषेण भूयसा, तमो बाह्यमपाकीर्णमध्यात्मं ध्यानतेजसा दोनों विद्वानोंके ऊहापोहको ध्यानमें लेकर विचार ६५। यस्य च मूर्तिः कनकमयीव स्वस्करदाभातपरिवेषा किया है, मुझे इसमें सर्वज्ञका कहीं कोई उल्लेख १०७। शशिरुचिशुचिशुक्ललोहित सुरभितरं विरजो निजं मालूम नहीं होता। प्रो० साहबका जो यह कहना वपुः । तव शिवमतिविस्मयं यते यदपि च वाङ्मनसीयमी है कि 'कारिकागत 'वीतरागः' और 'विद्वान् ' पद हितम् ११३ । दोनों एक ही मुनि-व्यक्तिके वाचक हैं और वह व्यक्ति (ख) नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वं सहस्रपत्राम्बुजगर्भ- 'सर्वज्ञ' है, जिसका द्योतक विद्वान पद साथमें लगा चारः, पादाम्बुजैः पातितमारदों भूमौ प्रजाना विजहर्थ है वह ठीक नहीं है। क्योंकि पूर्वकारिकामें क भत्ये २६ । प्रातिहार्यविभवः परिष्कृतो देहतोऽपि विरतो जिस प्रकार अचेतन और अकषाय (वीतराग) ऐसे भवानभूत् ७३ । मानुषी प्रकृतिमभ्यतीतवान देवतास्वपि दो प्रबन्धक व्यक्तियों में बन्धका प्रसङ्ग उपस्थित च देवता यतः ७५ । पूज्ये मुहुः प्राञ्जलिदेवचक्रम् ७६ । + अनेकान्त वर्ष ८, किरण ३, पृ० १३२ तथा सर्वशज्योतिषोद्भुतस्तावको महिमोदयः कं न कुर्यात्प्रणम्र वर्ष, कि० १, पृ०६ ते सत्वं नाथ सचेतनम् ६६ । तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषा- अनेकान्त वर्ष ७, कि० ३-४, पृ० ३४ स्वभावकं प्रीण्यत्यमृतं यद्वत्प्राणिनो व्यापि संसदि । * पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि । भरपि रम्या प्रतिपदमासीज्जातविकोशाम्बुजमृदुहासा १०८। श्रचेतनाऽकपायौ च बध्येयातां निमित्ततः ||२|| Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ ] करके परमें दुःख-सुख के उत्पादनका निमित्तमात्र होने से पाप के बन्धकी एकान्त मान्यताको सदोष सूचित किया है उसी प्रकार इस कारिकामें भी वीतराग मुनि और विद्वान् ऐसे दो अबन्धक व्यक्तियोंमें बन्धका प्रसङ्ग उपस्थित करके स्त्र (निज) में दुःख-सुख के उत्पादनका निमित्तमात्र होनेसे पुण्य पाप के बन्धकी एकान्त मान्यताको सदोष बतलाया है; जैसा कि अष्टसहस्रीकार श्रीविद्यानन्द या चायेंके निम्न टीका- वाक्य से भी कट है "स्वस्मिन् दुःखोत्पादनात् पुण्यं सुखो - त्पादनात पापमिति यदीष्यते तदा वीतरागो विद्वांश्च मुनिस्ताभ्यां पुण्यपापाभ्यामात्मानं युज्यान्निमित्तसद्भावात्, वीतरागस्य कायक्लेशादिरूप दुःखोत्पचेर्विदुषस्तत्वज्ञान सन्तोषलक्षणसुखोत्पत्त स्तन्निमित्तत्वात ।" इसमें वीतराग कायक्लेशादिरूप दुःखकी उत्प त्तिको और विद्वान्के तन्त्रज्ञान-सन्तोष लक्षण सुखकी उत्पत्तिको अलग अलग बतलाकर दोनों (वीतराग और विद्वान् ) के व्यक्तित्वको साफ तौर पर अलग घोषित कर दिया है । और इसलिये वीतरागका अभिप्राय यहां उस छद्मस्थ वीतरागी मुनिसे है जो राग द्वेषको निवृत्तिरूप सम्यक् चारित्रके अनुष्ठान में तत्पर होता है - केवलीसे नहीं - और अपनी उस चारित्र-परिणतिके द्वारा बन्धको प्राप्त नहीं होता । और विद्वानका अभिप्राय उस सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा से है जो तत्वज्ञानके अभ्यास - द्वारा सन्तोष-सुग्वका अनुभव करता है और अपनी उस सम्यग्ज्ञान रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयपर मेरा विचार और निय ॐ अन्तरात्माके लिये 'विद्वान्' शब्दका प्रयोग श्राचार्य पूज्यपादने अपने समाधितन्त्रके 'त्यक्त्वारोपं पुनविद्वान् प्राप्नोति परमं पदम्' इस वाक्यमें किया है और स्वामी समन्तभद्रने 'स्तुत्यान्न त्वा विद्वान् सततमभिपूज्यं नमिजिनम्' तथा 'त्वमसि विदुषा मोक्षपदवी' इन स्वयम्भूस्तोत्रके वाक्योंद्वारा जिन विद्वानोंका उल्लेख किया है वे भी अन्तरात्मा ही हो सकते हैं। ६० (ख) परिणतिके निमित्तसे बन्धको प्राप्त नहीं होता । वह अन्तरात्मा मुनि भी हो सकता और गृहस्थ भी; परन्तु परमात्मस्वरूप सर्वज्ञ अथवा आप्त नहीं । अतः इस कारिकामें जब केवली प्राप्त या सर्वज्ञका कोई उल्लेख न होकर दूसरे दो सचेतन प्राणियों का उल्लेख है तब रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यके साथ इस कारिकाका सर्वथा विरोध कैसे घटित किया जा सकता है ? नहीं किया जा सकता - खासकर उस हालत में जब कि मोहादिकका अभाव और अनन्त - ज्ञानादिकका सद्भाव होनेसे केवली में दुःखादिककी वेदनाएँ वस्तुतः बनती ही नहीं और जिसका ऊपर यादि कर्मों के अभाव में साता - असातावेदनीय-जन्य कितना ही स्पष्टीकरण किया जा चुका है। मोहनीसुख दुःखकी स्थिति उस छायाके समान औपचारिक होती है - वास्तविक नहीं-जो दूसरे प्रकाशके सामने आते ही विलुप्त हो जाती है और अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होती । और इसलिये प्रोफेसर साहबका दायिनी शक्तिमें अन्य अघातिया कर्मों के समान सर्वथा यह लिखना कि "यथार्थतः वेदनीयकमै अपनी फलस्वतन्त्र है" समुचित नहीं है। वस्तुतः श्रघातिया क्या, कोई भी कर्म अप्रतिहतरूप से अपनी स्थिति तथा धनुभागादिके अनुरूप फलदान कार्य करने में सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है। किसी भी कर्मके लिये अनेक कारणोंकी जरुरत पड़ती है और अनेक निमित्तोंको पाकर कर्मों में संक्र• मरण व्यतिक्रमणादि कार्य हुआ करता है, समय से पहले उनकी निर्जरा भी होजाती है और तपश्चरणादिके बलपर उनको शक्तिको बदला भी जा सकता है। अतः कर्मों को सर्वथा स्वतन्त्र कहना एकान्त है मिथ्यास्व है और मुक्तिका भी निरोधक है । यहां 'धवला' परसे एक उपयोगी शङ्का-समाधान उद्धृत किया जाता है, जिससे केवलोमें क्षुधा तृषाके अभावका कारण प्रदर्शन होनेके साथ साथ प्रोफेसर साहब की इस शङ्काका भी समाधान हो जाता है कि 'यदि केवजी के सुख-दुःख की वेदना मानेवर उनके अनन्तसुख नहीं बन सकता तो फिर कर्म सिद्धान्तमें * अनेकान्त वर्ष ८, किरण १, पृष्ठ ३० Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष २ अनेकान्त ६० (ग) केवलोके साता और असाता वेदनीय कर्मका उदय मैंने स्वयम्भूस्तोत्रादि दूसरे मान्य ग्रन्थोंकी छानबीन माना ही क्यों जाता है और वह इस प्रकार है- को है, मुझे उनमें कोई भी ऐसी बात उपलब्ध नहीं हुई “सगसहाय-पादिकम्माभावेण णिस्सत्ति- जो रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यके विरुद्ध जाती हो अथवा किसी भी विषयमें उसका विरोध उपस्थित मा वएण-प्रसादावेदणीयउदयादो मुक्खा-तिसा करती हो। प्रत्युत इसके, ऐसी कितनी ही बातें समणुप्पत्तीए णिप्फलस्स परमाणुपुजस्स समयं देखने में आती हैं जिनसे अर्हत्केवलीमें क्षुधादिपडि परिसदं(ड)तस्स कथमुदय-ववएसो ? ण, वेदनाओं अथवा दोषोंके अभावकी सूचना मिलती है। जाव-कम्म-विवेग-मेत्त-फलंदटठग उदयस्म यहां उनमें से दो चार नमूनेके तौरपर नीचे व्यक्त की फलत्तमब्भुवगमादो।" जाती हैं:-वीरसेवामन्दिर प्रति पृ०३७५ अारा प्रति पृ०७४१ (क) स्वदोष-शान्त्या विहितात्मशान्तिः' इत्यादि शान्ति-जिनके स्तोत्रमें यह बतलाया है कि शान्तिशङ्का-अपने सहायक घातिया कर्मोका अभाव जोडने अपने दोषोंकी शान्ति करके आत्मामें शान्ति होने के कारण निःशक्तिको प्राप्त हुए असाता वेदनीय- स्थापित की है और इसीसे वे शरणागताके लिये शांतिकमेंके उदयसे जब (केवलीमें) सुधा-तृषाकी उत्पत्ति के विधाता है। चकि शुधादिक भी दोष हैं और वे नहीं होती तब प्रतिसमय नाशको प्राप्त होनेवाले आत्मामें अशांतिके कारण होते हैं-कहा भी है कि (असातावेदनीयकर्मके) निष्फल परमाणु पुञ्जका कैसे "वधासमा नास्ति शरीरवेदना" | अत: आत्माम उदय कहा जाता है ? शान्तिकी पूर्ण प्रतिष्ठाके लिये उनको भी शान्त किया समाधान-यह शङ्का ठीक नहीं; क्योंकि जीव किया गया है, तभी शान्तिजिन शान्तिके विधाता बने और कर्मका विवेक-मात्र फल देखकर उदयके फलपना हैं और तभोसंसार-सम्बन्धी क्लेशों तथा भयोंसे शान्ति माना गया है। प्राप्त करने के लिये उनसे प्रार्थना की गई है। और ऐसी हालतमें प्रोफेसर साहबका वीतराग सर्वज्ञके यह ठीक हो है जो स्वयं रागादिफ दोषों अथवा दुःखको वेदनाके स्वोकारको कर्मसिद्धान्तके अनुकूल वधादि वेदनाओंसे पीडित हैं-अशान्त हैं -वह और अस्वीकारको प्रतिकूल अथवा असङ्गत बतलाना दूसरोंके लिये शान्तिका विधाता कैसे हो सकता हैं ? किसी तरह भी युक्ति-सङ्गत नहीं ठहर सकता और नहीं हो सकता। इस तरह ग्रन्थसन्दर्भके अन्तर्गत उक्त ६३वीं कारिकाको (ख) त्वं शुद्धि-शक्त्योरुदयस्य काष्ठां तुलादृष्टिसे भी रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यको विरुद्ध नहीं नही व्यतीतां जिन शान्तिरूपामवापिथ' इस युक्त्यनुकहा जा सकता। शासनके वाक्यमें वोरजिनेन्द्रको शुद्धि, शक्ति और समन्तभद्र के दूसरे ग्रन्थोंकी छानबीन शान्तिकी पराकाष्ठाको पहुंचा हुआ बतलाया है। जो अब देखना यह है कि क्या समन्तभद्रके दूसरे शान्तिकी पराकाष्ठा(चरमसीमा)को पहुंचा हुआ हो उस किसी ग्रन्थमें ऐसी कोई बात पाई जाती है जिससे में सुधादि वेदनाओंकी सम्भावना नहीं बनती। रत्नकरण्डके उक्त 'क्षुत्पिपासा' पद्यका विरोध घटित (ग) 'शर्म शाश्वतमाप शङ्करः' इस धर्महोता हो अथवा जो आप्त-केवली या अर्हत्परमेष्ठीमें जिनके स्तवनमें यह बतलाया है कि धर्मनामके सुधादि दोषोंके सदभावको सूचित करतीहो। जहांतक - अर्हत्परमेष्ठीने शाश्वत सुखकी प्राप्ति की है और इसीसे * अनेकान्त वर्ष ८, किरण २, पृ०८६ । वे शङ्कर-सुखके करनेवाले हैं। शाश्वतसखको Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] साहित्य परिचय और समालोचन ६० (घ) अवस्थामें एक क्षणके लिये भी क्षुधादि दुःखोंका है बल्कि बहुत बढी-चढी है, अनन्तदोष तो मोहनीयउदभव सम्भव नहीं। इसीसे श्रीविद्यानन्दाचार्यने कर्मके हो आश्रित रहते हैं। अधिकांश दोपोंमें मोहकी श्लोकवार्तिकमें लिखा है कि 'सुधादिवेदनोभूतौ पट ही काम किया करती है। जिन्होंने मोह कर्मका नाश नाहतोऽनन्तशर्मता" अर्थात् क्षुधादि वेदनाकी उद्भूति कर दिया है उन्होंने अनन्तदोषोंका नाश कर दिया है। होनेपर अहन्तके अनन्तसुख नहीं बनता। उन दोषोंमें मोहके सहकारसे होनेवाली क्षुधादिको (घ) 'त्वं शम्भवः सम्भातरोगैः सन्तप्य- वेदनाएँ भी शामिल हैं, इसीसे मोहनीयके अभाव हो मानस्य जनस्य लोके' इत्यादि स्तवनमें शम्भवजिन जानेपर वेदनीयकर्मको क्षुधादि वेदनाओंके उत्पन्न को सांसारिक तृषा-रोगोंसे प्रपीडित प्राणियों के लिये उन करने में असमर्थ बतलाया है। रोगोंकी शान्तिके अर्थ श्राकस्मिक बैद्य बतलाया है। इस तरह मूल प्राप्तमीमांसा ग्रन्थ, उसके १३ वीं इससे स्पोकि अर्हन्जिन स्वयं तपा रोगोंसे पीडित कारिका सहित प्रन्थ सन्दर्भ, अष्टसहस्री आदि नहीं होते, तभी वे दूसरोंके तृषा-रोगोंको दूर करने में टोकाओं और प्रन्थकारके दूसरे ग्रन्थोंके उपर्युक्त समर्थ होते हैं। इसी तरह 'इदं जगज्जन्म-जरान्त- विवेचनपरसे यह भले प्रकार स्पष्ट है कि रत्नकरण्डका उक्त क्षुत्पिपासादि-पद्य स्वामी समन्तभद्रके किसी भी कात निरञ्जनां शान्तिमजीगमस्त्वं' इस वाक्य के ग्रन्थ तथा उसके आशयके साथ कोई विरोध नहीं द्वारा उन्हें जन्म-जरा-मरणसे पीडित जगतको निरञ्जना रखता अर्थात उसमें दोषका क्षुत्पिपासादिके अभावशान्तिकी प्राप्ति करानेवाला लिखा है, जिससे स्पष्ट है रूप जो स्वरूप समझाया गया है वहश्राप्तमीमांसाके कि वे स्वयं जन्म-जरा-मरणसे पीडित न होकर ही नहीं; किन्तु आप्तमीमांसाकारकी दूसरी भी किसी निरञ्जना शान्तिको प्राप्त थे। निरञ्जना शान्तिमें कृतिके विरुद्ध नहीं है, बल्कि उन सबके साथ सङ्गत सुधादि वेदनाओंके लिये अवकाश नहीं रहता। है। और इसलिये उक्त पद्यको लेकर प्राप्तमीमांसा और (ङ) 'अनन्त दोषाशय-विग्रहो-ग्रहो विप- रत्नकरण्डका भिन्न-कर्तृत्व सिद्ध नहीं किया जा गवान्मोहमयश्चिरं हृदि' इत्यादि अनन्तजित्के सकता। अतः इस विषय में प्रोफेसर साहबको प्रथम स्तोत्रमें जिस मोहपिशाचको पराजित करने का उल्लेख आपत्तिके लिये कोई स्थान नहीं रहता-वह किसी है उसके शरीरको अनन्तदोषोंका आधारभत बतायाह तरह भी समुचित प्रतीत नहीं होती। इससेस्पष्ट है कि दोषोंको संख्या कुछ इनीगिनी ही नहीं (शेष अगनी किरणमें) साहित्य परिचय और समालोचन १ षटखएडागम-रहस्योद्घाटन- लिखे तथा विद्वत्परिषद्ने ६३ वें सूत्रमें 'संजद' पदके लेखक, विद्वद्वर पण्डित पन्नालाल सोनी न्याय- रहनेका निर्णय दिया इसीके सम्बन्धमें प्रस्तुत पुस्तकमें सिद्धान्तशास्त्री प्रकाशक पं० वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री सप्रमाण प्रकाश डाला गया है। सोनीजीने भनेक जैनबुकडिपो, सोलापुर । मूल्य सदुपयोग। अपत्तियों और प्रमाणों द्वारा उक्त सूत्रमें 'संजद' पद 'संजद' पदको लेकर विद्वानों में जो चर्चा चली की स्थितिको सिद्ध करके विद्वत्परिपके निर्णयका थी और जिसके सम्बन्धमें विविध विद्वानोंने लेखादि समर्थन किया है। सोनीजीकी इसमें स्थान स्थानपर Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ] अनेकान्त ६० (ङ) विशिष्ट विद्वत्ता और आगमज्ञान तो कितने ही विद्वानों- संक्षिप्त परिचय-पुस्तिका है और देहली जैसे बड़े के लिये स्पर्धाको चीज है। उनके 'तहलका मचा शहर में आने वाले यात्रियों के लिये जैन गाइडकेरूपमें रक्खा' 'मुख्यनेता''मोटे' जैसे आक्षेपारक शब्द और अच्छे कामकी चीज है-साथमें एक नक्शा भी लगा अन्तमें प्रकाशित परिशिष्ट इसमें न होते तो अच्छा हश्रा है जिसने इसकी उपयोगिताको बढ़ा दिया है। था। पुस्तकका योग्य सम्पादन अपेक्षित था जिससे इसके सहारेसे कोई भी यात्री सहजमें ही यह मालूम भाषा-साहित्य आदिको त्रुटियां न रहती। फिर भी कर सकता है कि दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानकसमाज सोनीजीको विद्वत्ता और सेवाभावनाकी नि- वासी सम्प्रदायोंके कौन कौन मन्दिर, स्थानक, विद्याश्चय ही कायल है। काश ! ऐसे विद्वान साहित्यिक लय, औषधालय, स्कूल, पाठशाला, धर्मशाला, शास्त्रक्षेत्रमें आकर साहित्यसेवामें जुटते तो उनसे बड़ी भण्डार, लायब्ररी तथा सभा सोसाइटी आदि दूसरी सहित्यसेवा होती। संस्थाएँ किस किस मुहल्ले गली कूचे श्रादिमें कहांपर २ रेडियो--- स्थित हैं और उनकी क्या कुछ विशेषताएँ हैं। और लेखक, श्री रा०र० खाडिलकर । प्रकाशक, इस तरह वह इधर उधर भटकने तथा पूछताछ करने काशी नागरी-प्रचारिणी सभा। मूल्य )। के कष्टसे मुक्त रहकर अपना बहुत कुछ समय बचा प्रस्तुत पुस्तकमें रेडियो सम्बन्धी समस्त प्रकारको सकता है और यथेष्ट परिचय भी प्राप्त कर सकता। जानकारी दी गई है। रेडियोका प्रचार, रेडियोका पुस्तक अच्छे परिश्रमसे लिखी गई है, उसके लिये विज्ञान, वेतार विद्या, जाड़ोंमें रेडियो अच्छा क्यों लेखक और उनके सहायक सभी धन्यवादके पात्र हैं। सुनाई देता है ?, रेडियोके विभिन्न वरन, रेडियो यंत्र बाहु-वली--- (राष्ट्रीय काव्य)- लेखक, श्री० में खरावो और उसके उपाय ? रेडियोपर खबरें, हीरक प्राप्तिस्थान सगुनचन्द चौधरी स्याद्वाद विद्यासमयका अन्तर, ब्रिटेनका समय, यूरोपका समय, भारतीय समय, अमेरिकन समय, भारतीय रेडियोका य, लय, भदैनी बनारस, मूल्य II) । भविष्य जैसे गहन वैज्ञानिक विषयोंको लिये हुए उनपर इसमें कवि श्री हीरकने बाहुवलीका चरित्र प्रन्थन करने का प्रयास किया है। भूमिका हिन्दी विभाग पर्याप्त और सरल हिन्दीमें प्रकाश डाला गया है। आज भारतमें रेडियोका प्रचार बराबर बढ़ता जा रहा हिन्द विश्वविद्यालयके प्रो० डा० श्रीकृष्णलाल एम.ए. , है। ऐसे समयमें यह पुस्तक रेडियोका ज्ञान करने के पी. एच. डी. ने लिखी है। संस्कृत शब्दों के बाहुल्यने काव्यकी कोमलता और सरसताको सुरक्षित नहीं रख लिये बड़ी उपयोगी सिद्ध होगी। संयुक्त प्रान्तके शिक्षा पाया फिर भी कविका इस दिशामें यह प्रथम प्रयत्न मन्त्री बा० सम्पूर्णानन्दने 'दो शब्द' वक्तव्यमें इस है। आशा है उनके द्वारा भविष्य में अधिक प्राञ्जल पुस्तकका स्वागत करते हुए लिखा है-'इस छोटी-सी पुस्तकको पढनेसे कोई भी शिक्षित व्यक्ति, चाहे वह पर : रचनाओंका निर्माण हो सकेगा। भौतिक विज्ञानका विशेषरूपसे विद्यार्थी न भी हो. पद्यमय रचना) रेडियो सम्बन्धी आवश्यक बातोंकी काम चलानेभर लेखक पण्डित लाल बहादुर शास्त्री, प्राप्तिस्थान जानकारी प्राप्त कर सकता है। इसे एकबार मंगाकर नलिनी सरस्वती मन्दिर, भदैनी बनारस, मूल्य )॥ अवश्य पढ़ना चाहिए। यह ७१ पद्योंकी सरस और सुन्दर रचना है। ३ जैन इस्टिटय शन्स इन देहली--- इसमें भगवान महावीरका आकर्षक ढङ्गसे संक्षेपमें ले०,वा० पन्नालाल जैन अग्रवाल देहली। प्रकाशक जोवन-परिचय दिया गया है। पुस्तक लोकरुचिके जैनमित्रमण्डल, धर्मपुरा देहली। मू० चार पाने। अनुकूल है और प्रचार योग्य है। यह अंग्रेजीमें देहलीको सभी जैन संस्थाओंकी -दरबारी लाल कोठिया Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मृतिकी रेखाएँ विमल माई [ लेखक-अयोध्याप्रसाद गोयलीय ] ['स्मृतिकी रेखाएं' नामका नया स्तम्भ हम अनेकान्तमें स्थायी रूपमे जारी कर रहे हैं। इसके अन्तर्गत अपने जीवनकी सभी घटनाएँ जो भूली न जा सकें, लिखनेके लिये हम पाठकोंको निमन्त्रण देते हैं। जीवनमें अनेक ऐसी घटनाएँ घटती हैं जो कथा-कहानियोंसे अधिक रोचक और मर्मस्पर्शी होती हैं। हमारे पास-पास ऐसे अनेक व्यक्ति रहते हैं, जिनके उल्लेख साहित्यकी बहुमूल्य निधि बन सकते हैं। ये ही स्मृतिकी रेखाएँ संकलित होकर सजीव इतिहास बन जाते हैं। अनुभवी लेखकों के जब तक लेख न मिले तब तक हमीं कुछ टेढ़ी मेढी रेखाएँ खींचने रहनेको धृष्ठता करेंगे।] ___ मेरे एक अत्यन्त स्नेही साथी हैं, जिन्हें कुछ लोग बोला - " हाँ हाँ वह नप्ती है, सनको है; मैं शतै बद 'खप्ती भाई' कहते हैं, कुछ लोग उन्हें सनकी समझते कर कहताहूँ"। हैं और कुछ सममदार दोस्तों का फतवा है कि इनके अब हमारी क्या सामर्थ्य थी जो बात काटते । मस्तिष्क का एक पेंच ढीला है। एक तो छोटा, दूसरे शर्त बदनेको तैयार । फिर भी मेरा इनसे सन् २५ से परिचय है । इन २२ वर्षों हिम्मत बांधकर पूछ ही बैठे - हुजूरको उसमें क्या में समीपसे समीपतर रहनेपर भी मुझे इनमें खपत खपत दिखाई देता है ? और सनकका अाभास तक नहीं मिला फिर भी मैं वह एक अजीब-सा मुंह बनाकर बोला-एक हैरान हैं कि हे सर्वज्ञ! क्या ये आपके ज्ञानमें भी खप्त । अजी भाई साहब! वह सरसे पैर तक खप्त खप्ती और सनकी मलके हैं ? ही खप्तसे ढका हुआ है। जिस मुदनी में कुत्ते न मॉके गोरा शरीर, किताबी चेहरा, आंखें बड़ी और रसी वहां इन्हें देख लीजिये। सुबह शाम हजरतके हाथमें 'ली चौड़ी पेशानी, ममोला क़द, सुडौल कसरती जिस्म, ऐरे गैरे नत्थूखैरोकेलिये दवाओंकी शाशियां रहती हैं शरीरपर स्वच्छ और धवल खादीकी मोहक पोशाक, खुदके पांवमें साबुत जूतियां नहीं और उस रोज दूकान चालढाल में मस्ती और स्फूर्ति । एफ ए० तक शिक्षा, बेचकर उस......नादिहन्दको दो हजार दे दिये भले और प्रतिष्ठित घरमें जन्म, बातचीतमें आकण, जिससे पठान भी तोवा मॉग चुके हैं। उस रोज स्कूल राष्ट्रीय विचारों और लोकसेवी भावनाओंसे ओतप्रोत। से आते हुए यारोंने उन्हें बनानेके खयालसे कहामहात्मा गांधीसे किसीका दिल दुखा हो, परन्तु इनसे बड़े भाई आज तो ईखका रस पिलवाओ। थोडी असम्भव। फिर भी दोस्तोंके दायरे मे मज़हका-खज देर में क्या देखते हैं कि हम ८१०साथियोंकेलिये ईख बने हुए हैं और उसपर तुर्रा यह कि बुरा माननेके रसके बजाय सन्तरेके रसके गिलास आरहे हैं। हमने बजाय फूलकी तरह खिलते रहते हैं। खिलाफ तवक्कह देखकर पूछा-'बड़े भाई यह क्या एक रोजमै और एक मेरे साहित्यिक मित्र विमल तकल्लुफ फर्माया-"आप लोग कब बारबार भाईकी चर्चा कर रहे थे और उनपर फब्तियां कसने पिलानेको कहते हैं।" वालोंपर छींटे उड़ा रहे थे कि समीप ही बैठा हा "रस पी चुकने पर हम सबकी मुश्तर्का राय थी उनका ११-१२ वर्षका छोटा भाई पढ़ते-पढ़ते बेसारता कि विमल भाई खप्ती होने के साथ साथ बुद्ध भी ?" Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष । लड़केने अपनी बात कुछ इस ढंगसे कहो कि मेरे रहें तो आपके सब कपड़े धो दू। मजबूरन विमलदे साहित्यिक मित्र तपाकसे बोले-हां यार इनके भाईको कपड़े देने पड़े। शामको धोकर दिये तो इतने खप्तका एक ताजा लतीफ़ा तो सुनो। स्वच्छ कि धोबी भो देखकर शर्माये। ___ "पुकार फिल्ममें किस कदर रश है, यह तो तुम्हें गतवर्प गर्मीके दिनोंमें आपके यहां चोरी होगई । मालूम ही है। विमल भाईने भी भीड़ में घुसकर ४-५ जिन विस्तरोंपर आप आराम फर्मा रहे थे, उनको फर्स्टक्लास टिकट खरीद लिये। एक तो अपनेलिए छोड़कर नकद, जेवर, कपड़े, बर्तन सब ले गये। लगे बाकोके परिचित या मुहल्लेके लोगों के लिए, इस हाथ माडू भी दे गये ताकि सुबह उठकर सर पीटकर खयालसे कि कोई आये तो परेशान न हों। दर्शकोंकी रोनेके अतिरिक्त आपको झाडू देने की जहमत न भीड़ हालमें घुसी जारही है और विमल हैं कि आने उठानी पड़े। समाचार सुना तो घबड़ाया हुआ वाले परिचितोंकी प्रतीक्षामें बाहर सूख रहे हैं। और विमलभाईके यहाँ पहुंचा। समझमें नहीं आता था नमें कि इस मंहगी और कण्ट्रोलके जमाने में अब कैसे पौन तिल रखने को जगह न थी टिकिट जिन साहबने दजन फौजका तन ढकेंगे। और हवा-पानीके अलावा लिये, उनमेंसे किसीने फ्री पास समझकर और किसी क्या खाने-पीने को देगें। सान्त्वना देनेके लिये न ने बुरा न मान जाएं इस भयसे टिकिटके दाम नहीं कोई शब्द सूमते थे, न कोई कमबख्त शेर ही याद दिये । एक साहबने दाम देनेकी जहमत फर्माते हुए आता था। इसी उधेड़बुनमें मुंह लटकाये पहुंचा अठन्नी उनके हाथपर रखो और बोले जब हाउस फल तो विमलभाई देखते ही खिल उठे और मैं कुछ कहूँ हो गया तो टिकिटके पूरे दाम कैसे ?' इससे पहले स्वयं ही बोलेयह लतीफा उन्होंने इस अन्दाज़ में बयान किया "भाई ! हमारा तो सदैवके सङ्कटसे पीछा छुट कि हम लोट-पोट गये। रातको सोने लगा तो मुझे गया। यकीनन आजसे हमारे बुरे दिन गये और विमलभाईको ऐसी कई बातें स्मरण हो आई, जिन्हें मैं अच्छे दिन आये।" अबतक उनकी खूबियां तसब्बुर किया करता था। मैने समझा कि विपताका पहाड़ टूट पड़नेसे अब जो दुनियाँको ऐनक लगाकर देखता हूं तो रङ्ग ही विक्षिप्त हो गया है। परन्तु वह विक्षिप्त नहीं था, दूसरा नजर आने लगा। फिर बोला-'भाई ! यह परिग्रह ही सब झगड़ोंकी सन १९३३ की बात है। मुझे ऐतिहासिक अनु. जड़ है इसीके कारण अनेक क्लेश और बाधाएँ आती सन्धानके लिये अकस्मात् उदयपुर जाना उसी रोज़ हैं। अब सुख-चैन ही सुख चैन है। रोटियाँ तो आवश्यक होगया। मार्ग-व्ययके लिये तो रुपये खानेको मिलेंगी ही। आधे दर्जन बच्चे हो गये अब उधार मिल गये। और ठहरने आदिकी सुविधा पत्नी जेवर पहनने क्या अच्छी लगती थी? विलायती इतिहास-प्रेमी बलवन्तसिहजी मेहताके यहां हो गई। कपड़ा सब जाता रहा अब मक मारकर स्वदेशी परन्तु पहननेके कपड़े मेरे पास कतई नहीं थे। जेलसे पहनेगी!' और फिर वही चेहरेपर फूलसी मुस्कराहट आकर बैठा था। जो कपड़े थे उनमें से कुछ धोबीके उठकर चला तो वहांसे एक साहब साथ और हो यहां थे. कुछ मैले पड़े थे। स्वच्छ एक भी न था। लिये। फर्माया-"देखा आपने इनका खप्त । और उदयपुर जाना उसी रोज अत्यन्त आवश्यक था। लोगोंके घर चोरी होती है तो दहाड़ मारकर रोते हैं बडी असमञ्जस और चिन्तामें था कि यकायक और एक श्राप हैं कि खिल खिल हंस रहे हैं। गोया विमलभाई आये और बोले कि सुना है आप उदयपुर चोरी नहीं हुई, लाटरीमें हरामका रुपया हाथ लग गया जा रहे हैं, वहां आपको कई रोज़ लगेंगे। मेरे पास है। अगर इनका वस चले तो चोरी होनेकी खुशीमें फाल्तू कपड़े तो नहीं हैं. परन्तु आप घरपर दिनभर दावत दे दें।" Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] हिन्दी-गौरव ६३ सान्त्वना प्रकट करनेके लिये तो मुझे कोई शेर की उधारको लिस्ट दे दी और दो हजार रुपये एकके याद नहीं आया, उसकी आवश्यकता भी नहीं पडी. नाम ऋण लिखे दिखला दिये। परन्तु इन साथीकी बकवास पर गालिबका शेर मनमें मांने सर पीट कर कहा-'तेने उस नादिहिन्दको झूमने लगा दो हजार क्यों पकड़ा दिये? फर्माया-मांत तो न लुटता दिनको तो यूँ रातको क्यों बेखबर सोता । बेकारमें घबड़ाती है, उसने मुझे कसम खाकर २०००) रहा खटका न चोरीका दुआ देता हूं रह जनको ॥ रुपये जल्दी लोटानेको कहा है। उसे पठान तंग कर ___सन् ३० के असहयोग आन्दोलनमें आपने खद्दर रहे थे, इसीसे उसे रुपयेकी जरूरत आन पड़ी थी। की दुकान खोली। विमल भाईकी दुकानपर बाहरके इन १७ वर्षांमें जब जब विमलभाईसे पूछा कि वे व्यापारीतो तब आते जब परिचित यारोंकी कुछ कमी रुपये पटे या नहीं। तबतब आपने बड़े विश्वासकेसाथ होती। भीड़ लग गई, लोग हैगन कि जिसने कभी कहा- “भई रुपये मारमें थोड़े ही हैं। विचारा खुद दूकान नहीं की वह इस फर्राटेसे क्योंकर बिक्री कर मुसीबत में है. उससे रुपयेका तकाजा करना भलमनरहा है। घरवाले भी खुश कि चवन्नी न सही दुअनी साहतमें दाखिल नहीं।" रुपया भी मुनाफा लिया तो २००-३०० रुपयेकी मैं इन २३ वर्षों में स्वयं निर्णय नहीं कर पाया कि बिक्री पर २५-३० तो कहीं भी न गये । हमने स्वयं विमलभाई खप्ती हैं या जीवनमुक्त ? क्या पाठक अपनी अपनी आखोंसे आपकी दुकानदारीके जौहर देखे । उपयुक्त सम्मति देंगे। दुकान ऐसी चली कि २-३ माहमें ही पंख निकल डालमियानगर, २ फरबरी १९४८ आये । माने अपने ३०००) मांगे तो एक हजार रुपये हिन्दी-गौरव (३) बन रहीम भारतीके भालका शृङ्गार हिन्दी! सोचते थे हिन्दमें कब रामराज स्वराज होगा, + पूर्ण होने जारहे हैं स्वप्न सब अपने सजीले, हिन्दी सुभगलिपि नागरीके सीसपर कब ताज होगा सुखद मादक बन रहे हैं आज कवि गायन सुरीले कल्पनाके नील नभमें उड़ रही थी भावनाएँ, मिट रहे अभियोग युग-युगके, मिले वरदान नीके, दासताके पाशमें थी बद्ध अपनी योजनाएँ । मिल रहा बलिदानका फल जल रहे हैं दीप घोके। अब करेगी सभ्यताके ज्ञानका सुप्रसार हिन्दी! JA पा रही सब भारतीयोंके दिलोंका प्यार हिन्दी! बन रही मां भारतीके भालका शृङ्गार हिन्दी!! बन रही मां भारतीके भालका शृङ्गार हिन्दी !! (२) राज-भवनोंसे कुटी तक नागरीमें कार्य होगा, || हो गये श्राजाद, पूरी हो गई चिर-कामनाएँ; देश भारतवर्षका अब 'आर्य' सच्चा आर्य होगा। G दूर कटकर गिर पड़ी हैं दासताको शृङ्खलाएँ। जीणे अगणित अब्दियोंके टूक सकल विधान होंगे, ! हष-पूरित लोचनों में मुस्कराती मृदुल-आशा, मुदित होंगे श्रमिक जनसब, तुष्ट सकल किसान होंगे दूर देखेंगी खड़ी सब. अन्य भाषाएँ तमाशा ॥ विश्वमेंगूजे तुम्हारा नित्य जय जयकार मुकुट हिन्दीको मिलेगा, पाएगीसत्कार हिन्दी! बन रही मां भारतीके भालका शृङ्गार हिन्दी!! बन रही मां भारतीके भालका शृङ्गार हिन्दी !! (१) maanaबनरही मां भारती पं० हरिप्रसाद 'अविकसित Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमनाथका मन्दिर [बाल छोटेलाल जैन, प्रेसीडेंट “गनोट्रेड्स एसोसियेशन" कलकत्ता ) sang ज हम अपने पाठकोंको एक ऐसे भावनाको सबल और दृढ बनाने के लिये सोमनाथ प्रदेशका दिग्दर्शन कराते हैं जिसके मन्दिरके नव-निर्माणका परामर्श दिया है। इस महत्वको मुसलमानोंके निरन्तर घोष से हिन्दुओंके हृदय में अपार हर्ष हुआ है। अत्याचारोंसे हम भूलसे गये हैं। प्रत्येक हिन्दु सोमनाथ मन्दिर के लिये दान देने में यह स्थान है काठियावाड़, जिसका गौरव समझता है, क्योंकि सोमनाथ १२ ज्योतिर्लिङ्गों प्राचीन नाम था सौराष्ट्र । जूना- में सर्व प्रथम है. और सारे भारत का महान तीर्थ है। गढ़की रियासत काठियावाड़में काठियावाड़ प्राय: चारों ओरसे जलावेष्टित है। शामिल है। काठियावाड़ ३२ बड़ी रियासतमें विभक्त कवल उत्तरको ओरसे एक लम्बा सङ्कारण भूमि अश है जिनमें सबसे बड़ी जूनागढ़ है, और जूनागढ़ उन इसे गुजरातसे मिलाता है। इसी कारण गुजरात सब रियासतोंसे कर लेतो है। भूतपूर्व नवाब जूना. और राजपूतानेका, जो इसके उत्तरमें है, इतिहास गढ़ने अपनी बहुसंख्यक हिन्दु प्रजापर नाना प्रकारके सौराष्ट्र के मध्यकालीन इतिहाससे घनिष्ठ सम्बन्ध अत्याचार किये। यही नहीं, भारतके स्वतन्त्र होने रखता है। पर नवाब प्रजाकी इच्छाके विरुद्ध पाकिस्तानसे मिल इतिहासगया, परन्तु प्रजाको सामूहिक शक्ति के सामने नवाबको जबसे भगवान कृष्ण मथुराको छोड़कर द्वारिकामें कराची भागना पड़ा और अब पश्चिमका यह पुनीत आये, तभीसे सौराष्ट्र देश प्रकाशमें आया। द्वारिकाके भू-भाग प्रजाको इच्छानुसार भारतमें मिल गया है। यादवों के समयसे यहां प्रभास क्षेत्रमें यात्रियोंके आने हम आपको यह बतलायेंगे कि काठियावाड़के प्रायद्वीप जानेका प्राचीन वर्णन मिलता है। में, जिसको औरङ्गजेबने "भारतका सौन्दर्य और ईसासे ३२२ वर्षे पूर्व भारतके प्रसिद्ध सम्राट आभूषण" कहा था शैवों, वैष्णवों, बौद्धों, तथा चन्द्रगप्त मौय के चार भागोंमेंसे सौराष्ट्र एक था। और जैनियोंके कितने ही प्राचीन और पवित्र मन्दिर और ईसासे २५० वर्ष पूर्वका महाराजा अशोकका शिलालेख अन्य धर्म स्थान हैं। कितनी ही मसजिद हिन्दु गिरनार में मिलता है। यहां गिरनार पर्वतकी तहलटी तीर्थोकी भूमिपर ध्वस्त किये देवालयोंकी सामग्रीसे में महाराज अशोकने सुदर्शन नामक एक विशाल बनी हुई हैं। कितनी ही मसजिदें हिन्दु-मन्दिरोंका मोल बनवाई थी। मौर्य वंशके पतनके पश्चात् केवल साधारण रूपान्तर हैं, जो असल में हिन्दुओंके सौराष्ट्र ईसासे १५५ वर्ष पूर्व तक शुङ्ग वंशके पुष्यमित्र ही मन्दिर हैं। के आधीन रहा, उनके बाद शक क्षत्रपोंके अधिकार में __ लगभग एक सहस्र वर्षसे परतन्त्रता प्रस्त भारतमें चला गया जिनमें महाराज रुद्रमन (सन् १५०) बहुत हिन्दङको धर्मभावना मुसलमानों के निरन्तर प्रत्या- प्रसिद्ध हुए। इनका भी शिलालेख यहां मिलता है। चारसे दलित और अर्धमृत होती रही है। आज उन्होंने सुदर्शन झीलकी, जिसका बांध टूट गया था, स्वतन्त्र भारतमें भारतसरकार के उप-प्रधानमन्त्री मरम्मत करवाई थी। फिर यहां गुप्त वंशका आधिश्रीयुत सरदार बल्लभभाई पटेलने हिन्दुओंकी धर्म पत्य हुआ। महाराज स्कन्दगुप्तने भी वहां एक Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] सोमनाथका मन्दिर ६५ हजही अनुमारिकाकी राजदीपर शिलालेख (सन ४५७ का) छोड़ा है जिससे पता हमारा सम्बन्धचलता है कि इन महाराजने भी मील सुदर्शनको जनागढसे हमारा न केवल राजनैतिक सम्बन्ध जिसका बांध फिर टूट गया था, मरम्मत करवाई ही है, बल्कि इससे कहीं अधिक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक थी। इन तीन उपरोक्त शक्तिशाली राजाओंने जहां तथा धार्मिक सम्बन्ध भी है। अपनी धर्म-लिपि और कीर्ति-द्योतक लेख शिलाश्रॉपर सौराप्रका दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्वीय प्रदेश ही अंकित करना उचित समझा, उस स्थानका उस समय विशेष कर पौराणिक युगके इतिहासका क्रीडास्थल कितना अधिक महत्व होगा, इसका सहज हो अनुमान रहा है। यहीं पर भगवान श्रीकृष्णने मथुरासे आकर किया जा सकता है। द्वारिकाकी रचना की, यहीं पर यादवों सहित अनेक गुप्त वंशके पीछे बल्लभी राजाओंने सौराष्ट्र पर लीलाएँ की. और यहींपर श्रीकृष्णने मदोन्मत्त विशाल अपनी सत्ता जमाई। ये शिव-भक्त थे। बहत सम्भव यादव कुलको अपनी लीलासे विनाश कराया, और है कि सोमनाथ मन्दिरको स्थापना बल्लभी राजाओंके यहीं पर प्रभास-पटन नामक पवित्र नगरके निकट शासनकाल (सन् ४८० से ७६४) में हुई हो। इन अमावधानोसे जरत्कुमार (व्याध)-द्वारा आहत होकर राजाओं के स्वयं शिव-उपासक होने के कारण इस अपनी जीवन-लीला समाप्त की थी। मंदिरकी विशेष ख्याति इन्हीं के समयमे हुई हैं। इन्हीं (१) बल्लभी, राजाओंने सोमनाथ-मन्दिरके निर्वाह के लिये सहस्रों (२) मूल द्वारिका (प्राचीन द्वारिका) जो भगवान ग्राम दान दिये। गुजरातके अन्य राजाओंने भी सहस्रों । सहस्रा कृष्णके निधनके पश्चात् समुद्र निमग्न हो गई, गांव सोमनाथके नाम किये थे। (३) माधवपुरी (जहां भगवान कृष्णने रुक्मिणीका फिर सौराष्ट्र में चूड़सम वशको स्थापना (सन ८७५ के लगभग) हुई, जिसका राज्य ६०० वर्षे तक रहा, (४) तुलसी श्याम, और उसके बाद मुसलमानों के आक्रमणाका तांता बंध (सदामापरी (जिसको भगवान कृष्णने अपने गया । इस वंशका अन्तिम स्वतन्त्र राजा राव मंडलीक मित्र सदामाके लिये बनवाकर उसके दरिद्रताके पाश हुआ, जिसको यवनाने परास्तकर मुसलमान बना काटे थे और जिसका आधनिक नाम पोरबन्दर है। लिया (सन् १४७० में) और उसका नाम खांजहां (६) श्रीनगर. रक्खा गया और जूनागढ़का नाम मुस्तफाबाद रक्खा, (७) वामस्थली, (वनस्थली) इत्यादि प्राचीन नगर परन्तु यह नाम अधिक दिन तक न चल सका। भी इसी दक्षिण-पूर्वीय प्रदेश में हैं। जैनियोंके गिरनार काठियावाड़(सौराष्ट्र)की राजधानी गत १८०० वर्ष व पालीताना(शत्रुञ्जय)नामक प्राचीन और प्रसिद्ध तीथ से अधिक कालसे जूनागढ़ रही है। १५ वीं शताब्दीसे यहीं हैं। यहीपर बौद्धोंके गुहामन्दिर जूनागढ़, तलाकाठियावाड़के मुसलमान शासक या फौजदार जूनागढ़ जा, साना, धांक और सिद्धेश्वरमें हैं। यहांके अनेक में रहते थे। ये शासक पहले गुजरातके सुल्तानोंके, अतिकलापूर्ण पाषाणनिर्मित मन्दिरोंके ध्वंसावशेषांसे और फिर अहमदाबाद के मुग़ल सूवेदारों के अधीन रहे जो कि सेजकपुर, थान, आनन्दपुर, पवेदी, चौबारी परन्तु मुग़ल माम्राज्य के पतनके साथ साथ १८वीं तथा बढ़वानादि स्थानों में मिलते हैं, इससे यह बात शताब्दीके पूर्वार्धमें यहांके शासक स्वतन्त्र हो गये और प्रमाणित होती है कि मध्यकालमें मध्य सौराष्ट्र एक अन्तमें अंग्रेजों के अधीन हुए। अब भारतके स्वतन्त्र पूर्ण वैभवशाली और अति-जनाकीर्ण प्रदेश था। होनेपर यहांका नवाब किस तरहकी चालसे पाकिस्तान सन्६४० में ह्यू येन स्यांग नामक चीनी परिव्राजक से भिला, और प्रजाके विरोधसे किस तरह उसे पला- बल्लभीमें आया, और उसने भी यहांकी समृद्धिका यन करना पड़ा यह सब तो श्राप लोग जानते ही हैं। वणन करते हुए लिखा है कि-यहांपर बौद्धों के सैकड़ों Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अनेकान्त [ वर्ष - - मठ, ६००० बौद्ध भिक्षु, और सैकड़ों देव मन्दिर थे। रानियां सती हुई गें। यहां एक गोपी तालाब है, और इसी प्रदेशमें लोक-प्रसिद्ध प्रभास-पट्टनका जिसकी मृत्तिकाका रामानन्दी वैरागी, और दूसरे सोमनाथ मन्दिर है।" वैष्णव भक्त मस्तकपर लगाते हैं और इस मृत्तिकाको सोरठ देश (सौराष्ट्र) हिन्दुओंके लिए सदा ही गोपी-चन्दन कहते हैं। आकर्षक रहा है। उनके लिए यह देश भमिपर स्वगके गिरनार पर्वतसे ४० मील दक्षिणकी ओर सोमसमान है। यहां निर्मल-नीर-बाहिनी नदिया है, नाथका प्राचीन मन्दिर समुद्र के पूर्वी कोनेपर अब प्रसिद्ध(जातिके) घोडे मिलते हैं और यहांको रमणियां तक स्थित है। इस मन्दिरकी दीवाराके कोई चिन्ह सुन्दरता लिए प्रसिद्ध है। किन्तु इन सबसे ऊपर यह नहीं मिलते मन्दिरकी नींवके आस-पासको भूमिको पवित्र स्थान है क्योंकि जैनियों के लिए यह तीर्थकर समुद्रको तरङ्गोंसे बचाने के लिये एक सुदृढ़ दीवार आदिनाथ और अरियनेमि (कृषणके चचेरे भाई)की बनी हुई है। दीवारोंकी खाली जगहको पत्थरोसे भर भूमि है और हिन्दुओं के लिए महादेव और श्रीकृष्ण कर मसजिद बना ली गई है। वर्तमान मन्दिरका जो का देश है। अवशिष्ठांश है वह मूलत: गुजरातके महाराज कुमार पाल द्वारा निर्मित किये गये मन्दिरका है। जिसका सोमनाथ पट्टन निर्माण सन् ११६८ में हुवा था । जिस नगर में सोमनाथमन्दिर है उसे पटन, पट्टन सोमनाथ मन्दिरपाटन प्रभासपट्टन, देवपट्टन, सोमनाथ पट्टन, रेहवास पश्चिमी भारतके मन्दिरोंमें, जिनकी संख्या अगपट्टन, शिव पट्टन और सोरठी-सोमनाथ भी कहते हैं। शित है. हिन्द धर्म के समस्त इतिहास में काठियावाड़ के इस अति प्राचीन नगर में अतीत गौरवके अनेकों चिह्न दक्षिणी सागर तट पर स्थित भेरावल बन्दर के निकट मिलते हैं यहां उजड़े हुए प्राचीन सोमनाथमन्दिर और सोमनाथ पटनका सोमनाथ मन्दिर सर्व-प्रसिद्ध है। आधुनिक सोमनाथ मन्दिरके अतिरिक्त अन्य भग्नाव- यह सर्व भारतमें प्रसिद्ध १२ ज्योतिलिडों में से प्रथम शेषों में जामा मस्जिद भी है। यह मस्जिद एक प्राचीन है । और न ही किसी अन्य मन्दिरका इतिहास विशाल सूर्य मन्दिरको जो इसी स्थानपर पहले था, इतना प्राचीन है जितना कि सोमनाथका । अनेकों ही नष्ट कर. मन्दिरके सामानसे बनाई गई है। इसी जामा बार इसकी दीवारोंने युद्ध के परिणामको देखा, और मस्जिदके थोड़ी दूर उत्तरमें पार्श्वनाथ (जैन तीर्थकर) कितनी ही बार पिशाची आक्रमणकारियों द्वारा यह का एक बहुत पुराना मन्दिर था जो आजकल एक मन्दिर धराशायी कर दिया गया, परन्तु ज्यों ही शत्रुरहनेके मकानके रूपमें व्यवहृत होरहा है। इस नगरके ने पीठ मोड़ी त्यों ही एक अमर प्राणीकी तरह इसकी पश्चिममें ( पट्टन और बेराबलके बीच में ) माइपुरी दीवारें फिर खड़ी हो गई। शङ्करको ध्वजा फिर मसजिद है जो कि एक मन्दिरको मसजिदके रूप में आकाशमें फहराने लगी, और घण्टा शङ्खों और डमरू रूपांतरित कर दी गई प्रतीत होती है। यहां भाटकुण्ड के शब्दसे शिवकी पूजा प्रारम्भ होती गई। भी है जहां, कहा जाता है, भगवान श्रीकृष्णने शरीर इतिहास में सोमनाथका मन्दिर मुख्यत: महमूद छोड़ा था। इस नगरके पूर्वकी ओर तीन सुन्दर सरिताओंका त्रिवेणी सङ्गम है, जो भगवान श्रीकृष्ण के * १२ ज्योतिलिङ्गोंके नाम-श्री शैल (तिलङ्गना) शरीरका दाह-संस्कार-स्थान होने के कारण पवित्र है का मल्लिका जुन, उज्जैनका महाकाल, देवगढ़ (विहार) का यह सारा स्थान भगवान श्रीकृष्णकी लीलाओंसे वैद्यनाथ, रामेश्वरम् (दक्षिणभारत) का रामेश्वर, भीमानदीके सम्बन्धित है। इस स्थानको "वैराग्य क्षेच' कहते मुहानेपर भीम शङ्कर, नासिकका त्रयम्बक, हिमालयका हैं, क्योंकि यहां पर श्रीकृष्णको रुक्मणी श्रादि महा- केदारनाथ, बनारसके विश्वश्वर, गौतम (अज्ञात)। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ । सोमनाथका मन्दिर - ग़ज़नवीके सन् १०२५ के हमलेके कारण बहुत प्रसिद्ध शिखरपर चौदह सुवर्ण कलश थे जो सूर्य प्रकाशमें है। इसलाम धर्मकी कुत्सित शिक्षाके प्रभावसे महमूद जगमग २ करते थे और दूरसे दिखाई पड़ते थे। गज़नवीने मूर्ति-पूजाको मिटानेका म दृढ विशाल शिवलिङ्गपर शृङ्गारके लिये बहुतसे रत्नसङ्कल्प किया। और हिन्दु मन्दिरोंमेंसे प्रचुर धनराशि जटित आभूषण रहते थे। के उपलब्ध होनेके जघन्य लालचने इसको बिलकुल महमदका आक्रमणअन्धा बना दिया। ___सोमनाथ के मन्दिरका धारावाहिक इतिहास अभी से प्राचीन मुसलमान लेखकोंने इस मन्दिरके संबन्ध तक सन्तोषप्रद नहीं लिखा गया है। इस मन्दिरको । में बहुत कुछ लिखा है। उन लेखोंके आधारपर, स्थापना और ख्याति शायद बल्लभी राजाओंके। जिनको अंग्रेज इतिहास-वेत्ताओंने संशोधित किया, समयसे हुई है (सन ४८० से सन ७६४ तक)। - यह सारा लेख लिखा गया है। * इस मन्दिरके दर्शनार्थ दूर २ से हिन्दु यात्री श्राते थे। , जूनागढ़में मक्काका एक फकीर रहता था जिसका इस मन्दिरके निर्वाह के लिये १०,००० ग्राम बल्लभी नाम मंगलूरी शाह था (जिसे हाजी महमूद भी कहते थे।) इसी फकीरने बार बार महमूदको सूचना दी और अन्य राजाओद्वारा दान दिये गये थे। और कि सोमनाथके मन्दिरमें अथाह धन राशि है, और उस समय इस मन्दिर में इतनी प्रचुर रत्न राशि थी यहाँकी मूर्ति इस्लाम धर्मको चुनौती है। महमूद कि किसी भी बड़ेसे बड़े राजाके पास उसका दशांश गजनवीको इसी फकीरने इस मन्दिरके विषय में भी नहीं था। सोमनाथकी सेवाके लिये २००० ब्राह्मण नियुक्त आवश्यक सब सूचनाएँ दी। धनकी लालसासे प्रेरित होकर, महमूद ग़ज़नवी थे। इस मन्दिरके भीतर २०० मन सोनेकी जन्जीर ने सोमनाथ मन्दिरपर आक्रमण करनेका निश्चय से एक विशाल घड़ाबल लटकती थी, जिसको निश्चित धत किया और १२ अक्तूबर सन् १०२५ में महमूद समयोंपर बजाकर भक्तोंको पूजाके लिये आह्वान ग़ज़नवी राजनी (अफगानिस्तात स्थित) से ३०,००० किया जाता था। यात्रियोंके मुण्डनादिके लिये इस चुने हुवे तुके नौजवान घुड़सवारोंको हथियारोंसे पूरा मन्दिर में ३०० क्षौरकार (नाई) थे। ५००'नतेकियां, सुसज्जित करके मुलतानकी ओर रवाना हुआ, और और ३५० सङ्गीत विशारद और सुनिपुण बाधकार मध्य नवम्बर में मुलतान पहुंचा। मुलतान में जब उसे देव-सेवाके लिये नियुक्त थे जिनका निर्वाह पूजाके मालूम हुआ कि मुलतान और सोमनाथके बीच में निमित्त अर्पित गांवों और राजागरण तथा यात्रियों के एक विस्तीर्ण निजैल तृण रहित मरुभूमि है, तो उसने दानपर आधारित था। यद्यपि सोमनाथसे श्रीगङ्गाजी हर सवारके साथ दो दो ऊंट पानीसे लदे हुवे लगा १२०० मील दूर रही हैं, तथापि अभिषेकके लिये दिये। और उनके अतिरिक्त २०,००० ऊंटोंपर नित्य गङ्गाजल लान के लिये यात्री नियुक्त थे। महमूद . खाद्य पदार्थ और पानी लेकर सोमनाथकी ओर बढ़ा। द्वारा ध्वस्त सोमनाथका यह मन्दिर ईट और काष्ठका मागमें मुढेर या मुढेरा पड़ा जहां २०,००० बना हुआ था, जैसी कि उस समय गुजरातकी प्राचीन हिन्दुओंने महमूदको आगे बढ़नेसे रोकने के लिये मन्दिर निर्माण प्रणाली थी। कठिन युद्ध किया, पर महमूदको रोक न सके। इस मन्दिरमें ५६ सागवानके विशाल स्तम्भ थे ___ जब वह अजमेर पहुंचा तो वहां के लोगोंने इसका जिनपर होरा माणिक पन्नादि रत्न जड़े हवे थे। ये सामना नहीं किया तो भी महमूदने कत्लेआम, लूट, स्तम्भ भारतके विविध राजाओं द्वारा निर्मित किये सा गये थे और उनके नाम उन उन स्तम्भोंपर अङ्कित * देवा, (१) इवनी द-अमीर (सन् ११२१, (२) मीर थे। यह मन्दिर तेरह मञ्जिल ऊँचा था, और इसके खौडका गैजत उस्मफा (मन् १४६४)। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ अनेकान्त [ वर्ष । स्त्री-बच्चोंको कैद करनेका हुक्म दिया, और उनकी इसपर उसके उमरावोंने महमूदको सलाह दी कि एक देव मूर्तियोंको खण्डित किया। और आगे बढ़कर मूर्तिको तोड़कर सोमनाथकी दीवारोंसे मूर्ति-पूजा भूवारा (नहेर वाला अनिहलवाड़ पट्टन) पहुंचा। विलुप्त नहीं की जा सकती। अत: मूर्तिको तोड़नेसे उस समय वहांके राजा भीमदेव प्रथम थे। वहां पर कोई लाभ नहीं होगा। पर इतना प्रचुर धन मिलनेसे मदने अपना बड़ा बनाया। यहांसे आगे बढ़ते मुसलमानोंको खैरात देकर सवाब हासिल किया जा हवे और मागमें पड़ने वाले मन्दिरों और मर्तियोंको सकता है। इसपर महमूदने कहा कि बात तो कुछ नष्ट करते हवे, और लूट पाट करते हुवे वह सोमनाथ ठीक है, पर वह इतिहासमें “बुतशकुन' कहलाना के निकट बृहस्पतिवार, ६ जनवरी सन् १००६ को चाहता है, "बुतफरोश" नहीं कहलाना चाहता, और पहुंचा। सोमनाथमें उसने एक सुदृढदुग देखा जिसकी मूर्तिको भङ्ग कर दिया। प्राचीरके मस्तक तक समुद्र तरङ्गे उछलती थीं। मूर्ति भङ्ग करते ही पोले लिङ्गों से होरे, मोती, हिन्दु, दशकोंकी नाई, दुर्गप्रवरपर चढ़कर पन्नादिकी ढेर रत्न राशि निकल पड़ी। मुसलमानी फौजको देखने लगे कि किस तरह बावा इस मन्दिरसे जो धन राशि मिली उसका अनुमान सोमनाथ मुसलमानोंको नष्ट करते हैं। जैसी कि उनकी इसीस लगाया जा सकता हैं कि लूटका कुछ माल धारणा थी। मुसलमानी फौजने दुगकी प्रचीरोंपर उमरावों और सैनिकों में वितरण किया गया। जिसका भयङ्कर तीर वर्षा की, और "अल्लाह-हो-अकबर" का पांचवां हिस्सा महमूदको मिला जिसकी कीमत दो नारा लगाते हवे किलेकी दीवारोंपर चढ गये। करोड़ दीनार थी। महमूदकी सोनेकी दीनारका वजन आक्रमण होते ही हिन्दुओंने मृत्युको हथेलीपर रखकर ६४८ प्रेन था। उस परिमाणसे उसका मूल्य एक घोर युद्ध किया, और शत्रके दांत खट्टे कर दिये। करोड़ पांच लाख पाउंड होता है अर्थात् १५ करोड़ सारे दिनके घमासान युद्ध के बाद हिन्दुओंने मुसल- ७५ लाख रुपये हुवे। (देखो "The life and मानोंको भगा दिया, और मुसलमान आतताइयोंने Times of Sultan Mahmud of Ghazni" अपने शिविरों में शरण ली। दूसरे दिन मुसलमान ने by Mohamed Nazin, Cambridge 1931, जबरदस्त धावा किया, और हजारों हिन्दुओंको काट Page 118) यहां पाउड १५) रुपयेका गिना गया कर मन्दिर में घुस गये, फिर भी हिन्द योद्धाओंने रात है और सोना २४) रुपये तोला लगाया गया है। होने तक दुश्मनका जोरोंसे मुकाबिला किया। जो अलबरूनी इतिहासकारने (सन् १०३०) में लिखा हिन्दु नोकाओंमें चढ़कर प्राणरक्षाके लिये समुद्रपथसे है कि महमूदने लिङ्गक ऊपरके भागको तोड़ दिया रवाना हुवे, उन्हें महमूदने अपनी सेना द्वारा कत्ल और बाकीका हिस्सा अपने नगर ग़ज़ नीमें ले गया। कराकर अथवा समुद्र निमग्न करा कर, अपना कुत्सित और वहां राजनोकी जामा मसजिदके द्वारपर लगवा कार्य सफल किया। इस मन्दिरके समीप ५०,००० दिया, ताकि मुसलमान नमाजी मसजिदमें घुसनेसे हिन्दुओंने अपने आराध्य देवकी रक्षा में प्राण दिये। पहले अपने पांवकी धूलि उमसे पांछ सकें। ७ जनवरी सन् १०२६ को जब महमूद मन्दिरके साथ ही महमद सोमनाथ-मन्दिरको चन्दनअन्दर पहुंचा तो वहां पांच गज़ ऊंचा शिवलिङ्ग निर्मित दरवाजोंको जोड़ियां भी उखाड़कर ले गया। देखा. जिसका दो गज़ भाग भूमिमें था और तीन पाठकोंको मालूम होगा कि आठ शताब्दी बाद लाडै गज़ ऊपर था। जब इस लिङ्गको खण्डित करने के निंबराने जब अफगानिस्तानसे बदला लेने के लिये लिये हथोड़े उठाये गये तो ब्राह्मण पुजारियोंने महमद पलटन भेजी, तो उसके जनरलको सोमनाथ मन्दिरके के साथियोंसे कहा कि यदि वे मूर्तिको खण्डित न करें दरवाजे गजनीसे भारत लौटा लानेका श्रादेश दिया तो बदलेमें करोड़ोंका सोना दिया जा सकता है। था जिससे कि हिन्दु प्रसन्न हों। किन्तु वह जनरल Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ । सोमनाथका मन्दिर महमूद ग़ज नबीके मकबरेपर लगे हुवे दरवाजोंको आक्रमण होते रहे। सन १२९८ में देहलीके बादशाह ही सोमनाथके चन्दन-द्वार सममकर वृथा ही उखाड़ अल्लाउद्दीन खिलजीके सिपहसालार अलफखोंने इस लाया जो अब तक आगरे के किलेके एक कोने में पड़े हैं। मन्दिरको फिर धराशायी किया। लिङ्गको जड़से महमद लूटका माल ले भागनेकी जल्दी में केवल इस आशयसे उखाड़ा कि नीचे दबा हुवा धन मिलेगा लिङ्ग तोड़ सका। इस अत्याचारसे हिन्दुओंमें रोप जैसाकि धन-लोलुप मन्दिर-ध्वसंक मुसलमानोंकी छा गया, और कई राजा, आबूक राजा परमर्दीदेवके रीति थी। उसने मन्दिरका नामो निशान मिटानेको नेतृत्वमें अरबली पहाड़ियों और कच्छकी रण के चेष्टा की। बीचसे जाने वाले मार्गको रोकने के लिये आगे बढे, राजा महीपाल देवने (१३०८-१३२५) फिर इस ताकि महमूदको रोक लिया जावे, किन्तु महमूद मन्दिरका निर्माण किया। सन १३१८ में सोमनाथ लड़ाईसे बचने के लिये दूसरे मार्गसे अर्थात् पश्चिमकी मन्दिरपर फिर मुसलमानोंका आक्रमण हुवा, और श्रोर कच्छ और सिन्धके बीचसे होता हवा निकल मन्दिर नष्ट कर दिया गया, परन्तु राजा महीपालदेव भागा। वापसी में सिन्ध नदी के किनारे मुलतानको के सुपुत्र श्री खङ्गार चतुर्थने (१३२५-५१) इस तरफ जाट इसकी सेनाके पिछले भागपर टूट पड़े मन्दिरको फिर निर्मित किया और सोमनाथ लिङ्गको जिससे इसके बहुतसे सैनिक और घोड़े ऊट मारे गये। प्रतिष्ठा की। महमूद २ अप्रेल सन १०२६ में ग़ज़नी वापिस सन् १३६४ में गुजरातके शासक स्वधर्मत्यागी पहुंचा। मुजफ्फरखांने पड़ोसी हिन्दु राजाओंके विरुद्ध भयङ्कर भागनेसे पहले कहते हैं, महमूदने मीठा-खां धार्मिक युद्ध (जहाद) छेड़ा, और सोमनाथ मंदिरको नामके अफसरको नियुक्त किया जिसने सोमनाथ फिर एकबार ध्वस्त किया और इसकी जगह मसजिद मन्दिरको पूर्ण रूपसे नष्ट किया। परन्तु अनिहिलवाड बना दी । इतिहासकार फरिश्ता लिखता है कि पटन के महाराज भीमदेवने ( सन १०२१-१८७३) मुजफ्फरनाने जितन मान मुजफ्फरखांने जितने मन्दिर तोड़े, उनकी जगह मीठा-खको.मार भगाया और सोमनाथके मन्दिरका मसजिद बनाता गया। इस्लाम धर्म के प्रचार और पुनर्निमाण किया। महाराज सिद्धराज (सन् १०४३- प्रसारके लिये मौलवियोंको नियुक्त किया, और इसोने ११४३) ने इसको भूपित और सुसज्जित किया और यहां पहली बार मन्दिरोंको मसजिदों में परिणत अन्त में महाराज कुमारपालने सन १९६८ में जैनाचार्य करने का काम शुरू किया था। श्री हेमचन्द्र सूरिके परामर्शानुसार ७२ लाख रुपये परन्तु हिन्दुओंने सोमनाथ मन्दिरको फिरसे बना (जो कि उनके राज्यकी एक वर्षको परीश्राय थी) लिया। इसके बाद सन १४१३ में मुजफ्फरखांके लगाकर इस मन्दिरको सम्पूर्ण किया। कई इतिहास पोते अहमदशाहने, जो अहमदाबाद के अहमदशाही कारोंका मत है कि यह नया मन्दिर पुराने मन्दिरको वंशका संस्थापक था, जूनागढके राजापर आक्रमण जगहमें बना था। कई लेखक इसको कल्पना मानते कियाऔर सोमनाथके मन्दिरको नष्ट किया जहांसे हैं। उनका मत है कि सरस्वती नदीके मुहानेसे तीन उसे बहुमूल्य सम्पत्ति प्राप्त हुई। मील पश्चिमकी ओर, और भीडिया मन्दिरसे प्रायः गुजरातके शासक महमूद बेगरा (मुजफ्फर२०० गज दूरीपर जो भग्नावशेष हैं. वहींपर सोमनाथ द्वितीय) ने भी सोमनाथ मन्दिर के अवशेषोंपर आक्रका मूल मन्दिर था। मण किये। सन् १७०२-३ में जब औरङ्गजेब ८४ वका हवा अन्य अाक्रमण तो उसने अहमदाबाद के अपने सूबेदार शुजातखांको महमूदके बाद भी इस मन्दिरपर मुसलमानों के फरमान भेजा कि उसके जीवित रहते रहते सोमनाथ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्षे मन्दिरको तुरन्त नष्ट किया जावे ताकि मूर्ति-पूजा चाहिये। बल एकतासे आता है, और धर्म एकताके सदाके लिये बन्द हो जाय । लिये सहायक होता है। हमने अपनी लापरवाही मुसलमानोंके बार-बार आक्रमण, लूट और निर्बलता और फूटसे लगभग ८०० वर्ष तक परतन्त्रता ध्वंसोंसे हिन्दुलोगहतोत्साह हो गये, और सोमनाथका की बेड़ियां पहनी। आज कितने ही देश-भक्तोंके मन्दिर फिर अपने उस ऐश्वर्यको नहीं प्राप्त कर सका पुरुषार्थ और बलिदानोंके पश्चात् हम स्वतन्त्र हुए हैं। जो उसे कुमारपालके समय में प्राप्त था। स्वतन्त्रताको रक्षा करना हमारे हाथ है। इन्दोरकी महारानी अहल्याबाईने प्राचीन सोमनाथ सोमनाथ मन्दिरके निर्माण के विषयको लेकर मन्दिरके स्थानको छोड़कर नये स्थानपर अन्तिम गनीट्रेडस एसोसिएशन कलकत्ताके हिन्दु सदस्योंकी सोमनाथका मन्दिर बनवाया जो आजकल भी अपनी तथा अन्य हेसियन बोरेके कार बार करनेवालांकी जीर्ण-शीण अवस्थामें उपस्थित है। एक सभा गत सप्ताहमें हुई। उस सभामें श्रीयुक्त सोमनाथ मन्दिरका नव-निर्माण हो माधोप्रसादजी बिड़ला, केसरदेवजी जालान, भागीरथ बहत दिनोंसे हिन्दोंकी यह एकान्त कामना रही जी कानोडिया देवीप्रसादजी गोयनका छोटेलाल जी कि किसी तरह सोमनाथ मन्दिरका निर्माण हो। कानोडिया रामसहायमलजी मोर मनसुखरायजो मोर ईस्ट इण्डिया कम्पनीके समय लार्ड एलिनबराके गिरधारीलालजी मेहता, विलासरायजी भिवानीवाले, शासनकालमें सोमनाथ मन्दिरके बनानेकी चर्चा उठी केसरदेवजी कानोडिया, तुलसीदासजी, जयलालजी थो पर उसमें सफलता नहीं हो सकी। जूनागढके वेरीवाले आदि अनेकों बोरे के कारोबारसे सम्बन्ध मसलमान नवाबोंने इसका सदैव विरोध किया। रखनेवाले महानुभाव उपस्थित थे। यही नहीं "देहोत्सर्ग' "वैराग्य क्षेत्र आदि पावन श्रीयुक्त भागीरथजी कानोडियाने सोमनाथ मंदिर स्थानाकी हिन्दुओं द्वारा देख रेख भी मुसलमान के नव-निर्माण के बारेमें सभाके सामने अपने विचार नवाबों के लिये असह्य हुई, और वहां पूजा करनेकी रखे। उन्होंने बतलाया कि रविवार ४ जनवरीको सख्त मनाई कर दी गई यहां तक कि उसके आस-पास स सरदार पटेलने पाट, बोरा, कपड़ा, कागज, चीनी, की भूमिमें मुर्दा गाढ़कर उसे अपवित्र भी करने लगे। साम सीमेंट आदिके विभिन्न व्यापारिक प्रतिनिधियोंसे जब भारत स्वतन्त्र हुवा तो जूनागढ़की प्रजाको बिरला पार्क में भेंट की, और उनको जनागढस्थित सुप्त प्रतिक्रिया नवाबके विरुद्ध अति उम्र हो उठी। सोमनाथ मन्दिर के नव-निर्माणके लिये सहायता और जब वहांका मुसलमान नवाब जनताकी इच्छाके करनेका परामर्श दिया। श्री भागीरथजी कनोडियाने विरुद्ध पाकिस्तानसे मिल गया, तो वहां लोगोंने बतलाया कि अन्य व्यापारवालोंने सरदार पटेलको सशस्त्र स्वतन्त्रता संग्राम प्रारम्भ किया और नवाबको सोमनाथ मन्दिरके लिये धन एकत्रित करनेका आश्वादुधर्षे जनसङ्ककी सामूहिक शक्तिके सामने पलायन सन दिया है अत: बोरेके व्यापारसे सम्बन्ध रखने करना पड़ा। वाले सभी सज्जनोंको सोमनाथ मन्दिरके निर्माणके अतः अब समय आ गया है कि हम लिये दान देना चाहिये। क्योंकि सोमनाथ मन्दिर लोग सोमनाथ मन्दिरके अतीत गौरवको पुनः सभी हिन्दुओंका है, उन्होंने यह भी कहा कि सोम नाथके पतनके साथ हिन्दुओंको स्वतन्त्रता-हासका लौटाएं। इतिहास भी निहित है। अब भारत स्वतन्त्र हुआ है, __ अब हिन्दुओंको अपने छिने हुए धर्मस्थानोंको श्रतः सोमनाथका जीर्णोद्धार अवश्य होना चाहिये। लताका समय चला गया सभी उपस्थित सज्जनोंने इस कथनका सहर्ष अनुमोअब भारत स्वतन्त्र है, और भारतको बलवान बनना दन किया। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] अद्भुत बन्धन - --- - - फिर श्री माधोप्रसादजी बिड़लाने अपने उन बोरे बाजारके दलालोंकी भी एक अलग सोममित्रोंके नामका उल्लेख किया, जिनसे सहायताके नाथ-मन्दिर-कोष-सबकमेटी बनाई गई जिसमें निम्न वचन उन्होंने प्राप्त कर लिये हैं और उपस्थित सज्जनों लिखित सदस्योंके नाम हैं-श्रीयुत परमेश्वरीलालजी से चन्दा लिखवानेकी अपील की। ।। डेढ़ लाख गुप्ता, जानकीदासजी बेरीवाला, बद्रीप्रसादजी परसरुपयेसे अधिककी सहायता सोमनाथ मन्दिर-कोषके रामपुरिया, बनारसीलालजी फमारनिया, हरिकिसन लिये हेशियन बोराके व्यापारियोंसे प्राप्त हो चुकी है। जी आचार्य। इस सब-कमेटीको भी अन्य सदस्य चन्दा लिखाने के लिये एक सोमनाथ मन्दिर-कोष- लेनेका अधिकार है। समिति भी बनाई गई जिसमें निम्नलिखित सदस्योंके हमें पूर्ण विश्वास है कि सभी हिन्दु भाई इस नाम हैं-श्रीयुत माधोप्रसादजी बिड़ला, केसरदेवजी कोपमें प्रचुर सहायता प्रदानकर अखण्ड-हिन्दु जालान, देवीप्रसादजी गोयनका, छोटेलालजी कानो- (राष्ट्र) को सुदृढ़ बनायेंगे। डिया, रामसहायमलजी मोर, जयलालजी बेरीवाला, अन्तमें हम श्री बिड़ला बन्धुओंको धन्यवाद देते भागीरथजी कनोडिया, बिलासरायजी भिवानीवाला, हैं कि इस हिन्दु जागरणके कायमें वे सबसे आगे छोटेलालजी सरावगी। इस सब कमेटीको अन्य आकर इस फण्डकी सफलताके लिये तन, मन, धनसे सदस्य लेनेका अधिकार है। पुणे प्रयत्नशील हुये हैं। अद्भुत बन्धन ! बता बता रे ! बन्दो ! मुझको, बता ! बनाई किसने तेरी, बांधा किसने आज तुझे ? यह अटूट अति दृढ बेड़ी ? बोला-"मेरे स्वामीने हो, बोला बंदी-"बड़े यत्नसे, ___ कसकर बांधा आज मुझे ॥ __ इसको मैने स्वयं घड़ी॥ सोचा था धन-बल ही से मैं, सोचा था करलेगा बन्दी, ला सकू सारा संसार । जगको मेरा प्रबल प्रताप । और धरा धन निजी कोष वह, सदा भरूंगा शान्ति-सहित मैं, था जिसपर नृपका अधिकार ।। एकाकी स्वाधीनालाप ॥ निद्राके हो वशीभूत मैं, अतः रात दिन अथक परिश्रम, लेट गया उस शय्यापर । करनेका सब भार लिया। जो मेरे मालिककी प्यारी भट्टी और हथोड़ों द्वारा, थी मनहर अति ही सुन्दर ।। बेड़ीको तैयार किया । ज्ञात हुई मुझको सब बातें, कडियां पूर्ण अटूट हुई सब, जब निद्रासे जाग चुका। सभी कार्य सम्पूर्ण हुआ। हा ! मैं बन्दी बना हुआ हूं, ज्ञात हुआ इनहीने मुझको, अपने ही कोशालयका ॥" ___ हा ! बन्धनमें बांध लिया। [ रचयिता-रवीन्द्रनाथ ठाकुर, अनुवादक-अनूपचन्द जैन न्यायतीर्थ ] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-कहानी करनीका फल [लेखक:-अयोध्याप्रसाद गोयलीय] ["अनेकान्त"के दसरे और तीसरे वर्ष में इस स्तम्भके नीचे ऐतिहासिक, पौराणिक और मौखिक सुनी हुई ऐसी छोटी-छोटी शिक्षाप्रद और मनोरञ्जक कहानिया दी जाती रही हैं, जो प्रवचनोमें उदाहरणका काम दे सके। इस तरहकी छोटी-छोटी लाखों कहानिया लोंगोंके हृदयोंमें बिखरी पड़ी हैं, जो अक्सर हमारे घरोंमें सुनाई जाती है और सीने बसीने चली पारदी हैं । परन्तु कागजों में लिखी नहीं मिलती। ये कहानिया हमारे देशकी अमूल्य निधि हैं। ये कल्पित उपन्यासों और कहानियोंसे अधिक रोचक और हृदयस्पर्शिनी होती हैं । ऐसी छोटी-छोटी कहानिया भेजने वालोंका अनेकान्त स्वागत करेगा। कहानियों की आत्मा चाहे ऐतिहासिक या पौराणिक हो अथवा सुनी सुनाई हो, परन्तु उसकी भाषाका परिधान स्वयं लेखकका होना चाहिए । नमूनेके तौरपर हम एक कहानी दे रहे हैं, यद्यपि वह कुछ बड़ी होगई है, अगले अंकोंमें छोटी २ भी देनेका यत्न किया जायगा। -गोयलीय क-एक करके पाठ पुत्र-वधुओंके बिलखतोंको देखकर राशनिक अफसर बैठा रहता है। भरी जवानी में विधवा हो जानेपर कुछ दिनों बाद गांव में प्लेगकी बान्धी आई तो भी वृद्धकी आंखोंमें आंसू न आये। उसमें उसका एकमात्र पौत्र भी लुढ़क गया। वृद्धके साम्यभावसे सब कुछ सहन करता धैर्यका बान्ध टूट गया, उसने अपना सर दीवारसे रहा। अपने हाथों आग देकर इस दे मारा। नारदमुनि अकस्मात् उधरसे निकले तो * तरह घर आन बैठा जिस तरह वृद्धको टकराते हुये देखकर उसी तरह खड़े हो गये, लार्ड वेवल बङ्गालके अकाल पीड़ितोंको एड़ियाँ जिस तरह अपहृत अबलाओंके धैय बन्धानेको नेता रगड़ते-रगड़ते देखकर दिल्ली आ बैठते थे। पहुंच जाते हैं। या भाग और पानीमें छटपटाते गाँव के कुछ लोग उसके धैर्यको प्रशंसा उसी तरह मनुष्योंको देखने न्यूज-रिपोटर रुक जाते है। फरते, जिस तरह आज काश्मीर महाराजके साहसकी विपद् प्रस्तको देखकर सूखी सहानुभूति प्रकट कर रहे हैं। कुछ लोग बन हृदय कहकर उसका करने में लोगोंका बिगड़ता ही क्या है? जो कल उपहास करते। श्मशान में जिन्हें शीघ्र वैराग्य घेर दहाड मारकर रोते देखे गये है, वे भी उपदेश देने के लेता है और फिर घर आकर सांसारिक कार्यो में उसी इस सुनहरी अवसरसे नहीं चूकते। फिर नारदमुनि तरह लिप्त हो जाते हैं, जिस तरह पं० नेहरू मुस्लि- तो आखिर नारदमुनि ठहरे! जिस प्रकार आयमलीगी आक्रमणोंको भूलकर व्यस्त हो जाते हैं। समाजका मक्केमें वैदिक धमका मण्डा फहरानेका ऐसे लोग उन्हें जीवन्मुक्त और विदेह कहनेसे न चूकते अधिकार सुरक्षित है या हसननिज्ञामीको सात करोड़ और छिद्रान्वेषी उन्हें मनुष्य न मानकर पशु समझते। हरिजनोंको मुस्लिम बनाने के हकूक हासिल है। बात कुछ भी हो, एक-एक करके व्याहे-त्याहे ८ ऐसे ही कर्तव्यभारके नाते कण्ठमें मिसरी घोलते हुये लड़के दो वर्षमें उठ गये। उनकी स्त्रियोंके करुण- नारदमुनि बोलेक्रन्दनसे पड़ोसियोंको रुलाई आ जाती, पर वृद्ध "बाबा ! धैर्य रखो, रोनेसे क्या लाभ ?'' खटोलेपर चुपचाप उसी तरह बैठा रहता जैसे भूखसे वद्धने अजनबीसी आवाज सुनी तो अचकचा कर Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] देखा, तो पीताम्बर पहने और हाथ में बोरणा लिये नारद दिखाई दिये । वृद्ध उन्हें साधारण भिक्षु समम कर भरे हुए कण्ठसे बोला- स्वामिन् धैर्यकी भी कोई सीमा है। एक-एक कर के आठ बेटोंको आगमें घर आया। अब ले देकर के घर में एक टिमटिमाता दीपक बचा था, सो आज वह भी क्ररकाल श्रन्धीने बुमा दिया फिर भी धैर्य रखनेको कहते हो, बाबा ! धैर्य मेरे पास है ही कहां जो उसे रखूं, वह तो कालने पहले ही छीन लिया। मुझे अब बुढापेमें रोनेके सिवाय और काम भी क्या रह गया स्वामिन् ! सम्यग्दृष्टि अपर्याप्त काल में स्त्री-वेदी हो सकता है सहनशक्ति से अधिक आपत्ति आनेपर आस्तिक भी नास्तिक बन जाते हैं । जो पर्वत सीना ताने हुए करारी चून्दोंके बार हँसते हुए सहते हैं. वे भी श्राग पड़ने पर पिघल उठते हैं । ज्वालामुखीसे सिहर उठते हैं। नारदको भय हुआ कि वृद्ध नास्तिक न हो जाय अतः बोले "तो क्या तुम अपने पौत्रको मृत्युसे सचमुच दुखी हो ? वह तुम्हें पुन: दिखाई दे जाय तो क्या सुखी हो सकोगे ? वृद्धने निर्निमेष नेत्रोंसे नारदकी ओर उसी तरह देखा जिस तरह नङ्गी उधारी स्त्रियां लाईन में खड़ी ७३ श्री षट्खण्डागमके ६३ सूत्रपर 'संजद' पदके विषय में चर्चा चलते हुए एक यह विषय भी विवाद रूपमें आगया कि असंयत-सम्यग्दृष्टि अपर्याप्त कालमें श्री वेदी हो सकता है या नहीं ? द्रव्य-त्री होना तो किसीको इष्ट नहीं है, केवल भाव- स्त्री या स्त्री वेदके उदयपर विवाद है । इस विषय में पं० फूलचन्द जीशास्त्री पं० दरबारीलालजी न्यायाचार्य आदि विद्वानोंने युक्ति कपड़ेकी दुकानको ओर देखतीं हैं। वृद्धने अपने हृदयकी वेदनाको आंखों में व्यक्त करके अपनी अभिलाषाको उसो मौन भाषामें प्रकट कर दिया जिस भाषामें बङ्ग - महिलाओंने सतीत्व- लुटने की व्यथाको महात्मा गान्धीपर जाहिर किया था । नारदकी मायासे क्षितिजपर पौत्र दिखाई दिया तो वृद्ध विह्वल होकर उसी तरह लपका जैसे सिनेमा शौक़ीन टिकट घरकी ओर लपकते हैं। "अरे मेरे लाल, तू कहां चला गया था" ? 'अरे दुष्ट तू मेरे शरीरको छूकर अपवित्र न कर पूर्व जन्म में तूने और तेरे आठ पुत्रोंने जिन लोगोंको यन्त्रणाएँ पहुंचाई थीं । ऐश्वये और अधिकारके मदमें जिन्हें तूने मिट्टीमें मिला दिया था। वे ही निरीह प्राणी तेरे पुत्र और पौत्र रूपमें जन्मे थे । ये रुदन करती हुईं तेरी आठों पुत्र बधू तेरे पूर्व जन्म के पुत्र हैं, जिन्होंने न जाने कितनी विधवाओं का सतीत्व हरण किया था" । स्वर्गीय श्रात्मा विलीन हो गई। वृद्धके चेहरेपर स्याही-सी पुस गई। नारदबाबा वीणापर गुनगुनाते चले गये अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् । भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, ३ फरवरी १६४८ क्या सम्यग्दृष्टि अपर्याप्तकाल में स्त्रीवेदी हो सकता है ? [लेखक - बाबू रतनचन्द जैन, मुख्तार तथा आगम प्रमाण द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि असंयत सम्यग्दृष्टिके अपर्याप्त काल में स्त्रीवेदका उदय नहीं होता, यहां पट्खंडागमके तृतीयखंड बंध त्वामित्वविवयको श्री वीरसेन स्वामि-कृत धवला टोकासे स्पष्ट है । १. पत्र १३० सूत्र ७५में कहा है- मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, एवं मनुष्यनियों में तीर्थकर Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ अनेकान्त प्रकृति तक श्रोघके समान जानना चाहिये। विशेषता इतनी है कि द्विस्थानिक और श्रप्रत्याख्यानावरणीयकी प्ररूपणा पश्चद्रिय तिर्य चौके समान है। इस सूत्रको टीका में पत्र १३१ पर श्री वीरसेन स्वामीने जहां भेद है उसे बताया लिखा है कि मिध्यादृष्टिमें ५३, सासादन में ४, सम्य मिध्यादृष्टि में ४२ और असंयतसम्य:दृष्टि गुणस्थान में ४४ प्रत्यय होते हैं; क्योंकि यहां वैयिक व वैक्रियिकमिश्र प्रत्यय नहीं होते मनुष्यनियोंमें इसी प्रकार प्रत्यय होते हैं। विशेष इतना है कि सब गुणस्थानों में पुरुष व नपुंसक वेद, सम्यग्दृष्टिगुणस्थान में औदारिकमिश्र व कार्मण, तथा अप्रमत्तगुणस्थान में प्राहारक द्विक प्रत्यय नहीं होते । प्रकट है कि प्रत्यय ( maas कारण) मूलमें चार और उत्तर सत्तावन होते हैं। इन में से कौन २ और कितने प्रत्यय किस २ गुणस्थान में होते हैं, यह सब पत्र २० से २७ तक टीकाकारने कथन किया है। यहांपर इस कथनसे कि मनुष्यनियोंमें सब गुणस्थानमें पुरुष व नपुंसक वेद और अप्रमत्तगुणस्थान में आहारद्विक प्रत्यय नहीं होते, स्पष्ट हो जाता है कि गति मार्गेणा में मनुष्यनी शब्द से श्राशय भावस्वी का है, द्रव्य-स्त्रीका नहीं। यदि द्रव्यस्त्रीका आशय होता तो मनुष्यनी में अप्रमत्त गुणस्थानको न कहते और पुरुष व नपुंसक वेदका अभाव भी नहीं कहते, क्योंकि द्रव्य-स्त्रीके अप्रमत्तगुणस्थान संभव नहीं और वेद विषमतामें पुरुष व नपुंसक प्रत्यय हो सकते हैं। यहांपर मनुष्यनियोंमें पर्याप्त व अपर्याप्त अवस्था का भी विचार किया गया है; क्योंकि श्रदारिकमिश्र व कार्मण प्रत्ययों का कथन है जो केबल अपर्याप्त कालमें ही होते हैं। मनुष्य नियोंके असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमें प्रौदारिकमिश्र व कार्मण प्रत्यय नहीं होते । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य नियोंके अपर्याप्त कालमें सम्यक्त्व नहीं होता। [ वर्ष दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि कहे हैं (सूत्र १४४ व १४५ पत्र २०५ व २०६ ) । यहां टीकामें श्री वीरसेन स्वामीने स्वोदय- परोदय बन्ध बताते हुए पत्र २०७, पंक्ति १६-२० में पुरुषवेदका बंध असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में स्वोदयसे कहा है, परोदय से नहीं । इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में मनुष्य व तिर्यचों के अपर्याप्त क लमें केवल पुरुषवेदका ही उदय होता है । स्त्री या नपुंसक वेदका उदय नहीं रहता। यदि स्त्री या नपुंसक वेदका उदय भी सम्यग्दृष्टि के अपर्याप्तकाल में होता तो पुरुपवेदकान् स्वोदय न कह कर स्वोदयपरोदय कहते। जिस प्रकार मिध्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में कहा है। अतः जिसके श्रदारिक मिश्रकाय योगमें सम्यक्त्व होगा उसके स्त्री वेद नहीं होगा । २. योग मार्गणानुसार औदारिकमि श्रकाययोगियों में पांच ज्ञानावरणीय आदि प्रकृतियोंके बन्धक मिध्या बताते हुए पंक्ति २५ में असंयतसम्यग्दृष्टि ३. पत्र २०८में औदारिकमिश्रकाय योगके प्रत्यय प्रत्यय होते हैं। चूंकि असंयतसम्यग्दृष्टियों में स्त्री इससे भी यह सिद्ध होता कि है मनुष्य व तियेचोंक और नपुंसक वेदोंके साथ बारह योगोंका अभाब 1 अपर्याप्त कालमें संयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में स्त्री वेदका उदय नहीं होता । ४. पत्र २३५ पर कामकाययोगियों में प्रत्यय बताते हुए पंक्ति १८ में यह कहा है कि अनन्तानुबन्धि चतुष्क और स्त्रीवेदको कम करनेपर असंयतसम्यको कम नहीं किया है; क्योंकि जो सम्यष्टि कर दृष्टियों के तेतीस प्रत्यय होते हैं। यहां पर नपुंसक वेद नरकमें जा रहा उसके नपुंसक वेदका सद्भाव कालमें स्त्री वेदका उदय किसी भी गतिमें संभव नहीं पाया जाता है । परन्तु असंयतसम्यग्दृष्टिके अपर्याप्त है। ५. योग मार्गणानुसार स्त्रीवेदीके प्रत्यय बताते हुए पत्र २४४ पंक्ति २१-२३ में लिखा है कि असंयत सम्यग्दृष्टियों में श्रदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कामंणकाय योग प्रत्ययोंको कम करना चाहिए: क्योंकि स्त्री- वेदियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियों के अपर्याप्त Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २) सल का भाग्योदय कालका अभाव है। यहांपर तो श्री वीरसेन स्वामीने पणा करते हुए पत्र ३६४ पंक्ति २७में यह कहा हैस्वयं इस विषयको विलकुल स्पष्ट कर दिया है। अनन्तानुबन्धि चतुष्कका बन्ध व उदय दोनों साथ ६. आहार मार्गणानुसार अनाहारक जीवोंके व्यच्छिन्न होते हैं। इससे यह बात सिद्ध हो जाती है द्विस्थान प्रकृतियों ( वह कर्मप्रकृतियां जो केवल कि अनाहारक जीवों के अपर्याप्त कालमें दूसरे गुणपहले और दूसरे गुणस्थानमें बंधती हैं और जिनकी स्थानसे उपरिम गुणस्थानोंमै स्त्री वेदका उदय नहीं है। बन्ध पुच्छित्ति दूसरे गुणस्थानमें होती है) की प्ररू सल का भाग्योदय [ ले०-विद्याभूषण पं० के० भुजबली शास्त्री, मूडबिद्री ] ल सोमवंशसे संबद्ध यदुकुलका की बात है कि स्थानीय वसन्तदेवीके मन्दिरमें सल था। यह उत्तरसे आकर शशकपुर गुरुदेवसे धर्मोपदेश सुन रहा था इसी बीचमें सुदत्त वतमानमैसूर राज्यान्तर्गत मृडुगेरे यतिने दूरीपर एक बाघको खरगोशके पीछे दौड़ते तालुकमें अवस्थित अङ्गडिमें रह हुए देखा। इतने में यति सोचने लगे कि यह दीन रहा था। उस समय अङ्गडि एक खरगोश अवश्य बाघका प्रास बन जायगा, तत्क्षणही छोटासा ग्राम था। उसके चारों यति महाराजने धर्म-श्रवणार्थ पास में बैठे हुए परम ओर भयङ्कर जङ्गल था। सल भक्त वीर शिरोमणि सलसे कहा कि अदं पोय सल' महा शूर एवं व्यवहार चतुर था। फलत: वह अङ्गडि अर्थात् 'सल, उसे मारी। का रक्षक बनकर जङ्गलसे गांवमें श्रा, हानि पहुंचाने बस, गुरुजीका इतना कहना था कि सल हवाको वाले जङ्गली जानवरोंसे गांववालों की रक्षा करने तरह दौड़कर बाघकी पीठपर चढ़, कटारीकी सहायतासे लगा। इस कार्यके लिये इसे गांववाले प्रतिवर्षे उसे वश करके गुरुदेवके पादमल में ला पटका। अनाजके रूपमें कुछ कर देने लगे। शिष्य के इस अद्भुत शौर्यको देखकर गुरुजी बड़े इस प्रकार थोड़े समयके बाद सलके पास काफी प्रसन्न हुए। इस उपलक्ष में उत्तरोत्तर उन्नतिकी कांक्षासे अनाज एकत्रित हया। तब अपने गांवकी रक्षाके एक शिलालेखसे स्पष्ट है कि सुदत्त यतिने सलके लिये इसने एक छोटीसी सेना तैयार की। मल जैन शीर्यकी परीक्षा करनेकेलिये ही यह घटना घटित की थी। धर्मावलम्बी था। इसके श्रद्धय गुरु सुदत्त यति दमरे एक शिलालेखमें यह भी उपलब्ध है कि स्वयं पद्माथे + । सलको गुरुदेवपर असीम भक्ति थी। एक दिन बती देवीने सिंहका रूप धारण करके सरदार सलकी परीक्षा * 'Epigraphia cernatica'के आधार पर करनेमें यति सुदत्तकी सहायता की थी। साथ ही साथ यह + डा० सालेतोर सागर कहेवं बुचके शिलालेखों के भी सिद्ध है कि यनि महाराजने ही 'सिंह' सलका राजचिह्न श्राधारपर इन मुदत्त यतिका अपर नाम वधमान योगीन्द्र नियनकरके पोय-मल या होयमल उसका विजयी नाम घोषित बताते हैं । [Mediaeval Jainism] पर वह यह नहीं किया था। [Epigraphia Carnatica' भाग ८ बामके कि सुदत्त यतिका नाम वर्धमान योगी द्रकोपड़ा। पृष्ठ ५] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] भनेकान्त । वर्ष । पति महाराजने शिष्य सलको गम्भीर आशीर्वाद यतिको होयसल राज्यको स्थापना करना आवश्यक दिया। पीछे वह घाटोंमें छोटे छोटे नायकोंको प्रतीत हुआ। डा० भास्करानन्द सालेतोरने इस संबंधों जोतकर उस समूचे प्रान्तका शासक बना। निम्नप्रकार लिखा है-होयसल राज्य जैनी बुद्धि उस जमाने में जनतामें धर्म-श्रद्धा विशेष थी। कौशलकी दूसरी श्रेष्ठ कृति था। अत: अहिंसाप्रधान मुनिवर सुदत्त वहांकी जनताके लिये साक्षात् ईश्वर थे जैनधर्मने विजयनगर साम्राज्यके उदय काल तक दो उनकी आज्ञा विना जनता कोई कार्य नहीं करती थी। बार देशके राजनैतिक जीवनमें नव जागृतिका संचार सुदत्त यतिमें एक विलक्षण तेज एवं प्रभाव वर्तमान किया। जैनाचार्योने राज्यकी सहायता पाने केलिये ही था। इसलिये एक शब्द भी उनके विरुद्ध बोलनेका इन साम्राज्योंकी स्थापना नहीं की। क्योंकि दक्षिणमें साहस वहांकी जनतामें नहीं था। फलत: सलको हर जैनधर्मके केन्द्र पहलेसे विद्यमान थे और उनमें उच्च प्रकारसे जनतासे सहायता मिलती थी। धीरे धीरे कोटिके विद्वान मौजूद थे, जैसे भारतमें विरले ही सल अपनी सेनाको बढ़ाकर आस-पासके प्रान्तोंका हुए हैं। प्रत्युत उन्होंने राज्य स्थापनामें सक्रिय भाग भी नायक बना। इसलिये लिया कि देशकी राजनैतिक विचारधारा ठीक उस समय सल जिस देशमें ण, वह चोल दिशा में बहे, और राष्ट्रीय जीवन उन्नत बने । भारतके राजाओंके वशमें था। अपनी मातृभूमिको परतन्त्रता इतिहास में जैनधर्मका महत्व इसी कारण है। होयमल से मुक्त कराने के लिये सलने चालुक्योंकी सहायता जैन राज्यसे ही विजयनगरके सम्राटोंको वह सन्देश प्राप्त कर अपने देशको स्वतन्त्र बनाया। बल्कि क्रमशः मिला जिसने भारतके इतिहासमें एक नया गौरवपूर्ण चोल वर्तमान समूचे मैसूरसे ही खदेड़ दिये गये। अध्याय ही खोल दिया। इस वंशमें विनयादित्य, होयसल वंशने लगभग १० वर्पतक राज्यशासन किया एरेयंग, विष्णुवधेन + नारसिह और बल्लाल आदि था। इस वंशकी राजधानी पहले वेलूर, और पीछे कई धर्मश्रद्धालु शासक हो गये हैं जिन्होंने अपने द्वार समुद्र रहा। इस लिये ये 'द्वाराबतो पुरवराधीश्वर' शासन कालमें जैनधर्मको काफी सेवा की थी। सकलचंद्र कहलाते थे। बालचन्द्र, अभयचन्द्र, रामचन्द्र, शान्तिदेव तथा निस्सन्देह होयसलोंका समय जैनधर्म के हासका गोपनन्दी श्रादि विद्वान जैनाचार्य उपयुक्त शासकों के था। चोल राजाओं के द्वारा जैनराष्ट्र गंगवादिका अंत गरु या प्रबल प्रेरक रहे। आज 'अनेकांत' के विज्ञ हो चुका था। ६षाव और शैव श्राचार्योने अपने पाठकों के समक्ष होयसल बंशका इतना ही परिचय चमत्कासेि शासक वर्गपर अपना अधिकार जमा दिया गया है। लिया था। ऐसे विकट समय में जैन यतिको धर्मप्रभा- ....----- कना और राष्ट्रोद्धारकी सुध पाना स्वाभाविक था। * Mediaeral Jainisin,P P. 50-60. राष्ट्रीय जागृति के प्रभावमें धर्मोन्नतिका होना कठिन + यद्यपि यह पीछे वैष्णव हो गया था, फिर भी अंत था। इसलिये सिहनंद्याचार्यके अनुरूप ही श्रीसुदत्त तक जैनधर्मपर इनकी सहानुभूति बनी रही। सद्विचार-मणियां १-जिसके राग-द्वेष-मोह क्षीण हो गये हैं बह २-चक्रवर्तिको सम्पदा इन्द्रलोकके भोग । फकीर कारोंपर जो सुख अनुभव करता है वह पक- काकवीट सम गिनत हे वीतरागके लोग। वीं भी अपनी पुषशेरवापर नहीं अनुभव कर जैनवाङ्मय सकता। - - Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वाग्भट्ट और उनकी कृतियां [ लेखक-पण्डित परमानन्द जैन शास्त्री] ग्भट नामके अनेक विद्वान हाए हैं। और सकलशास्त्रों में पारङ्गत तथा सम्पूर्ण लिपि उनमें अष्टाङ्गहृदय नामक वैद्यक भाषाओंसे परिचित थे और उनकी कीर्ति समस्त कर्षिप्रन्थके कर्ता वाग्भट सिहगुमके पुत्र कुलोंके मान, सन्मान और दानसे लोकमें व्याप्त हो और सिन्धुदेशके निवासी थे। र रही थी। और मेवाड़ देशमें प्रतिष्ठित भगवान नमिनिर्वाण काव्यके कर्ता वाग्भट पाश्वेनाथ जिनके यात्रा महोत्सवसे उनका अद्भुत " प्राग्वाट या पोरवाड़वंशके भूषण यश अखिल विश्वमें विस्तृत हो गया था। नेमितथा छाहड़के पुत्र थे। और वाग्भट्टालङ्कार नामक कुमारने राहडपुर में * भगवान नेमिनाथका और ग्रन्धके कर्ता वाग्भट सोमश्रेष्टोके पुत्र थे। इनके अति नलोटकपुरमें वाईस देवकुलकाओं सहित भगवान रिक्त वाग्भट नामके एक चतुथ विद्वान और हए हैं आदिनाथका विशाल मन्दिर बनवाया था + I नेमिजिनका परिचय देने के लिये ही यह लेख लिखा कुमारके पिताका नाम 'मक्कलप' और माताका नाम जाता है। महादेवी था, इनके राहड और नेमिकुमार दो पुत्र थे, जिनमें नेमिकुमार लघु और राहड ज्येष्ठ थे। ये महाकवि वाग्भट नेमिकुमारके पुत्र थे; व्याकरण नेमिफुमार अपने ज्येष्ठ भ्राता गहडके परमभक्त थे छन्द, अलङ्कार, काव्य, नाटक, चम्प और साहित्य के __ और उन्हें श्रादर तथा प्रेमको दृष्टिसे देखते थे। ममन थे; कालीदाम, दण्डी, और वामन श्रादि बाद राहडने भी उसी नगर में भगवानआदिनाथके मन्दिर की । विद्वानोंके काव्य-ग्रन्थोंसे खुब परिचित थे,और अपने दक्षिगा दिशामें वाईस जिन-मन्दिर बनवाए थे, जिस समय के अखिल प्रज्ञालुओंमें चूड़ामणि थे, तथा नूतन से उनका यशरूपी चन्द्रमा जगत में पूर्ण हो गया काव्य रचना करने में दक्ष थे। * इन्होंने अपने पिता क्या हो गया था। नेमिफुमारको महान् विद्वान् धर्मात्मा और यशस्वी कवि वाग्भट्ट भक्तिरसके अद्वितीय प्रेमी थे, बतलाया है और लिखा है कि वे कान्तेय कुलरुपी उनकी स्वोपन काव्यानुशासनवृत्तिमें आदिनाथ कमलों को विकसित करने वाले अद्वितीय भास्कर थे। भगवान पानाथका स्तवन * नव्यानेकमहाप्रबन्धरचनाचातुर्यविस्फूजित -जान पड़ता है कि 'राहहपुर' मेवाड़देशमें ही कहीं स्फारोदारयशः प्रचारमततव्याकीर्ण विश्वत्रयः । नेमिकमारके ज्येष्ठ भ्राता राहडके नामसे बसाया गया है। श्रीमन्न मिकुमार-सूरिरविलप्रज्ञालुचूड़ामणिः। + देवो, काव्यानुशामनटीकाकी उत्थानिका पृष्ट१ काव्यानामनुशासनं वरमिदं चक्र कविर्वाग्भटः ।। नाभयचैत्यसदने दिशि दक्षिणस्या। छन्दोनुशासनको अन्तिम प्रशस्तिम भी इस पद्यके ऊपर द्वाविशति विदधता जिनन्दिराणि । के तीन चरण ज्योंके त्यो रूपमे पाये जाते हैं। सिर्फ चतुर्थ मम्ये निजाग्रजवर प्रभु राइडस्य । चरण बदला हुश्रा है, जो इस प्रकार है पूर्णाकृतो जगति येन यशः शशाङ्कः। 'छन्दः शास्त्रमिदं चकार मुधियामानन्दकृटाग्भट:'। काव्यानुशासन पृष्ठ ३४ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष । - किंवार स्व गया है। जिससे यह सम्भव है कि इन्होंने किसी छन्दोंका कथन विस्तारसे किया गया है। अतएव स्तुति प्रन्थकी भी रचना की हो; क्योंकि रसोंमें रति यहांपर नहीं कहा जाता *। (शृङ्गार) का वर्णन करते हुए देव-विषयक रतिके उदाहरणमें निम्न पद्य दिया है छन्दोनुशासननो मुक्त्यै स्पृहयामि विभवः कार्य न सांसारिकः, . जैनसाहित्य में छन्दशास्त्रपर 'छन्दोनुशासन, + स्वयम्भूछन्द, * छन्दोकोप, * और प्राकृतपिङ्गल* आदि अनेक छन्द ग्रन्थ लिखे गये हैं। उनमें प्रस्तुत छन्दोनुशासन सबसे भिन्न है। यह संस्कृत भाषाका कान्तारे निशिवासरे च सततं भक्तिर्ममान्तु त्वयि। छन्द ग्रन्थ है और पाटनके श्वेताम्बरीय ज्ञानभंडारमें इस पद्यमें बतलाया है कि हे म मुक्तिपुरा अयं च सर्वप्रपञ्चः श्रीवाग्भटाभिधस्वोपज्ञ छन्दोकी कामना नहीं करता और न सांसारिक कार्योके नशामने प्रपञ्चत इति नात्रोच्यते।' लिये विभव (धनादि सम्पत्ति) को ही आकांक्षा करता + यह छन्दोनशामन जय फीति के द्वारा रचा गया है। इसे ; किन्तु हे स्वामिन हाथ जोड़कर मेरी यह प्रार्थना उन्होंने माइन्य, पिगल, जनाश्रय, सेतव, पूज्यपाद (देवनंदी) है कि स्वपमें, जागरणमें, स्थितिमें, चलनेमें दुःख- प्रौर जयदेव श्रादि विद्वानांके छन्द ग्रन्योको देखकर बनाया सुखमें, मन्दिरमें, वनमें, रात्रि और दिनमें निरन्तर गया है। यह जयकीर्ति श्रमलकीर्तिके शिष्य थे। सम्बत् आपकी हो भक्ति हो। ११६२ मे योगसारकी एक प्रति अमलकीर्तिने लिखवाई थी इसी तरह कृष्ण नील पोका वर्णन करते हुए एममे जयकीति १२वीं शताब्दीके उत्तरार्ध और १३ वी राहडके नगर और वहां प्रतिष्ठित नेमिजिनका शता-दीके पूर्वाधिक विद्वान जान पढ़ते हैं। यह ग्रन्थ स्तषन-सूचक निम्न पद्य दिया है जैमलमेर के श्वनाम्बर्गय ज्ञानभण्डारमे सुरक्षित है। देखो सजलजलदनीलाभाति यस्मिन्वनाली,- गायकवाड़ संस्कृत मागजम प्रकाशिन जैमलमर भाण्टागणिय मरकतमणिकृष्णो यत्र नेम जिनेन्द्रः। प्रत्यागा रची। ॐ यद अपभ्रशभापाका महत्वपूर्ण मौलिक छन्द ग्रन्थ विकचकवलयालि श्यामलं यत्सराम्भ:- मका सम्पादन एच. दो पलं करने किका है । दग्या प्रमुदयति न चांस्कांस्तत्पुरं राहडस्य ॥ बम्बईयूनिवर्सिटी जनरल मन् १६३३ तथा रायल इस पद्यमें बतलाया है कि जिसमें वन-पक्तियां एशियाटिक मामा जनरल मन् १६३५ मजलमेघक समान नीलवणे मालूम होती हैं और यह रत्नशेग्मररिद्वारा रचिा प्राकृतमायाका जिस नगरमें नीलमणि सहश कृष्णवर्ण श्री नेमि हन्दकोश है। जिनेन्द्र प्रतिष्ठित हैं तथा जिसमें तालाब विकसित *पिंगलाचायके प्राकृतपिगलको छोड़कर, प्रस्तुत कमनसमूहसे पूरित हैं वह राहडका नगर किन किनको पिंगल ग्रन्थ श्रथवा 'छन्दो विद्या' कविवर राजमलकी प्रमुदित नहीं करता। कृति हैं जिसे उन्होंने श्रीमालकुलोत्पन्न वणिकपति राजा महाकवि वाग्भट्टकी इस समय दो कृतियां उप- भारमल्ल के लिये रचा था। दम प्रन्धमे छन्दोका लब्ध हैं-छन्दोनुशासन और काव्यानुशासन । उनमें निर्देश करने हर राजा भारमल के प्रसाा यश और वैभव छन्दोनुशासन काव्यानुशासनसे पूर्व रचा गया है। यादि का अच्छा परिचय दिया गया है। इन छन्द ग्रन्योंके क्योंकि काव्यानुशासनकी स्वोपज्ञवृत्तिमें स्वोपज्ञ- अतिरिक्त छन्दशास्त्र वृत्तरत्नाकर और श्र नबोध नामके छन्दोनुशासनका उल्लेख करते हुए लिखा है कि उसमें लन्द ग्रन्ग और है जो प्रकाशित हो चके हैं। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ ] ताडपत्रपर लिखा हुआ विद्यमान है । उसकी पत्रसंख्या ४२ और लोकसंख्या ५४० के करीब है और जो स्वोपज्ञवृत्ति या विवरण से अलंकृत है । इस प्रन्थका मङ्गल पद्य निम्न प्रकार है चतुर्थ वाग्भट्ट और उनकी कृतियां विभुं नाभेयमानम्य छन्दसामनुशासनम् । श्रीमन्नेमि कुमारस्यात्मजोऽहं वच्मि वाग्भटः यहां मङ्गलपद्य कुछ परिवर्तन के साथ काव्यानुशासनकी स्वोपज्ञवृत्ति में भी पाया जाता है, उसमें 'छन्दसामनुशासनं' के स्थानपर 'काव्यानुशासनम्' दिया हुआ है । यह छन्दग्रन्थ पांच अध्यायों में विभक्त है, संज्ञाध्याय १, समवृत्ताख्य २, अर्धसमवृत्ताख्य ३ मात्रासमक ४, और मात्रा छन्दक ५ | ग्रन्थ सामने न होनेसे इन छन्दोंके लक्षणादिका कोई परिचय नहीं दिया जा सकता और न ही यह बतलाया जा सकता हैं कि ग्रन्थकारने अपनी दूसरी किन किन रचनाओंका उल्लेख किया है । काव्यानुशासनकी तरह इस प्रन्थमें भी राहड और कुमार की कीर्तिका खुला गान किया गया है और राइडको पुरुषोत्तम तथा उनकी विस्तृत चैत्यपद्धतिको प्रमुदित करने वाली प्रकट किया है । यथापुरुषोत्तम राहडप्रभो कस्य न हि प्रमदं ददाति सद्यः विवता तत्र चैत्य पद्धतिदीतचलध्वजमाल भारिणी । और अपने पिता ने मिकुमार की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि 'घूमनेवाले भ्रमर से कम्पित कमलक मकरन्द (पराग) समूह से पृरित, भडौंच अथवा भृगु कच्छनगर में नमकुमारको अगाध वाकड़ी शोभित होती है । यथापरिभमिरममरकंपिरसररूहमयरंदपु जपु जरिया | arat सहइ गाहा नेमकुमाररस मरुच्छे || इस तरह यह छन्दग्रन्थ बड़ा ही महत्वपूर्ण जान * See Patan Catalague of Manu cripts p. 117 ७६ पड़ता है समाजको चाहिये कि वह इस अप्रकाशित छन्दमन्थको प्रकाशित करनेका प्रयत्न करे । काव्यानुशासन काव्यानुशासन नामका प्रस्तुत प्रन्थ मुद्रित होचुका है। इसमें काव्य सम्बन्धि विषयोंका - रस अलङ्कार छन्द और गुण दोष आदिका कथन किया गया है। इसकी स्वोपज्ञवृत्ति में उदाहरण स्वरूप विभिन्न प्रथोंके अनेक पद्य उदधृत किये गये हैं जिनमें कितने ही पद्य ग्रन्थकर्ता के स्वनिर्मित भी होंगे, परन्तु यह बतला सकना कठिन है कि वे पद्म इनके किस ग्रन्थके हैं। समुद्धृतपद्यों में कितने ही पद्य बड़े सुन्दर और सरस मालूम होते हैं। पाठकोंकी जानकारीके लिये उनमें से दो तीन पथ नीचे दिये जाते हैं । कोयं नाथ जिनो भवेत्तव वशी हुं हुं प्रतापी प्रिये हुं हुं तहिं विमुञ्च कातरमते शौर्यावलेपक्रियां । मोहोऽनेन विनिर्जितः प्रभुरसौ तत्किङ्कराः के वयं इत्येवं रतिकामजल्पविषयः सोऽयं जिनः पातु वः एक समय कामदेव और रति जङ्गल में बिहार कर रहे थे कि अचानक उनकी दृष्टि ध्यानस्थ जिनेन्द्रपर पड़ी, उनके रूपवान् प्रशान्त शरीरको देखकर कामदेव और रतिका जो मनोरञ्जक संवाद हुआ है उसीका चित्रगा इस पद्य में किया गया है। जिनेन्द्रको मेरुवत् निश्चल ध्यानस्थ देखकर रति कामदेवसे पूछती है कि हे नाथ! यह कौन है ? तब कामदेव उत्तर देता है कि यह जिन हैं, राग-द्वेषादि कर्मशत्रुओं को जीतने वाले हैं - पुनः रति पूछती है कि यह तुम्हारे वशमें हुए, तब कामदेव उत्तर देता है कि हे जिये ! यह मेरे वशमें नहीं हुए; क्योंकि यह प्रतापी हैं। तब फिर रति पूछती है यदि यह तुम्हारे वशमें नहीं हुए तो तुम्हें 'त्रिलोकविजयी' पनको शूरवीरताका अभिमान छोड़ देना चाहिये। तब कामदेव रतिसं पुनः कहता है कि इन्होंने मोह राजाको जीत लिया है जो हमारा प्रभु है, हम तो उसके किङ्कर हैं। इस तरह रति और कामदेव के संवाद विषयभूत यह जिन तुम्हारा संरक्षण करें 1 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [ वर्ष शठकमठ विमुक्ताग्रायसंघातघात-, काल कोठरीमें अपने जीवनकी सिसकियाँ ले रहे __ व्यथितमपिमनो न ध्यानतो यस्य नेतुः। होंगे। भचलदचलतुन्यं विश्वविश्वकधीरः, सम्प्रदाय और समय प्रन्थकर्ताने अपनी रचनाओं में अपने सम्प्रदायका सदिशतु शुभमीशः पार्श्वनाथो जिनो वः । कोई समुल्लेख नहीं किया और न यही बतलानेका इस पधमें बतलाया है कि दुष्ट कमठ के द्वारा प्रयत्न किया है कि उक्त कृतियां कब और किसके मुक्त मेघसमूहसे पीड़ित होते हुए जिनका मन ध्यानसे राज्यकालमें रची गई हैं ? हां, काव्यानुशासनवृत्तिके जरा भी विचलित नहीं हश्रा वे मेरुके समान अचल ध्यानपूर्वक समीक्षणसे इस बातका अवश्य आभास और विश्वके अद्वितीय धीर, ईश पाश्वनाथ जिन हो जाता है कि कविका सम्प्रदाय 'दिगम्बर' था; क्योंतुम्हें कल्याण प्रदान करें। कि उन्होंने उक्त वृत्ति के पृष्ठ ६ पर विक्रमकी दूसरी इसी तरह कारणमाला के उदाहरण स्वरूप दिया तीसरी शताब्दिके महान आचार्य समन्तभद्र के 'बृहतहुआ निम्न पद्य भी बड़ा ही रोचक प्रतीत होता है। जिसमें जितेन्द्रियताको विनयका कारण बतलाया स्वयम्भू स्तोत्रके द्वितीय पद्यको 'आगम श्राप्तवचनं गया है और विनयसे गुणोत्कर्ष, गणोत्कर्षसे लोका यथा' वाक्य के साथ उध्दत किया है । और पृष्ठ नुरञ्जन, और जनानुरागसे सम्पदाकी अभिवृद्धिका ५पर भी 'जैन यथा' वाक्य के साथ उक्त स्तवनका होना सूचित किया है, वह पद्य इस प्रकार है 'नयास्तष स्यात्पदसत्यलांछिता रसोपविद्धा इव लोह धातवः। भवन्त्यमी प्रेतगुणा यतस्ततो भवन्तजितेन्द्रियत्वं विनयस्य कारणं, मार्या: प्रणिता हितैपिण:"॥ यह ६५वां पद्य समुगुणप्रकर्षों विनयादवाप्यते । द्धृत किया है। इसके सिवाय पृष्ठ १५ पर ११ वीं गुणप्रकर्षणजनोऽनुरज्यते, शताब्दीक विद्वान आचार्य वीरनन्दीके 'चन्द्रप्रभचरित' जनानुरागप्रभवा हि सम्पदः॥ का आदि मङ्गलपद्य + भी दिया है, और पृष्ठ १६ पर इस ग्रन्थकी स्वोपज्ञवृत्तिमें कविने अपनी एक _ सज्जन-दुजैन चिन्तामें 'नेमिनिर्वाण काव्यके' प्रथम कृतिका 'स्वोपज्ञ ऋपभदेव महाकाव्ये वाक्यके साथ सगका निम्र२० वां पद्य उद्धृत किया हैउल्लेख किया है और उसे 'महाकाव्य' बतलाया है, गुणप्रतीतिः सुजनाजस्य, जिससे बह एक महत्वपूर्ण काव्य ग्रन्थ जान पड़ता है दोपेष्ववज्ञा खलजल्पितेषु । इतना ही नहीं किन्तु उसका निम्न पद्य भी उद्धत अतोध्र वं नेह मम प्रबन्धे, कियायत्पुष्पदन्त-मुनिसेन-मुनीन्द्रमुख्यैः, प्रभूतदोषेऽप्ययशोवकाशः ॥ पूर्वकृतं सुकविभिस्तदहं विधित्सुः ।। और उसी १६वें पृष्ठ में उल्लिखित उद्यानजलकलि ' मधुपानवर्णनं नेभिनिर्वाण राजीमती परित्यागादी' हास्यास्य कस्य ननु नास्ति तथापिसन्तः, इस वाक्य के साथ नेमिनिर्वाण और गजीमती परि शृण्वन्तु कश्चनममापि सुयुक्ति सूकम। * प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः शशास कृप्यादिपुकर्मसु प्रजाः । इसके सिवाय, कविने भव्यनाटक और अलंका- प्रबुद्धतत्वः पुनरद्भ तोदयो ममत्वतो निर्विविदे विदावरः ॥२॥ रादि काव्य बनाये थे। परन्तु वे सब अभी तक अनु- + श्रिय क्रियाद्यस्य सुरागमे नटत्सुरेद्रनेत्रप्रतिबिबलाछिता। पलब्ध हैं, मालूम नहीं, कि वे किस शास्त्रभण्डारकी सभा वभौ रत्नमयी महोत्पलेः कृतोपहारेव स वोग्रजो जिनः।। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] महात्मा गान्धोके निधनपर शोक-प्रस्ताव त्याग नामके दो ग्रन्थोंका समल्लेख किया है। उनमेंसे अब रही 'रचना समयकी बात' सो इनका समय नेमिनिर्वाणके व सर्गमें बलकीड़ा और १०वें सगैमें विक्रमको १४ वीं शताब्दीका जान पड़ता है। क्योंकि मधुपानसुरतका वणन दिया हुआ है। हां, 'राजीमतो काव्यानुशासनवृत्तिमें इन्होंते महाकवि दएडी वामन परित्याग' नामका अन्य कोई दूसरा ही काव्यग्रन्थ और वाग्भटादिकके द्वारा रचेगये दश काव्य-गुणोंमेंसे है जिसमें उक्त दोनों विषयोंके कथन देखने की सूचना सिर्फ माधुये ओज और प्रसाद ये तीन गुण हो माने की गई है। यह काव्यग्रन्थ सम्भवत: पं० श्राशाधर हैं और शेष गुणोंका इन्हीं तीनमें अन्तर्भाव किया जीका 'राजमती विप्रलम्भ' या परित्याग जान पड़ता है। इनमें वाग्भट्टालकारके कर्ता वाग्भट विक्रमकी है; क्योंकि उसी सोलहवें पृष्ठ पर 'विप्रलम्भ वर्णनं १२ वीं शताब्दीके उत्तरार्धके विद्वान हैं। इससे राजमतो परित्यागादौ वाक्य के साथ उक्त ग्रन्थका नाम प्रस्तुत वाग्भट वाग्भट्टालङ्कारके कर्तासे पश्चात् वर्ति है 'राजीमती परित्याग' सूचित किया है। जिससे स्पछ यह सुनिश्चित है। किन्तु ऊपर १३ वीं शताब्दीके मालूम होता है कि उक्त काव्यग्रन्थमें 'विप्रलम्भ विरह विद्वान पं० श्राशाधर जीके 'राजीमती विप्रलम्म या का वर्णन किया गया है। विप्रलम्भ और परित्याग परित्याग' नामके प्रन्थका उल्लेख किया गया है शब्द भी एकार्थक है। यदि यह कल्पना ठीक है तो जिसके देखने की प्रेरणा की गई है। इस प्रन्योल्लेख प्रस्तुत प्रन्थका रचना काल १३ वीं शताब्दीके विद्वान से इनका समय नेरहवीं शताब्दीके बानका सम्भवत: पं० श्राशाधर जीके बादका हो सकता है। विक्रमकी १४ वीं शताब्दीका जान पड़ता है। इन सब प्रन्थोल्लेखोंसे यह स्पष्ट जाना जाता है । वीरसेवा मन्दिर ता०१४-२-४८ कि प्रन्थकर्ता उल्लिखित विद्वान् प्राचार्योंका भक्त और ... उनकी रचनाओंसे परिचित तथा उन्हीं के द्वारा मान्य - इति दण्डिवामनवाग्भटादिप्रणीता दशकाव्यगुणाः। दिगम्बरसम्प्रदायका अनुसर्ता अथवा अनुयायी था। वयं तु माधुयोजप्रसादलक्षणास्त्रीनेव गुणा मन्यामहे, शेषस्तेअन्यथा समन्तभद्राचार्यके उक्त स्तवन पद्यके साथ प्वेवान्तर्भवन्ति । तद्यथा-माधुये कान्ति: सौकुमार्य च, भक्ति एवं श्रद्धावश 'पागम और प्राप्तवचन' जैसे श्रीजसि श्लेपः समाधिरुदारता च । प्रमादेऽर्थव्यक्तिः समता विशेषणोंका प्रयोग करना सम्भव नहीं था। चान्तर्भवति । काव्यानुशासन २, ३१ महात्मा गान्धीके निधनपर शोक-प्रस्ताव ! "महात्मागांधीको तेरहवी दिवसपर २२ फरवरी सविशेषरूपसे संलग्न, उसकी महाविभूति महात्मा १६४८ को वीरसेवामन्दिर में श्रीमान पण्डित जुगल- मोहनदास गांधीकी ३० जनवरीको होनेवाली निर्मम किशोरजी मुख्तार सम्पादक अनेकान्त' की अध्यक्षता हत्याका दुःसमाचार सुना है और साथही यह मालूम में शोक-सभा की गई जिसमें विविध वक्ताओंने हुआ है कि उसके पीछे कोई भारी पडयन्त्र है जो गान्धीजीके प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धांजलियां प्रकट की देशमें फासिष्टवादका प्रचार कर तबाह व बर्बाद और उपस्थित जनताने निम्न शोक-प्रस्ताव पास करना चाहता है तबसे बीरसेमामन्दिरका, जो कि किया रिसर्च इन्स्टियूट और साहित्य सेवाके रुप में जैन विश्वके महान् मानव, मानव समाजके अनन्य समाजकी एक प्रसिद्ध प्रधान संस्था है, सारा परिवार सेवक अहिंसा-सत्यके पुजारी और भारतके उद्धारमें दुःखसे पोरित और शोकाकुल है और अपनी उस Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SR अनेकान्त । वर्ष वेदनाको मन्दिरसे प्रकाशित होने वाले 'अनेकान्तः पड़ता है। अतः वीरसेवामन्दिरका समस्त परिवार पत्रको जनवरो मासको किरणमें भारतकी महाविभूति एकत्रित जैन जनता और जेनेतर जनताके साथ स्वका दुःसह वियोग' शर्पिकके नीचे कुछ प्रकट भी कर ीय महात्माजीकी अपनी श्रद्धांजलि अर्पण करता चुका है। भोज महात्माजीकी २३ वीं के दिन जबकि हुआ उनको प्रात्माके लिये परलोकमें सुख-शान्ति उनके शरीरको पवित्र भस्म नदियों में प्रवाहितकी की कामना करता है और उनके समस्त परिवारके जायगी, नगरको सारी जैन जनता वीरसेवामन्दिर में प्रति अपनी हार्दिक समवेदना व्यक्त करता है। साथ एकत्र हुई, और उसने महात्माजीके इस आकस्मिक ही यह दृढ़भावना और भगवान महावीरसे प्रार्थना निधनपर अपना भारी दःख तथा शोक प्रकट किया। भी करता है कि पं. जवाहरलाल नेहरु सरदार साथही यह स्वीकार किया कि श्रापभी महावीरके बल्लभ भाई पटेल, डा. राजेन्द्रकुमार और मौलाना अहिंसा, सत्य और अपरिग्रहवाद जैसे सिद्धान्तोंकी अब्बुलकलाम आजाद जैसे देशके वर्तमान नेताओं मौलिक शिक्षाओंका व्यापक प्रचार और प्रसार करने को जिनके ऊपर महात्माजी अपने मिशनका भार बाले एक सन्तपुरुष थे। देश आपके उपकारों और छोड़ गये हैं वह अपार बल और साहस प्राप्त होवे सेवाओंका बात बड़ा ऋणी है आपके इस निधनसे जिससे वे राष्ट्रके समुचित निर्माण और उत्थानके भारतको ही नहीं बल्कि सारे विश्वको भारी क्षति कार्य में पूरी तरह समर्थ हो सकें । पहुंची है, जिसकी शीघ्र पूर्ति होना असंभव जान गाँधीकी याद । लेखक:-मु० फजलुलरहमान जमाली, सरसावी । वह देशका रहवर था, वह महबूबे नजर था ! सच पूछो तो वह हिन्दका मुमताज बशर था !! हिन्दूको अगर जान तो मुस्लिमका जिगर था! गङ्गाको अगर मौज तो जमनाकी लहर था !! वह सो गया सोया है मगर सबको जगाकर ! रूपोश हुआ पर्दे में, वह पर्दा उठाकर !! तस्वीरे मुहब्बत था, अहिसाका वह पैकर ! बहता हुआ बह रहम व हमीयतका समन्दर !! ऐ आह ! कि वह छुप गया न रशैद मनव्वर । हर मुल्कमें अन्धेर तो मातम हुआ घर घर !! तबका यह उलट जाय तो कुछ दूर नहीं है ! गान्धीकी मगर रूहको मंज़र नहीं है!! अब कौन है इस डूबती कश्तीका सहारा ! उन लोगोंका या दौर है जो हैं सितम आरा!! यह सदमा तो दिलको नहीं होता था गवारा! क्या डूब चुका हिन्दकी किस्मतका सितारा!! उम्मीद बढ़ी दिलकी लगे होश ठिकाने! अब दूसरा गांधी किया 'नहरू' को खुदाने !! जा देके बड़े कामको अंजाम दिया है ! कोमतको अहिसाकी अदा करके रहा है !! M गांधी जिया जिस तरहसे यूकौन जिया है! नाथने मगर हिन्दको बदनाम किया है!! जो शमा हिदायत थी उसे आह बुझा दी! जालिमने लगी भागमें और आग लगा दी ! यह उर्द कविता १२ फरवरी सन् १६४८ को सरसावाको सार्वजनिक शोकसभामें पढ़ी गई और पसन्दकी गई. OmanumaanamaATS AUTHORIJNORNHINDIMPAULEMALETUDIORAJASTHAN Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय चार आरा १-राष्ट्रपिताको श्रद्धांजलिट्रपिताके निधनपर हम क्या श्रद्धांजलि इस रोगसे प्रसित कुछ अभागोंको समिपात हो गया। अर्पित करें। हम तो उनकी भेड़ थे। और उसी सन्निपातके वेगमें उन्होंने राष्ट्रपिताका वध जिधरको संकेत किया बढे, जब रोका कर डाला । पुत्र ही पिताके घातक होगये। कके. पर्वतोपर चढनेको कहा चहे. श्रायकुल में आश्चर्य जनक घटनाएँ मिलतो। - और गिरनेको कहा तो गिरे। श्रद्धा- पुत्रने माताका वध किया, माताने पुत्रों को जानोंकी अलि तो हमारी पीढी दर पीढी भर्पित करेगी जिसे खाक छाननेको मजबूर किया। भाईने बहनके स्वतन्त्र भारतमें जन्म लेनेका अधिकार बापूने प्रदान बालकोंका वध किया। देवरने भाभीको नग्न करनेका किया है। बीड़ा उठाया, शिष्यने गुरुको मारा. मित्रने मित्रकी १५ अगस्तको जब समस्त भारत स्वतन्त्रता समा बहनका अपहरण किया। नारियोंने पतियोंके और रोहमें लीन था, तब हमारा राष्ट्रपिता कलकत्ते में । से पतियोंने नारियों के वध किये । परन्तु पत्रोंने पिताका बैठा साम्प्रदायिक विष पी रहा था। समग्र भारतकी । वध किया हो ऐसा उदाहरण आर्य, अनार्य, देश, इच्छा उसे अभिशिक्त करनेकी थी, परन्तु वह कल विदेशमें कहीं नहीं मिलता। गोडसेने यह कृत्य कत्ते से हिला नहीं। और उसने सांकेतिक भाषामें करके कलककी इस कमीको पूर्ण कर दिया है। सावधान कर दिया कि जिस समुद्रमन्थनसे स्वतंत्रता- एकही भारतमें दो नारियोंको प्रसव पीड़ाई। सुधा निकली है, उसीसे सांप्रदायवाद-हलाहल भी एकने बापूको और एकने गोरसेको जन्म दिया। निकल पड़ा है। यह मुझे चपचाप पीने दो। इसकी कितना आकाश-पातालका अंतर है इस जन्म देने में । बूद भी बाहर रही तो सधाको भी गरल बना देगी। एकने वह अमर ज्योति दी जिससे समस्त विश्व दीप्त और सचमुच उस हर्षोन्मादकी छीना-झपटीमें हमारे हो उठा, दूसरीने वह राह प्रसव किया जिसके कारण हाथों जो गरल छलकी तो वह पानी में मिटीके तेलकी आज भारत तिमिराछन्न है। एटम बमके जनकसे तरह सर्वत्र फैल गई। और दसरे पदार्थों के सम्मि- अधिक निकृष्ट निकली यह नारी। क्या विधाता इस श्रणसे उसका ऐसा विकृतरूप हा कि उसके पानसे नारीको बन्ध्या बनाने में भी समर्थ न हो सका। न तो हम मरते ही हैं और न जीते ही हैं। एदियां गोडसेके इस कृत्यने उसके वंशपर, जातिपर, रगड़ रगड़ कर छटपटा रहे हैं फिर भी प्राण नहीं प्रान्तपर कालिमा पोत दी है। गोड़से वंशकी कन्याएँ निकल रहे हैं। बरोंकी खोजमें भटकती फिरेंगी युवकोंकी ओर लालाइस सांघातिक महाव्याधिसे छुटकारा दिलाने यित दृष्टिसे देखेगी। परन्तु युवक क्या खुढे भी उस राष्ट्रपिता दिल्ली पहुंचे, उपचार चल ही रहा था कि ओर नहीं थूकेंगे। सर्वत्र थू थु दुर दुर लानत और Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्षे फटकार बरसेगी। नाथ गोडसे पर थूकना भी लोग मरते-मरते अभय दे गया, हिंसासे भी खिलखिलापसन्द नहीं करेंगे। कौन ऐसे वंशपर थूक कर अपने कर छेड़कर गया। थूकको अपवित्र करेगा? और हिंसाके भक्त जो दिन-रात लाठी-बर्छ ओ दुर्देव! तू अपने भयानक चक्र में फंसाकर दिखाते फिरते थे। आसुरी बलपर जिन्हें घमण्ड था, हमारे समुचित अपराधोंकी सजा देना। पर हमारे वही आज प्राणभयसे कुत्तोंकी तरह भागते फिर रहे देशमें, प्रान्तमें, समाजमें. वंशमें, ऐसा कलंकी उत्पन्न है। जो निशस्त्र गान्धीका मखोल उड़ाते थे, वे आज न करना ! भले ही हमारा पुरुषत्व और नारियोंका भेदोंकी तरह मिमया रहे हैं। एकसे भी सुखरू जनन अधिकार छीन लेना; परन्तु हमें इस अभिशापसे होकर जनताके सामने आते नहीं बना। पचाना। देव ! हम तेरे पांव पड़ते हैं, हमने इतना बापूके अहिंसक अनुयाइयोंपर गवर्नमेण्ट भी हाथ दीन हो कर त्रिलोकीनाथ जिनेन्द्रसे भी कभी कुछ न डालते हुए सहमती थी। गिरफ्तार होते थे तो मांगा, आज हम गिड़गिड़ाकर यह भीख मांगते है कि जेलखानोंको इस शानसे जाते थे कि देखनेवालाको हमारे देश में फिर ऐमा कलङ्की उत्पन्न न करना। उनके इस बांधपनपर गर्व होता था। शत्रु भी हृदयसे बापूको मृत्यु इस शानसे हुई जिसके लिये बड़े २ इज्जत देते थे। इसके विपरीत आसुरी बल और महारथो तरसते है। मगर नसीब नहीं होती- हिंसाके गीत गानेवालोंका जो हाल हुआ वह जो मरजावे खटिया पड़कर उसके जीवनको धिकार। दयनीय है। बचपनमें पालडाखण्डका यह पद्यांश सुना और राष्ट्रपिताने अपनी शानके योग्य ही मृत्युका अभी तक विस्मरण नहीं हुआ। विस्मरण होनेकी वरण किया, परन्तु हमें रह-रहकर एक कलमलाहट चीज भी नहीं है। बचपनसे ही देखता आ रहा हूं बेचन किये देती है। हजारों बपकी दुद्धर तपश्चर्याके कि सचमुच अधमसे अधम, गये बीतेसे गया बीता फलस्वरूप हमें जो निधि प्राप्त हुई, उसे हम सम्हालभी खटियार नहीं मरना चाहता, वह भी मरनेसे कर न रख सके। हम ऐसे पावले हो गये कि खुलेआम पूर्व खटियासे पृथ्वीपर ले लिया जाता है। रणक्षेत्र उसे रखकर खुर्राटे लेने लगे। हम अपनी इस या कार्यक्षेत्र धर्मक्षेत्र न सही पृथ्वीपर लेटकर प्राण मुर्खतापर उसी तरह उपहासास्पद हो गये हैं जिस देनेसे उसका तसव्वुर तो नेत्रों में रहता है। जिसका सरह एक मजदूर डीकी लाटरीको बांसमें रखे घूमता जोवन इतना संघर्षमय और व्यस्त हो, उसे खटिया- था। और लाटरी पानेकी खुशोमें उसने बांसको पर मरनेका अवकाश कहां? वह तो चलते-चलते, समुद्र में इस खयालसे फेंक दिया था कि जब इतना ईश्वर नाम लेते-लेते गया। एक नहीं, दो नहीं, रुपया मिलेगा तो बांसको रखकर क्या करूगा ? चार-चार गोली सीनेमें मर्दाना वार खाकर भी तो गिराधागेकी ओर। जिसने जीवन में कभी पीछे मृत्यु-महोत्सवइटना नहीं जाना वह अन्तिम समयमें भी पीछे क्यों नशास्त्रों में जितना महत्व मृत्युमहोत्सवको दिया गिरता ? कर्तव्य पथपर अग्रसर, जिह्वापर भगवान. "गया, है उसमें भी कई गुणा अधिक महत्व हमने का नाम, हृदयमें विश्व-कल्याणको भावना, मुखपर उसे अपने जीवनमें दे रक्खा है। मृत्यु-समय हँसते समाकी अपूर्व भाभा-बताइये तो ऐसी शहादतका हुए प्राण-त्याग देना, ममता-मोह लेशमात्र भी न दर्जाबापूके अतिरिक्त और किसको मयस्सर हुआहै? रहना और मृत्यु-वेदनाको सान्यभावसे सहन करने अहिंसाका पुजारी हिंसकद्वारा शहीद किया गया, भादिके उदाहरण साधु महास्मा, शूरवीर, धर्मनिष्ठ पर, हिसक क्या सचमुच विजय पा सका। विजय एव. देशभक्तों आदिके मिलते हैं। सर्वसाधारणसे तो बापूके ही हाथ लगी। यह क्षमाका अवतार ऐसी पाशा बहुत कम होती है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २) सम्प्रदायवादका अन्त पर, हमारी समाज में प्राय: छोटे बड़े सभी एक रहना, निश्चय ही भात्मघातसे भी अधिक जघन्य सिरेसे मृत्यु-समय महोत्सव मना रहे हैं। मृत्यु पाप है। उनके सर पर नाच रही है, पृथ्वी उनके पांचोंके पोलेण्ड और फिनलैंडका वही हश्र हुआ जो नोचेसे खिसकी जारही है। प्रलयके थपेड़े चप्पत निर्बल राष्ट्रों और अल्पसङ्ख्यक जातियोंका होता है। मारकर बतला रहे हैं कि रणचण्डीका तांडव नृत्य इस घटनासे शंकित आज कमजोर और असहाय राष्ट्र प्रारम्भ होगया है। उसका घातक प्रभाव आँधीको मृत्युवेदनासे छटपटा रहे हैं। निबेल राष्ट्र ही क्यों ? वे तरह संसार में फैल गया है। संसार के विनाशकी सबल राष्ट्र भी-जिनको तलवारोंके चमकनेपर बिजली चिन्ता और अपने अस्तित्व मिट जानेकी आशंका कौन्दती है, जिनके सायेके साथ साथ हाथ बान्धे हुए दूरदर्शी मनुष्योंके कलेजोंको खुरच-खुरच कर खाए विजय चलती है, जिनके इशारे पर मृत्यु नाचती हैजारही है। पृथ्वीके गर्भ में जो विस्फोट भर गया है आज उसी सतृष्ण दृष्टिसे अपने सहायकोंकी ओर वह न जाने कब फूट निकले और इस दीवानी दुनिया देख रहे हैं। जिस तरह डाकुओं से घिरा हुआ काफिला को अपने उदर-हरमें छुपा ले। एक क्षण भरमें (यात्री दल)। क्योंकि उनके सामने भी अस्तित्त्व मिट क्या होनेवाला है-यह कह सकनेकी आज राजनीति जानेको सम्भावना घात लगाये हुए खड़ी है । इस के किसी भी पंडितमें सामर्थ्य नहीं है। संसार समुद्र प्रलयंकारी युगमें जो राष्ट्र या समाज तनिक भी असामें जो विषैली गैस भर गई है वह उसे नष्ट करने में वधान रहेगा, वह निश्चय ही प्रोन्धे मुँह पतनके कालसे भी अधिक उतावली है।। गहरे कूपमें गिरेगा । अत: जैन समाजको ऐसी परिकिन्तु, जैनसमाजका इस ओर तनिक भी ध्यान स्थिति में अत्यन्त सचेत और कर्तव्यशील रहनेकी श्रा. नहीं है। वह उसी तरहसे अपने राग रङ्गमें मस्त है वश्यकता है। दख. चिन्ता, पीड़ा आदिके होते हुए भी आनन्द- ३-सम्प्रदायवादका मन्तविभोर रहना. मुसीबतोंका पहाड़ टूट पडनेपर भी जब भारत स्वतन्यानो मुस्कराना नमुष्य के वीरत्व साहस और धैर्यके विषम परिस्थितियोंने घेर लिया है। पाकिस्तानी, रिचिह्न हैं। पर जब यही क्लेश, दुख. चिन्ता आदि यासती और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओंके हल करने में तो दसरेको पीड़ित कर रहे हों. तब उनका निवारण न वह चिन्तित है हो, अपने आन्तरिक मामलोसे वह करके अथवा समवेदना प्रकट न करके आनन्द रत और भी परेशान है। जिन रूदिवादियो, प्रगतिविरहना मनुष्यताका द्योतक नहीं। गाना अच्छी चीज रोधियों, पोंगापन्थियों, जी हजुरों, पूंजीपतियों आदि है, पर पड़ौसमें आग लगी होनेपर भी सितार बजाते ने स्वतन्त्रता प्राप्तिमें विन्न डाले और हमारे मार्गमें रहना, उसके बुझानेका प्रयत्न न करना आनन्दके पग-पग पर कांटे बिछाये, वही आज सम्प्रदायवाद, बजाय क्लेशको निमन्त्रण देना है। जहाजका कप्तान प्रान्त बाद और जातीयतावादोंके मरहे लेकर खड़े हो अपनी मृत्युका आलिंगन मुस्कराते हुए कर सकता है, गये हैं। जिन भलेमानुषों (?) ने गुलामीकी जंजीर पर यात्रियोंको मृत्युको संभावनापर उसका श्रानन्द में जकड़ने वाली ब्रिटिशससाको हद बनाने के लिये विलीन हो जाता है और कर्तव्य सजग हो उठता है। लाखों नवयुवक फौजमें भर्ती कराके कटा डाले,भ हम भी इस संसार-समुद्र में जैनसमाज-रूपी जहा- संख्य पशुधन विध्वंस करा डाला और यहांका अनाज जमें यात्रा कर रहे हैं। जब संसार सागर विक्षुब्ध बाहर भेजकर लाखों नर नारियों और बालक बालिहो उठा है और उसकी प्रलयकारी लहरें अपने अन्त- काओंको भूखे मार डाला. वही आज "धर्म इबा धर्म स्थल में छपाने के लिये जीभ निकाले हए दौड़ीपारही इवा" का नारा बुलन्द करके सम्प्रदायवादका पवार हैं तब हमारा निश्चेष्ट बैठे रहना, रागरण में मस्त उठा रहे हैं। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त । वर्ष ऐसेही स्वार्थी धर्मभेषिोंको बहकाकर सम्प्रदा- हम पूछते हैं जब पागलोंको पागलखाने और यवादके नाम पर शासनसत्ता अपने हाथमें लेनेका संक्रामक रोगियोंको तुरन्त एकान्त स्थानमें भेज दिया अधम प्रयत्न कर रहे हैं। प्रान्तवादका यह हाल है कि जाता है, फिर इन सांघातिक धर्मोन्मादकों, मजहवी १-२ प्रान्तोंको छोरकर प्रायः सभी प्रान्त वाले एक- दीवानों और सम्प्रदायवादियों को कारावास क्यों नहीं दूसरेको घृणा करने लगे हैं। प्रान्तीय सुविधाएँ और भेजा जाता? जो मानव अपने देश, धर्म, समाज नोकरियां अन्य प्रान्तीय न लेने पाएँ। इसके लिये और वंशके लिये अभिशाप होने जा रहा है, उसकी प्रयत्न प्रारम्भ हो गये हैं। जातीयवादका यह हाल है क्यों नहीं शीघ्रसे शीघ्र चिकित्सा कराई जातो? कि कुछ लोग महाराष्ट्र साम्राज्यका दुःस्वप्न देख रहे जिन्हाकी धर्मान्धताके कारण मुसलमानोंको कैसी है । कुछ जाटि तान, कुछ सिक्खस्तान और कुछ दुर्गति हुई गोडसे के कारण हिन्दुसभा, राष्ट्रीयसङ्घ, अयूतस्तान बनाने के काल्पनिक घोड़े दौड़ा रहे हैं। महागणप्रान्त, महाराष्ट्रीय ब्राह्मणोंको कितना कलङ्कित हर कोई अपनी डेढ़ चावलकी खिचड़ी अलग-अलग होना पड़ा. उनपर कैसी आपदाएं आई और ईसाके पका रहा है। परिणाम इसका यह होरहा है कि भारत घातक यहूदी आज किस जघन्य दृष्टिस देखे जाते हैं, स्वतन्त्र होकर उत्तरोत्तर उन्नत और बलवान होनेके बताने की आवश्यकता नहीं। अत: हमें अपनी बजाय अवनत और निर्बल होता जा रहा है। समाजमें सम्प्रदायवादका प्रवेश प्राणपणसे रोकना सम्प्रदायवाद के नामपर भारत में जो इन दिनों चाहये। हम भगवान महावीरके अहिंसा, सत्य, नरमेधयज्ञ हा है-यदि उसके नर-कवालोंको अपरिग्रहत्व और विश्वबन्धुत्वके प्रसार के लिये सम्प्रएकत्र करके हिमालय के समक्ष रखा जाय तो वह भी दायवादके दल-दलमें न फंसकर अनेकान्त-ध्वजा अपनी हीनतापर रो उठेगा। इस सम्प्रदायवाद के फहरायेंगे। आज अनेकान्ती बन्धुओंको साख्यवाद, विषाक्त कीटाण अब इतने रक्त पिपास हो गये हैं कि शैववाद, नैयायिकवाद, चार्वाकवादसे लोहा नही अन्य सम्प्रदायोंका रक्त न मिलनेपर अपने ही सम्प्र- लेना है। उसे विश्व में फैले, सम्प्रदायवाद, जातीयदायका रक्त पोन लगे हैं। महात्मा गान्धी इसी वाद, प्रान्तवाद, गुरुडमवाद, परिप्रवादसे संघप घिनोने सम्प्रदायको वेदीपर बलि चढ़ा दिये गये हैं। करना है। और न जाने कितने नररत्न श्रेष्ठोंको तालिका अभी ४-हिन्द और जन-- बाकी हैं। हमारी समाजके ख्यातिप्राप्त विद्वान डाक्टरहीरा"घोड़ेके नाल जड़तो देखकर मेड़कीने भी नाल लालजीका उक्त शोषकसे जैनपत्रों में लेख प्रकाशित हुआ जड़वाई" यानी; परन्तु इन विपेले कीटाणुओंका है! जैन अपनेको हिन्दू कहे या नहीं ? यदि नहीं घातक प्रभाव हमारी समाजके भी कतिपय बन्धुओं- कहें तो हिन्दुओंको मिलने वाली सुविधाओंसे सम्भवपर हुआ है। जिसके कारण वे तो नष्ट होंगे ही, पर तया जैन बंचित कर दिये जाएंगे । और बहिष्कारको मालूम होता है कि जिस नांवमें वे बैठे हैं उसे भी ले भी सम्भावना है। यही इस लेखका सार है। जो भय दूबनेका इरादा रखते है। और चिन्ता डाक्टर साहबको है, वही चिन्ता और वेतो दूबेंगे सनम हमको भी ले इबगे। भय प्रायः सभी समाज-हितेपियोंको खुरच खुरचकर सम्प्रदायवाद जब असाध्य हो जाता है तब रोगी खाये जा रहा है। और अब वह समय आगया है सन्निपातसे पीड़ित धर्मोन्मादावस्थामें बहकने लगता कि हम इस ओर अब अधिक उपेक्षा नहीं कर सकते। है-"हमारा धर्म भिन्न, संस्कृति भिन्न. आचार भिन्न, शिकारीके भयसे आंख बन्द कर लेने या रेतेमें गर्दन व्यवहार भिन्न, कानून भिन्न और अधिकार भिन्न हैं। छिपा लेनेसे विपत्ति कम न होकर बढेगी ही। हम सबसे भिन्न विशेष अधिकारों के पात्र हैं।" जिस सिन्धु नदीके कारण भारत हिन्द कहलाया, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २) श्रेष्ठ नागरिक वह तो भारतमें न रहकर पाकिस्तान में चलोगई। और जानेकी आवश्यकता नहीं। पर हमारे मूलपुरुष यहीं अपने भारत को पराधीनताको अमिट निशानी "हिन्दू" जन्में, यहीं निर्वाणको प्राप्त हुए हैं। भारतको उन्नत यहां छोड़ गई। हिंन्दू परतंत्र पद दलित और विजित बनाने में हमने भरसक और अनथक कार्य किये हैं। भारतका बलात् नाम करण है और मुस्लिम शब्द अत: हमारे देशका नाम यदि भारत ही रहता है तो कोषोंमें हिन्दूका अर्थ गुलाम या काफिर किया गया है। हम भारतीय जैन हैं और यदि हिन्द रहता है तो हम अत: भारतका उपयुक्त प्राचीन नाम तो भारत ही श्रेष्ठ हिन्दी या हिन्दु जैन हैं। हम अपने लिये न कोई है। और इसके निवासी सभी भारतीय हैं। जैन भी विशेष अधिकार चाहते हैं न अपने लिये कोई नये भारतीय जैन हैं। परन्तु हिन्दु शब्द रूढ होजाने से कानूनका सृजन चाहते है। हमने सबके हितमें यदि भारतका नाम हिन्द भी रहता है तो यहांके सभी अपना हित और दुखमें दुख सममा है और आगे निवासी हिन्दू या हिन्दी है चाहे वे आर्य, जैन, बौद्ध, भी समझेगे। भगवान महावीरके अहिंसा, सत्य सिक्ख, मुस्लिम, ईसाई पारसी कोई भी क्यों न हो। और अपरिग्रहत्व और विश्वबन्धुत्वकी अमृत वाणोको हां मनुष्य आर्य हिन्द जैन हिन्दू या मुस्लिम हिन्द साम्प्रदायिक पोखर में डालकर अपवित्र नहीं होने देंगे लिखने का अधिकारी है। - राष्ट्रकी भलाई में हम हिन्दू है, हिन्दी हैं और भारतीय किन्तु हिन्दू शब्द भी एकवर्ग विशेषके लिये रूढ़ हैं; किन्तु यदि हिन्दू शब्द किसी विशेष सम्प्रदाय. होगया है, जिसमें इतर धर्म पर आस्था रखने वालों वादका पोपक है किसी खास बगेवादका द्योतक है, केलिये स्थान नहीं है। इसीलिये हर राष्ट्रीय विचारका और प्रजात-त्रके सिद्धान्तोंको कुचलकर नाजी या मनुष्य अपने को हिन्दू न कर हिन्दी कहता है। हालांकि फासिस्ट वाद जैसा सम्प्रदायवाद या जातिवादका दोनोंका अर्थ भारत निवासी ही है । परन्तु प्रचलित परिचायक है तो जैन केवल मनुष्य हैं। सम्प्रदायरूढिके अनुसार हिन्दू एक सम्प्रदायवादका और हिन्दी वाद या साम्राज्यवादका एक महल बनाने में वे कभी भारतीयताका द्योतक बन गया है । और आगे चल सहायक न होंगे। चाहे सभी जैन राष्ट्रपिता बापूकी कर भाषाके मामले में हिन्दी शब्दभी समस्त भारतीयों तरह बलि चढ़ा दिये जाएँ। की भापाका द्योतक न होकर नागरीलिपि का रूपक -श्रेण नागरिकहो गया है। महात्मागांधी भारतीयताके नाते तो हिन्दी सम्प्रदायवाद के साथ-साथ जैनोंको राजनैतिक थे; परन्तु भाषाके प्रश्नपर वे हिन्दीके समर्थक न होकर सकोसे भी बचना होगा। कभी शासनसत्ता गांधीहिन्दुस्तानीके समर्थक थे । जो हिन्दी शब्द सभी सम्प्र- वादियों, कभी समाजवादियों, कभी कम्युनिस्टों और दायवाले भारतीयोंके एकीकरणके लिये उपयुक्त कभी किमीके हाथमें होगी। शासनसत्ता हस्तांतरित समझा गया, वही हिन्दी शब्द एक विशेष अर्थ में रुढ करने के लिये व्यापक पडयन्त्र और नर-हत्याएँ भी हो जाने के कारण सभी भारतीयोंको मिली जुली भाषा होगी। शासकदल विरोधी पक्षको कुचलेगा, विरोधी केलिये उपयुक्त नहीं समझ कर और उसके एवज पक्ष विजयी दलको चैनसे सांस न लेने देगा। ऐसी "हिन्दुस्तानी" शब्दका प्रचलन किया गया। और स्थिति में अल्पसंख्यक जैनसमाजका कर्तव्य है कि वह अब इसका भी एक रूढ अथ हो गया है, अर्थात सामूहिक रूपमें किसी दल विशेषके साथ सम्बन्ध न हिन्दुस्तानी बह खिचड़ी भाषा जिसे कोई भी अपनी जोड़े। हां व्यक्तिगत रूपसे अपनी इच्छानुसार हर न समझे। लावारिस वर्णशंकरी भाषा। व्यक्तिको भिन्न भिन्न कार्य क्षेत्रों में कार्य करनेका अधि कहनेका तात्पर्य है कि जैन, जैन है। हम भारत कार है। यह भावना कि हम जैन हैं इसलिये हमें के आदि निवासी हैं आय-अनार्य कौन बाहरसे आया इन नो सोटें और इतनी नौकरियां मिलनी चाहिए" और कौन यहांका मूल निवासी है, हमें इस पचड़ेमें हमारे विकाशमें बाधक होगा। हम अपनेको इस Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक अनेकान्त वर्ष । योग्य बनाये किहर उपयक्त स्थानपर हमारी उपादे- अपनी घातक नीतिके कारण केवल एक सीट के लिये यता प्रकट हो। "योग्य व्यक्तियोंके स्थानपर भी पृथ्वी आकाश एक कर चुके हैं। अभी तक यह लोग हम अयोग्योंको इसलिये लिया जाय कि हम अमुक बिनेकावार और दस्से जैनों के लिये पूजा पाठ रोके बगेसे सम्बन्धित है" यह नारा मुसलमानों, सिक्खों, हुए थे। चाहे जिसका बहिष्कार करके दर्शन-पूजा अछूतोंका रहा है। हम इस नारेको हरगिज न बन्द कर देते थे। अब हरिजनोंकेलिये मन्दिर दुहराएँगे। हमें तो अपनेको इस योग्य बनाना है खुलते देख इन्हें भय हुआ कि जब हरिजन ही मंदिरों कि विरोधी पक्ष इच्छा न होते हुए भी अपने लिये में प्रवेश पा जाएंगे, तब इन अभागे दस्सोंको कैसे निर्वाचित करें। पएमुखमचेट्री कांग्रेसके प्रबल रोका जायगा? अत: चट एक चाल चली और विरोधी होते हए भी केवल योग्यताके बलपर काँग्रेसी "जैन हिन्द नहीं हैं" यह लिखकर उस कानूनके सरकारमें सम्मिलित हुए। उसी तरह जैनोंको सम्प्र अन्तर्गत जैन उपासना-गृहोंको नहीं आने दिया। पर दायके नामपर नहीं, अपनी योग्यता, बीरता, धीरता, इन दयावतारोंने यह नहीं सोचा कि जैन यदि बहुसको लेकर आगे बढ़ना है। हम जैन अपनेको इतना ज्यक जातिके साथ कानून में नहीं बंधते हैं तो उन्हें श्रेष्ठ नागरिक बनाएँ कि जैनत्व ही श्रेष्ठताका परि- बहसंख्यक जातिको मिलने वाली सारी सुविधाओंसे चायक हो जाय। जिस तरह विशिष्ट गुण या भव- बञ्चित होना पड़ेगा। और यह नीति आत्म-घातक गुणके कारण बहुत सी जातियां ख्याति पाप्ती हैं। सिद्ध होगी। हिदुओंसे पृथक सममने वाली मुसलउसी तरह हमारे लोकोत्तर गुणोंसे जैनत्व इतनी मान जातिका माज भारतमें क्या हश्र हुआ ? वे प्रसिद्धि पाजाय कि केवल जैन शब्दहीहमारी योग्यता अपने ही वतनमें बदसे बदतर हो गये। उनकी प्रामाणिकता, सौजन्यता, भद्रताका प्रतीक बन जाय । मस्जिदें वोरान होगई, व्यापार चौपट होगये, और ६-पांचवें सवार-- घरसे निकलना दुश्वार होगया, यहां तक कि बाइज्जत अपनी समाजमें कुछ ऐसे चलते हुए लोग भी हैं, मरना भी उनके लिये मुहाल होगया। ऐंग्लोइण्डिजिनका न राजनीतिमें प्रवेश और न देशके लिए ही यन्सका जिनका स्त्र दा इंगलेण्डमें रहता था, आज उन्होंने कभी कोई कष्ट सहन किया। अपितु सदैव भारतमें क्या व्यक्तित्व रह गया है ? तब क्या जैन प्रगतिशील कार्यो में विघ्न स्वरूप बने रहे हैं। दस्सा समाजके ये जिन्हा जैनोंको भी उसी तरह बर्बाद पूजनाधिकार, अन्तर्जातीय विवाह, शास्त्रोद्धार, नुक्ता करना चाहते हैं। उस जिन्हामें सूझ थी, बुद्धि थी, प्रथाबन्दी बाल-वृद्ध विवाह आदि आन्दोलनों के अक्ल थो, कानूनकी अपार जानकारी थी। मुसलविरोधी रहे हैं। हर समाजोपयोगी कार्यो में रोड़े मानोंके लिये उसके पास धन था और समय था। घटकाते रहे हैं। सुधारकों और देशभक्तोंको अधर्मी जिसने अपने प्रलयकारी आन्दोलनसे पर्वतोंको भी कहते रहे हैं, उनका बहिष्कार करते रहे हैं वही आज विचलित कर दिया था। बाम्जालमें अच्छे-अच्छे इन लोगों के हाथमें सत्ता माते देख खुशामदी लेख राजनीतिज्ञोंको फंसा लिया था, फिर भी वह मुसललिख रहे हैं, पत्रों के विशेषांक केवल उनके लेख पाने मानोंका अनिष्टकारक ही सिद्ध हुआ। फिर जैन के लोभसे निकाल रहे हैं, और जैन स्वत्व अधिकार समाजके ये जिन्हा जिन्हें अक्ल कभी मांगे न मिली, के नामपर मनमाना प्रलाप करके समाजके मस्तकको जैन स्वत्वके नामपर वायवेला मचाते हैं तो यह नीचा कर रहे हैं। समाजके किए गये बहुमूल्य समझने में किसी समझदारकी देर न लगेगी कि जैनबलिदानका मोल तोल कर रहे हैं। समाजकी नैया जिस तूफानसे गुजर रही है, उसे जो जैन अपनी योग्यता और लोकसेवी कार्योके चकनाचूर करने और डुबाने में कसर न छोड़ेंगे। बलपर अधिकसे अधिक जाने चाहियें। वहां ये -गोयलीय Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिरको सहायता अनेकान्तको सहायता--- (गत १२ वी किरणके बाद) २५) ला० उदयगम जिनेश्वरदासमी सहगु २५) लाहोरीलाल नेमचन्दजी जैन, सरसावा की भोरसे ३ जैन संस्थाओं और दो जनेतरर (चि०प्रेमचन्दके विवाहकी खुशीमें निकाले विद्वानोंको फ्री भिजवाने के लिये। हुए दानमेंसे) १०) लाहोरीलाल नेमचन्दजी (चि० प्रेमचन्द १०) ना. मेहरचन्द शीतलप्रसादजो जैन, के विवाहको म्वुशी में निकाने हुए दानमें से) अब्दुल्लापुर जिला अम्बाला (चि०सुपुत्रीके . ११) बा० रामस्वरूपजी मुरादाबादके (चि० पुत्र विवाहोपलक्षफी खुशोमें) को शादीको खुशीमें निकाले दानमें से) . ५) मुख्तार श्रीजुगल किशोरजीकी ७१ वीं षषगांठ ५) मुग्तार श्रीजुगलकिशोर जीको ७१ वी वपै के अवसरपर निकाले हुए दानमें से प्राप्त गाठके अवसरपर निकाले दानमें से प्राप्त ४०) भारताय ज्ञानपीठ काशाके प्रकाशन - १. महाबन्ध-(महाधवल मिद्वान्न शास्त्र प्रथम भाग। णिक गैमोम) मूल्य ४१) हिन्दी टीका सहित मूल्य १२) .दो हजार वपैकी पुरानी कहानियां-(६४ जैन २. करलक्खण -(मामुद्रिक शास्त्र) ग्दिी अनुवाद कहानियो)व्याख्यान नया प्राचनौम उदाहरण देने योग्य - माहित । हस्तरेगा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ । ममादक-पो०१. पथचित-(हिन्दी माहिन्यकी अनुपम पु-TE) स्मृति प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम००, अमरावती । मूल्य १) गाएं और निवन्ध । मूल्य २) ३. मदनपराज्य-कवि नागदेव विरचिन (मूल मंत) १०. पाश्रात्य तकशास-हिला भाग) प ० के. भाषानुवाद नया विस्तृत प्रस्तावनामहिना । जिनंदबके कामके लानिक के गठ्यक्रमकी पाक । लेखक-मत जगदीश जी पगजका सरम रूपक । सम्पादक और अनुवादक- काश्यप, भ. प., पालि-अध्या, दिगिलय राजकुमारजी सा० मूल्य८) काशी । ! ३८४ । मूल्य ४॥) ४. जैनशासन-जैनधर्मका परिचय नया विवचन करने ११. फुन्दकुन्दाचायक तीन ग्ल-२)। वाली सुन्दर रचना । हिन्द विश्वविद्यालयके जैन रिलो जनके १२. कन्नडप्रान्मीय ताडपत्र अन्धमूची-(हिन्दी) मूगिद्र एफ. ए. के पाठ्यक्रममें निर्धारित । कवर पर महावीरस्यामी के नमठ, जैनभवन, मिद्वान्नवदि नया अन्य ग्रन्य का तिरंगा चित्र मूल्य ४/-) भण्डार काग्कल श्रोर अलिपुरक अलभ्य नाइपत्रीय प्रन्योक ५. हिन्दी जैन साहित्यका मंतिप्त इतिहास-हिन्दी विवरण परिचय । प्रत्येक मन्दि में नया शास्त्रभंदारम पिरा जैन साहित्यका इनिहाम नथा परिचय । २) जमान कग्नेयोन्य । १०) ६. आधुनिक जैन कविवर्तमान कवियाँका कलात्मक वीर सेवामन्दिरके सब प्रकाशन यहांपर मिलने है परिचय और मुन्दर रचनाएँ । मूल्य ३१) -प्रचारार्थ पुस्तक मंगानेवालाको विशेष मुविधा। ७. मुक्ति-दूत-यजना-यवनजयका पुरापचरित्र (पौरा भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गावुण्डरोड, बनारस । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. A-731. Mitrdas.3..3.2013 ASMAHA कीरमधामन्दिरके नये प्रकाशन ४SUrdstre-ster-mUt-1 PHPra2427.ma-USERE: १ अनित्यभावना- मुख्तार श्रीजुगलकिशोरके ६ न्याय-दीपिका (महत्वका नया संस्करण). हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ-सहित । इष्टरियोगादिके न्यायाचार्य पं. दरवारीलालजी कोठियाद्वारा सम्पादित कारण कमा दी शोकमन्तत हृदय क्यों न हो, इसको एक और अनुवादित न्यायदीपिकाका यह विशिष्ट संस्करण - बार पढ़ लेनेने बड़ी ही शान्तताको प्राप्त हो जाता है। अपनी खाम विशेषता रखता है। अब तक प्रकाशित इसके पाठसे उदामीनता तथा खेद दूर होकर चिचमें संस्करणोंमें जो अशुद्धियर्या चली श्रारही थी उनके प्राचीन प्रसन्नता और सरसना श्राजाती है। सर्वत्र प्रचारके प्रतियोंपरसे संशोधनको लिये हुए यह संस्करण मूलग्रंथ । योग्य है । मू०) और उनके हिन्दी अनुवाद के साथ प्राक्कथन, सम्पादकीय २ आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थमत्र- नया १०१ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावना, विषयसूची और कोई ८: प्राप्त संक्षिप्त सूत्रग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी सानुवाद परिशिष्टोंसे संकलित है, साथमें सम्पादक-द्वारा नवनिर्मित ध्याख्या सहित । मू०) 'प्रकाशाख्य' नामका एक संस्कृत टिप्पण लगा हुअा है, . ३ सत्साधु-स्मरण-मङ्गलपाठ- मुख्तार श्री- जो ग्रन्थगत कठिन शन्दों तथा विषयोंका खुलासा करता जुगलकिशोरको अनेक प्राचीन पद्योको लेकर नई योजना, हुआ विद्यार्थियों तथा कितने ही विद्वानोंके कामकी चीज मुन्दर हृदयग्राही अनुवादादि-मदित । इसमें श्रीवीर है। लगभग ४०० पृष्ठोंके इरा सजिल्द वृहत्संस्करणका : यद्धमान और उनके यादवे, जिनमेनाचार्ग पर्यन्न, २१ लागत मूल्य ५) रु. है। कागजकी कमी के कारण थोडी महान प्राचार्योके अनेकों श्राचायो मथा विद्वानों द्वारा ही प्रतिया की है। अत: इन्सकोंको शीघ्र ही मंगा: किये गये महत्वके १३६ पुण्य स्मरणोंका संग्रह है और लेना चाहिये। शुरुमै १ लोकमक्कल-कामना, २ नित्यकी श्रात्म-प्रार्थना, ७ विवाह-समुद्देश्य-लग्यक प० जुगलकिशोर ३ साधुवेशनिदर्शक-जिनस्तुति, ४ परमसाधुमखमदा और मुख्नार, हालमें प्रकाशित चतुर्थ सस्करण। ५ सत्माधुवन्दन नामके पांच प्रकरण है। पुस्तक पढ़ते यह पुस्तक दिन्दी-साहित्यमे अपने हंगकी एक ही समय पड़े ही सुन्दर पवित्र विचार उत्पन्न होते है और चीज है। इममें विवाह जैसे महत्वपूर्ण विषयका बड़ाही. साथ ही प्राचार्योका कितना ही इनिहाम सामने श्राजाना मार्मिक और तालिक विवेचन किया गया है, अनेक । है। नित्य पाठ करने योग्य है। मू०॥) विरोधी विधि-विधानों एवं विचार-प्रवृनियमि उत्पन्न दुई। ४ अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड- यह पञ्चाध्यायी विवाहकी कठिन और जटिल ममस्यायोंको यट्टी युक्ति तथा लाटी सहिता श्रादि अन्योंके कर्ता कविवर गजमल्लकी साथ हारक स्पष्टीकरण द्वारा मुलझापा साथ हटके स्पष्टीकरण-द्वारा मुलझाया गया है और इस अपूर्ण रचना है। हममें अध्यात्मसमुद्रको कमें बन्द तरह उनमें दृष्टिविरोधका परिहार किया गया है। विवाह : किया गया है । सायमें पायाचार्य प० दरबारीलाल कोठिया क्यों किया जाता है? धर्मसे, ममाजसे और गृहस्थाश्रममे : और परिहा परमानन्दजी शास्त्रीका सुन्दर अनुवाद, उसका क्या सम्बन्ध है? यह कब किया जाना चाहिये . विस्तृत विषयसूची तथा मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीकी उसके लिये वर्ण और जानिका क्या नियम हो सकता है ? लगभग ८० पेजमा मदनपूर्ण प्रस्तावना है। बड़ा हो विवाह न करनेसे क्या कुछ हानि-लाभ होता है? उपयोगी प्रन्न है। मृ.१॥) इत्यादि बातोंका इस पुसाकका बड़ा ही युक्ति पुरस्सर : ५ उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा- मुख्तार एवं हृदयग्राही वर्णन है। पार्ट पेपर पर छगी है । श्रीजुगलकिशोर जीकी प्रथरीक्षायों का प्रथम अंश. विवाहोंके अवसरपर वितरण करने योग्य है। मू०॥) अंग-परीक्षाओं के इतिहास को लिये हुये १४ पेजकी नई प्रकाशन विभागप्रहावना-महित । मू०) वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) N - माता ( TRENT माज.rani .marart:+' Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुन, मवन .४ माच, मन १९४८ अचान पायापक भाग्नीय ज्ञानपीठ, काशी वीरमबामन्दिर, मम्मावा मम्पादक-मंडल जुगलकिशार मुन्नार प्रमान सम्पादक मुनि कान्तिमागर दरबारीलाल न्यायाचार्य अयाभ्याप्रमाद गायलीय डानामपानकार वह । लग्नापर पारितोपिक 'अनेकान्न' के इस परं वपमें प्रकाशिन मवश्रेष्ठ लेखापर इदमा १५... मी १०७) और पनाम ५०) का पारितोपिक दिया जाएगा । इस पारितोषिक म्पर्धाम मम्पादक, व्यवग्थापक और प्रकाशक नही रहेंगे । बाहरक विद्वानोंके लग्योंपर ही यह पारितोपिक दिया जाएगा । लेखांकी जाच ऑर नन्मम्बन्धी पाग्निीपिकका निर्णय 'अनकान्न'का सम्पादक मण्टन करेगा। व्यवस्थापक 'अनकान' Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष अनेका फाल्गुन, संवत् २००४ :: मार्च, सन् १९४८ संस्थापक-प्रवर्तक वीरसेवामन्दिर, सरसावा सम्पादक-मंडल जुगलकिशोर मुख्तार प्रधान सम्पादक लेखोंपर पारितोषिक 'अनेकान्त' के इस पूरे वर्ष में प्रकाशित सर्वश्रेष्ठ लेखोंपर डेढ़ सौ १५०, सौ १०० और पचास ५० का पारितोषिक दिया जाएगा । इस पारितोषिक-स्पर्धामें सम्पादक, व्यवस्थापक और प्रकाशक नहीं रहेंगे। बाहरके विद्वानोंके लेखोंपर ही यह पारितोषिक दिया जाएगा । लेखोंकी जांच और तत्सम्बन्धी पारितोषिकका निर्णय 'अनेकान्त'का सम्पादक मण्डल करेगा । व्यवस्थापक 'अनेकान्त' 55555 मुनि कान्तिसागर त्त दरबारीलाल न्यायाचार्य अयोध्याप्रसाद गोयलीय डालमियानगर (बिहार) किरण ३ सञ्चालक-व्यवस्थापक भारतीय ज्ञानपीठ, काशी Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची विषय १. होली होली है ! (कविता) - [ 'युगवीर ' .... २. समन्तभद्र - मारती के कुछ नमूने (युक्त्यनुशासन ) - [ सम्पादक ३. गाँधीजीका पुण्य-स्तम्भ - [ श्रीषासुदेवशरण अग्रवाल ४ रत्नकरण्डके कर्तृत्व- विषयमें मेरा विचार और निर्णय - [सम्पादक ५. पं० गोपालदासजी वरैया - [ अयोध्याप्रसाद गोयलीय ६. यशोधरचरित्र सम्बन्धी जैन साहित्य - [ श्री अगरचन्द नाहटा ७ शङ्का समाधान - [ दरबारीलाल कोठिया भिक्षुक मनोवृत्ति - [ अयोध्याप्रसाद गोयलीय - ९. सम्पादकीय - [ अयोध्याप्रसाद गोयलीय १० निरीक्षण और सम्मति - [पं० कैलाशचन्द्र जैन शास्त्री ११. साहित्य- परिचय और समालोचन - [ दरबारीलाल कोठिया .... www. .... ---- .... .... .... पृष्ठ ८९ ९० ९१ ९७ १०५ १०८ ११३ ११५ ११९ १२३ १२४ विद्वत्परिषद्का चतुर्थ वार्षिक अधिवेशन श्री भा० दि० जैन विद्वत्परिषदका चतुर्थ वार्षिक अधिवेशन पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय न्यायाचार्य पं० गणेशप्रसादजी वर्गीकी, जिन्होंने अब क्षुल्लकके महनीय पदकी दीक्षा ले ली है, अध्यक्षताम ता० २४, २५ मार्च सन् १६४८ को बरुआसागर (झाँसी) में पूर्व समारोह के साथ सम्पन्न हुआ । इस अधिवेशनमं भाग लेनेके लिये इन्दौर, बनारस, बडीत, सूरत, जबलपुर, सागर, बीनाललितपुर, पपोरा, मथुरा, देहली, मेरठ, महारनपुर, देहरादून, सरसावा आदि देशके विविध भागों विद्वान् और धार्मिक-जन पधारे थे । क्षुल्लकजी महाराजके सघमे अनेक त्यागी, ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणी, क्षुल्लक श्रादि बतीजन पहले ही मोजूद थे और जिनका भी एक महत्वका व्रती सम्मेलन हुआ । श्राह्निका पर्वका समय होनेके कारण बहुत धार्मिक श्रानन्द रहा । श्रनेक लोगोंने प्रतादि ग्रहण किये । वात्सल्य मूर्ति बाबू रामस्वरूपजी वरुासागरकी रमे सिद्धचक विधान हुआ और अन्य समस्त प्रायोजन भी इन्हींके द्वारा हुए । विद्वानोके महत्वपूर्ण मार्मिक भाषण हुए । इस अधिवेशनमे विद्वत्परिषद्ने नये अनेक प्रस्ताव पास न कर पुराने प्रस्तावोंको ही तत्परता के साथ अमल में लानेके लिये दोहराया। महात्मा गाँधी की मृत्युके शोक प्रस्तावके अतिरिक्त एक महत्वका नया प्रस्ताव यह किया गया है कि जैनममाजसे अनुरोध किया जाय कि वह अपने योग्य विद्यार्थियों को अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, आदिकी उच्च शिक्षा प्राप्त करनेके लिये विदेशोंमे भेजनेके वास्ते एक बृहत् छात्रवृत्ति फण्ड कायम करें। इमो फण्डसे विदेशों में जैन-सस्कृति और अहिंसा प्रधान जैनधर्मका प्रचार करनेके लिये योग्य विद्वान भेजे, जा एक वर्ष तक विद्वत्परिषद् के नियन्त्रणमें रहकर उच्चतम धार्मिक शिक्षा श्रार श्राचरणका अभ्यास करें । अधिवेशन में आर भी अनेक समस्या पर गहरा विचार हुआ । वर्णीजी (त्र क्षल्लकजी) की अध्यक्षता से विद्वत्सम्मेलनको एक सबसे बडा लाभ यह हुआ कि विद्वानोंमें उच्च चारित्रकी भावना दृढमूल होती जारही है और उसमें पर्याप्त वृद्धिकी आशा है । शङ्का समाधान विभाग पूर्ववत् कायम रहा । उसमें बाबू रतनचन्दजी रि० मुख्तार सहारनपुरका नाम और शामिल किया गया है । इस तरह यह अधिवेशन विचार लाभ, धर्मलाभ, सज्जन समागम आदि कई दृष्टियोंसे महत्वपूर्ण रहा। श्रार सनीने वर्गीजीकी श्रमृतवाणीका पूर्व लाभ लिया । दरबारीलाल कोठिया Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम् वस्तुतत्त्व-सघातक " विश्वतत्त्व-प्रकाशक , PRATTIMIn वार्षिक मूल्य ५) एक किरणका मूल्य ।।) 00620 HIMAAlishabani :::: नीतिक्रोिषध्वंसी लोकव्यवहारवर्नकःसम्पक । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः । माच वर्षे ९ । किरण ३ वाग्मेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), मरमावा, जिला सहारनपुर फाल्गुण, वीरनिर्वाण मवत २४७३, विक्रम मवत ००४ होली होली है !! ज्ञान-गुलाल पाम नहि, श्रद्धा ममता रङ्ग न गेली है। नहीं प्रेम-पिचकारी करमे , केशर-शान्ति न घोली है ॥ स्याद्वादी सुमृदङ्ग बजे नहिं , नहीं मधुर- रस-बोली है । कैसे पागल बन हो चनन । कहते 'होली होली है । ध्यान-अग्नि प्रज्वलित हुई नहिं , कमन्धन न जलाया है। अमभावका धुआँ उडा नहिं , मिद्ध म्वरूप न पाया है। भीगी नहीं जग भी देखो म्वानुभूनिकी चोली है। पाप धूलि नहि उड़ी, कहो फिर कैमें होली होली है" "* रचयिता--- 'युगपीर * श्रीमम्मेदशिम्बरकी बीमपन्थी कोटीके जैनमन्दिरकी एक दीवारको इस रचनासे अलकृत किया गया है --मुन्दर देटिंग द्वारा मोटे अक्षरों में इसे उमपर लिम्वा गया है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त समन्तभद्र -भारत के कुछ नमूने युक्त्यनुशासन प्रवृत्ति-रक्तः शम-तुष्टि-रिक्त रुपेत्य हिंसाऽभ्युदयाङ्ग-निष्ठा । प्रवृत्तितः शान्तिरपि प्ररूढं तमः परेषां तव सुप्रभातम् ॥३८॥ 'जो लोग शम और तुष्टिसे रिक्त हैं-क्रोधादिककी शान्ति और सन्तोष जिनके पास नहीं फटकते-(और इम लिये) प्रवृत्ति-रक्त है-हिमा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रहमे कोई प्रकारका नियम अथवा मर्यादा न रखकर उनमे प्रकर्परूप प्रवृन हैं-आसक्त है-उन (यज्ञवादी मीमांसकों) के द्वारा, प्रवृत्तिको स्वयं अपनाकर, 'हिंसा अभ्युदय (म्वर्गादिकप्राप्ति) के हेतुकी श्राधारभूत है' एमी जो मान्यता प्रचलित की गई है वह उनका बहुत बड़ा अन्धकार है-अज्ञानभाव है। इसी तरह (वेदविहित पशुवधादिरूप) प्रवृत्तिसे शान्ति होती है ऐमी जो मान्यता है वह भी (स्याद्वादमतसे बाह्य) दूसरोंका घोर अन्धकार है क्योंकि प्रवृत्ति रागादिकके उद्रेकरूप अशान्तिकी जननी है न कि अरागादिरूप शान्तिकी। (अन: हे वीरमिन ') आपका मत ही (मकल अज्ञान-अन्धकारको दूर करनेमे समर्थ होनसे) सुप्रभातम्प है, ऐसा सिद्ध होता है।' शीर्पोपहारादिभिगत्मदुःखेर्देवानकिलाऽऽराध्य सुखाभिगृद्धाः । सिद्धयन्ति दोपाऽपचयाऽनपेक्षा युक्तं च तेपां त्वमृपिने येपाम् ॥३९॥ 'जीवात्माकं लिय दुःखके निमित्तभून जो शीर्पोपहादिक है-अपन तथा बकर आदिके सिरकी बलि चढ़ाना, गुग्गुल धारण करना, मकरको भोजन कगना, पर्वतपरसे गिरना जैसे कृत्य हैं--उनके द्वारा (यक्ष-महेश्वरादि) देवांकी पागधना करके ठीक वे ही लोग सिद्ध होते है-अपनको सिद्ध समझते तथा घोपित करते है-जा दीपांक अपचय (विनाश) की अपेक्षा नहीं रखने-सिद्ध होने के लिये गग-द्वेषादि विकारों को दूर करनेकी जिन्हें पर्वाह नहीं है और मुखाभिगृद्ध है-काम मुखादिके लोलुपी हैं ! और यह (मिद्धि-मान्यतारूप प्ररूढ अन्धकार) उन्हींक युक्त है जिनके है वीरजिन ' आप ऋषि-गुरु नहीं है !'-- अर्थात इस प्रकार की घोर अज्ञानताको लिय अन्धेरगर्दी उन्हीं मिध्याष्ट्रियोंके यहाँ चलती है जो आप जैसे वीनदोप-मर्वज्ञ-म्यामीक उपामक नहीं हैं। (फलन') जो शुद्धि और शक्तिकी पराकाष्ठाको पहुँचे हुए आप जैसे देवक उपासक है-आपको अपना गुरु नेना मानते है-(और इमलिय) जो हिमादिकम विरक्तचित्त है, दया-दम त्याग ममाधिकी तत्परताको लिय हुए आपके अद्वितीय शामन (मन) को प्राप्त हैं और नय-प्रमाणद्वाग विनिनित परमार्थकी एव यथास्थित जीवादि तत्त्वाची प्रतिपत्तिम कुशलमन है, उन मम्यग्दृष्टियोंक इम प्रकारकी मिथ्या-मान्यताम्प अन्धेरगर्दी (प्राढतमता) नहीं बननी, क्याक प्रमादम अथवा अशक्तिक कारण कहीं हिमादिकका आचरण करते हुए भी उममें उनके मिथ्या-अभिनिवेशाप पाशके लिय अवकाश नहीं होता-वे उसमे अपनी सिद्धि अथवा आत्मभलाइका होना नहीं मानते।' [यहाँ तक इम युक्त्यनुशामन स्तोत्रमे शुद्धि और शक्तिकी पराकाष्ठाको प्राप्त हुए वीरजिनेन्द्र के अनेकान्तात्मक म्याद्वादमत (शासन) को पूर्णत: निर्दोष और अद्वितीय निश्चित किया गया है और उससे बाय जो मवथा एकान्तके श्राग्रहका लिये मियामताका ममूह है उस मबका मतपसे निराकरण किया गया है, यह बात मदुर्बुद्धिशालियाको भले प्रकार ममझ लेनी चाहिये।] स्तोत्रे शुक्त्यनुशामने जिनपनीरस्य निःशेषतः, सप्राप्तम्य विशुद्धि शक्तिपदवीं काष्ठा पगमा श्रिताम । निर्णीत मतमद्वितीयममल मक्षपतोऽपाकृत, तद्वाह्य वितथ मतच मकल मद्धीधनैध्यताम ॥ -विद्यानन्दः Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाँधीजीका पुण्य -स्तम्भ [भीवासुदेवशरण अग्रवाल] [इम लेखके ले० डा. श्रीवामुदेवशरणजी अग्रवाल एक बहुत बड़े पाच्य विद्या विशारद विद्वान् है । मथुरा ओर लखनऊके म्यूजियमोम क्यूरेटर (Cuator) के प्रतिष्ठित पदपर रह चुके हैं और अाजकल न्यू देहलीमे सरकारी पुगतत्त्व-विभागके एक बहुत ऊँचे पदपर श्रामीन है। बडे ही उदार हृदय एव मजन-स्वभावके महानुभाव है । आपने गाँधी जीक पुण्य स्तम्भके मुझावको लेकर यह जी लेग्य लिखा वह बडा ही महत्वपूर्ण है । इममे विजय कीर्तिस्तम्भादि विविध स्तम्भोंक प्राचीन इनिहामपर भारी प्रकाश पड़ता है । महृदय पाठक इमपरमे स्तम्भोंकी दृष्टि पोर उनके महत्वका कितना ही बोध प्राप्त कर मकने है। यह लेग्व प्रथमतः २२ फरवरी मन् १६४८ के दैनिक हिन्दुस्तानमें प्रकट हुश्रा है श्रार वढीम यहांपर उद्धत किया जाता है । लेग्वक महादयने हिन्दुस्तानम मुद्रित लेग्वको पुनः पढकर उसकी अशुद्धियोको मुधार देनकमाय लेख मम्बन्धी स्तम्भ चित्रोंक ब्लॉक भी हिन्दुस्तान ऑफिमम दिला देनकी कृपा की है। हम अनुग्रहक लिये हम अापके बहुत अाभारी है । माथ ही हिन्दुस्तानके सहायक सम्पादकजीका भी आभार मानते है, जिनके माजन्यम चित्रोक ब्लॉक शीघ्र प्राम दो मके हैं। -मम्पादक "जहाँ वे बैट वह मन्दिर होगया और जहाँ प्रति हमारं मम्मानकं प्रतीक बन जाते है। विचार उन्होंने पैर रम्बा वह पवित्र भूमि बन गई।" और कर्म इन्हीं दोनोंका ममुदित नाम जीवन है। नेहरूजीक ये शब्द गाँधीजीके प्रति राष्ट्रक सुन्दर और लोकोपयोगी जीवन-तत्त्वको किमो एक मनमे भरी हुई देश-व्यापी भावनाको प्रकट करते है। व्यक्तिने इतनी अधिक मात्राम इतने थाई ममयमें वह एक ज्योति थे। ज्योतिका मन्दिर उनका शरीर, और इनने बहुसंख्यक व्यक्तियों के लिये मुलभ और प्रकाश-स्तम्भकी नरह जहाँ-जहाँ गया उमने वहां- प्रत्यक्ष मिद्ध बनाया हो, इसका उदाहरण भारतक वहाँ युग-युगमे फैन हुए अन्धकार और मृछांका इनिहामम दृमग नहीं । हमारे इनिहामका लम्बा हटाकर चैतन्यका पालांक फैला दिया । निम्पिल मृन-काल अपने ममम्न नेज और हिनकारी अशका भुवनमे भरी हुई दिव्य ज्यानि उनके द्वारा जिम जिम लेकर गांधीजीपी अान्माम प्रविष्ट होगया और उनके स्थानपर विशेषरूपमं प्रकट हाती रही वह मब शब्दांम ओर कांक द्वारा पृट निकला। वे कम और मचमुच पवित्र है-न केवल वनमान युगके लिये वे शब्द गणक भावा जीवनम मन्चे स्मारककी अपितु आने वाली पाढियाँक लिये भी। काटानकाटि भानि स्थायी रहंगे। भौनिक, म्मारक भी इन्हींको जन इस महापुरुषकी बन्द नाकं लिय आने हुए उन- चिरजीवन प्रदान करन माधनमात्र बन मन है। उन स्थानोंम अपनी श्रद्धाञ्जलि चढायगे और हृदय वदोंक हिग्गयस्तप एव बुद्धि की कृतज्ञतामे पूण प्रणाम-भाव अर्पित करेंगे। महान पुरुष अमर विचागंक प्रतीक हात है। वीक ममयम इम प्रकारकं म्मारकांकी कल्पना उनके लिये जोम्मारक हम रचने व उन विचाग की जामकनी है, जब दिव्य विचार और दिव्य Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष ९ कोको पृथ्वीके साथ सम्बन्धित करके किमी स्तृप जाते थे उन समारोहोंके स्मारक भी बनाये जाते या म्तम्भक रूपमे स्थायित्व प्रदान किया गया। वेदों- थे। वस्तुतः यह स्मारक वही खम्भे थे जिन्हें यज्ञकी के हिरण्य-स्तूप एक ऋपिके मंज्ञक है। 'सुनहली वेदीके बीचमे खड़ा किया जाता था और उनके लिए ज्योतिका स्तूप' यह नाम अवश्य ही मत्यके उस पुराना पारिभापिक नाम यूप था। वैदिक यज्ञ-सिद्धांत सुनहले म्वरूपम लिया गया है जो इस विश्वमे के अनुमार बिना यूपकी स्थितिके कोई यज्ञ नहीं मृष्टिक आदिम ही स्थापित है । भौतिक पक्षम किया जा सकता । यज्ञीय कर्म करनेके लिये यूपकी गत्रिके तम और श्रावरणको हटाकर मूर्यका बड़ा पूर्वस्थिति आवश्यक है। इस सत्यात्मक नियमको मनहला स्तृप नित्यप्रति हमारे सामने बनता है। हम अपने ही हालके इतिहाममे चरितार्थ देखते हैं। मर्यक रूपमे मानी हम नित्यप्रति उस मत्य और भारतवर्षम जी राष्ट्रीय यज्ञ किया गया जिसके चारों ज्योति तत्वका एक बड़ा स्मारक देखते हैं, जिसकी ओर देशके लाखों-करोड़ों आदमी एकत्र होगये उम किरण मारे मंमाग्में फैल जाती है। अन्धकारपर विराट यज्ञके यूप-स्तम्भ गांधीजी थे । ऋग्वेदकी एक ज्योतिकी विजय यह इम नाटकीय म्मारकका कल्पना है कि जब देवताओने पुरुषका सुधार करनेके म्वरूप है। लिये पुरुषमेध यज्ञ करना चाहा तो उस पुरुषको पशु ब्रह्मकी स्तम्भ-रूपसे कल्पना बनाकर उन्होंने उस यज्ञके ग्वम्भेके साथ बाँध लिया। किन्तु इमसे भी महत्वपूर्ण एक दूसरी कल्पना है इसका तात्पर्य यही है कि मनुप्यमे जितना भी पाशजिसम ब्रह्मको ही स्तम्भ या खम्भा कहा गया है। विक अश है उसको हटानके लिये सर्वप्रथम यज्ञक इश्वरीय शक्तिका यह स्तम्भ मारे ब्रह्माण्डकी विधति खम्भक साथ बाँधकर उमीकी भेंट चढाई गई। है अर्थात उमक धारण करने वाली नीव, उमके राष्ट्रीय यज्ञम भी इमीको दोहराया गया और गांधीसंस्थान या ढाँचेको खडा रखने वाली दृढ टक और रूपी यूपसे बांधकर राप्रका जो जड़ता और पशना उसकी रक्षक छत है। बिना ईश्वरीय खम्भक एक क्षण का अंश था वह धीरे-धीरे मिटाया गया और मस्कत को भी इम जगतकी स्थिति मम्भव नही। यही बनाया गया। सौभाग्यसे कर्मकाण्डीय यज्ञोक स्मारक गांधीजीकी विलक्षण राम-निष्ठा थी। उनका यह ध्रव रूप बनाये जाने वाले यज्ञीय स्तम्भ या यूपोंके कई विश्वास कि बिना गमकी इन्छाके कुछ नहीं मिलता अच्छे उदाहरण भारतीय-कलामे प्राप्त हुए है। इनमें उसी पुगने मत्यका नई भाषामे उलथा था। मत्य, दूसरी शताब्दीका मथुराका यज्ञीय स्तम्भ कलाकी दृष्टि धर्म, अमृत, जीवन और प्राण नाना प्रकार से बहुत महत्वपूर्ण है । इमका निचला भाग चौकोर निर्माणकारी तत्व उमी एक मूल ईश्वरीय खम्भेक और ऊपरका अठकोण है एव चोटीपर एक सन्दर अनेक रूप है जिनसे हमारा समाज टिका हुआ है। माला पहनाई गई है। चौकोर भागके एक ओर इम प्रकारके महापुरुषरूपी खम्भ जो राष्ट्र और समाज सुन्दर ब्राह्मी लिपि और सस्कृत भाषामे एक लेख की टंक बनते है उमी एक मल ब्रह्म-स्तम्भके रूपान्तर उत्कीण है जो ई० दूसरी शताब्दीमे राजा वमिष्कके या ट्रकडे कहे जा मकते है। गांधीजी मचमुच इस राज्य-कालका है। यह खम्भा यमुनाके किनारे बालमे एक प्रकारके महान स्तम्भ थे । राष्ट्रकी मानस भूमिपर गडा हुआ मिला था जहाँ किसी समय वह यज्ञ इस उन्नत स्तम्भकी मत्ता बहुत काल तक अडिग किया गया होगा। रहेगी। महाभारतकी इन्द्रयष्टि वैदिक यज्ञोंके यूप महाभारतके पुराने इतिहासमें राजा उपरिचार वैदिक यज्ञोंक रूपमे जो व्यक्तिगत और मामा- वसुकी एक कहानी दी हुई है, जिसमे यह कल्पना की जिक रीतिसे उदात्त और लोकोपकारी कार्य किये गई है कि समृद्धिशाली राष्ट्रका हेमता-खेलता हा Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] गांधीजीका पुण्य-स्तम्भ जो म्वरूप है वह एक खम्भा है जिसका सार्वजनिक धर्म-यात्रीके पड़ावके मृचक और भी म्तम्भ बनवाये पृजन अनेक प्रकारसे राष्ट्रकी जनना करती है। इस गये | अशोकका नाम न केवल भारतवर्ष बल्कि खम्भका नाम वहॉपर इन्द्रष्टि कहा गया है, और एशियाके इतिहामम सबसे महत्वपूर्ण है। उमने सबसे इमाकं माथ की मालाका नाम वैजयन्ती बताया गया पहले एशियाकी एकताका स्वप्न दम्बा और अपनी है, जो राष्ट्रीय-विजय-मृचक है। कहा जाता है कि निर्मल दृष्टि और दृढ़ निश्चयसे प्रेम और अहिमाके गजा वमुने तपश्चर्या की जिमसे इन्द्रको डर लगा कि द्वारा मनुष्यका मनुप्यक माथ मम्बन्ध स्थापित करनेकही यह स्वग तो नही चाहता। तब इन्द्रने उसके का जो नया प्रयोग उसन चलाया उममे सम्मिलित नपसे प्रसन्न होकर कहा कि तुम पृथ्वीपर रहते हो होनेके लिये अपने पड़ौमी दशकं गजाआंको भी और मै म्बगम, मै तुम्हे पृथ्वीपर ही अपना प्रिय मित्र निमंत्रण दिया। देहरादन जिलेमे कालसी नामक बनाना है, तुम ऐमा देश बसाश्री जहाँक निवामी स्थानकी चट्टानपर खुद हुए लग्बम उमने मीरिया, धर्मशाल और मदा सतुष्ट हों, जो हैमीम भी झूठ न मिस्र और यूनानके उन गजाओका नाम दिया है वाल, जहाँ मनुष्य नी क्या पशुओंपर भी अत्याचार जिनके पाम उमने अपने दूत भेज थे ताकि वे उन्हें न हो, जहाँ मब अपने-अपने कतव्य या सधर्मको भी धर्म-विजयका संदेश सुना। अपने पुत्र महेन्द्र पृग कर, जहाँ भूमि अच्छी हो और मब तरहका और अपनी पुत्री ममत्राका मिहलमे धम-प्रचारक धनधान्य पृण हो । मे सब प्रकार से रमणीय और लिप भेजकर उमने इतिहास में एक अइन उदाहरण श्वयंयुक्त देशमं तुम राजा बनी । इस प्रकारके सव- रखा । अशोक मनकी यही प्रेरणात्मक शक्ति थी मुम्बी राष्ट्रकी मृचक यह इन्द्रष्टि मै तुमको देना है। जो उमके अनेक देवनर कायोक द्वारा प्रकट होती देशका जो मनानन्दी रूप है, उसकी प्रतीक यह है। बर्मा, नेपाल आदि भारतके पड़ोसी देश भी इन्द्रयष्टि है । र्याष्टको ही प्राकृतम लाठी और हिन्दीम अशोककी धर्म-विजयमे लाभ उठानमं ममर्थ हए । उमीको लाठ या लाट कहते है। इस प्रकारकी यणि सम्राटको जितनी बंदशकी चिन्ना थी मम्भवत: या स्तम्भक अनक उदाहरगा प्राचीन भारतीय मिकी दम देशोंकी उमस कम नथी । स्वदेश और विश्वपर और प्राचीन भारतीयकलाम पाये जाने है, जिमम का यह विलक्षगा ममन्वय अशोकक जीवनम जैमा एक उंच ग्यम्भपर फहराते हुए दोहरे भण्डकी आकृति था वैसा ही गांधीजीक जीवनम भी प्रकट होता है। बनी हुई होती है। अशोकके धर्मका मूलमन्त्र ममवाय या पारम्परिक मम्राट अशोकके धर्मम्तम्भ मामलापपर आश्रित था । 'ममवाय एव माधु' इम भारतीय इतिहासम म्तम्भ और स्मारकांकी अपने एक वाक्यम माना मम्राटने भारत-गप्रकी मर्वोत्तम देन मौर्य सम्राट महाराज अशोकमे हम मदा-सदाकी विशेपना और जावनकी आवश्यकताका प्रास होती है। अशोकने बद्धकं लगाय हा छोटम निचाड़ बना दिया है। प्रशाकका साम्राज्य अफगापधिको राप्रकी शक्तिमे मींचकर ममारव्यापी बना निम्नानम मेमर तक फैला हुआ था। उमन मारे गए दिया। उनका मन बुद्ध के गुणों का ध्यान करके व्यक्ति में चट्टानों श्रीर खम्भापर अभिनय खदाय जिनम गत श्रद्धास भर गया। उन्होंने बुद्धकं जन्मस्थानकी बार-बार मीध-माद शब्दांम मशाईक उन नियमांका यात्रा की और नेपालकी नराईम बुद्ध जन्मस्थान बताया गया है जिनसे व्यक्ति, ममाज और देशका लुम्बिनी गाँवमे एक स्तम्भ बनवाया जिसपर लिखा जीवन उदात्त बनाया जा सकता है। अपने विचारांक है, "यहाँ भगवानका जन्म हुआ था। यह गाँव अनुमार गएका निर्माण करत हा उमने दीन, दरिद राज-करस मुक्त किया जाना है।" पाटलीपुत्रमे दुग्वी, स्त्री-पुरुप, पशु-पक्षी मब उद्धार और उन्नतिका लुम्बिनीकी यात्राका माग नय करते हुए संभवतः ध्यान रखा है। इन लम्बाको लिम्बवाने ममय अशोक Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वषे ९ के मामन ईरानी सम्राट महान दाग प्रथमका उदाहरगा था जिमने तीन-तीन भाषाओंमे बडे-बड़े लेख बिहिस्तृन (प्राचीन भगम्थान अर्थात देवताओंका स्थान) और ममा (मस्कृत शृपा) आदि स्थानाम अपनी दिग्विजयका डट्का पीटनक लिये लिखवाय । व लंग्व: आज भी अम्निन्वमे हैं और दागकी हिमा और मारकाटम भरे हुए दिग्विजय चित्रका हमारे सामने लाने है । पर अशाककी विजय दुमरे प्रकारकी थी और उसके शब्दाम हम शियाकी श्राश्वम्न आत्माकी पुकार सुन सकते है। अशाकका श्रादश भविष्यके लिये है। दागका यज्ञ पर्गिमत किन्तु अशोकका अपरिमित है। अशोक मचे श्राम भारतीय संस्कृतिका पुत्र था। अशोक स्तम्भोंकी विशेषता भापा, लिपि और विपयकी दृष्टिम भी अशोक शिलालेख और स्तम्भलग्य अशोक स्तम्भ जो नन्दगढमे बना हुआ है। हमारे लिय शिक्षाप्रद है। उसने जननाकी बोलचालकी भापाको अपनाया। रिवाजांका पचड़ा नहीं था बल्कि जीवनको ऊँचा उमने अपने एक लेखमे कहा कि मैं ठेठ देहातक उठाने के लिय आत्मामे निकली हुई एक मीधी पुकार मनुप्योंके (जानपदम जनम) दशन करना चाहता है, थी जो सबकी समझमे श्राने योग्य थी। अशोकके उनका कुशल-प्रश्न प्रलना चाहता है और उन तक लेग्याकी दूसरी विशेषता उनकी ब्राह्मी लिपि है । उम अपने धार्मिक, उपदेश की आवाज पहुंचाना चाहता के अक्षर सुन्दर है और वह उम ममयकी राष्ट्रीय हैं। जैसा कि हम पहले कह चुके है, यह गति- लिपि थी। हमारी वनमान देवनागरी लिपि उमी Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] अशोककालीन ब्राह्मी लिपिका ही विकसित रूप है। लगभग २२०० वर्षोंसे अशोक के स्तम्भ देशके विभिन्न भागों मे खड़े हुए उसके यशको उजागर बनाते रहे है । अशोकके माढ़े छः सौ वर्ष बाद आने वाले चीनी यात्री फाहियानने छः खम्भोंका उल्लेख किया है, लेकिन सातवी शताब्दीम हर्षके समय मे आने वाले चीनी धर्म यात्री य्वान च्वाङ्गने अशोक के गांधीजीका पुण्य-स्तम्भ प्रयाग स्थित अशोक स्तम्भ ९५ पन्द्रह खम्भोंका आँखा देखा वर्णन लिखा है, जिनमें से कई अब नम्र हो चुके है। अब तक अशांशके शैलस्तम्भ निम्नलिखित स्थानोंमे मिल चुके है: - (१) टोपरा, जिला अम्बाला । (२) मेरठ। (३) इलाहाबाद । (४) कौशाम्बी । (५) लौरिया - अरराज | (६) लौरिया-नन्दनगढ़ ( सिंह- शीर्षक- युक्त) । (७) रामपुरवा । (८) साँची । (९) सारनाथ । (१०) विमा | (११) रुम्मिनि देई (वृद्धका जन्मस्थान ) । (१२) निगलीव | हो सकता है इनमें से अशोक से पहले कुछ क भी रहे हो, क्योंकि अपने लेख मे उसने एक जगह ऐसा मङ्केन किया है'जहाँ शिला यन्त्र या फलक से वहाँ यह धर्मलपि लिखवा दी जाय, जिसमे यह चिरस्थायी हो।" भौगोलिक बंटवारेकी दृष्टि भी अशोक के लेख विचारणीय है। उनसे कुछ तो बुद्ध पवित्र स्थानोंको सूचित करते है, जैसे कम्मिनिका स्थान, और कुछ उस समयकी बड़ी राजधानियों को जैसे साची, सारनाथ और कौशाम्बी आदि । उसके फैले हुए लिखोसे उसके राज्य और विस्तार की सीमा मिलनी है। सभव है ये सभी दृष्टिकोण सम्राट के मन में रहे हो । अशोक स्तम्भोंकी कला कलाकी दृष्टि से अशोक के स्वम्भे भारतीय कलाका एक Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष ९ RECENNA .. . विलक्षण चमत्कार कह जासकते है । पत्थरके खम्भापर जो दमक है वह शीशेको भी मान करती है । मत्रही शताब्दीम टीमकारियंट नामक यात्राने दिल्ली । खम्भको नाका बना हुआ समझ लिया था। प्रसिद्ध इनिहाम-निखक श्री विन्मेण्ट म्मिथने लिम्बा है-"पन्थरका काम करने वालांकी निपुणता इन खम्भोंक निर्माणम अपनी पग्ण । पराकाष्ठाको पहुंच गई। थी और उन्होंने वह चमत्कार कर दिखाया जोश यद बीमवीं मदाकी शक्तिमे भी बाहर है । नीम-चालीम फुट लम्ब कंई पत्थरके खम्भोंपर बहुत ही बारीकीका काम हुआ है और ोमा प्रोप लगाया गया है जो अब किमी कारीगरकी शक्तिमें बाहर है।" मारनाथका सिंह-शीर्षक स्तम्भ अशोक कालीन एक और म्नम्भ जो है लीडोरोम नामक स्थानपर स्थित है । इम कलाकी पराकाणाको सूचित करता है। वानस्वाइने भी लिखा है में लिखा है-"शैली और कारीगरी दोनों दृष्टियोंसे कि यह ग्वम्भा उम जगह लगाया गया था जहां बुद्धने यह मर्वोत्कृष्ट है। इमकी नकाशी भारतीय शिल्पम पहली बार अपने धर्मका उपदेश दिया। यह खम्भा अद्वितीय है और मेरे विचारमं प्राचीन समाग्मे मनर फुट ऊँचा था और इमकी दमक यशवकी कोई चीज इस क्षेत्रमे इममें बढ़कर नहीं बनी।" जैसी थी । अन्तिम बान श्राज भी ज्या-की-त्या मच्ची मारनाथका सिंहम्नम्भ और उमपर बना हुआ चक्र है। मर जान मार्शलने इस भारतीय कलाकी प्रशंमा. अब हमारी राष्ट्रीय मुद्रा और चक्रध्वज नामक Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] गांधीजीका पुण्य-स्तम्भ राष्ट्रीय झण्डेके माथ सम्बन्धित होगए हैं। इसके को ही चुना। उममें कहा गया है कि मानो पृथ्वीन द्वारा नवीन भारतने एक प्रकारमे अपने आपको खम्भेके रूपमे श्राकाशकी और अपना ही एक हाथ अशोककी आत्माके माथ मिला दिया है। ऊँचा उठा दिया। इन खम्भोंक बनाने और कई मौ मील दूर एक यनानी राजदतका गरुडध्वज लेजानेका कार्य भी एक बड़ी कठिन समस्या रही बाहरसे आने वाले विदेशियोंने भी खम्भोंकी होगी। ये मब चुनारके गुलाबी पत्थरके बने हुआ है। परम्पराको अपनाया। पहली शताब्दी ईसवी पूर्व पचाम-माठ फुट लम्बे पत्थरोंके बड़े टुकडोंको हिलियोडोरम नामका एक यूनानी राजदूत मध्यभारत काटकर उन्हे तराशना, डौलियाना और मठिना के राजाके पास आया था। यहाँ वह भागवत धर्ममे बहुत ही कठिन कार्य रहा होगा। उम ममय के दीक्षित होगया और उमने विष्णुका बहुन सुन्दर इञ्जीनियर किनन परिश्रमसे चुनार या पाटलीपुत्रकी गाडध्वज-स्तम्भ भेलमामे स्थापित किया। यह स्तम्भ केन्द्रीय शिल्पशालास सुदूर स्थानों तक इन्हें लेगये नीचे अठकोना ऊपर सोलहकोना और फिर अन्तम इमका कुछ अनुमान हम सुलतान फिरोजशाह गोल होगया है। इसका मम्तक पद्माकृति है। खम्भक तुग़लकके वर्णनमं लगा सकते है। उमने दिल्लीकी निचले भागके एक पहलूपर लेख उत्कीर्ण है जिसमें अपनी राजधानीका मजाने के लिए अम्बाला जिले के सत्य, दम और दान रूपी धर्मकी प्रशमा की गई है। टापग गाँवमे अशोकका ग्यम्भा उखाडकर यहाँ खड़ा किया। उसके लिये बयालीम पहियों की एक महरोलीका लोह-स्तम्भ गाडी बनाई गई, एक पहियेमे बंध हए रम्सको दोमो प्राचीन कीर्ति-स्तम्भीम एक बहुत अच्छा उदा. श्रादमी खींचते थे और खम्भक महित सारी गाडीके हरण महरोलीका लोह-स्तम्भ है । इमका लोहा बोभको १० श्रादमी ग्वीच रहे थे । खम्भको नीचं १५०० वर्षांसे धूप श्रीर मेहका मामना करते हा भी लानके लिये एक मईका पहाड बनाया गया और जगसे बिल्कुल अछूता रहा । हम स्मिथन 'धात. धीरे-धीरे नीचा करके गाडीके बराबर लाकर खम्भको निर्मागाकी कलाका करिश्मा' कहा है। आज भी उमपर लादा गया। वहाँम जब उमं जमुनाक किनारे ममारमे से कारखानोंकी मन्या थोड़ी ही है जो लाय तो कई बड़ी नावापर उसे लादा गया और फिर इतना बडा लोहका लट्रा ढाल मक। इम म्नम्भपर दिल्लीम उमका स्वागत किया गया। वहाँम फिर वह खुदा हुश्रा संस्कृतका लम्ब चन्द्र नामक गजाका है. ग्वम्भा फिरोजशाह कोटल तक लाकर एक ऊँच जिसने ४०० ई० क लगभग गह्राम बन्न नक ठिकानपर बड़ा किया गया। एमा करने लिए. उम ममम्त देशको एकनाक मृत्रम बांध दिया था। ममयक बन्धानियोंने देशी ढङ्गम तैयार होनेवाले मम्भवतः यह मम्राट चन्द्रगत विक्रमादित्य थे. रम्म बाँस बल्लियोंका ठाठ और बालाकुपीका प्रयोग जिनका नाम भारतीय माहित्यक क्षेत्रम अमर है। किया। इसका वर्णन करने वाली न.कालीन पुस्तक गप्तकालीन विजय-स्तम्भ प्राप्त हुई है जा पुरातत्व विभागमे मानवाट प्रकाशिन गुप्तकालम पत्थरके बने विजयम्नम्भकी परम्परा हो चुकी है। और भी फैली। गाजीपुर के भीनग गांवमं स्कन्दगतसमुद्रगुप्तका स्तम्भ का एक बम्भा मिला है जिसके लेम्बम लिया है कि अशोककं म्वम्भोंको बादमे भी लोगोन म्वृद्ध उन्होंने अपने भुज-दण्डोंकी शक्ति युद्धभांमम हुणोंपमन्द किया होगा । इमका एक उदाहरगा यह है कि से लोहा लेकर इम पृथ्वीको कम्पायमान कर दिया। गुम-वशके प्रतापी महागज ममुद्रगुमने अपनी गुप्त-काल के बाद भारत में अनेक प्रकारके म्तम्भ दिग्विजयका लेब लिम्बवाने के लिये अशोक स्वम्भं बनाये जाने लगे। विशेषकर गुफाओं और मन्दिरोंके Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वप ९ लिए बहुत प्रकारके स्तम्भोंका उपयोग होने लगा। शरीर ममझा था। गाधीजीने भी जो कुछ कहा अजन्ताकी गुफाओम या एलोराक कैलाश मन्दिरमे वह उनके विचारोंका प्रत्यक्ष प्रतिनिधि होनके कारण अथवा चिदम्बरमक महम्र बम्भो वाल मण्डपमे हम उनका विचार-शरीर कहा जा मकता है। इमकी अनेक प्रकारकी कारीगरीस सुजित अच्छे अच्छे रक्षा और चिर-स्थिनिका प्रयत्न हमारा राष्ट्रीय खम्भ पाते है । इनकी . विविधता और ख्याको देखकर कहा जा सकता है कि भारतवर्ष कला क्षेत्रम म्तम्भोंका देश रहा है। स्तम्भोंकी निर्माण-कला कलाकी दृष्टिम सुन्दर . म्तम्भके नीन भाग होने चाहिए-अधिष्ठान या नीच- ! का भाग, दगड या बानका भाग और शीर्ष या परका भाग, इन नीनों के भी और । कितने ही अलरण कहे गये है। मध्यकालम प्रायः प्रत्येक बड़े मन्दिरके सामने एक स्वतन्त्र म्तम्भ या मान म्तम्भ बनाने की प्रथा चल पड़ी थी। किन्तु प्राचीन विजय-स्तमांकी पर पगम कीर्ति-स्तम्भ : भी बनने लगे थे जो पत्थरकी ऊंची मीनार कहे जा मकने है। चित्तौड़म राणा कुम्भाका कीर्ति-स्तम्भ इमी प्रकारकी वस्तु है और कलाकी एमे बहन ही आकर्षक है। ki:+24 गांधीजीका पुण्य-स्तम्भ बुद्धक उपदेशोंको उनके शिष्यान पीछे उनका धर्म चित्तोडका मामिद विजय स्तम्भ इसे राणा कुम्भान अपनी विजयके स्मारकमे बनवाया था। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] गाँधीजीका पुण्य-म्तम्भ कतव्य है । जिस प्रकार प्रियदशी अशोकने जनताकी करने योग्य है। आज प्रचार के अन्य अनेक माधन भापामे जननाक बोधके लिए अपने विचारोका लेखों- मुलभ होगये हैं फिर भी शिल्पकलाके द्वारा महाके द्वारा चिरस्थायी बनाया और यह प्रयत्न किया कि पुरुपांकी वागीको अङ्कित करनेका प्रयत्न अवश्य छोट-बडे मब तक वे विचार पहुंचा जा मके उमी ही आगे आने वाले युगांके लिए अभिनन्दनीय प्रकारका प्रयत्र अपने प्राचीन गट-पिताके लिए भी. रहेगा । Kews OHRI Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय [सम्पादकीय] (गत किरणमे प्रागे) अब मैं प्रा. हीगलालजीकी शेप नीनों आपत्तियों- समय (ईसवी सन् ८१६के लगभग) के पश्चात और पर भी अपना विचार और निर्णय प्रकट कर देना वादिराजके समय अर्थात शक स० ९४७ (ई. सन चाहता है; परन्तु उसे प्रकट कर देनके पूर्व यह बतला १०२५) से पूर्व सिद्ध होता है। इस समयावधिके देना चाहता है कि प्रो० साहबने, अपनी प्रथम मूल प्रकाशमे रत्नकरण्डश्रावकाचार और रत्नमालाका श्रापत्तिको “जैन-माहित्यका एक विलुप्त अध्याय' रचनाकाल समीप आजाते है और उनके बीच नामक नियन्धमे प्रस्तुत करते हए, यह प्रतिपादन शताब्दियोंका अन्तराल नहीं रहता"' साथ ही आगे किया था कि 'रत्नकरण्डश्रावकाचार कुन्दकुन्दाचार्यके चलकर उसे तीन आपत्तियोंका रूप भी दे दिया२; उपदेशोंके पश्चात उन्हीके समर्थनमे लिखा गया है, परन्तु इस बातको भुला दिया कि उनका यह सब और इसलिये इसके कर्ता वे ममन्तभद्र होसकते हैं प्रयत्न और कथन उनके पूर्वकथन एव प्रतिपादनके जिनका उल्लेख शिलालम् व पट्रालियोंम कुन्दकुन्द- विरुद्ध जाता है। उन्हें या तो अपने प्रवकथनको के पश्चात पाया जाता है । कुन्दकुन्दाचार्य और वापिस ले लेना चाहिये था और या उसके विरुद्ध उमाम्यामिका समय वीरनिर्वाण लगभग ६५० वर्ष इस नये कथनका प्रयत्न तथा नई आपत्तियोंका पश्चात (विम० १८०) सिद्ध होता है-फलत: रत्न- आयोजन नहीं करना चाहिये था। दोनों परस्पर करण्डश्रावकाचार और उसके कर्तासमन्तभद्रकासमय विरुद्ध बातें एक साथ नहीं चल सकती। विकमकी दूमरी शताब्दीका अन्तिम भाग अथवा अब यदि प्रोफेसर साहब अपने उम पूर्व कथनको तीमरी शताब्दीका पूर्वाध होना चाहिये (यही ममय वापिस लेते है तो उनकी वह थियोरी (Theon) जैनममाजमे आमतौरपर माना भी जाता है)। माथ अथवा मत-मान्यता ही बिगड़ जाती है जिसे लेकर ही, यह भी बतलाया था कि 'पत्रकाण्डके कर्ता वे 'जैन-साहित्यका एक विलुप्त अध्याय' लिखनेमे ये ममन्तभद्र उन शिवकोटिक गुरु भी होसकते है प्रवृत्त हुए है और यहाँ तक लिख गये है कि वोडिकजो रत्रमालाके कर्ता है"। इम पिछली बातपर सङ्घके संस्थापक शिवभूति, विरावलीमे उल्लिखित आपत्ति करते हुए प० दरबारीलालजीने अनेक प्राय शिवभूति, भगवती आराधनाके कता शिवार्य युक्तियांक आधारपर जब यह प्रदर्शित किया कि रत्न- और उमास्वातिक गुरुके गुरु शिवश्री ये चारों एक माला एक आधुनिक प्रन्थ है, रनकरण्डश्रावकाचारसे ही व्यक्ति है। इसी तरह शिवभूतिके शिष्य एवं शताब्दियो बादकी रचना है, विक्रमकी ११वीं शताब्दी- उत्तराधिकारी भद्र, नियुक्तियोंक कर्ता भद्रबाहु, द्वादशके पूर्वकी तो वह हो ही नहीं सकती और न रन- वर्षीय दुर्भिक्षकी भविष्यवाणी के कर्ता व दक्षिणापथकरण्डश्रावकाचारके कर्ता ममन्तभद्र के साक्षात शिष्य को विहार करने वाले भद्रबाह, कुन्दकुन्दाचार्यके गुरु की कृति ही होसकती है तब प्रो० माह बने उत्तरकी भद्रबाह, बनवासी सहक प्रस्थापक मामन्तभद्र और धुनम कुछ कल्पित युक्तियोंके आधारपर यह तो लिख आप्रमीमांसाके कर्ता समन्तभद्र ये सब भी एक दिया कि "रलकरण्डकी रचनाका ममय विद्यानन्दके ही व्यक्ति है।' १ जैन इतिहासका एक विलुप्त श्रयाय पृ० १८, २०। १ अनेकान्त वर्ष ७, किरण ५-६, पृ० ५४ । २ अनेकान्त २ अनेकान्त वर्ष ६, किरगा १२, पृ० ३८० ३८२ | वर्ष ८,कि ३, पृ० १३२ तथा वर्ष ६, कि १ पृ०६,१० । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] रनकरण्डके कतृत्व-विषयमे मेग विचार और निर्णय १०१ और दि प्रोफैसर माहब अपने उम पूर्व- को उपलब्ध नहीं है या किसीको भी उपलब्ध नही कथनको वापिम न लेकर पिछली तीन युक्तियांको ही है अथवा वनमानम कही उमका अस्तित्व ही नही वापिस लेने है ना फिर उनपर विचारकी जरूरत ही और पहले भी उमका अस्तित्व नही था ? यदि नही रहनी-प्रथम मुल आपत्ति ही विचारक योग्य प्रो० माहबको वह उल्लेख उपलब्ध नही और किमी रह जाती है और उसपर ऊपर विचार किया ही दुमरको उपलब्ध हो तो उसे अनुपलब्ध नहीं कहा जा चुका है। जामकना-भले ही वह उसके द्वारा अभीतक प्रकाशयह भी होमकता है कि प्रोटमाहबके उक्त विलुन मन लाया गया हो। और यदि किसीके द्वारा प्रकाशअध्यायकं विगंधर्म जा दी लेख (१ क्या नियक्तिकार मन लाये जाने के कारण ही उस दुसराक द्वारा भी भद्रबाहु आर म्वामी ममन्तभद्र एक है?, शिवभूति, अनुपलब्ध कहा जाय और वनमान माहित्यम उसका शिवाय और शिवकमार) वाग्मवामन्दिरके विद्वानों अस्तित्व हा नो उसे मवथा अनुपलब्ध अथवा उम द्वारा लिखे जाकर अनकान्तम प्रकाशित हा हैं। और उल्लेखका प्रभाव नहीं कहा जा सकता । और जिनमें विभिन्न प्राचार्याक एकीकरणकी मान्यताका वतमान माहित्यम उम उलानेखके अस्तित्वका अभाव यक्तिपुरम्मर खण्डन किया गयाहै नथा जिनका अभीतक तभी कहा जा सकता है जब सारे माहित्यका भले काई भी उनर माद नान वपका ममय बीत जानेपर प्रकार अवलोकन करनेपर वह उममे न पाया जाता हो। भी प्रो० माहयकी तरफम प्रकाशम नहीं आया, उन- मारे वतमान जैनमाहित्यका अवलोकन न तो प्रोक परमे प्रो. माहबका विलुप्र-अध्याय-मम्बन्धी अपना माहबने किया है और न किसी दूसरे विद्वानके अधिकाश विचार ही बदल गया हो और इमीसे वे द्वारा ही वह अभी तक हो पाया है । और जो भिन्न कयन द्वारा शेप तीन आपत्तियांको खड़ा करने- माहिन्य लुप्त होचुका है उमम वैमा कोई उल्लेख नही म प्रवृत्त हा हो। परन्तु कुछ भी हो, मी अनिश्चित था इस ना कोई भी दृढताक साथ नही कह मकता । दशाम मुझ नी शेप नीनो आपनियांपर भी अपना प्रत्युन इमक, वादिगजके मामने शक म०५४७ में विचार व निगय प्रकट कर देना ही चाहिय । जब रत्नकरण्ड खुब प्रसिद्धिको प्राप्त था और उसमें तदनुमार ही उम आग प्रकट किया जाता है। काई ३० या ३५ वप बाद ही प्रभाचन्द्राचायन उमपर (२) रत्नकरण्ड और श्रापमामांमाका भिन्न- मस्कृत टीका लिखी है और उमम उस माफ नौरपर कत व मिद्व करनके लिये प्रीमाहवकी स्वामी ममन्तभद्रकी कति घापित किया है, तब जा दृमरी दलील (युक्ति) है वह यह है कि "ग्न- उमका पच माहित्यम उल्लेख हाना बहन कुछ म्वाकरण्डका काई उल्लम्ब शक मवन ९५७ (वादिगजक भाविक जान पड़ता है। वादिगजक मामन कितना पाश्वनाथचरितके रचनाकाल) में प्रवका उपलब्ध ही जनमाहित्य मा उपस्थित था जो आज हमारे नही है तथा उमका श्राप्तमीमांसा माथ एककतृत्व मामने उपस्थित नहीं है और जिसका उल्लेख उनके बतलाने वाला कोई भी मप्राचान उनग्य नहीं पाया प्रथाम मिलता है। मी हालतम पूर्ववर्ती उल्लबका जाता।" यह दलील वास्तवम कोई दलील नहीं है, उपलब्ध न होना कोई ग्वाम महत्व नहीं रखता और क्योंकि उल्लंग्वाऽनपलब्धिका भिन्नकतत्व माथ न उमक उपलब्ध नहान मात्रमे रत्नकरण्डकी रचनाकाह अविनाभावी मम्बन्ध नहीं है --उल्लेखर्क न को वादिराजक मम-मायिक ही कहा जा सकता है, मिलनपर भी दानाका एक का हनिम स्वरूपम कार्ड जिसके कारण प्राप्रमीमामा और रन्नकरण्ड क भिन्न बाधा प्रतीन नहीं होनी । इसके सिवाय यह प्रश्र पैदा कतृ त्वकी कल्पनाका बल मिलता। होता है कि रनकरण्डका वह पृयवती उल्नेग्य प्रो मा दमरी बात यह है कि उनम्ब दा प्रकारका होता १ अनेकान्त वर्ग ६. कि० . ० . अारवा, कि० १२ है-एक प्रन्यनामका और दुमग प्रन्थक साहित्य Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ अनेकान्त तथा उसके किसी विषय विशेषका । वादिराज से पूर्व का जो साहित्य अभीतक अपनेको उपलब्ध है उसमे यदि प्रन्थका नाम 'रत्नकरण्ड' उपलब्ध नहीं होता तो उससे क्या ? रत्नकरण्डका पद-वाक्यादिकं रूपमे साहित्य और उसका विपर्याविशेष तो उपलब्ध होरहा है: तब यह कैसे कहा जा सकता है कि 'रत्नकरण्डका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है' ? नहीं कहा जा सकता। पूज्यपाद अपनी सर्वार्थसिद्धिमे स्वामी समन्नभद्रके मन्थोंपर से उनके द्वारा प्रतिपादित अर्थको कही शब्दानुमरणकं, कहीं पदानुसरणके, कहीं वाक्यानुसरके, कहीं अर्थानुसरणके, कही भावानुसरणके, कही उदाहर णके, कही पर्यायशब्दप्रयोग के और कही व्याख्यान - विवेचनादिकं रूपमें पूर्णतः अथवा श्रशतः अपनाया है - प्रहरण किया है और जिसका प्रदर्शन मैंन 'सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव' नामक अपने लेख किया है। उसमे आतमीमांसा, स्वयभूस्तोत्र और युक्तयनुशासनके अलावा रत्नकरण्डश्रावकाचार के भी कितने ही पद-वाक्योंको तुलना करके रखा गया है जिन्हें सर्वार्थसिद्धिकारने अपनाया है, और इस तरह जिनका सर्वार्थसिद्धिमं उल्लेख पाया जाता है। अकलङ्कदेवकं तत्त्वार्थराजवार्तिक और विद्यानन्द वातिकमे भी ऐसे उल्लेखांकी कमी नही है । उदाहरण के तौरपर तत्त्वार्थसूत्र-गत ॐ वं अध्यायके 'दिग्देशाऽनर्थदण्ड' नामक २१ वे सूत्र से सम्बन्ध रखने वाले "भांग- परिभोग-सख्यान पचविधत्रसघातप्रमाद बहुवधाऽनिप्राऽनुपसेव्य विषयभेदान " इस उभय-वानिक-गत वाक्य और इसकी व्याख्याओंको रत्नकरण्डके 'महतिपरिहरणार्थ,' 'अल्पफल बहुविघातात' 'यदनिष्ट तद् व्रतयेत्' इन तीन पथों (न० ४, ५, ६ ) के साथ तुलना करके देखना चाहिये, जो इस विषय मे अपनी खास विशेषता रखते है । [ वर्ष ९ तौरपर प्रो० साहबके सामने यह बतलाने के लिये रखे गये कि 'रत्नकरण्ड मर्वार्थसिद्धिके कर्ता । पूज्यपाउसे भी पूर्वकी कृति है और इसलिये रत्नमालाके कर्ता शिवकोटिक गुरु उसके कर्ता नहीं हो सकते' तो उन्होंने उत्तर देते हुए लिख दिया कि "सर्वार्थसिद्धिकारने उन्हें रत्नकरण्डसे नहीं लिया, किन्तु सम्भव है रत्नकरण्डकारने ही अपनी रचना सर्वार्थसिद्धि के आधार से की हो" । साथ ही रत्नकरण्डके उपान्त्य - पद्मयेन स्वय वीतकलङ्कविद्या'को लेकर एक नई कल्पना भी कर डाली और उसके आधारपर यह घोषित कर दिया कि 'रत्नकरण्डकी रचना न केवल पूज्यपाद में पश्चातकालीन है, किन्तु अकलङ्क और विद्यानन्दसे भी पीछे की है'। और इसीको आगे चलकर चौथी आपत्तिका रूप दे दिया । यहाँ भी प्रो० साहबने इस बातको भुला दिया कि 'शिलालेखोंके उल्लेखानुसार कुन्दकुन्दाचार्यके उत्तरवर्ती जिन समन्तभद्रको रत्नकरण्डका कर्ता बतला आए है उन्हें तो शिलालेखोंमे भी पुत्र्यपाद, अक्ल और विद्यानन्दके पर्ववर्ती लिखा है, तब उनके रत्नकरण्डकी रचना अपने उत्तरवर्ती पूज्यपादादिके बाद की अथवा सर्वार्थसिद्धि के आधारपर की हुई कैसे हो सकती है ?' अस्तु, इस विषय में विशेष विचार चौथी आपत्तिके विचाराऽवसरपर ही किया जायगा । यहापर मै साहित्यिक उल्लेखका एक दूसरा स्पष्ट उदाहरण ऐसा उपस्थित कर देना चाहता हूँ जो ईमाकी ७वी शताब्दी के ग्रन्थम पाया जाता है और वह है रत्नकरण्ड श्रावकाचार के निम्न पद्यका मिद्धसेनकं न्यायावतार में ज्योंका त्यों उद्धृत होना परन्तु मेरे उक्त लेख पर से जब रत्नकरण्ड और सर्वार्थसिद्धिके कुछ तुलनात्मक अश उदाहर एकं १ श्रनेकान्त वर्ष ५, किरण १० ११, पृ० ३४६ ३५२ मोपज्ञमनुल्लध्यम दृष्ट-विरोधकम् । तोपदेशकृत्मार्थ शास्त्र कापथ घट्टनम ||९|| यह पद्य रत्नकरण्डका एक बहुत ही आवश्यक अङ्ग है और उसमे यथास्थान- यथाक्रम मूलरूपसे पाया जाता है। यदि इस पद्यको उक्त प्रन्थसे अलग कर दिया जाय तो उसके कथनका सिलसिला ही विगड जाय । क्योंकि ग्रन्थमे, जिन श्रम, आगम (शास्त्र) और तपोभृत (तपस्वी) के अष्ट अङ्गसहित Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमे मेरा विचार और निर्णय १०३ और त्रिमृढतारहित श्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाया म्पसे उल्लेख करनेकी जरूरत होती, बल्कि उसीमे गया है उनका क्रमशः स्वरूप निर्देश करते हुए, इम अन्तर्भत है । टीकाकारने भी शान्दके 'लौकिक' और पद्यमे पहले 'प्राप्त' का और इसके अनन्तर 'तपाभृत' शास्त्रज' ऐस दो भेदोंकी कल्पना करके, यह सूचित का स्वरूप दिया है. यह पा यहां दोनोके मध्यम किया है कि इन दोनोंका ही लक्षण इम आठवे पद्यअपने स्थानपर स्थित है, और अपने विषयका एक में आगया है। इससे ९वे पद्यम शाब्दक 'शवाज' ही पद्य है । प्रत्युत इमक, न्यायावतारम, जहाँ भी यह भेदका उल्लेख नहीं, यह और भी स्पष्ट होजाता है। नम्बर ९ पर स्थित है, इस पद्यकी स्थिति मौलिकता- तीमरे, प्रन्थभरमे, इमसे पहले, 'शास्त्र' या 'प्रागमकी दृष्मिं बहुत ही मन्दिग्ध जान पड़ती है-यह उमका शब्दका कही प्रयोग नहीं हश्रा जिमके स्वरूपका कोई आवश्यक अङ्ग मालम नहीं होता और न इमको प्रतिपादक ही यह ९ वा पदा समझ लिया जाता, निकाल देने वहाँ ग्रन्थक मिमिलेम अथवा उमके और न शास्त्रज' नामक भेदका ही मूलग्रन्थमे कोई प्रतिपादा विषयम ही कोई बाधा आती है। न्याया- निर्देश है जिसके एक अवयव (शाम्र) का लक्षणवतारम परोक्ष प्रमाणके 'अनुमान' और 'शब्द' में प्रतिपादक यह पदा हो सकता । चौथे, यदि यह कहा दो भेदोंका कथन करते हुए, म्वार्थानुमानका प्रतिपादन जाय कि व पाम 'शाब्द' प्रमाणको जिम वाक्यम और समर्थन करने के बाद इस पाम ठीक पहले उत्पन्न हुश्रा बतलाया गया है उमीका 'शान' नामम 'शाब्द' प्रमाणके लक्षणका यह पद्य दिया हुआ है-- अगले पद्यम स्वरूप दिया गया है तो यह बात भी 'पाव्याहनाद्वाम्यान परमार्थाभिधायिनः । नहीं बनती, क्योंकि वे पदाम ही 'टाव्याहती' तत्त्वग्राहितयात्पन्न मानं शाब्द प्रकीर्तितम ॥ श्रादि विशेषग्णाकं द्वारा वाक्यका स्वरूप दे दिया गया इम पाकी उपस्थितिम इमकं बादका उपयुक्त है और वह स्वरूप अगले पद्यम दिय हा शासक स्वरूपसे प्रायः मिलता जुलता है-उसके 'दएटापदा. जिमम शास्त्र (आगम) का लक्षण दिया हुआ है, व्याहत' का 'अरणाविराधक' क माथ माम्य है कई कारणांस व्यथ पडता है। प्रथम ता उमम शास्त्र और उममे 'अनुल्लघ्य' तथा 'श्रामोपझ' विशेषणोंका लक्षण अागम-प्रमाणरूपमं नहीं दिया----यह नहीं का भी ममावेश हो मकना है, 'परमार्थाभिधायि' बतलाया कि ऐसे शास्त्रमे उत्पन्न हुश्रा ज्ञान' श्रागम विशंपण 'कापथघटन' और 'माव' विशंपणांक भावप्रमाण अथवा शाब्दप्रमाग कहलाता है, बल्कि मामान्यतया आगमपदार्थक रुपम निदिष्ट हश्रा है, " का द्यानक है; और शाब्दप्रमाणको 'तत्वमा ह. नयात्पन्न प्रतिपादन करने यह स्पष्ट ध्वानन है कि जिसे 'रत्नकरण्डम मम्यग्दशनका विषय बनलाया वह वाक्य 'तत्वापदशकृत' माना गया है-हम नरह गया है। दुमर, शाब्दप्रमाणम शाम्रप्रमाण कोइ भिन्न । दानों पद्याम बहन कुछ माम्य पाया जाना है। मी वस्तु भी नहीं है, जिसकी शाब्दप्रमागकं बार पृथक हालनम ममधन उद्धरणक मिवाय प्रन्थ-मन्दभक १ मिर्पिको टीकाम इम पयमे पहले यह प्रना-ना वाक्य माथ उसकी दुमरी कोई गति नहीं: उमका विषय दिया हुअा है-"तदेव स्वानुमानल नण प्रतिपा पनरक्त ठहरता है । पाँचव, प्रन्थकारने म्वय अगल नद्वता भ्रान्तताविप्रतिपनि च निगकृत्य अधुना प्रतिपादित पद्यम वाक्यको उपचारमे 'पगानुमान' बनलाया पगवानुमानलक्षण एवाल्यवक्तव्यत्वान नावच्छाद है। यथा--- लक्षणमाद”। म.निश्चयवदन्येषां निश्रयोत्पादन बुध । २ म्व-परावभामी निर्वाध जानको हीन्यायावतारके प्रथम पम परराथे मानमाख्यान वाक्य नदुपचाग्नः ॥१८॥ प्रमाणका लक्षण बतलाया है, इसलिये प्रमाण प्रत्येक १ "शान्द च द्विधा भवति--- नाकिक शाम्बज चति । भेदमे उमकी व्याप्ति होनी चाहिये । तत्रद योरपि माधारण लक्षण प्रतिपादितम"। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अनेकान्त [ वर्ष ९ इन मब बातों अथवा कारणाम यह स्पष्ट है कि अनुमार यह कह ही नहीं सकते कि वह ग्रन्थका न्यायावतारमे 'श्रामोपज्ञ' नामक व पाकी स्थिति अङ्ग नहीं-प्रन्थकारक द्वारा योजित नही हुआ बहुत ही मन्दिग्ध है, वह मूल प्रन्थका पद्य मालम अथवा ग्रन्थकारमं कुछ अधिक समय बाद उसमें नहीं होता । उम मृलग्रन्थकार-विचिन ग्रन्थका प्रविष्ट या प्रक्षिम हुआ है। चुनांचे प्रो० साहबने वैसा आवश्यक अङ्ग मानने पूर्वोत्तर पद्यांक मध्यम उमकी कुछ कहा भी नहीं और न उस पद्य न्यायावतारमे ति व्यर्थ पड़ जाती है, ग्रन्थकी प्रतिपादन-शैली उदधृन हानकी बानका स्पष्ट शब्दाम काई युक्तिपुरस्मर भी उसे स्वीकार नहीं करनी, और इलिय वह विरोध ही प्रस्तुत किया है-वे उमपर एकदम अवश्य ही वहाँ एक उदधृत पद्य जान पड़ता है, जिसे मान हो रहे है। 'वाक्य' म्वरूपका समर्थन करने के लिय रत्नकरण्डपरम "उक्तम्ब' आदिकं रुपम उदधृत किया गया है। श्रनामे प्रबल माहित्यिक उल्लग्योंकी मौजदगीउद्धरणका यह कार्य यदि मलग्रन्थकारके द्वारा नही म रत्नकरण्डको विक्रमकी ५५वी शताब्दीकी रचना हा है तो वह अधिक ममय बादका भी नही है; अथवा रत्नमालाकारकं गुरुकी कृति नहीं बतलाया क्योंकि विक्रमकी १८वी शताब्दीक विद्वान आचार्य जा मकता और न इम कल्पित समयकं आधारपर सिद्धपिकी टीकाम यह मूलरूपम परिगृहीत है, जिमम उमका आप्तमीमामाम भिन्नकतृत्व ही प्रतिपादित यह मालूम होता है कि उन्हें अपने ममयम न्याया किया जा मकता है । यदि प्रोल माहब माहित्यक वतारकी जो प्रतियों उपलब्ध थी उनमें यह पय उल्नबादिको कोई महत्व न देकर ग्रन्थके नामोल्लेबमृलका अङ्ग बना हुआ था। और जबतक मिद्धपिमे को ही उमका उल्लेग्य ममझते हों तो वे आप्रमीमामापूर्वकी किमी प्राचीन प्रतिम उक्त पय अनुपलब्ध न फी कुन्दकुन्दाचार्य पर्वकी नो क्या, अकलङ्कके हो तबतक प्रो० माहब तो अपनी विचार-पद्धति'क ममयस पृर्वकी अथवा कुछ अधिक पूर्वकी भी नहीं कह मकंगे क्योंकि अकलङ्कम पूर्वक माहित्यम उमका १पो० माहबकी दम विचारपद्धतिका दर्शन उम पत्रपरम नामोल्लेख नहीं मिल रहा है। ऐसी हालतमे प्रो० भले प्रकार होमकना है जिसे उन्होंने मर उम पत्रके माहबकी दृमरी आपत्निका कोई महत्व नहीं रहता, नरम लिया था जिमम उनसे रत्नकरराडके उन मान वह भी समुचित नही कहीं जा मकनी और न उसके पयो की बाबत मयुक्तिक गय मांगी गई थी जिन्ह मनं द्वाग उनका अभिमन ही मिद्ध किया जा सकता है। रनकरगडकी प्रस्तावनाम मन्दिग्ध कर दिया था पार (अगली किरणम ममास) जिस पत्रको उन्हो ने गरे पत्र सहित अपने पिछले लेग्व (अनेकान्त वर्ग कि०१पृ० १२) में प्रकाशित किया है। वीरसेवामन्दिरको सहायता श्रीमान ला० घनश्यामदामजी जैन मी मुलतान वान प्राप्राइटर 'इन्द्राहोजरी मिल्म' जयपुरन, । प० अजितकुमारजा शास्त्री की अंग्णाका पाकर स्वर्गीय ला विरीलालजीकं दानमम १०५). वीरसेवामन्दिरको उमकी लायब्रर्गको महायतार्थ प्रदान किये है। इसके लिय उक्त लाला माहब और शास्त्रीजी दोनों ही धन्यवादका पात्र है। अधिमाता Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे पूर्वज - पं० गोपालदासजी वरैया [ लेखक अयोध्याप्रसाद गोयलीय ] आर्यसमाज में जो स्थान स्वामी श्रद्धानन्द रायजादा हंसराज और मुस्लिभ कौममे सर मैयद अहमद का है वही स्थान जनसमाजमे पं० गोपालदासजी वग्याको प्राप्त है। जिस समय जैनसमाज अपने धम अनभिज्ञ मिध्यान्धकार में फंसा हुआ था, उसके चांगे और शिक्षा - प्रसारका उज्ज्वल प्रकाश फैल रहा था, और उसकी चकाचौधसे चुन्धियाकर इधर-उधर ठोकरें खा रहा था, तभी उसके हाथमे धमज्ञानका दीपक देकर वयाजीने उसे यथाथ मार्ग देखनेका अवसर दिया । आज जो जैन ममाजमे मटीफिकेट शुदा विद्वद्वर्ग नजर आ रहा है. उसमें अधिकांश उनके शिष्यों और प्रशिष्यांका ही समूह अधिक है। जीका आविभाव होनसे पूर्व भारत में धर्मशिक्षाप्रसार और सम्प्रदाय संरक्षणकी होड़ भी लगी हुई थी । श्रयममाज समूचे भारतमे ही नहीं, अरब, ईगनमे भी वैदिकमका मण्डा फहरानेका मनसूबा की चोट जाहिर कर रहा था; उसके गुरुकुल, महाविद्यालय, हाईस्कूल और कॉलेज पनवाड़ीकी दुकान की तरह नीव्रगति से खुलते जारहे थे। मुसलमानांक भी देवबन्दमे धार्मिक और अलीगढ़ मे राज्यशिक्षा प्रणालीके केन्द्र खुल चुके थे। ईसाइयोकी तो होड़ ही क्या, हर शहर में मिशन शिक्षा केन्द्रो का जालसाथि गया था। लाखोकी संख्यामे धार्मिक ट्रैक्ट वितरित ही नहीं हो रहे थे, अपितु वपित्समा दिया आरहा था। केवल अभागा जनसमाज विमियाना सा अकमण्य बना अलग-अलग खड़ा था। शायद अकलङ्क और समन्तभद्रकी श्रात्मा जेनसमाजकी इस दयनीय स्थितिसे द्रवीभूत हो गई और उन्होने अपना कज्ञान और शास्त्रार्थकी प्रतिभा देकर फिर एकबार जैनधर्मको दुन्दुभि बजानेको इस कृशकाय सलौने व्यकिको उत्साहित किया । याजीने जो अभूतपूर्व कार्य किया, भले ही हम काहिल शिष्यांद्वारा वह लिखा नहीं गया है. परन्तु उनके महत्वपूण काय माची आज आचार्य, तीथे, शास्त्री और पडित रूपमे समाज मे सर्वत्र देखने को मिलते हैं । हमारे यहां का प्रामाणिक जीवन-चरित्र नहीं, आचार्योंके कार्य-कलापकी तालिका नहीं, जैनसंघके लोकोपयोगी कार्योंकी कोई सूची नहीं, जंनगजाओ, मन्त्रियों, सेनानायकोंके बल पराक्रम और शासन प्रणालीका कोई लेखा नहीं माहित्यिक्ा कोई परिचय नहीं. और तो और हमारी कि सामने कल- परमो गुजरने वाले - दयाचन्द्र गोयलीय, बाश्रृ देवकुमार, जुगमन्दरदास जज्र, वैरिस्टर चम्पतराय, शीतलप्रसाद, बा० सूरजभान, अर्जुनलाल सेठी आदि विभूतियोंका जिक्र नहीं, और ये जो हमारे २-४ बड़े बड़े मौनकी चौखटपर बड़े है, इनसे भी हमने इनकी विपदाओं और अनुभवको नहीं सुना है । और शायद भविष्य मे एक पीढ़ीमें जन्म लेकर मर जाने वालों तक के लिये उल्लेख करने का हमारे समाजकी उत्साह नहीं होगा । मेरे होश सम्हालने - कार्य क्षेत्र मे आने से पूर्व ही बयाजो स्वर्गस्थ हो गये, न में उनके दानोका ही पुण्य प्राप्त कर सका, न उनके सम्बन्धमे ही विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सका। केवल एक लेख उनकी मृत्युउपरान्त शायद पं०भक्म्वनलाल जी न्यायालङ्कारका Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अनेकान्त [ वप सरस्वतीमें उस समय पढ़ा था। उनके दर्शन न हुए भाड़ा दिये बिना पार काना. चुङ्गीवालोंको चकमा तो न सही, उनकी कार्यस्थली मोरनाको रज ही किसी देना, स्टेशन बावुओंको झांसा देना, कुलियों-तांगेतरह मम्तकपर लगाऊँ. उनके समवयस्क और सह- वालोंको बातामे राजी करना, थडेको भी विस्तर योगियांस उनके संम्मरण सुनकर कानोको तृप्त करू बिछाकर सकिण्ड बना लेना, धर्मशालाके चपरासिऐमी प्रबल इच्छा बनी रहती थी कि दिसम्बर १६४० यांसे भी भरपुर सुविधा लेना और इनामकी जगह में परिपके कायकर्ताओं के साथ मोरेना जानेका अव- अंगूठा दिखा देने में जो जितना प्रवीण होता है, वही सर भी प्राप्त हो गया। वरैयाजीके सामोदार ला० प्रवासमें रखने के लिये उपयुक्त समझा जाता है। अयोध्याप्रमाद तथा बा० नमिचन्द वकील श्रादि वरैयाजी इस शिक्षामें कोरे थे। इन्हें शिक्षित और १०-१२ बन्धुसि रातभर वरयाजोके सम्बन्धमें चतुर समझकर टिकिट लाने का कार्य दिया गया । ये कुरेद-कुरेद कर बातें जानने का प्रयत्न किया किन्तु टिकिटॉम फुछ कतरव्यांत तो क्या करते उल्टा लगेज एक-दो घटनाके सिवा कुछ नहीं मालूम हो सका। तुलवाकर उसका भी भाड़ा दे आये । आज उन्हीं स्मृतिको धुन्धली रेखाओंको कागजपर सेठ और रायबहादुर होकर उनका सामान तुल खींचनेका प्रयास कर रहा हूं। जाए इससे अधिक और सेठ साहबका क्या अपमान जिन मज्जनोंको उनके सम्बन्धमें कुछ उल्लेख- होता ? धनियाँक यहां चापलस और चुगलखोरोंकी नीय बातें मालुम हो, या पत्र सुरक्षित हो, वे हमारे क्या कमी? उन्होंने वरैयाजीक बुड़बक होनेका ऐसा पास कृपा-पूर्वक भिजवाएँ । हम उनका उपयोगी सजीव वर्णन किया कि वेचारे शिकारपुरी न होते हुए अंश धन्यवाद पूर्वक अनेकान्तमें प्रकाशित करेंगे। भो सेठ साहबकी नजरमि शिकार पूरी होकर रह गये। ऐसे ही छोटे छोटे संस्मरण और पत्र इतिहास निर्मा- जहां सत्यका प्रवेश नहीं, यथाथ बात सुननेका चलन णकी बहुमूल्य सामग्री बन जाते हैं। जैनसमाजके नहीं। धोखा, उल, फरेब, मायाचार ही जहां अन्य काय-फायांक भी संस्मरण और पत्र भेजने के उन्नति के साधन हों बिलफ और चकमा खाना ही लिये हम निमन्त्रण देते हैं। भले ही वह संस्मरण जहां अभीष्ट हो वहां वरयाजी कितने दिन निमते ? और पत्र साधारणसे प्रतीत होते हों, फिर भी उन्हें किनाराकशी ही स्वाभिमानको रक्षाक लिये उन्होंने भिजवाइये। न जाने उसमे क्या कामको बात आवश्यक सममी। निकल पाये। यह मूवता करके वरैयाजी पछताये नहीं, यह सामाजिक क्षेत्र में आनेसे पूर्व किसी समय वरया अचौर्यत्रत्त उनके पञ्चागवत्तोमेसे तीसरा आवश्यक जो एक रायबहादुर सेठ के यहां ३०) २० मासिक- व्रत्त था। एकवार वे सपरिवार बम्बईसे आगरे पर कार्य करते थे। एकबार सेट साहब आपको भी पाये। घर आकर कई रोज बाद माग-व्यय आदि तीर्थयात्रामें अपने साथ ले गये । शास्त्रप्रवचनके लिखा तो मालूम हुआ नौकरने उनके तीन वर्षक साथ-साथ गुमास्तको उपयोगिताका भी विचार करके बालकका टिकट ही नहीं लिया। मालूम होनेपर बड़ी इन्हें साथ लिया गया था। वरयाजी शास्त्र-प्रवचन आत्म ग्लानि हुई और आपने तत्काल स्टेशनमास्टरक में तो पटु थे। किन्तु गुमास्तगीरीकी कलामें कोरे पास पहुंचकर क्षमा याचना करते हुए टिकिट का मूल्य थे। सफरमे रेल्वे टिकिटांको कतरव्यति, लगेज, उनकी मेजपर रख दिया। स्टेशनमास्टरने समझाया ॐ मम्भवतया यही नाम था, यदि भूलमं दसरा कि २।वर्षसे अधिककी श्रायुपर टिकट लेनेका नियम नाम लिखा गया हो तो वबन्धु क्षमा करेंगे। है तो पर कौन इम नियमका पालन करता है। हम तो नाम मैने जान बूझकर नदी लिखा है। - वर्पक बालकको नजरन्दाज कर देते हैं। आपने Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] पण्डित गोगलदास जी वरैया १०७ आप टिकटका पैमा देने कोई हमारे पास शाया हो. थो, फिर भी क्या हुआ. आपसदारीके नाते भी तो हमें एसा मृग्वे कभी नहीं मिला। आप बड़े भोले हमारी टेक रखनी थी। जब पण्डितजीने हमाग मालूम होते हैं. यह दाम आप उठा लीजिये, सब यूही रत्तीभर लिहाज नहीं किया तो अब इनसे क्या साझेचलता है।” परन्तु वरैयाजी चालाक और पूर्व में निभाव होगा? भई ऐसे तोते चश्मसे तो जुदा दुनियांके लिये सचमुच मुव थे, वे दाम छोड़कर चले ही भले।" आये और बुद्धिपर जोर देनेपर भी अपनी इस इमी तरह के विचारोंसे प्रेरित होकर लाला मूर्खताका रहस्य न समम पाये और जीवनभर एसा साहबने पण्डितजीसे सामा बांट लिया, बोलचाल मूग्वता करते रहे। बन्द कर दी। वरयाजोसे किसीने इस आशारहित निर्णय के सम्बन्धमें जिक्र किया तो बोले-"भाई ला० अयोध्याप्रसादजीके साभेमें मोरेनामें इष्टमित्रोंको खातिर मैं अपने धर्मको तो नहीं बेचूंगा। वरैयाजीकी आदतकी दुकान थी। लाला साहबका जब मुममें न्यायीको स्थापना दोनों पक्षोंने कर दी तो एक व्यक्तिसे लेन-देनका झगड़ा चल रहा था। पाखिर फिर मैं अन्यायीका रूप क्यों धारण करता ? मेरा व्यक्ति तङ्ग आकर बोला-"आपके सामी वग्याजी जो धर्म मुझे न छोड़े, चाहे सारा संसार मुझे छोड़ दे तो निर्णय देगें, मुझे मंजूर होगा।" लालाजीने सुना भी नुझे चिन्ता नहीं।" तो बांहें खिल गई। मनकी मुगद पर फाड़कर लालाजीने मुझे स्वयं उक्त घटना सुनाई थी। आई। परन्तु निर्णय अपने विपक्षमें सुना तो उसी फर्माते थे कि-थोड़े दिन तो मुझे पण्डितजीके इस तरह निस्तब्ध रह गये जिस तरह ऋद्धिधारी मुनिके व्यवहारपर रोष मारहा। पर धीरे-धीरे मेरा मन हाथाम गरमागरम ग्वीर परोसकर रत्नोंकी वारिश मुझे ही धिक्कारने लगा और फिर उनकी इस न्यायदेखनेको बुढ़िया आतुरतापूर्वक आकाशकी और प्रियता, सत्यवादिता, निष्पक्षता और नैतिकताके देखने लगी थी और वा न होने पर लुटी-सी खड़ी आगे मेग सर भुक गया, श्रद्धा भक्तिसे हृदय भर रह गई थी। गया और मैंने भूल स्वीकार कर के उनसे क्षमा मांग लाला साहबको वरीयाजीका यह व्यवहार पसन्द ली। पंडित जी नो मुझसे मथे ही नहीं, मुझे ही न आया। "अपने होकर भी निर्याय शत्र-पज्ञ मान हो गया था, अत: उन्होंने मेरी कोली भर ली दिया, मी नसी इस न्यायप्रियताको। डायन भी और फिर जीवन के अन्त तक हमारा स्नेह-सम्बन्ध अपना घर बख्श देती है. इनसे इतना भी न हआ। बना रहा। हमें मालूम होता कि पण्डितजीक मनमे यह कालोस मुझे जिम तरह और जिस भाषामें उक्त संम्मरण है तो हम क्या इन्हें पंच स्वीकार करते? इसस तो सुनाये गये थे, न वे अब पूरी तरह स्मग्गा ही रहे हैं अदालत ही ठीक थी. सौ फीसदी मकदमा जीतनका न उस नरहको भाषा हो व्यक्त कर सकता है, फिर भी वकीलने विश्वास दिलाया था। पाह साहब, अच्छी आज र आज जो बैठे बिठाये याद आई तो लिम्बने बैठ गया। इन्हनि आपसदारी निभाई। माना कि हमारी ज्यादती डालमिया नगर, (विहार) ४ मार्च १६४८ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधरचरित्र सम्बन्धी जैन साहित्य । लेखक श्री अगरचद नाहटा । कथा कहानी सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्य है। जैनकथाएँ तो विश्वव्यापी हो गई हैं। यही उनकी भारतवर्ष में उमकी उपयोगिताको ओर सबसमयध्यान जनप्रियताका ज्वलन्त उदाहरण है। जनरुचिका रहा है, फलत: हजारों ग्रन्थ कथा-कहानियों एवं ध्यान रखते हुये जैन विद्वानोंने लोक कथाओंको भी जोवनचरितांक रूपमें पाये जाते हैं। मनोरञ्जन, खुब अपनाया और उन कथाओंके सम्बन्धमें सैकड़ों सत-शिक्षा एव धर्मप्रचार के उद्देश्यसे इनका निर्माण ग्रन्यांका निर्माण किया जिसका परिचय भी मेरे हुआ है। भारत पुगतन कालसे धर्मप्रधान देश होने "लोक-कथाओं सम्बन्धी जैन साहित्य" एवं 'विक्रसे सबसे अधिक कथा-ग्रन्थ धार्मिक आदर्शों के साहित्य सम्बन्धी जैन साहित्य' शीर्षक लेखाद्वारा प्रचारके लिये ही रचे गये हैं। इनमें से कईयोंका च गये हैं। इनमें से कहेयाका पाठकोंको मिल सका है। कई जैनकथाका प्रचार सम्बन्ध तो वास्तविक घटनाओंके साथ है; पर कई जैनसमाज तक ही सीमित है। पर दि० श्वे० दोनों कथाएं धार्मिक अनुष्ठानोंकी ओर जनताको प्राकर्पित सम्प्रदायों में वे समानरूपसे आदत है। एमो कथाकरने के उद्देश्यस गढ़ ली गई प्रतीत होती हैं। किन श्रोमेस श्रीपालचरित्र सम्बन्धी साहित्यका परिचय किन धार्मिक कार्योको करके किस २ व्यक्तिने क्या भी अनेकान्त वप।३ अङ्क २७ में कहे व५ पूर्व लाभ उठाया? एवं किन-किन पापकार्यों द्वारा किन- प्रकाशित कर चुका हूं। प्रस्तुत लेखमें एसे ही एक किन जीवोंने अनिष्ट-फल प्राप्त किया, इन्हीं बातोंको अन्य चरित सम्बन्धी साहित्यका परिचय दिया जारहा जनताके हृदयपर अङ्कित करने के लिये धार्मिक कथा- है जिसका नाम है 'यशोधरचरित्र'। दि०एवं श्वे. साहित्यका निर्माण हुआ एवं रचयिता इस फायमें दोनों विद्वानोंक रचित करीब ५० ग्रन्थ इसी चरित सफल हए भी कहे जा सकते हैं। यद्यपि आज भी सम्बन्धी जानने में आये हैं। उनकी सची पाठकांकी कहानीका प्रचार हो सवाधिक है पर अब उसका जानकारीके लिये इस लेख में दी जारही है। उद्देश्य एवं रूप बहुत कुछ परिवर्तित हो चुका है। वर्तमान लोक-मानमक मुकावपर विचार करनेसे यशोधर चरित्रकी प्राचीनताअब प्राचीन शैली अधिक दिन रुचिकर नहीं रह नपति यशोधर कब हुए हैं। प्रमाणाभावसे समय सकेगी अतः हमारे धर्मप्रधान कथा-चरित प्रन्धोंको बतलाया नहीं जासकता। कथा वस्तुपर विचार भी नये ढगसे लिखकर प्रचारित करना आवश्यक हो करनेपर जब देवीके आगे पशुबलिका अमानुषिक गया है, अन्यथा उनकी उपयोगिता घटकर विनाश काय जोरांसे चल रहा था तब उसके कुफलको बतहोना अवश्यम्भावी है। लानेके प्रसङ्गसे इसकी रचना हुई ज्ञात होती है। प्राप्त - भारतीय कथा-साहित्य में जैनकथा-साहित्य भी यशोधर चरित्रोंमे सबसे प्राचीन राजवि प्रभञ्जन अपनी विशालता एवं विविधताकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण रचित ही प्रतीत होता है। वि० सं०८३५ मे श्वे० उद्योस्थान रखता है जिसका संक्षिप्त परिचय मे अपने तन सूरिके रचित कुवलयमाला कथामे इसका 'जैनकथा साहित्य' शीर्षक लेख में कर चुका हूं अन: + नागरी-प्रचारिणी-पत्रिका वर्ष ५२, अङ्क यहां उसपर पुनः विचार नहीं किया जाता। फई + विक्रमस्मृति ग्रन्थ एवं जैन मत्यप्रकाश वर्ष, * जैन मिद्धान्त भास्कर वर्ष १२, अङ्क १ अङ्क ४ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] यशोधरचरित्र सम्बन्धी जैन-साहित्य १८९ निम्नोत उल्लेख पाया जाता है पूर्ण निर्णय तो हरिपेणके यशोधर-चरितकी प्राप्तिपर सत्तण जो जमहगे, जसहरचरिएण जणवए पयहो। ही निर्भर है। मम्भव है खोज कग्नपर वह किसी कलिमल पभजणो चिय, पभजणो श्रामि रापरिसी ॥४०॥ दिगम्बर जैन ज्ञान-भण्डारमे उपलब्ध हो जाय । ___ इससं सवत् ८३५से पूर्व प्रभञ्जनका यशोधर- विद्वानोंका ध्यान उसके अन्वेषणकी ओर भी चरित प्रसिद्ध ग्रन्थ माना जाता था यह सिद्ध होता आकपित किया जाता है। है। फिर भो प्रभञ्जनका वास्तविक समय अभीतक ११वी शताब्दीकं संस्कृत-यशोधरचरिताम मोमअन्वेषणीय है। देवमरिका यस्तिलक चम् विशेषरूपसे उल्लेखनीय निश्चित समयके ज्ञान ग्रन्थकारोंमेव जैनाचार्य है । सवन १०१६ (शाके ८८१) के चंत्र शुक्ला १३ हरिभद्रमुरिजाक "ममराइनकहा" प्रन्थमे कथा- का गणधारम इसकी रचना हुई है। यशोधरकी नायक पूर्वभवकं प्रमङ्गमे यशोधकी कथा पाई छोटी-सी कथाका विकास कविने कितने सन्दर ढामे जानी हरिभदरिकाममय विकीरवी शतीनिश्रित किया है, इमपर भलीभांति प्रकाश डालनके लिये भी है। प्रभञ्जनकं यशोधरचरितकी प्रनि अनेकान्तम विद्वानास अनुरोध है । मवन १८८४ के लगभग प्रकाशित मोबद्री-भण्डारको सूचीम वहाँक भण्डार- सुप्रसिद्ध विद्वान वादिराजने' ४ मर्गात्मक २९६ में प्रात हानकी मचना मिलनी है। मस्कत भाषाम श्रीकांका यशाधरम्ति बनाया है। नजौरके श्री ३६१ शोकमय प्रस्तुन ग्निकी प्रतिपत्रांकी है। टाट एम० कुप्यू म्वामी शास्त्रीनं इमं प्रकाशित किया मडावी-भण्डारक मशाल काम अनगंध है कि था,जिमका हिन्दीमे सार श्रीउदयलालजी काशलीवालइम चरिनको शात्र ही प्रकाशित कर, जिममे इमम ने मन १५०८ में जन-माहित्य-प्रमारक कार्यालय, वणित चरिनम पिछले ग्रन्थकांगन क्या परिनन बम्बईसे प्रकाशित किया था। किय अर्थान कथाकं विकास विपयम विचार ५५वी शताब्दीक परवती वामवमन, वादिचन्द्र, करनेका मन्दर माधन मामन श्रा मकं । जबतक वह चन्द्रापवर्गी आदिका समय निश्चित नहीं है। ज्ञात प्रकाशित न हो, हरिभद्रक ममगदिन्य-चरिनक मम ग्त्रिीका प्रारम्भ ५वीं शताब्दीम प्रारम्भ अन्नगत यशोधरारतको ही प्रधानता देकर पिछले होना है और १६ मिची शताब्दीम बहुतम यशोधर चरित्र-ग्रन्थाकी आलोचना करनेकी और विद्वानोका चरित्रांकी मम्कृत, हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी ध्यान श्रापित किया जाना है। भापाश्राम रचना हुई है, जिनका परिचय भागदी इनकं परवनी चरित-ग्रन्थोंम अपभ्रशके म कवि जाने वाली मचीम भलीभौति मिल जायगा। मचीम पुष्पदन्तका 'जमारचरित' एव महाकवि हरिपंगण एव यह भी स्पष्ट है कि इसका प्रचार कन्नड, गुजगन गजपनान आदिगमवंत्र था। अमरकोनि के अनुपलब्ध अपभ्रश ग्रन्थ है । प्रभजनके साथ हरिपंगणक यशोधाग्निका उल्लेख यमधिग्चारतका प्रमिद्रिका कारण-- वामवमनन अपन यशोधरचग्निम किया है । यथा जैनधर्मका सबसे बड़ा एव महत्वपूर्ण श्राद प्रभजनादिभिः पूर्व, हम्पिंग समन्वितः । हिमा है । वास्तव में वह जैनधर्मकी प्रान्मा है। यदुक्त नत्कथ शक्य मया बालेन न.चितम ॥ वादगरकपाश्रनाथचरित्रकारचना काल शकम०६१ वामवर्मनका समय मुझे ज्ञान नहीं है। उनके है। ५ श्वना पचास्त्रका उल्लेग्य उनक, यशा परनारत्रम उल्लिम्बित हरिपंण, धम्मपरिक्वा नामक अपभ्रश होनम उमका निमाण पाश्वनाथनास्त्रक पादही हा प्रन्धक रायना होनकी मम्भावना माननीय मिद्ध होता है । अपने काकन्यग्नि का उल्लेग्य भी प्रेमीजीन (मझलिग्विन पत्रमे)की है। इसीलिये मैन श्रापने इम ग्रन्थम किया है पर वह प्राप्त नहीं है. हम उम अपभ्रश भाषाम चन होनका निर्देश किया है। लिए उमकी भी ग्बोज होना अाघश्यक है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अनेकान्त [वर्ष ९ - अहिमाकी जितनी सूक्ष्म व्याख्या एव आचरण की मेरी गयमें इमके बने रहनेका कारण यह है कि तत्परता और कठोरता जैनधर्ममें पाई जाती है वैसी यज्ञमे पशु-हिमा करना बड़ा खर्चीला अनुष्ठान था विश्वके किसी भी धर्मग्रन्थमें पाई नहीं जाती । जैन- उमे तो राजा-महाराजा व सम्भ्रान्त लोग ही करवाते धर्मकी अहिंमाकी मर्यादा मानवातक ही सीमित नहीं थे। अत: उसकी व्यापकता इतनी नही हुई, इसीसे पर पशु-पक्षीके माथ पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल एवं थोड़े व्यक्तियोंके हृदय-परिवर्तन-द्वारा वह बन्द हो वनम्पति जगतकी रक्षामे भी आगे बढ़ती है। किसी गया; पर देवीपूजाम एक-आध बकरे आदिकी बलि भी प्राणका विनाश तो हिंमा है ही, यहाँ तो उनको साधारण बात थी और इसलिये वह घर-घरमे मानसिक, वाचिक, कायिक एव कृतकारित अनुमोदित प्रचारित हो गई। ऐहिक स्वार्थ ही इसमे मुख्य था । रूपसे भी तनिक-मा कष्ट पहुँचाना भी हिसाके अत: इसको बन्द करने के लिये सारी जनताका हृदय अन्तर्गत माना गया है। इतना ही नहीं, किसी भी परिवर्तन होना आवश्यक था । धर्म-प्रचार सभ्य प्राणीके विनाश एवं कष्ट न देनेपर भी यदि हमारे समाजमे ही अधिक प्रबल हो सका, अत: उन्हीके अन्नजगत-भावनामे भी किसीके प्रति कालुष्य है और घरोंसे तो बलि बन्द हुई पर ग्रामीण जनता तथा प्रमादवश स्वगुणोंपर कर्म-श्रावरण आता है तो उसे साधारण बुद्धि वाले लोगोंमे यह चलती ही रही। भी आत्मगुरणका विनाश मानकर हिंसाकी सज्ञा दी इमको बन्द कराने के लिये बहुत बड़े आन्दोलनकी गई है। श्रीमद् देवचन्दजीने आध्यात्मगीनामे कहा आवश्यकता थी। जैनाचार्योंने समय-समयपर इसे है कि हटानके लिये विविध प्रयत्न किये, उन्हीमेसे एक आत्मगुणनो हणतो, हिंसक भावे थाय । प्रयत्न यशोधरकी कथाका निर्माण भी कहा जा आत्मधर्मनो रक्षक, भाव अहिम कहाय ।। सकता है । यशोधरचरित्रमे प्रधान घटना यही है आत्मगुणरक्षणा, नेह धर्म । कि यशोधरने अनिच्छासे माताके दबावके कारण स्वगुण विध्वसना, तेह अधर्म ।। देवीके आगे साक्षात मुर्गेका नहीं पर आटेकं मुर्गेका अहिंसाका इतनी गम्भीर एव मर्मस्पर्शी व्याख्या वध किया, उसके फलस्वरूप उसे व उसकी माताको विश्वके किसी भी अन्य धर्ममे नही पाई जायगी। अनेक बार मयूर, कुत्ता, संही, सर्प, मच्छ, मगर, जैनधर्म महान् उद्धारक भगवान महावीरने अहिंसा बकरा, भैमा आदि पशु-योनियोंमे उत्पन्न होना पड़ा पालनके लिये मुनिधर्ममे कठिन-से-कठिन नियम एव इन सब भवोंमे उनको निर्दयता-पूर्वक मारा गया। बनाये, जिससे अधिक-से-अधिक हिसाकी प्रतिष्ठा जीवनमे हो मकं । इस कथाके प्रचारका उद्देश्य यह था कि जब अनिच्छामे आटे के मुर्गेको देवी के बलि देनेपर इतने भगवान महावीरके समय यज्ञादिमे महान दुःख उठाने पड़े तो जान-बूझकर हर्पमे जो साक्षात नरहिमा व पशुहिसा हो रही थी। धर्मके नामपर जीव-हत्या करते है उनको नरकम भी कहाँ ठिकाना होने वाली इस जीवहत्याको धर्मके ठेकेदार स्वर्ग होगा ? अतः बलि-प्रथा दुर्गतिदाता होनेसे सर्वथा प्राप्तिका साधन बतलाते थे। इस घोर पाखण्डका परिहार्य है। भगवान महावीर एव बुद्धने सख्त विरोध किया। जिसके फलस्वरूप हजारो ब्राह्मणोंने उनका शिष्यत्व पशु-बलिको दुर्गतिदायी सिद्ध करनेमे सहायक प्रहण किया और यज्ञ हाने प्रायः बन्दसे हो गये। इस कथाको जैन विद्वानो द्वारा अधिक अपनाना यज्ञके बाद पशु-हिसाकी प्रवृत्ति देवीपूजामे पाई जाती स्वाभाविक एवं उचित ही था। वास्तवम इम कथासे है, जो हजारों वर्षोंसे अनर्थ मचा रही है। यज्ञ बन्द हजारों श्रआत्माओंको पशु-बलिसे छुटकारा दिलाने व हो गये, पर इसने तो अभीतक पिड नहीं छोड़ा। दूर रखने में सहायता मिली होगी। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] यशोधरचरित्र सम्बन्धी जैन-साहित्य धार्मिक कथाओंमें मुख्यत: तीन प्रकारकी (प्रभंजनका उल्लेख दि० श्वे दोनों विद्वानों भावना काम कर रही प्रतीत होती है। कई ने किया है। अत: ये किस सम्प्रदाय के थे? कथायें वास्तविक चरित्रको उपस्थित करनेको, ठीक नहीं कहा जासकता)। कई धार्मिक अनुष्ठानोंको अपनानेसे अनेक २ यशस्तिलक चम्पू'-सोमदेवसूरि (शक मं०८८१ प्रकार के सुख प्राप्र करने के प्रलोभन एव रोचक ढङ्गसे चै० शु०१३ गङ्गधार में) रचित उपस्थित करनेको, कई बुरे कामोंसे नरकादिके दुःख ३ यशोधरचरित--श्लो०२९६ (४ सर्ग) वादिराज पानेको बताने वाली भयानक कथाओंको रचना हुई (म० १.८२) कृत।। है। यशोधरचरित तीसरे प्रकारकी कथा है। वर्तमान शिक्षास वैज्ञानिक विचारधाराका विकास अधिक हो ४ यशोधरचरित्र-पद्मनाभ कायस्थ (सं० १४६१ चुका है। अतः बहुतसे नवशिक्षितांको इन कथाओंमे के लगभग) निर्मित। [इसकी एक प्रति बीकानेर अतिरञ्जितपना एव अस्वाभाविकता नजर आयेगी, में कुं. मोतीचन्दजी खजाँचीके मंग्रहमें है ग्रन्थपर कथाकारोंका उद्देश्य पवित्र था। उन्होंने अपने प्रशस्ति महत्वकी है, उसको प्रतिलिपि हमारे अनुकूल वातावरण उपस्थित करने व लोकरुचिको मग्रहमे है पर वह अभी पास नहीं होनेसे प्रभावित करनेके लिये ही मूलकथामे इधर-उधरकी विशेष प्रकाश नहीं डाला जा सका] । बाते जोड़ भी दी हों तो वे क्षम्य ही समझी जानी ५ यशोधरचरित-वादिचन्द्रकृत मं० १६५७ चाहिए। ऐमी कई कथाओंको पढ़ते हुए जिस रूपमे अङ्कलेश्वर वे वर्णित है, कर्म-सिद्धान्तसे, उनका कई बाते मेल ६ यशोधरचरित्र-वासबसेन कृत नही खाती भी प्रतीत होती है; पर इस विषयपर ७ यशोधरचरित्र-पद्यनन्दिकृत विशेष विचार अधिकारी विद्वान ही कर सकते है। - यशोधरारत-सकलकीतिकृन ९ यशोधरचरित-(८ सग) सोमकीर्ति (मं० १५३६ मै स्वयं इस बातका अनुभव करता है कि प्रस्तुत पो०व०५ मेवाड़ के गोढल्याम) रचित ।[इमकी लेखमे यशोधरके कथानकको लेकर विभिन्न ग्रन्थ प्रति बीकानेरके अनूपमस्कृतलाइब्रेरीम ३३ कारोंने उममे क्या-क्या परिवर्तन एवं परिवर्तन किया पत्रोंकी है। है, उसपर तुलनात्मक दृष्ट्रिसे विवेचन किया जाना आवश्यक था। इमी प्रकार इसी ढङ्गकी अन्य भी जो १० यशोधरचरित-जानकी (मृडबिद्री भ० पत्र १६ कथाये प्राप्त है उनका पारस्परिक प्रभाव भी स्पष्ट श्लोक ३८०) कृन ।। किया जाता तो लेख बहुत उपयोगी होजाता. पर ११ यशाधरचरित-कल्याणकीति म०१४८८ (श्लोक अभी उसके लिये मुझे समय एव माधन प्राप्त नहीं . १८५०) रचिन । [अनेकान्त वर्ष १ में उल्लेख है] है। अत: इस कार्यको किमी योग्य व्यक्तिकं लिये १२ यशोधरचरित-ज्ञानकीर्ति म. १६५९ (ग्र० छोडकर यशोधर चरित्रों की सूची देकर ही लेख को १४००) । वादिभूपण शि. समाप्त किया जारहा है । आशा है मेरं अधूरे कार्यको १३ यशोधरचरित-ब्र नामदत्त (मं० १५७५) कोई विद्वान शीघ्र ही पूर्ण करनेका प्रयन करेंगे। १४ यशोधर चरित-पूर्णदेव १५ यशोधरचरित-मल्लिसन यशोधरचरित्र सम्बन्धी दिगम्बर साहित्य- १६ यशोधरचरित-श्रुतमागर (मभवत' टीका हो) मस्कृत १७ यशाधरचरित-सवसेन १ यशोधरचरित्र-प्रभंजन (वि०८३५ पूर्व) मड- १८ यशोधरचरित-चारूकीति बिद्री भण्डार पत्र ४ श्लोक ३६ । इसपर श्रीदेवरचित पजिका एव अतसागरकी टीका प्राप्त हैं। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अनेकान्त [वर्ष ९ १९ यशोधरचरित-दयासुन्दर कायस्थ (संभवत: जैन पुस्तकालय सूरत से गुजरातीमे १९ पेजका १८ पद्मनाम हों)। प्रकरणात्मक यशोधरचरित प्रकाशित है। २० यशोधरचरित-देवेन्द्र (मंभवतः पीछे उल्लिखित श्वेताम्बर साहित्यश्वे. रामका का हो ?) मस्कृत २१ यशोधरचारन-मोमसन १ यशोधरचरित्र-देवमूरि [ग्र. ३५०] (सम्भव अपभ्रश है दि० श्रीदेवकी पजिका हो)। १ जमहरचरिर-1 पप्पदंत शाके ८९४ (अपूण २ यशोधरचरित्र-माणिक्यमुरि प्रति हमारे मंग्रहमे उपलब्ध) ३ यशोधरचरित्र-हेमकुंजर (म० १६८७ पूर्व) B गंधव परित ३ प्रकरण। ४ यशोधरचरित्र-पद्मसागर (उ. जैन मा मं.इ.) • जमहरचरि-हरिपंगण (अनुपलब्ध)। ५ यशोधरचरित्र --ज्ञानदाम लोंका (म० १६२३) ३ जसहरचार उ--अमरकीर्ति (अनुपलब्ध)। ६ यशोधग्चरित्र-क्षमाकल्याण (स. १९३९ हिन्दी जैसलमेर) १ यशोधरचरित्र-गौरवदाम म. १५८१ फफौद गुजगनी-गजस्थानी २ यशोधररित्र--गरीबदाम मं० १६०० अजमेर १ यशोधरराम-(म० १५७३) देवगिरि (प्रति हमारे मग्रहम है)। २ यशोधरगम-ज्ञान (मम्भव है उपयुक्त ज्ञानदास ३ यशाधरचरित्र--खुशालचन्द्र काला मं० १७९१ वाला ही हा)। सांगानेर । ३ यशोधरराम-मनोहरदास (विजयगन्छ) (मं० ४ यशोधरचरित्र-परिहानन्द ८७६ श्राव०६ दशपुर) ५ यशोधरचरित्र--भूरजी अग्रवाल । ४ यशोधरराम-नयमुन्दर (म० १६१८ पोव० ६ यशोधरचरित्र-मनमोद अग्रवाल १ गु०)। ७ यशोधरचरित्र-पन्नालाल चौधरी (२८वी श०) ५ यशोधरगम-जयनिधान (मं० १६४३) ८ यशोधरचरित्र - नंदराम (१९०४ के लगभग) ६ यशाधरगम-देवेन्द्र (म० १६३८) ९ यशोधरचरित्र व नका-लक्ष्मीदास । ७ यशोधग्राम-उदयरत्न (मं० १७६७ पो शु. गुजगती ५ पाटण) (माणिक्यमरिके चरित्रके आधारपर) १ यशोधग्राम-ब्राजिनदाम(मं०१५२० लगभग) : यशोधरगम-जिनहर्प (मं० १७४७ वै०व०८ २ यशोधररास-मोमकीर्ति (मं. १६००, पंचायती पाटण)। मन्दिर, देवली)। ९ यशोधरराम-विमलकीर्ति (मं० १६६५ विजय कन्नड दशमी अमृतमर)। १ यशोधरचरित्र-चन्दप्प [चन्दन] वर्णी (श्लोक अन्यग्रन्थान्तर्गत ३५०)। १ समगइनकहा-प्रा० हरिभद्रसूरि (वी) आधुनिक हिन्दीमे वादिराज के चरित्रका हिन्दी- २ समगइमकहा-मक्षेप, प्रद्युम्नमरि (सं० १३२४) मार उदयलाल काशलीवाल लिग्वित जैन-साहित्य ३ समराइचकहा-क्षमाकल्याण, सुमति वद्धन प्रमारक कार्यालय, बम्बईसे प्रकाशित होनेका उल्लेख ४ उपदेशप्रामाद-विजयलक्ष्मीसूरि (१९वीं श०) पूर्व किया जाचुका है। माननीय प्रेमीजीकी सूचना- जैन माहिन्यनो संक्षिप्त इतिहाममे हरिभद्रसूरिजी नुसार सहारनपुरके जैनीलालजीने भी यशोधरचरित्र के स्वतन्त्र यशोधररित्रका भी उल्लेख है पर वह (भाषा) छपवाया था, पर अब नहीं मिलता। दि० सम्भव कम ही है। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] शङ्का-समाधान ११३ आधुनिक हिन्दीमे विद्याकुमार सेठी व राजमल है। इस सूचीके निर्माणमें निम्नोक्त प्रन्थोंकी सहायता लोढा लिखित जैनसाहित्यसीरीज नम्बर १५ के लीगई है:-- रूपमें अजमेरसे प्रकाशित है।। १ जैनरत्न कोष H D. वेलणकर ___उपर्यक्त सूचीमें ज्ञात यशोधरचरित्रोंका नाम २ जैन साहित्यनो सक्षिप्त इतिहास एवं जैनगुर्जर निर्देश किया गया है। उनमेसे कई संदिग्ध प्रतीत कविश्रो भाग २, ३ होते हैं पर उनके निर्णयके लिये सब ग्रन्थोंकी जाँच ३ अनेकान्तमे प्रकाशित दि. भण्डारोंकी सूचियाँ। होना आवश्यक है और वह सम्भव कम है । अतः २ जितनी भी जानकारी थी यहाँ उपस्थित करदी गई ४ प्रेमीजी सम्पादित “दि० जैनग्रंथ और ग्रंथकार" तत्व चर्चा शंका-समाधान [इम स्तम्भके नीचे ऐसे सभी शङ्काकार और समाधानकार महानुभावोंको निमत्रित किया जाता है, जो अपनी शङ्काये भेजकर ममाधान चाहते हैं अथवा शङ्कात्रों सहित समाधानोंको भी भेजनेके लिये प्रस्तुत हैं या किसी सैद्धान्तिक विषयपर ऊहापोह पूर्वक विचार करने के लिये तैयार है । अनेकान्त इन सबका स्वागत करेगा। –सम्पादक कि जमा ८ शङ्का-अरिहत और अरहत इन दोनों पदों अरहंत या अर्हन्त ऐसी भी पदवी प्राप्त होती है, क्यों में कौन पद शुद्ध है और कौन अशुद्ध ? कि जन्मकल्याणादि अवसरोपर इन्द्रादिको द्वारा वे ८ समाधान-दोनों पद शुद्ध है । आर्ष-ग्रथोंमे पूजे जाते है । अत: अरिहंत और अरहत दोनों शुद्ध दोनों पदोंका व्युत्पत्तिपूर्वक अयं दिया गया है और है। फिर भी णमोकारमन्त्रक स्मरणमे 'अरिहत' शब्द दोनोंको शुद्ध स्वीकार किया गया है। श्रीपट्खण्ड.. का उच्चारण ही अधिक उपयुक्त है, क्योकि षट् खण्डागमकी धवला टीकाकी पहली पुस्तकमे आचार्य गममे मूल पाठ यही उपलब्ध होता है और सवप्रथम वीरसेनस्वामीने देवतानमस्कारसूत्र (णामोकारमत्र) व्याख्या भी इसी पाठकी पाई जाती है । इसके सिवाय का अर्थ देते हुए अरिहत और श्ररहत दानाका जिन, जिनेन्द्र, वीतराग जैसे शब्दोंका भी यही पाठ व्युत्पत्ति-अर्थ दिया है और लिखा है कि अरिका सीधा बाधक है। भद्रबाहकृत आवश्यक निर्यक्तिमे श्रथ माहशत्र है उसको जो हनन (नाश) करते है भी दाना शब्दाका व्युत्पत्ति अथ देन हुए प्रथमतः उन्हे 'अरिहन' कहते है । अथवा अरि नाम ज्ञाना- 'अरिहन' शब्दकी ही व्याख्या की गई है। यथावरण, दशनावरगा, मोहनीय और अन्तगय इन अविह पिय कम्म अरिभय हाइ सव्व जीवाण। चार घातिकोका है उनको जो हनन (नाश) करते न कम्भरि हता अरिहता तेग बुच्चति ॥२०॥ है उन्हें अरिहंत कहते है। उक्त कर्मोके नाश होजाने- अरिहति वदण णममगाइ अरिहति पृयमक्कार । पर शेष अघाति कर्म भी भ्रष्ट्र (मडे) बीजके ममान मिद्धिगमण च अरिहा अरहता ने वुचति ॥६२१|| निःशक्तिक होजाने है और इस तरह समम्त कर्मरूप ५ शङ्का-कहा जाता है कि भगवान आदिनाथ अरिको नाश करनसे 'अरिहत' ऐमी मज्ञा प्राप्त होती से मरीचि (भरतपुत्र)ने जब यह सुना कि उम अन्तिम है। और अतिशय पूजाक अहयोग्य हनिमें उन्हें तीर्थकर होना है नो उमको अभिमान आगया, जिस Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अनेकान्त [वर्ष ९ से वह स्वच्छन्द प्रवृत्ति करके नाना कुयोनियोंमे है ? उमका मूल स्थान बतलायें ? गया। क्या उसके इस अभिमानका उल्लेख प्राचीन मुखमाल्हादनाकारं विज्ञान मेयबोधनम् । शास्त्रोंमे आया है ? शक्तिः क्रियानुमेया स्यादयूनः कान्ताममागमे ।। ९ समाधान हाँ, आया है। जिनसेनाचार्य ११ समाधान-उक्त पद्य अनेक ग्रन्थोंसे कृत आदिपुराण के अतिरिक्त भद्रबाहुकृत आवश्यक उधृत पाया जाता है। प्राचार्य विद्यानन्दने अष्टनियुक्तिमे भी मरीचिके अभिमानका उल्लेख मिलता सहस्रो (पृ. ७८) में इसे 'इतिवचनात' शब्दोंके साथ है और वह निम्न प्रकार है दिया है । आचार्य अभयदेवने सन्मतिसूत्र-टीका तव्ययण मोकण तिवइ श्राफोडि ऊग तिक्ग्युत्तो । (पृ०४७८)मे इस पद्यको उद्धृत करते हुए लिखा हैअब्भहियजा यह रिमो तत्थ मरीई इम भणई ।।४३०॥ "नच सोगतमतमेतत् न जैनमतमिति वक्तव्यम् , जइ वासुदेबु पढमो मूअाइ विदेहि चक्कट्टित्त । 'महभाविनी गुणाः क्रमभाविनः पर्यायाः' [ ] इति चरमो तित्थयराण होऊ अलं इत्तिय मम ॥४३१॥ जैनैरभिधानात् । तथा च सहभावित्व गुणाना प्रतिपादयता १० शङ्का-पूजा और अर्चामे क्या भेद है ? दृष्टान्तार्थमुक्तम्-" क्या दोनों एक है? इसके बाद उक्त पद्य दिया है। सिद्धिविनिश्चय १० ममाधान-याप मामान्यतः दोनोंमे कोई टीकाकार बड़े अन-तवीयने इसी पद्यका निम्न प्रकार भेद नहीं है, पर्याय शव्दीक रूपम दोनोंका प्रयोग उल्लेख किया हैरूढ़ है तथापि दोनोंमे कुछ सूक्ष्म भेद जरूर है। इस कथमन्यथा न्यायविनिश्चये 'सहभुवो गुणाः' इत्यस्य भेदको श्रीवीरसेनस्वामीने पट खण्डागमके 'बन्ध- 'मुग्वमाल्हादनाकार ' इति निदर्शनं स्यात् ।"-(टी०लि. स्वामित्व' नामके दूसरे खण्डकी धवला टीका पुस्तक पृ० ७६ ।) आठमे इस प्रकार बतलाया है अभयदेव और अनन्तवीयके इन उल्लेखोंसे "चरु बलि पाय फल-गन्ध धृव-दीवादीहि सगभत्तिप- प्रतीत होता है कि - प्रतीत होता है कि गुणोंके महभावीपना प्रतिपादन घामो अच्चण गाम । एदाहि मह अइधय कप्परुप्य महा करने के लिय दृष्टान्तकं नौरपर उसे अकलङ्कदेवने मह सम्वदोभट्टादिमहिमाविहाण पूजा णाम ।" पृ०६२। न्यायविनिश्चयमें कहा है। परन्तु न्यायविनिश्चय मूल अर्थात चरु, बलि (अक्षत), पुष्प, फल, गन्ध, म यह पद्य उपलब्ध नहीं होता । हो सकता है उसकी धूप और दीप इत्यादिसे अपनी भक्ति प्रकाशित करना म्वोपज्ञवृत्तिमे उमे कहा हो । मृलमे तो सिर्फ ५११वी अर्चना (अर्चा) है और इन पदार्थोके माथ ऐन्द्रध्वज कारिकाम इतना ही कहा है कि 'गुण पययवद्रव्य कल्पवृक्ष, महामह, मर्वतोभद्र आदि महिमा (धर्म- ते महक्रमवृत्तयः' । यदि वस्तुतः यह पदा न्यायप्रभावना)का करना पृजा है। विनिश्चयवृत्तिम कहा है तो यह प्रश्न उठता है कि तात्पर्य यह कि फलादि द्रव्योंको चढ़ा (म्वाहा- वहाँ वृत्ति कारने उसे उद्धृत किया है या स्वय रचकर पूर्वक समर्पण कर मक्षपम लघ भक्तिको प्रकट उपस्थित किया है ? यदि उद्धृत किया है तो मालम करना अर्चा है और उक्त द्रव्यां सहित समारोह होता है कि वह अकलङ्कदवसे भी प्राचीन है। और पूर्वक विशाल भक्तिका प्रकट करना पूजा है। यदि म्वय रचा है तो उसे उनके न्यायविनिश्चयकी यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि इन्द्रध्वज स्वोपज्ञवृत्तिका ममझना चाहिए । वादिराजमृरिने आदि पूजामहोत्सवका विधान वीरसेनम्वामीसे न्यार्यावनिश्चयविवरण (प० २४. पूर्वाः) मे 'यथाक्तं बहुत पहलेसे विहित है और जैन शामनकी प्रभावना . स्याद्वादमहाणवे' शब्दोंके उल्लेख-पूर्वक उक्त पद्यको मे उनका महत्वपूर्ण स्थान है। प्रस्तुत किया है, जिससे वह 'स्याद्वादमहार्णव' नामक ११ शङ्का-निम्न पद्य किम ग्रन्थका मूल पद्य किसी जैन दार्शनिक ग्रन्थका जाना जाता है। यह Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] शङ्का-समाधान ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है और इससे यह १०५ के प्रख्यात विद्वान् आचार्य वादिराजसरिने नहीं कहा जासकता कि इसके रचयिता कौन आचार्य अपने न्यायविनिश्चयविवरण (लिए प० २४५) में हैं। हो सकता है कि अकलङ्कदेवने भो इसी स्याद्वाद- एक असन्दिग्ध और स्पष्ट उल्लेख किया है और जो महार्णवपरसे उक्त पद्य उदाहरणके बतौर न्यायवि- निम्न प्रकार हैनिश्चयकी स्वोपज्ञवृत्तिमे, जो आज अनुपलब्ध है, "उक्त स्वामिसमन्तभद्रस्तदुपजीविना भनापिउल्लेखित किया हो और इससे प्रकट है कि यह पद्य घटमालिसुवर्णार्थी नाशोत्यादस्थितिष्वयम् । काफी प्रसिद्ध और पुराना है। शोक पमोट-माध्यस्थ्य जनो याति सहेतुकम् ।। १२ शङ्का-श्राधुनिक कितने ही विद्वान यह वर्द्धमानकभगेन रुचकः क्रियत यदा । कहते हुए पाये जाते हैं कि प्रसिद्ध मीमांमक कुमारिल तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ।। भट्टने अपने मीमांमा-श्लोकवार्तिककी निम्न हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्य तस्माद्वस्तु त्रयात्मकमाइति च ॥" कारिकाओंको समन्तभद्रस्वामीकी श्राप्तमीमांसागत 'घटमौलिसुवर्णार्थी' आदि कारिकाके आधारपर रचा इम उल्लेखमे वादिराजने जो 'तदुपजीविना' है और इसलिये समन्तभद्रस्वामी कुमारिलभट्टसे पदका प्रयोग किया है उससे स्पष्ट है कि आजसे नौ बहुत पूर्ववर्ती विद्वान है। क्या उनके इस कथनको मौ वर्ष पूर्व भी कुमारिलको ममन्तभद्रम्वामीका उक्त पुष्ट करने वाला कोई प्राचीन पुष्ट प्रमाण भी है ? विषयमे अनुगामी अथवा अनुमा माना जाता था। कुमारिलकी कारिकाएँ ये है जो विद्वान ममन्तभद्रस्वामीको कुमारिल और उसके वद्ध मानकभगेन रुचकः क्रियते यदा । समालोचक धर्मकीर्तिकं उत्तरवर्ती बतलाते हैं उन्हें तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चा'युत्तगर्थिनः ।। वादिराजका यह उल्लेख अभूतपूर्व पर प्रामाणिक हेमाधिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । समाधान उपस्थित करता है। १२ समाधान-उक्त विद्वानोंक कथनका पुष्ट बीरसेवामन्दिर ) करने वाला प्राचीन प्रमाण भी मिलता है। ई० सन् २७ फरवरी १६४८ ) --- दरबारीलाल कोठिया स्मृतिकी रेखाएं भिक्षुक मनोवृत्ति (ले० अयोध्या प्रमाद गोयलीय) बहुधा लोगोंके जीवनमे ऐसे अवमर आते है होती, आकस्मिक घटनाएँ भी होती है। कभी जेब कि दिनभर भूखे-प्यासे रहनेसे पट अन्तड़ियोंसे लग कट जाती है, कभी घरम लेकर न चले और साथियों जाता है, जीभ तालूसे जालगी है, ओठांपर पपड़ियाँ ने गम्तेमे ही पकड़ लिया और समझा कि अभी जम गई है और चलते-चलते पाँव मृमल होगये हैं। वापिस पाये जाते हैं, मगर रास्तेमे कार फेल होगई न पाममे एक धेला है जो चने चाबकर ही ठण्डा या ताँगा पलट गया पैदल चलनेके मिवा कोई चारा पानी पिया जाय, न मजिले मकसूद ही नजर आनी नहीं। कभी रेल्वे टिकिट के लिये १-० पैसेकी कमी है। पामम पैसे न होनकी वजह मुफलिमी ही नहीं गई है। परदेशमे किससे माँगे, कांद जान पहचानका Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ अनेकान्त [वर्ष ९ भी तो दिखाई नहीं देता, कि इस मुसीबतसे निजात पड़ें और जो ये लाये हैं, उसे छीनकर अपना काम मिले । और दिखाई दिया भी तो माँगनेकी हिम्मत चलाएँ । मगर कुछ नहीं बनता और एक निरीह न हुई, ओठ काँपकर रह गये । घरमे बच्चा बीमार खुदग़रज, अहङ्कारी, रूक्षस्वभावी न जाने क्या-क्या पड़ा है, उसी रोज वेतन मिलने वाला है, मगर घरमें लोगोंकी नजरोंमे बनकर रहजाते हैं। कुछ आप डाक्टरको बुलाने के लिये रुपये फीसको तो कुजा, बीनी अर्ज करता हूं: आफिम जाने के लिये इक्केके लिये दो पैसे भी नहीं है। और मनमे यह सोच ही रहे हैं कि चलो बञ्चको सन ३२की दिवाली आई और चली गई, न ही हम्पताल गोदमे लेचला जाये, ऐसे ही नाजुक हमारे घर में चराग़ न मिठाई आई । इस बातसे मौकेपर कोई साहब आते है । शक्लोशबाहत- हमारे चेहरेपर शिकन आई न दिलमे कोई से अच्छे खासे जीविकार और भले मालूम देते है। जिसकी पनी हाथमें ४-५ रुपयकी रेजगारी भी लिये हुए है। इस बेवसीपर नाज़ था । क्योंकि यह मुसीबत कुम्भ-स्नानको जाना है, एक-दो रुपयेकी जो कमी देवकी तरफसे नही हमने खुद ही बुलाई थी। रह गई है, उसे पूरी करने चले आये हैं और इनकी धज देविय-नाज मुहतमे छोड़ रक्या है, सिर्फ मुझे तुझसे कहना याद नही रहा, एक आदमी फल-दधपर गुजर फर्माते है, ऐसे मयमीकी महायता १०-१२ चक्कर लगा चुका है, न नाम बताता है न करना आवश्यक है। भांजीके भातमें २०००) रु० की काम, न तेरे मिलनक वक्तपर आता है, य कई चकर कसर रह गई है, ऐसे कारे मवाबमे मदद करना काट चुका।" माँ अपनी बात पूरी भी न कर पाई अखलाकी फर्ज है। अफीम खानेको पैसे नहीं रहे है, थी कि बोली-"देख, वही शायद फिर आवाज अफीम न मिली नो विचाग जम्हायाँ लेते-लेते मर दे रहा है।" जायगा, इन्मानी जान बचाना निहायन जरूरी है। बाहर आकर उनका परिचय पूयूँ कि वे से दुम्बद प्रमङ्गोंपर बड़ी विचित्र परिस्थिति होती स्वयं ही बोलेहै । वासकर उम अवसरपर जबकि अप खुद "आप ही गोयलीयजी है।" मही मायनोंमें इम्दादक मुस्तहक़ है, मगर अपनी "जी, मुझ खाकमारको गोयलीय काते हैं।" वजहदारीकी वजहसे आप किमीपर भी यह राज़ "वाह, माहब श्राप भी खूब है। पचामों चक्कर जाहिर नहीं करना चाहते और तभी कोई श्राप लगा डाले तब श्राप मिले है।" जाने पहचाने माहब-किमी जल्सेके लिय, चौबेको मै हैरान कि खामाखाँ भाड पिलाने वाले यह भरपेट लाडू खिलाने के लिये, किमी साधुके मन्दिर माहब अाखिर है कौन? पुलिस वाले यह हो नहीं का कुआ बनवाने की हठ करने के लिये, चिड़ीमारके मकते. उनकी इतनी हिम्मत भी नहीं कि इस तरह चगुलम तोते छुड़ानेके लिये, मुहल्लेम माँग करनेके पेश श्राप, कोई कर्ज मांगने वाला भी नहीं हासकता लिये, कलकत्ते बम्बईमे चलने वाली मजदर हडतालके क्योंकि यहाँ यह आलम रहा है किलिये, देवीका परमाद बाँटनके लिये, कसाईके साथसे घरमे भका पड रहे दस फाके होजाए । लाड़ी गाय छुड़ानेके लिय-चन्दा मांगने जाते तुलसी भेया अन्धुके कभी न माँगन जाए । है। तब कैमी दयनीय परिस्थिति होजाती है, ना जब बाबा तुलमीभैया बन्धुसे मांगना वजित कर करने की हिम्मत नहीं; देनेको कानी कौड़ी नहीं । गये है तब गैगसे उधार मांगनेकी तो मै बेवकूकी कभी दिल चाहता है दोवारसे टकराकर अपना सर करता ही क्यों ? फिर भी मैने बड़ी आजिजीमे न फोडले, कभी जी चाहता है इन माँगनेवालोंपर टूट मिलने का अफमोस जाहिर करते हुए उनसे गरीब Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] भिक्षुक मनोवृत्ति ११७ खानेपर तशरीफ श्रावरीका सबब पूछा तो मालुम आदि बाँटते हुए एक ऐसे गाँवमे गये जहाँ वर्षासे हुम्पा कि मेरे साथ जो जेलमे एक वालिण्टियर बहुत हानि नही हुई थी और बादमे मालूम हुआ कि यह ५-२ माह रहे थे, ये उनके भाई है। उनकी तन्दुरुस्ती ब्राह्मणोंका गाँव था । वहाँ गांव वालोंकी सलाहसे ठीक न होनेकी वजहसे वे शिमले जाना चाहते हैं। तय हा कि पूरे गाँव भरके लिये कमसे कम एक लिहाजा मुझे उनके पहाड़ी अवराजातके माकूल सप्ताह के भोजनका प्रबन्ध फौरन कर देना चाहिये इन्तज़ामान कर देने चाहिये। और जबतक स्थिति पूर्व जैसी न होजाय बराबर मै तो सुनकर मन्न रह गया। पहले तो यही साप्ताहिक गहायता आती रहनी चाहिये । जन-लेखा बड़ी मुश्किलमे समझमे आया कि ये आखिर ज़िक्र का हिमाब लगाया गया तो ८० मन गेहूं की हप्त किन माहबका कर रहे है। यह जान पहचान ठीक बैठता था। गाडी यहाँ आकर अटकी कि ८० मन इसी तरह की थी जैसे कोई कहार देहलीसे डोली गेहें दिल्लीसे क्योंकर लाया जाय? कारके आने-जाने मगढकर ले जाएँ और लोगोंसे कहे कि प० नेहरू को हो बश्किल नहर विभाग प्राज्ञा मिली है। रिश्ते माढ होते है । और कुरेदगार पृछनपर इम स्नतरेमे ट्रक या लॉरी तो किसी हालतमे भी बता कि जिम शहरसे पण्डितजी कमला नेहरूका नही प्रामकती ।। डला लाये थे, वही से हम भी डोली लाये है। हम लोगोंको चिन्तामे पड़े देख गाँव वाले बोले मुझे उसकी इम दीदादिलेरी, बेतकल्लुफी, "दिल्लीमे गे लाने की क्या ज़रूरत है। हमारे यहाँ भीग्वक टूक और बाजारमे डकार वाली शानपर सबके पास गेहें भरा पड़ा है, दाम देकर चाहे ताव तो बहुन आया, मगर घरपर पाया जानकर जितना खरीद लो।" बल ग्वाकर रह गया और निहायत आजिज़ीम हमारी हैगनीकी हद न रही, हमने कहा-अरे मजबूरी जाहिर की, न चाहते हुए भा मुफलिमाकी भई जब तुम्हारे पास गल्ला भरा पड़ा है तब तुम रंग्बा खीची। मगर उसका यकीन न आया । "लोग नाहक हमसे लेना चाहते हो? बड़े खुदगरज है, खूद गुलछरें उडाने है, मगर दूसरों व बोले-"वाह साहब, आप जब इतनी दूर का छटपटात देखकर भी नहीं मिहरते।" इमी नरहके चलकर देने आय है तब हम क्या न ल. आप भी भाव व्यक्त करते हुए वे चले गय और में अपनी अपने मनम क्या कहेंगे कि ब्राह्मगा होकर दान लेनसे इम बेवमीपर नादिम गढा-मा रह गया कि एक वा इन्कार किया ।" हमने अपनी हंसी और श्रावेशको है जो स्वास्थ्य सुधारने पहाड़ जारहे है और एक हम रोककर कहा-“भई हम इस वक्त स्वैगत करने नहीं है कि दम उखाड़ने वाली खॉमाकं लिये मुलेठी-मत आय. अपने भाइयोंकी मदद करने आये हैं । नही जटा पारह है। मुसीबनम इन्मान ही इन्मानके काम आता है। हम - ३ दे रहे है हमीम दाता नहीं और जो ज़रूरतमन्द ले कुछ घटनाए विरोधी भी मुनिये रहे है, वह मांगते नही। यह तो मब मिलकर १९३३ या ३४ की बात है। जमनामे बाढ मुसीबतमे एक दुमरेका हाथ बटा रहे हैं। इसीलिये आजानसे निकटवर्ती गांव बड़ी विपदामे आगये थे। गाँवमे जो मचमुच इमदादके योग्य हो उसे बुलादी, उन्हें भोजन, वस्त्र, दवा अदिकी अविलम्ब श्राव- जो हममें उसकी महायना बन सकेगी करेगे।" श्यकता थी । दिल्ली वाले प्राणपणम महायता पहुँचा गांव वालोन जिम बुढ़ियाका नाम बताया, उसने रहे थे। हमारे इलाकेमे भी हजारों रुपये एकत्र हुए। मिन्नतें करनेपर भी कुछ नहीं लिया। तब वे गाँव हम एक कारमे आवश्यक मामान रखकर नहरके वाले म्वय ही बोले-आप नाहक परेशान होते है। राम्तमें पड़ने वाले गांव में गये। वहाँ दवाएँ, वस्त्र इमदाद लेगा तो माग गाँव लेगा, वर्ना कोई न लेगा। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ अनेकान्त [वर्ष ९ अगर आप हमें न देकर मिर्फ १-२ को देकर चले अपनी दानशीलताकी खाज मिटाई गई। कारमें सब जायेंगे तो सारा गाँव इन्हें हलका समझेगा, ताना साथी मुँह लटकाये दिल्ली वापिस जारहे थे, हम बड़े मारेगा, इसी डरसे यह लोग नहीं लेते हैं न लेंगे। या ये किसान, शायद इसी समस्याको सब बड़ा जी खराब हुआ, जिन्हे मचमुच सहायताकी सुलझा रहे थे। जरूरत थी, उन्हें भी सहायता न दी जासकी । -४लाचार कार में बैठकर नहरकी पटरी-पटरी दिल्लीकी डालमियाँनगरमें सहारनपुरके चौ० कुलवन्तओर वापिस जारहे थे कि नहरके किनारे कुछ राय जैन रहते थे । ५०-५५ वर्षकी आयु होगी। लोग औरतों बच्चों ममेत दिग्बाई दिये तो कार जीशकर, खशपोश और बड़ी वजह कतहके बुजुर्ग रुकवा ली। पूछने पर मालूम हुआ कि गाँवमे पानी थे। घर के आसूदा थे, मगर व्यापारमें घाटा आजानेश्राजानेसे यह लोग यहाँ श्रागये हैं और ज्यादातर से यहाँ सर्विस करके दिन गुज़ार रहे थे। मामूली किसान जाट हैं। वेतन और मामूली पोस्ट पर काम करते थे। मेरे पास हमने जब इमदाद देनेकी बात उठाई तो वे अक्सर आया करते और बड़ी नजमवेकी बाते लोग बातको टाल गये, दुबारा कहा तो ऐसे चुप सुनाया करते थे। निहायत खुश अखलाक बामजाक, होगये जैसे कुछ सुना ही नहीं। फिर तनिक ज़ोर नकचलन और कायदा करीनक इन्सान थे। उनकी देकर कहा तो बोले-आपकी मेहरबानी, हमे किसी सुहबतमे जितना भी वक्त सर्फ हुआ, पुरलुत्फ रहा। चीज़की दरकार नही, भगवानका दिया सब हर इन्सानको घरेलू परेशानियाँ और नौकरी मम्बन्धी अमुविधाएं होती है, मगर २.३ सालके उस गाँवकी भिक्षुक मनोवृत्ति देखकर हम जो असेंम एकबार भी जबानपर न लाये। मिल क्षेत्रोंमे गाँव वालोंके प्रति अपनी राय कायम कर चुके थे जहाँ बैठे बिठाये, लोगोंको उत्पात सझते रहते है। वह उड़ती नजर आई तो हमने अपनी दानवीरताक इक्रीमेण्ट, (वार्षिक तरक्की) बोनस (नौकरीके अतिबड़प्पनके स्वरमे तनिक मधुरता घालते हुए कहा- रिक्त वार्षिक भत्ता) डेज़िगनेशन (पद) और ऑफि"सोचकी कोई बात नही, तुम्हारा जब सब उजड़ ससकी शिकायते, किन्कलाब, मुर्दावाद और हाथगया है, तो यह सामान लेनेमे उन किस बातका ? हाथके नारोंसे अच्छे अच्छोंक श्रासन और मन यह तो लाये ही आप लोगोंके लिये हैं।" हिलजाते है । तब भी उनके चहरंपर न शिकन हमारी बात उन्हें अच्छी नहीं लगी, शिष्टाचारके दिखाई दी, न जबानपर हफेशिकायत । नाते उन्होंने कहा तो शायद कुछ नहीं, फिर भी उनका इकलौता लड़का रुड़की कॉलेजमे इञ्जीउनके मनोभाव हममे छिपे नही रहे। उन्होंने मौन नियरिङ्ग पढ़ रहा था । शायद ८०) रु. मासिक रहकर ही हमपर प्रकट कर दिया कि जो स्वयं भेजने पड़ते थे । मै जानता था यह उनके बूतेके अन्नदाता है, वे हाथ क्या पसारेगे? फिर भी हमारे बाहर है, उन्हे बमुश्किल इतना कुल वेतन मिलता मन रखनको उनमेसे एक बूढ़ा बोला-"लाला- था। अतः मै समझता था कि या तो धीरे-धीरे बचे हम सब बड़े मौजमे हैं, अगर कुछ देनेकी समाई है खुचे जेवर सर्फ होरहे है या सरपर ऋण चढ़ रहा तो उस टीलेपर हमारे गाँवका फकीर पड़ा है, उसे है। पूछनेकी हिम्मत भी न होती थी, पू→ भी जो देना चाहो दे आओ । हम सब अपनी-अपनी किस मुंहसे ? गुजर-बसर कर लेगे। उसकी इमदाद हमारे आखिर एक रोज़ जी कड़ा करके मैने रास्तेमे बसकी नहीं।" उनसे माहू साहबसे छात्रवृत्ति लेने के लिये कह ही आखिर उस फकीरको ही थाटा-वस्त्र देकर दिया। सुनकर शुक्रिया अदा करके मन्दिरजी चले Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] सम्पादकीय गये। दूसरे रोज घरपर तशरीफ लाये और फर्माया- बतौर इनाम मिलेगा। "गोयलीयजी, आप मेरे बड़े शुभचिन्तक हैं, यह मैं मैने समझा वार भरपूर बैठा और चौधरी साहब जानता हूं। आपने मेरा दिल दुखानेको नही बल्कि अब सीधे खड़े नहीं रह सकते । मगर नहीं, उन्होंने नेकनीयतीसे ही मुझे यह सलाह दी है। आपकी वार भी बड़ी खूबीसे काटा और मुझे पटखना भी बात टालनेकी हिम्मत न होनेकी वजहमे, मैं उस ऐमा दिया कि चोट भी न लगे और हमलावरकी वक्त स्वीकारता देकर चला गया। मगर फिर घर तारीफ करनेको जी भी चाहे। जाकर मोचा तो, बात मनमे बैठी नहीं। एक साल फर्माया-गोयलीयजी, आपका फर्माना वजा रह गया जैसे भी होगा निकल जायगा। इस बुढ़ापे- है, मगर बेअदबी मुआफ, यह होनहार लड़कोंको मे क्यों जगसी बातपर ग्वानदानको दाग लगाया ? वजीफेके तौरपर मिलता है तो गरीब-अमीर मब भला लड़का ही अपने मनमें क्या सोचेगा, भई लडकोंको बिना माँगे क्यों नहीं मिलता, सिर्फ गरीब गोयलीयजी मै छात्रवृत्ति लेकर अपने बच्चेका दिल लडकोंको ही क्यों मिलता है।" छोटा हरगिज़ नहीं करूँगा।" __मेरे पास इसका जवाब नहीं था, क्योंकि मैं चौधरी साहब इतना स्वाभिमानका उत्तर देगे, जानता था कि श्रमहाय विद्यार्थी भी उच्चसे उच्च अगर मुझे यह श्रागाह भी होता तो मै यह ज़िक्र शिक्षा प्राप्त कर सके, आर्थिक अभावके कारण उनका तक न छेड़ता। मगर अब तो तीर कमानसे निकल विकाम न रुक जाय, इमी सद्भावनासे प्रेरित होकर चुका था, निशानेपर न लगे तो तीरन्दाज़की खूबी श्रीमान माह साहबने छात्रवृत्ति जारी की है। क्या ? मै तनिक अधिकारपूर्वक बाला-चौधरी चौधरी साहब आज संसारमें नहीं हैं, मगर माहब, आपका माहबजादा फटक्लास फर्स्ट आया है, __ उनकी वजहदारी याद आती रहती है। . ऐसे होनहारको तो वजीफा लेनका पूरा हक है । इममे सङ्कोच और एहसानकी क्या बात है ? यह तो उसे १८ फरवरी १९४८ सम्पादकीय १ मगरमच्छके आंसू गालियाँ चलवाते रहे। स्वराज्य-सैनिकोंको गिरफ्तार महात्माजीक निधनसे मारा भारत शोकमग्न हो कराते रहे, अदालतोम भूठी गवाहियाँ देकर सजा गया है। भारतीयों को ही नहीं विदेशियोंके हृदयको दिलाते रहे । खद्दर पहनना तो दरकिनार विलायती भी काफी आघात पहुँचा है। उनके धार्मिक और कपड़ा पहनते रहे-बेचते रहे । पतितोद्धार तो कुजा राजनैतिक सिद्धान्तोंसे मतभेद रखने वाले भी व्यथित अपने मजातियोंको भी मन्दिर-प्रवेशसे रोकते रहे। हुए है । महात्माजीका व्यक्तित्व ही ऐसा था कि हिन्दू-मुम्लिम राज्यकी क्या चली अपने समाजको विरोधी भी उनके लोकोत्तर गुणों के कायल थे। कुरुक्षेत्रका मैदान बनाये रहे-श्राज महात्माजीके ऐसे लोग भी जो जीवनभर महात्माजीके प्रति श्रद्धाञ्जलि अपण कर रहे है, तार भेज रहे है, सिद्धान्तोंका विरोध करते रहे, उनके चलाय स्वराज्य- शोक-सभाओं में भापण दरहे है, लेख लिख रहे है, संग्राममे विपक्षीकी ओरसे लड़ते रहे। निहत्थोंपर जिन्हें स्वयं लिखना नहीं पाता, वे दूसरोंसे लिखवा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अनेकान्त [वर्ष ९ रहे हैं, पत्रोंके विशेषांक निकाल रहे हैं, स्मारक १ लाखसे अधिक सैनिक कभी नहीं हुए। बनवा रहे है । मानों मारा भारत गांधीवादी होगया आश्चर्य तो यह देखकर होता है कि हमारी है। काश लोगोंने अपनी भल ममझी होती, और समाजमे जिन भले मानुसोंने ब्र० शीतलप्रसादका सचमुच हृदय परिवर्तन किया होता जो मतप्त होने- बहिष्कार इसलिये किया कि वे अन्तर्जातीय विवाह का अभिनय कर रहे है काश मचमुच संतप्त हुए होते और दस्सा पूजनको जैनधर्मानुकूल समझते थे। वही तो महात्माजीका मरण भी भारतके लिये वरदान आज अछूतोंक मन्दिर प्रवेश तथा रोटी-बेटी व्यवहार हुआ होता। और विधवा विवाहके प्रबल प्रसारक महात्माजीका ऐसे छद्मस्थ लोगोंके आँसू उम मगरके समान बड़ी श्रद्धा-भक्तिसे कीर्तन कर रहे है। जिन लोगोंने है जो धोखमे डालनेको तो श्राँग्बाम आँस भरे रखता ब्रह्मचारीजीको अपने सभामश्चसे न बोलने दिया, है, पर अपनी करनीसे लहमेभरको भी बाज नहीं वही महात्माजीकी शोक-सभा मन्दिरोम कर रहे है। आता । मन ३२ या ३ महात्माजी जब पहली बार जिन्होंने शिष्टताक नाते उन्हें ब्रह्मचारी तक लिखना दिल्ली की हरिजन कोलोनीमे ठरती सन्ध्याकालोन छोड दिया, मन्दिरामें जानसे रोक दिया, वही श्राज प्रार्थनाके समय काफी जन-समह एकत्र हया। जिनमें महात्माजीका स्मारक बनाने की सोच रहे है, विश्वविलायती वस्त्रोंसे सुजित बनी-ठनी महिलाएँ और वन्दा कहकर अपनी श्रद्धा-भक्ति प्रस्ट कर रहे है। मृटवृट धारी युवक ही ज्यादातर थे। पांव छने जब हम चले नो माया भी अपना न माय दे । लिये अग्रसर होती हुई भीडको देखकर महात्माजी जब वे चलं जमीन चले ग्रास्माँ चले ॥ तनिक ऊंचं म्वरम बोले-"तुम लोग मेरे पाँव छून -जलील के बजाय मेरे मुँहपर थूक देते तो अच्छा था। मैं याद मचमुच यह लोग महात्माजाक जिन सिद्धान्तोंके प्रसार के लिये माग-मारा फिर रहा और श्रद्धालु हुए होते तो बात ही क्या थी। भून है, जिम स्वराज्य-मग्राममे मै लिप्त है. उसमे तो तग किससे नहीं होनी, बड़े-बड़े दापी भी प्रायश्चित करने लोग मेरी तनिक भी सहायता नहीं करते ? उल्टा पर मङ्घमें मिला लिये जाते है। पर नहीं, इनके हृदय जिन विदेशी वस्रोंकी मै होली जलवाता फिर रहा मे उसी तरह हलाहल भरा हुआ है, देशकी प्रगतिमे हूँ, उन्हें ही पहनकर तुम मेरे सामने आते हो? ये बाधक रहे है और रहेगे, सुधार कार्योम सदैव मेरी एक भी बात न मानकर केवल दर्शन करनेम ही विघ्न स्वरूप बने रहेंगे। इनका रुदन केवल दिखावा जीवनकी सार्थकता समझते हो।" मात्र है। महात्माजीके अनुयायियोंक हाथमे आज . सचमुच उस नेतासे बड़ा प्रभागा दनियामे और शासन-सत्ता है इसीलिये इन्होने अपना यह बहरूपिया कौन होसकता है, जिसका जय-जयकार नो सारा वेप बनाया है। शासन-सत्ता जिसके हाथ में हो, वह देश करे, उसे ईश्वर तुल्य पूजे किन्तु आदेशांका चाहे भारतीय हो या अभारतीय, पटवारी हो या पालन मुट्ठीभर ही करते हों। दरोगा उसीके तलुवे सहलानम लोग दक्ष होते है। ऐसे ही छद्मथ अनुयायियोंके कारण नेता २ जाली संस्थाएंधोखा म्वाजाते है । स्वयं महात्माजी भी कई बार ऐसे कुछ धूर्तीका यह विश्वास है कि दुनिया मुखोंस धोखेके शिकार हुए। भारतमै मर्वत्र इस तरहकी श्रद्धा भरी पडी है। इसमे हियक अन्धे और गाँठके पूरे भक्तिसे ओत-प्रोत भीड़को देखकर उन्हे अपने अनु- अधिक और विवेकवुद्धि वाले बहुत कम है। इसी यायियोंकी इस बहुसख्याका गलत अन्दाज होजाता लिय वे धूर्तताके जालमे लोगोंको फैमाते रहते है। था । वे समझ लेते थे, मेरे इशारेपर समूचा भारत हमारी समाजम भी कितनी जाली संस्थाएं ऐसे लोगों तैयार बैठा है। किन्तु युद्ध छेड़नेपर ३५ करोडके देशमे ने कायमकी हुई है। कोई धर्मार्थ औषधालयके नाम Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] सम्पादकोष १२१ पर, कोई अहिंसा प्रचारक सङ्घके नामपर, मनमानी काम लेनेका दुःस्साहस कर रहे है। इतना भी होता लूट मचा रहे हैं। पत्रोंमे विज्ञापन देते है, उपदेशकी तो गनीमत थी, शायद तूफानोंमे पड़कर लहरोंके का जामा पहनकर गाँव-गाँवमे घूमते हैं। चन्दा सहारे वह कभी न कभी पार होजाती। परन्तु यहाँ इकटा करते है और गुलछरें उड़ाते है। समाजका तो आलम ही जुदा है। हर नाविक बना हुश्रा अपनी खून चूसने वाली ऐसी जाली संस्थाओंका सामूहिक अक्लकी पन्तल फाड़ रहा है। एक-दूसरेके मार्गका रूपसे भण्डाफोड़ होना चाहिये। इनके संचालकोंके विपरीत अनुसरण कर रहा है । नाव मॅवरमें पड़कर काले कारनामोंका सचित्र उल्लेख होना चाहिये। मौतके चक्कर काट रही है और उसके सितमजरीफ ताकि समाज इन धूतोंके चङ्गुलसे बच सके । नाविक एक दूसरेको धकेलने और अपनी मनमानी अनेकान्त ऐसे लेखोंका स्वागत करेगा। करनेपर तुले हुए हैं। और नावमे बैठे हुए निरीह ३ हमारा नेता अबोध माली सर पीटकर चिल्ला रहे हैं ग्वेलना जब उनको तूफानों से आता ही न था । हमारे नेता एक नहीं अनेक हैं, जितने नावमे फिर यह किश्तीके हमारे नाखुदा' क्यों होगये ? बैठने वाले नहीं उससे अधिक खेवट मौजूद है। कैसी दयनीय स्थिति है उस समाजकी, जिसके अगर यह वेवट एक मत होकर हमारी इस जीर्ण भूतपूर्व बल पगक्रमको याद करके मृत्यु उसके पास शीण नौकाको पार लगानेका प्रयत्न करते तो हमे श्रानेसे झिझकती है, परन्तु उसके मार्गदर्शक बने हुए अपने भाग्यपर गर्व होता, हम बाआवाज बुलन्द उसे स्वयं मौतक मुँहमे ले जारहे हैं। गन्तव्य स्थान कहते कि जहाँ इतर नौकाओंको एक-दो मल्लाह नहीं तक सम्यक् मागप्रदर्शन कोई नहीं कर रहा है। मिल पा रहे है, वहाँ हमारी सुरक्षाको इतने नाविक रविशांसद्दीकीके शब्दोंमेमौजूद है। परन्तु खेद है कि स्थिति इसके विपरीत खिज्र ही ग्विज नजर आते हैं हरसू' हमको । है। इतर नौकाओंके मनुष्योंमे बाकायदा जिन्होंने कारवाँ' बेख़बरे राहेगुजर' आज भी है ॥ मागकी दुगम कठिनाइयोंका अनुभव प्राप्त किया है। एक माग प्रदशक हो तो उसकी बात समझमाए जिन्ह मार्गम पडने वाली चट्टानों, लहगें और भंवरों और गिरते-पडते लक्षकी ओर भी बढ़ा जाए । परन्तु का ज्ञान है और जो आँधी, पानी, तृफानोंक पानेका जहाँ न लक्षका पता है, न मार्गका पता है, वहाँ इरादा सप्ताह पूर्व भाँप लेते है बकौल इकबाल सिवा दम घुट-घुटकर मरनेके और चाग भी क्या है ? जो है पर्नेमे पिन्हा' चश्मेबीना देख लेती है । हम सच्च मार्गप्रदर्शककी खोजमे इधर-उधर जमानेकी तबीयतका तकाजा देख लेती है। भटकते है, परन्तु मफलता नहीं मिलती:उन्हीं सुदक्ष और अनुभवी मनुष्योंके हाथमे पनवार चलता हू थोड़ी दूर हाइक तेजरी के माथ । देकर अपना खेवट चुना है और जिन्हे दक्षता प्राप्त नहीं पहचानता नही हूँ अभी राहबरको मैं ॥ हुई है, वे चुपचाप नावमे बैठे तृफानोंमे टक्कर लेनेके हमार्ग स्थिति उक्त शेरकं अनुमार होती तो भी अनुभव भी प्राप्त कर रहे है और पार भी होरहे हैं। १ खेवट-मल्लाह । २ पथप्रदर्शक । ३ चारों ओर । __ परन्तु अपने यहाँ बात ही जुदा है । किनारेपर ४ यात्रीदल । ५ भटकी गहम। लगे वृक्षोंसे जो भी तना, शाख, डली, टहनी तोड़ ६ मिजा गालिब फरमाते हैं-मैं हर नेजरी (शीघ्र नलने मका, उमने उमीको चप्पू बनाकर नाव खेनेका वालेके माथ) चलता है पर जब मुझे मालूम होता है कि अमोघ उपाय ममझ लिया । जिन्हे टहनी न मिली, यह ता स्वय भटक रहा है या लुटेरा है तो ठहर जाता हूँ वह धोतियोंको ही पानीमे डालकर उससे पतवारका इम मेरे भटकनेका कारण यही है कि में अभी तक अपने १ पर्दैमे छुपा हुआ, अप्रकट । २ दूरन्देश दृष्टि । अमली पथप्रदर्शक (राहबर) को नहीं पहचान पाया है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अनेकान्त [वर्ष ९ गनीमत थी, भटकते-भटकते कभी तो सच्चे मार्ग- भी मिल गई और स्वयं नेता भी बन गये। दर्शकका पता पाते । परन्तु यहाँ तो कोई नेता है ही नेता बनना बुरा नहीं यदि त्याग और तपस्याके नहीं, नेताओंके वेषमे भेड़िये, बावले, अबोध और साथ-साथ कुछ कर गुजरनेकी चाह हो । परन्तु अकर्मण्य हमारे चारों ओर घूम रहे हैं। और अपनी केवल आजीविकाके लिये, अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूर्ण जुदा-जुदा डफली बजा रहे हैं, उम डफलीकी तानपर करने के लिये और अपनको अर्थ-चिन्तास निराकुल मस्त होकर कौन कुएमें गिरेगा और कौन खाईमें करनेके लिये नेता बनने का प्रयत्न दुखिया समाजको इसकी इन्हे न चिन्ता है और न सोचनेका समय है। पीठमे छुरा भोंकना है। जैन ममाजके तीनों सम्प्रदायोंमें अखिलभारतीय ४ अल्पसंख्यकोंके सुधारमंस्था तीन भी होती तो भी ठीक थीं। परन्तु २ सन् १९२८ को दशलाक्षणीके दिन थे। मैं और दर्जनसे तो अब भी कम नहीं और कई संस्थाओं के स्वर्गीय रायबहादुर साह जगमन्दरदासजी नजीबाबीजारोपण होरहे हैं । और तारीफ यह है कि इनके बादमे धार्मिक और सामाजिक चर्चा कर रहे थे। अधिकारियोंको अपने निजी कार्योंसे लहमेभरकी सुधारोंको लेकर जैनसमाजकी तू-तू, मैं-मै का भी फुरसत नहीं। कार्यालय मामली क्लर्क चलाते है प्रमङ्ग छिड़ गया। रायबहादुर माहब एक ही सुलझे और इनकी ओरसे बहुत साधारण टकेपन्थी एक-एक हुए आदमी थे, वे सहमा गम्भीर हो उठे और दो-दो उपदेशक गाँव-गाँवमे घूमते है। वे कहाँ जाते बोले:-"गोयलीयजी, समाजकी शक्ति इन व्यर्थके है और क्या-क्या अनाप-शनाप कह पाते और कार्योमे नष्ट होती देखकर मुझे बड़ा दुग्व होता है। उसका क्या फल होता है, यह जानने तकका अवकाश इन छोटे-छोटे सुधारोंको लेकर हमारी समाजमे किसीके पास नहीं है। इन अखिल भारतीय मभाओं व्यर्थकी उथल-पथल मची हुई है" के अधिवेशन होते है । वह अधिवेशन क्यों होग्हा सधारांक विपक्षमे रायजनी करते सुनकर में है और क्या उपयोगी योजनाएँ ममाजके लिये रखनी कुछ कहना ही चाहता था कि वे बोले-“घबराओ है, इसपर कार्यकारिणी कभी विचार तक नहीं करती। नहीं. मैं सधारोंका विरोधी नहीं आपसे अधिक विचार करनेको ममय ही नहीं, बमुश्किल बड़े दिन पक्षपाती है. परन्तु मैं समाजमे उन्हीं आन्दोलनोंका या ईस्टरकी छटियाम कंवल अधिवेशनमें मम्मिलित समर्थक है जो जैनसमाजसे मम्बन्ध रखते है और होनेको समय निकल पाना है। परिणाम यह होता है जैनतर बहमंख्यकों पर आश्रित नही है। मै कब कि विषय निर्वाचनीमे बैठे हुए महानुभाव वहीकी कहता है कि शास्त्रोद्धारका आन्दोलन बन्द कर दिया वही परम्पर विरोधी उलल-जुलूल प्रस्ताव गढ़ते जाय, यह आन्दोलन तो इतने वेगसे चलाया जाय रहते है, घण्टों बहम होती रहती है और अन्तमे कि एक भी शास्त्र अमुद्रित न रहने पाए, दस्साकुछका कुछ पाम होजाता है । न कोई यह मोचता है पजनाधिकार, अन्तर्जातीविवाहका आन्दोलन कि इस प्रस्तावका क्या प्रतिफल होगा, न कोई उसे श्राप खूब कीजिये। बाल और वृद्ध विवाह रोकिये, अमली रूप देनकी योजनापर ही विचार करता है। वर-विक्रय, वेश्यानृत्य, नुक्ता प्रथाको अविलम्ब बन्द जिनके पास मस्थाएँ है, वे कुछ कर नहीं पारहे कराइये । यह सब आन्दोलन केवल अपनी समाजसे है, जिनके पास नहीं है वे किसी न किसी बहाने सम्बन्ध रखते हैं अत: इन्हे सहर्ष चलाइये और अपनी नई संस्था खोलने जारहे है। पानकी दुकान सफलता प्राप्त कीजिये।" खोलनेमें शायद असुविधा हो, परन्तु सस्था खोलने. "मरा प्राशय तो यह है कि वे आन्दोलन जो में कोई परेशानी नहीं। समाजसे चन्दा मिल ही हमारे इतर भिन्न धर्मियों, पड़ोसियों और सज तिओंजाता है, बस अपने दो-चार आदमियोंको आजीविका से सम्बन्ध रखते हैं उन्हे न छेड़ा जाय । क्योंकि यदि Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] निरीक्षण और सम्मति १२३ उन कार्योंको वे पसन्द न करेंगे तो हमें कभी सफलता कार्यों में उनको सहयोग देना चाहिये, परन्तु ऐसे नहीं मिल सकती, उल्टा हमारी स्थिति बड़ी दयनीय कार्यों को लेकर अपनी समाजमे वितण्डावाद नहीं होजायगी । उदाहरणके लिये आप लीजिये- बढ़ाना चाहिये।" दस्साओंको हम मन्दिरोंमे पूजा-प्रक्षालका तो रायबहादुर साहबकी उक्त भविष्यवाणी आज अधिकार सहर्ष सकते हैं. क्योंकि मन्दिर अपने साक्षात हो उठी है। जो पण्डे, पुजारी मन्दिरोंमें निजी हैं, उनपर जैनेतर बन्धुओंका कोई अधिकार अछूतोंको नहीं जाने देते थे, कुत्ते-बिल्लीसे भी अधिक नहीं। हमारे इस कार्यसे उनका बनता बिगड़ता भी घृणा उनसे करते थे; जिनकी मूर्खतासे १०-१२ करोड़ नहीं है। किन्तु यदि हम उनसे शादी व्यवहार करने विधर्मी बन चुके थे। आज वही बहुमख्यक जनता द्वारा चुने गये शासनाधिकारियों द्वारा बनाये गये लगे तो हमारे मजातीय किन्तु भिन्न भाइयोंके कान अछूत मन्दिर-प्रवेश और ममान सिद्धान्तके सामने अवश्य खड़े होजाएँगे। यदि वह स्वय इसे नहीं सर टेकते नजर आरहे हैं। अपनाएंगे तो हमे ऐसा करते देख हमारे साथ विवाह अब कानूनन हरिजनोंसे धार्मिक और मामातथा सामाजिक-मम्बन्ध विच्छेद कर देगे । और जिक क्षेत्रोंमे ममान व्यवहार होगा, वे मन्दिरोंमे कोई भी इतने बड़े समुदायसे वहिष्कृत होकर बेरोक-टोक जा सकेगे। उनसे जो रोटी-बेटी व्यवहार पानीमें मगरसे असहयोग रग्बकर जीवित नहीं करेगे उनसे घृणा करने वाले दण्डनीय होंगे। वे कर रह सकता। अछूतोद्धार आदि आन्दोलन भी इसी भोजन गृह खोल सकेगे । तब बताइये पृथ्वीपर तरहके हैं । आप लाख प्रयत्न इनके उद्धारका अब उनसे दामन बचाकर चलना कैसे सम्भव कीजिये, यदि बहुमख्यक समाज इन्हें नही अपनाता हो सकेगा, तो आप भी उनकी दृष्टिमे अछूत बनकर रह जैन जो बह-सख्यक समाजके विरोधक भयसे जाएंगे। और जिस रोज हमारे बहुसख्यक सजातीय पतितोद्धार कार्य करते हुए हिचकते थे। अब उपयुक्त भाई और इतर समाज इनको लेना चाहेंगे, तब अवमर आया है कि वे उन्हें जिनधर्ममे दीक्षित आपको भी अनुकरण करना पड़ेगा। जिन कार्योम करके जैनसनकी सख्या बढ़ाएँ। बहुसंख्यक समुदायका हित-अहित सन्निहित है; वे डालमियॉनगर (विहार) उन्हीके करनेके लिये छोड़ देने चाहिये, उपर्युक्त ८ मार्च १६४८ -गोयलीय निरीक्षण और सम्मति हालमें जैनसमाजके ख्यातिप्राप्त और म्याद्वादमहाविद्यालय काशीके प्रधानाध्यापक पं० कैलाशचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री वीरसेवामन्दिरमे पधारे थे। आपने यहाँक कार्योंका निरीक्षण कर जो वीरसेवामन्दिरपर अपने उद्गगार प्रकट किये है और निरीक्षणबुकमे सम्मति लिखी है। उसे यहाँ दिया जा रहा है: आज मुझे वर्षों के बाद वीर सेवामन्दिरको देखनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ । माननीय मुख्तारमा० ७१ वर्षकी उम्रमें भी जवानोंकी सी लगन लिए हुए कार्यमे जुट है। उनके दोनों सहयोगी विद्वान न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठिया व प. परमानन्दजी भी अपने-अपने कार्यमे मंलग्न है । इस मन्दिरसे दिगम्बर जैन-साहित्य और इतिहासकी जो ठोस मेवा होरही है वह चिरम्मरणीय है । मेरी यही भावना है कि मुख्तारसा० सुदीर्घ काल सारे माहित्यकी सेवा करते रहे। कैलाशचन्द्र शास्त्री १०-२-४८ स्याद्वाद दि० जैन महाविद्यालय, काशी Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अनेकान्त [वर्ष ९ साहित्य - परिचय और समालोचन १ राजुल [कान्य] समझे जग हमको क्यों कायर, ऐसी भी क्या हम क्षीण हुई। लेखक, श्रीबालचन्द्र जैन विशारद काशी। प्राप्ति नारी ऐसी क्या हीन हुई। स्थान, साहित्यसाधनासमिति जैनविद्यालय भदैनी 'उत्सर्ग' अध्यायमें राजुल जब गिरनार पर्वतपर काशी । मूल्य ११)। नेमिकुमारके पास जाकर अपने आपको उनके चरणोंयह पद्यकाव्यप्रन्थ हालमें प्रकट हुआ है । यह में समर्पण कर देती है तब कविने नेमिकुमारके द्वारा लेखककी अपनी दूसरी रचना है। इसके पहले वे उनके समर्पणको स्वीकार करते हुए उनके मुखसे 'श्रात्मसमर्पण' पाठकोंको भेंट कर चुके हैं, जिसका कितना सैद्धान्तिक उत्तर दिलाया हैपरिचय पिछली किरणमें प्रकट होचुका है। “श्राश्रो हम दोनों ही जगके दुखके कारणकी खोज करें , इसमें कविने राजुल और नेमिकुमारका पौराणिक बन्धन जगके हम काटेंगे बस यही भावना रोज करें । ऐतिहासिक चरित्र आधुनिक रोचक ढङ्गसे चित्रित रत्नत्रय अपना परम माध्य तप ओं' संयमको अपनाएँ, किया है। इसमे दर्शन, स्मरण, विराग, विरह और उत्सर्ग ये पांच अध्याय है। प्रथम अध्याय कविने निश्चय ही बन्धन मुक्त बने स्वातन्त्र्य-गीत फिर हम गाएँ ।" कल्पनाके आधारपर रचा है और शेष चार अध्याय कहनेका तात्पर्य यह कि यह काव्य कई दृष्टियोंसे पुराणवर्णित कथानुसार निर्मित किये है । कविसे यह अच्छा बना है। विदुषीरत्न प० ब्र० चन्दाबाईजीकी काव्य उत्कृष्ट कोटिका बन पड़ा है। काव्यमे जैसी महत्वकी विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावनाने तो स्वर्ण कलशका कुछ कोमलता, सरलता, शिक्षा, नीति, सुधार काम किया है। इस उदीयमान कविसं समाजको कवित्वकला आदि गुण अपेक्षित हैं वे प्रायः सब इस बहुत कुछ आशा है। हम उनकी इस रचनाका 'राजुल में विद्यमान हैं। इसके कुछ नमूने देखिये- स्वागत करते हैं । 'स्मरण' अध्यायमे कवि राजुल-मुखसे कहलाता है- २ मुक्तिमन्दिर पिद्यमय रचना] जीवन सूनासा लगता था यदि नेमि न श्राए जीवनम, लेखक. पण्डित लालबहादुर शास्त्री । प्राप्तिस्थान जीनेका क्या उपयोग ! अरे उत्साह न श्राए जीवनमे । ___ यहाँ नीतिकी कितनी सुन्दर पुट है। ' नलिनी सरस्वती मन्दिर, भदैनी बनारस । मूल्य ।)। विरह' अध्यायमें राजल विरहीकी अवस्थाको यह क्षमा, निरभिमानता, सरलता, सत्य, निर्लोप्राप्त करती हुई भी अपने नारीत्वके अभिमानको भता, सयम, तप, त्याग, अपरिग्रहता और ब्रह्मचर्य नहीं भूलती। कवि राजुलके मुखसे वहाँ कहलाता है- इन दश मानव-धर्मोका, प्रत्येकका पाँच-पाँच सुन्दर बन बनमें मैं सँग सँग फिरती गिरिमें भी मै सँग सँग तपती. एवं सरल पद्योंमे, कथनकरने वाली नवीन शैलीकी बना संगिनी जीवनकी फिर भी मुझको कायर माना । एक उत्तम रचना है। यह मामान्य जनतामे काफी तुमने कब मुझको पहिचाना । संख्यामे प्रचार-योग्य है और लोकचिके अनुकूल है। ऐसी सरल रचना करनेके लिये लेखक समाजके नारी ऐसी क्या हीन हुई। धन्यवादपात्र है। तनकी कोमलता ही लेकर नरके सम्मुख वह दीन हुई ! जो पुरुष करे कर हम न सके ! जीवन-पथमें क्या बढन सके। -दरबारीलाल जैन, कोठिया Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भारतीय ज्ञानपीठ काशीके प्रकाशन १. महाबन्ध-(महधवल सिद्धान्तशास्त्र) प्रथम भाग । हिन्दी टोका सहित मूल्य १२)। २. करलक्खण-(सामुद्रिक शास्त्र) हिन्दी अनुवाद सहित । हस्तरेखा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ । सम्पादक-प्रो० प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम० ए०, अमरावती । मूल्य १)। ३. मदनपराजय-कवि नागदेव विरचित (मूल संस्कृत) भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावना सहित । जिनदेवके कामके पराजयका सरस रूपक । सम्पादक और अनुवादक-पं० राजकुमारजी सा०। मू०८) ४. जैनशासन—जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करने वाली सुन्दर रचना । हिन्दू विश्वविद्यालयके जैन रिलीजनकं एफ० ए० के पाठ्यक्रममे निर्धारित । मुखपृष्ठपर महावीरस्वामीका तिरङ्गा चित्र । मूल्य ४। ५. हिन्दी जैन-साहित्यका संक्षिप्त इतिहास-हिन्दी जैन-साहित्यका इतिहास तथा परिचय । मूल्य २॥)। ६. आधुनिक जैन-कवि-वर्तमान कवियोंका कलात्मक परिचय और सुन्दर रचनाएँ । मूल्य ३||1)| ७. मुक्ति-दत-अञ्जना-पवनञ्जयका पुण्यचरित्र (पौराणिक रोमांस) मू०४॥) ८. दो हज़ार वर्षकी पुरानी कहानियां-(६४ जैन कहानियाँ) व्याख्यान तथा प्रवचनोंमें उदाहरण योग्य । मूल्य ३)। ९. पथचित-(हिन्दी-साहित्यकी अनुपम पुस्तक) स्मृति रेखाएँ और निबन्ध । मूल्य २)। १०. पाश्चात्य तक शास्त्र—(पहला भाग) एफ ए के लॉजिकके पाठ्यक्रमकी पुस्तक । लेखक-भिक्षु जगदीशजी काश्यप, एफ० ए०, पालि-अध्यापक, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी । पृष्ठ ३८४ । मूल्य ४॥)। ११. कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्नमूल्य २)। १२. कबडप्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची-(हिन्दी) मूडबिद्रीके जैनमठ, जैनभवन, सिद्धान्तवदि तथा अन्य प्रन्थ भण्डार कारकल और लिपुरके अलभ्य ताडपत्रीय ग्रन्थोंके मविवरण परिचय । प्रत्येक मन्दिरमे तथा शास्त्र-भण्डारमें विराजमान करने योग्य । मूल्य १०)। वीरसेवामन्दिरके सब प्रकाशन भी यहांपर मिलते हैं प्रचारार्थ पुस्तक मेंगाने वालोंको विशेष सुविधाएँ भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. A731 वीरगवामन्दिरके नये प्रकाशन १ अनित्यभावना-मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी ६ न्याय-दीपिका (महत्वका नया संस्करण) के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ-सहित । इष्टवियोगादिके न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठिया द्वारा सम्पादित कारण कैसा ही शोकसन्तप्त हृदय क्यों न हो, इसको एक और अनुवादित न्यायदीपिकाका यह विशिष्ट संस्करण बार पढ लेनेसे बड़ी ही शान्तताको प्राप्त हो जाता है। अपनी खास विशेषता रखता है । अबतक प्रकाशित इसके पाठसे उदासीनता तथा खेद दूर होकर चित्तम सस्करणोंमें जो अशुद्धियाँ चली श्रारही थीं उनके प्राचीन प्रसन्नता श्रार सरमता अाजाती है । सर्वत्र प्रचारके प्रतियोपरसे सशोधनको लिये हुए यह सस्करण मूलग्रन्थ योग्य है। मूल्य ।) और उसके हिन्दी अनुवादके साथ प्राक्कथन, सम्पादकीय, २ आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्वार्थमत्र-नया १०१ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावना, विषयसूची, और कोई ८ प्राप्त संक्षिप्त सूत्रग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीकी परिशिष्टसि सकलित है, साथमे सम्पादक-द्वारा नवनिर्मित सानुवाद व्याख्या-महित । मृल्य ।) 'प्रकाशाख्य' नामका एक सस्कृत टिप्पण भीलगा हुआ है, जो अंथगत कठिन शब्दों तथा विषयोंका खुलासा करता ३ सत्माधु-स्मरण-मङ्गलपाठ---मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीकी अनेक प्राचीन पद्योंको लेकर नई योजना, हुआ विद्यार्थियों तथा कितने ही विद्वानोके कामकी चीज है। लगभग ४०० पृष्ठोके इस सजिल्द बृहत्संस्करणका सुन्दर हृदयग्राही अनुवादादि-महित । इसमे श्रीवीरवर्द्धमान और उनके बादके, जिनमेनाचार्य पर्यन्त, २१ लागत मूल्य ५) रु. है। कागजकी कमीके कारण थोड़ी ही प्रतियाँ छपी हैं और थोड़ी ही अवशिष्ट रह गई हैं। महान् श्राचार्योंके अनेकों श्राचार्यों तथा विद्वानों द्वारा किये गये महत्वके १३६ पुण्य स्मरणोंका संग्रह है और अतः इच्छुकोको शीघ्र ही मॅगा लेना चाहिये। शुरूमे १ लोकमंगल कामना, २ नित्यकी श्रात्म-प्रार्थना. ७ विवाह-समुहश्य-लेखक पं० जुगलकिशोर ३ साधुवेषनिदर्शन-जिनस्तुति, ४ परमसाधमखमदा और मुख्तार, हालमे पकाशित चतुर्थ सस्करण । ५ सत्साधुवन्दन नामके पाँच प्रकरण हैं। पुस्तक पढते यह पुस्तक हिन्दी साहित्यमे अपने ढगकी एक ही समय बड़े ही सुन्दर पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं और चीज है । इसम विवाह-जैसे महत्वपूर्ण विषयका बडा ही साथ ही प्राचार्योंका कितना ही इतिहास सामने श्राजाता मार्मिक और तात्त्विक विवेचन किया गया है, अनेक है । नित्य पाठ करने योग्य है। मू० ॥) विरोधी विधि-विधानों एव विचार-प्रवृत्तियोंसे उत्पन्न हुई ४ अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड-यह पञ्चाध्यायी विवाहकी कठिन और जटिल समस्योंको बड़ी युक्तिके तथा लाटी महिता आदि ग्रन्थोंके कर्ता कविवर राजमल्ल साथ दृष्टिके स्पष्टीकरण-द्वाग सुलझाया गया है और हम की अपूर्व रचना है। इममे अध्यात्मसमुद्रको कजेमे बन्द तरह उनम दृष्टिविरोधका परिहार किया गया है । विवाह किया गया है। साथमे न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी क्यो किया जाता है ? धर्मस, समाजसे पार गृहस्थाश्रमकोठिया और पगिटत परमानन्दजी शास्त्रीका मुन्दर से उसका क्या सम्बन्ध है ? वह कब किया जाना चाहिये ? अनुवाद, विस्तृत विषयसूची तथा मुख्तार श्रीजुगलकिशोर उसके लिए वर्ण और जातिका क्या नियम होसकता है ? जीकी लगभग ८० पेजकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना है। विवाह न करनेसे क्या कुछ हानि-लाभ होता है ? बड़ा ही उपयोगी ग्रन्थ है। मू. १) इत्यादि बातों का इस पुस्तकमे बड़ा ही युक्ति-पुरस्सर एव हृदयग्राही वर्णन है। बढिया अार्ट पेपरपर छपी है। ५ उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा- मुख्तार साहो के अवसरपर वितरण करने योग्य है। मू० ॥) । भीजुगलकिशोरजीकी ग्रन्थपरीक्षाओंका प्रथम अश, ग्रन्थ-परीक्षाओंके इतिहासको लिये हुए १४ पेजकी नई प्रस्तावना-सहित । मू०।) परमेवामन्दा मामाचा महापर। - . - - . . Page #143 --------------------------------------------------------------------------  Page #144 --------------------------------------------------------------------------  Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भनेकान्त चैत्र, मेवा २००५ :: अप्रैल, सम् १९४८ वर्ष है किरण ४ HHELHASA Her e I HAPA- AL.Hamal THEN Ele marate संस्थापक-प्रवर्तक बीग्मेवामन्दिर, सरमावा : rineti भारतीय ज्ञानपीठ, काशी HalhaPTRIE:IMINSHIP WIKHist tirthpuri सम्पादक-मंडल जुगलकिशोर मुख्तार प्रधान सम्पादक मुनि कान्तिमागर दरबारीलाल न्यायाचार्य अयोध्याप्रसाद गोयलीग हालमियानगर (बिहार) विषय-सूची विषय पृष्ठ विषय जैन तपस्वी १२५ त्यागका वास्तविक रूप म्वरूप-भावना १२६ जय स्याद्वाद रनकरण्डक कतृ त्व-विषयम अपने ही लोगों द्वारा बलि मेग विचार और निर्णय १७ किये गये महापुरुष अमृल्य तस्व-विचार १४० महामुनि सुकुमाल इजन बड़ी या रुपया १४१ मठीजीका अन्तिम पत्र अनकान्त १४३ मम्पादकीय पराक्रमी जैन v४५ माहिस्य-परिचय और शङ्का-ममाधान १५० समाखापन FARITAH IERDHATHMAHURNEAR-j..Jamm HTRA AIRTEHELKHABARTERIERHERLALKFri. जमऊ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिरको सहायता अनेकान्तको सहायता गत किरणमे प्रकाशित सहायताके बाद वीर- गत दूसरी किरणमे प्रकाशित सहायताके बाद संबामन्दिरको निम्न सहायता प्राप्त हुई है, जिसके अनकान्तको निम्न सहायता और प्राप्त हुई है, जिसके लिये दातार महानुभाव धन्यवादके पात्र है:- लिये दातार महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं :३१) लाला उदयराम जिनश्वरप्रमाद जी जैन बजाज २०) लाला सुमेरीलाल गुलाबरायजी, बाराबकी सहारनपुर (दर्शन प्रतिमा ग्रहण करनेके श्रव- (इन्द्रकुमार जैनकी दादीकी मृत्यु-समय निकाले मरपर निकाले हुए दानमसे लायब्रेरी महायतार्थ) गये १०१) के दानमेसे)। माफत ५० परमानन्दजी जैन शास्त्री। बाबु दीपचन्दजी, कानपुर (चि० पुत्र विवाहो५) बाबू माईदयालजी जैन बी० ए० देहली और पलक्षमे निकाले गये दानमेसे)। लाला श्रीचन्दजी जैन देहरादून (पुत्र-पुत्रीके ५) बाबू चिरञ्जीलालजी जैन, वर्धा (चि० पुत्रके विवाहकी खुशीमे)। विवाहोपलक्षमे निकाले हए दानमेसे)। ३६) अधिष्ठाता वीरसेवामन्दिर ३०) व्यवस्थापक 'अनेकान्त' सूचना सूचना अनकान्त कार्यालयको कुछ सहायता प्राप्त हुई है अनकान्त कार्यालयकं लिय एक सुयोग्य विद्वान जिसके आधारपर हम ३३ विद्याथियों, लायब्रेरी की आवश्यकता है जो पत्र व्यवहार आदि कार्योंके अथवा वाचनालयांको रियायती मूल्य ३) तीन रुपया साथ प्रफरीडिग करनेमे भी दक्ष हो। वेतन योग्यतामे अनेकान्त एक वर्ष तक दे सकते हैं । जिन्हें नुसार दिया जावेगा। जो विद्वान आना चाहे वे आवश्यकता हो व ३) रुपया शीघ्र मनिपाडर से निम्न पतेपर पत्र व्यवहार करे। भज देवे, रुपया भानपर अनकान्त चालू कर दिया व्यवस्थापक 'अनकान्त' जावेगा। वीरसंवामन्दिर, मरसावा व्यवस्थापक 'अनकान्त' (सहारनपुर) सूचना अनेकान्तकं पिछले वर्षोंकी कुछ फाइल, वर्ष भूल सुधार १-५-६-5.८का श्रवशिष्ट बची है । जो महानुभाव खरीदना चाहंगे, उन्हें वीर जयन्तीमे वीरशासन 'पराक्रमी जैन' शीर्षक लेखके अन्तमे लेग्यकका जयन्ती तक निदिष्ट मूलमे ही दी जावेगी । अत: नाम और तारीख छपनेसे रह गई है। कृपया प्रेमी ऑडर भेजनेकी शीघ्रता का, अन्यथा ये फाइल भी पाठक वहाँ अयोध्याप्रमाद 'गोयलीय और तारीख पहले दूसरे और तीसरे वर्षकी तरह अप्राप्य १४ फरवरी सन् १९४० बना लेवे। हो जायेंगी। व्यवस्थापक 'अनेकान्त' व्यवस्थापक 'अनेकान्त' Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम - - स्वतत्त्व-सघातक विश्वतत्व-प्रकाशक, वार्षिक मूल्य ५) "KumarSTE TIMI LSINEMATHMAtround the एक किरणका मूल्य ॥ ' ' AWARE POST नीतिविरोधध्वनी लोकापवहायर्नकः सम्यक् । परमागनन्य.. .कानेकान्तः ॥ अप्रैल वर्प ५ । किरण ४ वारसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरमावा, जिला महारनपुर चैत्र शुक्ल, वीरनिर्वाण-मवत २४७४, विक्रम संवत २०८५ FINAAMRAPRATHAMTAASTRAMRAHAARAATMAA जेत तपम्त्री शीतरित-जारै अग सब ही सकोरे तहाँ-- ग्रीपमकी ऋतुमाहि जल थल मुख जाहिं तनको न मारै नदीधोरे धीर जे खरं । परन प्रचंड धूप आगिमी बरत है। जेठको भकारे जहाँ अंडा चील छारें पशु- दावाकीमी ज्वाल-माल वहत बयार अति पछी छांह लारै गिरि कोर तप वे धरे ।। लागत लपट फोऊ धीर ने धग्न है॥ घार घन घोर घटा चहें और डोर ज्या-ज्या- धरती तपत मानों तवासी नपाय राखी चलत हिलारै त्या-त्यों फोरै बल य अरं । बडवा अनल - मम शैल जा जरत है। देह-नह तोरै परमारथसौं प्रीति जार नाकं शृग शिलापर जोर जग पांव धर , ऐसे गुरु और हम हाथ अजली करे ।। करन तपम्या मुनि करम हान है। .--कवि भृधरदाम - कवि भगवनीदाम Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (कैराना जिला मुजफ्फरनगरके बड़े मन्दिरके शास्त्रभण्डारका निरीक्षण करते हुये, अाजसे कोई १५ वर्ष पहले जो षटपत्रात्मक ग्रन्थसंग्रह प्राप्त हुआ था और जिसके षटदर्शनसूत्रादि अाठ ग्रन्थोमेसे 'रावण-पाश्वनाथ-स्तोत्र' नामका एक ग्रन्थ गत वर्षकी १२वीं किरण में प्रकाशित किया जाचुका है उसीपरसे यह 'स्वरूप-भावना' नामका ग्रन्थ भी नोट किया गया था, जो आज प्रकाशित किया जाता है। यह अध्यात्म-विषयका एक बड़ा ही सुन्दर एव चित्ताकर्षक लघु ग्रन्थ अथवा प्रकरण है। इसमे सदंपतः अात्माके शुद्ध स्वरूपका दिग्दर्शन कराते हुए 'उसी पावन स्वरूपकी मै सदा भावना करता हूँ' ऐसा बार-बार कहा गया है । इसके कर्ताका नाम मालूम नहीं होमका । कुछ दिन हुए देहली पंचायतीमन्दिरके शास्त्रभण्डारमे भी इसकी एक प्रतिका पता चला है, जो प्राचीन गुटकेमे है परन्तु उसमे भी कर्ताका नाम नहीं दिया । किसी अन्य विद्वानको यदि कर्ताके नामका पता चले तो वे सूचित करनेकी कृपा करें। -सम्पादक (भुजगप्रयात) मुनि-स्तुत्य-चित्तत्व-नीरज-भृङ्ग, परित्यक्त-रागादि-दोषाऽनुसङ्गम । जगद्वस्तु-विद्योतक ज्ञानरूपं, सदा पावन भावयामि स्वरूपम् ॥५॥ स्वशुद्धात्म-पीयूष-वा शिपूरं, जिनेन्द्रोक्त-जीवादि-तत्त्वार्थ -सारम् । सुवर्णत्ववन्नित्य-चैतन्य-रूप, सदा पावनं भावयामि स्वरूपम ।।२।। गलत्कर्म-बन्ध त्रुटन्मोह-पाशं, स्वदेह-त्रिलोक-प्रमाण-प्रदेशम् । तरुस्थाऽग्नियद्देहतो भिन्नरूपं, सदा पावनं भावयामि स्वरूपम ॥३॥ शरीरादि-नोकर्म-कर्म-अमुक्तं, निरुद्धासवं सप्तङ्गि-प्रयुक्तम् । स्वशक्ति-स्थिताऽनन्त-बोध-स्वरूप, सदा पावनं भावयामि स्वरूपम ।।४।। म्वरुच्यग्नि-निर्दग्ध-दुःकर्म-कक्ष, स्वसंवेदन-ज्ञान-गम्य निरक्षम् । लसदशन-ज्ञान-चारित्र-रूप, सदा पावनं भावयामि स्वरूपम् ॥५॥ परिप्राप्त-संसार-वार्राशि-पार, निजानन्द-सत्पान-भृञ्चित्करीरम । चिदानन्द-बीजं परंब्रह्मरूप, सदा पावनं भावयामि स्वरूपम् ॥६॥ विनष्ठाऽन्यभाव-प्रभून-प्रमाद, निरस्ताङ्ग-सज्ञान-लिङ्गादिभेदम् । निरातङ्क-सानन्द-चैतन्य-रूपं, सदा पावनं भावयामि स्वरूपम् ॥७॥ स्वचिद्भाव-वाक-सम्भवाऽनन्त-शक्ति, निराशं निरीश परिप्राप्त-मुक्तिम । त्रिलोकेश्वरं निश्चलं नित्यरूपं, सदा पावन भावयामि स्वरूपम ।।८।। स्वरूपभावना समाप्ता Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय [सम्पादकीय] (गत किरणसे आगे) (३) रत्नकरण्ड और आरमीमांसाका भिन्नकर्तृत्व स्वामी समन्तभद्र के साथ सम्बन्धित करते हैं तो सिद्ध करने के लिये प्रोफेसर हीरालालजीकी जो तीसरी दूसरे देवनन्दी पूज्यपादके साथ । यह पद्य यदि क्रममें दलील (युक्ति) है उसका सार यह है कि 'वादिराज- तीसरा हो और तीसरा दूसरेके स्थानपर हो, और सूरिके पार्श्वनाथचरितमें प्राप्तमीमांसाको तो 'देवा- ऐमा हाना लेखकोंकी कृपामे कुछ भी असम्भव या गम' नामसे उल्लेख करते हुए 'म्वामि-कृत' कहा गया अस्वाभाविक नहीं है, तो फिर विवादके लिये कोई है और रत्नकरण्डको स्वामिकृत न कहकर योगीन्द्र- स्थान नहीं रहता; तब देवागम (आप्तमीमांसा) और कृत' बतलाया है । 'स्वामी'का अभिप्राय स्वामी रत्नकरण्ड दोनों निर्विवादरूपसे प्रचलित मान्यताके समन्तभद्रसे और 'योगीन्द्र'का अभिप्राय उस नामके अनुरूप स्वामी समन्तभद्र के साथ सम्बन्धित हो जाते किसी श्राचार्यसे अथवा प्राणमीमांसाकारसे भिन्न है और शेष पद्यका सम्बन्ध देवनन्दी पूज्यपाद और किसी दूसरे समन्तभद्रसे है। दोनों ग्रन्थों के कर्ता एक उनके शब्दशास्त्रसे लगाया जा सकता है। चकि उक्त हो समन्तभद्र नही हो सकते अथवा यो कहिये कि पाश्वनाथचरित-सम्बन्धी प्राचीन प्रतियोंकी खोज वादिराज-सम्मत नही हो सकते; क्योंकि दोनों ग्रन्थों- अभी तक नहीं हा पाई है, जिससे पद्योंकी क्रमभिन्नताके उल्लेख-सम्बन्धी दोनों पद्योंके मध्य में 'अचिन्त्य- का पता चलता और जिसकी बहुत बड़ी सम्भावना महिमादेवः' नामका एक पद्य पड़ा हुआ है जिसके जान पड़ती है, अत: उपलब्ध क्रमको लेकर ही इन 'देव' शब्दका अभिप्राय देवनन्दी पूज्यपादसे है और पद्योंके प्रतिपाद्य विषय अथवा फलितार्थपर विचार जो उनके शब्दशास्त्र(जैनेन्द्र)की सूचनाको साथम किया जाता है:लिये हुए है। जिन पद्योंपरसे इस युक्तिवाद अथवा पद्योकं उपलब्ध क्रमपरसे दो बाते फलित होती रनकरण्ड और प्राप्तमीमांसा एककर्तृत्वपर हैं-एक तो यह कि तीनों पद्य स्वामी समन्तभद्रकी आपत्तिका जन्म हुआ है वे इस प्रकार हैं: स्तुतिको लिये हुए है और उनमे उनकी तीन कृतियों"स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् । का उल्लेख है; और दूसरी यह कि तीनों पद्यांम देवागमेन सर्वज्ञो येनाऽद्यापि प्रदर्श्यते ॥१७॥ क्रमशः तीन आचार्यों और उनकी तीन कृतियोंका अचिन्त्यहिमा देवः सोऽभिवन्द्यो हितैषिणा। उल्लेख है। इन दोनोमसे कोई एक बात ही प्रन्थकारके शब्दाश्च येन सिद्धयन्ति साधुत्व प्रतिलम्भिताः ॥१८॥ द्वारा अभिमत और प्रतिपादित हो सकती है दोनों त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाऽक्षय्य सुखावहः । नहीं। वह एक बात कौनसी हो सकती है. यही यहांअर्थिने भव्यसार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः ॥१९॥ पर विचारणीय है। तीसरे पद्यम उल्लिखित 'रत्न इन पद्योंमेसे जिन प्रथम और तृतीय पद्योंमे करएडक' यदि वह रनकरएड या रखकरएलप्रन्थोंका नामोल्लेख है उनका विषय स्पष्ट है और श्रावकाचार नहीं है जो स्वामी समन्तभद्रकी कृतिरूप जिसमे किसी ग्रन्थका नामोल्लेख नहीं है उस द्वितीय से प्रसिद्ध और प्रचलित है, बल्कि योगीन्द्र' नामक पचका विषय अस्पष्ट है, इस बातको प्रोफेमर साहबने श्राचार्य-द्वारा रचा हुआ उमी नामका कोई दूसरा ही स्वयं स्वीकार किया है। और इसीलिये द्वितीय पद्यक ग्रन्थ है, तब तो यह कहा जा सकता है कि नीनी प्राशय तथा अर्थक विषयमे विवाद है-एक उसे पॉम तीन प्राचार्यों और उनकी तीन कृतियोंका Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अनेकान्त [ वर्ष ९ उल्लेख है-भले ही वह दमग रत्नकरण्ड कहींपर देवनन्दी पूज्यपादका वाचक नहीं कहा जा सकता, उपलब्ध न हो अथवा उसके अस्तित्वको प्रमाणित न उस वक्त तक जब तक कि यह सिद्ध न कर दिया जाय किया जा सके। और तब इन पद्यों को लेकर जो कि रत्नकरण्ड स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है। विवाद खड़ा किया गया है वही स्थिर नहीं रहता- क्योंकि प्रसिद्ध साधनांक द्वारा कोई भी बात सिद्ध ममान हो जाता है अथवा यों कहिये कि प्रोफेसर नहीं की जा सकती। साहबकी तीसरी आपत्ति निराधार होकर बंकार हो इन्ही सब बातोंको ध्यान रखते हुए, आजसे जाती है। परन्तु प्रोमाहबको दुमरा रनकरण्ड इष्ट काई २३ वर्ष पहले रत्नकरण्डश्रावकाचारकी प्रस्तानही है, तभी जहान प्रचलन रनकरण्डके ही छठं बनाके साथमें दिये हुए स्वामी समन्तभद्रके विस्तृत पद्य 'क्षुत्पिपासा'को प्राप्तमीमामाके विरोधने उपस्थिन परिचय (इतिहास)म जब मैंने 'स्वामिनश्चरित तस्य' किया था, जिसका ऊपर परिहार किया जा चुका है। और 'त्यागी स एव योगीन्द्रो' इन दो पद्याको पाव और इलिय नीमरे पद्यमे उल्लिखित 'रत्नकरण्डक' नाथ रतसं एक साथ उद्धृत किया था तब मैन यदि प्रचलित रनकरण्डश्रावकाचार ही है तो तीनों फुट नोट (पादटिप्पणी)मे यह बतला दिया था कि पदोंको स्वामी ममन्तभद्र के साथ ही मम्बन्धित इनके मध्यमे 'अचिन्त्यमहिमा देवः' नामका एक कहना होगा, जबनक कि कोई स्पष्टबाधा इसके तीसग पद्य मुद्रित प्रतिम और पाया जाता है जो मेरी विरोधमे उपस्थित न की जाय । इसके सिवाय, दूसरी रायम इन दोनों पयोंके बाद होना चाहिय-तभी कोई गति नहीं क्योकि प्रचलित रत्नकरण्डको श्राप्त- वह देवनन्दी आचार्यका वाचक हो सकता है । माथ मीमांसाकार स्वामी समन्तभद्रकृत मानने कोई ही, यह भी प्रकट कर दिया था कि "यदि यह नीसरा बाधा नहीं है, जो बाधा उपस्थित की गई थी उसका पद्य सचमुच ही प्रन्धकी प्राचीन प्रतियोम इन दाना ऊपर दो आपत्तियांका विचार करते हुए भले प्रकार पद्यांक मध्यम ही पाया जाता है और मध्यका ही निरसन किया जा चुका है और यह तीमरी आपत्ति पा है तो यह कहना पड़ेगा कि वादिराजने ममन्तअपने स्वरूपम ही स्थिर न होकर प्रसिद्ध तथा दिग्ध भदको अपना हिन चाहने वालोंके द्वारा वन्दनीय बनी हुई है। और इसलिये प्रो० माहब अभिमत- और अचिन्त्य महिमावाला देव प्रतिपादन किया है। का सिद्ध करनेम असमथ है। जब आदि-अन्तकं साथ ही, यह लिखकर कि उनके द्वारा शब्द भल दानों पद्य स्वामी समन्तभद्रस सम्बन्धित हो तब प्रकार सिद्ध होते है, उनके किसी व्याकरण प्रन्थका मध्यक पद्यको किसी दूसरंक साथ सम्बद्ध नहीं उल्लेख किया है"। अपनी इस दृष्टि और रायके किया जा सकता । उदाहरणके तौरपर कल्पना अनुरूप ही मै 'आचन्त्यमहिमा देवः' पद्यको प्रधानत. काजिये कि रनकरण्डकं उल्लेख वाले तीमर पद्यकं 'देवागम' और 'रत्नकरण्ड'के उल्लेख वाले पदों के स्थानपर स्वामी समन्तभद्र-प्रणीत स्वयभूस्तोत्रके उत्तरवर्ती तीसरा पद्य मानता आरहा है और तदनुउल्लंखको लिये हुए निम्न प्रकारक भाशयका कोई सार ही उसके 'देव' पदका देवनन्दी अर्थ करनमे पद्य है प्रवृत्त हुआ हूं। अतः इन तीनों पद्याँक क्रमविषयमे • स्वयम्भूस्तुतिकर्तारं भस्मव्याधि-विनाशनम् । मेरी दृष्टि और मान्यताको छोडकर किसीको भी विराग-द्वेष-बादादिमनकान्तमत नुमः ।।' मेरे उम अर्थका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए जा ऐसे पद्यकी मौजूदगीमे क्या द्वितीय पद्यम समाधितन्त्रकी प्रस्तावना तथा मत्माधु-स्मरण-मङ्गलउल्लिखित 'देव' शब्दको देवनन्दी पूज्यपाद का वाचक पाठम दिया हुआ है। क्योंकि मुद्रितप्रतिका पद्य-क्रम कहा जा सकता है ? यदि नहीं कहा जा सकता नो १ प्रो० साहबने अपने मतकी पटिम उसे पेश करके सचमुच रत्नकरण्ड के उल्लखवाले पद्यकी मौजूदगामे भी उस ही उसका दुरुपयोग किया है । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरगा ३] ग्नकरगड़के कतृत्व-विषयमे मेरा विचार और निर्णय . ५२९ ही ठीक होनेपर मैं उस पद्यके 'देव' पदको समन्त- कोठियाके लेखमे उधृत होचुके हैं। इसके मिवाय, भद्रका ही वाचक मानता हूं और इस तरह तीनों वादिराजके पार्श्वनाथचरितसे ४७ वर्ष पूर्व शक सं० पद्योंको समंतभद्रके स्तुति-विषयक समझता हूँ। अस्तु। ९०० मे लिखे गये चामुण्डरायके त्रिषष्ठिशलाका अब देखना यह है कि क्या उक्त तीनों पद्योंको महापुराणमें भी 'देव' उपपदके साथ समन्तभद्रका म्वामी ममन्तभद्र के साथ सम्बन्धिन करने अथवा स्मरण किया गया है और उन्हे तत्त्वार्थभाष्यादिका रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रकी कृति बतलानमे कर्ता लिखा है। । ऐसी हालतमे प्रो० साहबका काई दसरी बाधा आती है ? जहाँ तक मैने इस समन्तभद्रके साथ 'देव' पदकी अमङ्गतिकी कल्पना विषयपर गभीरताके साथ विचार किया है मुझे उममे करना ठीक नहीं है-वे साहित्यिकोंमे 'देव' विशेषणकोई बाधा प्रतीत नहीं होती। तीनों पद्यांमे क्रमशः के साथ भी मिद्धिको प्रान रह है। नीन विशेषणों स्वामी, देव और योगान्द्र के द्वारा और अब प्रो० माहबका अपने अन्तिम लेखम समन्तभटका स्मरण किया गया है। उक्त क्रममे रकबे यह लिखना तो कुछ भी अर्थ नहीं रखना कि "जी हए तीनों पदोंका अथ निम्न प्रकार है: उल्लेग्व प्रस्तुत किये गये है उन मबमे 'देव' पद 'उन म्वामी (ममन्तभद्र)का चरित्र किमके लिये समन्तभद्रके माथ-साथ पाया जाता है । ऐमा कार्ड विम्मयकारक (आश्चर्यजनक ) नही है जिन्होंन एक भी उल्लेख नही जहाँ केवल 'देव' शब्दस 'दवागम' (आप्तमीमामा) नामके अपने प्रवचन-द्वाग ममन्तभद्रका अभिप्राय प्रकट किया गया हो।" यह आज भी मवज्ञको प्रदर्शित कर रखा है। वे अचि- वास्तवम काई उत्तर नहीं, इसे केवल उनके लिये त्यमहिमा-युक्त देव (ममन्तभद्र) अपना हिन चाहन ही उत्तर कहा जा सकता है. क्योंकि जब कोई विशेषण वालोके द्वारा सदा वन्दनीय है, जिनक द्वारा (मवन्न किमीक माथ जुड़ा होता है तभी तो वह किमी ही नहीं किन्तु) शब्द भी' भले प्रकार सिद्ध होते है। प्रसङ्गपर मंकतादिक रूपमे अलगमे भी कहा जा वे हा योगीन्द्र (ममन्नभद्र) मजे अर्थोंम त्यागी (त्याग- मकता है, जा विशेपण कभी साथम जुड़ा ही नहीं भावसयक्त अथवा दाता) हा है जिन्होंने मुखार्थी वह न तो अलग कहा जा सकता है और न उमका भव्यममूह के लिये अक्षयसुखका कारणभूत धमेना. वाचक ही हा मकता है। प्रा० माहब मा कोई भी का पिटारा---'रत्नकरण्ड' नामका धर्मशास्त्र-दान उल्लेख प्रस्तुत नहीं कर सकेंगे जिमम ममन्तभद्रक किया है।' माथ 'स्वामी' पद जुड़नसे पहले उन्हें केवल 'स्वामी' इम अर्थपरमं स्पष्ट है कि दमरं नथा तीसरे पदके द्वारा उल्लग्विन किया गया हो। अतः मूल बात पद्यम एमा कोई बात नहीं जा म्वामी समन्तभद्रक ममन्तभद्रके माथ 'देव' विशेषगाका पाया जाना है, माथ मङ्गत न बैठती हा। ममन्तभद्रक लिय दव' जमक उलाख प्रस्तुत किये गय है और जिनक विशेषगका प्रयोग काई अनावी अथवा उनक पदस आधारपर द्वितीय पद्यम प्रयुक्त हुए 'देव' विशेषण कोई अधिक चीज नही है । देवागमकी वमुनन्दि-वृति, अथवा उपपदका ममन्तभद्रक माथ सङ्गत कहा जा पं. आशाधरकी मागाग्धामृत-टीका, आचार्य सकता है। प्रो० साहब वादिराजक इमी उल्लेग्यको जयसेनकी ममयसार-टाका, नरेन्द्रमन श्राचायक वैमा क उल्लख ममझ सकते है जिसमें 'देव' सिद्धान्तमार-मग्रह और आप्रमीमांमामूलकी एक शब्दमे ममन्तभद्रका अभिप्राय प्रकट किया गया है। वि० संवत १७की प्रतिको अन्तिम पुष्पिकाम क्योकि वादिराजके सामन अनेक प्राचीन उल्लेखोंक ममन्तदभद्रकं साथ 'देव' पदका खुला प्रयोग पाया जाना है, जिन मब अवतरगा प० दरबारालालजी १ अनेकान्न वर्ग ८ कि० १० ११, १० ४१..." १ मूलमं प्रयुक हुए 'च' शब्द का अर्थ । २ अनेकान्त वर्ष कि०प०३: Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अनेकान्त रूप में समन्तभद्र को भी 'देव' पदके द्वारा उल्लेखित करनेके कारण मौजूद थे। इसके सिवाय, प्रो० साहब ने श्लेषार्थको लिये हुए जो एक पद्य 'देवं स्वामिनममलं विद्यानन्दं प्रणम्य निजभक्त्या' इत्यादि उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है उसका अर्थ जब स्वामी समन्तभद्र-परक किया जाता तब 'देव' पद स्वामी समन्तभद्रका, अकलङ्क-परक अर्थ करनेसे अकलङ्कका और विद्यानन्द-परक अर्थ करनेसे विद्यानन्दका ही वाचक होता है। इससे समन्तभद्र नाम माथमे न रहते हुए भी समन्तभद्रके लिये 'देव' पदका अलग प्रयोग अघटित नहीं है, यह प्रो० साहब द्वारा प्रस्तुत किये गये पद्यसे भी जाना जाता है । यह भी नहीं कहा जा सकता कि वादिराज 'देव' शब्दको एकान्ततः 'देवनन्दी' का वाचक समझते थे और वैसा समझनेके कारण ही उन्होंने उक्त पद्यम देवनन्दीके लिये उसका प्रयोग किया है; क्योंकि बादिराज ने अपने न्याय-विनिश्चय-विवरण में अकलङ्कके लिये 'देव' पदका बहुत प्रयोग किया है', इतना ही नहीं बल्कि पार्श्वनाथचरितमं भी वे 'तर्कभू वल्लभो देवः स जयत्यकलङ्कधी : ' इस वाक्यम प्रयुक्त हुए 'देव' पदके द्वारा अकलङ्कका उल्लेख कर रह है । और जब अकलङ्क के लिये वे 'देव' पदका उल्लेख कर रहे है तब अकलसे भी बड़े और उनके भी पृज्यगुरु समन्तभद्रके लिय 'देव' पदका प्रयोग करना कुछ भी अस्वाभाविक अथवा अनहोनी बात नही है । इसके सिवाय, उन्होंने न्यायविनिश्चयविर एवं अन्तिम भागमे पूज्यपादका देवनन्दी नाम [ वर्ष ९ से उल्लेख न करके पूज्यपाद नामसे ही उल्लेख किया है', जिससे मालूम होता कि यही नाम उनको अधिक इट था । ऐसी स्थिति में यदि वादिराजका अपने द्वितीय पद्यसे देवनन्दि-विषयक अभिप्राय होता तो वे या तो पूरा देवनन्दी नाम देते या उनके 'जैनेन्द्र' व्याकरणका साथमे स्पष्ट नामोल्लेख करते अथवा इस पद्यको रत्नकरण्डके उल्लेख वाले पद्यके बादमे रखते, जिससे समन्तभद्रका स्मरण-विषयक प्रकरण समाप्त होकर दूसरे प्रकरणका प्रारम्भ समझा जाता । जब ऐसा कुछ भी नहीं है तब यही कहना ठीक होगा कि इस पद्यमें 'देव' विशेषरण के द्वारा समन्तभद्रका ही उल्लेख किया गया है। उनका श्रचिन्त्यमहिमासे युक्त होना और उनके द्वारा शब्दों का सिद्ध होना भी कोई श्रमङ्गत नहीं है । वे पूज्यपाद से भी अधिक महान थे, अकलङ्क और विद्यानन्दादिक बड़े-बड़े आचार्योंने पदार्थतत्त्वविषयक स्याद्वाद तीर्थका कलिकालमे भी उनकी महानताका खुला गान किया है, उन्हें सवप्रभावित करने वाला, वीरशासनकी हजारगुणी वृद्धि करने वाला, और 'जैनशासनका प्रणेता' तक लिखा है। उनके असाधारण गुणांक कीतना और महिमाओके वर्णनसि जैन साहित्य भरा हुआ है, जिसका कुछ परिचय पाठक 'मत्माधु- स्मरण - मङ्गलपाठ' मे दिये हुए समन्तभद्रकं स्मरणोंपरसे सहज ही में प्राप्त कर सकते है । समन्तभद्रके एक परिचय-पद्यम मालूम होता है कि वे 'सिद्धसारस्वत' थे- सरस्वती उन्हें सिद्ध थी; वादर्भासह जैसे आचार्य उन्हें 'सरस्वती की स्वच्छन्द विहारभूमि' बतलाते हैं और एक दूसरे ग्रन्थकार समन्तभद्र-द्वारा रचे हुए प्रन्थसमूहरूपी निर्मलकमल-मरोवरमे, जो भावरूप हमसे परिपूर्ण है, सरस्वतीको क्रीडा करती हुई उचित करते हैं। इससे समन्तभद्रकं द्वारा शब्दों१ "विद्यानन्दमनन्तवीर्य सुखद श्रीपूज्यपाद दयापाल सन्मति - मागर वन्दे जिनेन्द्र मुदा" । २ श्रनेकान्त वर्ष ७ किरण ३.४ पृ० २६ ३ सत्मा धुम्मरणमगलपाट, पृ० ३४, ४६ १ जैसा कि नीचे के कुछ उदाहरणों प्रकट है:-- “देवस्तार्किक चक्रचूडामणिम्यात्म वः श्रयमे" | पृ० ३ "भयो भेदनयावगाहगहन देवस्य यद्वाङमयम्" । "तथा च देवस्यान्यत्र वचन - "व्यवसायात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष स्वत एव नः” । प्रस्ताव १ “देवस्य शामगमतीवगभीरमेतत्तात्पर्यत क इव बोद्धमतीव दक्ष" । प्रस्तान २ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] ग्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयम मेरा विचार और निर्णय १३१ का सिद्ध होना कोई अनोखी बात नहीं कही जा योगीन्द्र माननेके लिये तय्यार न हो, खासकर उम सकती। उनका 'जिनशतक' उनके अपूर्व व्याकरण- हालतमे जबकि वे धर्माचार्य थे-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, पाण्डित्य और शब्दोंके एकाधिपत्यको सूचित करता चारित्र, तप और वीर्यरूप पश्च आचाराका स्वय है। पूज्यपादन तो अपने जैनेन्द्रव्याकरणमें 'पतुष्टय आचरण करनेवाले और दूसरोंको आचरण कराने समन्तभद्रस्य' यह सूत्र रखकर समन्तभद्र-द्वारा होने वाले दीक्षागुरुके रूपमे थे- 'पदर्द्धिक' थे तपके बलपर वाली शब्दमिद्धिको स्पष्ट सूचित भी किया है, जिम चारणऋद्धिको प्राप्त थे और उन्होंने अपने मंत्रमय परसं उनके व्याकरण-शास्त्रकी भी सूचना मिलती है। वचनबलसे शिवपिण्डीम चन्द्रप्रभकी प्रतिमाको बुला और श्रीप्रभाचन्द्राचार्यने अपने गद्यकथाकोशमे उन्हें लिया था ('स्वमन्त्रवचन-व्याहूत चन्द्रप्रभः') । योगतकशास्त्रकी तरह व्याकरण-शास्त्रका भी व्याख्याता साधना जैन मुनिका पहला कार्य होता है और इस (निर्माता)' लिखा है । इन पर भी प्रो० माहबका लिये जैन मुनिको 'योगी' कहना एक सामान्य-सी अपने पिछले लेखमे यह लिखना कि "उनका बनाया बात है, फिर धर्माचार्य अथवा दीक्षागुरु मुनीन्द्रका हुआ न ता कोई शब्दशास्त्र उपलब्ध है और न उमके तो योगी अथवा योगीन्द्र होना और भी अवश्यकाइ प्राचान प्रामाणिक उल्लेख पाये जाते है" व्यर्थ भावी तथा अनिवार्य हो जाता है। इसीसे जिस की खींचतानके सिवाय और कुछ भी अर्थ नहीं वीरशासनके स्वामी ममन्तभद्र अनन्य उपासक थे रखता। यदि आज कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है तो उसका स्वरूप बतलाते हुए, युक्त्यनुशासन (का०६)मे उसका यह आशय तो नहीं लिया जा सकता कि वह उन्होंन दया, दम और त्यागक साथ समाधि (यागकभी था ही नहीं। वादिराजक ही द्वारा पाश्वनाथ- साधना)को भी उसका प्रधान अङ्ग बतलाया है । तब चरितम उल्लिखित 'मन्मतिसूत्र'की वह विवृति और यह कैसे हो सकता है कि वीरशासनके अनन्यविशेषवादीकी वह कृति आज कहा मिल रही है ? उपासक भी याग-साधना न करते हो और इमलिये यदि उनके न मिलने मात्रसे वादिराजक उल्लेख- यागी न कह जाते हो? विषयमे अन्यथा कल्पना नहीं की जा सकती तो फिर मबसे पहले सुहद्वर प. नाथूरामजी प्रेमीने इम समन्तभद्रक शब्दशास्त्रकं उपलब्ध न होन मात्र हा योगीन्द्र विषयक चर्चाका 'क्या रत्नकरण्डक का वैमी कल्पना क्यों की जानी है ? उसम कुछ भी स्वामी ममन्तभद्र ही है ?' हम शीर्षकके अपने लेखम औचित्य मालूम नहीं होता। अत: वादिराजक उक्त उठाया था और यहाँ तक लिख दिया था कि द्वितीय पद्य न०१८का यथावस्थित क्रमकी दृष्टिसं "योगीन्द्र-जेमा विशेषण ता उन्ह (ममन्तभद्रको) समन्तभद्र-विषयक अथ लेनम किसी भी बाधाकं कही भी नहीं दिया गया।" इसके उत्तरमे जब मैन लिय कोई स्थान नहीं है। 'म्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, ताकिक और योगी ___ रही तीसरे पद्यकी बात, उममे 'योगीन्द्र.' पदका नानी थे' इस शीर्षकका लख लिया और उसम लकर जो वादविवाद अथवा झमला खड़ा किया गया अनक प्रमाणीक आधारपर यह स्पष्ट किया गया कि है उसमें कुछ भी सार नहीं है। कोई भी बुद्धिमान ममन्तभद्र योगीन्द्र थे तथा 'योगी' और 'योगीन्द्र' ऐमा नहीं हो सकता जो समन्तभद्रका यागी अथवा विशेपणोका उनके नामके साथ स्पष्ट उल्लेख भी १ अनेकान्त वर्ष ८ किरण १०-११ पृ० ४१६ बनलाया गया तब प्रेमीजी तो उस विषयमे मौन हा २ 'जैनग्रन्थावलीम रॉयल एशयाटिक मोमाइटीकी रिपोर्टक रहे, परन्तु प्रा. साहबने इम चर्चाको यह लिखकर आधारपर समन्तभद्रक एक पाकृत व्याकरणका नामा- लम्बा किया किल्लेख है बार उसे १२०० श्लोकपारमाण सूचित १ अनेकान्त वर्ष ७ किरण ३-४, पृ० २६, ३० किया है। २ अनेकान्त वर्ष किरण ५-६, पृ० १२४८ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अनेकान्त "मुख्तार साहव तथा न्यायाचार्यजीने जिस आधारपर 'योगीन्द्र' शब्दका उल्लेख प्रभाचन्द्र-कृत स्वीकार कर लिया है वह भी बहुत कच्चा है। उन्होंने जो कुछ उसके लिये प्रमाण दिये है उनसे जान पड़ता है कि उक्त दोनों विद्वानामे में किसी एकने भी अभी तक न प्रभाचन्द्रका कथाकोष स्वयं देखा है और न कही यह स्पष्ट पढा या किसीसे सुना कि प्रभाचन्द्रकृत कथाकोषमे समन्तभद्रके लिये 'योगीन्द्र' शब्द आया है। केवल प्रमीजीन कोई बीस वर्ष पूर्व यह लिख भेजा था कि "दोनों कथाश्रम कोई विशेष फर्क नहीं हे, नमित्तकी कथा प्रभाचन्द्रकी गद्यकथाका प्रायः पूर्ण अनुवाद है" । उसी के आधारपर आज उक्त दोनों विद्वानोंकी "यह कहने कोई आपत्ति मालूम नहीं होती कि प्रभाचन्द्र ने भी अपने गद्य-कथाकोपमे स्वामी समन्तभद्रको 'योगीन्द्र' रूपमें उल्लेखित किया है ।" [ वर्ष ९ तपस्वीवाले वेषके साथ। ऐसा भी नहीं कि पाण्डुराङ्गतपस्वीके वेषवाले ही 'योगी' कहे जाते हों जैनवेषवाले मुनियोंको योगी न कहा जाता हो । यदि ऐसा होता तो रत्नकरण्डकं कर्ताको भी 'यागीन्द्र' विशेषणसे उल्लेखित न किया जाता । वास्तवमे 'योगी' एक सामान्य शब्द है जो ऋषि, मुनि, यति, तपस्वी आदिकका वाचक हैं; जैसा कि धनञ्जय नाममाला के निम्न वाक्यसे प्रकट हैऋषिर्यनिर्मुनिर्भिन्तुस्तापसः मयतो व्रती । तपस्वी मयमी योगी वर्णी साधुश्च पातु वः ॥३॥ जैन साहित्यमे योगी की अपेक्षा यति-मुनि-तपस्वी जैसे शब्दों का प्रयोग अधिक पाया जाता है, जा उसके पर्याय नाम है । रत्नकरण्डमे भी यांत, मुनि और तपस्वी शब्द योगी के लिये व्यवहृत हुए हैं । तपस्वीको श्राप्त तथा आगमकी तरह सम्यग्दर्शनका विषयभूत पदार्थ बतलाते हुए उसका जो स्वरूप एक पद्म' में दिया है वह ग्वासतौर से ध्यान देने योग्य ह । उसमें लिखा है कि- 'जा इन्द्रिय-विषयों तथा इच्छाओंक वशीभूत नहीं है, आरम्भों तथा परिग्रहांसे राहत है और ज्ञान, ध्यान एव तपश्चरणांम लीन रहता है वह तपस्वी प्रशसनीय है।' इस लक्षणमं भिन्न योगीके और कोई सीन नहीं होते । एक स्थानपर सामायिक्रम स्थित गृहस्थको 'चलोपसृष्टमुनि' की तरह यतिभावको प्राप्त हुआ लिम्बा हूं" ।" चलापसृष्टमुनिका अभिप्राय उस नम दिगम्बर जैन योगी है जा मौन-पूर्वक योग-साधना करता हुआ ध्यानमग्न हो और उस समय किसीने उसको वस्त्र ओढा दिया हो, जिसे वह अपने लिये उपसग समझता है । सामायिकमे स्थित वस्त्रमहित गृहस्थको उस मुनिकी उपमा देते हुए उसे जा यतिभाव-योगी कं भावको प्राप्त हुआ लिखा है और अगले पद्यमे उसे "अचल योग" मा बतलाया है उससे स्पष्ट जाना १ विषयाऽऽशा-वशाऽतीता निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञान-ध्यान तपोरतस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ १० ॥ २ सामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि । चोपसृष्टमुनिरिव गृही तदा यानि यतिभावम ॥ १०२ ॥ इसपर प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोपको मँगाकर देखा गया और उसपर से समन्तभद्रका 'योगी' तथा 'योगीन्द्र' बनलान वाले जब डेढ दर्जन के करीब प्रमाण न्यायाचार्यजीन अपने अन्तिम लेख 'मे उद्धृत किये तब उसके उत्तरमे प्रो० साहब अब अपने पिछले लेख में यह कहने बैठे है, जिसे वे नमिदन- कथाकोपके अनुकूल पहले भी कह सकते थे, कि " कथानकमे समन्तभद्रको केवल उनके कपटवषमे ही योगी या योगीन्द्र कहा है, उनक जैनवषम कही भी उक्त शब्दका प्रयोग नहीं पाया जाता" | यह उत्तर भी वास्तवमे कोइ उत्तर नही है । इसे भी केवल उत्तरके लिये ही उत्तर कहा जा सकता है। क्योकि समन्तभद्रकं याग चमत्कारको देखकर जब शिवकोटिराजा, उनके भाई शिवायन और प्रजाके बहुत जन जैनधर्ममं दीक्षित होगये तत्र योगरूपमे समन्तभद्रकी ख्यानि तो और भी बढ़ गई होगी और वे आम तौर पर योगिराज कहलाने लगे होंगे, इसे हर कोई समझ सकता है; क्योंकि वह योगचमत्कार समन्तभद्रकं साथ सम्बद्ध था न कि उनके पाण्डुराङ्ग१ अनेकान्त वर्ष ८, किरण १०-११ पृ० ४२०-२१ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरण ३] रत्नकरण्डके कतृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय जाता है कि रत्नकरण्डमे भी योगीके लिये यति' लिये जबतक जैनसाहित्यपरसे किसी ऐसे दूसरेसमन्तशब्दका प्रयोग किया गया है । इमके सिवाय, अक- भद्रका पता न बतलाया जाय जो इस रत्नकरण्डका कर्ता लङ्कदेवने अष्टशती (देवागम-भाष्य)के मङ्गल-पदामे होसके तब तक 'रनकरण्ड'के कर्ताक लिये 'योगीन्द्र प्राप्तमीमामाकार स्वामी समन्तभद्रको 'यति' लिखा विशेषणके प्रयोग-मात्रसे उसे कोरी कल्पनाके है। जो मन्मार्गमे यत्नशील अथवा मन-वचन-कायके श्राधारपर स्वामी ममन्तभद्रमे भिन्न किसी दृमरे नियन्त्रणरूप योगकी साधनामे तत्पर योगीका ममन्तभद्र की कृति नहीं कहा जा सकता। वाचक है, और श्रीविद्यानन्दाचार्यन अपनी अष्ट- ऐमी वस्तुस्थितिमे वादिराजके उक्त दोनों पद्योंसहस्रीमे उन्हें 'यतिभृत' और 'यतीश' तक लिखा को प्रथम पद्यके साथ स्वामिसमन्तभद्र-विषयक है, जो दोनों ही 'योगिराज' अथवा 'योगीन्द्र' अर्थ- समझने और बतलानेमे कोई भी बाधा प्रतीत नहीं के द्योतक है, और 'यतीश'के साथ 'प्रथिततर' होती' । प्रत्युत इमके, वादिराजके प्रायः ममकालीन विशंपण लगाकर तो यह भी सूचित किया गया है विद्वान् आचार्य प्रभाचन्द्रका अपनी टीकामे 'रत्रकि वे एक बहुत बडे प्रसिद्ध योगिराज थे। ऐसही करण्ड' उपासकाध्ययनको माफ तौरपर म्वामी उल्लेखोंका दृष्टिम रखकर वादिराजने उक्त पद्यम ममन्तभद्रकी कृति घोषित करना उसे पुष्ट करता है। 'समन्तभद्र के लिये 'योगीन्द्र' विशेषणका प्रयोग किया उन्होंने अपनी टीकाकं केवल मधि-वाक्योंमे ही जान पडना है । ओर इलिये यह कहना कि 'ममन्तभद्रस्वामि-विचित' जैसे विशेषणों-द्वारा वैमी 'ममन्तभद्र योगी नही थे अथवा योगीरूपसे उनका घोपणा नहीं की बल्कि टीकाकी आदिम निम्न कहीं उल्लेख नहीं' किमी तरह भी ममुचित नहीं कहा प्रस्तावना-वाक्य-द्वारा भी उसकी स्पष्ट सूचना की हैजा सकता । रनकरण्डकी अब तक एमी कोई प्राचीन "श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणापायभूनरन्नप्रति भी प्रो० माहबकी तरफसे उपस्थित नहीं की गई करण्डकप्रख्यं मम्यग्दर्शनादिगनानां पालनापायभूतं जिमम ग्रन्थकर्ता 'योगीन्द्र' नामका कोई विद्वान् रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्र कतकामो निविघ्ननः शास्त्रपारलिखा हो अथवा स्वामी समन्तभद्रमे भिन्न दूसरा ममाप्त्यादिकं फलमभिलपत्रिदेवताविशेष कोई ममन्तभद्र उसका कता है एमी स्पष्ट सूचना नमम्वन्नाह ।" माथमे की गई हो। हाँ, यहाँपर एक बात और भी जान लेनेकी है समन्तभद्र नामक दूसरे छह विद्वानोंकी खोज | खाज और वह यह कि प्रो० साहबने अपने विलुप्त अध्याय' करके मैन उसे रनकरण्डश्रावकाचारकी अपनी में यह लिखा था कि "दिगम्बरजैन माहित्यम जो प्रस्तावनामे आजसे कोई २३ वर्षे पहले प्रकट किया प्राचार्य स्वामीकी उपाधिसे विशेषतः विषित किये था--उमक बादमे और किमी समन्तभद्रका अब तक गय है वे आप्तमीमांसाकं कर्ता ममन्तभद्र ही कोई पता नहीं चला। उनमसे एक 'लघु', दुमरे है" और आगे श्रवणबेलगोलकं एक शिलालेखम 'चिक', तीसरे गेममोप्पे', चौथे 'अभिनव', पाँचव भद्रबाहु द्वितीयके साथ 'स्वामी' पद जुड़ा हुआ देख'भट्टारक', छठे 'गृहस्थ' विशेपणसे विशिष्ट पाये जाते कर यह बतलाते हुए कि "भद्रबाहकी उपाधि स्वामी है। उनमेमे कोई भी अपने ममयादिककी दृष्टिम थी जो कि साहित्यम प्रायः एकान्तत: ममन्तभद्रके 'रत्नकरण्ड'का कतो नहीं हो सकता' । और इम " लिये ही प्रयुक्त हुई है," समन्तभद्र और भद्रबाहु १ "येनाचार्य समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमः संततम।" १ सन् १६१२म तजोरसे प्रकाशित होनेवाले वादिगजके २ "स श्रीस्वामिसमन्तभद्र यतिभृद्-भयाद्विभुर्भानुमान् ।” ___ 'यशोधर-चरित'की प्रस्तावनाम, टी. ए. गोपीनाथराव "स्वामी जीयात्स शश्वत्प्रथिततरयतीशोऽकलवारकीर्तिः।" ३माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालाम प्रकाशित रत्नकरगहश्रावकाचार एम. ए. ने भी इन तीनों पद्योको इमी क्रमके माध प्रस्तावना पृ० ५से ६। समन्तभद्रविषयक सूचित किया है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ अनेकान्त | वर्ष ९ द्वितीयको "एक ही व्यक्ति" प्रतिपादन किया था। सकते' जिनमें वे पद्य सम्मिलित न हों। इसपरसे कोई भी यह फलित कर सकता है कि जिन इस नरह प्रो० माहबकी तीसरी आपत्तिमे कुछ ममन्तभद्रके माथ 'स्वामी' पद लगा हुआ हो उन्हे भी सार मालूम नहीं होता। युक्तिके पूर्णतः सिद्ध न प्रो० साहबके मतानुमार प्राप्तमीमाका कर्ता समझना होनेके कारण वह रत्नकरण्ड और श्राप्तमीमामाके चाहिये। तदनुमार ही प्रो० साहबके सामने, रत्न- एककत त्वमे बाधक नहीं हो सकती, और इसलिये करण्डकी टीकाका उक्त प्रमाण यह. प्रदर्शित करनेके उसे भी समुचित नहीं कहा जा मकता । लिये रक्खा गया कि जब प्रभाचन्द्राचार्य भी रत्न- (४) अब रही चौथी आपत्तिकी बात; जिसे प्रो० करण्डको स्वामी समन्तभद्रकृत लिख रहे हैं और माहबने रत्नकरण्डके निम्न उपान्त्य पद्यपरसे कल्पिन प्रो० साहब 'स्वामी' पदका असाधारण सम्बन्ध करके रक्खा है-- श्राप्तमीमांकारके साथ जोड़ रहे है तब वे उसे येन स्वयं वीतकलङ्क-विद्या-दृष्टि-क्रिया-रनकरण्डभावं । आममीमामाकारसे भिन्न किसी दूसरे समन्तभद्रकी नीतम्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिस्त्रिविष्टपेषु ॥ कृति कैसे बतलाते हैं । इसके उत्तरमें प्रो० साहबने इम पद्यमे प्रन्थका उपमहार करते हुए यह लिग्वा है कि "प्रभाचन्द्रका उल्लेख केवल इतना ही लो बनलाया गया है कि 'जिस (भव्यजीव)ने आत्माको है कि रत्नकरण्डके कर्ता स्वामी ममन्तभद्र हैं उन्होंने निर्दोष विद्या, निर्दोष दृष्टि और निर्दोष क्रियारूप यह तो प्रकट किया ही नहीं किये ही रत्नकरण्डके कर्ना रनोंक पिटारेके भावी परिणन किया है-अपने प्राप्तमीमामाके भी रयिता हैं' ।” परन्तु साथम श्रआत्मामे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और मम्यकचारित्रलगा हुआ 'स्वामी' पद तो उन्हीके मन्तव्यानुसार रूप रत्नत्रय धर्मका आविर्भाव किया है-उसे तीनों उमे प्रकट कर रहा है यह देखकर उन्होंने यह भी लोकोंगे मर्वार्थमिद्धि-धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप मभी कह दिया है कि 'रत्नकरण्डकं कर्ता समन्तभद्रक प्रयोजनोंकी सिद्धि-स्वयंवरा कन्याकी तरह स्वय साथ 'स्वामी' पद बादको जुड़ गया है-चाहे उसका प्राप्त होजाती है, अर्थात उक्त सर्वार्थसिद्धि उसे कारण भ्रांति हो या जानबूझकर ऐसा किया गया हो।' स्वेच्छासे अपना पति बनानी है, जिसमें वह चारों परन्तु अपने प्रयोजनके लिये इस कह देने मात्रसे पुरुषार्थोंका म्वामी होता है और उसका कोई भी कोई काम नहीं चल सकता जब तक कि उसका कोई प्रयोजन सिद्ध हुए बिना नहीं रहता।' प्राचीन आधार व्यक्त न किया जाय-कमसे कम इम अर्थको स्वीकार करते हुए प्रो० माहबका प्रभाचन्द्राचार्यसे पहले की लिखी हुई रत्नकरण्डकी जो कुछ विशेष कहना है वह यह है-- कोई ऐसी प्राचीन मूलप्रति पेश होनी चाहिये थी "यहाँ टीकाकार प्रभाचन्द्रके द्वारा बतलाये गये जिममे समन्तभद्र के साथ स्वामी पद लगा हश्रा न वाच्यार्थके अतिरिक्त श्लेषरूपसे यह अर्थ भी मुझे हो। लेकिन प्रो० साहबने पहले की ऐसी कोई भी स्पष्ट दिखाई देता है कि “जिसने अपनेको अकलङ्क प्रति पेश नहीं की तब वे बादको भ्रान्ति आदिके और विद्यानन्दकं द्वारा प्रतिपादित निर्मल ज्ञान, दर्शन वश स्वामी पदके जड़नेकी बात कैसे कह सकते और चारित्ररूपी रत्नोंकी पिटारी बना लिया है उसे है ? नहीं कह सकते, उसी तरह जिस तरह कि तीनों स्थलोंपर मर्व अर्थोकी सिद्धिरूप सर्वार्थसिद्धि मेरे द्वारा सन्दिग्ध करार दिये हुए रत्नकरण्डकं स्वयं प्राप्त हो जाती है, जैसे इच्छामात्रसे पतिको मात पद्योंको प्रभाचन्द्रीय टीकासे पहलेकी ऐसी अपनी पत्नी।" यहाँ निःसन्देहतः रत्नकरण्डकारने प्राचीन प्रतियोंके न मिलनेके कारण प्रक्षिप्त नहीं कह तत्त्वार्थसूत्रपर लिखी गई तीनों टीकाओंका उल्लेख --------- ----- १ अनेकान्त वर्ष ६, किरण १ पृ० १२पर प्रकाशित प्रो. १ अनेकान्त वर्ष८, किरण ३, पृ० १२६ । साहबका उत्तर पत्र । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण रत्नकरण्डके कतृ त्व-विषयम मेग विचार और निर्णय किया है। मर्वार्थसिद्धि कहीं शब्दशः और कहीं बाधा जब प्रो० साहबके सामने उपस्थित की गई और अर्थत: अकलङ्ककृत राजवार्तिक एवं विद्यानन्दिकृत पूछा गया कि 'त्रिषु विष्टपेषु' का श्लेषार्थ जो 'तीनों श्लोकवार्तिकमे प्रायः पूरी ही प्रथित है। अत: जिसने स्थलोपर' किया गया है वे तीन स्थल कौनसे हैं अकलङ्ककृत और विद्यानन्दिकी रचनाओंको हयङ्गम जहाँपर मर्व अर्थकी सिद्धिरुप 'मर्वार्थमिद्धि' स्वय कर लिया उसे मर्वार्थसिद्धि स्वयं आजाती है। रत्न- प्राप्त होजाती है? तब प्रोफेमर माहव उत्तर देते हुए करएटके इम उल्लेखपरसे निर्विवादतः सिद्ध होजाता लिखते हैहै कि यह रचना न केवल पूज्यपादसे पश्चात्कालीन "मंग खयाल था कि वहाँ तो किसी नई है, किन्तु अकलङ्क और विद्यानन्दिसे भी पीछेकी ___ कल्पनाकी आवश्यकता ही नहीं क्योंकि वहाँ उन्हीं है'।" मी हालतमे "ग्नकरण्डकारका पानमीमांमा तीन स्थलोंकी मङ्गति सुम्पष्ट है जो टीकाकारने बतला के कसि एकत्व सिद्ध नहीं होता।" दिय है अर्थात् दर्शन, ज्ञान और चारित्र; क्योंकि व तत्वार्थसूत्रक विषय होनेमे सर्वार्थसिद्धिम तथा अकयहाँ प्रो० माहब-द्वारा कल्पित इस श्लेपार्थके लङ्कदेव और विद्यानन्दकी टीकाओंम विचित हैं मुर्धाटत होनम दो प्रबल बाधाएं है--- एक तो यह कि जब 'वीतकलक' से अकलकका और विद्यास विद्या और उनका ही प्ररूपण रत्नकरण्डकारने किया है।" यह उत्तर कुछ भी मङ्गत मालम नहीं होता; नन्दका अर्थ ललिया गया तब 'दृष्टि' और 'क्रिया' दो क्योकि टीकाकार प्रभाचन्द्रन 'त्रिपु विष्टयेपु' का स्पष्ट ही रत्न शेप रह जाते है और वे भी अपने निर्मलनिर्दाप अथवा सम्यक जैसे मौलिक विशेषणसंशून्य। अर्थ 'त्रिभुवनपु' पदके द्वारा 'तीनों लोकमे दिया है। उसके स्वीकार की घोषणा करते हुए और यह आश्वाएसी हालतम श्लपार्थक साथ जो "निर्मल ज्ञान" अर्थ सन देते हुए भी कि उस विषयमे टीकाकारसे भिन्न भी जोड़ा गया है वह नही बन मकगा और उसके "किसी नई कल्पनाकी आवश्यकता नहीं" टीकाकारन जोड़नेपर वह श्लेषार्थ ग्रन्थ-सन्दभके साथ का अर्थ न देकर 'अर्थात' शब्दकं माथ उसके अर्थअमङ्गत हो जायगा; क्योंकि ग्रन्थभरमे तृतीय पद्यसे की निजी नई कल्पनाको लिये हुए अभिव्यक्ति करना प्रारम्भ करके इस पद्यक पूर्व तक सम्यकदशन-ज्ञान और इस तरह 'त्रिभुवनेषु' पदका अर्थ "दर्शन, ज्ञान चारित्ररूप तीन रत्नोंका ही धर्मरूपसे वणन है, जिस और चारित्र" बतलाना अथका अनर्थ करना अथवा का उपमहार करते हुए ही इम उपान्त्य पद्यम उनको ग्वीचतानकी पराकाष्ठा है। इससे उत्तरकी मनि अपनानेवालेके लिये सर्व अथकी सिद्धिरूप फलकी और भी बिगड़ जाती है; क्योंकि तब यह कहना नहीं व्यवस्था की गई है। इसकी नरफ किसीका भी ध्यान बनता कि सर्वार्थसिद्धि आदि टीकाओंम दर्शन, ज्ञान नहीं गया। दूसरी बाधा यह है कि 'त्रिपु विष्यपु' और चारित्र विवेचित है-प्रतिपादिन है, बल्कि यह पदोंका अर्थ जो "तीनों स्थलोपर" किया गया है वह कहना होगा कि दर्शन, ज्ञान और चात्रिमे मवार्थसङ्गत नही बैठता: क्योंकि अकलकदेवका राज मिद्धि आदि टीकाएं विवेचित है-प्रतिपादित है, वार्तिक और विद्यानन्दका श्लोकवार्तिक प्रन्थ ये दो जो कि एक बिल्कुल ही उल्टी बात होगी। और इस ही स्थल ऐसे है जहाँपर पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि तरह आधार-आधेय सम्बन्धादिकी सारी स्थिति (तत्त्वार्थवृनि) शब्दशः तथा अर्थत: पाई जाती है, बिगड़ जायगी; और तब श्रुपपमे यह भी फलित तीसरे स्थल की बात मुलके किमी भी शब्दपरम उस नहीं किया जा सकेगा कि अकलङ्क और विद्यानन्दकी का आशय व्यक्त न करने के कारण नहीं बनती। यह टीकाएँ ऐसे कोई स्थल या स्थानविशेष हैं जहाँपर १ अनेकान्त वर्ष ७ किरण ५.६ पृ० ५३ पूज्यपादकी टीका सर्वार्थाद्धि म्वय प्राप्त होजाती है। २ अनेकान्त वर्ष = किरण ३ पृ. १३२ १ अनेकान्त वर्ष, किरण ३ पृ० १३० Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ अनेकान्त [वर्ष ९ ___ इन दोनों बाधाओंके सिवाय श्लेषकी यह कल्पना होजाता है कि वह रचना न केवल पूज्यपादसे अप्रामङ्गिक भी जान पड़ती है, क्योंकि रत्नकरण्डके पश्चात्कालीन हैं, किन्तु अकलङ्क और विद्यानन्दिमे भी माथ उसका कोई मेल नहीं मिलना, रत्नकरण्ड पीछेकी है" कोरी कल्पनाके सिवाय और कुछ भी तत्त्वार्थसूत्रकी कोई टीका भी नहीं जिमम किमी नहीं है। उसे किसी तरह भी युक्तिमङ्गत नहीं कहा तरह खींचतान कर उसके साथ कुछ मेल बिठलाया जा मकता-रत्नकरण्ड के 'अप्नापज्ञमनुल्लंघ्य' पद्यका जाता, वह तो आगमकी ख्यातिको प्राप्त एक म्वतन्त्र न्यायावतारमे पाया जाना भी इसमें बाधक है। वह मौलिक ग्रन्थ है, जिसे पूज्यपादादिकी उक्त टीकाओंका केवल उत्तरके लिये किया गया प्रयासमात्र है और कोई आधार प्राप्त नहीं है और न हो सकता है। इमीसे उमको प्रस्तुत करते हुए प्रो० साहबको अपने और इमलिये उसके साथ उक्त शेषका आयोजन पूर्व कथनके विरोधका भी कुछ खयाल नहीं रहा; एक प्रकारका अमम्बद्ध प्रलाप ठहरता है जैमा कि मै इससे पहले द्वितीयादि आपत्तियों के अथवा यों कहिये कि विवाह तो किमीका और गीत विचारकी भूमिकामे प्रकट कर चुका है। किमीके' इम उक्तिको चरितार्थ करता है। यदि विना यहॉपर एक बात और भी प्रकट कर देनेकी है सम्बन्धविशेष कवल शव्दछलको लेकर ही शेपकी और वह यह कि प्रो० माहब भंपकी कल्पनाके बिना कल्पना अपने किमी प्रयोजनके वश की जाय और उक्त पद्यकी रचनाको अटपटी और अस्वाभाविक उसे उचित समझा जाय नब तो बहुत कुछ अनोंक समझते है, परन्तु पद्यका जो अथ ऊपर दिया गया मङ्घटित होने की सम्भावना है । उदाहरणके लिय है और जो श्राचार्य प्रभाचन्द्र-मम्मत है उसस पद्यकी म्वामिममन्तभद्र-प्रणीत 'जिनशनक'के उपान्त्य पद्य रचनामे कही भी कुछ अटपटापन या अस्वाभाविकता (नं. ११५)में भी 'प्रतिकृतिः सर्वार्थसिद्धि परा' इम का दशन नही होता है। वह विना किमी लंपकल्पनाक वाक्यक अन्तर्गत 'मार्थमिद्धि' पदका प्रयोग पाया ग्रन्थक पूर्व कथनके साथ भले प्रकार सम्बद्ध होता जाता है और ६४वे पद्यमे तो 'प्राप्य मर्वाथसिद्धि गां' हुआ ठीक उसके उपसंहाररूपमे स्थित है। उमम इम वाक्यक माथ उमका रूप और स्पष्ट होजाता है, प्रयुक्त हुए विद्या, दृष्टि जैसे शब्द पहले भी ग्रन्थम उसके साथ वाले 'गा' पदका अर्थ वाणी लगा लेनेमे ज्ञान-दशन जैस अमि प्रयुक्त हुए है, उनके अर्थमे वह वचनात्मिका 'मसिद्धि' होजाती है। इस प्रो० साहबको कोई विवाद भी नही हैं। हाँ, 'विद्या' 'सर्वार्थसिद्धि'का वाच्यार्थ यदि उक्त श्लेषार्थकी तरह से शेषरूपमे 'विद्यानन्द' अर्थ लेना यह उनकी निजी पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि लगाया जायगा तो स्वामी कल्पना है, जिसके समर्थनमे कोई प्रमाण उपस्थित ममन्तभद्रको भी पूज्यपादके बादका विद्वान कहना नही किया गया, केवल नामका एक देश कहकर उस होगा और तब पूज्यपादके 'चतुष्टय समन्तभद्रम्य' इम मान्य कर लिया है। तब प्रो० साहबकी दृष्टिमे व्याकरणसुत्रम उल्लिखित ममन्तभद्र चिन्ताक विषय .. बन जायेगे तथा और भी शिलालेखों, प्रशस्तियों १ जहाँतक मुझे मालूम है सस्कृत साहित्यम श्लेषरूपम तथा पट्रावलियों आदिकी कितनी ही गड़बड़ उपस्थित नामका एकदेश ग्रहण करते हुए पुरुषके लिये उसका हो जायगी। अतः मम्बन्धविशेषको निर्धारित किये पुल्लिग अशोर स्त्रीके लिये स्त्रीलिग अश ग्रहण किया विना केवल शब्दोंके समानार्थको लेकर ही शेषार्थको जाता है, जैसे 'मत्यभामा' नामका स्त्रीके लिये 'भामा' कल्पना व्यर्थ है। अंशका प्रयोग होता है न कि 'मत्य' अंशका । इसी तरह इस तरह जब श्लेषाथ ही सुघटित न होकर 'विद्यानन्द' नामका विद्या' ग्रंश, जो कि स्त्रीलिग है, पुरुपके बाधित ठहरता है तब उसके आधारपर यह कहना लिये व्यवहृत नहीं होता। चुनांचे प्रो० साहबने श्लेपके कि "रत्नकरण्ड के इस उल्लेखपरसे निर्विवादत: सिद्ध उदाहरणरूपमे जो 'देव स्वामिनभमल विद्यानन्द प्रणम्य Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] रत्नकरण्डके कतृ त्व-विषयमे मेग विचार और निर्णय १३७ पदाकी रचनाका अटपटापन या अम्वाभाविकपन प्रयोग किया गया है । इनमे 'वीतकलङ्क' शब्द सबसे एकमात्र 'वीनकलङ्क' शब्दकं साथ केन्द्रित जान अधिक शुद्ध भी अधिक स्पष्टार्थको लिये हुए है पहना है, उसे ही मीधे वाच्य-वाचक-मम्बन्धका और वह अन्तम स्थित हुश्रा अन्तदीपककी तरह पाधक न मममकर आपने उदाहरण प्रस्तुत किया पूवमे प्रयुक्त हुए 'मन्' आदि सभी शब्दोंकी अर्थदृष्टिहै । परन्तु सम्यक् शनके लिये अथवा उमके स्थान पर प्रकाश डालता है, जिसकी जरूरत थी, क्योकि पर 'वातकलङ्क' शब्द का प्रयोग छन्द तथा म्पष्टाथ की 'मत्' मम्यक् जैसे शब्द प्रशमादिके भी वाचक है दृष्टिसे कुछ भी अटपटा, अमङ्गत या अम्वाभाविक वह प्रशमादि किम चीजम है? दोषोंक दूर होनेमे नहीं है; क्योकि 'कलङ्क'का सुप्रसिद्ध अर्थ 'दोष' है' है। उसे भी 'वीतकल' शब्द व्यक्त कर रहा है। और उमक माथमे 'वीत' विशेषावगन, मुक्त त्यक्त, दशनमे दोष शङ्का-मृढतादिक, ज्ञानम मशय-विपर्यविनष्ट अथवा रहित जैसे अर्थका वाचक है, जिमका यादिक और चारित्रम गग-द्वपादि होते है। इन दोषांस प्रयोग समन्तभद्रक दमरे ग्रन्थोंमे भी ऐसे स्थलोंपर रहित जो दर्शन-ज्ञान और चारित्र है वे ही बीतकला पाया जाता है जहां श्लेपार्थका कोई काम नहीं; जैसे अथवा निदाप दर्शन-ज्ञान-चारित्र है, उन्ही रूप जो प्राप्तमीमामा 'वानरागः' तथा 'वीतमोहतः' पदोमें, अपने आत्माको परिणत करता है उसे ही लोकम्वयम्भूनांत्रके 'वानघन:' तथा 'वीतगगे' पदोम, पग्लोक मर्व अर्थोकी मिद्धि प्राप्त होती है। यही उक्त युक्त्यनुशासनके 'वीविकल्पधी:' और जिनशतककं उपान्त्य पद्यका फलिनार्थ है, और इससे यह स्पष्ट 'वीनचंताविकागभि' पदमे । जिसमें दोष या जाना जाना है कि पद्यमे 'सम्यक'के स्थानपर 'वीनकलङ्ग निकल गया अथवा जो उससे मुक्त है उसे कलङ्क'शब्दका प्रयोग बहुन मोच-ममझकर गहरीदुरवीतदाप, निर्दाप, निष्कलङ्क, अकलङ्क तथा वातकलङ्क दृष्टिकं माथ किया गया है । छन्दकी टिम भी वहाँ जैम नामोम अभिहित किया जाता है, जो मब एक सन, मम्यक, ममीचीन, शुद्ध या ममम जेम ही अर्थक वाचक पर्याय नाम है। वास्तवम जो शमिम किमीका प्रयोग नहीं बनता और इसलिये निदाप है वही मम्यक् (यथार्थ) कह जानकं योग्य वीनकलङ्क' शब्दका प्रयोग श्रेपार्थकं लिय अथवा है-दापास युक्त अथवा पृणको मम्यक नहीं कह द्राविडी प्राणायामक रूपम नहीं है जैमा कि प्रोफमर मकने । रत्नकरण्डम मन, सम्यक, ममीचीन, शुद्ध माहब ममझते है । यह बिना किमी श्वेपार्थकी और वीनकलङ्क इन पांचों शब्दांका एक ही अर्थम कल्पनाकं प्रन्थमन्दभक माथ मुसम्बद्ध और अपने प्रयुक्त किया है और वह है यथार्थना-निर्दापना, स्थानपर सुप्रयुक्त है। जिमकं लिय स्वम्भूनांत्रम 'ममञ्जम' शब्दका भी अब मै इतना और भी बनला देना चाहता हूं कि ग्रन्थका अन्न परीक्षण करनेपर उमग कितनी ही बात निजभक्तया' नामका पा उद्धृत किया है उमम विद्या एमी पाई जाती है जो उमकी अति प्राचीनताकी द्योतक नन्दका 'विद्या' नाममे उल्लेग्न न करके पूग ही नाम है, उमक कितने ही उपदेशा-पाचागं, विधि-विधानां दिया है। विद्यानन्दका 'विद्या' नाममे उल्लेग्वका दूमग अथवा क्रियाकाण्डॉकी तो परम्पग भी टीकाकार कोई भी उदाहरण देखनेम नहीं आता । प्रभाचन्द्रकं ममयम लुम हुई मी जान पड़ती है, १ 'कलवाऽई कालायममले दोपापवादयोः। विश्व० काश. इमाम वे उनपर यथेष्ट प्रकाश नहीं डाल मक और दोषक अर्थम कलङ्क शब्दके प्रयोगका एक मुम्पष्ट उदा- न बादको ही किसीके द्वारा वह डाला जा सका है। हरण इस प्रकार है जैसे 'मृर्ध्वमह-मुष्टि-वामी-बन्ध' और 'चतुगवतअपाकुवन्ति यद्वाचः काय-वाक् चित्त मम्भवम । त्रितय' नामक पदोंमें वर्णित प्राचारकी बात । अष्टकलहमगिना सोऽय देवनन्दी नमस्यते ||---शानार्णव मूलगुग्गोंमें पञ्च अरणवतोंका समावेश भी प्राचीन Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ अनेकान्त [वर्ष ९ परम्पराका द्योतक है जिममे समन्तभद्रस शताब्दियों इमपरसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि रत्नकरण्ड बाद भारी परिवर्तन हा और उसके अणुव्रतोंका ग्रन्थकी रचना उस समय हुई है जबकि 'पाखण्डी' स्थान पञ्चउदम्बरफलोंने ले लिया । एक चाण्डाल- शब्द अपने मूल अर्थम-'पापं खण्डयनीति पाखण्डा' पुत्रको 'देव' अर्थात् आराध्य बतलाने और एक इस नियुक्तिके अनुसार-पापका खण्डन करनेके गृहस्थको मुनिमे भी श्रेष्ठ बतलाने जैसे उदार उपदेश लिये प्रवृत्त हुए तपस्वी माधुओंके लिये आमतौरपर भी बहुत प्राचीनकालक मंसूचक है जबकि देश और व्यवहृत होता था, चाहं वे साधु स्वमतके हो या समाजका वातावरण काफी उदार और सत्यको परमतके । चुनांचे मूलाचार (अ. ५)मे 'रत्तवडप्रहण करनेमे सक्षम था। परन्तु यहाँ उन सब चरग-तापस-परिहत्तादीयअगापामंडा' वाक्यके बातोंके विचार एव विवेचनका अवसर नही है द्वारा रक्तपटादिक माधुओको अन्यमतके पाखण्डी तो स्वतन्त्र लेखक विषय है, अथवा अवसर मिलने बतलाया है, जिससे माफ ध्वनित है कि तब स्वमत पर 'समीचीन-धर्मशास्त्र'की प्रस्तावनामे उनपर यथेष्ट (जैनों)के तपस्वी माधु भो 'पाखण्डी' कहलाते थे। प्रकाश डाला जायगा । यहाँ मै उदाहरणके तौरपर और इसका समर्थन कुन्दकुन्दाचायके समयामार सिर्फ दो बाते ही निवेदन कर देना चाहता हूँ और प्रन्थकी पाखंडी-लिगाणि व गिहलिंगाणि व बे इस प्रकार है बहुप्पयागपण' इत्यादि गाथा नं०४८ आदिसे भी (क) रत्नकरण्डमे सम्यग्दर्शनको तीन मूढताओंसे होता है, जिनमे पाखण्डीलिङ्गको अनगार माधुओं रहित बतलाया है और उन मूढताओंम पावण्डि (निर्ग्रन्थादि मुनियों)का लिङ्ग बतलाया है । परन्तु मृढताका भी समावेश करते हुए उसका जो स्वरूप 'पाखण्डी' शब्दक अर्थकी यह स्थिति आजसे कोई दिया है वह इस प्रकार है दशों शताब्दियों पहलेम बदल चुकी है और सबमे यह सग्रन्थाऽऽरम्भ-हिमाना मंसाराऽऽवर्त-वर्तिनाम् ।। 'शब्द' प्रायः 'धून' अथवा 'दम्भी-कपटी' जैसे विकृत पास्वण्डिना पुरस्कारो ज्ञेय पाखण्डि-मोहनम् ।।२४।। अर्थमे व्यवहत होता रहा है। इम अर्थका रत्न'जो सग्रन्थ है-धन-धान्यादि परिग्रहसे युक्त है -~-~-आरम्भ सहित है-कृषि-वाणिज्यादि सावद्यकर्म करण्डके उक्त पद्यम प्रयुक्त हुए 'पाण्डिन्' शब्दक करते है-, हिमामे रत हैं और संसारके भावोंमे प्रवृत्त साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । यहाँ पाखण्डी' शब्दक प्रयोगको यदि धूर्त, दम्भी, कपटी अथवा झूठे हो रह हैं-भवभ्रमणमे कारणीभूत विवाहादि को (मिथ्यादृष्टि) साधु जैसे अर्थमे लिया जाय, जैसा कि द्वारा दुनियाके 'चकर अथवा गोरखधन्धेमें फंसे हुए कुछ अनुवादकोंने भ्रमवश आधुनिक दृष्टिसे ले लिया हैं, ऐसे पाण्डियोंका-वस्तुत: पापके खण्डनमे प्रवृत्त न होने वाले लिङ्गी साधुओंका जो (पाखण्डीके है, तो अर्थका अनर्थ हो जाय और 'पावण्डि मोहनम्' पदमे पड़ा हुआ 'पाखण्डिन्' शब्द अनर्थक रूपमे अथवा साधु-गुरु-बुद्धिसे) आदर-सत्कार है और असम्बद्ध ठहरे । क्योंकि इस पदका अर्थ है उसे 'पाण्डिमढ' समझना चाहिए। 'पाखण्डियोंके विषयमे मूढ होना' अर्थात पाखण्डीके १ इम विषयको विशेष जानने के लिये देखो लेखकका 'जैना बास्तविक' स्वरूपको न समझकर अपाखण्डियों चायौंका शासन भेद' नामक ग्रन्थ पृष्ठ ७ से १५ । उसमे दिये हुए 'रत्नमाला' के प्रमाणपरसे यह भी जाना जाता १ पाखण्डीका वास्तविक स्वरूप वही है जिसे ग्रन्थकार है कि रत्नमालाकी रचना उसके बाद हुई है जबकि मूल महोदयने 'तपस्वी के निम्न लक्षणम समाविष्ट किया है। गुणाम अणुव्रतीक स्थानपर पञ्चोदम्बरकी कल्पना रूद ऐसे ही तपस्वी साधु पापीका खण्डन करनेमें समर्थ होत है:होचुकी थी और इस लिये भी रत्नकरयडस शताब्दिया विषयाशा-वशाऽतीती निरागम्भोऽपरिग्रहः । बादकी रचना है। ज्ञान ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्थते ।।१०।। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] रत्नकरण्डक कतृ त्व-विषयमे मेरा विचार और निर्णय अथवा पास्वएट्याभासोंको पाखण्डी मान लेना और का स्वरूप बतलाते हुए, घरसे 'मुनिवन'को जाकर वैसा मानकर उनके साथ तदुरूप प्रादर-सत्कारका गुरुके निकट ब्रोंको ग्रहण करनेकी जो बात कही व्यवहार करना । इस पदका विन्यास प्रन्थमे पहलेसे गई है उससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि यह प्रन्थ प्रयुक्त 'देवतामृढम् पदके समान ही है, जिमका उस समय बना है जबकि जैन मुनिजन आमतौरपर प्राशय है कि 'जो देवता नहीं हैं-रागद्वेषसं मलीन बनोंमे रहा करते थे, वनोंमे ही यत्याश्रम प्रतिष्ठित थेदेवताभाम हैं-उन्हें देवता समझना और वैसा और वहीं जाकर गुरु (आचार्य)के पास उत्कृष्ट ममझकर उनकी उपासना करना । ऐमी हालनमे श्रावकपदकी दीक्षा ली जाती थी। और यह स्थिति 'पाखण्डिन्' शब्दका अर्थ 'धूत' जैसा करनेपर उस समयकी है जबकि चैत्यवाम-मन्दिर-मठोंमे इम पदका ऐसा अर्थ होजाता है कि धृतोंके मुनियोका आमतौर निवास-प्रारम्भ नहीं हुआ था। विषयम मूढ होना अर्थात जो धूत नहीं है उन्हें चैत्यवास विक्रमकी ४थी-५वीं शताब्दीमे प्रतिष्ठित हो धृत ममझना और वैसा समझकर उनके साथ चुका था- यद्यपि उसका प्रारम्भ उससे भी कुछ आदर-सत्कारका व्यवहार करना' और यह अर्थ पहले हुआ था ऐसा तद्विषयक इतिहाससे जाना किमी तरह भी मङ्गत नहीं कहा जा सकता। अतः जाता है। प. नाथूरामजी प्रेमीके 'वनवासी और रत्नकरण्डम पाखण्डिन शब्द अपने मूल पुरातन चैत्यवामी सम्प्रदाय' नामक निबन्धसे भी इस विषय. अर्थमे ही व्यवहान हुआ है, इमम जरा भी मन्देहके पर कितना ही प्रकाश पड़ता है। और इस लिये भी लिये स्थान नहीं है । इम अथकी विकृति विक्रम म० रत्नकरण्डकी रचना विद्यानन्द प्राचायके बादकी ७३४म पहले होचकी थी और वह धूत जैसे अर्थम नहीं हो सकती और न उम रत्नमालाकारके सम. व्यवहन हाने लगा था, इसका पता उक्त मवन मायिक अथवा उसके गुरुकी कृति हो सकती है जो अथवा वीरनिर्वाण मा १२०४म बनकर ममाप्त हा स्पष्ट शब्दोम जैन मुनियोक लिय बनवामका निषेध श्रीविषेणाचार्य कृत पद्मरिनके निम्न वाक्यसे कर रहा है-उसे उत्तम मुनियोंक द्वारा वर्जित चलता है - जिममें भग्न चक्रवर्तीक प्रति यह कहा बनला रहा है-और चैत्यवासका खुला पोषण कर गया है कि जिन ब्राह्मणों की मृष्टि प्रापन की है वे रहा है । वह नो उन्हीं म्वामी समन्तभद्रकी कृति वर्द्धमान जिनेन्द्रकं निर्वाणके बाद कलियगमे महा- हानी चाहिये जो प्रसिद्ध वनवामी थे, जिन्हें प्रोफमर उद्धत 'पाखण्डी' हो जायेगे । और अगले पद्यम माहबन श्वेताम्बर पट्रालियांक आधारपर 'बनउन्हे 'मदा पापक्रियोद्यताः' विशेषण भी दिया गया है- वामी' गच्छ अथवा महक प्रस्थापक 'मामन्तभद्र' बद्धमान-जिनम्याऽन्ते भविष्यन्ति कली यगे । लिखा है जिनका श्वेताम्बर-मान्य समय भी दिगम्बरएते ये भवता मृष्टाः पाखण्डिनी महोद्धनाः॥४-११६ मान्य समय (विक्रमकी दूसरी शताब्दी) के अनुकूल सी हालतमे रत्नकरण्डकी रचना उन विद्या है और जिनका आप्रमीमामाकारकं साथ एकत्व नन्द आचार्यकं बादकी नहीं हो सकती जिनका समय ___ मानने प्रो. सा०को काई आपत्ति भी नहीं है। प्रो. साहबने ई० मन ८१६ (वि० मवत ८७३)के रत्नकरण्डके इन मब उल्लेखोकी रोशनीम प्रो. लगभग बतलाया है। माहबकी चौथी आपत्ति और भी नि:सार एवं (ख) रत्नकर एडम एक पद्य निम्न प्रकारसे पाया निम्तज होजाती है और उनके द्वारा प्रन्धके उपान्त्य जाता है: पद्यम की गई श्षार्थकी उक्त कल्पना बिल्कुल ही गृहती मुनिवमित्वा गुरुपकण्ठं प्रतानि परिगृह्य । १ जैन माहित्य भार इतिहाम पृ० ३४७मे ३६६ भैयाऽशनस्तपस्यमुत्कृष्टश्चेल-खण्ड-धरः ॥१४॥ २ कलोकाले वने वामी वय॑ने मुनिसत्तमैः । इसमे, ११वी प्रतिमा (कक्षा)-स्थित उत्कृष्ट श्रावक स्थापितं च जिनागारे प्रामादिप विशेषतः ॥२२ रनमाला Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ९ निर्मूल ठहरती है-उमका कहीं भी कोई ममर्थन ८७)के पश्चात् और वादिगजके समय अर्थात नहीं होता । रत्नकरण्डके ममयको जान-अनजाने शक मं० ९४७ (वि. मं. १८८२)से पूर्व मिद्ध होता रत्रमालाके रचनाकाल (विक्रमकी ११वी शनास्टीक है । इम ममयावधिक प्रकाशमे रत्नकरण्डश्रावउत्तगध या उसके भी बाद)के समीप लानका आग्रह काचार और रत्नमालाका रचनाकाल समीप श्राजाते करनपर यशस्तिलकके अन्तगत सोमदेवमूरिका ४६ है और उनके बीच शताब्दियोंका अन्तराल नहीं कल्पाम वर्गित उपामकाध्ययन (वि० स० १८१६) रहता'।" और श्रीचामुण्डरायका चारित्रमार (वि.म.१०३५के इस तरह गम्भीर गवेषण और उदार पर्यालगभग) दानां रत्नकरण्ड के पूर्ववती ठहरेगे, जिन्हें लांचनोंके साथ विचार करनेपर प्रो. साहबकी चारों किमी तरह भी रनकरण्डके पूर्ववर्ती सिद्ध नही किया दलील अथवा आपत्तियोंमसे एक भी इस योग्य नहीं जा सकता: क्याकि दाना रत्नकरण्डक कितने ही ठहरती जा रत्नकरण्डश्रावकाचार और प्राप्तमीमांसा शब्दादि के अनुसरणको लिये हुए है-चारित्रमारम का भिन्नकतृत्व सिद्ध करने अथवा दोनोंके एक ता रत्नकरण्डका 'सम्यग्दशनशुद्धाः' नामका एक कतृ त्वमे कोई बाधा उत्पन्न करनेमे ममर्थ हो सके पुरा पद्य भी 'उक्तं च रूपसे उद्धृत है। और तब और इसलिये बाधक प्रमाणाके अभाव एव साधक प्रा० माहबका यह कथन भी कि 'श्रावकाचार-विषय- प्रमाणांके सद्भावम यह कहना न्याय-प्राप्त है कि का सबसे प्रधान और प्राचीन ग्रन्थ स्वामी ममन्त चान ग्रन्थ स्वामा समन्त. रत्नकरण्डश्रावकाचार उन्ही समन्तभद्र आचार्यका भद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार हे' उनके विरुद्ध जायगा, कति है जो प्राप्तमीमामा (देवागम)के रचयिता है । जिसे उन्होंने धवलाकी चतुथ पुस्तक (क्षेत्रस्पशन और यही मंग निर्णय है। अनु०) प्रस्तावनाम व्यक्त किया है और जिसका उन्हें उत्तरक चकरम पडकर कुछ ध्यान रहा मालमनही वीरसवामन्दिर, मरमावा। हाता और वे यहाँ तक लिख गये है कि "रत्नकरण्ड ता०२१४१६४८ । जुगल किशोर मुख्तार की रचनाका ममय इम (विद्यानन्दममय वि० म० १ अनेकान्त वर्ष ७, किरगा ५६, पृ० ५४ अमूल्य तत्त्वविचार बद्दत पुण्यके पुञ्जमे इम शुभ मानव-देहकी प्राप्ति हुई, तो भी अरेरे । भवचक्रका एक भी चक्कर दूर नदी दृश्रा । सुग्वको प्राप्त करने मुख दूर होजाता है, इसे जरा अपने ध्यानमे लो। अहो इम क्षण-क्षणम हान वान भयङ्कर भाव-मरणम तुम क्या लवलीन हो रहे हो ? ॥शा यदि तुम्हारी लक्ष्मी और सत्ता बढ़ गई, तो कहो तो मही कि तुम्हारा बढ ही क्या गया ? क्या कुटुम्ब परिवारक बढ़नसे तुम अपनी बढ़ती मानते हो? हगिज ऐसा मत मानो; क्योंकि ममारका बढ़ना मानी मनुष्य देहको हार जाना है । अहो ' इसका तुमको एक पलभर भी विचार नहीं होता ? ॥२॥ निर्दोष सुख और निर्दोष श्रानन्दका, जहां कहीं भी वह मिल सके वहींसे प्राप्त करो जिससे कि यह दिव्य शक्तिमान आत्मा जञ्जीरोंसे निकल सके। इस बातकी सदा मुझे दया है कि परवस्तुमे मोह नहीं करना । जिसके अन्त में दःख है उसे मुख कहना, यह त्यागने योग्य सिद्धान्त है ॥३॥ मै कौन है, कहाँस श्राया, मंरा सच्चा स्वरूप क्या है, यह सम्बन्ध किस कारणसे हुया है, उसे रक्ख या छोड़ दूँ ? यदि इन बातोंका विवेकवक शान्तभावसे विचार किया तो आत्मज्ञानके सब सिद्धान्त-तत्व अनुभवमे आगए ॥४॥ -श्रीमद्राजचन्द्र Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-कहानी इज्जत बड़ी या रुपया [ लेखक-अयोध्याप्रसाद गोयलीय] हलीकी एक प्रसिद्ध सर्राफ्रकी दूकानपर पास गिन्नी कहाँसे आती ? उसके बड़ोंने भी कभी ४०-५० हजार रुपयोंकी गिनियाँ गिन्नियों देखी हैं जो वह देखता? और शायद कहीं गिनी जारही थीं कि एक उचट कर से झॉप भी ली हो तो, वह इतना बुद्ध कब है जो इधर-उधर होगई। काफी तलाश करनेपर भी नही उमे हमे दे देता ?" . मिली। उस दुकानपर उनका कोई ग़रीब रिश्तेदार जब खयाल कल्पनाने साथ नहीं दिया तो यह भी बैठा हुआ था। सयोगकी बात कि उसके पास भी उलझा हुआ विचार लाला साहबके सामने पेश किया एक गिन्नी थी। गिन्नी न मिलते देख, उसने मनमे गया ! लाला साहब सब समझ गये। उनका रिश्तेसोचा कि "शायद अब तलाशी ली जायगी। गरीब दार ग़रीब तो जरूर है, पर विश्वस्त और बाइज्जत होनेके नाते मुझीपर शक जायगा। मेरे पास भी है, यह वह जानते थे। अत: लाला साहब उसके गिन्नी हो सकती है किमीको यकीन नही आयगा। पास गये और वास्तविक घटना जाननी चाही तो गिन्नी भी छीन लेगे और वेइज्जत भी करेंगे। इससे तो काफी टालमटोलके बाद ठीक स्थिति समझादी। बहतर यही है कि गिन्नी देकर इज्जत बचाली जाए।" लाला माहब गिन्नी वापिम करने लगे तो बोलाग़रीबन यही किया ! जेबमेसे गिन्नी चुपकेसे सोगिकी चपसे "भैया साहब, मै अब इसे लेकर क्या करूँगा? निकाल कर ऐमी जगह डाल दी कि खोजनेवालोंको मेरी उस वक्त आबरू रह गई यही क्या कम है? मिल गई। गिन्नी देकर वह खुशी-खुशी अपने घर आबरूकं लिये ऐसी हजारों गिनियाँ कुर्वान ! मेरे चला गया ' बात आई-गई हुई। गया।बात आई-नाई हुई। भाग्यमे गिन्नी होती तो यह घटना ही क्यों घटती ? दीवालीपर दावात माफ की गई तो उसमसे एक मुझे सन्तोप है कि मेरी बात रह गई। रुपया तो हाथका मैल है फिर भी इकट्ठा हो सकता है, पर गिन्नी निकली । गिन्नीको दावातमसे निकलते देख । इज्जत-भाबरू वह जानेपर फिर वापिस नहीं भाती।" लाला साहब बड़े ऋद्ध हए । “रुपयोंकी तो बिमात क्या, यहाँ गिन्नियों इधर-उधर रूली फिरती है, फिर भी रोकड़बहीका जमा खर्च ठीक मिलता रहता है। कुछ इमीमे मिलती-जुलती घटना इन पकियोंके हद होगई इम अन्धेरकी।" लेखककं माथ भी घटी । मन १९२०मे लाला रोकड़िया परेशान कि यह हुआ तो क्या हुआ? नारायणदास सुरजभानकी दुकानपर कपड़का काम "इतनी सचाई और लगनसे हिसाब रखनेपर भी मीग्यता था। उनके यहाँ हण्डियोंका लेन-देन भी यह लाँछन व्यर्थमे लग रहा है।" मोचते-मोचते होता था। दिनमे कई बार दलाल रुपये लाता और उसे उस रोजकी घटना याद आई। काफी देर अलमे ले जाना । बार-बार उन चाँदीक रुपयों को कौन गिने? कुश्ती लड़नेपर उसे नयाल आया कि "कहीं वह गिन्नी बगैर गिने ही श्राने और चले जाते। उन रुपयोंको उचट कर दाबानमे तो नहीं गिर गई थी, तब वह में ही लेता और देता; कभी एक रुपयकी भी घटी. मिश्री मिली कैसे? शायद उम ग़रीबने अपने पाममे बढ़ी नहीं हुई। एक रोज अमावधानीसे वह रुपये डालकर खुजवादी हो।" यह खयाल आते ही वह ऊपरसे नीचे गिर पड़े और खन-खन करते हुए स्वय अपनी इम मूखतापर हम पड़ा। भला उसके ममूची दुकानमे बिम्बर गये । बटोर कर गिने तो २ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अनेकान्त पाँच रुपये कम ! मेरी जेब मे भी घर खर्चके लिये ५) रुपये चाँदीके पड़े थे। मैं बड़ा चकराया, अब क्या होगा ? न मिले तो जैसे बात बनेगी ? लाला चुपचाप गद्दी पर बैठे थे, मैंने ही रुपयं बखेरे थे और मैं ही उन्हें गिन रहा था। जी बड़ा धुकड़-पकड़ करने लगा। छोटी आयु और नया-नया इनके यहाँ आया हैं। यद्यपि पूरा विश्वास करते है, परन्तु प्रामाणिकता - की जाँच से तो अभी नही निकला हैं। कहीं इन्हें शक होगया तो, जेब मे पाँच रुपये है ही चोर बनते क्या देर लगेगी ? इसी ऊहापोहमे गिन्नी वाली घटना याद आई तो मन एकदम स्वस्थ्य होगया। रुपये अपने पास से मिलानेका सङ्कल्प करके भी खोजने में लगा रहा और मेरे सौभाग्य से पाँचों रुपये मिल भी गये ! [ वर्ष ९ हैं तो हमारे यहाँ ही ठहरते हैं । एक रोज उनका पत्र आया कि "जिस चारपाईपर मैं सोया था, अगर वहाँ लाल रङ्गका मेरा अङ्गोछा मिले तो सम्हाल कर रख लेना । " अँगोछा तलाश किया गया, मगर नहीं मिला। वे जाड़ोंके विस्तरोंमे सोचते थे और वह जाड़े खत्म होनेसे ऊपर टाँडपर रख दिये गये थे । सिर्फ एक अङ्गीछे के लिये घरभरके इतने विस्तरे उठा कर देखने की जरूरत नहीं समझी गई । और रुपये मिलने पर मुझे प्रसन्नता होनेके बजाय क्रोध हो आया ! मैंन लाला से कहा - "देखिये पाँच रुपये कम हो रहे थे और मेरी जेब मे भी पाँच ही थे ! न मिलते तो मै चार बन गया था। आइन्दा हुडियोंके रुपये गिनकर लेने और देने चाहियें।" लाला मेरे इस बचपने पर हंसे और बोले - "तुम व्यर्थ अपने जीका हलका क्यों कर रहे हो तुमपर यकीन न होता तो हम यह हजारों रुपये तुम्हें कैसे बिन गिन दे दिया करते ? और इतने रुपये बार-बार गिनना कैसे मुमकिन हो सकता है ? आजतक बीच एक पैसका फर्क न पड़ा तो आगे क्यों पड़ेगा, और पड़ेगा भी तो तुम्हे उसकी चिन्ता क्यों ?" किन्तु मै इस घटना से ऐसा शङ्कित होगया कि रुपये गिनकर लेने-देने की बातपर अड़ा रहा। और इस नियम की स्वीकृति न मिलनसे मै बारबार पुचकारनेपर भी दूसरे दिनसे दूकानपर नही गया ! ३ उक्त घटनाओ का मन ३४ मे गुड़गॉवके लाला बनारसीदास जैनके सामने जिक्र आया तो बोलेअजी साहब, एक इसी तरह की घटना हम आपबीती आपको सुनाते है । हमारे पिताजीके एक मित्र हमारे जिलेमें रहते हैं । बे जब मुक़दमे या सामान खरीदनेको गुड़गाव आते ङ्गोछा नहीं मिलने की उन्हें सूचना भिजवादी गई । बात आई-गई हुई, वे हमेशा की तरह हमारे यहाँ आते-जाते रहे । दीवालीपर मकानकी सफाई हुई और जाड़ोंके बिस्तरे धूपमे डाले गये तो उनमें लाल श्रङ्गोछा धमसे नीचे गिरा । खोलकर देखा तो दस हज़ारकं नोट निकले। हम सब हैरान कि यह इतने नोट कहाँसे आये, किसने यहाँ छिपाकर रखे। सोचतेसोचते स्याल आया कि हो न हो यह रुपये उनके ही होंगे। इस छेमे रुपये थे इसीलिये तो उन्होंन अङ्गोछा तलाश करके रखनेको लिखा था, सिर्फ अङ्गोछेके लिये वे क्यों लिखते ? मैं उनके पास रुपये लेकर गया और उलाहना देते हुए बोला- "चाचा जी आप भी खूब है, इतनी बड़ी रकमका तो जिक्र भी नहीं किया, सिर्फ अङ्गोछा सम्हालकर रखलेने का लिख दिया और हमारे मना लिख देनेपर भी आपने कभी इशारा तक नहीं किया। बनाइये कोई नौकर ले गया होता तो टांडपर चूहे ही काट गये होते तो, हमारा तो हमेशाको काला मुंह बना रहता । चचा हँसकर बोले--" भाई जितनी बात लिखने की थी, वह तो लिख ही दी थो। मेरा स्नयाल था कि तुम समझ जाओगे कि कोई न कोई बात ज़रूर है । वर्ना दो आनेके पुराने अङ्गालेके लिये दो पैसेका कार्ड कौन खराब करता और रुपयोंका जिक्र जानबूककर इसलिये नहीं किया कि अगर कोई उठा ले गया होगा तो भी तुम अपने पासमे दे जाओगे । अपनी इस असावधानीके लिये तुम्हे परेशानी में डालना मुझे इष्ट न था । " १३ फरवरी १६४८ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनेकान्त [महात्मा भगवानदीनजी ] 1 40+ उर्शन, न्याय, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार आदि विद्याश्रके सिद्धान्त गढ़े नहीं जाते—खोजे जाते हैं, इकट्ठे किये जाते है । इकट्ठे होनेपर विद्वान उन्हें अलग-अलग करते है और उनके नाम रख देते है । नाम प्रायः अटपटे होते हैं । विद्वानों तकको उनके समने मुश्किल होती है औरोंका तो कहना ही क्या ? इस सवाल का जवाब कि अनेकान्त कबसे है ? यही हो सकता है कि जबसे जगत तबसे अनेकान्त । अगर जगतको किसीने बनाया है तो वह अनेकान्ती रहा होगा । और अगर जगत अनादि है तो अनेकान्त भी अनादि है । इस द्वन्द्वयुक्त जगतम और इस उपजने विनशनेवाली दुनियामे अनेकान्त के बिना एक क्षण भी काम नही चल सकता । तरहतरहकी दुनियामे मेल बनाये रखने के लिये अनेकान्त अत्यन्त आवश्यक है । अनेकान्त तर्कका एक सिद्धान्त है । तर्क इकट्टी की हुई विद्या है । अनेकान्तको बोलचाल मे 'तरह-तरह से कहना' कह सकते हैं। हम जब मिल-जुलकर प्रेम प्यार रहते है तब अनेकान्त मे ही बातचीत करते हैं । हैंसी-मजाक मे कभी-कभी एकान्त भी चल पड़ता है । पर टिक नहीं पाता । लड़ाई-झगड़ोंमे एकान्तसे ही काम लिया जाता है फिर भी वे लड़ाई-झगड़े चाहे घरेलू हों, दशकं या धर्मके । अनेकान्तको काममे तो सब सब धर्मवाले लाते है पर अलग विद्याका रूप इसे हिन्दुस्तान के एक धर्म विशेषने ही दे रखा है और वही इसकी दुहाई जगह बजगह देता रहता है । 1 दो अनेकान्ती लड़-झगड़ नहीं सकते । पर लड़ना-झगड़ना मनुष्यका स्वभाव बना हुआ है और अनेकान्तका हथियार लेकर ही लड़ते हैं तो अमल में उनके हाथोंमें एकान्त ही के हथियार होते हैं। पर वे हथियार अनेकान्तके खोलमे होते हैं इसलिये जब भरी सभा में वे खोलसे बाहर आते है तो समझदार तमाशा देखने वाले हँस पड़ते है । अनेकान्तका और भी सीधा नाम 'झगड़ा- फैसल' हो सकता है। अब जहाँ 'झगड़ा- फैसल' मौजूद हो वहाँ झगड़ा कैसा ? अनेकान्ती (यानी तरह-तरह से कहने समझाने वाला) लड़े-झगड़ेगा क्यों ? वह तो दूसरेकी बातको समझने की कोशिश करेगा, शङ्का करेगा, कम बोलेगा, सामने वालेको ज्यादा बोलने देगा और जब समझ जावेगा तो मुसका देगा, शायद हँस भी दे और शायद सामनेवाले को गले लगाकर यह भी बोल उठे 'आहा, आपका यह मतलब है, ठीक ! ठीक !" कोई हकीम नुमने अगर "वर्गे रहाँ" लिख दे तो आप जरूर कुछ पैसे अत्तार के यहाँ ठगा आयेगे । यों आप वगैरेहा (तुलसी के पत्ते) घरकी तुलसी से तोड़कर रोज ही चबा लेते है । अनेकान्तसे रोज काम लेनेवाले आपसे कुछ अनेकान्तको न समझते होंगे इसलिये उसे थोड़ासा साफ कर देना जरूरी है। सेठ हीरालाल जब यह कह रहे है कि आज दो अक्टूबर दोपहरके ठीक बारह बजे मेरा लड़का रामृ बड़ा भी है और छोटा भी तब वे अनेकान्तकी भाषा बोल रहे है । पर कोई एकदम यह कह बैठे 'बिल्कुल गलत' तो ऐसा कहनेवाला या तो मूर्ख हैं, जल्दबाज है नहीं तो एकान्ती तो हैं ही। और कोई यह पूछ बैठे 'कैसे ?' तो वह भला आदमी है, समझदार भी है पर बुद्धिपर जोर नहीं देना चाहता, अनेकान्त से उसे प्यार भी है। बात बिल्कुल सीधी है रामू असल में उस दिन दस बरसका हुआ वह अपने सात बरसके छोटे भाई श्यामू बड़ा और तेरह बरसके बड़े भाई धर्मूसे छोटा है। सेठ हीरालाल यह Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ अनेकान्त [वर्ष ९ भी कह बैठे कि मेरे लोटे का पानी इसी वक्त ठण्डा पल्ला लेकर रोने नही लग जाती है। वह अनेकान्ती और गरम है तो अनेकान्तकी सीमामें ही रहेगे। है, वह समझती है कि बहका क्या मतलब है ! पानी अगर सौ दरजे गरम है तो घड़ेके अड़सठ महावीर स्वामी जब गर्भमे आये उसी दिनसे दरजेके पानीसे गरम और चूल्हेपर चढ़े बर्तनके उनके भक्त उन्हे भगवान नामसे पुकारते हैं। ठीक है। एकसौ बीस दरजेके पानीसे ठण्डा है। आह पतीलीमे अनेकान्त ऐसा करनेकी इजाजत देता है। निर्वाण हाथ डालकर लोटेमें डालिये तो आपको इनकी तक और उसके बादसे आजतक वे भगवान ही हैं। बातकी सचाईका पता लग जायगा । यह हुआ हँसता बचपनमे वे रोटी खाते थे, मुनि होकर आहार भी खेलता घरेलू अनकान्त । लेते थे। अब कोई यह कहे कि भगवान महावीर रोटी अब लीजिये धर्मका भारी भरकम अनेकान्त । खाते थे, आहार लेते थे तो इसमे भूल कहाँ है ? एक हिन्दू पीली मिट्टीके एक ढेलेमे कलाया लपेट अनेकांतीको इसे माननेमे कोई कठिनाई नहीं हो कर उसमे गणेशको ला बैठाता है। एक जैन उससे सकती। वही भक्त कुन्दकुन्द स्वामीके पास रहकर भी बढ़कर धानसे निकले एक चावलमे भगवानको यह कहने लगे कि भगवानने कभी खाना खाया ही विराजमान कर देता है। पर वही हिन्दू, कोयले, नही तो इसमे भी भूल कहाँ ? अनेकान्ती जरा बुद्धिखड़िया या गेरुके टुकड़ेमे वैसा करनेसे हिचक ही पर जोर देकर इसे ममझ लेगा। कुन्दकुन्द स्वामी नहीं डरता है और वही जैन एक खण्डित मूर्ति या देह को भगवान नही मानते । जीवको भगवान एक कपड़ा पहने सुन्दर मूनिमे भगवानकी स्थापना मानते है। देहको भगवान मानना निश्चयनय या करनेमे इतना भयभीत होता है मानों कोई बड़ा पाप सत्यनयकी शानकं खिलाफ है। जीव न खाता है, न कर रहा हो। और वही हिन्दू जबलपुरकं धुआंधारमे पीता है न करता है, न मरना है, न जन्म लेता है। जाकर जितिस पत्थरको गणेशजी मान लेता है साँप पवनभक्षी कहलाता है। दो दवाये मिलकर वही जैन मोनागिरिपर चढ़कर अनगढ़ मूर्तियोंको पानी बन जाती है यह बात स्कूलके लड़के भी जानते भगवानकी स्थापना मानकर उनके सामने माथा टेक है। महावीर स्वामीका देह निर्वाणसे एक समय पहले देता है। अतदाकार स्थापनाकी बात दोनों ही तक र्याद सास लेता रहा, लेता रहो। महावीर स्वामारिवाजकी भाङ्ग पीकर भूल जाते हैं। यह घरमे के निर्लेप जीवको इससे क्या। महावीर भगवान अनेकान्ती रहते हुए रिवाजमे कट्टर एकान्ती बन जाते खाना खाते थे और नही भी खाते थे। यह इतना ही है । वे करे क्या ? असलमे धर्ममे अनेकान्तीने अभी ठीक कथन है जितना सेठ हीरालालका यह कह तक जगह ही नही पाई। बैठना कि मेरा बीमार लड़का रामू पानी पीता भी है रेलमे बैठा एक मुमाफिर यदि यह चिल्ला उठे और नही पीता क्योंकि वह पीकर कय कर देता है, 'जयपुर आगया' तो कोई दसरा मुसाफिर उसके उसको हजम नही होता। अनेकान्तमे वही तो गुण पीछे डण्डा लेकर खड़ा नहीं होता और न उससे है कि वह झगड़का फसला चुटका बजा यही पूछता है कि जयपुर कैसे आगया, क्या जयपुर है । जभी तो मैंने उसका नाम झगड़ा फैसल रखा है। चला आता है जो तू आगया कहता है ? और न यह अनेकान्त घर-घरम है, मन-मनमे है। मन्दिरकहकर उसे दुरुस्त करता है कि हम 'जयपुर आगये' मन्दिरमे नही है, धर्म-धर्मम नही है, राज-राजमे ऐसा कह । कोई बहू यदि अपने बरसोंसे घरसे नहीं है। वहाँ फैलानेकी ज़रूरत है। पढ़ने-पढ़ानेकी भागे निग्वद पतिके सम्बन्धमे अपनी सामके सामने चीज नहीं, लिखने-लिखानेसे कुछ होना श्राना नहीं। यह कह बैठे कि मैं तो सुहागिन होते विधवा हूँ, या अनेकान्तका पौदा अभ्यासका जल चाहता, सहिष्णुता मेरा पति जीता मरा हुआ है तो सास यह सुनकर के खादकी उसे जरूरत है, सर्वधर्म समभावके Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौरव-गाथा LIVE-11 A unia पथिक ! इस बाटिकाकी बर्बादीका कारण इन और थे, हम एरियन (आर्य) यहाँ दूसरी जगहसे उल्लुओं और कौआंमे न पूछकर हमसे सुन । ये आकर बसे', वे सचमुच दूसरी जगहसे आये होंगे। तुझे भ्रममे डाल देगे। हमारे ही बड़ोंने इसे अपने मगर हम यहाँके कदीमी बाशिन्दे हैं । कदीमी रक्तसे सीचा था। उन्हींकी हड़ियोंकी खातसे यह बाशिन्दे क्या, हम यहाँ मालिक हैं। यहाँके कणमर-सब्ज हुआ था। वे चल बसे, हम चलने वाले कणपर हमारे आधिपत्यकी मुहर लगी हुई है। है, पर इसके एक-एक अगापर हमाग अमिट बलि भारतवर्ष हमारे प्रथम नीर्थङ्कर भगवान ऋषभदान अङ्कित है। देवके पुत्र भरत चक्रवर्तीके नामसे प्रसिद्ध है। उनकी जो लोग कहते है-'भारतकं आदि निवासी अमर कीर्तिका सजीव स्मारक है। उससे पहले मैदानमै उसकी पौद लगनी चाहिये, सार्व-प्रेमकी हमाग भारत जम्बूद्वीप आदि किन नामांस प्रसिद्ध था, इस गहगईम उतरनेकी यहाँ आवश्यकता नहीं। हवा उसको पिलाई जानी चाहिये, विचार स्वातन्त्र्य हमाग देश जबमे 'भारत' हुश्रा, उममें भी बहुत की धुप उमे बिलानेकी जरूरत है, वह वट-वृक्षकी पहलेसे आजतक भारतकी आन और मानपर मिटन तरह अमर है, बढ़ेगा, फैलेगा, फुलेगा, फलेगा। की जो शानदार कुर्बानियों जैन-वीगेन की है, वे अगर कोई धर्म प्रान-शील है, उसके ग्रन्थीम यपि मबकी मव चिथड़ाक बने कागज पर लिखी नित्य कुछ घटाया-बढाया जाता है नो ममझना चाहिये हई नहीं है, फिर भी इतिहामक अधूरे पृष्ठोम और कि अनकान्तका सिद्धान्त उम धर्मम जीता जागता है। पृश्वीक गभम जो छपी पडी है. श्रग्वि वाल उन्हें यदि ऐमा नहीं है तो समझना चाहिये कि उम धर्मक देख मकते है। पण्डिनों और अनुयायियोंकी जिह्वापर है काममे नही है । विज्ञानम, कानूनम, साहित्यम, कलाम, मङ्गीत जिस पौगणिक युग कहा जाता है, जो जैनोंका इत्यादिम वह जीवित है। देशम, राजम, धर्मम वह सबसे उज्ज्वल पृष्ठ है, उसे न भी खोला जाय तो भी मर चुका है। अनकान्त व्यावहारिक धर्मका प्राण है ऐतिहामिक युगक अवतरगा जैनोंकी गौरव-गरिमाकं और समुदायकी शान्तिका ईश्वर है। अनेकता अने चारण बने हुए है। कान्तक बिना टकरायेगी, दृष्टे-फटंगी मरंगी नहीं। । तीनही ३.५ ई० पूर्व यूनानसे तृफानकी तरह उठकर और अनेकता अनकान्तकं माथ, मिलगी-जुलेगी, सिकन्दर महान पवताका गंदना, नदियोका फलांगता मीठ म्वर निकालेगी, आनन्दके बाजे बजायगी, देशक-दंश कुचलता हश्रा भूग्वे शेरकी भाँति जब सुख देगी। भारतपर टूटा, तबका चित्र काश लिया गया होता अनेकान्तका फल है म्वममय, श्रात्माकी निलेप ता आजक युवक उस बकर दहशनसे चीख उठते। अवस्थाका ज्ञान, बखुदीका इल्म, कर्मयोग, अना- बाज जम चिडियांपर, मिह जेस हरिण मम मक्तियोग, जीवन मुक्त होजाना और परमात्मा और नाग जैसे चूहोंपर झपटता है, उससे भी अधिक बन जाना । [वीरम] उसका भयानक अक्रमगा था । करारी बदांकी मार 3 और मृयकी प्रचण्ड धूपको पर्वत जिम अनमने भाव ल्म, कर्मयोग निलेप नारा दटातब Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ९ से महन करता है । आँधीके वेगका वृक्ष जैसे सर दलित होते देखता ? जबकि उमकी धर्मानयोंमे रक्त झुकाकर बर्बस स्वागत करता है। उसी तरह भारतने और बाहुओंमे बल था। सिकन्दरके आक्रमणपर यह सब किया । उसने आगे बढ़कर सैल्युकसको रोका, तनिक जानपर खेल जानका जिनका स्वभाव था, वह भारतके पानीका जौहर दिखलाया। जो सैल्युकस सिकन्दरकी युद्धाग्निम पतङ्गेकी भांति मर मिटे, कुछ भारत विजय करने और सम्राट बनने आया था, वह गायकी तरह डकराये, कुछ नीची गर्दन किये भेड़ोंकी मेदानसे भाग खड़ा हुआ। भारत-विजयका स्वप्न तो मौन मरे, कुछ हाय कर के रह गये, कुछ विधाताकी भङ्ग हुआ ही ब्याजमे अपनी कन्या चन्द्रगुप्तसं लीला समझ चुप होगये । पर जिनके रक्तमे उबाल ब्याहनी पड़ी और काबुल, कान्धार, बिलोचिस्तान था, वे कीड़े-मकोड, भंड़, बकरियोंकी तरह कैसे जैसे प्रदेश भी पराजय स्वरूप देने पड़े। भारतको अपमानित जीवन व्यतीत करते ? दामताकं पाशसे पहले-पहल मुक्तकर जैन-कुलोत्पन्न उन्हीम चन्द्रगुप्त था, पर निरा अबोध बालक । चन्द्रगुप्मन जैनोंकी गौरव-गाथाकी अमिट छाप मर्यादा पुरुषोत्तम राम जैम मामर्थ्यवान सेना-मग्रह लगादी, जिसे आज भी पराधीन भारतीय बंड गौरव किये बगैर रावणसे भिड़नको प्रस्तुत नहीं हुए, तब के साथ सुनते और कहते है। बालक चन्द्रगुप्त उस सिकन्दरसं कैम टकगता जो - २ - पहाड़की तरह कठोर और दैत्यकी तरह रक्त- मौर्य-सम्राट चन्द्रगुप्त जैनने भारतको दासताके लोलुप था पापसे मुक्त करके एकच्छत्र माम्राज्य स्थापित करके चन्द्रगुप्तम साहम था, उमम धय था आर और अभूतपूर्व शामन-व्यवस्थाकी नींव डालकर जा चट्टानकी तरह स्थिर निश्चय था । 'भरत'का 'भारत' शानदार उदाहरण उपस्थित किया है, उमपर हजारो वह पददलित होते कैसे देख सकता था? उसने ग्रन्थ लिखे जानपर भी लेखकोंको अभी सन्ताप लाहम लोहा काटनका निश्चय किया। सिकन्दरके नही है। पटम घसकर उसने उसकी अन्तरङ्ग शक्ति और चन्द्रगप्पके बाद बिन्दुसार, अशोक, मम्प्रति कमजोरीको भांपा और चाणक्यको लेकर नवीन आदि मौर्य सम्राटोन उत्तरोत्तर भारतम शासनका पद्धतिसे सैन्य-मग्रह प्रारम्भ कर दिया। मुव्यवस्थाकी । यह मौर्यवश जैनधर्मानुयायी थ । भाग्यकी बात; महान् सिकन्दरकी किस्मतम केवल अशोकन और उमकं पुत्रन व्यक्तिगत बौद्ध पराजयका कलङ्क नहीं बदा था। वह मैनिकांके धर्म ग्रहण कर लिया था वैस मौर्य राज्य घराना जैन विद्रोह करनेपर पञ्जाबसे लौट गया और मार्गमे मर धर्मानुयायी था। अशोक पौत्र सम्प्रनिने अपने गया । उसके सेनापति सेल्युकसके हृदयमे भारत शासनकालमे जैनधर्मक प्रचारका बहुन अधिक विजय करनकी लालसा थी । सिकन्दरके आँख बन्द उद्योग किया । यहाँ तक कि काबुल, कान्धार और करते ही उसने वह विश्व-विजयी सेना फिर भारतकी बिलोचिस्तान जैसे बर्बर प्रदेशोंमे भी धर्मकी ओर फरी और कामदेवकी तरह दुन्दुभि बजाता प्रभावना बढ़ाने के लिये जैनसाधुओंके संघ भिजवाए। हुआ भारतपर छागया। मौर्य राजाओंके निरन्तर प्रयत्न करने पर भारत चन्द्रगुप्तके क्रोधकी मीमा न रही । भारतकं जब सुखमय जीवन व्यतीत कर रहा था। घर-घरमे सुखी जीवन में वह कैसे अशान्ति देख ले, वह कैसे मङ्गलाचार होरहे थे। उपद्रवों और सैनिक-प्रदर्शनों के अपने नेत्रोंसे धार्मिक क्षेत्रोंपर होते उत्पात देखे और बजाए धामिक महोत्सव होते थे, रथ-यात्राएँ कैसे कानोंसे अबलाओंका करुण-क्रन्दन सुने ? वह निकलती थीं। भारतीय स्वच्छन्द श्वास लेते थे तभी अपने पूर्वजोंके भारतको क्योंकर विदेशियोंसे पद- एक दुर्घटना हुई । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] पराक्रमी जैन १४७ जैनधर्मका यह प्रचार, शान्तिका यह साम्राज्य की बागडोर छीन ली । खारवेलने अपने शासनकालजैनधर्मद्वेषी मौर्य सेनापति पुष्यमित्रसे न देखा गया में जो जो लोकोत्तर और वीरना-धीरताक कार्य किये, उसने विश्वासघात करके धोखेसे मौर्य सम्राट् इसकी साक्षी हाथी गुफामे अङ्कित शिलालेख आज वृहद्रथको मार डाला और स्वयं सम्राट् बन बैठा'। भी दे रहा है। अपने शासनकालमे बौद्धों और इस प्रकार दोबार भारतको विदेशियोंकी अधी जैनोंपर वह-वह कहर ढाये, अत्याचार किये, जो नतासे जैनसम्राटोंने बचाया । जब जैन साम्राज्य नष्ट महमद गजनवी. अलाउद्दीन, तैमर, औरङ्गजेब, कर दिये गये और यहाँ अनेक दूषित वातावरण नादिरशाहने भी न किये होंगे? उत्पन्न होगये, तब भारत मुसलमानों द्वारा विजित कर लिया गया । इस मुस्लिम कालीन भारतमे भी इमी समय (ई० स०१८४) यवनराज दिमंत्रने राजपूतानेमे, कर्माशाह, भामाशाह, दयालशाह, श्राशाभारतपर आक्रमण कर दिया, वह चाहता था कि शाह, वस्तुपाल, तेजपाल, विमलशाह, भीममी भारतपर वह स्वयं शामन करे । भारतको पराधीनता ता कोठारी आदिने जो जो वीरता-धीरताके काय किये र के पाशमे बाँधनका यह दूसरा प्रयन्न था। किन्तु हैं, वे राजपूतानेके कण-कणपर अङ्कित है'। इन्हीं दिनों कलिङ्गका राजा खारवेल जो कि जैन था, द्वितीयाके चन्द्रमा समान बढ़ रहा था। उसने १ इस वीर पराक्रमी सम्राट का जीवन लेग्यककी "श्रार्यदिमंत्र और पुष्यमित्र दोनोंके हाथसे भारतके शासन __ कालीन भारत” पुस्तकम देखिये। - - - -- --- - -- -- - २ भारत परतन्त्र क्या हुआ ? इसका विस्तार पूर्वक वर्णन १ मार्य राजाओंका विशेष परिचय प्राप्त करनेके लिये लेखक लेग्वककी "अार्यकालीन भारत” पुस्तकम मिलेगा। की “मौर्यसाम्राज्यके जैनवीर" १७३ पृष्ठकी पुस्तक ३ इन सब शूरवीगेका परिचय राजपूतान के "जन वीर" देग्वनी चाहिये। पुस्तकम देग्विये । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्व-चर्चा शंका-समाधान समस्त १३ शङ्का - दिगम्बर - परम्परा और दिगम्बर-साहित्यमे भगवान महावीरके बालब्रह्मचारी एवं अविवाहित होनेकी जो मान्यता पाई जाती है वह क्या श्वेताम्बर - परम्परा और श्वेताम्बर - साहित्यमे उपलब्ध होती है ? १३ समाधान-हाँ, उपलब्ध होती है। विक्रम की छठी शताब्दीक विद्वान और बहु सम्मानास्पद एव विभिन्न नियुक्तियोंके कर्ता आचार्य भद्रबाहुने अपनी प्रधान और महत्वपूर्ण रचना 'आवश्यक नियुक्ति मे भगवान महावीरकी उन घार तीर्थकरों के साथ परिगणना की है जिन्होंने न राज्य किया और विवाह किया तथा जो कुमारावस्थामे ही प्रवृजित (दीक्षित) होगये और जिससे यह जाना जाता है कि श्वेताम्बर परम्परा में भी भद्रबाहु जैसे महान् आचार्य और उनके अनुयायी भगवान महावीरको बाल. ब्रह्मचारी एवं अविवाहित स्वीकार करते थे । यथा वीर अरिनेमिं पासं मल्लिं च वासुपृज्ज च ॥ एए मुत्तग जिरं श्रवमेसा आमि रायाणो ॥ गयकुलेमुवि जाया विमुद्भवमेमु खत्तियकुलेमु । नय इत्थियाभिमेया कुमारवासमि पव्वइया || - आवश्यक० नि०गा० २२१, २२२ अर्थात वीर, अरिष्टनेमि, पार्श्व, मल्लि और वासुपूज्य इन पाँच जिनों (तीर्थकरों ) को छोड़कर शेष जिन राजा हुए। तथा उक्त पाँचों जिन विशुद्ध क्षत्रिय राजकुलोम उत्पन्न होकर भी स्त्री-सम्बन्धसे रहित रहे और कुमारावस्थामे ही इन्होंने दीक्षा ली । आचार्य भद्रबाहुका यह सम्मुल्लेख दोनों परम्परात्रके मधुर सम्मेलनमे एक अन्यतम महायक हो सकता है । १४ शङ्का - प लोए सव्व साहूण' और 'सव' इन दो णामोकार मंत्रमे जो 'रामो अन्तिम वाक्य है उसमें 'लोए' पदोंको जो पहले के चार वाक्यों मे भी नही है, क्यों दिया गया है ? यदि उनका देना वहाँ सार्थक है तो पहले अन्य चार वाक्योंम भी प्रत्येकमें उन्हें देना चाहिए था ? १४ समाधान - 'लोए' और 'eoa' ये दोनों पद अन्त दीपक हैं, वे अन्तिम वाक्यमे सम्बन्धित होते हुए पूर्वके अन्य चार वाक्योंमे भी सम्बन्धित होते है । मतलब यह कि जिन दीपक पदको एक जगह से दूसरी जगह भी जोड़ा जाता है वे तीन तरह के होते है -१ आदि दीपक पद, २ मध्य दीपक पद और ३ अन्त दीपक पद । प्रकृतमे 'लोए' और 'स' पद अंतिम वाक्यमे आनेसे अन्त दीपक पद है अत. वे पहले वाक्योंमे भी जुड़ते हैं और इसलिए पूरे नमस्कार मंत्र का अर्थ निम्न प्रकार समझना चाहिए-१ लोकमे (त्रिकालगत) सर्व अरिहन्तों को नमस्कार हो । २ लोकमे (त्रिकालवर्ती) सर्व सिद्धों को नमस्कार हो । ३ लोकमं (त्रिकालवर्ती) सर्व आचार्यों को नमस्कार हो । ४ लोकमं (त्रिकालवर्ती) सब उपाध्यायोंको नमस्कार हा ५ लोकम (त्रिकालवर्ती) सर्व साधुओं को नमस्का रहो । यही वीरसेन स्वामीने अपनी धवला टीकाकी पहली पुस्तक ( पृ० ५२) में कहा है 'नमस्कारेवतन सर्वलोक शब्दावन्त दीपकत्वा दध्यामकल क्षेत्रगत त्रिकालगांचराहदादि देवता हर्तव्यां प्रणमनार्थम् ।' १५ शङ्का - परीक्षामुख, प्रमेयरत्नमाला आदि जैनन्यायके ग्रन्थोंम प्रत्यभिज्ञान प्रमाणके, जो परोक्ष प्रमाणका एक भेद है, दोसे अधिक भेद बतलाये गये है; परन्तु सहस्री ( पृ० २७९) में विद्यानन्द स्वामीन उसके दो ही भेद गिनाये है। क्या यह आचार्यमतभेद है अथवा क्या है ? १५ समाधान -- हाँ, यह आचार्यमतभेद है । आचार्य विद्यानन्दने न केवल श्रमहस्त्री ही प्रत्यभिज्ञानके दो भेदों को गिनाया है अपितु लोक Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] वार्त्तिक और प्रमाणपरीक्षामे भी उसके दो ही भेद करता। केवल प्रन्थकारोंके विवक्षाभेद या दृष्टिभेदको स्पष्टतः बतलाये हैं । यथा प्रकट करता है । (क) 'तत् द्विधैकत्वमादृश्यगोचरत्वेन निश्चितम् ' -त० श्लो० पृ० १६० । (ख) 'द्विविधं हि प्रत्यभिज्ञान तदेवेदमित्येकत्व निबन्धन तादृशमेवेदमिति सादृश्यनिबन्धनं च ।' १७ शङ्का - श्रतिक्रम और व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार इनमें परस्पर क्या अन्तर है ? प्र० प० पृ० ६६ । अतः यह एक आचार्यमान्यताभेद ही समझना चाहिए। १६ शङ्का - जैमा प्रत्यभिज्ञानको लेकर आपने जैनन्यायमं आचार्यका मान्यताभेद बतलाया है वैसा और भी किसी विपयको लेकर उक्त मान्यतामेव पाया जाता है ? १६ समाधान - हॉ पाया जाता है शङ्का ममाधान (क) आचार्य माणिक्यनन्दि और उनके व्याख्याकार आचार्य प्रभाचन्द्र तथा अनन्तवीर्य आदिने हत्वाभासके चार भेद बतलाये है- श्रसिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिश्चित्कर । यथा हत्वाभामा सिद्धविरुद्धानैकान्निकाऽकिचित्करा" परी ज्ञा ६२५ । पर वादिराजसूरिने उसके तीन ही भेद गिनाये है। यथा- 'तत्र त्रिविधो हेत्वाभास अमिद्धानेका न्निकविरुद्ध विकल्पात ।' प्रमाणनिगाय १०५० । (ख) इसी तरह जहाँ अन्य अनेक श्राचार्यों ने परोक्षप्रमाणकं स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये पाँच भेद प्रतिपादन किये हैं वहाँ आचार्य वादिराजन परोक्षके दो ही भेद बतलाये है और उन दो भेदोंमें अन्य प्रसिद्ध पाँच भेदोका स्वरुचि अनुसार अन्तर्भाव किया है। यथा- 'तच्च (पक्ष) द्विविधमनुमानमागमश्चति । श्रनुमान मपि द्विविध गाणमुख्य विकल्पात । तत्र गागमनुमान त्रिविध स्मरण प्रत्यभिज्ञा तर्कश्चति । तम्य चानुमानत्व यथा पूर्वमुत्तरोत्तर हेतुतयाऽनुमान निबन्धनत्वात ।' डा.नि. पृ. ३३ इसी तरह के प्राचार्यकिं मान्यताभेद और भी मिल सकते हैं। कहने का मतलब यह कि जैनमिद्धान्त की तरह जैन न्यायमं भी आचार्योंका मतभेद उपलब्ध होता है और यह मतभेद कोई विरोध उत्पन्न नहीं १४५ १७ समाधान - मानसिक शुद्धिकी हानि होना अतिक्रम है और मनमे विषयाभिलापा होना व्यतिक्रम हैं। तथा इन्द्रियोंमे श्रालस्य (असावधानी) का होना अतिचार है और लिये व्रतको तोड़ देना अनाचार है। यथा श्रतिक्रमी मानमशुद्धिहानिर्व्यतिक्रमो यो विषयाभिलाषः । तथाविचारः कग्णालभत्व भगो अनाचार इह बतानाम् ॥ -पट् प्रा० टी० पृ० १६८ (उद्धृत) । १६ शङ्खा - नरकगतिमे सातवी पृथिवीमं क्या सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है ? १८ समाधान - हाँ, मानवी पृथिवीमं भी सभ्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है। सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थवार्तिक आदि ग्रन्थोंमें नरकगतिमं सम्यक्त्वकी उत्पत्तिकं कारको निम्न प्रकार बतलाया है 'नारकारणा प्राक् चतुर्थ्या' सम्यग्दर्शनम्य साधन पाचिद् जातिस्मरण | केपाविद धर्मश्रवण | नेपाचित वेदनाभि गमः । चतुर्थीमारस्य श्रा सप्तम्या नारका जातिग्मग्गा वेदनाभिमवथ । --सर्वाधांम० पृ० १२ । 'तत्रोपरि निसृप प्रायवीप नारकास्त्रिमि कारणं. सम्यक्त्वमुपजनयन्ति काचजाति मृत्या, फचिडम अत्या केचिदनाभिभूता । श्रधस्ताचतमृप पृथिवी द्वाभ्यां कारणाच्या चिजाति स्मृत्या, अपर वेदनाभिमताः । - तस्वार्थवा पृ० ७२ ॥ इन उद्धरणांम बतलाया गया है कि नरकगतिम पहलेकी तीन पृथिवियोंम तीन कारणोंगे सम्यग्दर्शन होता है- जाति स्मरगा, धर्मश्रवण और वेदनाभिभव मे । नीचे की चार पृथिवियोंम धर्मश्रवणको छोड़कर शेष दो कारणों-जातिम्मरगा और वेदनाभिभवमे उत्पन्न होता है । अतएव सातवी पृथिवीमं दा कारणोंका सद्भाव रहनेमें वहाँ सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाना है । परन्तु निकलते ममय वह छूट जाता है । ३-४-४८ ] - दरबारीलाल कोठिया Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यागका कास्तविक रूप (प्रवक्ता पूज्य श्री क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी, न्यायाचार्य) [समाजका शायद कोई ही ऐसा व्यक्ति हो जो पूज्य वणीजी और उनके महान् व्यक्तित्वसे परिचित न हो। आप उच्चकोटिके विद्वान् होनेके अतिरिक्त सन्त, वक्ता, नेता, चारित्रवान् और प्रकृतिभद्र सहृदय लोकोत्तर महापुरुष हैं । महापुरुषोके जो लक्षण हैं वे सच श्रापमे विद्यमान हैं और इसलिये जनता अापको बाबाजी एवं महात्माजी कहती है । अापकी अमृतवाणीमे वह स्वाभाविकता ,मरलता और मधुरता रहती है कि जिसका पान करनेके लिये जनता बड़ी ही उत्कण्ठित रहती है और पान करके अपनेको कृतकृत्य मानती है । श्राज 'अनेकान्त'के पाठकोके लिये उनके एक महत्वके अनुभवपूर्ण प्रवचनको, जिसे उन्होंने गत भादोके पयू पणपर्वम त्याग-धर्मके दिन दिया था, और जो अभी कहीं प्रकाशित भी नही हुआ, यहाँ दिया जाता है। हम पण्डित पन्नालाल जी साहित्याचार्य मागरके अत्यन्त अाभारी हैं, जिन्होंने वीजीके पयूपणपर्वेमे हुए, प्रवचनोंके समस्त सङ्कलनको, जिसे उन्होने स्वय किया है, 'अनेकान्त' के लिये बड़ी उदारतासे दिया । प्रस्तुत प्रवचन उन्दी प्रवचनोंमसे एक है। शेष प्रवचन भी आगे दिये जावेंगे। -कोठिया चाहिये । आपके नगरमं यदि शरणार्थी श्रावे तो आज त्यागका दिन है। त्याग सबको करना प्राणपनसे उनका उद्धार करो। मानवमात्र की सेवा चाहिये । अभी एक स्त्रीने अपने बच्चेको करना प्रत्येक प्राणीका कर्तव्य है। आप लोग अच्छे बड़े जोरसे चाँटा दिया। चाँटा देकर उसने अपनी अच्छे वस्त्र पहिने, अच्छा-अच्छा भोजन करे पर कपायका त्याग कर लिया। आप लोग भी अपनी तुम्हारा पड़ौसी नङ्गा और भूखा फिर तो तुम्हारे अपनी कपायका त्याग कर दि शान्त होजाय तो धनको एकबार नहीं सौबार धिक्कार है। अब समय अच्छा है। ऐसा है कि सुवर्णक जेवर और जरीके कपड़े पहनना त्यागका अर्थ छोड़ना होता है पर छोड़ा क्या बन्द कर देना चाहिये और सादी वेशभूषा तथा जाय ? जो चीज़ आपकी नही है उसे छोड़ दिया ॥ चीज़ आपकी नही है उसे छोड़ दिया सादा खानपान रखकर दुःखी प्राणियोंका उपकार जाय। अपने आत्माके सिवाय अन्य सब पदार्थोम करना चाहिये। ममत्व-भावको छोड़ दो, यही त्याग धर्म है।। एकबार ईश्वरचन्द्र विद्यासागरकी माँ बनारस आज मंसारकी बड़ी विकट परिस्थिति है। आई। ईश्वरचन्द्र विद्यासागरको कौन नहीं जानता ? जिन्होंने अपनी सम्पत्ति छोड़ी, स्त्री छोड़ी, बच्चे छोड़े कलकत्ता विश्वविद्यालयका प्रिसिपल, हरएक ऊँचसे और एक केवल चार रोटियोंके लिये शरणार्थी बने ऊँचे ऑफिसरसे उनकी पहिचान-मेलजोल । एक इधर-उधर भटक रहे हैं । उन लोगोंपर भी दुष्ट बार किसी ऊँचे ऑफिमरसे उनका मनमुटाव प्रहार कर रहे हैं। कैसा हृदय उनका है ? कैमा धर्म होगया। लोगोंने कहा कि वह उच्च अधिकारी है अत: उनका है ? इस समय तो प्रत्येक मनुष्यको स्वयं उससे विरोध करना ठीक नहीं; पर ईश्वरचन्द्रने भूखा और नगा रहकर भी दूसरोंकी सेवा करनी कड़ा जवाब दिया कि मैं अपने स्वाभिमानको नष्ट Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] त्यागका वास्तविक रूप करके किसीको प्रसन्न नहीं रखना चाहता। दो दिनमे देवरानमे' लम्बू सिंघई था । अपने प्रान्तका एक दिन तो खाना मिलेगा, दो जूनमें एक जून तो भला आदमी था। पानी नहीं बरसा जिससे लोग मिलेगा, अच्छे कपड़े न सही, सादा खद्दर तो दुखी होगये। गांवके लोगोंने विचार किया कि इसके मिलेगा; पर मै स्वाभिमानको नष्ट नहीं कर सकता। पास खूब अनाज रखा है । लूट लिया जाय । जब हाँ, तो उनकी माँ बनारस आई। अच्छे-अच्छे श्रादमी लम्पूको पता चला तब उसने अपना सब अनाज उनसे मिलने गये। उनके शरीरपर एक सफेद धोती बाहर निकलवाया और लोगोंको बुलाकर कहा कि थी। हाथमे एक कड़ा भी नहीं था, लोगोने कहा- लूटनेकी क्या आवश्यकता है। तुम लोग ले जाओ माँ जी । आप इतने बड़े पुरुषकी माँ होकर भी इस बॉट लो। उमने, किमने कितना लिया, यह लिखा प्रकार रहती है। उन्होंने जवाब दिया-क्या हाथोंकी भी नही। उन्हीं लोगोंमे में किसीन अपना कर्त्तव्य शोभा सोना और चाँदीके द्वारा ही होती है; नहीं, समझकर लिख लिया । अनाज सिवाय उसने इन होथोंकी शोभा गरीबकी सेवासे होती है। हजार दो हजार नकद भी बाँट दिये । भाग्यवश भूखेको रोटी बनाकर खिलानेसे होती है । लोग पानी बरस गया। लोगोंका सङ्कट दूर होगया । मबने उनका उत्तर सुनकर चुप रह गये। वास्तविक बात सवाया लाकर बिना मांगे दे दिया। र्याद आप दमरे यही है। पर हम लोग अपना कत्तव्य भूल गये। के दुःखमे सहानुभूति दिखलाए तो वह मदा लिये हम केवल अपने आपको सुखी देखना चाहते है। आपका कृतज्ञ होजाय-वह आपके विरुद्ध कभी दृसग चाहे भाडम जाय, पर ऐसा करनका विधान बोल न मके। जैनधर्ममे नही है। जैनधर्म महान उपकारी धर्म है। मड़ावर की बात है। पातर सिघई वहाँ रहते वह एफ-एक कीड़ी नककी रक्षा करनका उपदेश देता थे। उस जमानेके वे लग्बपती थे। बड़े दयालु थे। है फिर मनुष्योंकी उपेक्षा कैसे कर देगा ? वह जमाना अच्छा था। खब सम्ता था। एक रुपय- हैदराबाद की बात है। वहाँ एकबार अकाल पडा। का इतना अधिक गल्ला आता था कि आदमी उठा लोग दुःखी होने लगे । मन्त्री चण्डूप्रमादको जब इम नही सकता था। मी समयकी यह कहावत है कि बानका पता लगा कि हमारी प्रजा दःखी होरही है। एक बैल दा भइया पीछे लगी लुगैया तोई न पगे पवा दिया और लोगोंको होय रुपैया'। यदि कोई गरीब आदमी उनके पास यथावश्यक बाँट दिया। हाल लोगोंने गजासे पजीके लिय श्राना तो उसे व बडे प्रेमसे ५०) पचास शिकायत की कि इमने सब खजाना लुटवा दिया, रुपयेकी पूजी द देते थे। उम ममय पचास रुपयकी बिना खजानके राज्यका कार्य कैसे चलेगा? राजाने पूजीसे घाड़ा भर कपड़ा श्राजाता था। आज ती चार भी उस अपराधी मान लिया। तोपके सामने उसे जोड़ा भी नहीं आवगे । और ५०) रुपये उसके खडा किया गया तीन बार तोप दागी गई पर एक परिवारक खाने लिये अलग द देते थे। उस बार भी नहीं चली। मब उसके पुण्य प्रभावको देख- समय ५०)म एक परिवार माल भर अच्छी तरह ग्वा कर दङ्ग रह गये। कुछ समय बाद पानो बरम गया। लेना था । पर आज एक श्रादमीका एक माहका पूग लोगोंका कष्ट दर होगया।खजानसे जो जितना लेगया बच भी ५:)म नही हाना । वह श्रादमी साल भर था मबने उससे दना-दना लाकर खजाना भर दिया। बाद जब रुपये वापिम करने जाना और ब्याजक जब बजाना भर चुका तब मन्त्री अपना पद छोड़कर १२) वारह रुपये बतलाता तो वे व्याज लेनेसे इन्कार साधु होगया। यह तो रही नवारीख की बात । मैं कर देने और जब कोई अधिक श्राग्रह करता तो श्रापको आपके प्रान्तकी अभी चार माल पहलेकी १ यह ओरछा रियामतका एक गाव हे ।-सपादक । बात सुनाना है। २ झामो जिलेका एक कस्बा । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वषे ९ १) ले लेते और उसके बदले वायना (मिठाई) आदिके ठाटबाट के साथ जारहा था। मेरा ध्यान तो उम ओर रूपमे उसे दसौ रुपयेका सामान दे देते थे। मह- नहीं गया, पर उसने मुझे देख लिया और हाथी धर्मियोंसे वात्सल्य रखने वाले ऐसे पुरुष पहले होते म्बड़ाकर मुझसे बोला ? मुझे पहचानते हो मैने कहा थे। पर भाजके मनुष्य तो चाहते है हमारा घर ही श्ररे परसादी । उसने अपना किस्मा सुनाते हुए कहा, धनसे भर जावे और दूसरे दाने-दानेके लिये फिरे। कि तुम तो कहते थे कि अब क्या करोगे ? मैं अब इन विचारोंके रहते हुए भी क्या आप अपनेको जैनी मालवाका महन्त हैं। दम-पाँच लाखकी जायदाद है। कहते हो? मो भैया ! जिसको सम्पत्ति मिलनी होती है सो धन इच्छा करनेसे नहीं मिलता। यदि भाग्य अनायाम मिल जाती है । व्यर्थकी चिन्तामे रात दिन होता है तो न जाने कहाँसे मम्पत्ति श्रा टपकती है पड़े रहना अच्छा नहीं। मै मडावर्गका हूँ । मेरा एक माथी था-परमादी। जब बाईजीको मग्नके १० दिन रह गये तब परमादी ब्राह्मणका लडका था। हम दोनों एक माथ लम्पूने उनसे कहा, बाईजी ! कुछ चिन्ता तो नहीं है। चौथी क्लाममे पढ़ते थे । परसादीकं बापको ८) उन्होंने कहा, नहीं है । लम्पून कहा, छिपाती क्यों पंशन मिलती थी और १०००) एक हजार उमक हो ? वर्णीजीकी चिन्ता नहीं है । उन्होंने कहा, पहले पाम नकद थे। वह इतना अधिक कंजम था कि थी; अब नहीं है। पहले तो विकल्प था कि हमने इसे कभी परमादी एक आध पैसका अमरूद खाल तो पुत्रसे भी कही अधिक पाला, इसलिये मोह था कि वह उसे बुरी तरह पीटता था । बापके बर्तावसे यदि यह दो-चार हजार रुपये किमी तरह बचा लेता लड़का बड़ा दुग्बी रहता था। अचानक उसका बाप तो इसके काम आते । पर मैंने इमकं कार्यासे देखा मर गया। बापके मरने के बाद लड़केने खूब खाना कि यह एक भी पैसा नहीं बचा सकता । मैंने यह पीना शुरू कर दिया। बापकी जायदादको मिटाने मोचकर मतोषकर लिया है कि लड़का भाग्यवान है। लगा। मैंने उसे समझाया---परसादी। अनाप-शनाप जिस प्रकार मैं इसे मिल गई ऐमा ही कोई उल्लू म्वच क्यों करता है ? पीछे दुःखी होगा। वह बोला, और मिल जायेगा। बड़े भाग्यसे बाप मरा तो भी न खाव-पीवे । भैया में एक बार अहमदाबाद कांग्रेसको गया। 40 उसने एक सालमे ही एक हजार मिटा दिये। मैन मुन्नालालजी, राजधग्लाल वरया तथा एक दो सज्जन कहा, परमादी अब क्या करोगे? वह बोला, भाग्यमे और भी साथ थे। अहमदाबाद में एक मारवाड़ीने होगा तो और भी मिलेगा। मेरे भाग्यमे कोई महन्त नेवता किया। पूरी, खीर श्रादि सब सामान उसने मरेगा उसकी जायदाद मै भोगगा। ऐसा ही हुआ। बनवाया। मुझे ज्वर प्राता था, इसलिये पहले तो वह वहाँसे मालवा चला गया। देखनेम सुन्दर था मैन खीर नहीं ली । पर जब दूसगको खाते देखा ही, किसी महन्तकी सेवा खुशामद करने लगा। और उसकी सुगन्धि फैली तो मैंन भी ले ली और महन्त प्रसन्न होगया और जब मरने लगा तब लिख वृब खाली। एक घण्टे बाद मुझे ज्वर आगया । गया कि मेरा उत्तराधिकारी परमादी होवे। क्या इच्छा थी कि इतनी दूर तक आया नी गिरनार जीके था। अब वह लग्बपति बन गया। हाथी, घोडे आदि दर्शन और कर पाऊँ । शामको गाड़ी मवार हुआ। महन्तोंका क्या वैभव होता है मो श्राप लोग जानते मेरे पैरोंमे खूब दर्द हो रहा था। पर मकोच था, ही है। मै इलाहाबादमे पण्डित ठाकुरदासजोके पाम इसलिये किसीसे यह कहते न बना कि कुछ दवा दो। पढ़ता था । वह भी एक वक्त गङ्गास्नानके लिये गतको एक पूनाका वकील हमारे पाम आया । कुछ इलाहाबाद गया। मैं पुस्तक लेकर पण्डितजीकं पाम देर ती चर्चा करता रहा पर बादमे मेरे मो जानेपर पढ़ने जारहा था, वह भी एक हाथीपर बैठा बड़े वह वहीं बैठा रहा। न जाने उसके मनम क्या भाया । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४ } वह मेरे पैर दाबने लगा और रातके ३ बजे तक arent रहा। तीन बजे बोला- पण्डितजी, उठिये आपको यहाँ गाड़ी बदलनी है । ' हम लोग धनकी चिन्तामे रात दिन व्यग्र होरहे हैं पर व्यय होनेमे क्या धरा ? धन रखते हो तो उसकी रक्षा के लिये तैयार रहो। लोग कहते है कि दूसरे लोग भीतर ही भीतर पहले से तैयारी करते रहे । अरे तुम्हारे दादाको किसने रोक दिया था ? जैन धर्म यह कब बतलाता है कि तुम नपुंसक बनकर रहा। लोग कहते है कि जैनधर्मने भारतको गारत कर दिया। रं | जैनधर्मन भारतको गारत नही कर दिया । जबसे लोगोंने जैनधर्म छोडा तबसे गारत हो गये। जैनधर्म तो प्राणीमात्रका उपकार चाहता है वह किसीका भी नहीं सोचता । वहाँ तो यही उपदेश है 'सर्वे सन्तु निरामया" सत्र निरामय नीरोग रहें। 'म सर्वप्रजाना' मार्ग प्रजाका कल्याण हो। जैन"तीर्थंकरोंने छह खडकी पृथिवीका राज्य किया, मां क्या कायर बनकर किया ? नपसक बनकर किया ? नही, जैनके समान तो कोई वीर हो नही सकता । उसे कोई घानीमे पेल दे तो भी अपने आत्मासे च्युत नही होता। जिन तो एक आत्मा विशेष का नाम है । जिसने रागादि शत्रुओंको जीन लिया वह जिन है । उसने जिस धर्मका उपदेश दिया वह जैनधर्म है । इसे कायरोका धर्म कौन कह सकता है ? त्यागका वास्तविक रूप आज त्याग धर्म है। मै धनके त्यागका उपदेश नहीं देता । और मेरी समझमे जो धनके त्यागका उपदेश देता है वह वक्ता बेवकूफ है। धन तुम्हारा है ही कहाँ ? वह तो स्पष्ट जुदा पदार्थ है । यह चादर जो मेरे शरीरपर है न मेरी है न मेरे बापकी है और मेरी मत पेरीकी है। वह द्रव्य दुसरा है और मैं द्रव्य दूसरा । एक द्रव्यका चतुष्टय जुदा, दूसरे द्रव्यका चतुष्टय जुदा । आप पदार्थको जानते हैं। क्या पदार्थ आपमे आ जाता है ? आप पेडा खाते है, मीठा लगता है क्या मीठा रस आपके श्रात्मामे घुस जाता है ? और बड़ी सफाई के साथ रोटी बनाती है क्या उसके हाथ या उसकी अङ्गलियाँ रोटीरूप होजाती हैं ? १५३ कुम्हार मिट्टीका घड़ा बनाता है क्या उसके हाथ-पैर आदि घड़ारूप होजाते है ? नहीं, एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमे प्रवेश त्रिकालमे भी नही हो सकता। जब दूसरा क्रय हमारा है ही नहीं तब उसका त्याग करना कैसा ? यहाँ त्यागसे अर्थ है पर पदार्थोंम आत्मबुद्धिका छोड़ना । धनका जोड़ना बुरा नही । आपके पास जितना धन है उससे चौगुना अपनी तिजोरियोंमे भरलो पर उसमें जो श्रात्मबुद्धि है उसे छोड़ दी। जब तक हम किसीको अपना समझते रहेंगे तब तक उसके सुग्ब-दुबके कारणांस हम सुखीदुःखी होते रहेंगे। यह नरेन्द्र बैठा है इसे यदि हम अपना मानेगे तो इसपर आपत्ति श्रनेपर हम स्वय दुबी हो उठेगे। इसीलिये तो आचार्य कहते है कि आत्मानिरिक्ति किसी भी पदार्थको अपना नही समझो | जिस समय आत्मा ही आत्मबुद्धि रह जायगी उसी समय आप सुखी हो सकेंगे, यह निश्रय है 1 जैनधर्मका उपदेश मोह घटानेके लिये ही है। आपके त्याग किसी पदार्थका त्याग नही हो सकता त्याग करके आप उस पदार्थकी सत्ता दुनियास मिटा दिन समर्थ नहीं है। आप क्या कोई भी समर्थ नही है । उसमें केवल मोह ही छोड़ा जा सकता है। जब तक अपने हृदयमे मोह रहता है तब तक ही इस परिग्रहकी चिन्ता रहती है। मोह निकल जानेपर कोई भी इसे लेजाश्री, इसका कुछ भी होता रहे, इसका विकल्प रखमात्र भी नहीं होता । कल आपने वज्रदन्त चक्रवर्तीका कथानक सुना था। जब उसका माह दूर हुआ तब उसके मनमे यह विकल्प नहीं आया कि हमारे इस विशाल राज्यको कौन संभालेगा ? लडकोंको राज्य देना चाहा, पर जब उन्होंने लेने डकार कर दिया तब अनुन्धरी के छह माह पुडरीकको राज्य देकर जङ्गलमें चला गया। निर्मोह दशाका कितना अच्छा उदाहरण है । चक्रवर्तीक दीक्षा लेनेक बाद उनकी स्त्री लक्ष्मीमती अपने जमाई वजघको जो कि भगवान आदिनाथ के जीव थे, पत्र लिखनी है कि 'पति और पुत्र सभी साधु हागये है। जिसपर Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४६ वर्ष बाद जय स्याहाद [ले० --प्रो० गोरावाला खुशाल जैन एम० ए०, साहित्याचार्य] "दृष्टष्टाविरोधतः स्याद्वादः ।" (स्वामी ममन्तभद्र) उन्मनि नहीं अवनति कर देती है। अपनेको पूर्वजोंसे सभ्यतर मानने वाला भगवान महावीरकी २५४७वीं जन्म-जयन्ती यह मनुष्य कह ही उठता है कि ये ढाई हजार वर्षे मनानेका विचार करते ही उन परिस्थितियोंका व्यर्थ नहीं गये है। हमने आशातीत उन्नति की है। अनायास स्मरण हो आता है जिनका प्रतीकार करके जहाँ अमेरिकाने उत्पादनकी समस्याको सुलझा दिया लिच्छविकुमार सन्मतिने अनादि मागका प्रकाश है, वहीं रूसने वितरणरीतिको सम कर दिया है। किया था और अपनी तीर्थकर मज्ञाको सार्थक एक ओर यदि हिटलर और मुमोलिनीने हिंसाका बनाया था। चिर अतीनका ध्यान निकटतम वर्तमान ही डट्का पीटा था तो दूसरी ओर युगपुरुष, मूतिमानपर दृष्टि डालनेके लिये लुभाता है। आधुनिक प्रावि- भारत, प्रियदर्शी गाँधीजीने अहिंसाकी शीतल मन्द प्कार तथा ऐहिक सुख साधनकी अनियन्त्रित सामग्री सुगन्ध मलयानिलका प्रवाह किया था। यदि अमेक्षण भरके लिये शिरको ऊँचा और सीनेको तना रिका, रूस नथा अंग्रेजोंकी विजयको पशुबलकी राज्यका भार आया है वह छाटामा बालक है। मर्वोपरि जीत कहा जाय, तो सत्य और अहिसाके प्रभावशाली शामकके न होनेस राज्यमं अराजकता बल पर प्राप्त सक्रिय तथा निष्क्रिय भारतकी दो भागों मच रही है। आप आइये ।' वह प्रकरण बाँचकर म विभक्त स्वतन्त्रता भी नैतिक बलकी अभूतपूर्व विजय भाखोंमे आँस जाते है। कहाँ छह खण्ड अधि- है। आज समयकी तराजूके एक पलडेपर अमेरिकापति चक्रवर्तीकी रानी और कहाँ रक्षाकं लिये दसरे का अणुबम है और दूसरेपर गाँधीजीकी अहिसामय को पत्र लिखता है ? कल जा रक्षक थी वह आज नीति । अनायास ही ऐसा प्रतीत होता है कि हम उस रक्षाके लिये दमरोंका मंह ताकती है। भैया । यही तो युगसे जारहे हैं जिसमें प्रत्येक वस्तु संभवत: विकामसंमार है, मसारका स्वरूपऐसा ही है। की चरमसीमा तक पहुंच चुकी है। किन्तु वास्तत्याग करनेसे कोई कहे कि हमारी सम्पत्ति नष्ट विकता इसके ठीक विपरीत है। क्या आज दृष्टिभेदके हो जाती है मो श्राज नक ऐसे उदाहरण देखने में नहीं कारण व्यक्ति-भेद और राष्ट्र-वैमनस्य नहीं है क्या पाये कि कोई दान देकर दरिद्र हा हो। अहिंमा पूज्य गाँधीजीको गोली मार मनुष्यकी जब वमन्त याचक भये दीने तरु मिल पात । हिंस्रवृत्ति-नारकीयतासे भी नीचे नहीं चली गई है? इससे नव पल्लव भये दिया व्यर्थ नहि जात ॥ निःशस्त्रीकरणका राग अलापते-अलापते क्या मनुष्य एक कविकी यह कितनी सुन्दर उक्ति है। जब ने महामारू-अस्त्र अणुबम नहीं बना डाला है ? क्या वमन्त याचक होता है तब वृक्ष पतझड़ बन जाते हैं- धर्मके नामपर हिंसा, चोरी, झूठ, अकल्पिन व्यभिअपने-अपने पत्ते दे डालते हैं। यही कारण है कि चार तथा संचयका ताण्डव नहीं होरहा है ? सच उनमें नये-नये पत्त पैदा होजाते हैं। तो यह है कि मनुष्यने ये ढाई हजार वर्ष मंकल्प पूर्वक अपनी अवनति और उन सब श्रादीका Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४ ] मटियामेंट करनेमे लगाये हैं जिनकी शिक्षा भगवान महावीरने दी थी। इसीलिये बनार्डशा जैसे व्यक्ति की आँखें वर्तमान सभ्यताके गाढ़ अन्धकारको चीरती हुई वीर प्रभुके उपदेशपर ठिठककर रह गई हैं। क्योंकि रूस - अमेरिका की प्रतियोगिता, तानाशाही के जन्मकी प्राशङ्का, और मुसलिम अमुसलिम अकारण वैमनस्यका विकार आदिका अन्त शोषित और शोषक द्वन्द्वका विनाश तथा नैतिकताका पुनरुद्धार उसी प्रणाली से संभव है जिसमे "दृष्ट और इष्टका विरोध नही है" जैसा कि वीरप्रभुने कहा था । राजनैतिक अस्याद्वाद जय स्याद्वाद विगत विश्व युद्धकं घावोंपर अभी पट्टी भी नहीं बँध पाई है। कुपथगामी वीर जर्मन राष्ट्र समता, स्वतन्त्रता और स्वजनताके हामी राष्ट्रके पैरों के तले कराह रहा है। वर्षों बीत गये पर कोई अन्तिम संधि नही हो सकी है। यह सब होते हुये भी तीसरे विश्व युद्ध की तैयारी होने लगी हैं। खुले आम अमेरिका और रूसने अपने दल बनाने प्रारम्भ कर दिये है । दोनों दलो की इस वृत्तिने वर्तमान (दृष्ट) की प्रगतिको ही नहीं रोक दिया है श्रपितु भविष्य की सभावना (इष्ट) को भी अन्धकाराच्छन्न कर दिया है । मोट रूपसे देखनेपर कोई ऐसा कारण सामने नही आता जो रूस और अमेरिकाकं मनोमालिन्यके औचित्यको सिद्ध कर सके । तथोक्त जाग्रत राजनीतिज्ञ कहते है कि साम्यवादी रूम पूजीवादी अमेरिकाके प्रसारकी कैसे उपेक्षा करें ? किन्तु दोनों देशोंके जन तथा शासनका पर्यवेक्षण करनेपर कोई ऐसी मलाई या बुराई नहीं मिलती जो एकमे ही हो, दूसरे मे बिल्कुल न हो। दोनों देश उत्पादन, संचय तथा वितरणको खूब बढ़ा रहे है । यदि एक व्यक्तिगत रूपसे तो दूसरा समष्टिगत रूपसे । दोनों देशोंका आदर्श भौतिक (जड़) भोगोपभोग सामग्रीका चरम विकास हैं। अपने दलके लोगों, राष्ट्रोंकी धन-जनसे सहायता में कोई नहीं चूक रहा है । साधन, साध्य और फलकी एकता दृष्टि या 'वाद' भेदकी हल्कीसी छाया भी नहीं दीखती है । तथापि पग पगपर 'दृष्टि' या 'वाद' १५५ भेदकी दुहाई दी जाती है। और एक दूसरेको अपना घातक शत्रु मान बैठा है। इस प्रकार स्पष्ट है कि कल्पित दृष्टिभेद ही विश्वके वर्तमानको प्रत्यक्ष रूपसे बिगाड़े हुये है और पाप तथा दुखःमय भविष्य की कल्पना करा रहा है । जब कि साम्यवाद तथा जनतन्त्रवादकं मृढ़ग्राहको छोड़कर अमेरिका-रूस विश्वको शान्ति, सुख और सदाचारकी ओर सरलता से ले जा सकते है । यह तभी सम्भव है, जब हम स्याद्वाद या बौद्धिक अहिसा या सब दृष्टियों से विचारना अथवा उदार दृष्टिसे काम ले जो प्रत्यक्ष ही संघर्ष और अशान्तिसे बचाता है तथा मैत्री और प्रमादपूर्ण भविष्य की कल्पना कराता है। धार्मिक अस्याद्वाद जहाँ राजनैतिक विचार सहिष्णुता से वर्तमान विश्वमे मध्य-पश्चिमी योरुप, अमेरिका, चीन, बर्मा आदिकी समस्याएँ सरलतामे सुलझ सकती है, वहीं धार्मिक विचार सहिष्णुता द्वारा मुसलिम तथा मुसलिम राम्रोंके बीच चलने वाला संघर्ष भी शान्त हो सकता है। सन् १९२४ के बादसे धार्मिकता या साम्प्रदायिकता के नामपर भारतमे जो हुआ हैं, उससे साधारणतया साम्प्रदायिकता और विशेष रूपसे इस्लाम की ओर से की गई इतिहास सिद्ध आक्रमकता और वर्वरताकी पुष्टि तो होती ही है, साथ ही साथ यह भी स्पष्ट हो गया है कि इस धार्मिक उन्मादसे किसी भी धर्म या सम्प्रदायका वास्तविक प्रचार और प्रसार हो ही नहीं सकता। यदि इसके द्वारा कुछ हुआ है तो वह है सामाजिक मर्यादाओंका लोप और अनैतिकताका अनियन्त्रित प्रचार | अतीतको भूलकर यदि १४ अगस्त सन ४६ के बादके भारतपर ही दृष्टि डाल तो ज्ञात होता है कि 'साक्षात् क्रिया' माने मारकाट, चारा, डकैती, अप हरण तथा नारकीय व्यभिचार; मुसलिम लीग, हिन्दू महासभा तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवकसङ्घ मान देशद्रोह और मानवताकी फॉमा | इस प्रकार धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर इधर डेढ़ वर्षम जो हुआ है, उस ने भारतका सनातन विरासत नैतिकताको विका Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ अनेकान्त ऐसा खोद डाला है कि हमारा सामाजिक वर्तमान (दृष्ट) ही विरूप और नष्ट नहीं हुआ है अपितु सुभ बिष्यको कल्पना (इ) भी अत्यन्त अस्पष्ट और निराशाजनक होगई है | यह सब हुआ धर्मके नशेके कारण, धर्मके कारण नहीं । इतिहास इस बानका साक्षी है कि अमलम धर्मोन भारतमे इम्लाम या उसकी संस्थापर कभी आक्रमण नही किया है । इतना ही नही, मुसलम श्राक्रमणके बाद ही सब प्रकार से मुसलमानां द्वारा सताये जानेपर भी अमुसलिम भारतने उन दुर्घटनाओं को भुला ही दिया है। यही अवस्था प्राचीन भारतीय सम्प्रदायों और धर्मों के पारस्परिक कलह और दमनकी हुई है। तथापि मनुष्यमे इतना विवेक नहीं जागा कि धर्म "जीव उद्धार" की कला है । जिसे जहाँ विशुद्धि मिले, उसे वही स्वतन्त्रता पूर्वक रहने दिया जाय। क्योंकि जो सत्य रूप से किसी भी धर्मको मानते हैं, वे कभी आपस नहीं लड़ते । फलत' न इम्लाम खतरेम हे और हिन्दू या यहूदी धर्म ही विश्वका स्वर्ग बना सकता है। . मनुष्य को अपने आप अपनी दृष्टि बनाने, ज्ञान प्राप्त करने और आचरण करने की स्वतन्त्रता होनी ही चाहिये। भगवान महावीरक इस समन्मभद्र धर्मक द्वारा ही हम भारत तथा फिलिस्तीन आदि देशोंकी तथाक्त धार्मिक गुत्थिया सरलता से सुलझा सकते हैं। [ वर्ष ९ भारतीय किसीको छुरा भोंक देता है, आग लगा देता है, दूसरे की बहू-बेटी को ले भागता है और कभी तथा कहीं भी बलात्कार करता है । हमारे सामाजिक वर्तमान (दृष्ट) की निस्सारता और पतन तो स्पष्ट हैं किन्तु यदि इन वृत्तियों का निरोध न हुआ तो भविष्य का अनुमान (दृष्ट) करते ही रोमांच हो आता है, प्राण सिहर उठते है। हिंसककी हिंसा, चोरकी चोरी, झूठे को धोखा, व्यभिचारीकी बहिन बेटी के साथ व्यभिचार और पूजीपतिकं बिरोधके लिये पुजीपति बनना ही हमारी नीति और आदर्श होगये है जैमा कि आजके विश्वमे स्पष्ट दिखाई देता है तां साम्यवाद और समाजवाद, सामन्तशाही और नादिरशाही सभी बदतर सिद्ध होगे। विध्वम और पतनकी गति इतनी तेज होगी कि गत ४२ वर्षोंकी अभूतपूर्व वैज्ञानिक विध्वंस प्रणाली भी उसके सामने वैसी लगेगी, जैसी बुन्देलकी तलवार आज अणुबमक सामने लगती है। आजका सर्वतोमुख पतन इतना व्यापक है कि कुछ समय और बीतते ही वह स्वभाव मान लिया जायगा। क्योंकि आज बहुजनका जीवन तो शिथिलाचार की ओर बढ़ ही चुका है। "महाजन को भी श्रमयत होने अधिक समय न लगेगा और फिर मयत ही ' पन्थ' या सहज जीवन हो जायगा । आजके विश्वमं किमीको यदि खतरा है तो वह है संस्कृति या मानवताको । चाहे पूजीवादी अमेरिका हो या समाजवादी रूस, सब ही इस खतरेकी चर्चा करते है। किन्तु किसी भी वादके अनुयायिओंका जीवन ऐसा नही हैं जिससे मानवताकी सुरक्षाकी आशिक भी अशा बंधे । धर्मनीति सामाजिक स्याद्वाद धार्मिक अमरताकी राक्षसी सन्तानका ही नाम सामाजिक अनाचार या अस्याद्वाद है । आधुनिक युगकं "वाद" या धर्मकं पक्षपातने अनगिनती हानियों और अत्याचार किये है। किन्तु उन सबका सम्राट तो वह वृत्ति है जिसके कारण मनुष्य कुकृत्योंको आज निःसकाच भावसे कर रहा है जिनके करने की शायद उसने कल्पना भी न की होगी । मुसलिम लीगने भारतकी अनेक हानियाँ की हैं, उनमें घातक तो वह अनाचार है जिससे उत्तेजित होकर अमुसलिम भारतीयोंने भी उसकी पुनरावृत्ति की हैं । आज मुसलिमके समान ही अमुसलिम तब क्या यह मान लिया जाय कि मनुष्यका सुधार नहीं ही हो सकता है । तथोक्त वैज्ञानिक प्रतीकार असफल है तब और क्या किया जाय ? उत्तर कठिन नही है । यदि दो अणुबमोंने जापानका लङ्का-दहन कर दिया तो प्रियदर्शी गाँधीजीने भी तो हिन्दुत्व के कलङ्क - गोली मारने वालेको हाथ जोड दिये थे। यह दृष्टि, ज्ञान और आचरण कहाँ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने ही लोगों द्वारा बलि किये गये महापुरुष किरण ४ ] I मिला ? मत्य और अहिसाम ही तो ? यों तो भार तीय संस्कृति ही असा प्रधान हैं, किन्तु यह भी स्पष्ट है कि इसका मूल स्रोन जैन मार्ग ही रहा है तथा हमारे युगमे भगवान महावीर | भगवान बीरने ही तो स्पष्ट कहा था कि 'यदि हिमककी हिंसा न्याय्य मानोगे तो कोई भी इस समागमे श्रवध्य नही रहेगा मंत्री, प्रमोद, शान्ति और विकास असम्भव हो जायेगे । यदि मूलको ही नीतिमत्ता मानोगे तो ऐसी नीतिमत्ता किमी की भी विपत्ति न टलेगी और समार विश्वास नामकी वस्तु दुर्लभ हो जायगी । यदि धर्म भेद या व्यक्ति भेदके कारण दूसरेकी बहिन बेटी कुचेष्टा या बलात्कार करनेमे पुरुषार्थ मानोगे तो वह पुरुषार्थ तुम्हारी बहिन-बेटी की मर्यादा और जान कर देगा | आवश्यकता से अधिक पैसा सचय करनेमे यदि पाप न समझोगे तो कोई ऐस पाप नही, जिसे करनेमे तुम हिचकोगे ।' सम्भव है, सी-पचास वर्ष पहिले यह सब धर्मोपदेशसा लगता किन्तु आज ना यह अनिवार्य आवश्यकता है । अन्यथा आक्रांत जमनी तथा अन्य योरुपीय राष्ट्र, चीन, फिलिस्तीन, काश्मीर, हैदराबाद अपने ही लोगों द्वारा बलि किये गये महापुरुष 9 सुकरात - यूनानी दार्शनिक तत्ववेत्ता, इमाम २६६ वर्ष पूर्व जहर द्वारा । २. ईसामसीह - श्राजमे १६४८ वर्ष पूर्व, यहूदियों द्वारा दी गई शूली । ३ अब्राहमलिकन अमेरिकाके प्रथम राष्ट्रपति, १४ अप्रैल १८६५ में गोली द्वारा । ४ माइकेल कोलिंस - श्राजाः श्रायल के प्रथम राष्ट्रपति, १६२ म गोली द्वारा । ५ स्वामी दयानन्द - श्रार्यममाज के मम्थापक, ३० अक्टुबर १८२३मे जहर द्वारा । ६ स्वामीश्रद्धानन्द श्रार्यसमाज और कॉममके नेता, गोली द्वारा । और पाकिस्तानमं सहज जीवनकी कल्पना भी संभव न रहेगी। किन्तु दूसरे के प्राण, वचन, धन, शील और आवश्यकताकी रक्षा हम तब ही कर सकते है जब हमारी दृष्टि व्यापक हो। जिसे मृढमाह होगा उससे यह आशा तब तक नही की जासकती जब तक उसे अपनी हठमे मुक्ति न मिले तथा उसकी हा परमहिष्णु न हो जाय । यह तब ही सम्भव है जब मनुष्य प्रत्यक्ष ही विकृत और पतित वर्तमानमे बच तथा ऐसा कोई काम न करें जो प्रत्यक्ष ही बुग है अथवा भीषण भविष्यका अनुमापक है। यह म्याद्वाद द्वारा ही सम्भव है क्योंकि इस प्रणालीमे प्रत्येक कल्पनाका विवध और व्यापक दृष्टि विचार करना आवश्यक है। तथा हर पहलूमे विचार करते ही बैर और विरोध स्वयं काफूर होजाते है । अतः आजके राष्ट्र तथा सम्प्रदायगत विरोधों को दूर करने की सामर्थ्य भगवान वीरके स्याद्वादमे ही है हम बौद्धिक हिमाकं श्रतं वाचनिक और कायिक अहिसा स्वय सिद्ध हो जायगी । अतः प्रत्यक्ष तथा अनुमानमे अवाधित स्याद्वाद ही ज्ञेय तथा आचरणीय है । जैन मन्दशमं । १५० 19 आगमान -- स्वतन्त्र वर्माके प्रथम प्रधानमन्त्री, १६ जुलाई १६४०म, पार्लियामेण्ट भवनमं, गोली द्वारा | अमर माहित्यकार टोडरमल - जनसमाजके महा. विद्वान श्रार साहित्यकार, विक्रम संवत् १८२४ ( ई० १७६१ ) म धर्मान्धतापूर्ण साम्प्रदायिकता में श्रभिभूत एक नरंशकी अविचारित श्राशा हाथी द्वारा । ९. ट्राटस्की- रुमका लेखक और महान नेता, मेक्सिको में धरपर हथाड द्वारा । ८ १० महात्मा गाँधी-आमा र मानवताकेषु जारी, भारत तथा विश्वके महानतम मानव, मन्त श्ररि नेता, ३० जनवरी १६४८में, दिल्लीके लाभवनमें, नाथूराम गोडमेकी पिस्तौल की तीन गोलिमि । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामुनि सुकुमाल ( श्री ला० जिनेश्वरप्रसाद जैन ) →→→→→→← [ इस लेख के लेखक ला ० जिनेश्वरप्रमादजी सहारनपुरके उन धार्मिक पुरुषमिसे एक हैं जिनसे सहारनपुरका मस्तक ऊँचा है । आप ज्ञानवानों और चारित्रवानोंका बड़ा आदर किया करते हैं। लाला उदयराम जिनेश्वरप्रसाद के नामसे प्रसिद्ध कपड़ेकी फर्मके आप मालिक हैं। अपने व्यापारसे उदासीनजैसी वृत्ति रखते हुए आप सदा ही धर्मकी और यथेष्ट ध्यान रखते है। जैनगुरुकुल सहारनपुरके श्राप जन्मदाता और अधिष्ठाता है तथा उसे हजारों रुपये प्रदान कर चुके हैं। हाल मे श्राप सकुटुम्ब पृज्य क्षुल्लक वर्णीजी के दर्शन, वन्दन और उपदेशश्रवण के लिये वरुश्रामागर गये थे । वहॉपर वर्गीजीको आहार दान देनेका भी आपको सकुटुम्ब सौभाग्य प्राप्त हुआ था | उधरसे वापिस आकर अपने विचारपूर्वक दर्शनप्रतिमा ग्रहण की है । हालमे मेरी आपसे भेंट हुई । आपके विचारों, उन्नत धार्मिक भावों बार शान्त परिणतिको जानकर बडा प्रमोदभाव हुआ। महामुनि सुकुमाल के जीवनचरितपरमे आपने जो विचार बनाये उन्हें लेग्नबद्धरूपमें मुझे सुनाया । सुनकर मेरी तबियत बडी प्रसन्न हुई । मेरी प्रेरणापर उसे उन्होंने 'अनेकान्त' में प्रकट करनेके लिये भेजा है । श्राप यद्यपि लेखक नहीं है-सफल व्यापारी धनपान है - फिर भी अपने प्रथम प्रयत्नमं वे इतना सुन्दर लिख सके, यह जानकर पाठक मी प्रसन्न होंगे । आशा है अब आप अपने लिखनेका प्रयत्न बराबर जारी रखेंगे। - कोटिया ] ज बैठे बैठे विचार उत्पन्न हुआ कि वे प्रभु माज कुमाल स्वामी कौन थे ? उनकी पूर्वली अवस्था कैसी थी, जिन्होंने इतनी वीरताके साथ कर्मशृङ्खलाकी 'डयोको काटा था ? पूर्व अवस्थामे वे कर्मकं प्रेरं पापोदयवश एक महादुगन्धा अस्पृश्य कन्याकं शरीरमे बन्द इस समार अटवीमे ही थे, जिसके शरीर में इतनी दुर्गन्ध रही थी कि उसको देखकर बहु-मनुष्यों का समुदाय नाकपर वस्त्र रखकर ही उस मागसे निकलता था । उसी समय महान त्यागमूर्ति, ज्ञानस्वरूप, अनेक प्रतिमाधारी, महान तपस्वी एक ऋषि महाराज उसके समीपसे विहार करते हुए निकले, अचानक उनकी दृष्टि उस कन्यापर गई । उन्होंने विचार कियाअरे यह तो कदममे लिपटा हुआ रत्न यहाँ है पड़ा और यह तो निकटभव्य आत्मा है। कर्मोंके चक्कर मे फँसी हुई है। उन्होंने शीघ्र ही स्वदृष्टि उस ओर 1 घुमाई और बोले—हे बालिके ' तू कौन है ? विचार ता सही? पूर्वी दशा तेरी कौन थी ? किस पापीदयसे तृ इस अवस्थामे अवतरित हुई ? विचार और सोच | तेरा कल्याण निकट है, तेरी अवस्था इस महान नारकीय दुःखसे छूटने वाली है, तनिक स्थिरतासे विचार और उपयोग लगा ।" इतना वचन उन महान वल्याणकारी धीर-वीर, ज्ञानी, ऋषीश्वरका सुनकर वह विचारती है ये कौन है ? इनकी वाणी परम-सुहावनी मालूम पड़ती है । मुझ दीन-हीनपर क्यों करुणा करते है ? मेरे तो समीप भी कोई नहीं आता । धन्य, इन वात्सल्यधारी महान् प्रभुको । इतना विचारते-विचारते उसे उसी क्षरण पूर्वभवका जाति-स्मरण ज्ञान होता है और वर्तमान दशापर वेद होते-होते युगल नेत्रो मे अश्रु धार बह जाती है और वह लालायित दृष्टिसे निर्निमेष उनकी ओर देखती रहती है। वे महामुनि उसे सम्बोधते हुए शीघ्र कहते है Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४ महामुनि सुकुमाल १५९ 'हे पुत्री | तृ शीघ्र विकाके व्रतोंको धारण कर। विशेष कोमलताके कारण उनके चरणोंमेसे रुधिरकी तुझे मंमारमे परिभ्रमण करते-करते अनन्नकाल बीन धार बह निकलती है। पर सुकुमाल इसकी कुछ भी गया, तेरी आयु भी अल्प है, जो शीघ्र पूरी होरही परवाह न करते हुए और वैराग्यभावासे श्रोत-प्रोत है । मुनिराजके करुणा-भरे इन वचनोंको सुनकर होते हुए निर्मन्थ मुनियोंके चरणों में जाकर भक्तिवह शीघ्र विकाके व्रतांको भावहित धारण करके पूर्वक वन्दना करके नतमस्तक होकर उनसे विशेष दृढताके साथ पालन करती हुई मरणको प्राप्त होती प्रार्थना करते है । हे प्रभो' हे कल्याणमूर्ति । हे है और स्वगमे देवपायको धारण करती है- अनन्तगुणोंके स्वामा । हे पतितोद्धारक । मुझे शीघ्र स्त्रीलिङ्गका विच्छेद कर देती है। वहाँसे चयकर यही उबारो । मै इम ममाररूपी काराग्रहसे निकलकर देवपायका जीव एक राज सेठानीका पुत्र सुकु- निज कुटुम्बम वास करना चाहता हूँ। मैं अब इस माल कुमार होता है। मंसारस तप्तायमान है। प्रभो । मै अब आपके चरणों देखो, कर्मकी विचित्रगति । कहाँ तो दुर्गन्धयुक्त मे रहकर इन कर्म-फॉसोका नार-तार करूंगा । इनको अम्पृश्य और अछूत कन्या और कहाँ महान ऋद्धि- नि:सत्त्व करके आपके सदृश बनगा। मे मसार-वनी धारी स्वर्गका देव ! फिर कहाँ ये राजभोग, वैभव मे आज तक भ्रमा । हे प्रभो! हे स्वामिन | सिह ठाठ | जिनके अनेक स्त्रियाँ तथा कोमल शरीर । जिम होते हुए भी मै अपनको भूलकर गधोंकी टोलीम शरीरम राई और सरमों भी चुभती हो, जिनके नेत्रों- फैम गया और कुम्हारके डडे, अपनी ही भलग्न मसे आरतीक दीपकसे भी जल झरने लगे, जिनका अपनी ही मृग्वनासे, आज तक बाता रहा महान कोमल शरीर एक विशेष प्रकार के तंदल ही ह प्रभो । उबारो मुझ पतितको उबागे। अब मै चुन-चुनकर भक्षण कर सके । कितनी कोमलता। आपके चरणोंमे आया है। मुझं निरखो और अपना कितना गजमी-ठाठ ' वही मकमाल कुमार एक दिन संवक समझ मेरं कल्याण-मागकी जननी देव-दलभा इम शरीर, कुटुम्ब और भागोको अनर्थकारी समझ श्रीभगवनी जिनदीक्षा मुझे प्रदान करी । यही मुझ ममार और देहसे भयभीत हाकर और स्वका दासानुदासकी आपस प्रार्थना है। वे महाम योगी निरखकर एक मिहकी तरह-गर्जना करते है और परम वीतरागी, परम वात्मल्य-गुणधारी, धीर-वीर, अपनेको मम्बोधत है- मग्न तृन आज तक इन ऋपिवर अपन युगल नेत्रोंको सकुमालकी तरफ माना, स्त्री, धन-दौलत आदि भागोंके चक्करम घुमाते हैं और मधुर-कोमल शब्दों द्वारा कहते हैपडकर समम्त जीवन, ममस्त काल और ममम्त भावनाय व्यर्थ गवाई। अब तोचत । और अपनको 'हे वत्म ' नून प्रशमनीय विचार किया। नन पहचान तृ तो पूर्ण प्रभु है। इस कटक-पूर्ण मागका म्वका ममझ लिया और यह भी जान लिया कि त्याग कर । इन कम-फॉमंसि निकल । अन्यथा प्रान:- पूवल भवम .. पूर्वल भवम तेरी यह आत्मा पूर्ण दुगन्धसे युक्त काल हनिपर नृ यहॉम नहीं निकल मकंगा, इलिय अम्पृश्य (अछूत) कन्याक शरीरम बन्द थी। अब शीघ्रता कर । नृन होश किया । अब ही मही । अब भी तरी आयु यह विचार दृढ करते हीशीघ्रतासे ऊपरली खिडकी ३ दिवमकी हे, इमलिय तीन दिवमम ही तेरा कंगम्त धोता-दपलांकी कमन्द बनाकर बधीर-धार कल्याण होगा। तृ स्थिर हा स्वम समा जा। यह श्रीनीच आत है। उनका वह महान कोमल शरीर आज भगवती जिनन्द्र दीक्षा तंग कल्याण करेगी। कमन्दकी रगड़ोंको खाता हश्रा नीचे आता है और एमा कहकर वीतरागता धनी उन पर उपकारनीच श्रानपर वह पथरीली कंटक-सहित भूमिपर निग्न निग्रन्थ मुनिराजन मुकुमालको श्रीजिन-दीक्षास अपने युगल चरणोंको रख देता है । भूमिको छुते ही भूपित किया । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० अनेकान्त [वर्ष ९ प्रभु सुकुमाल, वे राजर्षि सुकुमाल श्रीभगवती निश्चल, निजरस्वरूप है, नित्यानन्द हैं, सत्यजिनदीक्षासे विभूषित होकर तुरन्त वनको विहार स्वरूप है , ममयमार है। और यह देह गलनरूप, रोग करते हैं और उनके पीछे-पीछे उनके चरणांस जो रूप, नाना आधि-व्याधियांका घर है । यह मेरी नहीं रुधिर बहता धारहा था उमको चाटते हुए उनके और न मै इमका है। कौन कह सकता है कि ऐसे पूर्वले भवकी लात खाई हुई भावजका जीव शृगाली ध्यानमग्न और उच्चतम आत्मीय भावनामे लीन और उसके दो बच्च नीना वहाँ पहुँच जाते है जहाँपर महामुनि सुकुमाल शृगालीक द्वारा खाये जाते हुए प्रभु सुकुमाल ध्यान-अवस्थाम-अग्लंड ध्यानमे निश्चल दुखी थे। नहीं, नहीं, शृगालीक द्वारा ग्वाये जाते हुए विराज रहे थे। व महामुनि दुखी नहीं थे, किन्तु उनका आत्मा प्रभुका शृगाली अपने बच्चों सहित चरणोंकी परम सुखी था । वता आत्माकी चैतन्य परिणतिम्प तरफसे चाटना शुरू कर देती है, चाटते-चाटते वह अमृतका पान कर रहे थे। आत्माका मुखानुभव भक्षण करना आरम्भ कर देती है, उधर दोनों बच्चे करनेम वेसं लीन थे कि शरीरपर लक्ष्य ही नहीं भी प्रभुको भक्षण करते है । इस तरह वे तीनों हिंस्र __ था। व अनन्त सिद्धांकी पक्तिम बैठकर आत्माके जन्तु उन महान मुनि श्रीमकुमाल म्वामीको तीन आनन्दामनका उपयोग कर रहे थे। दिवस पर्यन्त भक्षण करते रहे । भक्षण करते-करते इस प्रकार ध्यानमे लीन हो प्रभु इस नश्वरदहसे व प्रभुकी जंघा तक पहुँच गये। उधर प्रभ ध्याना- विदा होकर विदा होकर माधमिद्धि विमानम विराजमान हा मढ है। ध्यानम विचारते हैं-मैं तो पूर्ण ब्रह्मम्वरूप जात है, जहॉस एक मनुष्य पय्याय प्रापकरके उमी ह, आत्मा हैं , ज्ञानस्वरूप हूँ , ज्ञायक हैं , चिदानन्द भवसे मोक्षम पधारगे। धन्य इन महात्मा सुकुमाल हैं, नित्य है, निरञ्जन हें, शिव हैं . ज्ञानी है, अखड म्वामीका । मंग इन प्रभुवरको बारम्बार नमोस्तु । हैं, शुद्ध प्रान्मा हूँ, म्वयभू ३, अानन्दमयी है, ना० २.-४-४८ पं० रामप्रसादजी शास्त्रीका वियोग ! पं० गमप्रमादजी शास्त्री, प्रधान कार्यकर्ता ऐ, पन्नालाल दि जैन सरस्वती भवन, बम्बई' का चैत्र वदी २ रविवार ता० ११ अप्रैलको शाम ५ बजे अचानक म्वगवाम होगया। आप अर्मेस अम्वन्थ चल रहे थे । श्रापकं निधनसे ममाजकी बड़ी क्षति हुई है । आप बड़े ही मिलनमार थे और वीरसंवामन्दिरको समय-ममयपर भवनके अनेक प्रन्थोंकी प्राप्ती होती रहती थी। आपकी इस अमायिक मृत्युको मुनकर वीरसेवामन्दिर परिवारको बडा दुख तथा अफसोम हुआ। हम दिवगत आत्माके लिये परलोकमे मम्व-शान्तिको कामना करते हुए उनके कुटुम्बीज नोंके प्रति हार्दिक सम्वेदना व्यक्त करते है। -परमानन्द शास्त्री Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठीजीका अन्तिम पत्र (प्रेषक-अयोध्याप्रमाद गोयलीय ) [पुराने कागजात उलटते हुए मुझे स्वर्गीय भय पं० अर्जुनलाल जी सेठीका निम्न पत्र फुलिस्कैप श्राकारके छह पृष्ठोम पेसिलसे लिखा हुआ मिला । यह पत्र जिनको सम्बोधन करके लिखा गया है, उनका नाम और उन सम्बन्धी व्यक्तिगत बाने ओर कुछ राजनैतिक चर्चाएं जो अब अप्रासांगिक होगई है . छोड़कर पत्र ज्योंका त्या दिया जा रहा है। पत्रके नीचे उनके दस्तखत नहीं है। हालांकि ममूचा पत्र उन्हींका लिखा हुआ है। मालम होता है या तो वे स्वय इस कटे-छट पत्रको साफ करके भेजना चाहते थं या दूसरेसे प्रतिलिपि कराके भेजना चाहते थे । परन्तु जल्दीम साफ न होने के कारण वही भेज दिया । सम्भवतया जैनममाजको लक्ष करके लिखा गया उनका यह अन्तिम पत्र है, यान रहे यह पत्र मुझ नहीं लिग्वा गया था। पत्र मेरी मार्फत श्राया था इमलिये उन्हें दिग्वाकर भने अपने पाम मुरक्षित रग्ब छोटा था। लिया जासका नो मटीजीके सस्मरगा जी "अनेकान्त"के किमी अङ्कम देनेका प्रयत्न करगा। गायलीय अजमेर वाताकाश किस हद तक लौकिक और पारलौकिक १६ जुलाई १९३८ दोनों ही प्रकारका हित-माधक होगा, यह एक गहन धमे बन्धु, विचारणीय विषय है। इसी ममस्या और आशयको मंसारके मूलतत्वको अर्हत-कवली कथित अने- लेकर मै आपके मम्मुम्ब एक खुली प्रार्थना लेकर कान्त स्वरूपसे विचारा जाय और तदनुसार अभ्याम उपस्थित होता हैं और आपका विशेष ध्यान बालमें उसका अनुभव भी प्राप्त हो तो, स्पष्ट होजाता है सुखसं हटाकर अन्तम्तलकी तरफ ले जानेका प्रयाम कि प्रत्येक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपनी विशेषता करता हूँ। मुझे आशा है कि मेरे रक्त-माँम रहित शुष्क रखता है, और वैयक्तिक एव मामूहिक दोनों ही तन पिंजड़ेक कैदी आत्माकी अन्ननि आपके द्वारा प्रकारकं जीवनम परिवर्तन स्ववश हो चाहं परवश, जैनममाजियोंके बहिगत्मा और अन्तरात्मामे पहुँच अवश्यम्भावी होता है । यह परिवर्तन एकान्तसे जाय जो यथार्थ तत्वदर्शनकी प्रगति और मोक्षमिद्धि निर्दोष श्रेयस्कर ही होगा ऐसा नहीं कहा जामकता। म माधक प्रमाणित हो। कई अवस्थामे चैयक्तिकरूपमै और कतिपयमे आप ही को मै क्यों लिग्ब रहा हूं, आपसे ही मामूहिक रूपसे परिवर्तन अर्थात इन्कलाब हित और उक्त श्राशा क्या होती है, इसका भी कारण है। मेग कल्याणके विरुद्ध अवाञ्छनीय नहीं नहीं-विष जीवनभर जैनममाज और भारतवर्पक उत्थानमे फलदायक भी साबित होता है। मानव जातिका माधारणतया वाकशूर वा कलमशूरकी नरह नहीं मष्टिगत इतिहाम इमका मानी है । अतः भाग्नमें गुजग, मैन अमाधारण आकारके घन-पिण्डम परिवर्तन-इन्कलाबका जो शोर चहै ओर मच रहा अपना और अपने हृदय-मन्दिरकी दिव्य नपम्वीहै और जिसकी गूंज कोने-कोनमें सुनाई दे रही है, मुनियांका उबलना हुश्रा रक्त दिया है, जैनों और उससं जैनममाज भी बच नहीं मकता । परन्तु भारतीयोके उग्र तपोधन देवोंका प्रत्यक जीवन माग अनेकान्तदृष्टिम तथा अनेकान्ताप व्यवहारम जैन मम्वपर-भंट जनिन वामनाओंको भम्मीभूत करके ममाजके लिये उक्त परिवतन ध्वनिसे उत्पन्न हुआ मार्वहितके लनमे प्रगतिका क्रियात्मक मचालन किया Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अनेकान्त [ वर्ष ९ और कराया है। भारतवर्षीय जैन-शिक्षा-प्रचारक प्रताप', मदन, प्रकाश की जैसी राजनैतिक ममितिका सङ्गठन स्वर्गीय दयाचन्द्र गोयलीय और आत्मोत्सर्गी च कड़ियाँ मेरे सामने इस असमर्थ उनके वर्ग के अन्य मत्यहदयी कार्यकता-मोती', दशामें भी चिर आराध्य-पदपर आसीन है। प्रात:१ स्वर्गीय वीर-शहीद मोतीचन्द सेठीजीके शिष्य थे। स्मरणीय आदर्श पण्डित-राज गोपालदासजी वरैया, उन्हें श्राराक महन्तको वध करनेके अभियोगमे दानवीर सेठ माणिकचन्द्र और महिला-ज्योति मगन (सन् १९१३)में प्राण दण्ड मिला था। गिरफ्तारीसे बहनके आदि के नेतृत्व-मण्डलका मैं अंगीभूत पुजारी पूर्व पकडे जानेकी कोई सम्भावना नहीं थी। यदि अद्यावधि हूँ और पर्देकी अोटमे उन सबकी सत्ताशिवनारायण द्विवेदी पुलिसकी तलाशी लेनेपर वाटिकाका निरन्तर भोगी भी हूँ और योगी भी। स्वयं ही न बहकता तो पुलिसको लाख सर पटकने कौन किधर कहाँसे यहाँ क्या और वहाँ क्या इत्यादि पर भी सुराग नहीं मिलता। पकडे जानेसे पर्व प्रत्यक प्रश्नके उत्तरमे मेरे लिये तो उक्त दिव्य महासेठीजी अपने प्रिय शिष्योंके साथ रोजानाकी मोतीचन्द और दूसरेका नाम था माणिकचन्द्र या तरह घूमने निकले थे कि मोतीचन्दने प्रश्न किया जयचन्द्र। इन सभी विलवियोंके मनके तार ऐसे 'यदि जैनीको प्राणदण्ड मिले तो वे मृत्युका ऊँचे सुरमे बंधे थे जो प्रायः माधु और फकीरोंके आलिङ्गन किम प्रकार करे ?' बालकके मुंहस ऐमा बीच ही पाया जाता है। वीगेचित किन्तु अमामयिक प्रश्न सुनकर पहले तो १ प्रतापसिंह वीर-कमरी ठाकुर कैमरमिहके सुपत्र सेठीजी चौके, फिर एक माधारण प्रश्न समझकर और मठीजीक प्रिय शिष्य थे। संठीजीके उपदेश उत्तर दे दिया। प्रश्नोत्तरके १ घण्टे बाद ही पुलिस परमं ये उम समयके सर्वाच्च क्रान्तिकारी नेता ने घेरा डालकर गिरफ्तारकर लिया, तब सेठीजी म्वर्गीय रामविहारी बोमके सम्पर्कमे रहते थे। उनकी मृत्युसे वीरोचित जमने की तैयारीका अभि- इनके जांबाज कारनामे और आत्मोत्मगकी वीरप्राय ममझे। ये मोतीचन्द महाराष्ट्र प्रान्तके थे। गाथा 'चाँद' वगैरहमे प्रकाशित हो चुकी है। इनकी मृत्युसे मेठीजीको बहुत आघात पहुँचा था। २ मदनमोहन मथुरासे पढ़ने गये थे। इनके पिता इनकी स्मृतिस्वरूप सेठीजीने अपनी एक कन्या सराफा करते थे। सम्पन्न घरानके थे। सम्भवतः महाराष्ट्र प्रान्त जैसे सुदूर देशम ब्याही थी। सेठी इनकी मृत्यु अचानक ही होगई थी। इनके छोटे भाई जीके इन अमर शहीद शिष्योंक सम्बन्धमं प्रसिद्ध भगवानदीन चौरासीमे ११-१४-१५मे मेरे साथ विलववादी श्री० शचीन्द्रनाथ सान्यालने "बन्दी- पढ़ते रहे हैं, परन्तु मदनमोहनके सम्बन्धमे कोई जीवन" द्वितीय भाग पृ० १३७में लिखा है- बात नहीं हुई। बाल्यावस्थाके कारण इस तरहकी "जैनधर्मावलम्बी होते हुए भी उन्होंने कर्तव्यकी बाते करनेका उन दिनों शऊर ही कब था ? खातिर देशकं मङ्गलके लिये सशस्त्र विलवका मार्ग ३ प्रकाशचन्द सेठीजीके इकलौते पुत्र थे। सेठीजी पकड़ा था। महन्त के वृनके अपराधम वे भी जब की नजरबन्दीके समय यह बालक थे। उनकी फाँसीकी कोठरीमे कैद थे, तब उन्होंने भी जीवन- अनुपस्थितिमे अपने-परायोंके व्यवहार तथा आपमरणके वैसे ही मन्धिस्थलसे अपने विसवक दाओंके अनुभव प्राप्त करके युवा हुए । सेठीजी साथियों के पास जो पत्र भेजा था, उसका सार ५-६ वर्षकी नजरबन्दीसे छूटकर आये ही थे कि कुछ ऐमा था-"भाई मरनेसे डरे नही, और उनकी प्रवास-अवस्थामें ही अकस्मात मृत्यु होगई। जीवनकी भी कोई माध नही है। भगवान जब सेठीजीको इमसे बहुत श्राघात पहुँचा । इन्हीं जहाँ जैसी अवस्थाम रक्खेगे, वैसी ही अवस्थामे प्रकाशकी स्मृति-स्वरूप इनके बाद जन्म लेने वाले सन्तुष्ट रहंगे।" इन दो युवकोंगसे एकका नाम था पुत्रका नाम भी उन्होंने प्रकाश ही रक्खा। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] सेठीजीका अन्तिम पत्र १६३ ............. पुरुषोंकी आत्माएँ ही अचक परीक्षा-कसौटीका काम वा अव्यवहार्य, लाभप्रद वा हानिकर इत्यादि अनेक देती हैं, चाहे उस समयमें और अब जीवोंके परिणाम रूप-रूपान्तरमे मौजूद हैं। उनमेसे प्रत्येकका तथा और लेश्याओंमें जमीन आस्मानका ही अन्तर क्यों उनसे सम्बन्ध रखने वाली घटनाओंका गृहस्थ तथा न हो गया हो। त्यागी, श्रावक-श्राविकाओंके दैनिक जीवनपर एवं सतनामें परिषदका अधिवेशन पहला मौका था मन्दिर-तीर्थों अथवा अन्य प्रकारकी नूतन और तब उल्लेखनीय जैनवीर-प्रमुख श्री........................ पुरातन मम्थाओंपर पड़ा है, वह भी आपके सम्मुख के द्वारा आपसे मेरी भेट हुई थी। मै कई वर्षोंके है। मै तो प्रायः सबमे होकर गुजर चुका है, और उपयुक्त मौनामहनतके बाद उक्त अधिवेशनमे शरीक उनके कतिपय कड़वे फल भी खूब चाख चुका है और हुआ था । इधर-उधर गत-युक्तके सिंहावलोकनक चाम्व रहा हैं। अत आपका और श्रापकं महकारी पश्चात मै वहाँ इस नतीजेपर पहुंच चुका था कि आप कार्य-कर्ताओंका विशेष निर्णायक लक्ष इस पर म मत्य-हृदयता है और अपने महधर्मी जैनबन्धुओं अनिवार्य-अटल होना चाहिये। नहीं तो जैन सङ्गठन के प्रति आपका वात्मल्य ऊपरकी झिल्ली नहीं है किन्तु और जैनत्वकी रक्षाके ममीचीन ध्ययम केवल वाधाएँ रगोरेशेमे खौलता हुआ ग्वन है परन्तु तारीफ यह है ही नहीं आएंगी, धक्का ही नहीं लगगे, प्रत्युत नामाकि ठोम काम करता है और बाहर नहीं छलकता। निशान मिटा देने वाली प्रलय भी होजाय ता मानव जानिक भयावह उथल-पुथलके इनिहामका देखते __इस तरह मुझे तो दृढ प्रतीत होता है कि आपके हुए कोई असम्भव बात नहीं है । अल्पसंख्यक मामने दि मै जैनसमाजके आधुनिक जीवन-मत्वक जातियोको पेर फूक-फककर चलना होता है और सम्बन्धमे मेरी जिन्दगी भरकी मुलझाई हई गत्थियों बहुसंख्यक जानियोक बहुत आन्दोलन जो उन्हीको को रख दें तो आप उनको अमली लिबासमे जहर उपयोगी होत है. अल्पसंख्यकोंमे घुम जाते है और रख सकेगे। अपक्षा-विचारसे यही निश्चयम श्राया। उनके लिये कारक होनकी अपेक्षा मारकका काम देत बन्धुवर, है। उनकी बाहरी चमक लुभावनी होती है, कई आपने राष्ट्रीय राजनैतिक क्षेत्रके गुटोंमे घुल-घुल हालतोमे तो आँखोंम चकाचौध पदाकर देती है, कर काम किया है, उसकी रग-रगसे आप वाकिफ मगर वास्तवम (Old is not god glittहरेक हो चुके है और तजरुबसे आपको यह स्पष्ट हो चुका चमकदार पदार्थ सोना ही नहीं होता। बहसंख्यक है कि हवाका रुख किधरको है। इसीसे परिणाम लोगांकी तरफसे मस्त्रमली खूबसूरत पलामे ढके स्वरूप आपने निर्णय कर लिया कि जैनंतरोकी ज्ञात हुए खड़े विचारपूर्वक वा अन्तस्थित पीढ़ियों के वा अज्ञात भक्ष्य-भक्ष्यक प्रतिद्वन्द्विताके मुकाबिलेमे स्वभावज चक्रमे तैयार होते रहते है जिनके प्रलोभन सदियों के मारे हए जैनियोंके रग-पट्रांम जीवन-संग्राम और ललचाहटमे फैमकर अल्पमव्यक लोग शत्रको और मूल संस्कृतिकी रक्षाकी शक्ति पैदा हो सकती है ही मित्र समझने लगते है, यही नहीं; किन्तु अपने तो केवल उन्हीं साधनों और उपायोंसे जो दुमरे मत्व-स्वत्वकी रक्षाका नयाल तक छोड़ बैठते है। लोग कर रहे है अथवा जिनमे बहुत कुछ मफलना किमाधिकम इम म्व-रक्षणकी भावना वासना भी जैनोंके महयोगसे मिलती है। .. .. ... ............... उनको अहितकर जॅचने लगती है । इसके अलावा आपके सामने आधुनिक काल-प्रवाहके भिन्न- भावी उदयावलीके बल अथवा यों कहै कि कालदीप भिन्न आन्दोलन समूह धार्मिक वा मामाजिक, में प्रभागे अल्पसंख्यकोंमेमे कोई कस जैसे भी पैदा वाञ्छनीय वा अवाञ्छनीय, हेय वा उपादेय, उपेक्षणीय होजाते हैं जो अपने घरके नाश करनेपर उतार वा अनपक्षणीय, आदरणीय वा तिरस्कार्य, व्यवहार्य होजाते हैं. गैगेंके चिगरा जलाते है और पर्वजोंक Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय वीर - जयन्ती गत वर्षोंकी तरह इस वर्ष भी चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को वीर प्रभुकी जयन्ती समूचे भारत में अत्यन्त उत्साहपूर्वक मनाई गई। इस वीर जयन्तीकी प्रणाली से जैनधर्मका काफी प्रसार हुआ है। पहले जैनसमाज के उत्सव आदि अत्यन्त संकुचित रूपमें होते थे । प्रायः जैनमन्दिर, जैनधर्मशाला और जैन उपाश्रय ही उत्सव और व्याख्यानादिकं क्षेत्र नियत थे । सार्वजनिक सभाओंके करनेका न तो आमतौर पर साहस होता था और न इस तरहके व्याख्यानथे दाता ही प्राप्त 1 वीर जयन्तीकी यह परिपाटी पड़ जानसे बड़ा महत्वपूर्ण कार्य हुआ है । इस अवसर पर अब प्रायः सर्वत्र सार्वजनिक स्थानोंपर सभाएँकी जाती है, कवि सम्मेलनों मुशायरोंका भी आकर्षक कार्यक्रम रखा जाता है; सर्वधर्म सम्मेलन किये जाते है; नगरजुलूस निकाले जाते है और व्याख्यान देनेके लिये नेताओं-लोकसेवी विद्वानोंको भो बुलानेका प्रयत्न किया जाता है। कितने ही स्थानोंपर जैनधर्मके समीपके सम्प्रदायोंके अनुयायी भेदभाव भूलकर यह उत्सव मनाते हैं और अपने भिन्नधर्मी देशवासियों को भी प्रेमपूर्वक उसमे सम्मिलित करते है । घरको अंधेरा नरक बना देते है । ............इस तरह जैनकुलाम, जैनपखायनों मे, जैनगृहों में चलती चलाती ठण्डी पड़ी हुई अम्नाश्रम कलह, भीषण क्षोभ, और तत्कालस्वरूप तीत्र कषायोदय और अशुभ बन्धकं अनेक निमित्त कारणोंसे बचाकर जैनोका रक्षण, मगठन और उत्थान होगा, तभी इस समयकी लपलपाती हुई अनेकान्त-नाशक जाज्वल्यमान दावाग्निस जैनधर्म और जैनमस्कृति स्थिर रहेगी । इस प्रयत्न से भ्रातृत्व की भावना बढ़ती है, जैन धर्मके प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होती है, फैली हुई 'अ भ्रामक धारणाएँ दूर होती हैं और जैनधर्मके मानवोचित सिद्धान्तोंका व्यापक प्रसार होता है । अब वीर जयन्ती के समान और भी सार्वजनिक तथा व्यापक दृष्टिकोण वाले उत्सवोंकी परिपाटी डालनी चाहिये। वीरसेवामन्दिर द्वारा वीर-शासन- जयन्तीका आयोजन भी इसी तरह का पुण्य प्रयास है। अब इसका व्यापक प्रचार होनेकी नितान्त आवश्यकता है । कलकत्ता, बम्बई मे पर्युषण पर्वपर व्याख्यानमाला की सूम भी अभिनन्दनीय है । आशा हँ 'जैन समाज के बहुजनता वाले शहरों - इन्दौर, अजमेर, व्यावर, जयपुर, सहारनपुर, देहली, जबलपुर, अहमदाबाद आदिके उत्साही कार्यकर्ता इस प्रथाका अनुसरण करेंगे । १५-२० शहरोंके कार्यकर्ताओं की एक समिति बन जानी चाहिये, जो सार्वजनिक २०-२५ व्याख्यानदाताओं का निर्वाचन करके इस तरहका कायक्रम निर्धारित करे जिससे ये विद्वान् १० शहरोंमे निरा कुलता पूर्वक जाकर पर्युषण पर्वमे व्याख्यान दे सके । इस संगठित प्रणालीसे व्यय भी कम होगा और स्थानीय कार्यकर्ता विद्वानों के बुलाने आदि की मंझट से भी बच सकेगे। दस रोज़ एकसे एक नये विद्वान्का व्याख्यान सुननेके लिये जनता भी उत्साहित रहेगी और जैनधर्मको धीरे-धीरे सार्वजनिकरूप भी प्राप्त होगा । भारतके लोकोपयोगी और सार्वजनिक कार्योंम जैनों का सदैव भरपूर सहयोग रहा है। हर उन्नत कार्योंमे सर्वत्र जैनोंने हाथ बटाया है, फिर भी वे सार्वजनिक दृष्टिकोण मे कितने उपेक्षित है, यह आभास पग-पग पर होता है । इसका कारण यही है कि हमने इस विज्ञापन के युगमे जैनधर्मके सिद्धान्तोंको जनताकं सामने लानेका Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहित्य-परिचय और ममालोचन ठीक-ठीक प्रयत्न नहीं किया । न हमने जैनधर्म होगे। उनके मोन-चाँदीके चंवर-छतर-उपकरण तथा सम्बन्धी कोई ऐमा ग्रन्थ निर्माण किया जिसमे वर्तमान पूजा-पद्धति ही जैनधर्मके व्यापक प्रचारका जनता जैनधर्मके व्यापकरूपको समझ सके न हमने रोकती है। जैनधर्मके मन्दिर एसे होने चाहि कि जैनधर्मानुयायी प्राचार्यों, कवियों, राजाश्रो, सेना- जहाँ न चौकीदारकी आवश्यकता रहे, न पुजारीकी नायकों, शूरवीरों और कर्मवीराका प्रामाणिक इति- और न ताले-कुञ्जीकी । एक ऐसी प्रामफहम (सबकी हाम ही प्रकाशित किया है; न हमन जैन-चित्रकलाका ममझम पाने योग्य) दर्शन-पूजा-पद्धति हम चालू परिचय दिया है और न हमने अपने लोकसवी कार्य- करनी होगी जो मानवमात्रके लिये उपयोगी हो मक। काओंका ही उल्लेख किया है। फिर किम आधार हर मनुष्य भगवानकी शरणम जा सक, हमे इम पर और किम विशंपनापर लोग जैनधर्मकी ओर ओर अविलम्ब प्रयत्न करना होगा। प्राकर्षित हो और क्योंकर मार्वजनिकम्पमे जनताक दियो पर्व श्रवणबेलगोलमे भगवान बाहालकी मामने उल्लेख हो। मृतिका निर्माण करके हमारे पगक्रमा पूर्वजान हमा इस विज्ञापनक युगमे विज्ञापन के बलपर जापानी मामन एक आदश रख दिया था और बना दिया था मोटशन घर-घर पहुँच सकते है और विज्ञापनका किजिम नीति माधन न मिलनस हीरे-मोती बक्मामे रखे धृल जो न मानेन फॉकत रहते है। मूर्तिक आगे वे भी नतमस्तक हांगे जो हीरे-जवाहअन' आवश्यकता इस बात की है कि जैनममाज रानकी मृतियाम भी प्रभावित नहीं होन है। हम इस अपने मंकुचिन सम्प्रदायकं गडढसे निकलकर जन व्यापक और महान आदशको न समझ पा और धर्मक मत्य-अहिमा-अपरिग्रह वादका सार्वजनिकरूप हमने वीतराग भगवान और जिनवाणी मानाका में विशंपण करं। हमारे माधु, मुनिगजाका अब तालोग बन्द करके रख दिया। उपाश्रय और मन्दिरकी मचित चारदीवारीम निकलकर आम जनताके मामन अपने दिव्य उपदेश टानाम पानगर (1) दने चाहि । हम अपन मन्दिगक पगने ढङ्ग बदलन अपंत ४८ साहित्य परिचय और समालोचन १ आदिपुराण [बन्दोबद्ध] प्रमङ्गवश अन्य कथाओंको भी दिया गया है। प्रन्थ म २० मग है जिनकी नोक सख्या चार हजार लेखक, कवि श्रीतुलसीरामजी देहली। प्रकाशक, छहमा अट्राईम बतलाई गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ विक्रम मूलचन्द किसनदासजा कापड़िया, चन्दावाड़ा, की १५वीं शताब्दीक विद्वान् भट्रारक मकलकीतिक मृरत । पृष्ठ संख्या ३८४ मूल्य ४) रुपया। मंस्कृन आदिपुगगाका हिन्दी पद्यानुवाद है। प्रन्धम इम ग्रन्थका विषय इमकं नामसे प्रसिद्ध है। चौपई, पद्धडी, घत्ता, दोहा, भुजङ्गप्रयान, मन्दाइसमे जैनियोंके प्रथम तीर्थङ्कर भगवान आदिनाथका, क्रान्ता, अडिल्ल, मानियादाम आदि विविध छन्दोंका जिन्हे भागवतके पश्चम म्कन्धम ऋपावतारकं नाममे उपयोग किया गया है । कविता माधारमा हात हा भी उल्लेखित किया गया है, जीवन-परिचय दिया हुआ वह भावपूर्ण है। इस पद्यानुवादक का ५० तुलमीहै। साथ ही उनके पूर्वभवांका चित्रण करते हुए गमजी है जा दिल्ली के निवासी थे, जो धर्मामा, Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ भनेकान्त [वर्ष ९ मजन तथा उदार प्रकृति के थे, और ममाजक कार्यों में हुई महाजनांकी गृहीजीवनकी त्याग और ममुदार मदा भाग लिया करते थे। इनका ४० वर्षकी अल्प भावनाको प्रकट करती है। लेखकने इममें पर्याप्त वयमें ही मवन १९५६म म्वर्गवाम हुया है इम परिश्रम किया है और वह अपने कार्यमे मफल भी ग्रन्धकी प्रस्तावनाकं लग्बक प० ममेरचन्दजी न्याय- हुआ है। इस पुस्तककी प्रस्तावनाके लेखक भागव तीर्थ उन्ननी है। प्रस्तावनाम ऐतिहामिक दृष्टिसे विट्ठल वरेरकर है, जो मामा वरेरकरके नामसे मिद्ध भगवान ऋषभदेवके जीवनपर विचार किया होता है और मराठी वाङमयके मफल लेखक हैं। छपाई तथा ग्रन्थकी कविता और भाषा आदिके सम्बन्धमे मफाई अच्छी है, परन्तु मूल्य कुछ अधिक जान आलोचनात्मक दृष्टिसे विचार किया जाता तो प्रन्थ की पड़ता है। उपयोगिता और भी अधिक बढ़ जाती। श्रन्तु ३ टोडरमलाङ्क [विशेषाङ्क] इम प्रन्थक प्रकाशक मृलचन्द किमनदामजी कापड़िया है जिन्होंने ब्रह्मचारी शीतलप्रमाद जीके ___ मम्पादक, प. चैनसुग्वदाम न्यायतीर्थ और ५० म्मारक फण्डम प्रकाशित किया है। और इस तरह भंवरलाल न्यायतीथ, मनिहागेका रास्ता, जयपुर। ब्रह्मचारीजीकी कीर्तिको अक्षुण्ण बनाने का प्रयत्न वार्षिक मूल्य ३) २० । इस अङ्कका मूल्य २) रुपया। किया है, परन्तु इम प्रन्थके प्रकाशमे लानेका मबसे प्रस्तुत अङ्क वीरवाणीका विशेषाङ्क है जो प्राचार्यप्रथम श्रेय बाय पन्नालालजी अग्रवाल दहलीको है कल्प प० टोडरमलजीकी स्मृतिम निकाला गया है। जिन्होंने इसका प्रेम कापी स्वय करके भेजी है। आप इसमे पं० जीके जीवन-परिचयके साथ उनके कार्योंका बहुत ही प्रेमी सज्जन है, आपको अप्रकाशित साहित्य मंक्षिप्त परिचय भी कराया गया है। यद्यपि पण्डित के प्रकाशम लानका बड़ा उत्साह है। अतएव दोनों जीक व्यक्तित्व एवं पाण्डित्यके सम्बन्धमे खामा ही महानुभाव धन्यवादकं पात्र है। पस्तकमे प्रम मोटा पन्थ लिया जा सकता है, इमसे पाठक महज मम्बन्धी कुछ अशुद्धियाँ रह गई है फिर भी प्रन्थ ही में जान सकते है कि वे कितने महान थे समाजपठनीय है। म उनके ग्रन्थोंक पठन-पाटनका अच्छा प्रचार है। अतएव उनके नामसं जनता पर्गिचत ती थी; किन्तु २ महाजन ऐतिहासिक उपन्याम] उनके जीवन-चरितसे प्राय अपर्गिचत थी। अतएव लेखक. कृष्णलाल वर्मा । प्रकाशक, बलवन्तसिंह इस दिशाम पं० चैनसुखदामजीक प्रयत्नस्वरूप वीरमहना, माहित्य कुटीर मानाशेरी, उदयपुर । पृष्ट वाणीका यह विशेषाङ्क अपना ग्वामा महत्व रखता मच्या १४६। मृल्य जिल्द प्रति २।।) रुपया। है। परन्तु अङ्ककी माधारण छपाई-मफाई तथा प्रफ प्रस्तुत पुस्तक एक तिहामिक उपन्याम है सम्बन्धी कुछ अशुद्धियोको देग्यकर दुःख भी होता जिममे गुजगनके बादशाह मुहम्मद बेगड़ाके ममय है, कि क्या जनममाज अपने पूर्वजोंके उपकारको वि०म० १५०- ५५६८क मध्य घटने वाली घटना- भूल गई है? जो सुवर्णाक्षरोंमें अङ्कित करने योग्य का चित्रण है, जो गुजरातकं समय खेमा संठ द्वारा है। सचमुच वीरवाणीने अपने थोड़े ही समयमे एक वर्ष तक दिय हुए अन्नदान और उसके उपलक्षम अच्छी प्रगति की है। प्राशा है भविष्यमे अपनेको मुहम्मद बेगड़ाद्वारा प्रदान की हुई 'शाह' पदवी वद्द और भी समुन्नत बनानेका प्रयत्न करेगी। आदिको उपन्यासका रूप दिया गया है। पुस्तक अकालकी समस्याको सुलझानका मार्ग प्रदशन करती परमानन्द जैन सांधेलीय Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ काशी के प्रकाशन १. महाबन्ध - ( महधवल सिद्धान्तशास्त्र) प्रथम भाग | हिन्दी टीका सहित मुल्य १२) । ७. मुक्ति दूत --- अञ्जना - पवनञ्जयका पुण्यचरित्र (पौराणिक गैमॉम) मृ० ४ ॥ ८. दो हजार वर्षकी पुरानी कहानियां - (६४ जैन कहानियों) व्याख्यान तथा प्रवचनोंमें उदाहरण योग्य | मूल्य ३) । ० पथचिह्न ( हिन्दी साहित्यकी अनुपम पुस्तक ) स्मृति रेखाएं और निबन्ध | मूल्य २) । २. करलक्खण- (मामुद्रिक शास्त्र) हिन्दी अनुवाद सहित | हस्तरेखा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ | सम्पादक-- प्रो० प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम० ए०, अमरावती । मूल्य १) । ३. मदनपराजय- कवि नागदेव विरचित (मूल संस्कृत) भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावना सहित। जिनदेवके कामके पराजयका सरस रूपक | सम्पादक और अनुवादक पर राजकुमारजी मा० । मृ८) ४. जैनशासन - जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करने वाली सुन्दर रचना | हिन्दू विश्वविद्यालयके जैन रिलीजनक एफट एट के पाठ्यक्रम निर्धारित । मुखपृष्ठपर महावीरस्वामीका तिरङ्गा चित्र । मूल्य ४ ।-) ५. हिन्दी जैन - साहित्यका संक्षिप्त इतिहास - हिन्दा जैन साहित्यका इतिहास तथा परिचय | मूल्य २|| | ) | ६. आधुनिक जैन कवि - वर्तमान कवियोका कलात्मक परिचय और सुन्दर रचनाएँ । मुल्य ३|| ) | १०. पाश्चात्यतर्क शास्त्र ( पहला भाग ) एक० ए० के लॉजिक के पाठ्यक्रमकी पुस्तक | लेखक-भिक्षु जगदीशजी काश्यप, एफए, पालि- अध्यापक, हिन्दु विश्वविद्यालय, काशी। पृष्ठ २८४ मूल्य ४|| ११. कुन्दकुन्दाचार्य के तीन ग्रनमूल्य : ) । १२. कन्नडप्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थ सूची (हिन्दी) मूडबिद्रीके जैनमठ, जैनभवन, सिद्धान्तवर्साद तथा अन्य प्रन्थ भण्डार कारकल और अलिपर के अलभ्य ताडपत्रीय प्रन्थोंक सविवरण परिचय | प्रत्येक मन्दिर मे तथा शास्त्र भण्डार मं विराजमान करने योग्य । मुल्य ४९ ) । वीरसेवामन्दिरके सब प्रकाशन भी यहाँपर मिलते हैं प्रचारार्थ पुस्तक मँगाने वालोंको विशेष सुविधाएं भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. A-731 कीरसेवामन्दिरके नये प्रकाशन - - - १ नियमावना--yा श्रागसकिशा जा ६ न्याय-दीपिका (महत्वका नया सस्करण) के हिन्दी पयानुवाद और भावार्थ सहित । इष्टवियोगादिके न्यायाचार्य पं. दरबारीलालनी कोटिया द्वारा सम्पादित कारण कैसा ही शोक मन्तम हृदय क्यों न हो, इसको एक और अनुवादित न्यायदीपिकाका यह विशिष्ट संस्करण भार पढ लेनेसे बड़ी ही शान्तताको प्रास हो पाता है। अपनी. खास विशेषता रखता है। अबतक प्रकाशित इसके पाठसे उदासीनता तथा खेद दूर होकर चित्तमें संस्करणोंमे जो अशुद्धियाँ चली श्रारही पी उनके प्राचीन प्रसन्नता और सरसता प्राजाती है। सर्वत्र प्रचारके प्रतियोपरसे संशोधनको लिये हुए यह सस्करण मूलमन्थ योग्यी । मूल्य ।) और उसके हिन्दी अनुवाद के साथ पाक्कथन, सम्पादकीय, . प्राचार्य प्रभाचन्द्रका सस्वार्थसूत्र-नया १०१ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावना, विषयसूची और कोई प्रास संक्षित सधगन्ध, मुख्तार भीजगलकिशोरजीकी परिशिष्टोंसे संकलित है, साथ सम्पादक-द्वारा नवनिर्मित सानुवाद म्याख्या सहित । मूल्य ।) 'प्रकाशाज्य' नामका एक संस्कृत टिप्पण भी लगा हुअाहे, खो ग्रन्थगत कठिन शब्दों तथा विषयोको खुलासा करता ३ मत्साधु-स्मरण-मालपाठ-मुख्तार श्री हा विद्यार्थियों तथा कितने ही विद्वानोंके कामकी चीज जुगलकिशोरजीकी अनेक प्राचीन पद्योंको लेकर नई योजना, सुन्दर हृदयमाही अनुवादादि-सहित । इसमें भीवीर. है। लगभग ४०० पृष्टों के इस मजिल्द वृहत्संस्करणका पमान और उनके बादके, जिनसेनाचार्य पर्यन्त,२१ लागत मूल्य ५) रु. है। कागजकी कमीके कारण थोड़ी महान् प्राचार्योंके अनेकों प्राचार्यों तथा विद्वानों द्वाग ही पतियाँ छपी हैं और थोड़ी ही अवशिष्ट रह गई है। किये गये महत्वके १३६ पुण्य स्मरणोंका सग्रह है और . अतः इच्छुकाको शीघ्र ही मँगा लेना चाहिये । मो . . . विवाह-समुडेश्य-लेखक प० जुगलकिशोर साधुवेषनिदर्शन-जिनस्तुति, ४ परमसाधुमुखमुद्रा और मुख्तार, हालमें पूकाशित चतुर्थ सस्करण । ५सत्साधुवन्दन नामके पाँच प्रकरण है। पुस्तक पढते यह पुस्तक हिन्दी-साहित्यम अपने ढगकी एक ही समब बड़े ही सुन्दर पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं और चीज है। इसमें विवाद-जैसे महत्वपूर्ण विषयका बड़ा ही साथ ही प्राचार्योंका कितना ही इतिहास सामने प्राजाता मार्मिक श्रीर तास्विक विवेचन किया गया है। अनेक है। नित्य पाठ करने योग्य है। मू॥) विरोधी विधि-विधानों एव विचार पत्तियों से उत्पन्न हुई ४ अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड-यह पञ्चाध्यायी विवाहकी कठिन और जटिल समस्याश्रीको बढी युक्तिय तथा लाटी संहिता आदि प्रन्थोंके कर्ता कविघर राजमल्ल साथ दृष्टिके स्पष्टीकरण-द्वारा सुलझाया गया है और हम की अपूर्व रचना है। इसमें अध्यात्मममुद्रको कृजेमें बन्द तरह उनमें दृष्टिविरोधका परिहार किया गया है। विवाह किया गया है। माधौ न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजी क्यों किया जाता है ? धर्मसे, समाजसे और गृहस्थाश्रम कोठिया ओर पपिडत परमानन्दजी शास्त्रीका सुन्दर से उसका क्या सम्बन्ध है । वह कब किया जाना चाहिये अनुवाद, विस्तृत विषयसूची तथा मुख्तार श्रीजुगलकिशोर उसके लिये वर्थ श्रीर बालिका क्या नियम होमकताहै। बीकी लगभग ८० पेजकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना है। विवाह न करनेसे क्या कुछ हानि-लाभ होता है? बड़ा ही उपयोगी ग्रन्थ है। मु. ११) इत्यादि सतोंका इस पुस्तक में बड़ा ही युक्ति-पुरस्सर एवं दयग्राही वर्णन। नदिया पार्ट पेपरपर छपी है। ५ उमाखामि-भावकाचार-परीक्षा-मुख्तार बाबुगल किशोरजीकी ग्रन्थपरीचानोका प्रथम अंश, विवाहोंके अवसरपर वितरण करने योग्य है। मू.) प्रम्प-परीक्षाओंके इतिहासको लिये हुये १४ पेमकी नई प्रकाशन विभागप्रस्तावना-साहित । ) वीरसेवामन्दिर, मरसावा (महारनपुर) प्रकाशक-40 परमानन्द जैन शास्त्री भारतीय ज्ञानपीठ काशीके लिये श्राशागम वत्री दाग गॅयल प्रेस महारनपुरमें मुद्रित Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनेकान्त बैशाख, संवत् २००५ :: मई, सन् १९४८ सस्थापक-प्रवर्तक बीरसेवान्दिर, सरसावा वर्ष , ★ किरण ५ सञ्चालक म्यवस्थापक भारतीय ज्ञानपीठ, काशी सम्पादक-मंडल जुगलकिशोर मुख्तार प्रधान सम्पादक मुनि कान्निमागर दरबारीलाल न्यायाचार्य अयोध्याप्रसाद गोयलीय डालमियानगर (बिहार) साधु-विवेक असाधु वस्त्र रँगाते मन न रँगाते, कपट-जाल नित रचते हैं; 'हाथ सुमरनी पेट कतरनी', पर-धन-वनिता तकते हैं। आपा - परकी खबर नहीं, परमार्थिक बाते करते हैं; ऐसे ठगिया माधु जगतकी, गली-गलीमें फिरते हैं। साधु राग, द्वेष जिनके नहि मनम, प्रायः विपिन विचरते हैं; क्रोध, मान, मायादिक तजकर, पञ्च महाव्रत धरते हैं। झान - ध्यानमे लीन-चित्त, विषयोंमे नहीं भटकते हैं; ये हैं साधु, पुनीत, हितैषी, तारक जो खुद तरते हैं। -प० दलीपसिह कागजी - ___IDEO PAPER VVVVVVVVVVVVV VVVVVVVVVAHININNEL AAMAA HINil. VVVVVVC EVVVIVE AAMANANHAIAIAile Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची विषय १६७ १६८ १६९ १८१ १८२ १८३ १ सम्यग्दृष्टि-स्व. कवि बनारसीदास २ परमात्मराम-स्तोत्र (बीपअनन्दि मुनिकृत) ३ समवसरण में शद्रोंका प्रवेश-[प्र. सम्पादक ३ वर्णाजीका हालका एक आध्यात्मिक पत्र ५ कुत्ते (कहानी)-[गोयलीय ६ त्यागका वास्तविक रूप-[पं० भीगणशप्रसाद वर्णी ७ ममय रहते मावधान (कविता)--[स्व. कवि भूधग्दास ८ सगीतपुरके मालुवेन्द्र नरेश और जैनधर्म-[बा. कामताप्रमाद ६ जैनधर्म बनाम ममाजवाद-[पं. नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य १. सन्मति विना विनाद-जुगलकिशार मग्नार ११ मुजफ्फरनगरका परिषद् अधिवेशन -[ या माईदयाल बी. ए. १२ बनाईशाके पत्रका एक अश[बा० ज्योनिप्रमाद जैन १३ पाकिस्तानी पत्र-[गोयलीय १४ मादकीय [श्रयायाधमाद गोयलीय १५ कथित स्वोपज भाष्य--[-बा० ज्यानप्रसाद एम. ए. UUM... a. .br वीरशामन जयन्ती मनाइये श्रावण कृष्ण-प्रतिपदाकी पुण्यतिथि प्रारही है इम वर्ष आगामी २ जुलाई १९४८ बृहस्पतिवार- महत्व है । भारतवर्षमें पहले वर्षका प्रारम्भ इमी को श्रावणकृष्णाप्रतिपदाकी पुण्य - निथी अथात दिनसे हुश्रा करता था। वीरशासनजयन्नी अवतरित हो रही है । इम दिन इस तरह यह पुण्यतिथि-वीरशासन जयन्तो भगवान महावीर का तीथ (शासन) प्रतित हुआ था- सभीके द्वारा समारोह के माथ मनाये जानेके योग्य इसी दिन उन्होंने अपना लाक-कल्याणकारी सर्वप्रथम है। सब जगह प्रत्येक गाँव और शहर के लोगोंको उपदेश दिया था, उनकी दिव्यध्वनि वाणी पहले पहल अभीसे उसको मनानेकी तैयारियां शुरू कर देनी खिरी थी, जिसे मुन कर दुम्बी और प्रशान्त जनताने चाहिये । वीरसेवामन्दिर इस बार इस पुण्य पर्वको सुख-शान्तिका अपूर्व अनुभव किया था माथ ही मनानेकी कछ विशिष्ट आयोजनाएँ तत्परताके माथ धर्मके नामपर होनवाल बलिदानों और अत्याचाग कर रहा है। इस दिन अहिमा और अपरिग्रह-जैसे की रोक हुई थी। भगवान वीरने हिसा अहिमा जैन सिद्धान्तोंका प्रचारक सुन्दर साहित्य लोकमें तथा धर्म-अधर्मका तत्व इमी दिनसे ममझाना प्रचुर मात्रामें प्रचारित किया जाना चाहिये, महावीरप्रारम्भ किया था, अहिंमा और अपरिग्रह धर्मका सन्देशको घर घरमे पहुँचाना चाहिये और उसके लोगोंको यथार्थ स्वरूप समझाया था और इमलिय अनुमार चलनेका पूरा प्रयत्न होना चाहिये। यह दिन कृतज्ञ मंसारके लिये बड़े महत्वका है। इमके मिवाय, इम तिथिका ऐतिहामिक भी -दरवारीलाल कोठिया (न्यायाचार्य) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम वतत्व-मचातक प्रकाशक वार्षिक मूल्य ४) एक किरणका मुल्य || || नीतिविरोधप्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् ।। परमागमस्या भग्नवगर्जयत्यनेकान्तः ! वर्ष ५ किरण ५ वीरसंवामन्दिर (ममन्तभद्राश्रम), सरसावा, जिला महारनपुर वैशाख शुक्ल, वीरनिर्वाण-संवत २४७४, विक्रम संवत २०.५ । १९४८ PuriHINDIWWWJAN WRMANENERNATANAHANE VIRemium" सम्यग्दृष्टि भविज्ञान अग्यो जिन्ह के घट, मीनलचित्त भयो जिम चन्दन । काल करें मिवमारगमे, जगमाहि जिनमक लघुनन्दन ।। मत्यमाप मदा जिन्हकै, प्रगट यो अवदान मिथ्यात-निकन्दन । मांतदशा तिन्हकी पहिचानि, करै करजोर बनारमि बन्दन ॥ स्वाग्थक माँच परमारथक माँच चित, मांचं माँच बैन कह मचि जैनमनी है। काहू के विरोधिनाहि परजाय-बुद्धि नाहि, प्रातमगवपी न गृहम्थ है न जती है। मिद्धि गिद्ध वृद्धि दीमै घटमै प्रगट मदा, अन्तरकी लच्छिमी अजाची लन्छपती है। दाम भगवन्तके उदाम रहै जगनमों, मुखिया मदेव ऐसे जीव मर्माकनी हैजाकै पट प्रगट विवेक गणधरकौमी, हिरदै हरखि महामोहको हरतु है । साँचौ सख मानै निज महिमा अडौल जाने, श्रापुहीमे श्रापनौ सुभाउले धरत है। जैसे जल-कर्दम कतकफल भिन्न करे, तैम जीव अजीव विलच्छनु कम्तु है। HA आतम सकति माधै ग्यानको उदो अराधै, मोई मकिति भवसागर नस्तु है ॥३॥ ) --कवि बनारसीदाम ENAAAAAAAAAIAANTIANE Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मराज रस्तोत्र (श्रीपद्मनन्दिमुनि विरचित) यस्य प्रमाद-वशतो वृपभादयोऽपि प्रापुर्जिनाः परम-मोक्षपुराऽधिपत्यम् । श्राधन्तमुक्त-महिमानमनन्त-शक्ति भक्तथा नमामि तमह परमात्मराजम ॥१॥ त्वा चिदुघनं ममयमारमखण्डमूर्ति ज्योनिःस्वरूपममल पर-भाव-मुक्तम् । स्तोतु न सूक्ष्म-मतयोयनयोऽपि शक्ताः कोऽह चिदात्मक पुनउिमैक-पात्रम् ॥२॥ प्रोक्त कश्चिदिह तत्त्वविदांवरेण चिद्रप तत्र भवतोभवत: स्वरूपम् । नो बुद्धयते बुधजनोऽप्यथवा प्रबुद्धं तन्मोक्षमक्षय-सुग्वं दृतमातनोति ॥३॥ यो ज्ञानवानव-परयोः कुरुते विभेदं ज्ञानेन नीर-पयसोरिव राजहसः । सोऽपि प्रमोद-भर-निर्भरमप्रमेय-शक्ति कथञ्चिदिह विन्दति चेतनत्वम् ॥४॥ तादात्म्य-वृत्तिमिह कर्म-मलेन साकं यः स्वात्मनो वितनुते तनुधीः प्रमादान । स त्वा चिदात्मक कथं प्रथिनप्रकाश विश्वाऽतिशायि-महिमानमवैति योगी ॥ ५ ॥ चित्राऽऽत्म-शक्ति-ममुदाय-मयं चिदात्मन् ये त्वां श्रयन्ति मनुजा व्यपनीन-मोहा: । ते मोक्षमक्षय-मुग्वं त्वरित लभन्ते मुढास्तु ममृति-पथे परितो भ्रमन्ति ॥६॥ चित्पिण्ड-चण्डिम-तिरस्कृत-कर्मजाले ज्योतिर्मय त्वयि समुल्लमति प्रकामम । निक्षेपधी: क नय-पक्ष-विधिः क शास्त्रं कुत्राऽऽगमः क च विकल्प-मति: क मोह ।।७।। स्याद्वाद-दीपित-लमन्ममि त्वयीशे प्रामोदय विलयमेति भव-प्रमृतिः । चश्चत्प्रताप-निकरऽभ्युदय दिनेशे याते हि वल्गति कियत्तमसः ममूह ।।८।। कुवन्तु तानि विविधानि नाम शील चिन्वन्तु शास्त्र-जलधि च तरन्त्वगाधम् । चिद्रूप ते हृदय-वागतिवर्ति-धाम्नो ध्यान विना न मुनयोऽक्षय-मौख्य-भाजः ॥॥ सिद्धान्त • लक्षण - मदध्ययनेन चित्तमात्मीयमत्र नियन परिरञ्जयन्ति । ये ते बुधाः प्रतिगृह बहवश्चिदात्मन ये त्वत्स्वरूप-निरता विरलाम्त एव ॥१०॥ दृग्गोचरत्वमुपयामि न वा ममत्व धत्से न मम्तवनतोऽपि न तुष्टिमंसि । कुर्वे किमत्र तदपि त्वममि प्रियो मे यम्माद्भवाऽऽमय-हनिर्मवदाश्रितेयम ।११।। श्रानन्द-मेदुरीमद भवतः स्वरूप नृणा गन' म्प्रति चक्षणमप्यमाहात । दुखानि दुद्धर-भव-भ्रमणोद्भवानि नश्यन्ति चौदह कि कुछ कंचिदात्मन ॥१२॥ ज्ञानं त्वमेव वरवृत्तमपि त्वमेव त्व दर्शन त्वमपि शुद्धनयमत्वमांशः । पुण्यः पुगणपुरूप: परमस्वमेव त्किञ्चनत्वमपि कि, बट - जल्पितेन ॥१७॥ सचिमत्कृति-चिनाय जगन्नताय शुद्धस्फुरत्ममग्मैर-सुधारणवाय । द.कर्म-बन्धन-भिदेऽप्रतिम - प्रभाय चिद्रप तत्र भवते भवत नमाऽस्तु ॥१४|| अच्छाच्छलत्परमचित्ति-चितं कलङ्क-मुक्त विविक्त-मदम परमात्मराजम् । यो ध्यायत प्रतिदिन लभते यतीन्द्रो मुक्ति म भव्य-जन-मानम-पद्मनन्दी ॥१५।। इनि परमात्मराज-स्तुतिः (स्तात्रम् ) . * यह स्तोत्र कैगना जि० मुजफ्फरनगरकी उसी पट पत्रात्मक ग्रन्थ प्रतिपर से उपलब्ध हुआ है जिसपरसे पिछली किरणों I में प्रकाशित 'स्वरूपभावना' र 'रावण-पार्श्वनाथ स्तोत्र' उपलब्ध हुए थे। सम्पादक Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश [सम्पादकीय] जैन तीर्थङ्करोंके दिव्य ममवसरणमे, जहाँ सभी शीर्षक है "१०० रुपयका पारितोपिक-सुधारकोको भव्यजीवोंको लक्ष्यमे रखकर उनके हितका उपदेश लिग्वित शास्त्रार्थका खुला चलेज" और जो 'जैन दिया जाता है, प्राणीमात्रके कल्याणका मार्ग सुझाया बोधक' वर्प ६३ के २७वे अङ्कम प्रकाशित हुआ है। जाता है और मनुष्यों-मनुष्योंमें कोई जानि-भेद नं इम लेम्ब अथवा चलेजको पढकर मुझे बड़ा कौतुक करके राजा-रङ्क मभी गृहस्थांक बैठने के लिये एक ही हुआ और माथ ही अध्यापकजीके माइसपर कुछ वलयाकार मानवकोठा नियत रहता है; जहाँके हमी भी आई। क्योंकि लेख पद-पदपर स्वलित हैप्रभावपर्ण वानावरणमे परम्परके वैरभाव और प्राकृ- खलित भाषा, अशुद्ध उल्लेग्व, गलत अनुवाद, निक जातिविरोध नकके लिये कोई अवकाश नही अनोखा तक, प्रमाण-वाक्य कुछ उनपरमे फलित कुछ, रहना; जहाँ कुत्ते-बिल्ली, शेर-भडिये, माप-नवले, और इतनी अमावधान लेखनीक होते हा भी चैलेज गधे-भैमे जैसे जानवर भी नीर्थङ्करकी दिव्यवाणीको का दु'माहम ! इसके मिवाय, खुद ही मुद्दई श्रीर सुननके लिये प्रवेश पाते है और मब मिलजुलकर खुद ही जज बननका नाटक अलग !! लम्बमे अध्याएक ही नियन पशुकोठेमे बैठते हैं, जो अन्तका १२वाँ पफजीने बुद्धिबलसे काम न लेकर शब्दच्छलका होता है, और जहाँ मवके उदय-उत्कर्षकी भावना एव श्राश्रय लिया है और उमीमें अपना काम निकालना माधना रूपमे अनेकान्तात्मक 'मादय नीथ' प्रवा- अथवा अपने किमी अहंकार को पुष्ट करना चाहा है; हित होना है वहाँ श्रवण, ग्रहण नथा धारगणकी शक्ति- परन्तु इस बातको भुला दिया है कि कोरे शब्दच्छल से मम्पन्न होते हुए भी शुद्रांक लिय प्रवेशका द्वार में काम नहीं निकला करता और न व्यर्थका अहंकार एक दम बन्द होगा, इमे कोई भी महृदय विद्वान हो पुष्ट हुश्रा करना है। अथवा बुद्धिमान मानने के लिये तैयार नहीं होमकना। आप दूमगको तो यह चैलज देने बैठ गये कि परन्तु जैन माजी ऐम भी कुछ पण्डित है जो वे आदिपुगण नथा उत्तरपुगरण-जैसे श्रार्पग्रन्थाक अपने अद्न विवेक, विचित्र सरकार अथवा मिथ्या आधारपर शुद्रोंका ममवमरगम जाना, पूजाधारणाकं वशमी अनहोनी बानका भी माननेके वन्दना करना तथा श्रावकके बारह व्रताका ग्रहण लिये प्रस्तुत है, इनना ही नहीं बल्कि अन्यथा प्रनि- करना मिद्ध करके बनलागं और यहाँ तक लिख गये पादन और गलन प्रचारक द्वाग भाले भाइयोंगी कि "जो महाशय हमारे नियमक विरुद्ध कार्य कर आंग्वोंम धूल झोंककर उनमें भी उसे मनवाना चाहते ममाधानका प्रयत्न करंग (दमा आदि प्रन्यांक है। और एम नरह जाने-अनजान जैन नीथङ्कगेकी आधारपर तीनी बानाको मिद्ध करक बनलायंग) महनी उदार-सभाकं श्रादशका गिगनके लिये प्रयत्न- उनक लग्बका निम्मार ममम उसका उत्तर भी नहा शाल है। इन पण्डिनांम अध्यापक मङ्गलमेनजीका दिया जावेगा।" परन्तु स्वय प्रापन उक्त दानां प्रन्या नाम यहाँ वासनौरम उल्लेखनीय है, जा अम्बाला के आधारपर अपने निपंध-पत्तको प्रतिष्ठित नाही छावनीवी पाठशालाम पढान है। हालमे श्रापका पक किया-उनका एक भी वाक्य उमकं ममर्थनम मवादी पंजी लग्न मेरी नजर में गुजरा है, जिमका उपस्थित नहीं किया, उसके लिये आप दुमर ही पंधी Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० अनेकान्त [ वर्ष ९ का गलन आश्रय लेते फिर है जिनमे एक 'धर्ममंग्रह- लक्ष्यम लेकर लिखा गया है-तीन ही उसमे नम्बर श्रावकाचार' जैमा अनार्ष प्रन्थ भी शामिल है, जो हैं। पहले नम्बरपर व्याकरणाचार्य पं० वन्शीधरजी विक्रमकी १६वीं शताब्दीक एक पण्डित मेधावीका का नाम है, दूसरे नम्बरपर मेग नाम (जुगलकिशोर) बनाया हुआ है। यह है अध्यापकजीक न्यायका एक 'सुधारकशिरोमणि' के पदसे विभूषित ! और नमूना, जिसे आपने स्वय जजका जामा पहनकर तीसरे नम्बरपर 'मम्पादक जैनमित्रजी' ऐमा नामोअपने पास सुरक्षित रख छोड़ा है और यह घोषित ल्लेख है। परन्तु इम चैलेञ्जकी कोई कापी अध्यापककिया है कि "इम चैलजका लिखित उत्तर सीधा जीन मेरे पास भेजने की कृपा नहीं की। दूसरे हमारे पास ही आना चाहिये अन्यथा लेखोंके हम विद्वानोंके पाम भी वह भेजी गई या कि नहीं, इसका जुम्मेवार नहीं होंगे।" मुझे कुछ पता नहीं, पर खयाल यही होता है कि. इसके मिवाय, लेख में सुधारकोंको 'आगमके शायद उन्हें भी मेरी तरह नहीं भेजी गई है और विरुद्ध कार्य करने वाले', 'जनताको धोखा देने वाले यों ही-मम्बद्ध विद्वानोंको खासतौरपर सूचित किये और 'काली करतूतों वाले' लिखकर उनके प्रति जहाँ बिना ही-चैलेञ्जको चरितार्थ हुआ समझ लिया अपशब्दोंका प्रयोग करते हुए अपने हृदय-कालुष्यको गया है | अम्तु। व्यक्त किया है वहाँ उसके द्वारा यह भी व्यक्त कर लेखम व्याकरणाचार्य पं० वन्शीधरजीका एक दिया है कि श्राप सुधारकोंके किसी भी वाद या वाक्य, कोई आठ वर्ष पहलेका, जैनमित्रमे उद्धृत प्रतिवाद के सम्बन्धमे कोई जजमेंट (फैसला) देन किया गया है और वह निम्न प्रकार हैअधिकारी अथवा पात्र नहीं हैं। __ "जब कि भगवानके ममोशरणमे नीचसे नीच गालबन इन्हीं मब बातों अथवा इनमेसे कुछ व्यक्ति स्थान पाते हैं तो ममझमे नहीं आता कि श्राज यातको लक्ष्यम लेकर ही विचार-निष्ठ विद्वानोंने दम्मा लोग उनकी पूजा और प्रक्षालम क्यों गके अध्यापकजीके इस चैलेज-लेखको विडम्बना-मात्र डम्बना-मात्र जाते है।" समभा है और इमीम उनमसे शायद किमीकी भी इम वाक्यपरमं अध्यापकजी प्रथम तो यह अब नक इमक विषयम कुछ लिम्बनकी प्रवृत्ति नहीं फलित करते है कि "दम्माओंके पूजनाधिकारका हुई. परन्तु उनके इस मीन अथवा उपेक्षाभावमे सिद्ध करने के लिा ही आप (व्याकरणाचायजी) अनुचित लाभ उठाया जा रहा है और अनेक स्थलो मांशरणमें शदीका उपस्थित होना बतलाते है।" पर उसे लेकर व्यर्थकी कूद-फांद और गल-गजना की इमक अनन्तर-"तो इसके लिये हम आदिपुराण जाती है। यह सब देखकर ही श्राज मुझे अवकाश और उत्तरपरारण आपकं ममक्षमे उपस्थित करते है" नहाते हुए भी लेखनी उठानी पड़ रही है। मैं अपने ऐसा लिवकर व्याकरणाचार्यजीको बाध्य करते है इम लेख-द्वारा यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि कि वे उक्त दोनों ग्रन्थोंक आधारपर "शूद्रोंका किमी अध्यापकजीका चैलेंज कितना बेहूदा, बेतुका तथा भी तीर्थकरके समोशरणमे उपस्थित होना प्रमाणों आत्मघातक है और उनके लेखमे दिये हुए जिन द्वारा सिद्ध करके दिखलावे। साथ ही तर्कपूर्वक प्रमाणोंके बलपर कूदा जाता है अथवा अहंकारसे पूर्ण अपने जजमेटका नमूना प्रस्तुत करते हुए लिम्बते है बात की जाती है वे कितने नि:मार, निष्प्राण एवं --"यदि आप इन ऐतिहामिक प्रन्थों द्वारा शूद्रोंका श्रमजत हैं और उनके आधारपर खड़ा हुधा किसी समोशरणमे जाना सिद्ध नहीं कर सके तो दस्सायों का भी बहकार कितना बेकार है। के पूजनाधिकारका कहना आपका सर्वथा व्यर्थ सिद्ध उक्त चैलेज लेख सुधारकोंके साथ आमतौरपर हो जायगा" और फिर पूछते है कि "मङ्गठनकी आड सम्बद्ध होते हुए भी खासतौरपर तीन विद्वानोंको लेकर जिन दस्साओंको आपने आगमके विरुद्ध Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] ममवमरणमे शूद्रोंका प्रवेश उपदेश देकर पूजनादिका अधिकारी ठहराया है उम पाते हैं। उनके इस प्रकट प्रवेशकी बातको लेकर ही पापका भागी कौन होगा।" इसके बाद, यह लिव बुद्धिको अपील करते हुए ऐसा कहा गया है कि जब कर कि "अब हम जिम आगमके विरुद्ध आपके नीचसे नीच तिर्यश्च प्राणी भी भगवानके ममवमरगण कहनेको मिथ्या बतलाते है उसका एक प्रमाण लिख में स्थान पाते है तब दम्मा लोग तो, जो कि मनुष्य कर भी आपको दिखलाते हैं", जिनसेनाचायकृत होने के कारण तिर्यश्चोंसे ऊँचा दर्जा रखते है, समहरिवशपुगणका 'पापशीला विकुर्माणा:' नामका वसरणम जरूर स्थान पाते है फिर उन्हे भगवान के एक श्लोक यह घोषणा करते हुए कि उसम "भगवान पूजनादिकमे क्यों रोका जाता है ? खेद है कि नेमिनाथक समांशरणम शुद्रांके जानेका स्पष्टतया अध्यापक जीने इम महज-ग्राह्य अपीलको अपनी निषेध किया है" उद्धृत करते है और उसे ५५व बुद्धि के कपाट बन्द करके उस तक पहुँचने नहीं मगका १९८वा श्लोक बतलाते है । माथ ही पण्डिन दिया और दृसंग्के शब्दोंको तोड़-मरोड़कर व्यर्थम गजाधरलालजीका अर्थ देकर लिखते है--"हमने चैलेजका षड्यन्त्र रच डाला ।।। यह प्राचार्य वाक्य आपको लिखकर दिखलाया है दसरे, व्याकरणाचार्य नीको एक मात्र आदि आप अन्य इतिहामिक ग्रन्थों(आदिपुगरण-उत्तरपुराण) पुराण तथा उत्तरपुराणके आधारपर किमी तीर्थकरके के प्रमाणो द्वारा इसके विरुद्ध सिद्ध करके दिखलाव ममवमरणमे शूद्रांका उपस्थित होना मिद्ध करने और परम्पग्मे विरोध हानका भी ध्यान लिये बाध्य करना किमी नरह भी मचिन नहीं कहा अवश्य रकब।" जामकता, क्योंकि उन्होंने न तो शुद्रोकं ममवमरणश्रयापकजीका यह मब लिम्बना अविचारितरम्य प्रवेशपर अपने पक्षको अवलम्बित किया है और न एव घोर आपत्निक योग्य है, जिमका खुलामा उक्त दोनों प्रन्धोंपर ही अपने पक्षका आधार क्या निम्न प्रकार है: है। जब ये दोनों बान नही तब यह प्रश्न पैदा होना प्रथम नो व्याकरणाचायजीक वाक्यपरमे जो है कि क्या अध्यापकजीकी प्रिम उक्त दोनों प्राशी अथ स्वेच्छापूर्वक फलित किया गया है वह उमपर- प्रमाण है, दूसरा कोई जैनग्रन्थ प्रमाया नही म फलित नहीं होता, क्योकि "शूद्राका ममोशरगम यदि मा है तो फिर उन्होंन म्वय हरिवंशपगगा और उपस्थित होना” उममे कहीं नहीं बतलाया गया-- धर्ममंग्रहश्रावकाचारकं प्रमाण अपन लखम का 'शूद्र' शब्द का प्रयोग नक भी उममे नहीं है। उममे उदधृत किये ? यदि दृमर जैनग्रन्थ भी प्रमाण है तो माफतौरपर नीच नीच व्यक्तियोकं ममवमरणमे फिर एक मात्र आदि पुगगा और उत्तरपुगणक प्रमा स्थान पानकी बात कही गई है और वे नीचसे नीच को उपस्थित करनेका आग्रह क्यों और दस ग्रंशा. व्यक्ति 'शूद्र' ही होते है "मा कहीं कोई नियम के प्रमागाकी अवहेलना क्या? यदि समाना अथवा विधान नहीं है, जिसमें 'नीचर्म नीच व्यक्ति' के ग्रन्थ होनम नहींपर पक्ष-विपक्ष नियायका का वाच्यार्थ 'शुद्ध' किया जामकं । उममे 'नीचर्मनीच' आधार रग्बना था तो अपने निपधपक्षका पानी शनाक माथ 'मानव' शब्दका भी प्रयोग न करक के लिये भी उन्ही प्रन्थ परमे कोहे प्रमाण परशा 'व्यक्ति' शब्दका जो प्रयोग किया गया है वह अपनी करना चाहिए था; परन्तु अपने पक्षका समर्थन की खाम विशेषता रखता है। नीचसे नीच मानव भी के लिये उनका कोई भी वाक्य उपस्थिन नहीं किया एक मात्र शूद्र नही होते, नीचसे नीच व्यक्तियोंकी तो गया और न किया जा सकता है क्योंकि उनम कोर्ट बात ही अलग है। 'नीचसे नीच व्यक्ति' शब्दोंका भी वाक्य "मा नहीं है जिसके द्वाग शुद्रोंका ममप्रयोग उन हीन तिर्योंको लक्ष्यमे रखकर किया बसग्गामे जाना निषिद्ध टहराया गया हो। और जब गया जान पड़ता है जो समवमरणम म्वुला प्रवेश उक्त दोनों ग्रन्थोंमें शूद्रोंक ममवमरणमे जाने-न-जाने Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष ५ सम्बन्धी काई स्पष्ट उल्लेख अथवा विधि-निपंध. इतना ही नहीं बल्कि श्रावकका ऊँचा दर्जा ११वी परक वाक्य ही नहीं सबमे ग्रन्थोंक आधारपर चैलज प्रतिमा तक धारण कर मकते हैं और ऊँचे दर्जेके की बात करना चैलजकी कोगे विडम्बना नहीं तो नित्यपूजक भी हो सकते हैं। श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके और क्या है ? इम नरहके तो पूजनादि अनेक शब्दोंमे 'दान और पुजा श्रावकके मुख्य धर्म है, इन विषयोंके मैकड़ों चैलेज अध्यापकजीको तत्त्वार्थ- दोनों विना कोई श्रावक होता ही नहीं, ('दाणं पूजा मृत्रादि से ग्रन्थों को लेकर दिये जा सकते है जिनमे मुक्ग्य मावयधम्मो ण मावगी तेण विणा') और शूद्र उन विपयोंका विधि या निषेध कछ भी नहीं है। नथा दम्मा दोनों जैनी तथा श्रावक भी होते है तब परन्तु मं चैलजोका कोई मूल्य नहीं होता, और वे पूजनके अधिकारसे कैसे वश्चित किये जामकते है? इमीम अध्यापकजीका चैलेंज विद्वपिम उपेक्षणीय नहीं किये जा सकते। उन्हे पृजनाधिकाग्मे वश्चित ही नहीं किन्तु गहनीय भी है। करनेवाला अथवा उनके पूजनमे अन्तगय (विघ्न) तीमा, अध्यापकजीका यह लिखना कि "यदि डालनेवाला घोर पापका भागी होता है, जिसका श्राप इन ऐतिहामिक ग्रन्थों द्वारा शूद्रांका ममोशरण- कुछ उल्लेख कुन्दकुन्द की रयणमारगत 'खय कुट्र-मूलमें जाना सिद्ध नहीं कर मकं तो दम्माांक पूजना- मृलो' नामकी गाथासे जाना जाता है। इन मब धिकारका कहना आपका मर्वथा व्यर्थ सिद्ध हो विषयों के प्रमाणांका काफी मकलन और विवेचन जायगा" और भी विडम्बनामात्र है और उनके जिनपूजाधिकारमीमामा' में किया गया है और उनअनोग्य तक नथा अद्भत न्यायको व्यक्त करता है। में आदिपुगग तथा धर्ममग्रह श्रावकाचारकं प्रमाण क्योंकि शूद्रांका यदि ममवमरणम जाना मिद्ध न भी मगृहीत है। उन मब प्रमाणों तथा विवंचनी किया जामकं ना उन्हीक जनाधिकारको व्यर्थ और पूजन-विषयक जैन सिद्धान्तका नरफमे श्राग्य ठहराना था न कि दम्माओक, जिनके विषयका बन्द करक इस प्रकारक चैलेजकी योजना करना कोई प्रमाण मांगा ही नहीं गया ' यह ना वह बात अध्यापकजीक एकमात्र कौटिल्यका द्योतक है । याद हुई कि मबून किमीविषयका और निणय किमी दूसरे ही कोई उनकी इम नकपद्धतिका अपनाकर उन्हींम विषयका 'माजजीपर किम तम अथवा हम नहीं उलटकर यह कहन लगे कि 'महागज, आप ही इन भाएगा और वह किमकं कौतुकका विषय नहीबनगी" आदिपुरागा तथा उनरपुराणक द्वारा शूद्रोंका मम यदि यह कहा जाय कि शुद्रांक पूजनाधि- वमरणम जाना निषिद्ध मिद्ध कीजिये, यदि श्राप काग्पर ही दम्माांका पजनाधिकार अवलम्बित है एसा सिद्ध नहीं कर सकेगे तो दम्माओके पजना- उनके ममानधर्मा है तो फिर शुद्रांक स्पष्ट धिकारको निषिद्ध कहना श्रापका मर्वथा व्यर्थ सिद्ध पूजनाधिकार सम्बन्धी कथनों अथवा विधि-विधानी हो जायगा' तो इमसे अध्यापकजीपर कैमी बीतेगी, का ही क्यों नहीं लिया जाता ? और क्यों उन्हें छोड इसे वे स्वयं समझ सकेगे । उनका तक उन्हीं के गलेकर शुद्रांक समवसरणमे जाने न जानकी बातका का हार हो जायेगा और उन्हें कुछ भी उत्तर देते बन व्यर्थ उठाया जाता है? जैन शास्त्रांम शुदोंके द्वारा नहीं पडेगा; क्योंकि उक्त दोनों ग्रन्थोंके आधारपर पूजनका और उम पजनक उत्तम फलकी कथाएँ ही प्रकृत विषयके निणयकी बातको उन्हींने उठाया है नहीं मिलती बल्कि शुद्राको स्पष्ट तौरस नित्यपूजनका और उनमे उनके अनुकुल कुछ भी नहीं है। अधिकारी घोषित किया गया है। साथ ही जैनगृहस्थों, चौथे, 'उम पापका भागी कौन होगा' यह जो अविरत-मम्याटियों, पाक्षिक श्रावकों और व्रती अप्रासङ्गिक प्रश्न उठाया गया है वह अध्यापकजीकी श्रावकों सभीको जिनपुजाका अधिकारी बतलाया हिमाकतका द्योतक है। व्याकरणाचायजीन नो गया है और शुद्र भी इन मभी कोटियोंमे आते है, आगमके विरुद्ध कोई उपदेश नहीं दिया, उन्होंने तो Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किर गा५] समवमरणम शूद्रोका प्रवेश १७: अधिकारीको उसका अधिकार दिलाकर अथवा स्पष्टतया कोई निषेध नही है, जिसकी अध्यापकजीने अधिकारी घोषित करके पुण्यका ही कार्य किया है। अपने चैलेखमे घोषणा की है। मालूम होता है अध्यापकजी अपने विषयमे सोच कि वे जैनी अध्यापकजीको ५० गजाधरलालजीके गलत अनुवाद दस्माओं नथा शूद्रोंके मर्व माधारगण नित्यपृजनके अथवा अर्थपरसे कुछ भ्रम होगया है, उन्होंने ग्रन्थक अधिकारको भी छीनकर कौनमें पापका उपार्जन कर पूर्वाऽपर मन्दर्भपरसे उसकी जाँच नहीं की अथवा रहे है और उम पापफलसं अपनको कैसे बचा अर्थको अपने विचारोंके अनुकूल पाकर उसे जाँचने मकंगे जो कुन्दकुन्दाचार्यकी उक्त गाथाम तय, कुष्ठ, की जरूरत नही मममी, और यही सम्भवतः उनकी शूल, रक्तविकार, भगन्दर, जलोदर, नेत्रपीड़ा, भ्रान्ति, मिथ्या धारणा एय अन्यथा प्रवृत्तिका मूल है। शिगवंदना, शीत-उष्णक अाताप और (कुयोनियों- ५० गजाधरलालजीका हरिवशपुराणका अनुवाद म) परिभ्रमण आदिके रूपमे वणित है। साधारण चलता हुश्रा अनुवाद है, इमीसं अनेक पाँचवे, हग्विशपुगरणका जो श्लोक प्रमाणम स्थलोपर बहत कुछ बोलत और प्रत्य-गौरवक उद्धत किया गया है वह अध्यापकजीको मृचनानुमार अनुरूप नही है। उन्होंन अनवादसे पहले कभी इम न तो ५५वे मगका है और न १९८व नवम्बरका, प्रन्थका स्वाध्याय तक नहीं किया था, माध। मादा बल्कि वे मगका १७७वा शोक है। उद्धृत भी वह पुराण ग्रन्थ समझकर ही वे इमक अनुवादम प्रवृत्त गलतरूपम किया गया है, उसका पूर्वाध तो मुद्रित होगये थे और इसमें उनगनर कितनी ही कठिनाइयाँ प्रतिम जैसा अशुद्ध छपा है प्राय वैमा ही रख दिया मलकर 'यथा कञ्चन' पमं व इम पूग कर पाय गया है। और उत्तराध कुछ बदला हुआ मातृम हाना , इमका उल्लम्ब उन्होंने स्वय अपनी प्रत वना है। मुद्रित पनिम वह विकलॉगद्रियादभ्रांना परियति (पृ. ४) में किया है और अपनी त्रुटियों तथा वहिम्तन." इम पम छपा है,जा प्रायः ठीक है, परन्तु अशुद्धियांक आभामको मा माथम व्यक्त किया है। अध्यापकजीन उम अपन चैलेञ्जमे "विकलांगेन्द्रिया- इम भाकक अनुवाद परमं ही पाठक इम विषयका नाना पारियत्ति वहिम्तता" यह रूप दिया है, जिमग कितना ही अनुभव प्रान कर मकंग। उनका वह 'ज्ञाता', 'पारियत्ति' और 'नना' ये तीन शब्द अशुद्ध अनुवाद, जिम अध्यापकजान चलेनमें उद्धत किया है और शोकम अथभ्रम पैदा करते है। यदि यह है, इस प्रकार है . कप अध्यापकजीका दिया हश्रा न हाकर प्रेसकी किमीजा मनुष्य पापी नीचकम करन वाले शुद गलनीका परिणाम है नी अध्यापकजीको चैलेखका पाखण्डी विकलांग और विकलन्द्रियहांन बममाअङ्ग होनकं कारण उमं अगले अङ्गमे सुधारना शरणाकं बाहर ही रहने और वहम ही प्रदक्षिणा चाहिये था अथवा कममं कम सुधारशिरोमणिक पर्वक नमस्कार करते थे " पास तो अपने चैलञ्जकी एक शुद्ध कापी भेजनी इममे 'उदभ्रान्ता' पदका अनुवाद तो बिल्कुल चाहिये थी; परन्तु चैलेञ्जकं नामपर यदि यो ही वाह ही छूट गया है, 'पापशीला'का अनुवाद 'पापी' तथा वाही लूटनी हो तो फिर ऐमी बातोंकी तरफ ध्यान । _ 'पाबण्डपाटवा.'का अनुवाद 'पाम्बएडी' दोनो ही तथा उनके लिये परिश्रम भी कौन करे ? भन्तु, अपण तथा गौरवहीन है और "समाशरणके बाहर उक्त श्लोक अपने शुद्धरूपम इम प्रकार है : ही रहते और वहाँम ही प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार पापशीला विकुर्वाणाः शूद्राः पाखण्ड-पाटवाः ।। करते थे" इम अथकं वाचक मूलम कोई पद ही नहीं विकलागेन्द्रियोद्घान्ता परियन्ति वहिम्तन. ॥१७३।। है, भूतकालकी क्रियाका बाधा भी काई पद नहीं है, इममे शूद्रोंक ममवसरणम जानका कहीं भी फिर भी अपनी तरफम इम अथकी कल्पना करली यथा---"पापशीला. विकागणाः शूद्राः पावराड पाडवाः” गई है अथवा परियान्त बहिम्तत' इन शब्दापरम Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ९ अनुवादकको भारी भ्रान्ति हुई जान पड़ती है। ग्वाता लतावनं माल वनानां च चतुष्टयम ॥१८॥ 'परियन्ति' वतमानकाल-सम्बन्धी बहुवचनान्त पद द्वितीयमालमुत्क्रम्य ध्वजान्कल्पद्रमावलिम् । है, जिसका अर्थ होता है 'प्रदक्षिणा करते है' -- न कि स्तूपान्प्रासादमालां च पश्यन विस्मयमाप सः ॥१७॥ 'प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार करते थे। और 'वहिस्ततः' ततो दौवारिकैर्देवैः सम्भ्राद्भिः प्रवेशित: । का अर्थ है उमके बाहर । उसके किमके ? समवमरण श्रीमण्डपम्य वैदग्धीं सोऽपश्यत्म्वजित्वरीम ॥१३॥ के नहीं बल्कि उम श्रीमण्डपकं बाहर जिसे पूर्ववती ततः प्रदक्षिणीकुर्वन्धर्मचक्रचतुष्टयम् । श्लोक 'म 'अन्त:' पदकं द्वारा उल्लेखित किया है, जहाँ लक्ष्मीवान्पूजयामाम प्राप्य प्रथमपीठिकाम् ॥१९॥ भगवानकी गन्धकुटी होती है और जहाँ चक्रपीठपर तता द्वितीयपीठस्थान विभोरष्टौ महाध्वजान । चढ़कर उत्तम भक्तजन भगवानकी तीन वार प्रर्दाक्षणा सोऽचयामास मम्प्रीत पुतैगन्धादिवस्तुभिः ॥२०॥ करते है, अपना शक्ति तथा विभवके अनुरूप यथेष्ट मध्ये गन्धकुटीद्धद्धि पराये हरिविष्टरे । पूजा करते हैं, वन्दना करते है और फिर हाथ जोड़े आर फिर हाथ जाड़ उदयाचलमधथमिवाकै जिनमैक्ष्यत ॥१॥ हुए अपना-अपनी मापानामे उतर कर आनन्दके साथ -आदिपुराण पर्व २४ यथा स्थान बैठते है। और जिसका वर्णन आगेक इन मब प्रमागोंकी रोशनीमे 'वहिम्तत" पदोका निम्न पदयाम दिया है... वाच्य श्रीमण्डपका बाह्य प्रदेश ही हो सकता हैक्षत्रचामरभृङ्गादावहाय जयाजिरे । ममवमरगाका बाह्य प्रदेश नहीं. जो कि पूर्वाऽपर अाग्नुगनाः कृत्वा विशन्न्यजलिमीश्वगः ॥१७४|| कथनाक विरुद्ध पडता है। और इस लिये प. गजाप्रविश्य विधिवद्भक्तया प्रणम्य मणिमीलया । धरलालजीन १७वं पद्यम प्रयुक्त हुए 'अन्न ' पदका चक्रपीठ ममामा परियन्ति निरीश्वरम ॥१७५।। अर्थ "ममवमरगामे" और १७:वे पटाम प्रयुक्त पूजयन्तो यथाकाम म्यशक्तिविभवाचनै । 'वहिम्तन' पदाका अर्थ 'ममवमरणकं बाहर' करके सुगऽसुरनरेन्द्रादा नामादश(?) नन्ति च ॥१७६।। भाग भूल की है। अध्यापकजीन विवेकम काम न ततोऽवतीय मोपान व स्व म्वाञ्जलि मौलय. । लेकर अन्धानुमग्णके रुपमे उस अपनाया है और गेमाचव्यक्तह पनि यथाम्थान ममाम् ॥१७७) इमलिय वे भी उस भूलके शिकार हुए है। उन्हें अब - हरिवशपुगण मग ५७ ममझ लेना चाहिये कि हग्विशपुराणका जो पदा इन पद्यांक माथमे आदि पुराणके निम्न पद्योंको उन्होंने प्रमाणम उपस्थिन किया है वह ममवमरणमे भी ध्यान रखना चाहिये, जिनम भरतचक्रवर्तीक दादिकोंक जानका निपंधक नही है बल्कि उनके समवमरणस्थित श्रीमण्डप-प्रवेश आदिका वर्णन जानका स्पष्ट सूचक है, क्योंकि वह उनके लिये ममहै और जिनपरसे सक्षेपमे यह जाना जाता है कि वसरणमे श्रीमण्डपके बाहर प्रदक्षिणा - विधिका मानम्तम्भोंको आदि लेकर ममवसरणकी कितनी विधायक है। माथ ही यह भी ममझ लेना चाहिये भूमि और कितनी रचनाओका उल्ललन करनेके कि 'शदाः' पदके माथम जो 'विकुवाणा:' विशेपण बाद अन्तःप्रवेशकी नौबत आती है, और इस लिये लगा हुआ है वह उन शुद्रोंके अमन शूद्र होनेका अन्तःप्रवेशका आशय श्रीमण्डप-प्रवेशसे है, जहाँ सूचक है जो खोटे अथवा नीचकर्म किया करते चक्रपीठादिके साथ गन्धकुटी होती है, न कि मम- है. और इसलिय सतशद्रोंसे इस प्रदक्षिणा-विधिका वमरण-प्रवेशमे: सम्बन्ध नही है-वे अपनी रूचि तथा भक्तिके परीत्य पूजयन्मानस्तम्भानत्यत्ततः परम । अनुरूप श्रीमण्डपके भीतर जाकर गन्धकुटीक पाससे १ प्रादक्षिण्येन वन्दित्वा मानम्तम्भमनादितः । भी प्रदक्षिणा कर मकते हैं। प्रदक्षिणाके ममउत्तमाः प्रविशन्त्यन्तरुत्तमाहितभक्तयः ॥ १७२।। वमरणमे दो ही प्रधान मार्ग नियत होत हैं Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] ममवमग्णमे शुद्रोंका प्रवेश १७५ एक गन्धकुटीक पाम चक्रपीठकी भूमिपर और दुमरा फलस्वरूप श्रावकके वनोंको भी ग्रहण करते है, जिन श्रीमण्डपके बाह्य प्रदेशपर । हरिवशपुराणके उक्त के ग्रहणका पशुओको भी अधिकार है, यह स्वतः श्लोकम श्रीमण्डपकं बाध प्रदेशपर प्रदक्षिणा करने सिद्ध हो जाता है। फिर श्रादिपुराण-उत्तरपुराणके पालोमा ही उल्लेख है और उनमें प्राय व लाग प्राधारपर उमको अलगसे मिद्ध करनेकी जरूरत शामिल है जो पाप करनेके श्रादी है-श्रादतन भी क्या रह जाती है । कुछ भी नहीं। (म्वभावन') पाप किया करते है, खाट या नीच कम इमके सिवाय, किमी कथनका किसी प्रथम करने वाले अमन शुद्ध है, धूतताकं कायमे निपुण यदि विधि तथा प्रतिपंध नहीं होता तो वह कथन (महाधृत) है, अङ्गीन अथवा इन्द्रियहीन है और उम ग्रन्थक विरुद्ध नहीं कहा जाना। इम बानको पागल है अथवा जिनका दिमाग चला हृया है। श्राचाय वीरमनन धवलाक क्षेत्रानुयांग-द्वारम निम्न और इम लिये समवमग्गगम प्रवेश न करने वालोकं वाक्य-द्वारा व्यक्त किया हैमाथ उसका कोई मम्बन्ध नहीं है। छठ, अध्यापकजीन व्याकरणाचायजीक मामने "ण च मत्तरज्जुबाहल्ल करणारिणांगसुत्तउक्त शोक और उपकं उक्त अथका रखकर उनमे जा विरुद्ध, तत्थ विधिप्पडिसंधाभावादी" (पृ०२२) यह अनुगध किया है कि "आप अन्य इतिहासिक अर्थात्-लोककी उत्तरदक्षिण सर्वत्रमातराजु प्रन्थों (आदिपुराण- उत्तर पुराण के प्रमाण द्वाग इमक मोटाईका जो कथन है वह 'करणानुयोगमृत्र'क अविमद्ध सिद्ध करके दिग्बलाव और परम्परम विगध विरुद्ध नहीं है, क्योकि उस सूत्रम उसका यदि हानका भी ध्यान अवश्य रकव" वह बडा ही विधान नही हैं ना प्रतिपंध भी नहीं है। विचित्र और चतुका मालूम होता है । जब अध्यापक शुद्रीका ममवमरणम जाना, पूजावन्दन करना जा व्याकरणाचायजीक कथनका श्रागविरुद्ध मिद्ध और श्रावकक व्रताका ग्रहण करना इन तीनो बानोकरनक लिय उनके ममक्ष एक आगम-वाक्य और का जब आदिपुराण तथा उत्तरपुगणम स्पष्टरुपमै उमका अथ प्रमाणम रख रहे है तब उन्हीम उमक काई बिधान अथवा प्रतिपंध नहीं है सब इनक विरुद्ध मिद्ध करन लिय कहना और फिर अवि. गंधर्म भी विगंधकी शढ़ा करना कारी हिमाकनक कथनका आदिपुराण नथा उत्तरपुराणके विरुद्ध नही कहा जा नकता । वैम भी इन नानी बातोका कथन मिवाय और क्या हो मक्ता है ? और व्याकरणा आदि पुराणादिकी गति, नीति और पद्धतिक विरुद्ध चार्यजी भी अपन विरुद्ध उनके अनुगंधको माननक नही हा मकना, क्योकि आदिपुगगम मनुष्यांकी लिय कब नयार हा मकन है? जान पडना है वस्तुनः एक ही जानि मानी है, उमाक वृत्तिअध्यापकजी लिखना ना कुछ चाहत थ और लिम्ब (श्राजाविका)भेदसे ब्राह्मणादिक चार भद बतलाय गयं कुछ और ही है, और यह आपकी मवालन है', जा वास्तविक नहीं है। उत्तरपुगरणम भी माफ भापा नथा श्रमावधान लेखनीका एक नाम नमूना कहा है कि इन ब्राह्मणादि वर्गा-जातियांका आकृति है जिमकं बल-बूतपर श्राप सुधारकाका लिग्विन आदिके भेदको लिये हुए काई शाश्रत लक्षण भी शास्त्रार्थका चैलज देन बैट है।। गा-अश्वादि जातियांकी तरह मनुष्य शगम नही मातव, शोका ममवमरणमे जाना जब अध्याप- पाया जाता, प्रत्युन इमकं शूद्रादिक यागम माहागी फजीक उपस्थित किये हा हरिवशपुगगाक प्रमाणसे ही आदिकम गर्भाधानकी प्रवृत्ति दबी जाती है, जो मिद्ध है तब वे लाग वहाँ जाकर भगवानकी पूजावन्दनाक अनन्तर उनकी दिव्य वागीका भी सुनने मनुष्य जानरे फैव जानिकर्मादयोद्भवा । है, जो मारं ममवमरणने व्यान होती है, और उमक वृक्तिमदा हिनदंदाचविध्यामहाश्नुनं ॥35॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ९ पास्तविक जाति भेदके विरुद्ध है । इसके मिवाय, और धर्मश्रवणके लिये शूद्रोंका ममवमरणमे जाना मादिपुराणमें दूषित हुए. कुलोंकी शुद्धि और अन- प्रगट है।" क्षरम्लेच्छों तकको कुलशुद्धिप्रादिके द्वारा अपनेमे इम अंशको 'ममोशरण' जैसे कुछ शब्द-परिमिला लेनकी स्पष्ट आज्ञाएँ भी पाई जाती है। ऐसे वर्तनके माथ पद्धत करने बाद अध्यापकजी लिखते उदार उपदेशोंकी मौजूदगीमे शूद्रोंक समवसरणम है-"इस लेखको श्राप मस्कृत हरिवंशपुराणके जाने आदिको किमी तरह भी पादिपुराण तथा प्रमाणों द्वारा सत्य मिद्ध करके दिखलावे। आपको उत्तरपुराणके विरुद्ध नहीं कहा जा सकता । इसकी अर्मालयन म्वय मालूम होजावेगी।" विरुद्ध न होनकी हालतम उनका 'अविरुद्ध' होना मेरी जिनप्रजाधिकाग्मीमामा पुस्तक आज सिद्ध है. जिसे सिद्ध करने के लिये अध्यापकजा १००) कोई ५ बर्ष पहले अप्रेल मन १९५४में प्रकाशिन क०के पारितापिककी घोषणा कर रहे है और उन हुई थी। उस वक्त तक जिनमेनाचार्यके हरिवंशरुपयोंको बाबू गजकृष्ण प्रेमचन्दजी दग्यिागम पुगणकी पदोलनरामजी कृत भाषा बर्चानका ही कोठी न००३ देहलीके पास जमा बतलाते हैं। लाहोरम (मन १९१८म) प्रकाशमं श्राई थी और वही चैलेख लेखम मेरी जिनपूजाधिकामीमांसा' अपने मामन थी। उममें लिखा थापुस्तकका एक अंश उद्धृत किया गया है, जा निम्न जिम ममय जिनराजन व्याख्यान किया उस प्रकार हैं ममय ममधमग्णम मुर-अमुर नर निग्यश्च मभी "श्रीजिनमनाचार्यकृत हरिवंशपुगगण (सग २) थे, मी मब ममीप मवज्ञन मुनिधर्मका व्याख्यान में, महावीर स्वामी के ममवमरणका वणन करते हुए किया, मां मुनि होनको ममर्थ जो मनुष्य निनमे लिम्बा है--ममवमरणम जब श्रीमहावीर स्वामीन कंईक नर ममारसे भयभीत परिग्रहका त्याग कर मनिधर्म और श्रावकधर्मका उपदेश दिया तो उसको मुनि भय शुद्ध है जानि कहिये मातृपक्ष कुल कहिये मनकर पहुनसं ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य लोग मुनि पितृपक्ष जिनके ऐसे ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य मैकड़ी होगये और चार्ग बणोंके स्त्री-पुरुषनि अर्थात माधु भय ।। १३१, १३०॥ श्रीर केक मनुष्य ब्राहाण, त्रिय, वैश्य और शनि श्रावकके बारह चाग ही वर्गाके पश्च अगाउन तीन गुगत चार वन धारण किये। इनना ही नही किन्तु उनकी पवित्र- शिक्षा त्रत धार श्रावक भय। और चागं वकी वाणीका यहाँ तक प्रभाव पड़ा कि कुछ तियवान कईएक स्त्री श्राविका भई ॥५३४|| और मिहादिक भी श्रावकके व्रत धारण किये। इससे, पूजा-वन्दना तिथंच बहुन श्रावकं व्रत धारते भय, यथाशक्ति १ कृित्यादिभेदाना देहम्मिन्न च दशनात । नर्मावर्ष तिष्ये ॥१३॥" बाहापयादिप शूद्रालाँगमाधान-प्रवतनात ॥ इस कथनको लेकर ही मैन जिनपजाधिकारनास्ति जातिकृती भेदा मनुष्याणा गवाऽश्ववत् । मीमामाकं उक्त लेखाशको मृष्टि की थी । पाठक श्रानिमहणानम्मादन्यथा पारकल्यने ।। 3. प. गुणभद्र दवेगे, कि इस कथनके आशयकं विरुद्ध उममें कुछ २"कुतावकारणाद्यस्य कुल सम्प्राप्त दूपणम् । भी नहीं है। परन्तु अध्यापकजी इम कथनको शायद माछाप गजादिमम्मत्या शाधयेत्स्व यदा कुलम् ॥४.१६८ मूलमन्थ के विरुद्ध समझन है और इसी लिये मंस्कृत तदाऽस्थापनयादव पुत्र पोत्रादि-मन्तती । हरिवंशपुराणपास उसे मत्य मिद्ध करनेके लिये न निषिद्ध हि दीक्षा कृले चदस्य प्रवजा: ।।-१६॥ कहते है। उसमें भी उनका श्राशय प्राय: उननं ही "स्वदेशेऽनक्षमतान् प्रजा बाबा विभायिन. । अशमं जान पड़ता है जो शूटोके ममवमरणम कुलशुद्धि प्रदानाय स्वमान्बु यादपत्र में. ॥ ४२ ॥ उपस्थित होकर व्रत ग्रहणमे सम्बन्ध रखता है और -याटिपगणं, जिनमन। उनके प्रकन चलज-लेम्बका विषय है। धन जमीपर Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] मगवमरणमे शूद्रोंका प्रवेश यहाँ विचार किया जाता है और यह देखा जाता है है बल्कि मानुषाः' जैसे सामान्य पदका प्रयोग करके और कि क्या पंडित दौलतगमजीका वह कथन मूलक उसके विशेषणको 'नाना' पदसे विभूषित करके मब आशयक विरुद्ध है । श्रावकीय व्रतोंके ग्रहणका उल्लेख के लिये उस खूला रक्खा गया है। साथम विद्याधरकरने वाला मूलका वह वाक्य इस प्रकार है - पुरम्सराः' विशेषण लगाकर यह भी स्पष्ट कर दिया है पचधाऽणुत्रत केचित त्रिविधं च गुगाग्रतम । कि उस काठमे विद्याधर और भूमिगांधरी दोनी शिनाव्रत चतुर्भेद तत्र स्त्री-पुरुषा दधुः ॥१३४॥ प्रकारके मनुष्य एक साथ बैठते हैं। विद्याधरका इमका मामान्य शब्दार्थ तो इतना ही है कि 'अनक' विशेषण उनके अनेक प्रकारका द्योतक है, 'ममवमरण-स्थित कुछ बीपुरुषोंने पंच प्रकार अणु- उनम मानङ्ग (चाण्डाल) जातियांक भी विद्याधर हात व्रत तीन प्रकार गुणत्रत और चार प्रकार शिक्षात्रत है और इस लिये उन सबका भी उमक द्वाग समाग्रहण किय। परन्तु विशेषार्थकी दृष्मि उन स्त्रीपरूपों वंश समझना चाहिए। को चारों वर्णोक बतलाया गया है क्योंकि किसी भी (व) ५८वे मगके तीसरे पद्यम भगवान नेमिनाथ वर्णके स्त्री-पुरुषों के लिये समवमरणम जाने पार की वाणीको 'चतुवर्णाश्रमाश्रया' विशेषण दिया गया व्रतोंके ग्रहण करनेका कही कोई प्रनिबन्ध नहीं है। है, जिसका यह स्पष्ट आशय है कि ममवसरणम इसक सिवाय, ग्रन्थकं पूर्वाऽपर कथनांस भी इसकी भगवानकी जो वाणा प्रवर्तित हुई वह चारों वणों पुष्टि होती है और वही अर्थ ममीचीन होता है जो और चागे आश्रमोका आश्रय लिय हए थी--अर्थान पूर्वाऽपर कथनोंको ध्यान रखकर अविगंध रूपसे चारों वर्षों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चागं किया जाता है । ममवमरणमे अमन शुद्ध भी जान है श्राश्रमां ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, मन्यम्नको यह हम श्रीमण्डपसे बाहर उनके प्रदक्षिणा-विधायक लक्ष्यम रखकर प्रनित हुई थी। और इसलिये वह वाक्यक विवचनपरम ऊपर जान चुके है । यहां पूर्वाs- ममवमरणम चारों वणों तथा चारों आश्रमांक पर कथनोंक दा नमन और नीचे दिये जाने हे.- प्रारिणयाकी उपस्थितिका और उनके उसे सुनने तथा (क) ममवमरणक श्रीमण्डपमे वलयाकार काष्ठ- ग्रहण करनेक अधिकारका मुचित करती है। काक रूपमे जो बारह मभा-स्थान होते है उनमसमा हालनमे ५० दौलतराम जीन अपनी भाषा मनुष्यों के लिये केवल तीन स्थान नियन हात ह- वनिकाम 'स्त्रीपुरुषाः' पदका अथ जो 'चारों वर्णक पहला गणधगदि मुनियोंक लिय, नीमग प्रायिकाओ स्त्रीपुरुप' मुझाया है वह न ना भमन्य है और न के लिये और १५वा शेप मब मनुष्योक लिये। इम मूलग्रन्थक विरुद्ध है । तदनुमार जिनपुजाधिकारमी वे कोठका वर्णन करते हुए हग्विशपुगणक. दुसरं मामाकी उक्त पंक्तियोंम मैन जा कुछ लिखा है यह मगम लिम्वा है भी न अमत्य है और न ग्रन्थकारक पाशयक विरुद्ध मपुत्र-वनिताऽनक-विद्याधर-पुरम्सग । है। और इमलिय अध्यापकजीन कारं शब्दछलका न्यपीटन मानुषा नाना-भाषा-वेष-मचस्ततः ॥८ श्राश्रय लेकर जा कुछ कहा है वह बुद्धि और विवेक अर्थान-१०व कोटक अनन्तर पत्र और वनि- म काम न लेकर ही कहा जा सकता है। शायद नाना-महित अनेक विद्याधगंका आगे करके मनुष्य अध्यापकजी शूद्राम स्त्री-पुरुपोका होना ही न मानने बैट, जो कि (प्रान्तादिक मंदास) नाना भाषाप्रोक हां और न उन्हें मनुष्य ही जानते हों, और इसीसे बोलने वाले, नाना वाँको धारण करने वाले और 'मानुषाः' तथा 'स्त्री-पुरुषा' पोका उनं. वाच्य हीन नाना वर्णों वाल थे।" ममझते हों। इमम किसी भी वरण अथवा जाति-विशेष यहापर मैं इतना और भी बनला देना चाहता मानवाक लय व कोटको रिजब नही किया गया है कि जिम हरिवंशपुगणक कुछ शब्दोका गलत Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ९ आश्रय लेकर अध्यापकजी शूद्रों तथा दस्साओंको मेरे उक्त लेखांश और उसपर अपने वक्तव्य के जिनपूजाके अधिकारसे वलित करना चाहते हैं उसके अनन्तर अध्यापकजीने महावीरम्वामीक समवमग्ण२६वे मर्गमें वसुदेवकी मदनवेगा-सहित 'सिद्धकूट- वर्णनसे सम्बंध रखने वाला धर्ममग्रहश्रावकाचारका जिनालय' की यात्राके प्रसङ्गपर उस जिनालयमं पूजा- एक श्लोक निम्न प्रकार अर्थसहित दिया हैवन्दनाके बाद अपने-अपने स्तम्भका आश्रय लेकर “मिध्यादृष्टिरभव्योप्यमंज्ञी कोऽपि न विद्यते । बैठे हुए' मातङ्ग (चाण्डाल) जानिके विद्याधरोंका जो ___यश्चानध्यवसायोऽपि यः संदिग्धी विपर्ययः ।।१६।। परिचय कराया गया है वह किसी भी ऐम आदमी अर्थात-श्रीजिनदेवकं समाशरणम मिथ्याष्टिकी अखि खालने के लिये पर्याप्त है जो शूद्रो तथा अभव्य - श्रमज्ञा - अनध्यवमायी - मशयज्ञानी तथा दस्माके अपने पूजन-निपंधको हरिवंशपुराणक मिथ्यात्वी जीव नहीं रहते है।" आधारपर प्रतिदिन करना चाहता है । क्योकि उम- इस श्लोक और उमक गलत अर्थको उपस्थित परस इतना ही स्पष्ट मालूम नहीं होता कि मातङ्ग करके अध्यापकजी बड़ी धृष्टता और गाक्तिके साथ जातियोंके चाण्डाल लोग भी तब जैनमन्दिरमे जाते लिखत है और पूजन करते थे बल्कि यह भी मालूम होता हे कि "बाबू जुगलकिशोरजीक निराधार लखका और श्मशान-भूमिकी हड़ियांके आभूपण पहने हुए, वहाँ- धर्ममग्रहश्रावकाचारकं प्रमाण सहित लेखका श्राप की राख बदनौ मले हुए तथा मृगछालादि ओढ़े, मिलान कर--पता लग जायगा कि वास्तवम आगमचमडके वस्त्र पहिने और चमड़ेकी मालाएं हाथोम के विरुद्ध जैन जनताको धोखा कौन देता है ?" लिय हुए भी जैनन्दिरमे जा मकते थे, और न मंग जिनपूजाधिकारमीमामा वाला उक्त लेख कंवल जा ही सकते थे बल्कि अपनी शक्ति और निराधार नहीं है यह मब बात पाठक ऊपर देख चुके भक्तिके अनुसार पूजा करने के बाद उनके वहाँ बैठने- है, अब देखना यह है कि अध्यापकजीक द्वारा प्रस्तुत के स्थान भी नियत थे, जिसमें उनका जैनन्दिरमे धर्ममग्रहश्रावकाचारका लख कान में प्रमाणको साथम जाने आदिका और भी नियत अधिकार पाया लिये हुए है और उन दोनांके साथ आप मेरे जाता है। लम्बकी किस बात का मिलान कराकर श्रागविरुद्ध १ कृत्वा जिनमह वटा: प्रव- प्रतिमागृहम । कथन और धीवादही जमा नतीजा निकालना चाहते तस्थुः स्तम्भानुपाश्रित्य बहुवेषा यया यथम ॥ ३ ॥ है ? धर्ममग्रहश्रावकाचारकं उक्त शोकक माथ अनु२ देयी, नाक १४ स २३ नया विवाहक्षत्रप्रकाश' पृष्ठ वादको छोड़कर दुमग कोई प्रमाण-वाक्य नहीं है। ३१ मे ३५ । यहां उन दममग दा श्लोक नमूनेक. तारपर मालूम होता है अध्यापकजीन अनुवाद को ही दुमग इम पकार है प्रमाण समझ लिया है, जो मूल के अनुरूप भी नहीं श्मशानाऽस्थि कृतोत्तमा मस्मरणु विधूमगः । है और न मर उक्त लग्बक माथ दानाका कोई मम्बध श्मशान-निलयास्त्वेत श्मशान स्तम्भमाश्चिताः ||१६|| ही है। मेरे लग्बम चारो वर्णक मनुष्यांक समवमरण कृगाजिन घरास्त्वेत काचर्माम्बर मजः । में जाने और व्रत ग्रहण करनेकी बात कही गई है, कानील स्तम्भ येत्य स्थिताः काल व पाकिनः ॥१॥ जब कि धममग्रहश्रावकाचारके उक्त श्लोक श्रीर अन३ यहॉपर इस उल्लेग्वपरमे किमीको यह समझनकी भूल न भी ऐमे लागाका जैनमन्दिरमे जाना आदि आपातक. करनी चाहिए कि लेम्वक अाजकल वर्तमान जनमन्दिरी याम्य नही ठहराया और न उसमें मन्दिरके अपवित्र हो में भी ऐसे अपवित्र वपमे जानेकी प्रवृत्ति चलाना जानकी ही मूचित किया। इसम क्या यह न ममझ लिया चाहता है। जाय कि उन्होंने एमा प्रवृत्तिका अभिनन्दन किया है ४ श्रीमनमनाचार्य ने हवा शताब्दीक वातावरण के अनुसार अथवा उस वग नहीं ममझा ? Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] समवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश वादमे उसके विरुद्ध कुछ भी नहीं है। क्या अध्यापक मिथ्याष्टिथे अथवा उन्हें किसी विषयमे सन्देह था। जी शुद्रांको सर्वथा मिथ्या दृष्टि, अभव्य, अमंज्ञी दूर जानेकी भी जरूरत नहीं, अध्यापकजीके मान्य (मनहित) अनध्यवमायी, मंशयज्ञानी तथा विपरीत ग्रन्थ धर्मसंग्रहश्रावकाचारको ही लीजिये, उसके (या अपने अर्थक अनुरूप मिथ्यात्वी') ही समझते है निम्न पद्यमे जिनेन्द्रसे अपनी अपनी शङ्काक पूछने और इमीम उनका समवसरणमे जाना निषिद्ध और उनकी वाणीको सुनकर सन्दह-रहित होनेकी मानते है ? यदि ऐमा है तो आपके इम आगम- बात कही गई हैज्ञान और प्रत्यक्षज्ञानपर रोना आता है; क्योंकि निजनिज-हृदयाकृतं पृच्छन्ति जिन नराऽमरा मनमा। आगम अथवा प्रत्यक्षसे इसकी कोई उपलब्धि नहीं श्रुत्वाऽनक्षरवाणी बुध्यन्त स्युर्विसन्देहाः ॥३-५४।। होती-शुद्र लोग इनमेमे किमी एक भी कोटिम हरिवंशपुगणक वे सर्गमे कहा है कि नेमिसर्वथा स्थित नहीं देखे जाते। और यदि ऐमा नहीं। नाथकी वाणीको सुनकर कितने ही जीव सम्यग्नर्शनहै अर्थात् अध्यापकजी यह समझते है कि शूद्र लाग को प्राप्त हुए, जिससे प्रगट होता है कि वे पहले मम्यग्दष्टि, भव्य, मज्ञी, अध्यवसायी, असशयज्ञानी मम्यग्दर्शनसे रहित मिथ्याटि थे । यथा:-- और अविपरीत (अमिथ्यात्वी) भी हाने है तो फिर ने मम्यग्दर्शन केचित्मयमामयमं परं । उक्त श्लाक और उसके अर्थका उपस्थित करनेसे क्या मंयम कचिदायाताः मसागवासभीग्व: ।।३.७॥ नतीजा ? वह उनका कोग चित्तभ्रम अथवा पागलपन नहीं तो और क्या है ? क्योंकि उमस शूद्रांक भगवान आदिनाथकं ममवमरणमे मरीचि ममवमरगम जानका तब कोई निपंध सिद्ध नही मिभ्याष्ट्रिक रूपम ही गया, जिनवाणीको सु हाता । ग्वेद है कि अध्यापकजी अपन बुद्धिव्यवमायक उसका मिथ्यात्व नहीं छूटा, और सब मिध्या तपइमी बल-वृतपर दूसरोंको आगमकं विरुद्ध कथन स्वियाकी श्रद्धा बदल गई और वे सम्यक तपमे स्थित करन वाल और जनताका धावा देने वाल तक हागये परन्तु मरीचिकी श्रद्धा नही बदली और इम लिखनकी धृष्टता करन बैठ है। लिये अकला वही प्रतिबाधको प्राप्त नहीं हुश्रा; जैसा कि जिनसेनाचार्य श्रादिपुगण श्रीर पुष्दन्त-कृत अब मै यह बतला देना चाहता हूँ कि अध्यापक महापुराणके निम्न वाक्यास प्रकट हैजीका उक्त शोकपरसं यह ममझ लेना कि ममवमरणमे मिध्याइष्टि नथा मशयज्ञानी जीव नहीं "मरीचि-वाः सर्वेऽपि तापसाम्तपसि स्थिताः।" होने कोरा भ्रम है-उमी प्रकारका भ्रम है जिमके आदिपुराण २४.८२ अनुमार व विपर्यय' पदका अर्थ 'मिथ्यात्वा' करके "दमामाहरणीय-पडिरुद्ध एक मरी गगय पडिबद्ध" 'मिथ्याष्टि' और 'मिथ्यात्वी' शब्दांक प्रथम अन्तर -महापुराण, मांध ११ उपस्थित कर रह है और यह उनके आगमज्ञानके वास्तवम व ही मियादीष्ट ममवसरणम नहीं दिवालियपनको भी सूचित करता है । क्योंकि आगम जा पाते है जो अभव्य हान है-भव्य मिथ्याट्रि में कहीं भी गमा विधान नहीं है जिसके अनुमार नो अमन्याने जाने है और उनमम अधिकांश ममा मिथ्या दृष्टियों नथा मशयज्ञानियोका सम- सम्यग्दृष्टि होकर निकलने हैं-और इम लिय वमरगणमे जाना वजिन ठहराया गया हो। बल्कि मिथ्याष्टि' नथा 'अभव्याऽपि' पदांका एक माथ जगह-जगह पर ममवसरणमे भगवानके उपदेशक, अथ किया जाना चाहिये, व नीनी मिलकर एक अनन्तर लागोंके मम्यक्त्व-ग्रहगी अथवा उनके अथके वाचक है और वह अथ है-- 'वह मिध्याष्ट्रि मशयांक उच्छेद होनकी बात कही गई है और जो जो अभव्य भी है। धर्ममग्रहालक उक्त नाकका इम वानका म्प मचक है कि वे लोग नमम पहने मृलनात निलोयपण्णन्नीकी निम्न गाथा है, जिमम Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० अनकान्त [ वर्ष ९ 'मिच्छादिट्टिअभव्या' एक पद है और एक ही है ?-और स्वयं ही नहीं बतलाया बल्कि देवोंनेप्रकारके व्यक्तियोंका वाचक है अहन्तों तथा गणधरोंने-बतलाया है ऐसा स्पष्ट मिच्छाइटिअभव्या तेसुमसरणी ण होति कइआई। निर्देश किया हैतद्द य अणज्मवसाया मंदिद्धा विविविवरीदा।। "व्रतस्थमपि चाण्डालं तदेवा ब्राह्मणं विदुः।"५१-२०३ ४-९३२॥ ऐसी हालतमे उन चाण्डालोंको समवमरणमे इसी तरह 'मदिग्धः' पद भी मशयज्ञानीका जानसे कौन रोक सकता है ? ब्राह्मण हानसं उनका वाचक नहीं है-मशयज्ञानी तो असंख्याते मम- दर्जा तो शटोंमें भी ऊँचा होगया। वसरणमे जाते हैं और अधिकांश अपनी अपनी . | और स्वामी ममन्तभद्रने तो रनकरण्डश्रावकाशताओंका निरसन करके बाहर आते है-बल्कि चार (पद्य २८) मे अवता चाण्डाल को भी सम्यग्दशनउन मुश्तभा प्राणियोंका वाचक है जो बाह्यवषादिक से सम्पन्न होनपर 'देव' कह दिया है और उन्होंने कारण अपने विषयम शङ्कनीय हात है अथवा कपट- भी स्वय नहीं कहा बल्कि देवान वैसा कहा है ऐसा वषादिक कारण दूसरकि लिय भयङ्कर (danger- देवा देवं विदः इन शब्दांक द्वारा स्पष्ट निर्देश किया ous, risky) हुआ करते है। ऐसे प्राणी भी सम है। तब उस देव चाण्डालको समवसरणम जान यसरण-सभाके किसी कोठेम विद्यमान नही होते है। कौन रोक सकता है, जिसे मानव हानक अतिरिक्त तीसरे नम्बरपर अध्यापकजीन सम्पादक जैन दवका भी दर्जा मिल गया? मित्रजीका एक वाक्य निम्न प्रकारसे उद्धन किया है-- इसके सिवाय, म्लन्छ देशीम उत्पन्न हा म्लेच्छ ___"समांशरणम मानवमात्रके लिये जानेका पूर्ण अधिकार है चाहे वह किसी भी वर्णका अर्थात जाति मनुष्य भी मकल मंयम (महाव्रत) धारमा करके जैन मुनि हो सकते है एमा श्रीवीरसेनाचायन जयधवला का चाण्डाल ही क्यों न हो।" टीकाम और श्रीनामचन्द्राचाय (द्वितीय) ने लब्धिमार इमपर टीका करते हुए अध्यापकजीने केवल गाथा १९३की टीकाम व्यक्त किया है । तब उन इतना ही लिखा है-"मम्पादक जैनमित्रजी अपनसे मुनियोको ममवमरणम जानम कौन रोक मकना है ? विरुद्ध विचारवालको पोंगाप-थी बतलाते है। और वती गन्धकुटीक पाम मबम प्रधान गगाधर-मुनिअपने लेख द्वारा समांशरणम चाण्डालको भी प्रवेश करते हैं । बलिहारी आपकी बुद्धिकी।" काठम बैठंग, उनके लिये दूमग काइ स्थान ही नहीं है। इमसे सम्पादक जैनमित्रजी बहुत मस्ते छूट एसी स्थितिम अध्यापक जी किम किम आचार्यगये हैं । निसन्देह उन्होंने बडा ग़जब किया जा की बुद्धिपर 'बलिहारी हगि इममता बहतर यही अध्यापकजी जैसे विरुद्ध विचारवालांकी पांगापन्थी' है कि वे अपनी ही बुद्धिपर बलिहारी होजाएँ और बतला दिया । परन्तु अपने गमकी गयमे अध्यापक ऐमी अज्ञानतामूलक, उपहामजनक एव आगमविरुद्ध जीन उसमें भी कहीं ज्यादा राज्य किया है जो मम व्यर्थकी प्रवृत्तियोंस बाज आएँ । बसरणम चाण्डालको भी प्रवेश करने वालेकी वीरमेवामन्दिर, मरसावा बुद्धिपर 'बलिहारी' कह दिया । क्योंकि पापराणक ता० २-६-१६४८ जुगलकिशार मुख्तार कर्ता श्रीविषेणार्यने प्रती चाण्डालको भी ब्राह्मण १ देखो, उक्त टीकाएँ तथा 'भगवान महावीर पोर उनका बनलाया है- दमो मनशनादिकोंकी तो बात ही क्या ममय' नामक पुस्तक पृ० २६ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व जीका हालका एक आध्यात्मिक पत्र श्रीयुत् लाला जिनेश्वरदामजी (महारनपुर) योग्य-- किया जाता है वह समय स्वात्म-चिन्तन आपका पत्र श्रीभगत जी के पास आया- स्वाध्यायका यही मर्म है। मेरी तो यह मम्मति है समाचार जानकर आश्चर्य हुश्रा । इतनी व्यप्रताकी जो काम करो अपना हितका अंश पहले देखो। आवश्यकता नही । यहाँ कोई प्रकार की असुविधा यदि उसमे आत्महित न हो तब चाहे श्रीभगवतका नही । संसारमे पुण्य-पापकं अनुकूल मर्वसामग्री अर्चन हो और चाहे मसार-सम्बन्धी कार्य हो, स्वयमेव मिल जाती है और यह जो मामग्री है सो करनेकी आवश्यकता नही । जिस कार्य करनेसे कुछ कल्याण-मागकी माधक नही, कल्याण-मागकी आत्मलाभ न हो वह कार्य करना व्यर्थ है। सम्यग्दृष्टि साधक तो अन्तरङ्गकी निमलता है, जहाँ परसं भगवत-अर्चा करता है वहाँ उसे अशुभोपयोगका तटस्थता है। तटस्थता ही ममार-बन्धनको पैनी निवृत्तिसं शान्ति मिलती है । शुभोपयोगका ती छैनी है । न तो ममार अपना बुग करने वाला है शान्तिका बाधक ही मानता है, परन्तु क्या करै मोहऔर न कोई महापुरुष हमारा कल्याणका जनक है। के उदयमे उसे करना पड़ता है, यह तो शुभोपयोगकी हमने आजतक अपनको न जाना और न जाननेका बान रही । जिस समय उसकी विषयादिमे प्रवृत्ति प्रयत्न है, कंवल परकं व्यामोहमे पड़कर इस अनन्त होती है उस समय उस कार्यको वेदनाका इलाज मसारके पात्र बने । अत: अब इस पगधीनताको ममझकर करता है और जैसे कड़वी औषध पीकर त्यागी, केवल अपनको बनाओ । जहाँ आत्मा केवल गंगी रोगको दूर करता है तब विचारो रोगीका बन जावेगी, बम मर्व आपत्तियांका अन्त हो कड़वी औषधसं प्रेम है या रोग-निवृत्तिसे । एव उम जावेगा। यह भावना त्यागी -जो हममे पगपकार ज्ञानीकी दशा है जो चारित्र-मोहके उदयमें विषयहोता है या पम्मे हमाग उपकार होता है। न तो सेवन करता है । यद्यपि बहुनसे मनुष्य इस मर्मको कोई उपकारक है और न अपकारक है । जैसे न ममझ, परन्तु जिनने शास्त्रका मम जाना है उन्हें चिडिया जालमे फम जाती है इमीनरह हम भी तो इसे ममझना कोई कठिन नहीं । अन आप इम इनके द्वारा कल्याण होगा-इम व्यःमोहम परके ओर की चिन्ताको छोड़कर स्वाध्यायम मलग्न गहए। जालम फंस जाते है, नाना प्रकारकी चेष्ट्राएं कर विशेष क्या लिखे, हम म्वय इस जालम प्रागर परको प्रसन्न करना चाहते है। प्रथम नो वह हमारे अन्यथा आपको पत्र लिखनेकी ही क्या आवश्यकता अधीन नहीं और न उसका परिणमन हमार अधीन थी। आपके परिणमनकं हम स्वामी नहीं, व्यर्थ ही है। थोड़े ममयको कल्पना करो, उसका परिणमन चेष्टा कर रहे है, जा आप या करो। हमारे अनुकूल हो भी गया नब उम परिणमनम हम नोट- -मैन तो अन्तरगसे यह निश्चय कर क्या लाभ ? हमारा लाभ और अलाभ हमारे लिया जा आपकी प्रवृत्ति हमारे अनुकूल न हर्ट और परिगामनके अधीन है। अनः कल्यागाकी श्राकांक्षा है न है और न होगी। एवं मेरी भी यही दशा है जो नब इन भाग्शः विकल्पजालोंको त्यागी, जिम दिन आपके अनुकूल न हूँ और न था और न हूँगा। यह परिणमन होगा, स्वयमेव कल्याण हो जावेगा। इमी प्रकार मर्व मंसारकी जानना। समयानुकूल जो हावं मोहोन दा, किमी अधीन आ शु चि मन रहीं। अपने आपको श्राप ममझो, परकी चिन्ता गणेशप्रमाद वर्णी त्यागी । और जो ममय इन पत्रांक लिम्बनमें व्यय (वैमशाग्यमुदि) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-कहानी "माँ ! यह आज इन्सानोंको क्या होगया है"? नाम ही तो जिन्दगी है । जिन्दगीकी ख्वाहिशात "यह बावले होगये हैं बेटा"! क्या हैं? "बावले"? ____ "दूमगेकं मुंहसे छीछड़े और हड़ियाँ छीननेके "हाँ, बावले"। लिये आपसमे लड़ना, एक दुमरको काटना, और "क्या इन्सान भी बावले हुआ करते है माँ"। अपनी जिन्मको औरतमि . " उफ, "अब यह इन्सान कहाँ रहे ? हमारी तरह कुत्ते उफ, उफ ! इन्मानी कुत्ते भी अब हमारी तरह बन गये हैं यह लोग"1 मोचने लगे है। लेकिन यह बुरुजवा किस शै का नाम है ? शायद कुत्ता बननम पहले इन्मानको "हाँ, हाँ, कुत्ते"। बुरजुश्रा कहते थे। "लेकिन, माँ । इनकी मरत तो हमारी तरह नहीं बदली। जल्संस लौट रहा था कि मामनम बेहिजाब "सूरत नहीं बदली तो क्या करतून तो हमारे फैशनबिल औरताका गाल मुम्कराता, कह कह जैसे होगय है बेटा । मूरत भी बदल जायगी। लगाना पा रहा था। नज़दीक आनपर मैन सुना--- "और यह तड-नडकी आवाजे क्या थी माँ"। "अब औग्ने मौका मुहताज नहीं रहेगी, वे "यह इनके बावलेपनकी दवा है । इन्मान हमारं खुद कमाकर ग्वाएंग"। बावलेपनका इलाज जहरकी गालियोंसे करते है और "यूमपम तो औरत हर किम्मकी गलामीसे बन्दुककी गोलियोंमें उनका बावलापन दूर होता है"। आज़ाद हाचुकी है। * मैन इत्मीनानकी मॉम ली, हमारी कोमकी परंडके मैदानम मैने-कुचैले इन्सानोंकी भीड़मे औरते भी तो खुद कमाकर खानी है। वे भी तो लाल झण्डके नीचे बरफकी नरह सफेद कपड़े पहने किमीकी ग़लाम बनकर नहीं रहती । मैं अपने हा एक इन्मान कह रहा था-"रोटी और दुनियावी खयालोंमे डूबा हुआ था कि कानांम सरीली ख्वाहिशान हामिल करनेका नाम ही जिन्दगी है। आवाज़ आइ.बाकी सब बाते बुरजुश्रा लोगोंकी मनघड़न्त है"। " इश्क कही ले चल इस पापकी दुनियास"। जिन्दगी, बम रोटी और ख्वाहिशात हामिल आवाजकी मीधमे निगाह दौडाई, दी नौजवान करनेका नाम है. । उफ उफ ।। उफ !!! मेरी मां न लड़कं ऑव फाड-फाड़कर इन औरतीको देख रह बिल्कुल सच कहा था, आदमक बेट कुत्ते बन गये थे। उनके आठोपर हमी चल रही थी और बांग्या है कुत्ते। लेकिन इनकी मुरत तो अभी तक नही में वही बया चमक थी हम कुनांकी आँखाम बदली। वह भी बदल जायगी। मन और वचन कुत्तियाका देवकर आ जाती है । जब बदल गये है तो कायाको भी बदलत क्या * ागरमे प्रकाशित मार्च माह के उर्दू शाय' में जनाब दर लगेगी? अाजाद शाह पुरीकी कहानीका यह मक्षित अश माभार आग्विर हमारी कौमी लुगत (जानीय कोप) में दिया जारहा है। भी तो खान-पान और ख्वाहिशान हामिल करनेका --- गोयलीय Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यागका वास्तविक रूप [परिशिष्ट] (प्रवक्ता पूज्य भीतुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य) सना खाज अकिश्चन्य धर्म है, पर दो द्वादशी होजानेसे बड़ी बात पूछी, उस में क्या है ? वही तो अयोध्या है आज भी त्याग धर्म माना जायगा । त्याग- जिसमे गमचन्द्रजी पैदा हुए थे। अच्छा, बालकाण्डका स्वरूप कल आप लोगोंने अच्छी तरह सुना था। मे क्या है ? खूब रही, इतने काण्ड हमने बतलाये, आज उमके अनुसार कुछ काम करके दिखलाना है। एक काण्ड तुम्ही बतला दो। सभी काण्ड हम ही से मृच्छका त्याग करना त्याग कहलाता है। जो पूछना चाहते हो। इमी प्रकार हमारा भी कहना है चीज आपकी नही है उसे आप क्या छोडेगे? बह कि इतने धर्म तो हमने बतला दिये। अब एक त्याग नो छूटी ही है। रुपया, पैमा, धन, दौलत सब आपसे धमें तुम्हीं बतला दो। और हमसे जो कुछ कहो सो जुदे हैं। इनका त्याग तो है ही। आप इनमे मळ हम त्याग करनेको तैयार है-कहो तो चले जाय । छोड दो, लोभ छोड़ दो; क्योंकि मुर्छा और लोभ (हेमी)। आपके त्यागसे हमारा लाभ नहीं-आपका नो आपका है-आपकी आत्माका विभाव है। धनका लाभ है। आपकी ममाजका लाभ है, आपके राष्ट्रका त्याग लोभकषायक अभावमे होता है। लोभका लाभ है। हमारा क्या है ? हमे नो दिनमे दो रोटियाँ अभाव होनम आत्मामे निर्मलता आती है। यदि चाहिएँ, सो श्राप न दोगे, दृमरे गाँववाले दे देगे। कोई लोभका त्यागकर मान करने लग जाय-दान आप लुटिया न उठाओगे तो (क्षुल्लकजीके हाथसे करके अहङ्कार करने लग जाय तो वह मान, कषायका पीछी हाथमे लेकर) यह पीछी और कमण्डलु उठाकर दादा हो गया। 'चूल्हें निकले भाडमे गिरे' जैसी स्वय बिना बुलाये आपके यहाँ पहुँच जाऊंगा । पर कहावत होगई। मो र्याद एक कषायस बचते हो तो अपना मांच ली। आज परिग्रहकं कारण मबकी उमसे प्रबल दृमरी कषाय मत करा । आत्मा (हाथका इशारा कर) यो कॉप रही है। रात दिन चिन्तित है--कोई न ले जाय । कँपनेमे क्या देखे, श्राप लोगोंमसे कोई त्याग करता है या नही । मैं तो आठ दिनसे परिचय कर रहा है। श्राज धग? रक्षा के लिये तैयार रहो । शक्ति सञ्चिन करो। तुम भी कर लो। इतना काम तुम्ही कर ला। दुमका मुंह क्या ताकते हो? या अटूट श्रद्धान रक्खा जिम कालमे जो बात जैमी होने वाली है वह ____एक प्रादमीम एकने पृछा श्राप गमायण उम कालम वैमी होकर रहेगी। जानते हो तो बताओ उत्तरकाण्डम क्या है। उसने कहा-अरे, उत्तरकाण्डमे क्या धग? कुछ ज्ञान 'यदभावि न नद्भावि भावि चेन्न तदन्यथा । ध्यानकी बाते है। अच्छा, अरण्यकाण्डम क्या है ? नग्नत्वं नीलकण्ठम्य महाहिशयन हरेः॥' उममे क्या धरा' अरण्य वनको कहने है, उसीकी यह नोति बछोंको हितोपदेशमे पढ़ाई जाती है। कुछ बाते है। लङ्काकाण्डम क्या है ? अरे, लङ्काको जो काम होने वाला नही वह नहीं होगा और जो कौन नहीं जानता ? वही तो लङ्का है जिसमें रावण होने वाला है वह अन्यथा प्रकार नहीं होगा । रहा करता था। भैया' अयोध्याकाण्टुम क्या है महादेवजी तो दुनिया के स्वामी थे, पर उन्हें एक बन्न Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ अनेकान्त [वर्ष ९ भी नहीं मिला। और हरि (कृष्ण) मंसारके रक्षक मैं श्रद्धाकी बात कहता हूँ। वरुआसागरम मूलचन्द्र थे उन्हें सोनेके लिये मखमल आदि कुछ नहीं मिला। था। बड़ा श्रद्धानी था। उसके पांच विवाह हुए थे। क्या मिला ? मर्प। पाँचवीं स्वीके पेट गर्भ था। कुछ लोग बैठे थे, जो जो देवी वीनगगने मो मो होसी वीरा रे ।। मूलचन्द्र था, मैं भी था । किमीने कहा कि मूलचन्द्र के बच्चा होगा, किसीने कहा बच्ची होगी, इस प्रकार अनहोनी होमी नहि कबहूँ काहं होत अधीरा रे॥ सभीने कुछ न कुछ कहा । मूलचन्द्र मुझसे बोलाहोगा तो वही जो वीतरागने देखा है, जो बात । आप भी कुछ कह दो। मैंने कहा भैया । मै निमित्तअनहोनी है वह कभी नहीं होगी। ज्ञानी तो हूँ नहीं जो कह दूँ कि यह होगा। वह दिल्लीकी बात है। वहाँ हरजमराय(?) रहते थे। बोला-जैसी एक-एक गप्प इन लोगोंने छोड़ी वैसी करोड़पति आदमी थे । बड़े धर्मान्मा थे। जिन- आप भी छोड़ दीजिए। मुझे कह पाया कि बच्चा पूजनका उनके नियम था । जब मवत् १४ (?) की होगा और उसका श्रेयासकुमार नाम होगा । समय गदर पड़ी तब मब लोग इधर-उधर भाग गये। आनेपर उसके बच्चा हुश्रा। उसने तार देकर बाईजीइनके लड़कोंने कहा-पिता जी ! ममय खराब है को' तथा मुझे बुलाया। हम लोग पहुँच गये। बडा इस लिये स्थान छोड देना चाहिये । हरजसरायने खुश हुआ। उसने खुशीमे बहुत सारा गल्ला गरीबोंको कहा-तुम लाग जापा, मै वृद्ध आदमी हैं। मुझे बॉटा और बहुतोंका कर्ज छोड़ दिया । नाम-संस्करण धनकी आवश्यकता नहीं। हमारे जिनेन्द्रकी पूजा के दिन एक थालीमे मौ-दो-सौ नाम लिकर रकम्व कौन करेगा ? यदि आदमी रखा जायगा तो वह भी और एक पाँच वर्षकी लड़कीसे उनमेसे एक कागज इम विपत्तिके ममग यहाँ स्थिर रह सकेगा, यह निकलवाया । मो उसमे श्रेयांमकुमार नाम निकल सम्भव नहीं। पिताक आग्रहसे लड़के चले गये । एक आया। मैंने तो गप्प ही छोडी थी। पर वह मच घण्टे बाद चोर आये । हरजमरायन म्बय अपने निकल आई। एक बार श्रेयासकुमार बीमार पड़ा नी हाथों मब तिजोगियों खोल दीं । चोगेन मब सामान गाँवके कुछ लोगोंन मूलचन्द्रसे कहा कि एक मोनका इकट्रा किया। लेजानेको तैयार हुए, इतनेमे एकाएक गक्षम बनाकर कुएको चढ़ा दो। मृलचन्द्रन बड़ी उनक मनम विचार आया कि कितना भला आदमी बढताके माथ उत्तर दिया कि यह लड़का मर जाय, है? इसने एक शब्द भी नहीं कहा । लूटने के लिये मृलचन्द्र मर जाय, उमकी स्त्री मर जाय, मब मर मारी दिल्ली पड़ी है, कौन यही एक है, इम धर्मात्मा- जाय; पर मै राक्षम बनाकर नहीं चढा मकता । को मताना अच्छा नहीं। हरजसगयन बहत कहा, श्रेयामकुमार उमक पाँच विवाह बाद उत्पन्न एक ही चार एक कारणका भी नहीं ले गये और दूसरे चार लड़का था फिर भी वह अपने श्रद्धानपर डटा रहा। श्राकर इसे तक न करे, इस खयालसं उमके दरवाजे मो श्रद्धान तो यही कहता है। जो मौका श्रानेपर पर ५ डाकुओंका पहरा बैठा गये। मेग तो अब भी विचलित होजाते है उनके श्रद्धानम क्या धरा ? विश्वास है कि जो इनना बढ़ श्रद्धानी होगा उसका यह पञ्चाध्यायी प्रन्थ है। इसमें लिम्वा है कि कोई बाल बांका नहीं कर सकता। 'बाल न बाँका कर मम्यग्दृष्टि नि.शङ्क होता है--निमय होता है। मैं मके जो जग ही रिपु हाय ।' जिमका धर्मपर अटल आपसे पूछता हूँ कि उसे भय है ही किम बातका? विश्वास है माग समार उमक विद्ध होजाय तो भी वह अपने आपको जब अजर, अमर, अविनाशी परउमका बाल बांका नहीं हो सकता। तुम एमा विश्वास पदार्थसे भिन्न श्रद्धन करता है, उसे जब इम बानका फरो, तुम्हाग कोई कुछ भी बिगाड़ ले तो मै विश्वास है कि पर पदार्थ मेरा नहीं है, मै अनाद्यनन्त जिम्मेदार हैं। लिग्वा लो मुझम । १ वीजीको माता श्री चिरोजाबाई जी।-म०। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] त्यागका वास्तविक रूप १६५ नित्योद्योत विशद-ज्ञानज्योति स्वरूप हैं। मैं एक है। मे बैठा है और कहता है कि मैं प्यासा हं। नाकने पर-पदार्थसे मेरा क्या सम्बन्ध ? अणुमात्र भी पर. कहा कि भद्र ' जरा अपनी ओर भी देखो। तुम भी द्रव्य मेरा नहीं है। हमारे ज्ञानमें ज्ञेय श्राना है पर चौबीमों घण्टे धर्ममें बैठे हो. इधर-उधर धर्मकी वह भी मुझसे भिन्न है। मै रसको जानता हूँ पर ग्म खोजमे क्यों फिर रहे हो? धर्म तो तुम्हारा आत्मामेरा नहीं हो जाता । मै नव पदार्थों को जानता हूँ पर का स्वभाव है, वह अन्यत्र कहाँ मिलेगा। नव पदार्थ मेरे नहीं हो जाते । भगवान् कुन्दकुन्द- ___ सम्यग्दृष्टि सोचता है जिस कालमे जो बात होने स्वामीने लिखा है वाली होती है उसे कौन टाल सकता है ? भगवान आदिनाथको ६ माह आहार नहीं मिला । पाण्डवोंको "अट्टमिक्को खलु सुद्धो दंसण-णाणमइश्रो मदाऽवी। वि अस्थि मज्झ किचि वि अगणं परमाणुमित्तं पि॥" अन्तर्मुहम केवलज्ञान होने वाला था, ज्ञानकल्याण का उत्सव करने के लिये देवलोग आने वाले थे। पर मै एक हूं, शुद्ध हूं, दर्शन-ज्ञानमय हूं, अरूपी इधर उन्हें तप्त लोहेक जिरह वख्तर पहिनाये जाने है । अधिककी बात जाने दो परमाणुमात्र भी परद्रव्य है। देव कुछ ममय पहले और श्राजाते ' श्रा कैम मेग नहीं है। जाते ? होना तो वही था जो हुया था। यही सोच पर बात यह है कि हम लोगोंने तिलीका तेल कर मम्यष्टि न इम लोकसे डरता है, न परलोकसे। खाया है, घी नहीं। इसलिये उसे ही मब कुछ समझ न उसे इस बातका भय होता है कि मेरी रक्षा करने रहे है। कहा है-'तिलतैलमेव मिष्टं येन न दृष्ट घृत वाले गढ, कोट आदि कुछ भी नहीं है। मैं कैसे कापि । अविदितपरमानन्दो जनो वदति विपय एव रहगा ? न उसे आकस्मिक भय होता है और रमणीयः ।।' जिमने वास्तविक सुग्वका अनुभव नहीं सबसे बड़ा मरणका भय होता है सो सम्यग्दृष्टिको किया वह विषयसुख को ही रमणीय कहता है । इम वह भी नहीं होना वह अपनेको सदा 'अनाद्यनन्तजीवकी हालत उस मनुप्यकं समान होरही है जो नित्योद्योतविशदज्ञानज्योति' स्वरूप मानता है। सुवर्ण रखे तो अपनी मुट्टीम है पर खोजता फिरता सम्यग्दृष्टि जीव मसारसं उदासीन होकर रहता है। है अन्यत्र । अन्यत्र कहाँ धरा ? आत्माकी चीज तुलसीदासने एक दोहेमे कहा हैआत्मामे ही मिल मकती है। 'जगते रह छत्तीस हो गमचरण छह तीन ।' एक भद्रप्राणी था। उसे धर्मकी इच्छा हुई। मुनि- ममारसे ३६क समान विमुख रहो और रामचन्द्र गजके पाम पहुँचा, मुझे धर्म चाहिए। मुनिराजने जीके चरणोंम ६३के समान सम्मुख । कहा- भैया । मुझ और बहुतमा काम करना है। वास्तवम वस्तुनत्त्व यही है कि सम्यग्दृष्टिकी अत: अवमर नहीं। इम पामकी नदीम चले जाओ श्रात्मा बड़ी पवित्र होजाती है, उसका श्रद्धान गुग्ण उसमे एक नाक रहता है। मैंने उसे अभी अभी धर्म बड़ा प्रबल हो जाता है। यदि श्रद्धान न होता तो दिया है वह तुम्ह दे देगा। भद्रप्रारणी नाकृतं पाम आपके गाँवम जो ८ उपवास वाला बैठा है वह जाकर कहता है कि मुनिराजन धर्मकं अर्थ मुझं कहांस श्राता ? इम लड़कीकं (काशीबाइकी ओर आपके पास भेजा है, धर्म दीजिये । नाक बोला, अभी मत करके) आज पाठवा उपवास है। नत्था कही लो, एक मिनिटमे लो, पर पहले एक काम मंग कर बैठा होगा उसक बारहवां उपवास है और एक-एक, दो। मै बडा प्यामा है, यह मामने किनारंपर एक दो-दो उपवामवालोंकी तो गिनती ही क्या है ? कुत्रा है उमस लाटा भर पानी लाकर मुझे पिला दी, 'श्रलमा कौन पियादोंम' ? वे तो मी, दी-मी होंगे। फिर मै आपको धर्म देना है। भद्रप्रागणी कहना है- यदि धर्मका श्रद्धान न होता तो इतना लंश फोकटम तृ बड़ा मृग्वं मालूम होता है, चौबीस घण्टं तो पानी- कौन महता? Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष व्याख्यानकी बात थी सो तो हो चुकी । अब मैं समझता हूँ अच्छा ही होरहा है। पाप करके आपके नगरके एक बड़े आदमीका कुछ अाग्रह है सो लक्ष्मीका संचय जिनके लिये करना चाहते हो वे प्रकट करता हूँ। भैया ! मैं तो ग्रामोफोन हूँ, चाहे जो उसके फल भोगनेमे शामिल न होंगे। बाल्मीकिका बजा लेता है जो मुझे जैसी कहता है वैसी ही कह किस्सा है। बाल्मीकि, जो एक बड़ा ऋषि माना देता हूँ। इन बड़े आदमियोंकी इतनी बात माननी जाता है, चोरी-डकैती करके अपने परिवारका पालन पड़ती है; क्योंकि उनका पुण्य ही ऐसा है । अभी करता था। उसके रास्ते जो कोई निकलता उसे वह यहाँ बैठनेको जगह नहीं है पर सेठ हुकुमचन्द्र लूट लेता था। एकबार एक साधु निकले। उनके आजाय तो सब कहने लगोगे, इधर आओ, इधर हाथमे कमण्डलु था । बाल्मीकिनं कहा-रख दो श्राश्रो। अरे हमारी तुम्हारी बात जाने दो, तीर्थकर यहाँ कमण्डलु । साधुने कहा-बच्चे! यह तो डकैती की दिव्यध्वनि तो समयपर ही खिरती है पर यदि है, इसमें पाप होगा। बाल्मीकिने कहा-मैं पापचक्रवर्ती पहुँच जाय तो असमयमे भी खिरने लगती पुण्य कुछ नही जानता, कमण्डलु रख दो। साधुने है। अपने राग-द्वेष है पर उनके तो नहीं है। चक्र- कहा-अच्छा, मैं यहाँ खड़ा रहूँगा, तुम अपने घरके वर्तीकी पुण्यकी प्रबलतामे भगवानकी दिव्यध्वनि लोगोंसे पूछ आश्रो कि मैं एक डकैती कर रहा हूँ अपने आप विग्ने लगती है। हाँ, तो यह सिंघईजी उसका जो फल होगा, उसमे शामिल हो, कि नहीं ? कह रहे हैं कि महिलाश्रमके लिये अभी कुछ होजाय लोगोंने टकासा जवाब दे दिया-तुम चाहे डकैती तो अच्छा है फिर मुश्किल होगा। भैया ' मैं विद्या- करके लाओ, चाहे साहकारीसे। हम लोग तो खाने लयको तो मांगता नहीं और उस वक्त भी नहीं मांगे भरमे शामिल है। बाल्मीकिको बात जम गई और थे, पर बिना मांगे ही सेठ २५०००) ₹ गया तो मैं वापिस आकर माधुसे बोला-बाबा ! मैने डकैनी क्या करूँ मै तो बाहरकी मस्थाओंको देता था, पर छोड दी। आप मुझे अपना चेला बना लीजिये। मुझे कह पाया कि यदि सागर इतने ही और देवे तो सब वही लेले । आप लोगोंने बहत मिला दिये। बात वास्तविक यही है। आप लोग पाप-पुण्यक कुछ बाकी रह गये मो आप लोग अपना वचन न द्वारा जिनके लिये सम्पत्ति इकट्री कर रहे हा वे निभाओगे तो किमीसे भीख मांग दगा। यह बात कोई साथ देने वाले नहीं हैं। अतः समय रहते महिलाश्रमकी है जैसे बच्चे तेमे बच्चियों। श्रापकी ही सचेत हो जाओ । देखे, आप लोगांमसे कोई हमारा तो है। इनकी रक्षामे यदि आपका द्रव्य लगता है तो साथ देता है या नहीं। समय रहते सावधान ! जौलो देह तरी काह रोगमों न घेरी जौली, जरा नाहि नेरी जासों पराधीन परि है । जौली जमनामा बैरी देय न दमामा जौली, मान कान रामा बुद्धि जाइन विगार है। तौलौ मित्र ' मेरे निज कारज संवार ले रे, पौरुष थकेगे फेर पीछे कहा कौर है । अहो भाग आये जब झोपरी जरन लागे, कुत्राके खुदाये तब कौन काज मरि है। -कवि भूधरदास के Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतपुरके सालुकेन्द्र नरेश और जैनधर्म ले.-कामताप्रसाद जैन, सम्पादक 'वीर' अलीगञ्ज (एटा) क्षिण भारतके राजवंशोंमें होय्सल राजवश सर्व मान बादशाहोंसे न जा मिलते तो दक्षिण भारतमें . अन्तिम हिन्दूशासक कहा जाय तो बेजा नहीं। हिन्दू राज्यका पतन शायद ही होता ! प्रस्तुत लेखमे मुहम्मदराज़नीने उसी वशके राजाको पराजित हम पाठकोंके समक्ष विजयनगर साम्राज्यके एक करके मुमलमानी शासन की नीव दक्षिणमे डाली थी। प्रसिद्ध सामन्त राजवंशका परिचय उपस्थित करते हिन्दु अपनी स्वाधीनताको खोती हुई देखकर तिल- हैं, जा इतना प्रभावशाली था कि अन्ततोगत्वा उसी मिला उठे। सबका माथा ठनका और सबने यवनोंका वशका एक पराक्रमी राजा विजयनगर साम्राज्यका विरोध करना निश्चय किया। पहले वैष्णव, शैव, अधिकारी हुआ था। लिङ्गायत और जैनोंकी आपसमे स्पर्धा चलती थी-- तुलुबदेशमें संगीतपुर एक बड़ा नगर था। वह यवनोंक आक्रमणने उस स्पर्धाका अन्त कर दिया। हाडुल्लि नामसे प्रसिद्ध था। आजकल यह स्थान वैष्णव, शैव, जैन और लिङ्गायत कन्धासे कन्धा उत्तर कनाड़ा जिलेमे है। उस समय यहाँ सालुवेन्द्र मिलाकर जननी जन्मभूमिकी रक्षाके लिये जुट पड़े। नरेश राज्याधिकारी थे। सारे तौलब देशपर उनका सबने मिलकर विजयनगर साम्राज्यकी स्थापना की। शासन चलता था। उनका वंश काश्यपगोत्री चन्द्रहोय्सल नरेशके प्रान्तीय शासक महामण्डलेश्वर कुलका क्ष त्रयवंश था। सङ्गीतपुर उस समय निस्संदेह हरिहरराय एक पराक्रमी शासक थे। जनताने उनको एक महान नगर था। जैनधर्मका वहाँ प्राबल्य था। ही अपना नेता चुनकर विजयनगरके राजसिंहासन- सन् १४८८ ई०के एक शिलालेखमे लिखा है कि पर बैठाया। उनके मंरक्षणमे हिन्दू-शासनकी रक्षा "तौलबदेशमे सङ्गीतपुर सौभाग्यका ही निकेत था । हुई । किन्तु यह हिन्दू साम्राज्य साम्प्रदायिकताके उसमे उत्तुङ्ग चैत्यालय बने हुए थे। वहाँपर सुखी, विषसे मुक्त था। पाकिस्तानकी तरह उसमे अल्प- समुदार और भोग-विलाममे मन नागरिक रहते थे। संख्यकोंका शोषण और निष्कासन नहीं किया गया हाथी-घोड़ोंसे वह भरा था। वहाँ बड़े-बड़े योद्धा, था। मुमलमान भी विजयनगरके हिन्दू साम्राज्यमें उचकाटिक कविगण, वादी और प्रवक्ता रहते थे। आजादीस रहते ही नहीं, बल्कि राज्यशासनमें उच्च- मानो वह नगर सरस्वतीका श्रावास होरहा था। पदोंपर आसीन थे। विजयनगरके कई सेनापति भी उस साहित्यका निर्माण जी वहां होता था। अपनी मुसलमान थे। इन मुसलमान कर्मचारियोंने हमेशा ललित कलाओंके लिये भी वह प्रसिद्ध था।" मतसहिष्णुताका परिचय दिया-यहाँ तक कि उन्होंने मङ्गीतपुरमे उस समय महामण्डलेश्वर सालवन्द्र हिन्दू देवता और गुरुको दान भी दिये । किन्तु शासन कर रहे थे । वह मालुवेन्द्र नरंश जिनेन्द्र इतना होते हुए भी उन्होंने हिन्दुओंकी समुदार-वृत्ति- चन्द्रप्रभुकं चरण-चश्चरीक बने हुए थे। उनका उदय का अवसर मिलते ही दुरुपयोग किया ! कदाचिन् रत्नत्रयधमके लिए सुरढ़ मंजुषा था। उन्होंने मङ्गीनविजयनगर हिन्दू साम्राज्यके कतिपय सामन्तगण पुरमे अतीव उत्तुङ्ग और नयनाभिराम जिन चैत्यालय स्वार्थमे बहकर राजद्रोह न करते और विजयनगरकी बनवाये थे, जिनके विशाल मण्डप और सन्दर मुसलमान संना और सेनापति धोखा देकर मुसल- मानस्तम्भ बने हुए थे। धातु और पाषाणकी भव्य Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ अनेकान्त [वर्ष ९ मूर्तियाँ भी उन्होंने निर्माण कराई थीं। नगरमे में उनके शौर्य का विवरण है। उसमें लिखा है कि मनोरम पुष्पवाटिकाएँ (Parks) बनवाकर उन्होंने उन्होंने शौर्य देवताको जीत लिया था । कर्मसूर नगरकी शोभाको बढ़या था और नागरिकोंको होनके साथ वह धर्मसूर भी थे । धर्मकार्य वह सुखसुविधा प्रदान की थी। नागरिक उनमे जाकर निरन्तर करते थे । बिडिरू (वेणुपुर)में वर्द्धमान आनन्दकेलि करते थे । इतनेपर भी सालुवेन्द्रको स्वामीका मन्दिर था । इन्दगरसने उस मन्दिरके इम बातका ध्यान था कि नगरमे धर्ममर्यादा अक्षुण्ण प्राचीन भूमिदानका पुनरुद्धार जैनधर्मको उन्नत रहे। इसीलिये वह मन्दिरोंकी धर्मव्यवस्था ठीक बनाने के लिये किया था। रखने के लिए सतर्क रहते थे। मन्दिरोंमें नियमित सङ्गीतपुरके अवशेष नरेशोंमे सालुब मल्लिराय, धर्म क्रियाएँ होती रहे, इसके लिए उन्होंने दान- सालुब देवराय और सालुब कृष्णदेव जैनधर्मक व्यस्था की थी। देवपूजा, चतुर्विध दान और प्रसङ्गमे उल्लेखनीय है। कृष्णदेवकी माता पद्माम्बा विद्वानोंको निरन्तर वृत्तियाँ दी जाती थीं। सारांश विजयनगर सम्राट् देवराय प्रथमकी बहन थीं। सन् यह कि मालुवेन्द्र नरंशन राजत्वकं आदर्शका १५३० ई के दानपत्रसे स्पष्ट है कि इन तीनों राजाओ निभाया और धर्ममर्यादाको आगे बढ़ाया था । ने प्रमिद्ध जैनगुरु वादी विद्यानन्द को आश्रय दिया इन मालवन्द नरेशक राजमन्त्री भी राजवंशके था। सालुब मल्लिराय और सालुब देवरायने राजरन थे। उनका नाम पद्म अथवा पाया था। राज. दरबागम उन्हान परवादियांस मफल वाद किया मर्यादाको स्थिर रखनम उनका उल्लेखनीय हाथ था । कृपयादवने श्रीविद्यानन्दकं पाद-पद्मोंकी था। इमीसे प्रसन्न होकर मालुवेन्द्रन उनको ओगेय- पूजा की थी। कर नामक ग्राम भेट किया । किन्तु पद्म इतने समु (मंडियावल जैनीज्म, पृष्ठ ३१४-३१८ देख) दार और धर्मवत्सल थे कि उन्होंने वह प्राम मन १५.९ ई०के एक लग्न से स्पष्ट है कि सम्राट जिनधर्म उत्कर्षके लिये दान कर दिया। 'जैन- कृष्णरायक शासनकालमे सङ्गीतपुरका शासनमूत्र जयतु-शासन' सूत्र मूतमान इस प्रकार ही था। गुरुरायकं हाथमे था, जो जेरसप्पे के शासकोंस उन्होंने अपने नामपर 'पद्माकरपुर' नामक ग्राम सम्बन्धित थे। गुरूराय भी अपने पूर्वजोंक समान बसाया था। सन् १४९८ ईमे उन्होंने उस प्रामम जैनधर्मके अनन्य भक्त थे। वह 'रत्नत्रयधर्मागधक' एक भव्य जिनालय निर्माण कराया और उसमे 'जैनधर्मध्वजारोहक'- 'स्वणिम जिनमन्दिरों और भगवान पार्श्वनाथकी दिव्यमति विराजमान की थी। मूर्तियांक निर्माता' कह गर्व है। इन विरुदोंसे उनकी महामण्डलेश्वर इन्दगरस ओडेयरकी इच्छानुसार जिनधर्मक प्रति भक्ति और श्रद्धा प्रगट होती है । उन्होंने उसके लिए भूमिदान दिया था। उस मन्दिर- इनकी सन्ततिमे हुए भैरव नरेशने श्राचार्य वीरसेनमें निरन्तर अभय-ज्ञान-भैपज्य-आहार दान दिया की आज्ञानुसार बंगापुर के त्रिभुवनचुटामणि-वस्ती' जाता था। जैन मन्दिर लोकोपकारक शिक्षा केन्द्र नामक मन्दिरकी छतपर ताँबेके पत्र लगवाये थे । होरहे थे-वे भुवनाश्रय थे। जीवमात्र उनमें पहुंच उनके कुल देव भगवान पार्श्वनाथ और राजगुरु कर अपना आत्मकल्याण करते थे। पण्डिताचार्य वीरसेन थे। उनकी रानी नागलदेवी महामण्डलेश्रर इन्दगरम मालवेन्द्रनरेशके छोट भी भक्तवत्मला श्राविका थी उन्हाने उपयुक्त मन्दिरक थे। वे महामण्डलेश्वर साङ्गिगजके पुत्र थे। इन्दगरस सम्मुख एक सुन्दर मानस्तम्भ बनवाया था। उनकी (इम्मडि सालवेन्द्र' नाममं प्रसिद्ध थे। उनका नाम पत्रियाँ (१) लक्ष्मीदवी और (२) पण्डितादेवी भी मैनिक प्रवृत्तियोंके कारण वृब चमक रहा था। वह अपनी माँकी तरह धर्मात्मा थी। वे निरन्तर जैन एक बहादुर योद्धा थे । मन १४५१कं एक शिलालेख साधुओको दान दिया करती थी। जब भैरव नरेश Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म बनाम समाजवाद (लेखक-५० नेमिचन्द्र जैन शास्त्री, ज्योतिषाचार्य, माहित्यग्न ) शाजके प्रगतिशील युगमें वे ही शक्तियाँ, सामा- सब श्रात्माओंका स्वभाव एक समान है किन्तु इन जिकप्रथाएँ एवं आचारके नियम जीवित संमारी आत्माओंमे मस्कार-कमजन्य मैल रहता है रह मकते हैं जो लोग समाजको चरम विकासकी जिससे इनके भावोंमे, शरीरकी रचनामे तथा इनके ओर ले जा सकें । जैनधर्मका लक्ष्य विन्दु भी अन्य क्रिया-कलापोंमे अन्तर है । यदि यह मस्कारएकमात्र मानव समाजको आध्यात्मिक, आर्थिक, विषय वामना और कषायोंसे उत्पन्न कमजन्य सामाजिक और राजनैतिक दृष्टिसे विकासकी ओर मलिनता दूर हो जाय तो मबका स्वभाव एक ममान ले जाना है। जैनाचार्योंने जीवन के प्रारम्भिक विन्दुको प्रकट हो जायगा' । उदाहरणके तौरपपर यों कहा (Starting point) उमी स्थानपर रखकर जीवन- जा सकता है कि कई एक जलके भरे हुए घडोम गति रेखाको प्रारम्भ किया है, जहाँसे मानव नाना प्रकारका रङ्ग घोल दिया जाय तो उन घड़ोंका समाज निर्माणका कार्य प्रारम्भ होता है। पानी कसा नही दिखलाई पड़ेगा; रङ्गोंके सम्बन्धसे जिम प्रकार स्वतन्त्रता व्यक्तिवाद (Indivi- नाना प्रकारका मालूम होगा । किन्तु बुद्धि पूर्वक dutlism)की कुञ्जी मानी जाती है, उसी प्रकार विचार करनेसे सभी घड़ोंका पानी एकसा है, केवल समानता समाजवादकी । जैनधर्ममे समस्त जीव- परसंयोगी विकार के कारण उनके जलमे कुछ भिन्नता धारियांको आत्मिक दृष्टिम समानत्वका अधिकार मालूम पड़ता है। अतएव सभा प्राणियोंकी आत्माएँ प्राप्त है । इममे स्वातन्त्र्य को बड़ी महत्ता दी गई है। ममान है-All souls are similar as regards ममारके सभी प्राणियों की आत्माम समानशक्ति है hell true real nature तथा प्रत्येक समारी प्राणाकी आत्मा अपनी भृलसे आध्यात्मिक दृष्टिसे समस्त समाजको एक स्तरपर अवनति और जागम्कनाम उन्नति करती है, इसका लाने के लिये ही सबसे प्रावश्यक यह है कि ममस्त भाग्य किसी ईश्वर विशंपपर निभर नहीं है। प्रत्येक प्राणियोको परमात्मस्वरूप माना जाय । जैनधर्ममे जीवधाराके शरीरमं पृथक पृथक आत्मा होनेपर भी इसीलिय परमात्माकी शक्ति जीवात्मासे अधिक नहीं गग्रस्त हुए तो वह जिनेन्द्र भगवानकी शराम मानी है और न जीवात्मामे भिन्न कोई परमात्मा ही पहुँचे । रोगमुक्त होनेके लिये उन्होंने जिन पूजा की माना है। इस प्रकार परमात्मा एक नहीं, अनेक है। और दान दिया। ऐसे दृढ़ श्रद्धानी यह राजपुरुष थे। जो कपाय और वामनाओस उत्पन्न अशुद्धतासे छूट उनकी धर्म श्रद्धा उन्हें मुखी और सम्पन्न बनानेम कर मुक्त हो जाता है, वही एक ममान गुणधारी कारणभत थी। आजका जगत उनके आदर्शका देव परमात्मा हो जाता है । अल्पशानी एवं विपय. और धर्मक महत्वको पहिचान ना दुग्व-शोय. - नयन्यात्मानमात्मैव जन्मनिर्वाण मेव च । भूल जावे । गुरुगत्मात्मनम्तस्मानान्योऽस्ति परमार्थनः ।। इम प्रकार विजयनगर साम्राज्यके एक जैन --- ममाधिशतक श्लोक ७५ धर्मानुयायी मामन्त राजवशका परिचय है। इनकं २-स्वबुद्धया यावद् गृहीयात् कायवाचेतसा यम । माथ अन्य सामन्तगण भी जिनेन्द्र भक्त थे। उनका ममारस्तावदेतेषां भेदाभ्यामे तु निवृतिः ।। परिचय कभी आगे पाठकों की नजर करेगे। -ममाधिशतक श्लोक ६२ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ९ वासनाओंमें आसक प्राणीको भी यह परमात्मा विशेषताओंके कारण अपने उत्थान और पतनमें होनेकी योग्यता वर्तमान है। परमात्मा हो जानेपर पुद्गल (Matter) को निमित्त कारण-सहायक इच्छाओंका अभाव होजता है और शरीर, मन, बना लेता है। इसलिये जीवके परिणामोंकी प्रेरणासेबचन नहीं रहते जिससे उन्हें किमी भी कामके करने मन, वचन और कायके परिस्पन्दनसे पदलके की चिन्ता नहीं होती है, न किसी कामकी वे परिमाणु अपनी शक्ति विशेषके कारण जीवसे पाकर आज्ञा देते हैं, अतएव जगतकर्तृत्वका प्रसङ्ग इन चिपट जाते हैं, जिससे जीवके स्वाभाविक गुण राग-द्वेषसे रहित स्वतन्त्र परमात्माओंको प्राप्त मलिन होजाते हैं। यह मलिनता सदासे चली प्रारही नहीं होता' है। है, जीव अपने पुरुषार्थ द्वारा इसे अलग कर पर__ यह विश्व सदासे है और सदा रहेगा; (world मात्मा बन जाता ह is eternal) न कभी बना है और न कभी नाश पुदल-यह द्रव्य मूर्तिक है, इसमें रूप, ग्म, होगा। इसमे प्रधानत: जड़ और चेतन दो प्रकारक गन्ध और स्पर्श चार गुण पाये जाते हैं। जितने पदार्थ हैं । इनका कभी नाश नहीं होता है. पदार्थ हमे आँखोंसे दिखलाई पडते हैं वे सब केवल इनकी अवस्थाएँ बदला करती हैं। इस परि- पीगलिक है । इममे मिलने और बिछड़नेकी योग्यता वतेनमे भी कोई बाह्य ईश्वरादि शक्ति कारण नहीं है यह स्कन्ध-पिण्ड और परमाणुके रूपमें पाया हैं; किन्तु षडद्रव्योंका स्वाभाविक परिणमन ही जाता है। शब्द (sound), बन्ध (union), सूक्ष्म कारण है। जैन मान्यतामे जीव, पदल, धर्म, अधर्म, (fineness), स्थूल (grassness), सस्थान-भेदआकाश और काल ये छः द्रव्य मान गये हैं. इन तमच्छाया (shape, division, darkness and द्रव्योंका समवाय-एकीकरण ही लोक है। उन image), उद्योत-श्रातप (lustre heat) ये सब द्रव्योंमे गुण और पर्याय ये दो प्रकारकी शक्तियाँ है। पुद्गल द्रव्यकी पर्यायाएँ (modification) हैं। इसके जो एक द्रव्यको दूसरे द्रव्यसे पृथक करता है उसे अनक भद-प्रभद आर भा अनेक भेद-प्रभेद और भी बताये गये हैं, जिनसे गुण एवं द्रव्योंकी जो अवस्थाएँ बदलती हैं उन्हें जीवोंके प्रायः सभी व्यवहारिक कार्य चलते हैं। पर्याय कहते है। गुण और पर्यायांके कारण ही धर्मद्रव्य'-जैन आम्नायमे इसे पुण्य-पापरूप द्रव्योंकी व्यवस्था होती है। नहीं माना गया है, किन्तु जीवों और पुदलोंके हलनजीव-चैतन्य ज्ञानादि गुणोंका धारी जीव चलनमे बाहिरी सहायता (Assists the moveद्रव्य है। यह अपनी उन्नति और अवनति करनेमे ment of moving) प्रदान करने वाले सूक्ष्म स्वतन्त्र है, किसी के द्वारा शासित नहीं है, इसका अमत्ते पदार्थको धर्मद्रव्य माना है। यह पाते, जाते, विकास अपने हाथोंमे है, इसे स्वतन्त्र होनेके लिये गिरते, पड़ते, हिलते, चलते पदार्थों को उनकी गतिमे किसीके आश्रित रहने की आवश्यकता नहीं। किन्तु मदद करता है, बलपूर्वक किसीको नहीं चलाता, इतनी बात अवश्य है कि जीव अपनी स्वाभाविक किन्तु उदासीनरूपसे चलते हुए पदार्थोंकी गतिमे सहायक होता है। इसका अस्तित्व समस्त लोकमे १ अहविहकम्मवियला सीदीभदा गिरजणा णिच्च । पाया जाता है। अठगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिगो सिद्धा ॥ १The Jain philosophers mean by Dha -गो० मा० जी० गा०६८ rama kind of ether, which is the ful २ लोगो अकिट्टिमो खलु श्रणाइ णिहया सहावणिवत्तो।। cruin of Motion, with the help ot जवाजीवेहि फुडो सब्वागामावयवो णिच्चो ॥ Dharam, Pudgala and Jiva move -त्रिलोकसागर गा०४ ---द्रव्यसग्रह पृष्ट ५२ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] जैनधर्म बनाम समाजवाद अधर्मद्रव्य-यह अमनिक पदार्थ स्थिर होने ममाजमेमे शोषित और शोषक वर्गकी ममाप्ति कर वाले जीव और पुदलोंको स्थिर होनेमे महायता आथिक दृष्टि से ममाजको उन्नत स्तरपर लाते हैं। (ASists the stating ot) करता है। उनका अहिमा-प्रधान जैनधर्ममे समस्त प्राणियोंके माथ अस्तित्व भी समस्त लोकमे पाया जाता है। मैत्रीभाव रखकर ममाजके विकामपर जोर दिया आकाशद्रव्य-जी सब द्रव्योंको अवकाश- है। मानवकी कोई भी क्रिया केवल अपने स्वार्थकी स्थान (space) देता है उसे आकाशद्रव्य कहते है। पूर्ति के लिये नहीं होनी चाहिये, बल्कि उसे समस्त इसके दो भेद हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश । समाजके स्वार्थको ध्यानमे रखकर अपनी प्रवृत्ति अनन्त आकाशक मध्यमे जहाँ तक जीव, पुद्गल, धर्म, करनी चाहियं । इमी कारण समस्त ममाजको सुखी अधर्म पाये जायें उस लोकाकाश' (unserse) बनाने के लिये व्यक्तिसे समाजको अधिक महत्व और जहाँ केवल आकाशद्रव्य ही हो उसे अलोका- दिया गया है तथा ममाजकी इकाईकं प्रत्येक घटकका काश (non-universe) कहते है। दायित्व समानरूपमे बताया गया है। कालद्रव्य-जिसके निमित्तसे वस्तुओंकी अव- अपरिग्रहवाद-अपने योगक्षेमके लायक भरणस्थाएँ बदलती हैं उसे कालद्रव्य कहते है। पोषणकी वस्तुओंको ग्रहण करना तथा परिश्रम कर अभिप्राय यह है कि इन छ: द्रव्यों (Subs. जीवन यापन करना, अन्याय और अत्याचार-द्वारा tences) मे काम करने वाले (Actors) मंमारी पृञ्जीका अर्जन न करना अपरिग्रह है। शास्त्रीय दृष्टिअशुद्ध जीव और पुद्रल हैं, ये चलना, ठहरना, से पूर्ण परिग्रहका त्याग तो माधु-अवस्थाम हो स्थान पाना एव बदलना-परिवर्तन ये चार कार्य सम्भव है, किन्तु उपयुक्त परिभाषा गृहस्थ जीवनकी करते रहते है। उनके कार्योमे क्रमशः धमद्रव्य, दृष्टिस दी गई है। जैन मस्कृतिम परिग्रहपरिमाण'क माथ भांगोपभोगपरिमाणका भी कथन किया है। अधमद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य निमित्त जिमका तात्पर्य यह है कि वर, श्राभरण, भाजन, कारण (Authuv cusc) अर्थात महायक होने है। हम प्रकार विश्वकी मारी व्यवस्था बिना किमी ताम्बूल आदि भोगीपभोगकी वस्तुओक सम्बन्धम प्रधान शामक-ईश्वर कर्ताक सुचारुम्पस बन " भी ममाजकी परिस्थितिका दबकर उचित नियम जाती है। मभी द्रव्य अपने अपने विशेष गगांक करना मानवमात्रके लिये श्रावश्यक है । उपर्यत कारण अपने-अपने कार्य को करते रहते है। इन दोनों नोंक ममन्वयका अभिप्राय यह है कि ममम्त मामारिक कार्याम जीव और पगल उपादान कारण मानव ममाजकी आर्थिक अवस्थाको उन्नन बनाना। और अन्य द्रव्य निमित्त कारण होते है। चन्द लोगोंको इस बातका काई अधिकार नहीं कि वे १ वास्तु नत्र धान्य दामी दामश्चनुप्पट भागहम । आर्थिक दृष्टिकोण परिमय कर्तव्य म मन्तापकुशलन ।। आर्थिक दृष्टिम ममाजको ममान स्तरपर लाना -अामतगतिश्रावकाचार पृए १६२ जैनधर्मका एक विशिष्ट मिद्धान्न है। जैन मंग्कृतिके ममंमिनि मकल्पश्चिदचिन्मिश्रवस्तप । प्रधान अङ्ग अपरिग्रह और मयमवाद ये दोनों ही अन्यस्तकर्शनात पा र्शन तत्प्रमावतम ।' १ धम्माधम्मा काला पुग्गलजीवा य संति जावटिये । -मा० ध० अ०४, श्लोक ५६ आयासे मो लोगो नत्तो परदो अलोगुनो ॥ २ ताबूलगन्धन पनमजनभोजन पुगगमी भागः । -द्रव्यमग्रह गा०२० उपभोगी भषास्त्रीशयनासनवम्बयाहाद्याः ।। लोकतीति लोक :--लोकति पश्यत्युपलभते अर्थानिति भोगोपभागसव्या विधीयते शक्तितो गताया। लोकः । -तत्वार्थ गजवार्तिक ५। १२ अमित गतिभावकाचार पृ० १६८ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ अनेकान्त शोषण कर आर्थिक दृष्टिसे समाज में विषमता उत्पन्न करें । यद्यपि इतना सुनिश्चित है कि समस्त मनुष्यों में उन्नति करनेकी शक्ति एकसी न होनेके कारण समाज में आर्थिक दृष्टिसे समानता स्थापित होना कठिन है, तो भी जैनधर्म समस्त मानव समाजको लौकिक उन्नतिके समान अवसर एवं अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार उन्नति करनेके लिये स्वतन्त्रता देता है । क्योंकि परिग्रहपरिमाण और भोगोपभोगपरिमाण का एक मात्र लक्ष्य समाजकी आर्थिक विषमताको दूर कर सुखी बनाना है । वस्तुतः अपरिग्रहवाद पूंजीवादका विरोधी सिद्धान्त है और यह समाजको समाजवाद की प्रणालीपर संगठित होनेके लिये प्रेरणा देता है । इसी लिये जैन प्रन्थोंमे परिग्रहको महापाप बतलाया है, क्योंकि शोषणकर्त्ता हिंसा, झूठ, चोरी आदि सभी पापोंको करने वाला' है । परिग्रहके दो भेद है - बाह्य परिग्रह और अन्तरङ्ग परिग्रह । बाह्य परिग्रह में धन, भूमि, अन्न, वस्त्र आदि वस्तुएँ परिगणित है । इनके समय से समाजको आर्थिक विषमताजन्य कष्ट भोगना पड़ता है, अतः आवश्यकता भर ही इन वस्तुओंको ग्रहण करना चाहिये, जिससे समाजके किसी भी सदस्यको कष्ट न हो और समस्त मानवसमाज सुखपूर्वक अपने जीवनको बिता सके । [ वर्ष ९ झपटी दूर नहीं हो सकती। इसलिये जैन मान्यताने अन्तरङ्ग, लोभ, माया, क्रोध आदि कषायों के छोड़ने को विशेष महत्व दिया है । सारांशरूपमें अपरिग्रहकी स्पष्ट परिभाषा यों कही जा सकती है कि यह वह सिद्धान्त है जो पंजी और जीवनोपयोगी अन्य आवश्यक वस्तुओं के अनुचित संग्रहको रोककर शोषणको बन्द करता है, जिससे मानवीय दशाओंकी भीषणता लुप्त होजाती है । अन्तरङ्गपरिग्रहमे वे भावनाएँ शामिल है जिनसे धन-धान्यका संग्रह किया जाता है, दूसरे शब्दोंम यों कह सकते हैं कि मनयशील बुद्धिका नाम ही अन्तरङ्गपरिग्रह है । यदि बाह्य परिग्रह छोड़ भी दिया जाय और ममत्व बुद्धि बनी रहे तो समाजकी छीना१ तन्मूलाः सर्वदोषानुष गाः -- स परिग्रहो मूलमंपा ते तन्मूना: । के पुनस्ते सर्वदोषानुगाः, ममेदमिति हि सति सकल्पे रक्षणादयः सजायते । तत्र च हिंसावश्य भाविनी तदर्थमनृत जल्पति चोर्य चाचरात मेथुने च कर्मणि प्रतियतते । - राजवार्तिक पृ० २७६ श्रविश्वास तमोनक्त लोभानलघृताहुतिः । आरम्भमकराम्भाधिरहा श्रेयः परिग्रहः || - सागारधर्मामृत श्र० ४ श्लो० ६३ पूंजी की प्राप्तिको ईश्वर की कृपा या भाग्यका फल एव दरिद्रता - गरीबीको ईश्वर की अकृपा या भाग्यका कुपरिणाम जैनधर्ममे नही माना गया हैं । बल्कि जैन' कर्मसिद्धान्तमे स्पष्टरूपसे कहा गया है कि साताकर्मके उदयसे परिणामों में शान्ति और असाता कर्मके उदयसे परिणामों अशान्ति होती हैं । लक्ष्मीकी प्राप्ति किसी कर्मके उदयसे नहीं होती है, किन्तु सामाजिक व्यवस्था ही पूजीके अजनम कारण है। हॉ धनकी प्राप्ति, श्रप्राप्तिको साता, असाताके उदयमे नोकर्म-कर्मादयमे सहायक कारण माना जा सकता है। अतएव सामाजिक व्यवस्था में सुधार कर समाजकं प्रत्येक सदस्यको उन्नतिकं समान अव सर प्रदान करना प्रत्येक मानवका कर्त्तव्य है । संयमवाद - संसारमे सम्पत्ति एवं भोगोपभोग की सामग्री कम है, भोगने वाले ज्यादा है और तृष्णा भी अधिक है, इसीलिये प्राणियों में परस्पर संघर्ष और छाना-झपटी होती हैं, फलतः समाजमं नाना प्रकार के अत्याचार और अन्याय होते है जिससे अहर्निश समाजमं दुःख बढ़ता जाता है । परस्परमे ईर्षा, द्वेषकी मात्रा और भी अधिक है जिससे एक व्यक्ति दूसर व्यक्तिको उन्नतिका अवसर ही नहीं मिलने देता । इन सब बातोंका परिणाम यह होता है कि समाजमं सघर्षकी मात्रा बढ़कर विषमतारूपी जहर उत्पन्न होजाता है । १ देखें, श्री प० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री द्वारा लिखित कर्मव्यवस्था शीर्षक निबन्ध, जो शीघ्र प्रकाशित हो रहा है। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५) जैनधर्म बनाम समाजवाद १९३ इस हलाहलकी एकमात्र औषधि मयमवाद है। और उसके विकासका साधन तो माना ही है, पर यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छाओं, वामनाओं और इसका रहस्य सामाजिक आर्थिक व्यवस्थाको सुदृढ कषायों' पर नियन्त्रण रखकर छीना-झपटीको दूर बनाना है। शासित और शासक या शोषित और कर दे तो समाजमेसे आर्थिक विषमता अवश्य दूर शाषक इन वगोंकी बुनियाद भी सयमके पालन-द्वारा होजाय तथा सभी सदस्य शारीरिक आवश्यकताओं दूर होजायगी। क्या आजका समाज स्वार्थ-त्यागकी की पूर्ति निराकुलरूपसे कर सके। कठिन तपस्या कर वर्गसंघर्षको दूर कर सकेगा। मयमके दो भेद हैं-इन्द्रियसंयम और प्राणि सामाजिक दृष्टिकोण सयम । इन्द्रिोको वशर्म करना इन्द्रियमंयम है। इस समस्त प्राणियों को उन्नतिके अवसरोमें समानता मंयमका पालने वाला अपने जीवन के निर्वाह के लिये प्रदान करना जैनधर्मका सामाजिक सिद्धान्त है। इस इन्द्रियजय-द्वारा कमसे कम मामग्रीका उपभोग सिद्धान्तका व्यावहारिकरूप अहिंसाकी बुनियादपर करता है, शेष मामग्री अन्य लोगोंके काम आती है, आश्रित है। इसी कारण जैन अहिसाका क्षेत्र इतना इससे संघर्ष कम होता है और विषमता दूर होती है। अधिक विस्तृत है कि उससे जीवनका कोई भी कोना यदि एक मनुष्य अधिक मामग्रीका उपभोग करे तो अछूता नहीं है। परस्पर भाई-भाईकासा व्यवहार दूसरोके लिये मामग्री कम पडेगी तथा शोपणकी करना, एक दूसरेके दुःखदर्दमे महायक होना, दुमरों शुरुवात भी यहींसे हो जायगी। समाजमे पूजीका को ठीक अपने समान समझना, हीनाधिककी समान वितरण होजानेपर भी जबतक तृष्णा शान्त भावनाका त्याग करना, अन्य लोगोंकी सुखमुविधाओं नहीं होगी, अवमर मिलने पर मनमाना उपभोग को समझना तथा उनके विपरीत आचरण न करना लोग करते ही रहगे तथा वर्ग-संघष चलता रहेगा। अहिमा है। जैनधर्मकी अहिंसाका ध्येय केवल मानव अतएव आर्थिक वैषम्यको दर करन लिये अपनी समाजका ही कल्याशा करता है किन इच्छाओं और लालमात्राको प्रत्येक व्यक्तिको पक्षी, कीड. मकोड़े आदि ममस्त प्राणियोंको जानदार नियन्त्रित करना होगा, तभी समाज सुखी और समझकर उन्हें किसी प्रकारका कष्ट न देना, उनकी समृद्धिशाली बन सकेगा। उन्नति और विकासकी चेष्टा करना, सर्वत्र सुख और प्राणिमयम-अन्य प्राणियोको किश्चिन भी शान्ति स्थापित करनेके लिये विश्वप्रेमके सूत्रम श्राबद्ध दःख न दना प्राणिसयम है । अथान ममारक होना सम्प्रदाय, जाति या बगगत वैषम्यको दूर समस्त प्राणियोंकी मुख-सुविधाका पूरा-पूरा करना है। खयाल रखकर अपनी प्रवृत्ति करना, समाजकं प्रति मानवका सामाजिक सम्बन्ध कुछ हद तक पाशअपने कतव्यको अदा करना एक व्यक्तिगत म्वाथ विक शक्तियांक द्वारा मचालित होता आ रहा है। भावनाको त्याग कर समस्त प्राणियों के कल्याणकी हमका प्रारम्भ कुछ अधिनायकशाही मनोवृत्तिक भावनास अपने प्रत्येक कार्यको करना प्राणिमयम है। व्यक्तियों द्वारा हुआ है जो अपनी मत्ता समाजपर इतना निश्चित है कि जबतक समथ लोग सयम- लादकर उसका शोषण करते रहते है। अहिंमाही पालन नहीं करेगे तबतक निर्बलोको पेट भर भोजन एक ऐमी वस्तु है जो मानवकी मानवताका मूल्याङ्कन नहीं मिल सकेगा और न समाजका रहन-सहन ही कर उपर्यक्त अधिनायकशाहीकी मनोवृत्तिको दूर कर ऊंचा हो मकंगा । जैनाचार्योन मयमका आत्मशुद्धि मकती है। पाखण्ड और धोखेबाजीकी भावनाएँ ही १ कपत्यात्मानामति कपायः क्रोधादि परिणामः, कति ममारमें अपना प्रभुत्व स्थापित कर साम्राज्यवादको हिनस्त्यात्मान कुगातप्रापणादिति कषायः । नीवको दृढ करती हैं। क्योंकि सत्ता और धोम्बा -राजवार्तिक पृ० २४८ ये दोनों ही एक दूसरेपर आश्रित है तथा इन्हें एक Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ अनेकान्त [वर्ष ९ - ही कार्यके दो भेद कहा जा सकता है। चन्द व्यक्ति यथार्थ रीतिसे सम्पादित करने के लिये विश्वासघातक, सत्ताके द्वारा जिस कार्यको सम्पादित नहीं कर सकते, परनिन्दा एवं परपीड़ाकारक, आत्मप्रशंमक एवं स्वार्थउसीको धोखे द्वारा पूरा करते हैं। जब शोषितवर्ग साधक वचनोंका त्याग करना चाहिये । सचाई ही उस सत्साके प्रति बगावत करता है तो ये सत्ताधारी समाजकी व्यवस्थाको मजबूत बना सकती है। अपने प्रचार और बल प्रयोग द्वारा उसे दबानेका अस्तेय (अचौर्य) की भावना मानवके हृदयमे प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार संघर्षका क्रम चलता अन्य व्यक्तियोंके अधिकारोंके लिये स्वाभाविक रहता है। अहिंमाकी दैवीशक्ति ही इस संघर्षकी सम्मान जागृत करती है। इसका वास्तविक रहस्य प्रक्रियाका अन्त कर वर्गसंघर्षको दूर कर सकती है। यह है कि किसीको दृमरके अधिकारोंपर हस्तक्षेप जैनधर्ममे कुविचार' मात्रको हिंसा कहा है। करना उचित नहीं है, बल्कि प्रत्येक अवस्थामें दंभ, पाखंड, ऊँच-नीचकी भावना, अभिमान, स्वार्थ- सामाजिक हितकी भावनाको ध्यानमें रखकर ही बुद्धि, छल-कपट, प्रभृति समस्त भावनाएँ हिसा हैं। कार्य करना उचित है। यहाँ इतना स्मरण रखना समाजको व्यवस्थित करने के लिये अहिंसाका आवश्यक है कि अधिकार वह सामाजिक वातावरण विस्तार सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के है जो व्यक्तित्वकी वृद्धिक लिये आवश्यक और रूपमे किया गया है। महायक होता है । यदि इसका दुरुपयोग किया जाय तो सामाजिक जीवनका विकास या हाम भी सत्य (tuuthfullness)-अहिमाकी भावना इसीपर अवलम्बित होजाता है। इमलिय जैनाचार्यों मच्चाई के मिद्धान्तसे पूरी तरह सम्बद्ध है। यह पहले ने अधिकारको व्यक्तिगत न मानकर मामाजिक माना कहा गया है कि सत्ता और धोखा ये दोनों ही , है और उनका कथन है कि समाजक प्रत्येक घटकको समाजके अकल्याणकारक है, इन दोनोंका जन्म अपने अधिकारोंका प्रयोग ऐमा करना होगा जिमसं झठसे होता है, झूठा व्यक्ति आत्मवञ्चना तो करता अन्य किसी अधिकारमे बाधा उपस्थित न हा। ही है किन्तु समाजकी नीवको धुनकी भाँति खा जो वैयक्तिक जीवनमे अधिकार है मामाजिक जीवन जाता है। प्रायः देखा जाता है कि मिध्याभाषणका में वही कर्तव्य होजाता है, इसलिय अधिकार और प्रारम्भ खुदगर्जीकी भावनासे होना है, सर्वात्महित कत्तव्य एक दुमरकं आश्रित है, ये एक ही वस्तुके दो बादकी भावना अमत्य भाषणमे बाधक हैं । स्व. रूप है । जब व्यक्ति अन्यकी सुविधाओंका खयाल च्छन्दता र उच्छलता जैमी समाजको जरित कर अधिकारका प्रयोग करता है तो वह अधिकार करने वाली कुभावनाएँ असत्य भाषणसे ही उत्पन्न समाजकं लिय अनुशामनके रुपमे हितकारक बन होती है। क्योंकि मानव ममाजका ममस्त व्यवहार जाता है। वचनांसे ही चलता है वचनामे दीप श्राजानसे समाज यदि कोई व्यक्ति अपने अधिकागेपर जोर दे की बड़ी भारी क्षति होती है। लोकमे भी प्रसिद्धि है और अन्यके अधिकारोंकी अवहेलना करे तो उसे कि इसी जिह्वाम विष और अमृत दोनों है अर्थात् किसी भी अधिकारको प्राप्त करनेका हक नहीं है। समाजको उन्नत स्तरपर ले जाने वाले अहिंसक वचन अधिकार और कर्तव्यकं उचित प्रयोगका ज्ञान प्राप्त अमृत और समाजको हानि पहुँचाने वाले हिमक करना ही मामाजिक जीवन-कलाका प्रथम पाठ है बचन विप हैं। अतएव मानव ममाजक व्यवहारको जिस प्रत्येक व्यक्तिको अचौर्य भावनाके अभ्यास १ अप्रादुर्भावः खलु रागादीना भवत्यहिसेति । द्वारा स्मरण करना चाहिये। तपामवोत्पत्ति हिमेत जिनागमस्य सक्षपः॥ ब्रह्मचर्य-अधिकार और कर्तव्यके प्रति आदर पुरुषार्थमिद्धश पाय श्लोक ४४ ऐमी चीजें नहीं है जिन्हें किसीके ऊपर जबर्दस्ती Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म बनाम समाजबाद किरण ५ ] लादा जा सके। नैतिकता और बलप्रयोग ये दोनों परस्पर विरोधी है । श्रतएव जैनधर्मने ब्रह्मचर्य की भावना-द्वारा स्वनिरीक्षणकी प्रवृत्तिपर जोर दिया है, क्योंकि इस प्रक्रिया-द्वारा नैतिक जीवनका श्रीगणेश होता है। हिंसाका पालन भी ब्रह्मचर्यके पालनपर श्राश्रित | सामाजिक जीवनमें संगठनकी शक्ति भी इसके द्वारा जागृत होती | बिना संयम के समाजकी व्यवस्था सुचारुरूपसे नहीं की जा सकती है, क्योंकि सामाजिक जीवनका आधार नैतिकता ही है। प्रायः देखा जाता है कि संसार मे छीना-झपटीकी दो ही वस्तुएँ है, कामिनी और कश्चन। जबतक इन दानोके प्रति आन्तरिक संयमकी भावना उत्पन्न न होगी तबतक सामाजिक जीवन कष्टकाकीर्ण माना जायगा। साराश यह है कि जीवन-निर्वाह-शारीरिक आवश्यकताकी पूर्ति के लिये अपन उचित हिस्से अधिक ऐन्द्रियक सामग्रीका उपयोग न करना व्यावहारिक ब्रह्म-भावना है। अपरिग्रह की भावना द्वारा समाजमे सुख और शान्ति स्थापित की जाती है। इसके सम्बन्धमं पहले लिखा जा चुका है। समाजमे ऊँच-नीच और छूआ-छूत की भावनाको पुष्ट करनेवाली जन्मना वर्ण-व्यवस्थाको जैनधर्मम नही माना है। जैनाचार्योंने स्पष्टरूपस समाजकं समस्त सदस्यों को मानवताकी दृष्टिसे एक स्तरपर लानेक लिये आचारको महत्ता दी है। जिस व्यक्तिका सदाचार जितना ही समाजके अनुकूल होगा, वह व्यक्ति उतना ही समाजमे उन्नत माना जायगा, किन्तु स्थान उसका भी सामाजिक सदस्यके नाते वही होगा जो अन्य सदस्योंका है । दलितवर्गका शोषण और जातिवादके दुरभिमानको, जिससे समाज को अहर्निश खतरोंका सामना करना पडता है, जैनधर्ममं स्थान नहीं दिया है। जैन तीर्थङ्करोंने एक मनुष्य जाति मानकर व्यवहार-मूलक वर्णव्यवस्था' बतलाई है१ मनुष्य जातिरेकैव जातिकर्मोदयाद्भवा । वृत्तिभेदा हि तद्भेदाच्चतुर्विध्यमिहाश्नुते । श्रा. पु. ३८।४५ नास्ति जातिकृती भेदी मनुष्याणा गवाश्ववत् । प्राकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्प्यते ॥ -गुग्णभद्र १९५ कम्मुणा बम्भणो होई कम्मुरगा होई खत्तियो । इमो कम्मुरगा होई सुद्दो हवइ कम्मुरगा ॥ इस प्रकार सामाजिक भेद-भावकी खाईको जैनाचार्योंने दूरकर समाजको एक संगठनके भीतर बद्ध करनेका प्रयत्न किया है। राजनैतिक दृष्टिकोण यद्यपि धर्मका राजनीतिसे सम्बन्ध नहीं है, फिर भी समाज और व्यक्तिकं साथ सम्बन्ध रहनेसे राजनीति के साथ भी सम्बन्ध मानना पड़ता है। जैनधर्म सदा से प्रजातन्त्र राज्यका समर्थक रहा है । इतिहास इस बातका साक्षी है कि भगवान् महावीरकं पिता महाराज सिद्धार्थ वैशालीकी जनता द्वारा चुने गये शासक थे। जैसे प्राचीन राजनीतिके प्रन्थ कौटिलीय अर्थशास्त्र में राजाको ईश्वरीय अश मानकर उसकी सर्वोपरि शक्ति स्वीकार की हैं, वैसे जैनधर्ममे नही । जैन राजनीतिमे राजा शब्दका प्रयोग राज्यकी जनता द्वारा निर्वाचित व्यक्तिके रूपमे ही हुआ है, इसीलिये राजाको जनताके धर्म, अर्थ और काम इन तीनों वर्गों की समानरूपसे उन्नति करनेवाला, संगठनकर्त्ता माना है । राज्यकं प्रत्येक व्यक्तिकं वैयक्तिक चरका विश्लेषण करते हुए कहा गया है"सवसत्त्वेपु' हि समता सर्वोचरणानां परमाचरणम्" अर्थात- उस राष्ट्र के समस्त प्राणियोंम समानताका व्यवहार करना ही परमाचरण है। तात्पर्य यह है कि लौकिक दृष्टिमे व्यक्तिस्वातन्त्र्यको स्वीकार करते हुए भी समाजको उच्च स्थान प्रदान कर उसके प्रत्येक घटकके साथ भाई-भाईकामा व्यवहार अनुशासित ढङ्गसे सम्पन्न करना परम कर्त्तव्य निर्धारित किया गया है। इस कर्त्तव्य की अवहेलना जनता द्वारा निर्वाचित राजा भी नहीं कर सकता है। लोकतन्त्रके सिद्धान्तों द्वारा समाज के सभी सदस्योंके हिसकी बातों मे सभीका मत लेना आवश्यक है। जैन राजनीतिकारोंने तो स्पष्टरूपसे कहा है कि मनुष्य और उसके विचार समयकी आर्थिक परि१ नीतिवाक्यामृत धर्मसमुद्रदेश | सूत्र ४ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ भनेकान्त [वर्ष ९ स्थितियोंसे निर्मित और परिवर्तित होते हैं। अत: १-भौतिक और बौद्धिक उन्नतिके साथ नैतिक उन्नतिसमस्त समाजकी यदि भोजन-छादनकी सुव्यवस्था को चरम लक्ष्य स्वीकार करना। होजाय तो फिर सभी आध्यात्मिक उन्नतिकी ओर २-आत्माको अमर मानकर उसके विकासके लिये अग्रसर हो सकें । अतएव शक्तिके अनुसार कार्य वैयक्तिकरूपसे प्रयत्न करना । जहाँ भौतिक और आवश्यकतानुसार पुरस्कारवाले नुस्खेका उन्नतिमे समाजको सर्वोपरि महत्ता प्राप्त है, वहाँ प्रयोग समाज और व्यक्ति दोनोंक विकासमें अत्यन्त आत्मिक उन्नतिमे व्यक्तिको। सहायक होगा। ३-बलप्रयोग-द्वारा विरोधी शक्तियोंको नष्ट न करना, उपर्यक्त जैनधर्मके सिद्धान्तोंकी आजके समाज- बल्कि विचार-महिष्णु बनकर सुधार करना। वादके सिद्धान्तोंके साथ तुलना करनेप ज्ञात होगा ४-अधिनायकशाहीकी मनोवृत्ति-जो कि आजके कि आजके समाजवादमें जहाँ व्यक्ति स्वातन्त्र्यको समाजवादमे कदाचित् उत्पन्न हो जाती है और विशेष महत्ता नहीं, वहाँ जैनधर्मके समाजवादमे नेशनके नामपर व्यक्तिके विचार-स्वातन्त्र्यको व्यक्ति-स्वातन्त्र्यको बड़ी भारी महत्ता दी गई है, और कुचल दिया जाता है, जैनधर्ममे इसे उचित उसे समाजकी इकाई स्वीकार करते हुए भी समाजकी नहीं माना है। श्रीवृद्धिका उत्तरदायी माना है । यद्यपि आज भी ५-हिसापर विश्वास न कर अहिंसा द्वारा समाजका समाजवादके कुछ प्राचार्य उसकी कमियोंको समझकर सङ्गठन करना तथा प्रेम-द्वारा समस्त समाजआध्यात्मिकवादका पुट देना उचित मानते है तथा की विपत्तियोंका अन्त कर कल्याण करना' । उसे मारतीयताकं रङ्गमें रङ्गकर उपयोगी बनानेका ६-व्यक्तिकी आवाजकी कीमत करना तथा बहुमत प्रयत्न कर रहे हैं। जैनधर्मके उपर्युक्त सिद्धान्त निम्न या सर्वमत-द्वारा समाजका निर्माण और विकास समाजवादके सिद्धान्तोंके साथ मेल खाते हैं करना । १-समाजको अधिक महत्व देना, पर व्यक्तिक वर्तमान जैनधर्मानुयायी ऊपर जबरदस्ती किसी भी बातको न लादना । आज जैनधर्मके अनुयायियोंक आचरणमे इकाईके समृद्ध होनेपर ही समाज भी ममृद्ध हो समाजवादकी गन्ध भी नहीं है। इसीलिये प्रायः सकेगाके सिद्धान्तको सदा ध्यान रखना। लोग इसे साम्राज्यवादी धर्म समझते हैं। वास्तविक २-एक मानव-जाति मानकर उन्नतिके अवसरोंमे बात यह है कि देश और समाजके वातावरणका समानताका होना। प्रभाव प्रत्येक धर्मक अनुयायियोपर पड़ता है। अत: ३-विकासके साधनोंका कुछ ही लोगोंको उपभोग समय-दोषस इस धर्मके अनुयायी भी बहमख्यकोंक करनेसे रोकना और समस्त समाजको उन्नतिके प्रभावमे आकर अपने कत्तव्यको भूल बैठ, कंवल रास्तेपर ले जाना। बाह्य आचरण तक ही धर्मको सीमित रखा। अन्य ४-पूजीवादको प्रोत्साहन न देना, इसकी विदाईमें सस्कृतियोंके प्रभावके कारण कुछ दोप भी समाजमे ही समाजकी भलाई समझना । प्रविष्ट होगये हैं तथा अहिसक समाजकी अहिंमा ५-हानिकारक स्पर्धाको जड़से उखाड़ फेंकना । केवल बाह्य आडम्बर तक ही सीमित है। फिर भी ६-शोषण, हीनाधिकताकी भावना, ऊँच-नीचका इतना तो निष्पक्ष होकर स्वीकार करना पड़ेगा कि व्यवहार, स्वार्थ, दम्भ आदिको दूर करना। भगवान महावीरकी देन जैन समाजमे इतनी अब ७-समाजको प्रेम-द्वारा सङ्गठित करना। १ सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्प सर्वान्तशून्य च मिथोऽनपेक्षम् । जैनधर्मके समाजवादमे भाजके समाजवादी सर्वापदामन्तकर निरन्त सर्वोदय तीर्थमिद तवैव ॥ सिद्धान्तोंसे मौलिक विशेषताएँ ---युक्तयनुशासन श्लो०६१ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मृतिकी रेखाएं सन्मति - विद्या विनोद प्यारी पुत्रियो ! सन्मती और विद्यावती ! श्राज बालकोंके जन्म समय इधर ब्राह्मणियाँ जो बधाई तुम मेरे सामने नहीं हो-तुम्हारा वियोग हुए युग गाती थीं वह मुझे नापसन्द थी तथा असङ्गत-सी बीत गये; परन्तु तुम्हारी कितनी ही स्मृति आज भी जान पड़ती थी और इसलिये तुम्हारे जन्मसे दो मेरे मामने स्थित हे-हृदयपटलपर अङ्कित है । भले एक मास पूर्व मैने एक मङ्गलबधाई' स्वयं तैयार की ही काल के प्रभावसे उसमे कुछ धधलापन आगया है, थी और उसे ब्राह्मणयोंको सिखा दिया था। ब्राह्मफिर भी जब उधर उपयोग दिया जाता है तो वह णियोंको उस समय बधाई गानेपर कुछ पैसे-टके ही कुछ चमक उठती है। मिला करते थे, मैंने उन्हें जो मिलता था उससे दो बेटी मन्मती रुपये अधिक अलगसे देने के लिये कह दिया था और तुम्हारा जन्म असोज सदि ३ संवत् इससे उन्होंने खुशी-स्तुशी बधाईको याद कर लिया १९५६ शनिवार ता० ७ अक्तूबर सन् १८९९ था । तुम्हारे जन्मसे कुछ दिन पूर्व ब्राह्मणियोंकी तरफ को दिन १२ बजे मरमावाम उसी सूरजमुखी से यह सवाल उठाया गया कि यदि पुत्र का जन्म न चौबारेमे हुआ था जहाँ मेरा, मेरे सब भाइयोंका, होकर पुत्रीका जन्म हा तो इस बधाईका क्या पिता-पितामहका और न जाने कितने पूर्वजांका जन्म बनेगा? मैने कह दिया था कि मैं पत्र-जन्म और हुश्रा था और जो इस समय भी मेरे अधिकारमं पुत्रीक जन्मम कोई अन्तर नहीं देखता हूँ-मेरे लिये सरक्षित है। भाई-बोटके अवसरपर उस मैंने अपनी दोनों समान हैं-और इसलिय र्याद पुत्रीका जन्म ही तरफ लगा लिया था। हुआ तब भी तुम इम बधाईको खुशीसे गामकनी हो भी शेष है कि एक लगाटी लगाने वाला जिसके पाम और गाना चाहिए। इसीसे इसमे पुत्र या सुत जैसे दो शाम खानको है, वह भा अपना एक शामका शब्दांका प्रयोग न करके 'शिशु' शब्दका प्रयोग किया भोजन दान कर सकता है । जहाँ जैनियोंके परिग्रह गया है और उसे ही 'द शिश् शिशु हो गुणधारी' सचयक उदाहरण है वहाँ परिग्रह त्यागके भी सैकड़ों जैसे वाक्य-द्वारा आशीर्वाद के दिये जानेका उल्लंग्व उदारण वर्तमान है। इमीलिय ये बिना सरकारी किया गया है। परन्तु दिवश पिताजो और बुधाजी महायताके शिक्षा-प्रचार एवं अन्य मामाजिक उन्नति- आदिकं बिरोधपर ब्राह्मणियोंको तुम्हारे जन्मपर के कार्य जैनममाज-द्वारा अनेक होरह है। बधाई गाने की हिम्मत नहीं हुई। फिर भी तम्हारी आज स्वतन्त्र भारतमें भगवान महावीरकं मानाने अलगसे ब्राह्मणियोंको अपने पास बुलाकर उपर्यक्त ममाजवादके प्रचारकी नितान्त आवश्यकता बिना गाजे-बाजेकं ही बधाई गवाई थी और उन्हें है। इमसे समाजको बड़ी भाग शान्ति मिलेगी। गवाईक वे २) रु. भी दिये थे। माथ ही दसरे सब क्या प्रमुख नेता लाग इधर ध्यान देगे? नेग भी यथाशक्ति पूरे किये थे जो प्रायः पुत्र-जन्मके क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान धार्मिको राप्रपाल:, अवमरपर दूसरोंको कुछ देने तथा उपहारमं पाये हुए काले काले च सम्यग्वर्षतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् । .---.. दुभिक्ष चौरमारी क्षणमपि जगता माम्मभूखीवलाके, १ इस मगल बधाईकी पहली कली इस प्रकार थीजैनेन्द्र धर्मचक्र प्रभवतु सतत सवेसोख्यप्रदायि ॥ "गावो री बधाई सम्बि मगलकारी।" Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ अनेकान्त वर्ष ९] जोड़े-झग्गों आदिपर रुपये रखने आदिके रूपमें से नीचे दौड़ी चली आकर किवाड खोला करती थी, किये जाते हैं। तुम्हे अँधेरेमें भी डर नहीं लगता था, जब कि तम्हारा नाम मैंने केवल अपनी रुचिसे ही नहीं तुम्हारी माँ कहा करती थी कि मुझे तो डर लगता रक्खा था बल्कि श्रीआदिपुराण-वणित नामकरण- है, यह लड़की न मालूम कैसी निडर निभय प्रकृतिसंस्कारके अनुसार १००८ शुभ नाम अलग-अलग की है जो अँधेरे में भी अकेली चली जाती है। तुम्हारी कागजके टुकड़ोंपर लिखकर और उनकी गोलियाँ बना- इस हिम्मतको देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता होती थी। कर उन्हें प्रसूतिगृहमें डाला था और एक बच्चेसे एक एक दिन रातको मुझे स्वप्न हुआ कि एक अर्धनग्न गोली उठवाकर मँगाई गई थी। उस गोलीको खोलने श्यामवण स्त्री अपने आगे पीछे और इधर उधर मरे पर 'सन्मतिकुमारी' नाम निकला था और यही हुये बच्चोंको लटकाए हुए एक उत्तरमुखी हवेलीमें तुम्हारा पूरा नाम था। यों आम बोल-चालमे तुम्हें प्रवेश कर रही है जो कि ला० जवाहरलालजी जैन 'सन्मती' कहकर ही पुकारा जाता था। की थी। इस बीभत्स दृश्यको देखकर मुझे कुछ __तुम्हारी शिक्षा वैसे तो तीसरे वर्ष ही प्रारम्भ भय-मा मालूम हुआ और मेरी आँख खुल गई। होगई थी परन्तु कन्यापाठशालामे तुम्हे पाँचवें वर्ष अगले ही दिन यह सुना गया कि ला० जवाहरलालबिठलाया गया था। यह कन्यापाठशाला देवबन्दकी जीके बड़े लड़के राजारामको लेग होगई, जिसकी थी, जहाँ सहारनपुरके बाद सन् १९०५ मे मैं हाल में ही शादी अथवा गौना हुआ था ' यह लड़का मुख्तारकारीकी प्रैटिस करनेके लिये चला गया था बड़ा ही सुशील, होनहार और चतुर कारोबारी था और कानूगायानके मुहल्लेमे ला० दूल्हाराय जैन साबिक तथा अपनसे विशेष प्रेम रखता था । तीन-चार दिन पटवारीके मकानमें उसके सूरजमुखी चौबारेमे रहता में ही यह काल के गालमे चला गया ! इस भारी था। निद्धी पण्डित, जो तुम्हे पढ़ाता था, तुम्हारी बर्बाद्ध जवान मौतम मारे नगरमे शोक छ'गया और प्लेग और होशयारीकी सदा प्रशंसा किया करता था। मम भी जोर पकडती गई। तुम्हारे गुणों में चार गुण बहुत पसन्द थे-५ सत्य- कुछ दिन बाद तुम्हारी माताने कोई चीज बनावादिता, २ प्रसन्नता, ३ निर्भयता और ४ कार्य- कर तुम्हारे हाथ ला० जवाहरलालजीकं यहाँ भेजी कुशलता । ये चारों गुण तुममे अच्छे विकसित होते थी वह शायद शोकके मारे घरपर ली नही गई तब जारहे थे। तुम सदा सच बोला करती थी और प्रसन्न- तुम किसी तरह ला० जवाहरलालजीको दुकानपर चित्त रहती थी। मैंने तुम्हे कभी रोते-रडाते अथवा जिद्द उसे दे आई थी। शामको या अगले दिन जब ला० करते नहीं देखा। तुम्हारे व्यवहारसे अपने-पराये जवाहरलालजी मिले तो कहने लगे कि-'तुम्हारी सब प्रसन्न रहते थे और तुम्हे प्यार किया करते थे। लड़की तो बड़ी होशयार होगई है, मेरे इन्कार करते सहारनपुर मुहल्ले चौधरियानके ला० निहालचन्दजी हुए भी मुझे दुकानपर ऐमी युक्तिमे चीज दे गई कि और उनकी स्त्री तो, जो मेरे पासकी निजी हवेलीमे मै तो देखकर दङ्ग रह गया ।' इस घटनासे एक या रहते थे, तुमपर बहुत मोहित थे, तुम्हे अक्सर अपने दो दिन बाद तुम्हे भी लेग होगई और तुम उसीम पास खिलाया-पिलाया और सुलाया करते थे, उसमे माघ सुदी १०मी सवत १९६३ गुरुवार तारीख २४ सुख मानते थे और तुम्हे लाड़मे 'सबजी' कह जनवरी सन् १९८७को सन्ध्याकं छह बजे चल बसी !! कर पुकारा करते थे-तुम्हारे कानोंकी बालियोंमे उस कोई भी उपचार अथवा प्रेम-बन्धन तुम्हारी इस वक्त सबजे पड़े हुये थे। जब कभी मैं रातको देरसे विवशा गतिको रोक नहीं सका ।।। घर पहुँचता और इससे दहलीजके किवाड बन्द हो तुम्हारे इस वियोगसे मेरे चित्तको बड़ी चोट जाते सब पुकारनेपर अक्सर तुम्ही अँधेरेमे ही ऊपर लगी थी और मेरी कितनी ही आशाओंपर पानी फिर Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] गया था | एक वृद्ध पुरुष श्मशानभूमिमे मुझे यह कह कर सान्त्वना दे रहे थे कि 'जाओ धान रहो क्यारी, अब नहीं तो फिरके बारी । फिर तुम्हारी माता के दुख-दर्द और शोककी तो बात ही क्या है ? उसने तो शोक विकल और वेदनासं विह्वल होकर तुम्हारे नये-नये वस्त्र भी बक्सोंसे निकालकर फेक दिये थे । वे भा तुम्हारे बिना अब उसकी आँखो मे चुभने लगे थे। परन्तु मैंन तुम्हारी पुस्तकों आदिक उस बस्ते का जो काली किरमिचकं बैगरूपमे था और जिसे तुम लेकर पाठशाला जाया करती थी तुम्हारी स्मृतिकं रूपमे वर्षो तक ज्योका त्यों कायम रक्खा है। अब भी वह कुछ जीर्ण-शीर्ण अवस्थानमे मौजूद हैअ बाद उसमे से एक दो लिपि-कापी तथा पुस्तक दूसरोंको दीगई है और सलेटको तो मैं स्वयं अपने मौन वाले दिन काम में लेने लगा हूँ । सम्मति विद्या विनोद नामकरण के बाद जब तुम्हारे जन्मकी तिथि और ताम्बादिको एक नोटबुकमे नोट किया गया था तब उसके नीचे मैंने लिखा था 'शुभम्' । मरणक बाद जब उसी स्थानपर तुम्हारी मृत्युकी तिथी आदि लिखी जाने लगी तब मुझे यह सूझ नहीं पड़ा कि उस दैविक घटनाके नीचे क्या विशेषण लगाऊँ । 'शुभम' तो मैं उसे किसी तरह कह नही सकता था; क्योंकि वेसा कहना मेरे विचारोंके सर्वथा प्रतिकूल था । और 'शुभम् ' विशेषण लगानेको एकदम मन जरूर होता था परन्तु उसके लगानेम मुझे इसलिये सकांच हुआ था कि मैं भावीक विधानको उस समय कुछ समझ नहीं रहा था वह मेरे लिए एक पहेली बन गया था। इससे उसके नीचे कोई भी विशेषण देने मे मैं असमर्थ रहा था। बेटी विद्यावती, तुम्हारा जन्म ना० ७ दिसम्बर सन् १९१७ को सरसावामे मेरे छोटे भाई बा० रामप्रसाद सबश्रीवर सिरकी उस पूर्वमुखी हवेली के सूरजमुखी निचले मकान मे हुआ था जो अपनी पुरानी हवेलीकं सामने अभी नई तैयार की गई थी और जिसमें भाई रामप्रसाद के ज्येष्ठ पुत्र चि० ऋषभचन्दके विबाहकी तैयारियाँ १९९ होरही थीं। जन्मसे कुछ दिन बाद तुम्हारा नाम 'विद्यावती ' रक्खा गया था; परन्तु आम बोल-चालमे तुम्हें 'विद्या' इस लघु नामसे ही पुकारा जाता था । तुम्हारी अवस्था अभी कुल सवा तीन महीने की ही थी जब अचानक एक वज्रपात हुआ, तुम्हारे ऊपर विपत्तिका पहाड़ टूट पड़ा ' दुर्दैवन तुम्हारे सिरपरसे तुम्हारी माताका उठा लिया " वह देवबन्द क उसी मकानमे एक सप्ताह निमोनियाकी बीमारीसे बीमार रहकर १६ मार्च सन १९१८ की इस प्रसार ससारसे कूच कर गई !!! और इस तरह बिधि के कठोर हाथों द्वारा तुम अपने उस स्वाभाविक भोजन - अमृतपानसे वश्चित करदी गई जिसे प्रकृतिने तुम्हारे लिये तुम्हारी माताकं स्तनोमं रक्खा था ' साथ ही मातृ-प्रेम भी सदाके लिये विहीन होगई !! इस दुर्घटना से इधर तो मै अपने २५ वर्षके तपे तपायें विश्वस्त साथीके वियोग से पीडित | और उधर उसकी धरोहर रूपमं तुम्हारे जीवनकी चिन्ताले श्राकुल || अन्नको तुम्हारे जीवनकी चिन्ता मेरे लिये सर्वोपरि हो उठी। पासके कुछ मज्जनोंन परामर्शरूपमें कहा कि तुम्हारी पालना गायक दूध, बकरीके दूध अथवा डब्बेके दूथसे होसकती है; परन्तु मे आत्माने उसे स्वीकार नहीं किया। एक मित्र बोले'लड़कीको पहाड़पर किसी घायको दिला दिया जायगा, इससे खर्च भी कम पड़ेगा और तुम बहुतसी चिन्ता मुक्त रहोगे । घरपर धाय रखनेसे तो बडा खर्च उठाना पड़ेगा और चिन्ताश्रांस भी बराबर घिरे रहोगे।' मैंने कहा- 'पहाड़ीपर धाय द्वारा बधा की पालना पूर्ण तत्परता के साथ नहीं होता । धायको अपने घर तथा खेत-क्यारके काम भी करने होते है, वह बचेको यों ही छोड़कर अथवा टोकरे या मूढे आदिके नीचे बन्द करके उनमें लगती है और बच्चा रांता विलग्वता पड़ा रहता है। घाय अपने घरपर जैसा-वैसा भोजन करती है, अपने बसेका भा पालती है और इसलिये दूसरेके बचेका समयपर यथेष्ठ भोजन भी नहीं मिल पाता और उसे व्यर्थक अनेक कष्ट उठाने पड़ते है। इसके सिवाय, यह भी Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० अनेकान्त वर्ष ९ सुना जाता है कि पहाड़ोंपर बच्चे बदले जाते हैं और तुम अपनी प्रबोध-दशासे इतने अौतक धायके लोभके वश दूसरोंको बेचकर मृत घोषित भी किये पास रही, उसकी गोदी चढ़ी, उसका दूध पिया, जाते है । परन्तु इन सबसे अधिक बड़ी समस्या जो उसके पास खेली-मोई और वह माताकी तरह मेरे मामने है वह सम्कारोंकी है। और सब कुछ दमरी भी तुम्हारी सब सेवाएँ करती रही; फिर भी ठीक होते हुए भी बहाँक अन्यथा संस्कारोंको कौन तुमने एक बार भी उसे 'माँ' कहकर नही दियारोक सकेगा ? मैं नहीं चाहता कि मेरी लड़की मेरे दूमगेंके यह कहनपर भी कि 'यह तो तेरी माँ है' दोषसे अन्यथा संस्कारोंमें रहकर उन्हे ग्रहण करे।' तुम गर्दन हिला देती थी और पुकारनेके अवमरपर और इमलिय अन्तको यही निश्चित हा कि घम्पर उसे 'ए-ए" कहकर ही पुकारती थी। यह सब विवेक धार्य रखकर ही तुम्हारा पालन-पोषण कराया जाय। तुम्हारे अन्दर कहाँस जागृत हुआ था वह किमीका तदनुमार ही धायकं लिये तार-पत्रादिक दौड़ाये गये। भी कुछ समझ नहीं पाता था और सबको तुम्हारी __ भाई रामप्रसादजी आदिके प्रयत्नसे एककी ऐसी स्वाभाविक प्रवृत्तिपर आश्चर्य होता था। जगह दो धाय आगराकी तरफसे प्रागडे, जिनमेमे दो-ढाई वर्षकी छोटी अवस्थाम ही तुम्हारी बडे रामकौर धायको तहारे लिये नियुक्त किया गया, जो आदमियों जैसी समझकी बाते, मबके माथ 'जी'की प्रौढावस्थाका होने के साथ-साथ श्यामवण भी थी- बोली, दयापरिणति, तुम्हाग मन्तोष, तुम्हारा धैर्य उस समय मैने कहीं यह पढ़ रक्खा था कि श्यामा और तुम्हारी अनेक दिव्य चंद्राएँ किमीको भी अपनी गायके धकी तरह बच्चोंके लिये श्यामवणां धायका पार आकृष्ट किये बिना नहीं रहती थी। तुम माधादूध ज्यादा गुणकारी होता है। अत: तुम्हारे हितकी रण बच्चोंकी तरह कभी व्यर्थकी जिद करती या दृष्टिसे अनुकूल योजना हो जानेपर मुझे प्रसन्नता राती-रडानी हई नहीं देखी गई। अन्तकी भारी हई। धायके न आने तक गाय-बकरीका दूध पीकर बीमारीको हालतमे भी कभी तुम्हारे कूल्हने या तुमने जो कष्ट उठाया, तुम्हारी जानके जो लाले कराहने तककी आवाज़ नहीं सुनी गई: बल्कि जब तक पड़े और उसके कारण दादीजी तथा बहनगुण- तुम बोलती रही और तुम पछा गया कि 'तेरा जी मालाको जो कष्ट उठाना पड़ा उसे मैं ही जानता हूँ। कैमा है। तो तमने बडे धेर्य और गाम्भीर्यसं यही धायके आजानेपर तुम्हे साता मिलते ही मबका उत्तर दिया कि 'चोखा हे'। वितर्क करनेपर भी इसी माता मिली। आशयका उत्तर पाकर आश्चर्य होता था ! स्वस्थातुम धायक माथ अधिकतर नानौता दादोजीक वस्थामे जब कभी कोई तुम्हारी बातको ठीक नहीं पास, सरसावा मेरे पास और तीतरों अपने नाना समझता था या समझनमे कुछ गलती करता था तो मुन्शी होशयारसिंहजीके यहाँ रही हो। जब तुम कुछ तुम बराबर उसे पुन पुनः कहकर या कुछ अते पते टुकड़ा-टेरा लेने लगी, अपने पैरों चलने लगी, बोलने की बात बतलाकर समझाने की चेष्टा किया करती थी बतलाने लगी और गायका दूध भी तुम्हें पचने लगा और जबतक वह यथार्थ बातको ममझ लेनेका तब तुम्हारी धाय रामकौरको विदा कर दिया गया इजहार नही कर देता था तबतक बराबर तुम 'नहीं' और वह अपना वेतन तथा इनाम आदि लेकर शब्दके द्वारा उसकी गलत बातोंका निषेध करती ३० जून मन १९१९ को चली गई। उसके चल जाने रहती थी। परन्तु ज्यों ही उसके मुहसे ठीक बात पर तुम्हारे पालन-पोषण और रक्षाका सब भार निकलती थी तो तुम 'हाँ' शब्दको कुछ ऐसे लहजे में पूज्य दादीजी, बहन (बुश्रा) गुणमाला और चि० लम्बा खींचकर कहती थी, जिममे ऐमा मालूम होता जयवन्तीने अपने ऊपर लिया और मबने बड़ी था कि तुम्हे उस व्यक्तिकी ममझपर अब पुरा तत्परता एव प्रेमके साथ तुम्हारी सेवा की है। मन्तोष हुआ है। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] तुम हमेशा सच बोलती थी और अपने अपराधको खुशी से स्वीकार कर लेती थी। बुद्धि विकास के साथ-साथ श्रात्मा शुद्धिप्रियता, निर्भयता, निम्पृहता, हृदयोचता और स्पष्टवादिता जैसे गुणोंका विकाम भी तेजासे होरहा था। धायकं चले जानेके बाद तुम मैले-कुचैले वस्त्र पहने हुए किसी भी स्त्री या लडकी की गोद नहीं चढ़ती थी, जिसका अच्छा परिचय शामली के उत्सवपर मिला, जबकि तुम्हे गोद में उठाये चलने के लिये दादीजीने एक लड़कीकी योजना की थी परन्तु तुमने उसकी गांदी चढकर नही दिया और कहा कि 'मै अपने पैरों आप चलूँगी' और तुम हिम्मत के साथ बरावर अपने पैरों चलती रही जबतक कि तुम्हे थकी जानकर किसी स्वच्छ स्त्री या लडकी ने अपनी गोद नहीं उठाया। मुझे बडी प्रसन्नता होती थी, जब मैं अपने यहाँके दुकानदारोंसे यह सुनता था कि 'तुम्हारी विद्या इधर आई थी, हम उस कुछ चीज देनेके लिये बुलाते रहे परन्तु वह यह कहती हुई चली गई कि “हमारे घर बहुत चीज है ।" तुम्हारा खुदका यह उत्तर तुम्हारे सन्तोष, स्वाभिमान और तुम्हारी निस्पृहताका अच्छा परिचायक हाता था। सन्मति विद्या विनोद एकबार बहन गुरणमालाने चि. जयवतीकी पाछापाड घोतीस तुम्हारे लिये एक छोटी धोती मवादी गजके करीब लम्बी तैयार की, जिसके दोनों तरफ चौड़ी किनारी थी और जो अच्छी माफ सुथरी घुली हुई थी। वह धोती जब तुम्हे पहनाई जाने लगी तो तुमने उसके पहनने से इनकार किया और मेरे इस कहनेपर कि 'धोती बडी माफ सुन्दर है पहन लो' तुमने उसके स्पर्शसे अपने शरीरको अलग करते हुए माफ कह दिया "यह तो कत्तर है।" तुम्हारे इस उत्तरको सुनकर सब दङ्ग रह गये | क्योंकि इतने बड़े कपडे को 'कत्तर' का नाम इससे पहले किसीने नहीं सुना था। बहन गुणमाला कहने लगी- 'भाई जी ' तुम तो विद्याको मादा जीवन व्यतीत कराना चाहते हो, इसके कान-नाक बिंधवाने की भी तुम्हारी इच्छा नहीं है परन्तु इसके दिमागको तो देखो जो इतनी बड़ी धोतीको भी 'कत्तर' बतलाती है !' २०१ एक दिन सुबह के वक्त तुम मेरे कमरे के सामनेकी बगड़ीमे दौड़ लगा रही थी और तुम्हारे शरीरका छाया पीछे की दीवारपर पड़ रही थी। पास मे खड़ी हुई भाई हींगनलालजीकी बड़ी लड़कियाँ कह रही थीं 'देख, विद्या' तेरे पीछे भाई आरहा है।' पहले तो तुमने उनकी इस बातको अनसुनीमी कर दिया, जब वे बारबार कहती रहीं तब तुमने एकदम गम्भीर हाकर उपटते हुए स्वर में कहा "नहीं, यह तो छाँवला है।" तुम्हारे इस 'छाँवला' शब्दको सुनकर सबको मी गई | क्योकि छाया, छॉवली अथवा पढलाई की जगह 'छाँवला' शब्द पहले कभी सुननमे नहीं आया था। आमतौर पर बच्चे बतलाने वालोंके अनुरूप अपनी छायाको भाई समझकर अपने पीछे भाईका आना कहने लगते है, यही बात भाईकी लड़कियां तुम्हारे मुग्यसे कहलाना चाहती थीं, जिससे तुम्हारी निर्दोष बाली कुछ फल जाय: परन्तु तुम्हारे विवेकने उसे स्वीकार नही किया और 'छावला' शब्दकी नई सृष्टि करके सबको चकित कर दिया। एक रोज़ से अपने साथ तुम्हे लिची, खरबूजा आदि कुछ फल खिला रहा था, तय्यार फलोंको स्वाते खातं तुमने एकदम अपना हाथ सिकोड़ लिया और मेरे इस पुछनेपर कि 'और क्यों नहीं खाती ?" तुमने साफ कह दिया कि "मेरे पेट में तो लिचीकी भृग्व है ।" तुम्हारी इस स्पष्टवादितापर पुके बड़ी प्रसन्नता हुई और मैंन लिचीका भरा हुआ बोहिया तुम्हारे सामने रखकर कहा कि इसमेसे जितनी इच्छा हो उतनी लिची खालो। तुमने फिर दो-चार लिची और खाकर ही अपनी तृप्ति व्यक्त कर दी। इससे मुझ बडा सन्तोष हुआ; क्योंकि मै सङ्कोचादिके पश अनिच्छापूर्वक किसी ऐसी चीजको खाते रहना स्वास्थ्य के लिये हितकर नहीं समझता जो रुचिकर न हो। और मेरी हमेशा यह इच्छा रहती थी कि तुम्हारी स्वाभाविक इच्छाओंका विघात न होने पाये और अपनी तरफ काई ऐसा कार्य न किया जाय जिससे तुम्हारी शखियकि विकासमे किमी प्रकारकी बाधा उपस्थित हो या तुम्हारे आत्मापर कोई बुरा Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ भनेकान्त असर अथवा संस्कार पड़े। चली !!! उसी वक्त तुम्हारे मृत शरीरको अन्तिम जब तुम नानौतासे मेरी तथा दादी आदि के साथ संस्कारके लिये शिक्रममे रखकर सरसावा लाया देहली होती हुई पिछली बार मेरी साथ ता० २२ मई गया-साथमे दादीजी और एक दूसरे सजन भी थे। सन् १९२८को सरसावा आई तब मैंने तुम्हे यों ही खबर पाते ही जनता जुड़ गई। कुटुम्ब तथा नगरके विनोदरूपमे अपनी लायब्रेरीकी कुछ अलमारिया कितने ही सज्जनोंकी यह राय थी कि तुम्हाग दाहखोलकर दिखलाई थी. देखकर तमने कहा था मस्कार न करके पुरानी प्रथाके अनुसार तुम्हारे मृत"तुम्हारी यह अलमारी बड़ी चोखी हैं।" इसपर मैंने देहको जोहड़के पास गाड़ दिया जाय और उसके जब यह कहा कि बेटी ! ये सब चीजे तुम्हारी है, तुम आस-पास कुछ पानी फेर दिया जाय; परन्तु मेरे इन मब पुस्तकोंको पढना' तब तुमने तुरन्त ही उलट आत्माको यह किसी तरह भी रुचिकर तथा उचित कर यह कह दिया था कि "नहीं, तुम्हारी ही तुम्ही प्रतीत नहीं हुआ, और इलिये अन्तको तुम्हारा पढना।" तुम्हारे इन शब्दोको सनकर मेरे हदयपर दाह-संस्कार ही किया गया, जो सरसावामे तुम्हारे एकदम चोटसी लगी थी और मैं क्षणभरके लिये यह जैसे छोटी उम्रके बोंका पहला ही दाह-संस्कार था। मोचन लगा था कि कहीं भावीका विधान ही तो इस तरह लगभग ढाई वर्षकी अवस्था में ही ऐमा नहीं जो इस बच्चीक महस ऐसे शब्द निकल तुम्हारा वियोग होजानेसे मेरे चित्तका बहुत बड़ा रहे है। और फिर यह खयाल करके ही सन्तोष धारण आघात पहुँचा था; क्योंकि मैने तुम्हारे ऊपर बहनसी कर लिया था कि तुमन श्रादर तथा शिष्टाचारक आशाएँ बाँध रखी थीं और अनेक विचागेको रूपमें ही ऐसे शब्द कहे है । इस बातको अभी कार्यम परिणत करनेका तुम्ह एक श्राधार अथवा महीनाभर भी नहीं हुआ था कि नगरमे चेचकका साधन समझ रवा था। मै तुम्हे अपने पास ही पकांप उशा वरपर भाई होगनलालजीकी रखकर एक आदश कन्या और स्त्री समाजका उद्धार लड़कियोंको एक-एक करके खसरा निकला तथा कठी करने वाली एक आदश स्त्रीके रूपमे देखना चाहता नमदार हुई और उन सबके अच्छा होनेपर तम्हे भी था और तुम्हारे गुणोंका तेजीमे विकास उस सबके उस रोगन बा घेरा-कराठी अथवा मोतीझारेका अनुकूल जान पड़ता था। परन्तु मुझे नहीं मालूम ज्वर हो पाया ! इधर दादीजीका पत्र पाया कि वे था कि तुम इतनी थाड़ी श्राय लेकर आई हो । बहन गुणमाला तथा चि. जयवन्तीको १० चन्दा- तुम्हारे वियागम उस ममय मुहद्वर पं० नाथूरामजी बाईक पास श्रारा छोड़कर वापिस नानौता आगई प्रेमी बम्बईने विद्यावती वियोग' नामका एक लेख है और पत्रमे तुम्हें जल्दी ही लेकर आनकी प्रेरणा की जैन हितैषी (भाग १४ अक ५)मे प्रकट किया था। गई थी। मैंन भी सोचा कि इस बीमाराम तुम्हारी और उसमे मेरे तात्कालिक पत्रका कितना ही अश अच्छी सेवा और चिकित्मा दादीजीके पास ही भी उद्धत किया था। सकेगी, और इसलिये मै १७ जूनको तुम्हें लेकर ऋण चुकानानानौता आगया । दो-चार दिन बीमारीको कुछ पुत्रियो । जहाँ तुम मुझे सुख-दुख दे गई हो शांति पड़ी और तुम्हारे अच्छा होनेकी आशा बंधी वहाँ अपना कुछ ऋण भी मेरे ऊपर छोड़ गई हो, कि फिर एकदम बीमारी लौट गई। उपायान्तर न जिसको चुकानका मुझे कुछ भी ध्यान नहीं रहा । देखकर २६ जूनको तुम्हे सहारनपुर जैन शफाखानेमे गत ३१ दिसम्बर सन् १९४७को उमका एकाएक लाया गया, जहाँ २७की रातको तुमने दम तोड़ना ध्यान आया है। वह ऋण तुम्हारे कुछ जेवगे तथा शुरू किया और २८की सुबह होते होतं तुम्हारा प्राण भेट आदिमे मिले हुए रुपये-पैसोंके रूपमे है जो मेरे पखेरू एकदम उड़ गया !! किसीकी कुछ भी न पास अमानत थे, जिन्हें तुम मुझे स्वेच्छासे दे नहीं Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] सन्मति-विद्या-विनोद गई बल्कि वे सब मेरे पास रह गये है और जिन्हें निधि समझकर इसके मदुपयोगका सनत प्रयत्न करे मैंने बिना अधिकारके अपने ही कामम ले लिया है- और अपने बालक-बालिकाओंको सन्तान-दर-मन्नान तुम्हारे निमित्त उनका कुछ भी खर्च नहीं किया है। इस निधिमे लाभ उठानेका अवसर प्रदान करें । जहाँ तक मुझे याद है सन्मतीके पाम पैरोंमे चाँदीके विद्वान बन्धु अपने सुलेखों, मलाह-मशवगं और लन्छे व झांवर, हाथोंम चाँटीके कड़े व पछेली, सुरुचिपूर्ण चित्रादि के आयोजनों-द्वाग इम ग्रन्थमाला कानोंमे मानकी बाली-भमक, सिम्पर सोनका चक को उमक निर्माण कार्यमे अपना खुला महयाग और नाकमे एक मानकी लोङ्ग थी, जिन मबका प्रदान करे और धनवान बन्धु अपने धन तथा मूल्य उम समय १२५) म०के लगभग था । और साधन-सामग्रीकी सुलभ योजनाओं द्वारा नमक विद्याकं पाम हाथोंमे दी ताले मानकी कडूलियाँ प्रकाशन-कार्यमें अपना पूरा हाथ बटाएँ। और इम. चाँदीकी मरीदार, जिम्हे दादीजीन बनवाकर दिया तरह दोनों ही वर्ग इमके मंरक्षक और मवद्धक बने । था, तथा पैगमे नोखे थे, जिन मबकी मालियत मै स्वय भी अपने शेष जीवनमे कुछ बाल-माहित्यक ७५) १०के करीब थी। दोनों के पास ५०) रु०के निर्माणका विचार कर रहा हूँ । मेरी रायमं यह करीब नकद होंगे। इस तरह जेवर और नकदीका ग्रन्थमाला तीन विभागोंमें विभाजित की जायतखमीना २५०) रुक करीबका होता है, जिसकी प्रथम विभागमे ५से १० वर्ष तक बच्चोंके लिय, मालियत आज ७००) रुके लगभग बैठती है। और दूसरेमे ११से १५ वर्ष तककी श्रायु बाले बालकइम लिये मुझ ७००) २० देने चाहिये, न कि २५०) बालिकाओंके लिये और तीसरेमे १६से २० वर्षकी रु०। परन्तु मेरा अन्तरात्मा इतनसे भी सन्तुष्ट नहीं उम्रके सभी विद्यार्थियों के लिये उत्तम बाल-साहित्यका होता है, वह भूलचूक आदिकं रूपमे ३००) रुपये प्रायोजन रहे और वह साहित्य अनेक उपयोगी उसमे और भी मिलाकर पूरे एक हजार कर देना विषयोंमे विभक्त हो; जैसे बाल-शिक्षा, बाल-विकास, चाहता है। अतः पुत्रियो ! आज मै तुम्हारा ऋण बालकथा, बालपूजा, बालस्तुति-प्रार्थना, बालनीति, चुकानके लिये १०००) क. 'मन्मति-विद्या-निधि'के बालधर्म, बालसेवा, बाल-व्यायाम, बाल-जिज्ञासा, रूपमे वीरसंवामन्दिरको इमलिये प्रदान कर रहा हूं बालतत्त्व-चर्चा, बालविनोद, बाल-विज्ञान, बालकि इस निधिसे उत्तम बाल - साहित्यका प्रकाशन कविता, बालरक्षा और बाल-न्याय आदि । इस किया जाय-'सन्मति-विद्या' अथवा 'सन्मति-विद्या- बालमाहित्यके आयोजन, चुनाव, और प्रकाशनादिविनोद' नामकी एक ऐसी आकर्षक बाल-प्रन्थमाला का कार्य एक ऐसी समितिकं सुपुर्द रहे, जिसमे प्रकृत निकाली जाय जिसके द्वारा विनोदरूपम अथवा विषयक साथ रुचि रखने वाले अनुभवी विद्वानों बाल-सुलभ सरल और सुबोध-पद्धतिसे सन्मति- और कार्यकुशल श्रीमानोंका मक्रिय महयोग हो। जिनेन्द्र (भगवान महावीर)की विद्या-शिक्षाका समाज कार्यके कुछ प्रगति करते ही इसकी अलगसे रजिस्टरी और देशके बालक-बालिकाओम यथेष्टरूपसे मवार और ट्रस्ट की कारवाई भी कराई जा सकती है। किया जाय-उसकी उनके हृदयोंमे ऐसी जड़ जमा इसमे मन्देह नहीं कि जैनममाजमे बाल-माहित्य दी जाय जो कभी हिल न सकं अथवा ऐसी छाप का एकदम अभाव है-जा कुछ थोड़ा बहुत उपलगा दी जाय जो कभी मिट न सक। लब्ध है वह नहींके बराबर है, उसका कोई विशेष मूल्य भी नहीं है । और इसलिये जैनदृष्टिकोण मेरी इच्छा-- उत्तम बाल-माहित्य के निर्माण एवं मारकी बहुत बड़ी मैं चाहता हैं ममाज इस छोटीसी निधिको जरूरत है। स्वतन्त्र भारतम उमकी भावश्यकता अपनाए, इमे अपनी ही अथवा अपने ही बच्चों की पवित्र और भी अधिक बढ़ गई है। काई भी ममाज अथवा Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुजफ्फरनगर-परिषद-अधिवेशन (बा. माईदयाल जैन बी० ए०, बी०टी०) परिपदके मुजफ्फरनगर अधिवेशनमे मम्मिलित १२ बजे दिनकी सख्त गर्मीम गाड़ी स्टेशनपर होनेक प्रश्न मेरे मनमे डाँवाडीलपन तथा दुविधा पहुँची । वहाँ स्वयसेवक और सवारियाँ तैयार थी। पैदा करदी। हृदय और मस्तिष्कमे एक द्वन्द्व उत्पन्न सनातनधर्म-कालजक विशाल छात्रावासमे ठहरने होगया । परिषदकी शिथिलताके कारण उसके प्रति और भोजनका प्रबन्ध था । सभाका प्रबन्ध उदासीनता होना स्वाभाविक है । परन्तु स्थापनाकाल स्थानीय जैन हाई स्कूल की बिल्डिङ्ग और टाउन हाल से उससे सम्बन्ध होने के कारण उसके प्रति एक माह के मैदानम था। सा भी है, कुछ उससे श्राशाएँ हैं। समस्त बातें मुजफ्फरनगर की जैन बिरादरीके उत्साह,सुप्रबन्ध सोचकर, मैं १५ मईको प्रात: देहलीसे मुजफ्फरनगर प्रेमपूर्ण श्रातिथ्य तथा सुव्यवस्थित पुर-तकुल्लुफ के लिये रवाना होगया। भोजन और नाश्तेकी जितनी प्रशसा कीजाय कम है। सुबह ठडाई-सहित नाश्ता, फिर कच्चा भोजन और देश जो उत्तम बाल-माहित्य न रखता हो कभी शामको पक्का ग्वाना । प्रबन्ध इतना अच्छा कि किसी प्रगति नही कर सकता । बालकोंके अच्छे-बुरे को किमी बातका जरा भी शिकायत नहीं। भोजनसंस्कारोंपर ही समाजका सारा भविष्य निभर रहना प्रबन्धक बारम मै इतना ही कहूँगा कि हमें कुछ है और उन संस्कारोंका प्रधान प्राधार बाल-साहित्य मादगीम काम लेना चाहिए, जिससे हरएक स्थानकी ही होता है। यदि अपने समाजको उन्नत, जीवित बिरादरी परिपद-अधिवेशनको अासानीसे बुला मके, एवं प्रगतिशील बनाना है, उसमें मच जैनत्वकी या कमसे कम मुनासिब खर्चमे ठीक प्रबन्ध होसके । भावना भरना है और अपनी धर्म-सस्कृतिको, जा विश्व कल्याणमे विशेषरूपस महायक है, अक्षुण्ण मुजफ्फरनगरकी बिरादरीमे श्रीबलवीरसिहजी रखना है तो उत्तम बाल-साहित्यके निर्माण एव पुगने कार्यकर्ताक अतिरिक्त बा. श्रीजयप्रकाशजो प्रसारकी ओर ध्यान देना ही होगा । और उमकं तथा श्रीसुमनप्रसादजी एडवोकेट, एम. एल. ५० लिये यह 'सन्मति-विद्या-निधि' नीवकी एक ईटका काँग्रमी कार्यकर्ता दो एस रत्न है जिनका जैनममाजकाम दे सकती है । यदि समाजन इस निधिको को अधिक उपयोग करना चाहिये । श्रीसुमतिप्रमादअपनाया, उसकी तरफसे अच्छा उत्साहवर्द्धक उत्तर जीको ती प्ररणा करके सामाजिक कार्योंमे भी आगे मिला और फलतः उत्तम बाल-साहित्यके निर्माणादि लाना चाहिए और उन्हें उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सुपुर्द की अच्छी सुन्दर याजनाएँ सम्पन्न और सफल करना चाहिये । मुझे आश्चर्य यही है कि अब तक होगई तो इस मै अपनी उस इच्छाको बहुत अशी उनकी मेवाओका लाभ क्या नहीं उठाया गया । पर मे पूरी हुई समझगा जिसके अनुसार मै अपनी दोनो जनसमाजमे पुराने कार्यकर्ताओंको उदासीन न होने पुत्रियोंका यथेष्टरूपमे शिक्षित करके उन्हे समाज देने और नय नता तथा कार्यकर्ता खोजनकी लग्न संवाक लिये अर्पित कर दना चाहता था। या गज ही किसे है ? वीरसेवामन्दिर, सरसावा परिषदम दर-दूर स्थानोंसे डेढ़ मौ दो सौ के ३१ मई सन् १EYES -जुगलकिशोर मुख्तार सार उस्तार लगभग नए-पुराने नेता तथा कार्यकर्ता पाए । उनके Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] हृदयों में बड़ा जोश तथा अरमान था, किन्तु वह समाज के किसी काम भी नहीं आया। कुछ इने-गिने महानुभावन ही इतना समय ले लिया कि औरों को अपने हृदयकी बात कहनेका अवसर ही नहीं मिला । पास-पास ठहरे हुए होते हुए भी किसीका किसीसे कोई परिचय नहीं कराया गया, न पारस्परिक सम्पर्क ही स्थापित हुआ । महिला कार्यकर्ताओं तथा नेताओं मे सिर्फ श्रीमती लेखवती जैन थी । यह दूसरी कमी है कि जैनसमाज स्त्री-शिक्षा प्रचार के इस युगमें अभी तक दो-चार भी महिला लीडर पैदा नही कर सका। मै यह मानने को तैयार नहीं कि जैन समाज मे उच्च शिक्षा प्राप्त योग्य महिलाओं का अभाव है । दर्जनों नाम मै गिनवा सकता हू जिनमें श्रीमती रमारानी जन धर्मपन्ना साहु शान्तिप्रसादजी, धर्मपत्नी ला राजेन्द्रकुमार जा, पंडिता जयवन्तीदेवी, धर्मपत्नी श्री ऋषभसेन महारनपुर, श्रीमती रामचन्द्र मिगल सोनीपत आदि कुछ हस्तियाँ है जिनपर किसी भी समाजको गर्व हो सकता है। पर बात वास्तवमे यह है कि जैनममाजमे योग्यमे योग्य व्यक्ति, कार्यकतो, विद्वान होते हुए भी, एक प्रेरक, संयोजक, मग्राहक तथा संचालक शक्तिका अभाव है। और परिपदम वह शक्ति पूज्य ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी तथा बैरिस्टर श्रीचम्पतरायजीकं स्वगवासके पश्चात् समाप्त हाई। अब दरी काम है, पारस्परिक सम्पर्कका सर्वथा अभाव ह । और सब शिथिलताका यही कारण है । मुजफ्फर नगर परिषद् अधिवेशन अधिवेशनकी समस्त कायवाही देखनेके बाद यह कहा जा सकता है कि परिपद वैधानिक तथा प्रतिनिधित्व की दृष्टि (Constitutional and Representative points of es से बहुत कमजोर है। ऐसा मालूम होना था कि जैसे परिषद किसी विधान के नीचे काम ही नहीं कर रही। विधान के किसी भी प्रश्नपर चैलेंज करने पर परिषद के मुख्य संचालकीक पास कोई उत्तर नहीं होता था। प्रति-निधि की हम तो यह कहा जासकता है कि हर एक उपस्थित महानुभाव अपना ही प्रतिनिधि था। जहाँ Dey परिषदका केन्द्रीय ऑफिस अत्यन्त कमजोर तथा अव्यवस्थित है, वहाँ शाखा सभाएँ तो न होने के बराबर है। यदि इस वर्ष मे सभापति श्रीरतनलालजी और मन्त्री श्रीतनसुखरायजी इन त्रुटियों को दूर कर सके तो बड़ा काम होगा । विषय-निर्धारिणी सभामे चन्दा करते समय बनाया गया कि पिछले पाँच बर्षोमं श्रीसाहू शान्तिप्रसादजीन ९० हजार रुपया परिषदकी महायताक लिए दिया । यह बहुत बड़ी रकम है और उसके लिये समाज तथा परिषद साहूजीका जितना उपकार माने कम है। इस बड़ी रकमके अतिरिक्त ममाजसे भी पाँच वर्षमे चन्दे, सहायता आदिके रूपमे २०, २५ हजार रुपये आये होंगे। किन्तु क्या यह कहा जा सकता है कि इतने रुपये खर्च करके भी परिषद इन वर्षोंमें कुछ काम कर सकी है, सिवाय इसके कि परिषद को इतने वर्ष सिर्फ जिन्दा रख दिया गया है, मरन नही दिया गया । परिषद के अधिवेशन मे जो प्रस्ताव पास हुए है, उनमे सबसे महत्वपूर्ण प्रस्ताव वह है जिसमे हरिजनमन्दिर प्रवेश बिलों और दानके ट्रस्टोंके कानून बनाने मे सरकार से जैनोंको अपना दृष्टिकोण पेश करने का अवसर देनेकी माँग है। यह अत्यन्त दूरदर्शिता. पूर्ण, नीतिपूर्ण और व्यवहार कुशलता परिचायक प्रस्ताव है। इस प्रस्तावका अनुमादन करते हुए श्री साहू शान्तिप्रसादजीने जिस योग्यता तथा सभा चातुर्यका परिचय दिया वह अत्यन्त सराहनीय था । श्री मतिप्रसादजीका समर्थक भाषण तो ऐसा था जैसा किसी धाराममामे बहुत ही सुलभे हुए स्टेटम्मैनका धारा प्रवाही भाषण हो । प्रस्तावका विराध इतना युक्तिहीन, श्रमयत भाषापर्ण तथा जिद भग था कि जनतापर उसका जग भी असर नहीं हुआ । प्रस्ताव अत्यन्त बहुमतमं पास होगया । आन वाले वर्षोमं जैन समाजका मराठित होकर अत्यन्त जागरुक तथा चौकन्ना रहकर निहायत हाशियारी तथा प्रभावश्रृंगा ढङ्गसे कार्य करना चाहिए ताकि भविष्य में बनने वाले कानून अधिक अधिक Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ अनेकान्त [ वर्ष ९ हमारे अनुकूल बन सकें। यदि हमने जरा-मी भूल जी एक मिपाही ढगकं कार्यकर्ता हैं । आशा है कि की तो उसकी हानि जैन ममाजको सैकड़ों वर्षों तक वे परिषद्के मगठन-कार्यको ठीकरूपसे करेगे और उठानी पड़ेगी। यदि यह कार्य जैनममाजके तीनों आपकी समाजका पूरा महयोग मिलेगा। मम्प्रदाय मिलकर करे, तो और भी अच्छा है। परिषद के मभापनि श्रीरतनलालजी है। आपकी प्रबन्धक कमेटीके चुनावके ममय जो आलोचना योग्यता, कार्यकुशलता, त्याग, देशभक्ति आदि की हुई, उमसे हम काफी मीग्वना चाहिये। नामालूम जितनी प्रशमा की जाय कम है। ममाज आपमे यही हम नुमायशी, निकम्मी कमेटियोंके चक्करम कब चाहती है कि समाजका नतृत्व ठीक-ठीक करके निकलेंगे और ठोम काम करने वाली कमेटियाँ ममाजमे काम ले। बनाना कब माग्वेगे ? गाजियाबादक एक भाईने नवयुवकोंको कई बार महामन्त्री-पदसे श्रीराजेन्द्रकुमारजीने त्यागपत्र इकट्ठा किया, किन्तु उसके परिणामस्वरूप किसी दिया। वह म्वीकृत होगया। आपकी मेवाएँ जैन- ग्वाम बात या कामका ज़िकर नहीं सुना । समाज और परिषदके लिए महान हैं। परिषदकं ममम्त बानों को देखते हुए परिषद्का यह अधिस्थापनाकालसे ही आपका परिषदसे मम्बन्ध रहा वंशन न विशेष उत्साहवर्धक ही था और न निराशाहै। तन-मन-धनसे उमका कार्य आप २०, २५ वर्षसे पूर्ण । मब आलोचक काम देखते है, काम चाहते है, कर रहे है। इतने वर्ष कार्य करने पर अवकाश किन्तु काम करना कोई नही चाहता । और इमी चाहना मर्वथा उचित ही था। आपके स्थानपर श्री- लिए काम नहीं होता। काश, हम सब स्वय कुछ तनसुखरायजी महामंत्री चुने गये। लाला तनसुखराय काम करना सीखे बर्नार्ड शाके पत्रका एक अंश सुप्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान विचारक जार्ज बर्नार्डशा अपने २१ अप्रैल सन् १९४८के एक पत्रमे, जो उन्होंने बाबू अजितप्रसादजी जैन एम० ए०, लखनऊको उनके पत्रके उत्तरमे भेजा है, लिखते है कि 'बहुत वर्ष हुए जब उनसे पूछा गया था कि प्रचलन धर्मोंमसे कौनमा धर्म ऐसा है जो उनके अपने धार्मिक विश्वासके सर्वाधिक निकट पहुँचता है, तो उन्होंने उत्तर दिया था कि क्वेकर मित्रमण्डलका पन्थ और जैनधर्म । किन्तु जब वे भारत आये और यहाँ एक जैन-मन्दिरको देखा तो उन्होंने इम मन्दिरको अत्यन्त भद्दी घोड़ेके मूंडवाली मूर्तियोंसे भरा पाया। तीर्थङ्कर-प्रतिमाएं अवश्य ही जादू-असर, सुन्दर और शान्तिदायक थीं, किन्तु वे भी भोले मूर्तिपूजको-द्वारा मामान्य देवी-देवताओं की भाँति पूजी जा रही थीं। प्रज्ञ जनमाधारणको प्रभावित करनेके लिये मब ही धोको उन अनुयायियोंकी योग्यताके अनुसार मत्तियों एवं अतिशय-चमत्कारादि-द्वाग निचले म्नरपर लाना पडता ही है। ज्यातिप्रसाद जैन, . लखनऊ, ना० १८-५-१९४८ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाकिस्तानी-पत्र हमारे कई मित्रोंके पास पाकिस्तानसे पत्र श्राते रहते हैं और कुछ उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं, जिनसे साम्प्रदायिक उपद्रवोंपर काफी प्रकाश पड़नेके अतिरिक्त लिखने बालोकी स्वच्छ और वास्तविक मनोवृत्तिका पता लगता है। देशके बटवारेसे लोगोंको जो आघात पहुँचा है, उसका भी दिग्दर्शन होता है। हम ऐसे बहुमूल्य पत्र इस स्तम्भमें देनेका प्रयत्न करेंगे। नीचेका पत्र 'शायरके' सम्पादकको लिखा गया है और मार्चके शायरसे उसका आवश्यक अश धन्यवाद. पूर्वक प्रकाशित किया जा रहा है। अनेकान्तकी अगली किरणोंम ओर भी महत्वपूर्ण पत्र अपने मित्रोंमे मॅगाकर देनेका विचार है। -गोयलीय लाहौर, अप्रेल १९४८ गये। कितने सब कुछ लुटाकर खाली हाथ मुदौसेभी बिगदरे मुहरिम, तस्लीम बदतर जिन्दगी बसर करनेके लिये बच रहे । पञ्जाब, ........ पञ्चाबकी खानाजङ्गीकी चूचका दास्तानों अब वाह पहला-सा पञ्जाब नहीं, जहाँ हर वक्त फारिगउलबाली और खुशीके सोते उबलते रहते थे। का कुछ हिस्सा आप तक पहुँचता रहा होगा। क्या बयान कीं इस शादाब और मसरूर खितेको इसक अब वह लाखों बेघर चलती-फिरती लाशोका अपने ही बेटोंने लाखों बेगुनाहोंके खूनसे किस कदर मदफन है। दारादार बना दिया है। हजारों बरस पेश्तरके .. .. इन आँखोंने महाजरीनकी तबाही और खम्तगीके इन्सानोंके दिमाग़ और रूहपरसे तहजीब और तमदन बहुत जाँगुदाज सीन देखे हैं। दुनियास जी बेजार का मुलम्मा काफूर हो गया था और अपने पीछे हो गया था, कुछ भी अच्छा नहीं लगता था । इन्सान के भेसमें एक वहशी दरिन्दा छोड़ गया था. हरवक्त दिलपर गहरी उदासी छाई रहती थी। खदाए जिसने अपने भाइयोंको फाड़ खाया, अपने बेटोंका पाकका शुक्र है कि अब लोगोंकी तकलीफें कल कम कलेजा नोच लिया, अपने बापदादाओंकी बुढी हुई है । अच्छे-बुरे सब अपने-अपने ठिकाने लग गये हड़ियोंको पावसे कुचला और अपनी माँओं. बहनों ६, खुदा उनपर अपना कपल फरमाए।....." बतनको और बेटियोंपर बोह सितम ढाये कि खुद जुल्म व यादकी तकलीफ यू मरते दमतक दिलको कचोके देती दरिन्दगी भी अंगुश्तबदन्दाँ रह गए। रहेगी, लेकिन अब इसकी शिहतमें कुछ कमी हो गई है। . .... ... .... ......" अल्लाह, अल्लाह, कैसा इन्कलाब हो गया! अपनी किस्मका पहला अनोखा तबाहकुन इन्कलाब भापकी बहन कितने अहबाब व अजीज इस खूनी मैलाबमें यह शीरी Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भारतीय स्थिति - मिल जानेसे प्रत्येक प्रान्तवाले स्वच्छन्द और उन्मत्त हो उठे हैं। मानो बन्दरोंके हाथमे डण्डे देकर उनके भारतके बेर और फूट दो प्रसिद्ध मेवे हैं, इन्हीं समक्ष गुड़की भेली डाल दीगई है, जो गुड़का उपभोग की बदौलत भारतको अनेक दुर्दिन देखने पड़े है। न करके एक-दसरेको मार भगानेमे व्यस्त हैं। धार्मिक संकीर्णता, अनुदारता, प्रान्तीयता और जातिमदको परतन्त्रताका अभिशाप समझा जाता प्रत्येक प्रान्तवाले अपने-अपने प्रान्तमे नौकरी, था। लोगोंका विचार था कि जिस रोज परतन्त्रता- व्यापार, उद्योग-धन्धे और राजकीय सुविधाएँ सब गक्षसीका जनाज़ा निकलेगा, ये दुषित विचार म्वय अपने प्रान्तवालोंके लिये सुरक्षित रखना चाहते है। उसके साथ दफन हो जाएंगे। परन्तु यह धारणा अभारतीयसे अधिक अब अन्य प्रान्तीय विदेशी स्वप्रकी तरह क्षणभरको भी मधुर न हो मकी ममझा जाने लगा है। और तारीफ यह है कि इम "वही रफ्तार वेढगी जो पहले थी मो अब भी है।" प्रान्तीय रोगस ग्रसित प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रान्तकं अतिरिक्त अन्य प्रान्तोंमे भी अपने प्रान्तवालोंके लिये म्वतन्त्र होने के बाद देश-विभाजनके फलम्वरूप पूरी सुविधा चाहता है । भारतवासी होनेके नाते य जो नर-मेध-यज्ञ, सीता-हरण और लङ्का-दहन-काण्ड लोग भारतकं हर कोनेमे व्यापार, उद्योग-धन्धे, उसपर बर्द्धमान-कालीन यज्ञोंके पराजित नौकरियों आदिमे समान अधिकार चाहते है, किन्तु पुरोहित, रावण और दुर्योधन, राक्षस और हलाकू- अपने प्रान्तमे अन्य प्रान्तवासीको फूटी आँखसे भी चैगेज, तैमूर-नादिरशाह, डायर-ओडायरके प्रेत देखना नहीं चाहते। "जब तुम हमारे घर आओगे ठहाका मारकर हँस रह है। दरिन्दे जानवर अपनको तो क्या लायोगे ? और जब हम तुम्हारे यहाँ भुनगा समझने लगे हैं, गधे हमारी करतूतोपर आएँगे तो क्या दोगे?" किमी कजूमका कहा हश्रा मुस्करा रहे है और चील-कौओं, शृगाल और गिधों यह वाक्य इस ममय शतप्रतिशत चरितार्थ हो रहा है। को इस बात का अभिमान है कि वे मनुष्य नहीं है। "बङ्गाल बङ्गालियोंका है, ये मारवाड़ी यहूदी हैं, भारतकी इस दयनीय स्थितिको संक्रमण (प्रसव) पचाबी उहण्ड और झगडालू है" यह धारणा बजकाल समझकर धैर्य रखे हुए थे कि सम्भवतया वासियोमे बैठाई जा रही है । बिहारमे बिहारी, स्वतन्त्रताके बाद ऐमा होना आवश्यक था। किन्तु बझाली. उडियाको लेकर मर्ष चलने लगे है। यह मक्रमणकाल तो भारतको मक्रामक-कीटाणुओं- महाराष्टीय, गजराती, पारसी, मद्रासी कभी प्रान्तीयता की तरह नष्टप्राय किये दे रहा है। भारतकी यह और जातीयताके कृपसे निकले ही नहीं। मी०पी०, नाजुक हालत देखकर देशकै कणधारोंक मुंहसे बबस य०पी० और दिल्ली प्रान्त इस छतकी बीमारीसे निकल पड़ा है-“यदि भारतकी यही स्थिति रही तो अछते थे किन्तु जबसं पाकिस्तानी हिन्दुओंका प्रवेश वह अपनी स्वतन्त्रताको खो बैठेगा।" हुआ है, तबसे उनके सक्रामक-कीटाणु इनमे भी जो कुसंस्कार और कुविचार परतन्त्रताकी विषैली प्रवेश करते जारहे हैं। यदि शीघ्र इम बीमारीका बायुसे मान्दसे दीख पड़ने लगेथे, वे ही स्वच्छन्दताके उपचार न हुआ तो भारत जैसा विशाल देश युरुप, झोंकसे प्रज्वलित हो उठे है । प्रान्तीय स्वतन्त्रता इङ्गनेण्ड, फ्रान्स, बेलजियम, स्वीडन, डेनमार्क, Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] सम्पादकीय २८९ हालेण्ड, जर्मन आदिकी तरह छोटे-छोटे क्षेत्रोंमें था। अब तो यह अपनी मनोभिलषित इच्छाओंकी विभाजित हो जायगा। पूर्तिका अमोघ उपाय बन गया है। स्वतन्त्रताके बाद जानि-मदका अब यह हाल है कि अब यह तप-त्यागकी भावश्यकता नहीं रही, अत: बड़े बड़े चतुवोंमे मीमित न रहकर हजारों शाखा-उप देश-द्रोही भी अब अपनेको देशभक्त बेझिझक कहते शाखाओंमे फट निकला है। ये चतर्वर्ण एक दसरेसे हैं । जो अधिकारी गान्धी कैपको देखकर भड़क लड़ते ही थे अब परस्परमे भी ताल ठोकने लगे है। उठते थे, वे अब गान्धीजीके चित्रकी पूजा करते हैं। म्यूनिस्पलकमेटियों, डिस्टिक्टबोडोंकेचनावोंमे संघर्ष- जिन अधिकारियोंने देश-भक्तोंको फांमीपर लटका ममाचार हमारे सामने है। अब केवल चार वर्णोंमे दिया, गालियोंसे भून दिया, जेलोम मड़ा-मड़ाकर ही मंघर्ष नहीं रहा, अपित चौबे-पाण्डे, मिश्र-द्विवेदी, मार डाला, वे भी आज देशभक्तिका जामा पहन कर गहलोत-राठौड़, चौहान-कछवाहे, जाट-अहीर, गजर. बड़ी शानसे निकलते हैं। माली, अप्रवाल-श्रोसवाल, माहेश्वरी-खण्डेलवाल, देश-सेवक जूझते रहे, भूखे मरते रहे, उनके श्रीवाम्नव-सक्सेना, मुनार-लुहार, धोबी-तेली, चमार बच्चे बिलखते रहे, औरते सिसकती रही और जो भङ्गी आदि हजारों उपजातियोंको लेकर संघर्ष होने ठाटमें नौकरी करते रहे, क्लबोंमे पीते-नाचते रहे. लगे हैं। भील-कोल, द्राविड-आदिवासी और अछूत- खजान भरते रहे, वे ही आज हमको कर्तव्य का बोध ममस्या अभी हल हो नहीं पा रही है कि यह जाति- करानेमे गर्वका अनुभव कर रहे हैं। मालूम होता है मदका विषधर और फन फैलाकर खड़ा होगया है। मारी भूग्वी बिल्लियाँ भगतन बन गई है। हम उन मोहन (गान्धी) की अनस्थितिमे इम कालीदहमे सब मजनों को भी जानते है जो युद्धमे अंग्रेजोंको कूदकर कोन कालिनागको विष रहित करे, यह मुझ महायता करते रहे। जर्मन-विजयकी खुशी भी बड नहीं पड़ रहा है। यदि शीघ्र इसका विषहरण नहीं ठाटसे मनानेमे पेशपेश रहे। वे ही हवाका रुख किया गया तो सारे भारतमे यह विष फैलते बदलते ही आजाद हिन्द फौजकी सहायताको भोली देर नहीं लगेगी। लेकर निकल पड़े और अपने दूधमुंहे बच्चोंको माम्प्रदायिक और धार्मिक उन्माद महात्माजीक इंकलाब भगतसिह जिन्दाबाद और पूजीवाद मुर्दाबाद. बलिदान खमारीलेते नजर आरहे है, पर बरसाती के नारे लगाते देख फूल उठते हैं। क्योंकि वे जानते हैं हवा पाते ही यह उन्माद यदि फिर उठ खड़ा हश्रा ती कि अब इसमे जानको जोखिममें डालनेका प्रभाव न फिर यह राक्षस रामके मारे भी नहीं मरेगा। रहकर जानको मुटियानका अमर पागया है। इसके अतिरिक्त भारतमें पाकिस्तानी अडूर अब देशभक्ति राजनैतिक अधिकारियोंकी स्थली धीरे-धीरे बढ़ ही रहा है। काश्मीर और हैदराबादका बन गई है। चर्खा-दाली, काँग्रेमी, सोसलिष्ट, समस्या भयावह बनी हुई है । कम्युनिष्ट घुनके कीड़ॉ. कम्यूनिष्ट आदि इस अखाड़ेमें लगर बांधकर उतरे की तरह भारतको जर्जरित कर ही रहे हैं। भ्रष्टाचार हुए हैं। भारतका हित किसम है, इतना सोचनेका और घूमखोरीका यह हाल है कि मालूम होता है हम इन्हें अवकाश कहाँ ? अपनी पार्टीका हित किसमें है भारतमे न रहकर ठगों-चोरोंके मुल्कमे बम गये हैं। और विरोधी पक्ष किस दावपर पछाड़ा जाय, यही अब देश-सेवा आत्मशुद्धिका साधन न रहकर चिन्ता इन्हे हरवत बनी रहती है। गनीमत है कि स्वार्थ और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओंकी साधक बन १००-५० बरे देशरम अभी जीवित हैं और उनके गई है। वे दिन हवा हप जब देशके लिये त्याग हाथमें शासनकी बागडोर है, वे मन-वचन-कायम करना और कष्ट महना नैतिक कर्तव्य समझा जाता भारतकी स्थिति सुधारनेमें अहर्निश प्रयत्न कर गंह था और देशभक्त कहलाना श्रात्म-प्रतिष्ठाका द्योतक हैं और प्रान्तीयता, साम्प्रदायिकता आदिकी जड़ोम Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० अनेकान्त भी मट्टा दे रहे हैं। फिर भी जबतक हम सभी भारत- जारहे हैं। दिल्लीके जिस चांदनीचौकमें मुसलमानी पुत्र अपने कर्तव्यको न सममें और उस ओर मल्सनतमें भी कभी मांस नहीं बिका, वहां अब हर प्रयत्नशील न हों तबतक कैसे हमारे देशकी उन्नति १० गजकी दूरीपर कबाब और गोश्त-रोटी बिकने हो सकेगी? लगे हैं। अण्डोंका प्रचार होता जारहा है। हमारी जैनसमाजका कर्तव्य नई दिल्ली भी इस दूषित खान-पानसे प्रभावित हो अतः अब जैनसमाजका कर्तव्य हो जाता हैं कि रही है । क्लबोंमें सभ्य सोसायटीके नामपर शराव यह स्वार्थसाधन करने वाली देशभक्तिसे बचे, राज- और जूश्रा जरूरी होगया है । मिनेमाओंके हस्नोनैतिक दल-दलसे दूर रहे और सही अर्थोंमे भारतीय इश्कके नामोंसे अश्लीलता-निलज्जताका जो पाठ सपूत बने । हमारे बालक-बालिकाएँ जवानीकी चौखटपर पाँव (१) किसी भी जैनको म्यूनिस्पलकमेटियों, रखनेसे पहले पढ़ लेते है, उससे हमारी नस्लोंमे डिस्ट्रिक्ट बोडों, कोन्सिलों और व्यवस्थापक सभाके घुन लगने लगा है । अब समय आगया है कि लिये स्वतंत्र उम्मीदवारक नाते कभी भी खडानहीं होना श्वेताम्बरजैन-साधु श्राश्रमोसे निकल आएँ । गलीचाहिये। म्वतन्त्र बडे होनेमे साम्प्रदायिक उत्पातकी गली, कूचे-कूचेमे मभाएँ करके मांस-मदिराका श्राम हर समय सम्भावना है। अत: किसी भी व्यक्तिको जनतास त्याग करायें । मद्य-माँस-निपेधिनी सभा यह अधिकार नहीं है कि वह व्यक्तिगत महत्वा- स्थापित करके-सिनेमा और समाचारपत्रोंक विज्ञाकाँक्षाओं के लिये समची समाजको खतरेमे डाल दे। पनों-द्वाग, पोस्टरों-द्वारा, छोट-छोटे ट्रेक्टों और यदि कोई स्वार्थी ऐसा करनेका दःसाहस करे भी तो व्याख्यानों-द्वारा इस बढ़ती प्रथाको रोके । हमारे ममाज का उसका साथ हर्गिज़ नहीं देना चाहिये। जिन पूर्वजोंने यज्ञ-याज्ञादि और उच्च वर्गों में हिंसा चुनाव-निर्वाचनकी उम्मीदवारी के लिये उसी व्यक्ति- सवेथा त्याज्य करादी थी, निम्न श्रेणीक भी बहत कम का खड़ा होना चाहिये और उसीका हमे समर्थन उसका प्रयोग करते थे। आज उनके हम वंशज उनके किये करना चाहिये जिसको उमके त्याग, बलिदान या हुए अनथक कार्यपर पानी फिरते देख रहे हैं और हाथयोग्यताके बलपर देशके अधिकारी वर्गने खडा किया पर-हाथ बांधे चुपचाप बैठे हैं। कहीं-कहीं वेश्यानत्य हो । जिस कार्यमे देशकी भलाई हो, बहुसंख्यक भी चालू होगये है भी चालू होगये हैं। हम चाहिए तो यह था कि हम जनता जिम वगके कार्यको सराहे, उसे विश्वस्त * पूर्वजोंके कार्यको आगे बढ़ाते । इनका ममृचे भारतमे समझे हमे उसी वर्गकी लोक-हितैषी योजनाओम विरोध करके हम यूरुप और इम्लामी देशोंमे पहुँचते भाग लेना चाहिये । व्यर्थके राजनैतिक दलदल में नहीं और कहाँ हम अपनी आँखोंक समक्ष इस धर्मघाती फँसना चाहिये । यह वह दलदल है कि एक बार भी भावनाका उत्तरी भावनाको उत्तरोत्तर बढ़ती हुई देख रहे हैं। भूलसे फेंस जानेपर फिर कभी उद्धार नहीं। भारतीय पूर्ण शक्तिशाली और बलवान हों, । अतः हमारी समाजका कर्तव्य है कि अब वह अहिंसक हों, उनके हृदयमे दूसरोंके प्रति दया-ममता अपनी सस्कृति और धार्मिक आचार-विचारका हो । वह महावीरकी तरह पशु-पक्षियोंके पीड़ित बडी योग्यतासे प्रसार करे । और यह प्रसार तभी होनेपर दयाई हो उठे, पतित-से-पतितको भी ईसाकी हो सकता है जब हम जैनधमेके मल सिद्धान्तोको तरह उवार सकें। अपने जीवन में उतारे। (३) हमारी वाणीमे जादू हो, हमारी पाणीसे (२) हमारे देशमे अब मांस-मदिराका प्रमार जो भी वाक्य निकले उसका कुछ क़ीमती अर्थ हो। उत्तरोत्तर बड़े बेगसे बढ़ता जारहा है। दिन-पर-दिन लोग हमारी बातको निरर्थक न समझकर मूल्यवान इस तरह के रेस्टोरेण्ट और होटल बड़ी संख्यासे खुलते समझ । जनताको यह विश्वास हो कि प्रत्येक जैन Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] कथित स्वोपज्ञ भाष्य २११ अपनी बातका धनी होता है। जो वायदा करता है सम्बन्धमें भी हम अपने पूर्वजोंकी त्यागवृत्ति, सन्तोष उमे जानपर खेलकर भी पूरा करता है। सूर्य-चन्द्रकी और परिमाणवृत्ति फिरसे अपनानी होगी। गति बदल सकती है, परन्तु इनकी बात नहीं बदल जब हम इस तरहके पात्म-शुद्धिके कार्य अपने मकती। जानसे क्रीमती वचनको समझते है। जीवनमे उतारेगे तभी हमारा यह लाक और परलोक (४) जैनोंसे कभी धोखेकी मम्भावना नही, सुधरेगा। और तभी मचे प्रोंमे जैनधर्मका प्रसार जो वस्त देगे, खरी और पूरी देगे। इनसे बिन गिने होगा और संसार इसकी ओर आकषित होगा। रुपये लेनेपर भी पाईका फर्क नही पड़ेगा । इनका उक्त विचार आज शायद कुछ नवीन और अटटिकट चैक करना, चुङ्गीपर पूछना वर्जिन है। जैन पटेसे प्रतीत होते हों, परन्तु हमारे धर्मकी भित्ति ही कह देनका ही यह अर्थ होना चाहिए कि जैन इन ईटोपर खड़ी की गह है। अगर जैनधर्मको राजकीय नियमके विरुद्ध कोई वस्तु नही रखते जीवित रखना है तो उसकी इन नीवकी ईटोंको और न गजकाय या प्रजाहितके साधनोंका दुरुपयोग हरगिज हरगिज नहीं हिलने देना होगा। ही करते है। यह मिट्टी और पानी भी पूछकर लेते है। हम भारतके आदि-निवामी है। भारत हमारी (५) हमारा शील-स्वभाव ऐमा हो कि निर्जन है । हमारा हर प्रयत्न, हर श्वाम इसके लिये स्थानमं भी किमी अबलाको हमारे प्रति मन्देह न नपयोगी हो। हममं म्बनम भी इमका अहित नही। हो। वह अपने निकट हमारी उपस्थिति रक्षककी इसके लिये हमे सदैव जागरूक रहना होगा। श्राज भॉनि ममझ । जैन भी बलात्कारी या कुशाल हो स्वार्थक लिये धन-लोलुप पाकिस्तानी क्षेत्रांम अपने मकता है यह उमक मनमे कल्पना ही न पाकर दे। देश-भाइयोंका गला काटकर कपड़ा और अन भज (६) परिप्रहवादको लेकर आज सारा संसार रहे हैं और अनेक पडयन्त्रोंमें लिप्त होरह है। ऐम त्रम्त है। इस आपा-धापीक कारण ही युद्ध होते है, अधम कार्योस-मनुष्योम हमे दूर रहना होगा। हम जीवनोपयोगी वस्तुओपर कण्ट्रोल लगाते है। मज़- अपने अच्छे कार्योस जैन-ममाजकी कीति यदि न दर-पजीपति मघर्ष चलते है । अत: हम अपने बढा मके तो हम पूर्वजाक किये हुए मत्कार्योंपर पानी जीवनम 'जीयां और जीनदा'का सिद्धान्त उतारना फेनिका कोई अधिकार नहीं हैं। होगा । पैमा इक्ट्रा करना पाप नही, नमक बलपर सालाना शोपण करना-अत्याचार ढाना पाप है । परिग्रहकं १४ मई ४८ ) -गायलीय कथित स्त्रोपज्ञ भाष्य (लेम्बक--बा० न्यानिप्रमाद जैन एम. ए.) चार्य उमाम्वामि-कुन तत्वार्थाधिगम मत्र तम दिगम्बर टीका इम ममय उपलब्ध है वह आचार्य लागिम्बर एव श्वेताम्बर दोनों ही मम्प्रदायों देवनन्दी पूज्यपाद (५वी शताब्दी डे) द्वारा चन समानरूपसे परम मान्य ग्रन्थ है, और दोनों ही 'सर्वामिद्धि' है। नदपरान्त, ७वी शताब्दी ई०मे मम्प्रदायोंक उद्भट विद्वानों-द्वारा, प्राचीन कालसे ही, भट्टाकलङ्कदेवने 'तत्वार्थराजवातिक', ८वीं शताब्दी जितने बहुमख्यक टीका-प्रन्थ इस एक धर्मशास्त्रपर इम्म विद्यानन्दस्वामीन "शोकवार्तिक' तथाउनके रचे गये उतने शायद किमी अन्य जैन, और मम्भवतया पश्चात अन्य अनेक टीकाएँ दिगवर विद्वानोन रची हैं। अजैन प्रन्थपर भी नहीं रचं गये । उसकी सर्वप्रथम श्वेताम्बर विद्वानों द्वारा इम ग्रन्थकी ठीकाएँ टीका दूसरी शताब्दी ई में आचार्य स्वामिममन्त- प्रायः ९वी शताब्दी ई०के पश्चान् रची जानी प्रारम्भ भद्रद्वारा रची गई बताई जाती है, किन्तु वह टीका हई। किन्तु श्वेताम्बर आम्नायमे इस मुत्र प्रन्थका वर्तमानमे अनुपलब्ध है । तत्त्वार्थमुत्रकी जो प्राचीन- एक प्राचीन भाष्य भी प्रचलित रहना भाया है, जिसे Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ अनेकान्त [वर्ष ९ कि उक्त माम्नायके विद्वानों द्वारा स्वोपज्ञ भाष्य मान्यताओं एव क्रियाओंका समर्थन करता है, उक्त अर्थात स्वयं प्रन्थकर्ता उमास्वातिकृत समझा और आम्नायके अनुयायियों-द्वारा स्वयं उमास्वातिकी कृति बताया जाता रहा है। कुछ वर्ष हुए, अनेकान्त आदि माना जाता है। श्वेताम्बरोंका उक्त भाष्यको उमा पत्रोंमे इस विषयको लेकर श्वेताम्बर तथा दिगम्बर स्वामि कृत मानना कहाँ तक सङ्गत है, यह कहना विद्वानोंके बीच पर्याप्त वादविवाद चला था, और तो जरा कठिन है, किन्तु हमे इस बातको खुले हृदयउसका परिणाम प्रायः यही निकला था कि कथित मे स्वीकार करनेमे अवश्य ही कोई झिझक नहीं खोपज्ञ भाष्य श्राचार्य उमास्वामीके समयमे बहुत होनी चाहिये कि अपने ही प्रन्थपर स्वोपज्ञ भाष्य पीछेकी रचना है और वह उनके स्वयके द्वारा रची लिखनेका श्रेय हम आधुनिक विद्वानोंने भी अनेक जानी सम्भव नहीं है। किन्तु दिगम्बर विद्वानों द्वारा ग्रन्थकारोंको दे डाला है। अन्तु, 'अर्थशास्त्र के स्वयंके प्रस्तुत प्रबल एवं अकाट्य प्रमाणोंसे पार युक्तियोंके एक श्लोकके सुम्पष्ट अभिधेयार्थके बावजूद 'अर्थशास्त्र' बावजूद उदारसे उदार श्वेताम्बर विद्वान भी भाप्य- जिस रूपमे आज उपलब्ध है उसी रूपमे स्वय की म्वोपज्ञतापर अविश्वास करनेको तैयार नहीं होते। कौटिल्य द्वारा रचा कहा जा रहा है, जबकि वास्तव इसी विषयपर, प्रमगवश, प्राचीन इतिहाम- मे वह मृलग्रन्थकी विष्णुगुप्त नामक एक विद्वान विशेपन प्रो सी. डी चटर्जी महोदय ने अपने एक द्वारा रचित टीकामात्र है, जिसमें कि मूल अर्थशास्त्रलेखमे' सुन्दर प्रकाश डाला है। उक्त लंबक फुटनोट के पद्योंको अधिांशतः गद्यरूप दे दिया गया है, और नं.४१ मे आप कथन करते है कि शेष पद्योंमेसे कुछकी व्याख्या कर दी गई है तथा कुछ "यह विश्वास करना अत्यन्त कठिन है कि एकको उनके स्वरूपमे ही उद्धृत कर दिया गया है। उमास्वामी को 'तत्वार्थाधिगममूत्र' जैमा जैनसिद्धान्त इस प्रकारकं उदाहरण एक दो नही, अनेक है। हम (तत्त्वज्ञान एवं आचार) का अपूर्व मार-सङ्कलन, लोगोने धनञ्जयकं 'दशम्पक'पर रचे गये 'अवलोक' जोकि जैनधर्ममे वही स्थान रखता है जैसा कि का कतृत्व धनञ्जयको ही प्रदान किया, और यह बौद्धधर्मम विशुद्धिमग्ग' दिगम्बर आम्नाय द्वारा माना कि उस 'अवलोक'को उसने 'धनिक' नामसे अपने अङ्ग एवं अङ्गवाह्य श्रुत-द्वयका म्वरूप तथा रचा, और यह नाम उसने अपने ग्रन्थपर स्वयं ही आकार पूर्णतया सुनिश्चितकर लिय जान के पूर्व ही टीका रचनकं लिये उपनामक रूपमे धारण किया लिखा जा सका हो । था। इसी प्रकार इतिहासकार महानामको अपने ___ "यह कि, उमास्वाति अथवा उमा-वामी एक 'महावश पर स्वयं ही टीका रचनेका श्रेय दिया गया दिगम्बर प्राचाय थे इस बातम तनिक भी सन्देह है, इस बातकी भी अवहेलना करते हुए कि स्वयं नहीं है, किन्तु साथ ही यह बात भी उतनी ही मत्य ग्रन्थका पाठ इस बातको प्रसिद्ध कर रहा है। है कि उन्होंने अपने ग्रन्थमे दिगम्बगं और श्वे- हमारी इस प्रकारकी श्रज्ञ-विश्वास-प्रियताके ये ताम्बरोंक बीच विवादास्पद विषयोंका समावेश न कतिपय ज्वलन्त उदाहरण है। और यदि हम (आधुकरनेमे प्रयत्नपूर्वक मावधानी बरती है। तत्त्वाथा-निक विद्वान) तत्त्वार्थाधिगमके कथित मूलभाष्यका धिगमसूत्रका मूलभाय (बिबलियोथेका इडिका कतत्व भी उसके स्वयंके रचयिता, उमास्वामिको ही १५०३-५) जो कि बहुलताके साथ श्वेताम्बर प्रदान करते है, दिगम्बर विद्वानोंकी प्रबल पुष्ट Dr.BC.Law Volume, Partli प्रकाशित आपत्तियोंकी भी अवहेलना करते हुए, तब भी हम २ और अपने लेम्वमे अन्यत्र आपने कथन किया है कि कोई नई मिसाल पैदा नहीं कर रहे है, क्योंकि यह "पूर्ण सम्भावना यही है कि कुन्दकुन्द और उमास्वामी रिवाज तो हमने पहले से ही भली प्रकार स्थापित दोनो सन् ई० पूर्व ७५से सन् ई०५०के बीच हए थे।" कर लिया है।" Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भारतीय ज्ञानपीठ काशीके प्रकाशन १. महाबन्ध-(महधवल सिद्धान्तशाख) प्रथम भाग । हिन्दी टीका महित मूल्य १२)। २. करलक्खण-(मामुद्रिक-शास्त्र) हिन्दी अनुवाद सहित । हस्तरेखा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ । मम्पादक-प्रो० प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम० ए०, अमरावती । मूल्य १)। ३. मदनपगजय- कवि नागदेव विरचित (मृल संस्कृत) भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावना महित । जिनदेवके कामक पराजयका मग्म रूपक । सम्पादक और अनुवादक पं० गजकुमारजी सा० । मू०८) ४. जैनशामन-जैनधर्मका परिचय नथा विवेचन करने वाली सुन्दर रचना । हिन्दू विश्वविद्यालयके जैन रिलीजनके एफ. ए० के पाठ्यक्रम निर्धारित । मुखपृष्ठपर महावीरस्वामीका तिरका चित्र । मुल्य ४-) ५. हिदी जन-साहित्यका संक्षिप्त इतिहास-हिन्दी जैन-माहित्यका इतिहास तथा परिचय | मूल्य २)| ६. आधुनिक जैन-कवि-वर्तमान कवियोंका कलात्मक परिचय और सुन्दर रचनाएँ । मूल्य ३||) ७. मुक्ति-दुत-अमना-पवनञ्जयका पुण्यचरित्र (पौराणिक गैमाम) मू०४||) ८. दो हजार वर्षकी पुरानी कहानियां-(६४ जैन कहानियाँ) व्याख्यान तथा प्रवचनोंमें उदाहरण देने योग्य । मृल्य ३JI ९. पथचिह--(हिन्दी माहित्यकी अनुपम पुस्तक) स्मृनि रेखाएं और निबन्ध । मूल्य २)। १०. पाश्चात्यतकशास्त्र--(पहला भाग) एक० ए० के लॉजिकके पाठ्यक्रमकी पुस्तक । लेखक-भिक्षु जगदीशजी काश्यप, एफ० ए०, पालि--अध्यापक, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी | पृष्ठ ३८४ । मूल्य II)। ११. कुन्दकुन्दाचायेके तीन रत्नमूल्य २)। १२. कन्नडप्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची (हिन्दी) मृडबिद्रीक जैनमठ, जैनभवन, सिद्धान्तवाद तथा अन्य प्रन्थभण्डार कारकल और अलिपूरक अलभ्य ताडपत्रीय प्रन्थोंके मविवरण परिचय । प्रत्येक मन्दिरमे तथा शास्त्र- भण्डारमे विराजमान करने योग्य । मृल्य १०)। 1 वीरसेवामन्दिरके सब प्रकाशन भी यहाँपर मिलते हैं प्रचारार्थ पुस्तक मॅगाने वालोंको विशेष सुविधाएँ भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस । DERSTANI RANI MAHAR Mahakari Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. A-731 कीरसेकामन्दिरके नये प्रकाशन __ अनित्यभावना - मुरनार श्रीतुगलकिशानी ६ न्याय-दापिका (महत्वका नया संस्करण) के हिन्दी पद्यानुवाद र भावार्थ महित । एवियोगादिके न्यायाचार्य प० दरबारीलालजी कोठिया द्वारा सम्पादित कारगण केमा ही शाकमन्नस हृदय क्यों न हो, इसको एक बार अनुवादित न्यायदीपिकाका यह विशिष्ट संस्करण बार पढ लेनेसे बड़ी ही शान्तताको प्राप्त हो जाता है। अपनी स्वाम विशेषता रखना है। अबतक प्रकाशित हमके पाठमे उदासीनता तथा खेद दूर होकर चित्तम संस्करणोंमे जो अशुद्धियां चली श्रारही थीं उनके प्राचीन पमनता और सरसता प्राजाती है। सर्वत्र प्रचारके प्रतियोपरसे सशोधनको लिये हुए यह सस्करण मूल ग्रन्थ योग्य है। मूल्य ।) और उसके हिन्दी अनुवादके साथ पाक्कथन, सम्पादकीय, : बाचाय प्रभाचन्द्रका तत्वार्थसूत्र-जया १.१ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावना, विषयमची और कोई ८ प्राम संचिम सूत्रगन्ध, मुख्नार भीजगनकिशोरजीकी पाराशसि संकलित है, साथम सम्पादक-द्वारा नवनि मानुवाद व्याख्या सहित । मूल्य।) 'काशाख्य' नामका एक सस्कृत टिप्पण भी लगा हुआ है, मत्माधु-स्मरण-मङ्गलपाठ-मुख्तार श्री जो ग्रन्थगत कठिन शब्दो तथा विषयोंको खुलामा करता जुगलकिशोरजीकी अनेक प्राचीन पद्योंका लेकर नई योजना, हुना विद्यार्थियों तथा कितने ही विद्वानोंके काम की चीज सुन्दर हृदयग्राही अनुवादादि-सहित । इममे भीवीर है। लगभग ४.. पृष्ठों के इम सजिल्द बृहत्संस्करणका पमान बार उनके बादके, जिनसेनाचार्य पर्यन्त,१ लागत मूल्य ५).है। कागबकी कमीकै कारण थोड़ी महान् प्राचार्योके अनेकों प्राचार्यों तथा विद्वानों द्वाग ही पतियाँ छपी हैं और थोड़ी ही अवशिष्ट रह गई । किये गये महलके १३६ पुण्य स्मरयाका संग्रह है और अनः इन्दुकको शीम ही मंगा लेना चाहिये। शलमे, लोकमंगल कामना. २ निस्पकी प्रात्म-प्रार्थना ७ विवाह-समुरेश्य-लेखक पं. जुगलकिशोर माधुवंपनिदर्शन जिनस्तुति, ४ परमसाधुमुखमुद्रा भोर मुस्तार, बालमं पूकाशित चतुर्थ सस्करण । ५ सत्साधुवन्दन नामके पांच प्रकरण। पुस्तक पढते यह पुस्तक हिन्दी-साहित्यमें अपने दगकी एक ही समय बड़े ही सुन्दर पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं और चीज है। इसमें विवाद में महत्वपूर्ण विषयका बड़ा ही साथ ही प्राचार्योंका कितना ही इतिहास सामने प्राजाता मार्मिक और तास्तिक विवेचन किया गया है। अनेक । नित्य पाठ करने योग्य है। मू.11) विरोधी विधि-विधानों एवं विचार-पवृत्तियों से उत्पन हुई ४ अध्यात्म-कमल-मासण्ड-या पक्षाध्यायी विवाहकी कठिन और जटिल समस्याश्रीको बर्ग युक्तिक तथा लाटी सहिता आदि अन्धोंके कर्ता कविवर राजमल्ल साथ दृष्टिके स्पष्टीकरण द्वारा सुलझाया गया है और इस की अपूर्व रचना है। इसमें अभ्यात्मसमुद्रका कूजेमे बन्द तरह उनमें दृष्टिविराधका परिहार किया गया। वि किया गया है। मायमें न्यायाचार्य ५० दरबारीलालजी स्यों किया जाता है? धर्मसे, समाजसे और गास्थाश्रमकोठिया और पवित परमानन्द जी शाम्बीका सुन्दर से उसका क्या सम्बन्ध? यह कब किया जाना चाहिये। अनुवाद, विस्तृत विषयसूची तथा मुख्लारपीजगल किशोर उसके लिये पणे मार जातिका क्या नियम होसकता है। नीकी लगभग ८० पेजकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना है। विवाह न करनेसे क्या कुछ हानि-लाभ होता है! बदा ही उपयोगी अन्यो । मू. ११) इत्यादि बातोंका इस पुस्तकम बड़ा ही युक्ति पुरस्सर ५ उमास्वामि-भावकाचार-परीक्षा- मुख्तार एब हृदयमाही वर्णन है। बढिया पार्ट पेपरपर छपी है। भीजुगलकिशोरजीकी ग्रन्थपरीक्षाओका प्रथम अश, विवाहोंके अवसरपर वितरण करने योग्य है। मू०॥) अन्य परीक्षाअकि इतिहासको लिये हुये १४ पेजकी नई प्रकाशन विभागप्रस्तावना सहित । भू.) वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) प्रकाशक-पं. परमानन्द जैन शास्त्री भारतीय ज्ञानपीठ काशीके लिये प्राशाराम खत्री द्वारा रॉयल प्रेस सहारनपुरमें मुद्रित Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनेकान्त ज्येष्ठ, संवत् २००५ :: जून, सन् १९४८ - संस्थापक-प्रवर्तक बीरसेवामन्दिर, सरसावा वर्ष ६ ★ किरण ६ । सञ्चालक-म्यवस्थापक भारतीय ज्ञानपीठ, काशो सम्पादक-मंडल जुगलकिशोर मुख्तार प्रधान सम्पादक मुनि कान्तिमागर दरबारीलाल न्यायाचार्य अयोध्याप्रसाद गोयलीय डालमियानगर (बिहार) सुखका उपाय (आर्या) जगके पदार्थ सारे वतै इच्छाऽनुकूल जो तेरी । तो तुझको सुख होवे, पर ऐसा हो नहीं सकता ॥ १ ॥ क्योंकि, परिणमन उनका शाश्वत उनके अधीन ही रहता । जो निज अधीन चाहे वह न्याकुल व्यर्थ होता है ॥ २ ॥ इमसे उपाय मुखका, मच्चा, स्वाधीन-वृत्ति है अपनी । गग-द्वेष-विहीना, क्षणमें मन दुःख हरती जो ॥ ३ ॥ -युगवीर Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची २१३ २१४ २१५ २१९ विषय १ बुढ़ापा (कविता)-[कवि भूधरदास २ पडावश्यक-विचार-प्र० सम्पादक ३ समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने, युच्यनुशासन-[सम्पादकय ४ अहिंसा-तत्त्व-तुझक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य ५ पूज्य वर्णी गणेशप्रसादजीके हृदयोद्गार-[पं० दरबारीलाल कोठिया ६ रावण-पार्श्वनाथकी अवस्थिति-[अगरचन्द नाहटा ... ७ वीरशासन-जयन्तीका पावन पर्व-[पं० दरबारीलालजी कोठिया ८ शृंगेरिकी पार्श्वनाथ-बस्तीका शिलालेख-बा० कामताप्रसाद जैन ९ जैनपुरातन अवशेष (विहङ्गावलोकन)-[मुनि कान्तिसागर १० सम्पादकीय-अयोध्याप्रसाद गोयलीय ११ युगके चरण अलख चिर-चञ्चल (कविता)-['तन्मय' बुखारिया २२१ २२२ २२३ २२४ २२५ २४१ २४४ कीर-शासन-जयन्तीका वार्षिकोत्सव समारोह मुरार [ग्वालियर में सम्पूर्ण जैन समाजको यह जानकर बड़ी प्रसन्नता शासन-सेवाके कार्यों में रस लेने वाले सभी सज्जनोंके होगी कि श्रावण कृष्णा प्रतिपदाकी इतिहास प्रसिद्ध पधारनेकी पूर्ण प्राशा है । वर्णीजी जैसे मन्त पुरुषके पुण्य-तिथिसे सम्बद्ध भारतीय पावनपर्व 'वीर-शासन- नेतृत्वमे मनाया जाने वाला यह उत्मव अपनी खास जयन्ती' का-भगवान महावीरके सर्वोदय-तीर्थ- विशेषता रखना है । अतः मर्वसज्जनोंसे सानुरोध प्रवर्तन-दिवसका-वीरसेवामन्दिर द्वारा प्रायोजित निवेदन है कि आप इस शुभ अवसरपर अवश्य ही वार्षिकोत्सव इस वर्ष मुरार (ग्वालियर) मे पूज्य मित्रों सहित पधारनेकी कृपा करे और अपने इस क्षुल्लक श्रीगणेशप्रसादजी वर्णी (न्यायाचार्य) की मोतिशायी पावन पर्षको यथेष्ट रूपमे मनानेके अध्यक्षतामे श्रावण कृष्णा प्रतिपदा व द्वितीया लिये अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करते हुए इम तारीख २२-२३ जुलाई सन् १९४८ को बृहस्पतिवार सस्थाको आभारी बनाये। उत्सवमे अपने पधारनेके तथा शुक्रवारके दिन विशेष समारोहके साथ मनाया समयादिकी सूचना-'संयोजक स्वागतकारिणी जायगा । उत्सवकी तैयारियाँ बड़े उत्साह के साथ कमेटी, ठि० सेठ गुलाबचन्द गणेशीलालजी जैनका प्रारम्भ होगई हैं। बगीचा पोस्ट मुरार (ग्वालियर)' के पतेपर देनी इस बार वर्णीजीकी इच्छानुसार विश्वकी शान्ति चाहिए, जिससे समयपर ठहरने आदिकी सब योग्य और समुन्नतिको लक्ष्यमे रखकर वीर-शासनके व्यवस्था हो सके । प्रचार और प्रसारादि सम्बन्धी अच्छा ठोस एवं निवेदकस्थायी कार्य किया जानेको है। सरसावा ) जुगलकिशोर मुख्तार समाजके लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वानों, श्रीमानों तथा ५-७-४८ ) अधिष्ठाता, वीरसेवामन्दिर Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम् दस्ततत्त्व-सपोती बतत्त्व-प्रकाशक वाषिक मूल्य ५) .mammi MeDimmagemademinindia एक किरणका मूल्य 11) नीतिक्रोिषसीलोकव्यवहारवर्तकसम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः। वर्ष ९ वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जिला सहारनपुर ज्येष्ठ शुक्ल, वीरनिर्वाण-सवत २४७४, विक्रम संवत २००५ जून १९४८ बुढ़ापा बालपनै बाल रह्यो पीछे गृहभार बह्यो, लोकलाज-काज बांध्यो पापनको ढेर है। अपनो अकाज कीनों लोकनमे जस लीनों, परभौ विसार दीनों विषै वश जेर है॥ ऐसे ही गई बिहाय अलप-सी रही आय, नर-परजाय यह आँधेकी बटेर है। आये सेत भैया ! अब काल ई अवैया, अहो ! जानी रे सयाने तेरे अजी हूँ अंधेर है ॥शा बालपनै न मैंभार सक्यो कछु, जानत नाहिं हिताहित ही को । यौवन वैस वसी वनिता उर, कै नित राग रह्यो लछमीको ॥ यो पन दोइ विगोइ दये नर, डारत क्यों नरकै निज-जीको । आये हैं सेत अजौं शठ ! चेन, "गई सुगई अब राख रहीको" ||२|| सार नर देह सब कारजको जोग येह, यह तो विख्यात बात वेदनमें बँचै है। तामें तरुनाई धर्म-संवनको समै भाई, सेये तब विषै जैसे मास्वी मध रचै है॥ मोह-महामद-भोये धन-रामा-हित रोज रोये, यों ही दिन खोये खाय कोदों जिम मचे है ।। अरे सुन बौरे ! अब आये सीस धौरे, अजी सावधान हो रे नर नरकसों बचे है ॥शा -कवि भूधरदास Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ o-PRO AtINARONAL षडावश्यक-विचार ल - TION OP -०७7 [यह ग्रन्थ भी कैराना जिला मुजफ्फरनगरके बड़े मन्दिरकी उसी षटपत्रात्मक ग्रन्थ-प्रतिपरसे उपलब्ध हुश्रा है जिसपरसे गत किरणमें प्रकाशित 'परमात्मराज-स्तोत्र' और उससे पहले की किरणोंमे प्रकाशित 'स्वरूप-भावना' और 'रावण-पार्श्वनाथ-स्तोत्र' उपलब्ध हुए थे और जिन सबको २० जनवरी सन् १९३३को नोट किया गया था । यह नव पद्योंका एक प्रकरण-ग्रन्थ है, जिनमेंसे पहले पद्यमें छह अावश्यकोंके १ सामायिक, २ स्तव, ३ वन्दना, ४ प्रतिक्रमण, ५ प्रत्याख्यान और ६ कायोत्सर्ग नाम देकर लिखा है कि इन क्रियाओंमें जो जीव वर्तमान होता है उसके सवर होता है-कर्मोंका आत्मामें अानाबधना रुकता है । इसके बाद छह पद्योंमें छहों आवश्यकोंका श्राध्यात्मिक दृष्टिसे अच्छा सुन्दर स्वरूप दिया है, जो सहज-बोध-गम्य है। पाठ पद्यमें बतलाया है कि 'निजात्मतत्त्वमें अवस्थित हुश्रा जो योगी निरालस्य होकर (पूर्ण तत्परताके साथ) इम प्रकारसे षडावश्यक करता है उसके पापोंकी गेक होती हैपापासव रुकता है। अन्तके हवे पद्यमें उन चिह्नोंका निर्देश किया है जो ठीक अर्थमें पडावश्यक करने वालोंमें प्रकट होते हैं और वे हैं १ कालक्रमसे उदासीनता, २ उपशान्तता और ३ सरलता । मालूम नहीं इस प्रकरणके रचयिता कौन महानुभाव हैं। जिन विद्वानोको इस विषयमे कुछ मालूम हो उन्हें उसको प्रकट करना चाहिए । –सम्पादक] सामायिके' स्तवेभक्तया वन्दनायो' प्रतिक्रमे । प्रत्याख्याने तनूत्सर्गे वतमानस्य मंवरः ॥ १ ॥ यत्सर्व-द्रव्य-मन्दर्भ-रागद्वेष-व्यपोहनम् । आत्म-तत्त्व-निविष्ठम्य तत्सामायिकमुच्यते ॥ २ ॥ रत्नत्रयमयं शुद्ध चेतन चेतनात्मकम् । विविक्तं स्तुवतो नित्यं स्तवः स्तूयते स्तवः ॥ ३ ॥ पवित्र-दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयमुत्तमम् आत्मानं वन्दमानस्य वन्दनाऽथि कोविदैः ॥ ४ ॥ कृतानां कर्मणां पूर्व सर्वेषां पाकमीयुषाम् । आत्मीयत्व-परित्यागः प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ ५ ॥ अगम्यागो-निमित्तानां भावानां प्रतिषेधनम् । प्रत्याख्यानं समादिष्टं विविकाऽऽत्माऽवलोकिमिः ॥ ६ ॥ ज्ञात्वा योऽचेतन कायं नश्वरं कर्म-निर्मितम । न तस्य वर्तते कार्ये कायोत्सर्ग करोति सः ॥ ७ ॥ यः षडावश्यकं योगी स्वात्म-तत्त्व-व्यवस्थितः । अनालस्यः करोत्येवं संवृतिम्तस्य रेफसाम् ॥८॥ कालक्रमव्युदासित्वमुपशान्तत्वमार्जषम विज्ञेयानीति चिह्नानि षडावश्यककारिणम ॥ ९ ॥ नवपद्यानि षडावश्यक विचारस्य । -RO. MITHAINA O OALI ८७ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने युत्तयनुशासन सामान्य-निष्ठा विविधा विशेषाः पद विशेषान्तर-पक्षपाति । होना, उसकी दूसरे विशेषों-पर्यायोंमें उपलब्धि देखी अन्तर्विशेषान्तर-वृत्तितोऽन्यत्समानभाव नयते विशेषम ||४० जाती है और इममे मामान्यका सर्व विशेषोंमें निष्ठ (७वीं कारिकामे 'अभेद-भेदात्मकमर्थतत्त्व' इम होना भी बाधित पड़ता है । फलत: दोनोंका निरपेक्ष वाक्यक द्वारा यह बतलाया गया है कि वीरशासनमे रूपसे परस्परनिष्ठ मानना भी बाधित है, उसमें वस्तुतत्वको मामान्य-विशेषात्मक माना गया है, तब दोनोंका ही अभाव ठहरता है और वस्तु आकाशयह प्रश्न पैदा होता है कि जो विशेष है वे सामान्यम कुसुमके समान अवस्तु होजाती है। निष्ठ (परिसमाप्त) है या सामान्य विशेषोंमे निष्ठ है ___(यदि विशेष सामान्यनिष्ठ हैं तो फिर यह शङ्का अथवा सामान्य और विशेष दोनों परस्परमे निष्ठ उत्पन्न होती है कि वर्णममूहरूप पद किसे प्राप्त है ? इसका उत्तर इतना ही है कि) जो विविध विशेप करता है-विशेषको, मामान्यको, उभयको या अनुहै वे मब मामान्यनिष्ठ है-अर्थात एक द्रव्यम रहने भयको अर्थात इनमेमे किसका बोधक या प्रकाशक वाले क्रमभावी और सहभाधीक भेद-प्रभेदको लिये होता है। इसका ममाधान यह है कि) पद जो कि हुये जा परिस्पन्द और अपरिम्पन्दरूप नाना प्रकारक पर्याय' हैं वे मब एक द्रव्यनिष्ठ होनसे ऊर्ध्वना विशेषान्तरका पक्षपाती हाना है-द्रव्य, गुण, कर्म मामान्य में परिममाप्त हैं। और इस लिये विशेषोंमे इन तीन प्रकारकं विशेपोमस किसा एकमे प्रवर्तमान नि सामान्य नहीं है; क्योंकि तब किसी विशेष हुआ दूसरे विशेपोका भी स्वीकार करता है, अस्वीकार करनेपर किमी एक विशेपमे भी उसकी प्रवृत्ति नहीं (पर्याय) के अभाव होनेपर सामान्य (द्रव्य) के भी अभावका प्रसङ्ग आयगा, जो प्रत्यक्षविरुद्ध है-किसी बनती-वह विशेषको प्राप्त कराता है अर्थात द्रव्य, गण और कर्ममसे एकको प्रधानरूपसे प्राप्त कगता भी विशेषके नष्ट होनेपर सामान्यका अभाव नहीं है तो दुमको गीणरूपसे । साथ ही विशंपान्तरोंके १मभावी पर्याय परिस्पन्दरूप है जैसे उत्क्षेपणादिक । सीन को सहभावी पर्याये अपरिस्पन्दात्मक हैं और वे माधारण, विशेषको माRTH सी विशेषको मामान्यरूपमं भी प्राप्त कराता है-यह का साधारणाऽसाधारण पार असाधारणके भेदमे तीन सामान्य नियंकसामान्य होता है । इस तरह पद प्रकार हैं। सत्व-प्रमेयत्वादिक साधारण धर्म हैं, द्रव्यत्व- सामान्य और विशेष दोनोंको प्राप्त कराता है-एक जीवत्वादि साधारणाऽसाधारण धर्म है अोर वे अर्थ को प्रधानरूपसे प्रकाशित करता है तो दूसरेको गौरण पर्याय असाधारण हैं जो द्रव्य द्रव्यके प्रति प्रभिद्यमान रूपसे । विशेषकी अपेक्षा न रखता हया केवल और प्रतिनियत हैं। मामान्य और सामान्यकी अपेक्षा न रखना हश्रा २ सामान्य दो प्रकारका होता है-एक ऊर्ध्वतासामान्य कंवल विशेष दोनों अप्रतीयमान होनेसे अवस्तु हैं, दूमरा तिर्यकमामान्य । क्रमभावी पर्यायोंमें एकत्वान्वय- उन्हे पद प्रकाशित नहीं करता । फलत: परस्पर ज्ञानके द्वारा ग्राह्य जी द्रव्य है वह ऊचंतासामान्य है और निरपेक्ष उभयको और अवस्तुभूत अनुभयको भी पद नाना द्रव्यों तथा पर्यायोम मादृश्यजानके द्वारा ग्राह्य जो प्रकाशित नहीं करता। किन्तु इन सर्वथा सामान्य, महशपरिणाम है वह तिर्यक मामान्य है । सवशा विशेष, सर्वथा उभय और मवथा नुभयसे Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ अनेकान्त [ वर्ष ९ विलक्षण सामान्य-विशेषरूप वस्तुको पद प्रधान और अनुक्त तुल्यं यदनेवकारं ब्यावृत्यभावानियम-द्वयेऽपि । गौणभावसे प्रकाशित करता हुआ यथार्थताको प्राप्त पर्यायभावेऽन्यतराप्रयोगस्तत्सर्वमन्यच्युतमात्म-हीनम् ॥४२॥ होता है। क्योंकि ज्ञाताकी उस पदसे उसी प्रकारकी जो पद एवकारसे रहित है वह अनक्ततल्य हैवस्तुमें प्रवृत्ति और प्राप्ति देखी जाती है, प्रत्यक्षादि न कहे हुएके समान है- क्योंकि उससे (कत-क्रिया प्रमाणोंकी तरह। विषयक) नियम-द्वयके इष्ट होनेपर भी व्यावृत्तिका यदेवकारोपहित पदं तदस्वार्थतः स्वार्थमवच्छिनत्ति । प्रभाव होता है-निश्चयपूर्वक कोई एक बात न कहे पर्याय-सामान्य-विशेष-सर्व पदार्थहानिश्च विरोधिवत्स्यात्॥४१ ।। जानेसे प्रतिपक्षकी निवृत्ति नहीं बन सकती-तथा (व्यावृत्तिका अभाव होने अथवा प्रतिपक्षकी निवृत्ति 'जो पद एवकारसे उपहित है-अवधारणार्थक न हो सकनेसे) पदोंमें परस्पर पर्यायभाव ठहरता 'एव' नामके निपातसे विशिष्ट है; जैसे 'जीव एव' है, पर्यायभावके होनेपर परस्पर प्रतियोगी पदोंमे (जीव ही)-वह अस्वार्थसे स्वार्थको (अजीवत्वसे से भी चाहे जिस पदका कोई प्रयोग कर सकता है जीवत्वको) [जैसे] अलग करता है-अस्वार्थ . और चाहे जिस पदका प्रयोग होनेपर संपूर्ण अभि(अजीवत्व) का व्यवच्छेदक है-[वैसे] सब स्वार्थ धेयभूत वस्तुजात अन्यसे च्युत-प्रतियोगीसे रहित पर्यायों (सुख-ज्ञ नादिक), सब स्वार्थसामान्यों (द्रव्यत्व -होजाता है और जो प्रतियोगीसे रहित होता है चेतनत्वादि) और सब स्वार्थविशेषों (अभिधानाऽ वह आत्महीन होता है-अपने स्वरूपका प्रतिष्ठापक विषयभूत अनन्त अर्थपर्यायों) सभीको अलग करता नहीं हो सकता । इस तरह भी पदार्थकी हानि है-उन सबका भी व्यच्छेदक है, अन्यथा उस एक ठहरती है।' पदसे ही उनका भी बोध होना चाहिये, उनके लिये व्याख्या-उदाहरणके तौरपर 'अस्ति जीवः' इस अलग-अलग पदोंका प्रयोग (जैसे मैं सुखी है , ज्ञानी वाक्यमे 'अस्ति' और 'जीवः' ये दोनों पद एवकारसे हूँ, द्रव्य हूँ, चेतन हूँ, इत्यादि) व्यर्थ ठहरता है रहित है । 'अस्ति' पदके साथ अवधारणार्थक एव' और इससे (उन क्रमभावी धर्मों-पर्यायों, सहभावी शब्दके न होनेसे नास्तित्वका व्यवच्छेद नहीं बनता धर्मों-सामान्यों तथा अनभिधेय धर्मो-अनन्त अर्थ और नास्तित्वका व्यवच्छेद न बन सकनेसे 'अस्ति' पर्यायोंका व्यवच्छेद-प्रभाव-होनेपर) पदार्थकी (जीव पदके अभिधेयरूप जीवत्वकी) भी हानि उसी पदके द्वारा नास्तित्वका भी प्रतिपादन होता है, और इस लिय अस्ति पदके प्रयोगमे कोई विशेषता न प्रकार ठहरती है जिस प्रकार कि विरोधी (अजीवत्व) रहनेसे वह अनुक्ततुल्य होजाता है। इसी तरह जीव की हानि होती है क्योंकि स्वपर्यायों आदिके पदके साथ 'एव' शब्दका प्रयोग न होनेसे अजीयत्व. अभावमें जीवादि कोई भी अलग वस्तु संभव का व्यवच्छेद नही बनता और अजीवत्वका नहीं हो सकती। व्यवच्छेद न बन सकनेसे जीव पदके द्वारा अजीवत्व(यदि यह कहा जाय कि एवकारसे विशिष्ट जीव का भी प्रतिपादन होता है, और इस लिये 'जीव' पद अपने प्रतियोगी अजीव पदका ही व्यवच्छेदक पदके प्रयोगमें कोई विशेषता न रहनेसे वह अनुक्त. होता है-अप्रतियोगी (स्वपर्यायों, सामान्यों तथा तुल्य होजाता है। और इस तरह अस्ति पदके द्वारा विशेषोंका नहीं; क्योंकि वे अप्रस्तुत-अविवक्षित नास्तित्वका भी और नास्ति पदकं द्वारा अस्तित्वका होते हैं, तो ऐसा कहना एकान्तवादियोंके लिये ठीक भी प्रतिपादन होनेसे तथा जीव पदके द्वारा अजीव नहीं है; क्योंकि इससे स्याद्वाद (अनेकान्तवाद)के अर्थका भी और अजीव पदके द्वारा जीव अर्थका भी अनुप्रवेशका प्रसा आता है, और इससे इनके प्रतिपादन होनेसे अस्ति-नास्ति पदोंमें तथा जीव. एकान्त सिद्धान्तकी हानि ठहरती है।) अजीव पदोंमें घट-कुट (कुम्भ) शब्दोंकी तरह परस्पर Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने २१७ पर्यायभाव ठहरता है। पर्यायभाव होनेपर परस्पर भेदका-तब अस्तित्व बनता ही नहीं।' प्रतियोगी पदोंमें भी सभी मानवोंके द्वारा, घट-कुट व्याख्या-उदाहरणके तौरपर-जो सत्ताऽद्वैतशब्दोंकी तरह, चाहे जिसका प्रयोग किया जा सकता (भावैकान्तवादी यह कहता है कि अस्ति' पदका है । और चाहे जिसका प्रयोग होनेपर सपूर्ण अभिधेय अस्तित्व नास्ति' पदके अभिधेय नास्तित्वसे अभिधेयभूत वस्तुजात अन्य प्रतियोगीसे च्युत सर्वथा अभेदी (अभिन्न) है उसके मतमें पदों तथा (रहित) होजाता है-अर्थात् अस्तित्व नास्तित्वसे अभिधेयांका परस्पर विरोध भेदका कर्ता है क्योंकि सर्वथा रहिर होजाता है और इसमें सत्ताऽद्वैतका सत्ताऽद्वैत मतम सम्पूर्ण विशेषों-भेदोंका अभाव होने प्रमङ्ग पाना है। नास्तित्वका सर्वथा अभाव होनेपर से अभिधान और अभिधेयका विरोध है दोनों मत्ताऽद्वैत आत्महीन ठहरता है; क्योंकि पररूपके घटित नही होमकते, दोनोंको स्वीकार करनेपर त्यागके अभावमे स्वरूप-ग्रहणकी उपपत्ति नहीं बन अदेनता न होती है और उमसे सिद्धान्तविरोध सकती-घटकं अघटरूपके त्याग बिना अपने स्वरूप- र्धाटत होता है । इमपर यदि यह कहा जाय कि की प्रतिष्ठा नहीं बन सकती । इसी तरह नास्तित्वक 'अनादि-विद्याके वशसे भेदका सद्भाव है इससे सर्वथा अस्तित्वरहित होनेपर शून्यवादका प्रमङ्ग दोष नहीं तो यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि आता है और अभाव भावके बिना बन नही सकता, विद्या-अविद्या भेद भी तब बनते नहीं। उन्हें यदि इससे शून्य भी श्रात्महीन ही होजाता है। शून्यका माना जायगा तो द्वैतताका प्रसङ्ग आएगा और उसमे म्वरूपसे भी अभाव होनपर उसके पररूपका त्याग सत्ताऽद्वैत मिद्धान्तको हानि होगी-वह नहीं बन अमभव है-जैसे पटक स्वरूप ग्रहणक अभावम सकेगा। अथवा अस्तित्व नास्तित्व अभेदी है यह शाश्वत अपटरूपके त्यागका अमभव है। क्योंकि कथन केवल आत्महीन ही नहीं किन्तु विरोधी भी वस्तुका वस्तुत्व स्वरूप ग्रहण और पररूपकं त्याग- है (ऐसा 'च' शब्द प्रयोगसे जाना जाता है); क्योंकि की व्यवस्थापर ही निर्भर है। वस्तु ही पर द्रव्य-क्षेत्र जब भदका सर्वथा अभाव है तब अस्तित्व और कालकी अपेक्षा अवस्तु होजाती है। सकल स्वरूपसे नास्तित्व भेदोंका भी अभाव है। जो मनुष्य कहता शुन्य जुदी कोई अवन्तु संभव ही नही है । अत: है कि 'यह इमसे अभेदी है। उसने उन दोनोंका कोई भी वस्तु जो अपनी प्रतिपक्षभूत अवस्तुसे कचित् भंद मान लिया, अन्यथा वह वचन बन वर्जित है वह अपने प्रात्मस्वरूपको प्राप्त नहीं हाती'। नहीं सकता: क्योंकि कथंचित (किसी प्रकारसे) भी यदि (मत्ताद्वैतवादियों अथवा सर्वथा शून्य- भेदीक न होनपर भदीका प्रतिवेध-अभेदी कहनावादियोंकी मान्यतानुसार मर्वथा अभेदका डावलम्बन विरुद्ध पडता है-कोई भेदी ही नहीं तो अभेदी (न लेकर) यह कहा जाय कि पद-अस्ति या नास्ति- भेदी) का व्यवहार भी कैसे बन सकता है ? नहीं (अपने प्रतियोगि पदके साथ मवथा) अभेदी है- बन सकता। और इसलिये एक पदका अभिधेय अपने प्रतियोगि यदि यह कहा जाय कि शब्दभेद तथा विकल्पपरके अभिधेयसे च्युत न होनेके कारण वह श्रात्म- भेदके कारण भेदी होनेवालोंका जो प्रतिपेध है वह हीन नहीं है तो यह कथन विरोधी है अथवा इमसे उनके स्वरूपभेदका प्रतिषेध है तब भी शब्दों और उस पदका अभिधेय आत्महीन ही नहीं किन्तु विकल्पोंके भेदको म्वयं न चाहते हुए भी मझीके विरोधी भी होजाता है; क्योंकि किसी भी विशेषका- भेदको कैसे दूर किया जायगा, जिसमे द्वैनापत्ति होती १ "वस्त्वेवाऽवस्तृता याति पक्रियाया विपर्ययात् ।" है ? क्योंकि संझीका प्रतिपेध प्रतिषेध्य-महीके विरोधि चाऽभेद्यविशेषभावात्तयोतनः स्याद् णतो निपातः। अस्तित्व बिना बन नहीं सकता। इसके उत्तरमें यदि विपाद्य मन्धिश्च नांऽगभावादवाच्यता प्रायस लोपहेतुः ॥४३ यह कहा जाय कि 'दूसरे मानते हैं इसीसे शब्द और Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ अनेकान्त [वर्ष ९ विकल्पके भेदको इष्ट किया गया है, इसमें कोई दोष 'सर्वथा अवक्तव्यता (युक्त नहीं है क्योंकि वह) नहीं, तो यह कथन भी नहीं बनता; क्योंकि अद्वैता- प्रायस-मोक्ष अथवा आत्महितके लोपकी कारण है-3 वस्थामें स्व-परका (अपने और परायेका) भेद ही जब क्योंकि उपेय और उपायके वचन बिना उनका इष्ट नहीं सब दूसरे मानते हैं यह हेतु भी सिद्ध नहीं उपदेश नहीं बनता, उपदेशके बिना भावसके उपायहोता, और प्रसिद्ध-हेतु-द्वारा साध्यकी सिद्धि बन का-मोक्षमार्गका अनुष्ठान नहीं बन सकता और नहीं सकती। इसपर यदि यह कहा जाय कि 'विचारसे उपाय (मार्ग)का अनुष्ठान न बन सकनेपर उपेयपूर्व तो स्व-परका भेद प्रसिद्ध ही है तो यह बात भी श्रायम (मोक्ष)की उपलब्धि नहीं होती । इसतरह नहीं बनती; क्योंकि अद्वैतावस्थामे पूर्वकाल और प्रवक्तव्यता प्रायसके लोपकी हेतु ठहरती है। अतः अपरकालका भेद भी सिद्ध नहीं होता। अतः सत्ता- स्यात्कार-लांछित एवकार-युक्त पद ही अर्थवान् है द्वैतकी मान्यतानुसार सर्वथा भेदका प्रभाव माननेपर ऐसा प्रतिपादन करना चाहिए, यही तात्पर्यात्मक 'अभेदी' वचन विरोधी ठहरता है, यह सिद्ध हुआ। अर्थ है। इसी तरह सर्वथा शून्यवादियोंका नास्तित्वसे अस्तित्व- (इसतरह तो सर्वत्र 'स्यात्' नामक निपातके को सर्वथा अभेदी बतलाना भी विरोधदोषसे दूषित प्रयोगका प्रसङ्ग आता है, तब उसका पद-पदके प्रति है, ऐसा जानना चाहिए। अप्रयोग शास्त्रमे और लोकमे किस कारणसे प्रतीत (अब प्रभ यह पैदा होता है कि अस्तित्वका होता है ? इस शङ्काका निवारण करते हुए प्राचार्य विरोधी होनेसे नास्तित्व धर्म वस्तुमे स्याद्वादियों-द्वारा महोदय कहते है-) कैसे विहित किया जाता है ? क्योंकि अस्ति पदके तथा प्रतिज्ञाऽऽशयतोऽप्रयोगः सामर्थ्यतो वा प्रतिषेधयुक्तिः । साथ 'एव' लगानेसे तो 'नास्तित्व'का व्यवच्छेद- इति त्वदीया जिननाग | दृष्टिः पराऽप्रधृष्या परधर्षिणी च ।।४४ प्रभाव होजाता है भीर 'एव'के साथमे न लगानेसे (शाखमे और लोकमे 'स्यात' निपातका) जो उसका कहना ही अशक्य होजाता है क्योंकि वह पद अप्रयोग है-हरएक पदके साथ स्यात् शब्दका प्रयाग अनुक्ततुल्य होता है। इससे तो दूसरा कोई प्रकार न नहीं पाया जाता-उसका कारण उस प्रकारकाबन सकनेसे अवाच्यता-धवक्तव्यता ही फलित स्यात्पदात्मक - प्रयोग - प्रकारका प्रतिज्ञाशय हैहोती है। तब क्या वही युक्त है ? इस सब शङ्काके समा- प्रतिज्ञामे प्रतिपादन करनेवालेका अभिप्राय सन्निहित धान-रूपमें ही आचार्य महोदयने कारिकाके अगले है।-जैसे शास्त्रमे 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षतीन चरणोंकी सृष्टि की है, जिनमें वे बतलाते है-) मार्गः इत्यादि वाक्योम कहींपर भी 'स्यात्' या 'एक' ___'उस विरोधी धर्मका द्योतक 'स्यात्' नामका शब्दका प्रयोग नहीं है परन्तु शास्त्रकारोंके द्वारा निपात (शब्द) है-जो स्याद्वादियोंके द्वारा संप्रयुक्त अप्रयुक्त होते हुए भी बह जाना जाता है; क्योंकि किया जाता है और गौणरूपसे उस धर्मका द्योतन उनके वैसे प्रतिज्ञाशयका सद्भाव है। अथवा (स्याद्वाकरता है-इसीसे दोनों विरोधी-अविरोधी (नास्तित्व दियोंके) प्रतिषेधकी-सर्वथा एकान्तके व्यवच्छेदकी अस्तित्व जैसे) धर्मोंका प्रकाशन-प्रतिपादन होते -युक्ति सामर्थ्यसे ही घटित होजाती है क्योंकि हुए भी जो विध्यर्थी है उसकी प्रतिषेधमे प्रवृत्ति नहीं 'स्यात् पदका आश्रय लिये बिना कोई स्याद्वादी नहीं होती। साथ ही वह स्यात् पद विपक्षभूत धर्मकी बनता और न स्यात्कारके प्रयोग विना अनेकान्तकी सन्धि - संयोजनास्वरूप होता है-उसके रहते सिद्धि ही घटित होती है; जैसे कि एवकारके प्रयोग दोनों धर्मों में विरोध नहीं रहता; क्योंकि दोनोंमें विना सम्यक् एकान्तकी सिद्धि नहीं होती। अतः भङ्गपना है और स्यात्पद उन दोनों पक्षोंको जोड़ने स्याद्वादी होना ही इस बातको सूचित करता है कि वाला है।' उसका आशय प्रतिपदके साथ स्यात्' शब्द के प्रयोग Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा-तत्व (लेखक-दुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य) अहिंसा-तत्व ही एक इतना व्यापक है जो इसके गुणका घात है और इस लिये वहाँ भी हिंसा ही है। उदरमें सर्व धर्म आजाते हैं, जैसे हिंसा पापमें सर्व अत: जहाँपर आत्माकी परिणति कषायोंसे मलीन पाप गर्भित होजाते है । सर्वसे तात्पर्य चोरी, मिथ्या, नहीं होती वहींपर आत्माका अहिंसा-परिणाम अब्रह्म और परिग्रहसे है । क्रोध, मान, माया, लोभ विकासरूप होता है उसीका नाम यथाख्यात चारित्र ये सर्व प्रात्म-गुणके पातक है अतः ये सर्व पाप ही हैं। है। जहाँपर रागादि परिणामोंका अंश भी नहीं इन्हीं कषायोंके द्वारा आत्मा पापोंमे प्रवृत्ति करता है रहता उसी तत्त्वको आचार्योंने अहिंसा कहा हैतथा जिनको लोकमें पुण्य कहते हैं वह भी कषायों के 'अहिंसा परमो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः।' मद्भावमें होते हैं । कषाय आत्माके गुणोंका घातक है श्रीअमृतचन्द्रस्वामीने उमका लक्षण यों कहा है:अतः जहाँ पुण्य होता है वहाँ भी आत्माके चारित्र- अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ का है, भले ही उसके द्वारा प्रयुक्त हुए प्रतिपदके -पुरुषार्थसिद्धयुपाय साथमे 'स्यात' शब्द लगा हुआ न हो, यही उसके पद-प्रयोगकी सामर्थ्य है।' 'निश्चयकर जहाँपर रागादिक परिणामोंकी (इसके सिवाय, 'सदेव सवैको नेच्छेत स्वरूपादि उत्पत्ति नहीं होती वहीं अहिंसाकी उत्पत्ति है और जहाँ रादिक परिणामोंकी उत्पत्ति होती है वहीं पर चतुष्टयात्' इसप्रकारके वाक्यमे स्यात पदका प्रयोग हिंसा होती है, ऐसा जिनागमका संक्षेपस कथन है ऐसा नहीं मानना चाहिए; क्योंकि 'स्वरूपादि जानना ।' यहाँपर रागादिकोंसे तात्पर्य भात्माकी चतुष्टयात्' इस वचनसे स्यात्कारके अर्थकी उसी प्रकार प्रतिपत्ति होती है जिसप्रकार कि 'कथश्चित्ते सदेवेष्ट' परिणतिविशेषस है-परपदार्थम प्रीतिरूप परिणामइस वाक्यम 'कश्चित' पदसे स्यात्पदका प्रयोग का होना राग तथा अप्रीतिरूप परिणामका नाम द्वेष, और तत्त्वकी अतिपत्तिरूप परिणामका होना मोह जाना जाता है । इसीप्रकार लोकमे 'घट आनय' अर्थात् राग, द्वेष, मोह ये तीनो आत्माके विकार(घड़ा लाओ) इत्यादि वाक्योंमे जो स्यात् शब्दका भाव हैं। ये जहाँपर होते हैं वहीं प्रात्मा कलि (पाप)का अप्रयोग है वह उसी प्रतिज्ञाशयको लेकर सिद्ध है।) मंचय करता है, दुखी होता है, नाना प्रकार पापादि ___ 'इसतरह हे जिन-नाग!-जिनोंमे श्रेष्ठ श्रीवीर कार्यों में प्रवृत्ति करता है। कभी मन्द राग हुचा तब भगवन् !-यापकी (अनेकान्त) दृष्टि दूसरोंके परोपकारादि कार्यों में व्यग्र रहता है, तीव्र राग-द्वेष सर्वथा एकान्तवादियोंके-द्वारा अप्रधृष्या हैअबाधितविषया है और साथ ही परधर्षिणी है हुआ तब विषयोंमे प्रवृत्ति करता है या हिंसादि पापों में मन होजाता है। कहीं भी इसे शान्ति नहीं मिलती। दूसरे भावैकान्तादिवादियोंकी दृष्टियोंकी धर्षणा यह सर्व अनुभूत विषय है। और जब रागादि करनेवाली है-उनके सर्वथा एकान्तरूपसे मान्य परिणाम नहीं होते तब शान्तिसे अपना जो ज्ञातासिद्धान्तोंको बाधा पहुँचानेवाली है।' दृष्टा स्वरूप है उसीमें लीन रहता है, जैसे जलमें पर के सम्बन्धसे मलिनता रहती है। यदि पङ्कका संबन्ध Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० अनेकान्त [ वर्ष ९ उससे पृथक् होजावे तब जल स्वयं निर्मल होजाता हैं उनसे क्षयोपशमज्ञानी वस्तुस्वरूपके जाननेके है। तदुक्तं-पंकापाये जलम्य निर्मलतावत ।' निर्म- अर्थ आगम-रचना करते हैं। लताके लिये हमें पङ्कको पृथक् करनेकी आवश्यकता आज बहुतसे भाई जैनोंके नामसे यह समझते है। अथवा जैसे जलका स्वभाव शीत है। अग्निके हैं जो वह एक जाति-विशेष है । यह समझना कहाँ सम्बन्धसे जलमें उष्णता पर्याय होजाती है उस समय तक तथ्य है, पाठकगण जाने। वास्तवमे जिसने जल, देखा जावे तो, उष्ण ही है। यदि कोई मनुष्य आत्माके विभाव-भावोंपर विजय पा ली वही जैन । जलको शीत-स्वभाव मानकर पान कर लेवे तब वह यदि नामका जैनी है और उसने मोहादि कलकोंको नियमसे दाहभावको प्राप्त होजावेगा । अत: जलको नहीं जीता तब वह नाम 'नामका नैनसुख आँखोंका शीत करनेके वास्ते आवश्यकता इस बातकी है जो अन्धा'की तरह है। अत: मोह-विकल्पोंको छोडो और उसको किसी बतनमें डालकर उसकी उष्णता पृथक् वास्तविक अहिंसक बनो। कर देना चाहिये । इसी प्रकार आत्मामें मोहोदयसे वास्तवमे तो बात यह है कि पदार्थ अनिर्वचनीय रागादि परिणाम होते हैं वे विकृतभाव है। इनसे है-कोई कह नही सकता। श्राप जब मिमी माने श्रात्मा नाना प्रकारके क्लेशोंका पात्र रहता है। उनके हो तब कहते होमिमरी मीठी होती है-जिम पात्रमे न होनेका यही उपाय है जो वर्तमानमें रागादिक हों रक्खी है वह नहीं कहता; क्योंकि जड है । ज्ञान ही उनमे उपादेयताका भाव त्यागे, यही आगामी न होने- चेतन है वह जानता है मिसरी मीठी है, परन्तु यह में मख्य उपाय है। जिनके यह अभ्यास होजाता है भी कथन नही बनता; क्योंकि यह सिद्धान्त है कि उनकी परिणति सन्तोषमयी होजाती है। उनका जीवन ज्ञान ज्ञेयमे नही जाता और ज्ञेय ज्ञान नहीं जाता। शान्तिमय बीतता है, उनके एक बार ही पर पदार्थोसे फिर जब मिमरी ज्ञानमे गई नहीं तब मिसरी मीठी निजत्व बुद्धि मिट जाती है । और जब परमे निजत्व- होती है, यह कैसे शब्द कहा जासकता है ? अथवा की कल्पना मिट जाती है तब सुतरां राग-द्वेष नही जब ज्ञानगे ही पदार्थ नहीं पाता तब शब्दसे उसका होते। जहाँ श्रात्मामे राग-द्वेष नहीं होते वहीं पूर्ण व्यवहार करना कहाँ तक न्यायसङ्गत है। इससे यह अहिंसाका उदय होता है। अहिंसा ही मोक्षमार्ग है। तात्पर्य निकला-मोह-परिणामोंसे यह व्यवहार है मात्मा फिर आगामी अनन्त काल, जिस रूप अर्थात जब तक मोह है तब तक ज्ञानमे यह कल्पना सिस गया, उसी रूप रहता है। जिन भगवानने है। मोहके अभावसे यह सर्व कल्पना विलीन हो यही अहिंसाका तत्त्व बताया है-अर्थात जो आत्माएं जाती है-यह असङ्गत नहीं। जब तक प्राणीक मोह राग-द्वेष-मोहके अभावमे मुक्त होचुकी है उन्हींका हे तब तक ही यह कल्पना है जो ये मेरी माता है नाम जिन है । वह कौन है ? जिसके यह भाव होगये और मैं इसका पुत्र हैं। और ये मेरी भार्या * वही जिन है। उसने जो कुछ पदार्थका स्वरूप दर्शाया इमका पति हूँ। मोहके अभावमे यह सर्व व्यवहार उस अर्थक प्रतिपादक जो शब्द है उसे जिनागम विलीन होजाते है-जब यह आत्मा मोहके फादसे कहते है। परमार्थसे देखा जाय तो, जो आत्मा पूण रहता है तब नाना कल्पनाओंकी सृष्टि करता है, किसी अहिंसक होजाती है उसके अभिप्रायमे न तो परके को हेय और किसीको उपादेय मानकर अपनी प्रवृत्ति उपकारके भाव रहते है और न अनुपकारके भाव बनाकर इतस्ततः भ्रमण करता है। मोहके अभावमे रहते हैं। अत: न उनके द्वारा किसीके हितकी चेष्टा आपसे आप शान्त होजाता है। विशेष क्या लिखं, होती है और न अहितकी चेष्टा होती है। किन्तु जो पूर्वो- इसका मर्म वे ही जाने जो निर्मोही हैं, अथवा वे ही पार्जित कर्म है वह उदयमे आकर अपना रस देता है। क्या जाने, उन्हे विकल्प ही नहीं। उस काल में उनके शरीरसे जो शब्दवर्गणा निकलती Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य वर्णी गणेशमसादजीके हृदयोद्वार हाल में पूज्य वर्णी गणेशप्रसादजीका एक मार्मिक पत्र मुझे मुरार (ग्वालियर)से पास हुश्रा है, जिसमे उन्होंने मुख्तार भीजुगलकिशोरजीके कार्योंके प्रति अपना हार्दिक प्रेम प्रदर्शित करते हुए अपने कुछ हृदयोद्गार व्यक्त किये हैं, जो सारे जैन समाजके जानने योग्य है । अतः उनका वह पूरा पत्र यहाँ प्रकाशित किया जाता है । पाठक देग्वेगे कि पूज्य वर्णीजीको मुख्तार सा०के अनुमन्धान-कार्य कितने अधिक प्रिय हैं और वे उन्हें कितना अधिक पसन्द करते हैं तथा उनके इस अनुमन्धान-विभागको स्थायित्व प्राप्त होनेका किननी शुभ भावनात्रोंको अपने हृदयमे स्थान दिये हुए हैं। क्या ही अच्छा हो यदि जैन ममाज वर्णीजीके हन हृदयोद्ागेके मर्मको समझे, उनकी भावनाको भावनामात्र' न रहने दे और न उन्हें फिरसे यह कहनेका अयमर ही दे कि हमारे भाव तो मन ही में विलय जाते हैं।' -दरबारीलाल कोठिया] श्रीयुत कोठियाजी महोदय, दर्शनविशुद्धिः। आपके उत्सवको देवल । परन्तु यह इष्ट नहीं जो केवल नाटक हो, कुछ कार्य हो। इम विभागकी पत्र आया। समाचार जाने । बाबूजी (मुख्तार महती आवश्यकता है। परन्तु इमकी पूर्ति कैसे हो, जगाकशोरजी) का कार्य तो मुझे इतना प्रिय है जो यह ममझ नहीं पाता-समझ नहीं पाता, इमका उसके अर्थ अब भावना-मात्र रह गई है। ऐसे कार्यो- यह अर्थ है जो समाजने अभी इस विषयपर मीमामा के लिये तो उनको इच्छानुकुल पुष्कल द्रव्य होता नहीं की। केवल ऊपरी-ऊपरी बातोंपर इसका ममय और कम कम १० विद्वान रहते जिन्हें इच्छित दव्य जाता है। अन्तमे यही कहना पड़ता हैदिया जाता। सालमे उनें २ बार छुट्टी दी जाती १ त्वं चन्नीचजनानुरागरभमादस्मासु मन्दादरः । मास जाड़ामे १ माम गर्मीमे । जहाँपर यह नत्त्वानु- का नो मानद मानहानिरियती भूः किं त्वमेव प्रभुः ।। मंधान होता वहीं पर १ स्थानपर उनका भोजन गुजापुञ्जपरम्परापरिचयाभिल्लीजनहन्ति । होता। वे मिवाय तत्त्वानुसंधानक अन्य कथा न मुक्कादामन धाग्यन्ति किमही कण्ठे कुरङ्गीहशः।। करते । १ वृहस्थान होता जहाँपर मब ऋतुके मा० शु. चि. अनुकूल स्थान होता। इस कार्यके लिये कमसे कम __ गणेश वर्णी १० लाख रुपया होता उसके ब्याजसे यह कार्य चलता। यद्यपि यह होना कठिन नहीं परन्तु हमारी दृष्टि नोट-अत: हमाग कहना बाबूजी (मुख्तार तौ जड़वादके पुष्ट करने में लग रही है-अतः हमारे जुगलकिशोरजी) मे कह दो। आपके बड़े २धनाव्य भाव तो मन ही में विलय जाते है । थोथा सभापति मित्र है। वे कब आपकी इच्छाकी पूर्ति करेगे आप बननेसे जलविलोचनके सदृश प्रयास है। कोई ऐसा का जीवन ४ या ६ वर्ष ही तो रहेगा। यदि आपके व्यकि तलाशो जो इसकी पूर्तिकर सुयशका भागी समक्ष इन लोगोंने कुछ न किया तब पीछे क्या करेंगे? हो । हाँ यह मेरेको भी इष्ट है जो १ वार मैं भी (ज्येष्ठ सुदि) Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ramurdereat अवस्थिति ( लेखक - श्रीगरचन्द नाहटा ) 'अनेकान्त' के गत अक्तूबर के अङ्क में पद्मनन्दिरचित रावणपार्श्वनाथस्तोत्र प्रकाशित हुआ है । उसका परिचय कराते हुए सम्पादक श्री मुख्तार साहबने लिखा है कि “यह स्तोत्र श्रीपद्मनन्दि मुनिका रचा हुआ है और रावणपत्तन के अधिपति अर्थात् वहाँ स्थित देवालय के मूलनायक श्रीपार्श्वजिनेन्द्र से सम्बन्धित है; जैसा कि अन्तिम पद्यसे प्रकट है । मालूम नहीं यह "रावणपत्तन" कहाँ स्थित है और उसमें पार्श्वनाथका यह देवालय (जैनमन्दिर) ब भी मौजूद है या नहीं, इसकी खोज होनी चाहिये ।" तीन वर्ष हुए श्वे० साहित्य मे रावणपार्श्वनाथका उल्लेख अवलोकनमे आनेपर मेरे सामने भी यह प्रश्न उपस्थित हुआ था और अपनी शोध-खोज के फलस्वरूप इसकी अवस्थितिका पता लग जानेपर जैन सत्यप्रकाशके क्रमाङ्क ११४ मे "रावणतीर्थ कहाँ है ?" शीर्षक लेखद्वारा प्रकाश डालनेका प्रयत्न किया गया था। मेरे उक्त लेखसं स्पष्ट है कि रावणपार्श्वनाथ वर्त्तमान अलवर में स्थित है। इसके पोषक ९ उल्लेख१६वीं शताब्दी से वर्त्तमान तकके उस लेखमे दिये गये थे एव रावणपार्श्वनाथकी नवीन चैत्यालयस्थापना (जीर्णोद्धार) का सूचक सं० १६४५के शिलालेखको भी प्रकाशित किया गया था। इसी समय अलबरसे प्रकाशित 'अरावली' नामक पत्रके वर्ष १ अङ्क १२ मे "जैनसाहित्यमे अलवर " शीर्षक लेखमे भी इसके सम्बन्धमे प्रकाश डाला गया था । यहाँ उसके पश्चात् जो कतिपय और उल्लेख अवलोकनम आये है वे दे दिये जाते है: १ क्षेमराज (१६वीं) के फलोधी - स्तवन (गा. २४) में"थभणपुरि महिमा निलो, गऊउडर गौडीपुर पास । जेसलमेरहि परगडो रावणि अलवर पूरइ श्रस । २० २ साधुकीति रचित (सं० १६०४) मौन - एकादशी स्तवन ( गाथा १७ ) मे : "गढ नयर अलवर सुखहमडप पास रावणम पुण्यउ।" ३ रत्नजय (१८) कृत १५७ नाम गभित पार्श्वस्तवन गा. १७) मं: - "तरीक वीजापुरै रे लाल अलवर रावणपास । " ४ रत्ननिधान ( १७वी) कृत पार्श्वलघु-स - स्तवन (गा ९) मे - "जीरावल सोवन गिरइ, अलवरगढ़ गवरण जागइ रे" ५. कल्याणसागर सूरि-रचित रावणपार्श्वाष्टकमे"अलवरपुररत रावण पार्श्वदेव, प्रणतशुभसमुद्र कामदं देवदेवं ।" रावणपार्श्वनाथ की प्रसिद्धिका पता अभी तक श्वे साहित्यसे ज्ञात था । पद्मनन्दिके स्तोत्रसे उसकी प्रसिद्धि दोनों सम्प्रदायोंमे समानरूपसे रहो ज्ञात कर हर्ष होता है। वर्तमान मेल-जोल के युग मे ऐसी बातों एवं तीर्थों आदिपर विशेषरूपसं प्रकाश डालना अत्यन्त आवश्यक है, जो दोनों सम्प्रदायवालोंको समानरूपसे मान्य हो । अलवर के रावणपार्श्वनाथका इतिहास मनोरञ्जक एवं कौतूहलजनक होना चाहिये । नामके अनुसार इम पार्श्वनाथ - प्रतिमाका सम्बन्ध रावणसे या अलबरका प्राचीन नाम रावणपत्तन होना विदित होता है । अतः अलवर निवासी जैन भाईयों एव अन्य विद्वानोंको उसका वास्तविक इतिहाम शीघ्र ही प्रकाशमे लानेका प्रयत्न करना चाहिये । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-शासन-जयन्तीका पावन पर्व इस युगके अन्तिम तीर्थदर श्रीवीर-वर्द्धमानने उदार तथा अपरिग्रही बननेका अनुरोध किया था। संसारके त्रस्त और पीडित जनसमूह के लिये अपने यदि संसार गाँधीजीके मार्गपर चलता तो आज भय जिस अहिंसा और अनेकान्तमय शासन (उपदेश)का परेशानी और दुखोंका वह शिकार न होता। प्रथम प्रवर्तन किया था उस शासनकी जयन्तीका वीर-शासनके अनुयायियोंका इस स्थितिको दूर पावन पर्व इम व भावण कृष्णा प्रतिपदा ता. २२ करनेका सबसे अधिक और भारी उत्तरदायित्व है; जुलाई ४९४८ वृहस्पतिवारको अवतरित होरहा है। क्योंकि उनके पास अहिसाके अवतार भगवान भगवान वीरने इस पुण्य दिवसमें जिम परिस्थिति महावीरके द्वारा दी हुई वह वस्तु है-वह विधि है को लेकर अपना अहिसादिका शासन (प्रथम उपदेश) जो जादका-सा काम कर सकती है और दुनियाम प्रवृत्त किया था वह प्रायः आज जैमी ही थी। धमेक अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, समभाव और मैत्रीकी नाम पर उस समय अनेक हिंसामयी यज्ञ-याग किये व्यवस्था कर सकती है । यह निधि अहिंमा, जाते थे, मूक पशुओं को निदयतापूर्वक उनम होमा अनेकान्त और अपरिग्रहके मूल्यवान सिद्धान्त है, जाता था, स्त्री और शूद्र धर्माधिकारी नहीं समझे जिनका आज हम भारीस भारी प्रचार और प्रसार जाते थे, वे मनुष्योंकी कोटिसे भी गये बीते थे। करनकी सख्त जरूरत है। भगवान वीरने अपने अहिसा प्रधान 'सर्वोदय तीर्थ मौभाग्यसे इम वर्ष वीर-शासन-जयन्तीका के द्वारा उन हिंसामयी यज्ञोंको पूर्णतया बन्द करके वाषिक उत्सव जिम महान् सन्तके नेतृत्वमें मुगर स्त्रियों और शूद्रोंको भी उनकी योग्यतानुसार धर्मा (ग्वालियर)मे विशेष समारोहके साथ होने जारहा है धिकार दिये थे और प्राणिमात्रके लिये कल्याणका वह जैन समाज और भारतका ही सन्त नहीं है अपितु द्वार खोला था। सारे मंसारका सन्न है । उसके हृदयम विश्वभरके लिये अतएव उनकी इस शामनप्रवर्तन तिथि-श्रावण अपार करुणा और मैत्री है। यह सन्त कृष्णा प्रतिपदा का बड़ा महत्व है और उसका मीधा वर्णी गणेशप्रमाद के नामसे सर्वत्र विश्रुत हैं । मन्त सम्बन्ध जनताके आत्म-कल्याणके साथ है। के अतिरिक्त आप उच्चकोटि के विद्वान (न्यायाचार्य) आज सारा संमार त्रस्त और दुखी है। पशुओं प्रभावक वक्ता और सफल नेता भी है। की तो बात ही क्या, मनुष्य मनुष्योंक द्वारा मारे-कादे, आशा है ऐसे पुरुपोत्तमके नेतृत्वमें इस वर्ष अग्निमें हामे तथा अपमानित किये जारहे हैं। सभी एक वीरशामन जयन्तीके अवसरपर वीरशामन के प्रचारदूसरेसे भयातुर और परेशान है। यदि उनका दुख प्रसार, पुरातत्व तथा साहित्यके अनुसन्धान और और भय तथा परेशानी दूर होसकते है तो भगवान देश तथा ममाजके उत्कर्ष-साधनादिका कोई विशिष्ट वीरके द्वारा प्रवर्तित अहिंसा, अनेकान्त और अपरि __एवं ठोम काय किया जायगा। प्रहके शासनसे ही दूर होसकते है । महात्मा गाँधीने इस दिशामे प्रयत्न किया था और मंसारको सुखी वीरसेवामन्दिर, सरसावा) और शान्तिमय जीवन व्यतीत करने के लिये अहिंसक, ता०६ -१५४८ दरबारीलाल कोठिया Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. श्रीमत्परमार शंगेरिकी पार्श्वनाथ बस्तीका शिलालेख __ (बा० कामताप्रसाद जैन, सम्पादक 'वीर') "श्रालॉजिकल सर्वे ऑफ मैसूर" सन् १९३३में गेरि नामक स्थानके शिलालेख दिये हये हैं। उनमेंसे एक शिलालेखको हम सधन्यवाद यहाँ उपस्थित करते हैं। -लेखक श्रीमत्परमगभीरम्याद्वादामोघलां- शान्तिसेट्रिके पुत्र बामिसेट्रिकी बड़ी बहन थी । च्छन जीयात त्रैलोक्य-नाथस्य शासनं बणजमु और नानादेशी व्यापारियोंने भी बसदिके जिनशासन । लिए कतिपय वस्तुओंपर कर देना स्वीकार किया। ३. स्वस्ति श्रीमत शकवर्षम द १०८२ अन्तमें जो इस दानको नष्ट करेगा उसे गङ्गापर एक विक्रम संवत्सरद कुम्भ शु सहस्र गौबध करनेका पातक लगेगा, यह उल्लेख है। ५. द्ध दशमि बृहवारदन्दु श्रीमान-निडुगोड इम लेग्यसे म्पष्ट है कि पहले शृगेरिमे जैनोंकी ६. विजयनारायण शान्तिसेट्टिय पुत्र बा सख्या और मान्यता अधिक थी। (The Inscrip७. मि-सेट्टियर अक सिरियबे-सट्टितियर म- tion shows that Jaunism had once a ८ गलु नागवे-सेट्टितियर मगलु सिरिय good following in Sringeri in former ९. ले सट्टितिगं हेम्माडि-सेट्टिगं सुपुत्रन times --Arch. Sur. of Mysore, 1933, १० प मारिसेटिगे पराक्षविनयक्के मा p 124) ११. डिसिद बदिगे बिट दत्ति केरेय केलग आजकल शृगेरि ब्राह्मण-सम्प्रदायका मुख्य केन्द्र १२ गग हिरिय गदेय वसदिय बड़गण होस .. और तीर्थ बना हुआ है। शङ्कराचार्यके समयसे ही १३. यु भंडियु होलय नडुवण हुदुविन होरद शृंगेरिमे ब्राह्मणधर्मकी जड़ जम गई थी और उप१४. मण्णु कण्डुग सुल्लिगोड अरुगण्डुग मण्णु रान्तकालमे ब्राह्मण सम्प्रदायमे शृगेरिमठके श्री१५. ....." बणजमुं नानदेमिय बिट्टय शङ्कराचार्य प्रसिद्ध होते आये है। आज वहाँ जैना. १६. .........." मलवेगे हाग हन्ज बोट्टिय मल यतन हतप्रभ होरहे है। जैनोंको उनका जरा भी १७ ........... ले मेलसिन मारके हागमु ध्यान नही है। इस प्रकारकी अनेक कीर्ति-कृतियाँ १८. मत्तं पोत्तोब्बलुप्पु हेरिग अय्वत्तेले अरिमिनद भारतम बिखरी पड़ी हैं, पर हमारे जैनी भाई उनकी मलवेगे विसके बिट्ट तपिदडे तप्पिदवनु गंगेय- आरसे बेसुध है। १९ लु सैर कविलेय कोन्द पातक इस शिलालेखमे व्यापारियोंके दो भेदों (१) इसके अंग्रेजी अनुवादका भावार्थ निम्न प्रकार बणजमु (२) और नानादेशीका उल्लेख उनकी है:-"जिनशासन जयवंता प्रवर्तो जो त्रिलोकीनाथ- बणिज-वृत्तिको ही सम्भवतः लक्ष्यमे लेकर किया का शासन है और श्रीमत् परमगभीर स्याद्वाद-लक्षण गया है। अनुमानत: जो लोग दूर दूर देशोंमें न से युक्त है। स्वस्ति । शक संवत् १८८२ विक्रमवर्षके जाकर स्थानीय देहातमे व्यापार करते होंगे वे कुंभके शुक्लपक्षकी दशमीके वृहस्पतिवारको बसदि बणजम् कहलाते होंगे। और दूर दूर देशोंमे जाकर (जिनन्दिर)के लिए दान दिया गया, जिसे हैम्माडि- (से पाकर ?) व्यापार करनेवाले नानादेशी कहलाते सेट्रिके पुत्र मारिसेट्टिकी एव नागवेसेट्टितियरकी पुत्री होंगे। दक्षिणके विद्वानोंको इसपर प्रकाश डालना सिरियबेसेट्टितिकी स्मृतिमे निर्माण किया गया था। चाहिये । इससे इतना स्पष्ट है कि इन व्यापारियोंमें सिरियबेसेट्टिति निडुगोडु - निवासी विजयनारायण जातिगत भेदभाव तबतक नहीं था। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपुरातन [ विहङ्गावलोकन ] शेष ( लेखक - मुनि कान्तिसागर ) आर्यावर्तक तक्षण कलाके संरक्षण और विकास जैन समाज बहुत बड़ा योगदान दिया है जिसकी स्वर्णिम गौरव गरिमाकी पताकास्वरूप आज भी अनेकों सूक्ष्मातिसूक्ष्म कला कौशलके उत्कृष्टतम प्रतीक-सम पुरातन मन्दिर, गृह प्रतिमाएँ विशाल स्तभादि बहुमूल्यावशेष बहुत ही दुरवस्थामें अवशिष्ट है । ये प्राचीन संस्कृति और सभ्यता के ज्वलत दीपक - प्रकाशस्तम्भ है। वर्षोंका अतीत इनमें अन्तनिहित हैं । बहुत समय तक धूप-छाहमे रहकर इन्होंने अनुभव प्राप्त किया है । वे न केवल तात्कालिक मानव जीवन और समाज के विभिन्न पहलुओं को ही आलोकित करते है अपितु मानों वे जीर्ण-विशीर्ण खण्डहरों, वनों और गिरिकन्दराओं में खड़े खड़े अपनी और तत्कालीन भारतीय सांस्कृतिक परि स्थितियोंकी वास्तविक कहानी, अतिगम्भीररूपसे पर मूकवाणीमे, उन सहृदय व्यक्तियोंकी श्रवण करा रहे हैं जो पुरातन-प्रस्तरादि अवशेषोंमें अपने पूर्वपुरुषों की अमरकीतिलताका सूक्ष्मावलोकन कर स्वर्णतुल्य नवीन प्रशस्त मार्गकी सृष्टि करते हैं । यदि हम थोड़ा भी विचार करके उनकी ओर दृष्टि केन्द्रित करे तो विदित हुए बिना नहीं रहेगा कि प्रत्येक समाज और जातिकी उन्नत दशाका वास्तविक परिचय इन्हीं खण्डित अवशेषोंके गम्भीर अध्ययन, मनन और अन्वेषणपर अवलम्बित है । मेरा तो मानना है कि हमारी सभ्यताकी रक्षा और अभिवृद्धिमे किसी प्राचीन साहित्यादिक ग्रन्थोंसे इनका स्थान किसी दृष्टिसे भी कम नहीं, स्थायित्व तो साहित्यादि से इनमे अधिक है। साथ ही साथ यह भी कहना पड़ेगा कि साहित्यकार जिन उदात्त भावोंका व्यक्तीकरण बहुत स्थान रोककर करता जबकि कलाकार जड़ वस्तुओं पर अत्यन्त सीमित स्थानमें अपनी छैनी द्वारा उन भावनाओंको विश्वलिपिके रूपमें व्यक्त करता है। निरक्षर जनता भी इस विश्वलिपिसे ज्ञान प्राप्त कर लेती है ! एक समय था जब इन कलाकारोंका समादर भारतमे सर्वत्र था, सांस्कृतिक अमरतत्त्वोंके प्रचारण एवं संरक्षणमे वे सबसे अधिक दायित्व रखते थे । लौकिक जनोंकी रुचि और परिष्कृत विचारधाराके अक्षुण्ण प्रवाहको वे जानते थे । उनका जीवन सात्विक और मनोवृत्तियाँ आज के कलाकारोंके लिये आदर्शकी वस्तु थीं । इन्हीं किन्हीं कारणोंसे प्राचीन भारतीय साहित्य में इनको उच्च स्थान प्राप्त था। जैनाचार्य श्रीमान् हरिभद्रसूरिजी - जो अपने समयके बहुत बड़े दार्शनिक और प्रतिभासम्पन्न विद्वान् प्रन्थकार थे— ने अपने षोडश प्रकरणोंमें कलाकारोंके सम्बन्धमे जो विचार व्यक्त किये हैं वे हमारे लिये बहुत ही मूल्यवान् हैं । वे लिखते हैं "कलाकार को यह न समझना चाहिये वह हमारा वेतन भोगी भृत्य है पर अपना सखा और प्रारम्भीकृत कार्यमे परमसहयोगी मानकर उनको आवश्यक सभी सुविधाएँ प्रदान कर सदैव सन्तुष्ट रखना चाहिये, उनको किसी भी प्रकारसे ठगना नहीं चाहिये, वेतन ठीक देना चाहिये, उनके भाव दिन प्रतिदिन वृद्धिको प्राप्त हों वैसा आचरण करने से ही वे उच्च की रचनाका निर्माण कर समाजकं आध्यात्मिक कल्याणमे आशिक सहायक प्रमाणित हो मकते हैं।" और ग्रन्थोंमे भी इन्हीं भावोंको पुष्ट करने वाले अन्यान्य उद्धरण उपलब्ध हैं पर उनकी यहाँ विवक्षा नहीं । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ भनेकान्त [ वर्ष ९ यहाँपर प्रश्न यह उपस्थित होजाता है कि शिल्प तल्लीन होजाता है भले ही वह उनके मर्मस्पर्शी इतिहै क्या? क्योंकि सर्वसभ्यताओंके लिये शिल्प परम हाससे परिचित न हो। एव कलाविज्ञ तो इनमें भावश्यक है। जिस प्रकार प्राणीमात्रकी संबेदनाका महान सत्यके दर्शन करते हैं; क्योंकि विषयको समसर्वोच्च शिखर सङ्गीत है ठीक उसी प्रकार शिल्पका भनेकी शक्ति उनमें है। कथनका तात्पर्य केवल इतना विस्तृत और व्यापक भवन निर्माण है। जनतामें ही है कि मानव-सस्कृतिके विकास और सरक्षणमें आमतौरपर-अर्थात लोकभाषामें शिल्पका सामान्य जिनका भी योग रहा है उनमे शिल्पकार सर्वप्रथम अर्थ ईटपर ईट या प्रस्तरपर प्रस्तर सजा देना ही स्थानपर है। मानवके आभ्यंतरिक जीवनसे भी शिल्प माना जाता है। परन्तु वस्तुस्थिति देखनेसे इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है, चाहे वह अरण्यवासी यह परिभाषा भावसूचक नहीं मालूम देती-अपूर्ण ही क्यों न रहा हो। है। शिल्पकी सर्वगम्य व्याख्या करना भी तो भारतीय वास्तुकलाका इतिहास यों तो जबसे मासान नहीं। मानवका विकास हुआ तभीसे ही मानना होगा पर परन्तु फिर भी प्रो० मुस्कराज आनन्दने निम्न शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टिसे कला-समीक्षकोंने मोहेजोदडो पंक्तियोंम जो परिभाषाकी है वह उपयुक्त है-"शिल्प एव हरप्पासे माना है। इस युगके पूर्व जहाँ तक हम वही है जो निर्माण-सामग्रियों द्वारा कल्पनाके समझते है जो युग बाँस, लकड़ी, पत्तोंकी झोपड़ियों आधारपर बनाया जाय । उस शिल्पको हम कभी का था वह अधिक महत्वपूर्ण था, सात्विक भावअद्वितीय कह सकते है जिसकी कला एवं कल्पनाका नाओंका भी लिये हुए था, प्रकृति की गोदमे मानवको प्रभाव मनुष्यपर पड़ मक"। उपर्युक्त दार्शनिक पद्धति जो विचारकी मौलिक सामग्री मिलती है उसे ही वह की परिभाषासे कलाकारोंका जो उत्तरदायित्व बढ़ मानव-समाजकी भलाईकं लिये कलाके द्वारा मूर्तरूप जाता है वह किसीसे अब छिपा नहीं। "मनुष्यपर देता है । इस प्रकार दिन प्रतिदिन वास्तुकलाका प्रभाव" और "प्राप्त सामग्रियों द्वारा निर्माण" ये विकास होता गया, अजटा, जोगीमारा, बाग, इलोरा शब्द गम्भीर अर्थ रखते है। प्राप्त सामग्री यानि केवल चाँदबड़, पदुकोटा, एलिफंटा आदि अनेकों ऐसी कलाकारके औजार और एतद्विषयक साहित्यिक प्रथ गुफाएँ है जो भारतीय तक्षण और गृह- निर्माणकलाही नहीं है अपितु उनके वैयक्तिक विशुद्ध चरित्रकी को श्रेष्ठ प्रतीक है। वास्तुकलाका प्रवाह समयकी ओर भी व्यंग्यात्मक संकेत है। कल्पनात्मक शिल्प गति और शक्तिके अनुरूप बहता गया, समय समय निर्माणमें जो मानसिक पृष्ठभूमि तैयार करनी पड़ती पर कलाविज्ञोंने इसमें नवीन तत्वोंको प्रविष्ट कराया है वह कला-समीक्षकोंके लिये अनुभवका ही विषय कि मानों वह यहाँकी ही स्वकीय सम्पत्ति हो, निर्माण है। कल्पना-द्वारा मानव जगतके आध्यात्मिक और पद्धति, औजार आदिम भी क्रान्तिकारी परिवर्तन भौतिक संस्कृति के उच्चतम सिद्धान्तोंका समुचित हुए । जब जिस विषयका सार्वभौमिक विकास होता अङ्कन ही प्रभावोत्पादक हो सकते हैं। तभी तो है तब उसे विद्वान लोग लिपिबद्ध कर साहित्यका मानव उनके प्रभावसे प्रभावित होता है। आश्चर्य- रूप दे देते हैं, जिससे अधिक समय तक मानवके जनक वायुमण्डलमे सभी आकर्षण रखते हैं। जिन संपर्कमें रह सकें, क्योंकि कल्पना-जगतके सिद्धान्तों को प्राचीन खंडहरोंको देखनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ की परम्परा तभी चल सकती है जब उत्तराधिकारी है यदि उनके साथ कलाप्रेमी और कलाके तत्वोंको मिलता है। गत पाँच हजारसे अधिक वर्षोंका वास्तुन जानने वाले व्यक्ति साथ रहे हों तब तो कहना ही कलाका इतिहास महत्वपूर्ण, रोचक और ज्ञानवर्द्धक क्या ?-उनको अनुभव होगा कि प्राचीन शिल्प- है। इसके नमूनेके स्वरूप प्राचीन गृह, मन्दिर, मूर्तियाँ, कलात्मककृतियोंका जो कोई भी अवलोकन करता है किले, शस्त्रादि मानव समाजोपयोगी अनेक उपकरण Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६) जैनपुरातन अवशेष २२७ वर्तमान हैं, जिनपर लाखों पृष्ठोंमें लिखा जाय तो मेरे मित्र 'मोडर्नरिव्यु' के वर्तमान संपादक कम है । मुझे तो प्रकृत निबन्धमें केवल जैनपुरातत्व श्रीमान् केदारनाथ चट्टोपाध्याय, जो पुरातत्त्वके अच्छे के अंगीभूत जो अवशेष उपलब्ध होते हैं नष्ट होने विद्वान है, बता रहे थे कि उनके गाँव-बाँकुडाकी की प्रतीक्षामें हैं-उन्हींपर अपने त्रुटिपूर्ण विचार व्यक्त पहाड़ियोंमे बहुतसी जैन प्रतिमाएँ प्राप्त होती हैं जो कर समाजके विद्वान और धनीमानी व्यक्तियोंका रक पाषाणपर उत्कीर्णित हैं, इनके आगे वहाँकी ध्यान अपनी सांस्कृतिक सम्पत्तिकी ओर आकृष्ट जनता न जाने क्या-क्या करती है। पश्चिम बङ्गालमें करना है और यही इस निबन्धका उद्देश्य है। सराकजातिके भाइयोंके जहाँ-जहाँपर केन्द्र हैं उनमें आर्यावर्तका सम्भवतः शायद ही कोई कोना प्राचीन बहुतसी सुन्दर कलापूर्ण शिखरयुक्त मन्दिरगेमा हो जहाँपर यत्किञ्चितरूपेण जैन-पुरातत्त्वक प्रतिमाएं सेकड़ोंकी संख्यामे उपलब्ध हैं। इन अवशेषों अवशेष उपलब्ध न होते हों, प्रत्युत कई प्रान्त और को मैने तो देखा नहीं परन्तु मुनि श्रीप्रभाविजयजी जिले तो ऐसे है जो जैनपुरातत्त्वकी सभी शाखाओंके की कृपासे उनकं फोटो अवश्य देखे, तबियत बड़ी पुरातनावशेषोंको सुरक्षित रक्खे हुए है क्योंकि प्रसन्न हुई । श्रीमान् ताजमलजी बोथरा-जो वर्तमान सांस्कृतिक उच्चताके प्रतीक-सम इनके निर्माणमे सराकजातिकी संस्थाके मन्त्री है-से मैं आशा आर्थिक सहायक जैनोंने अपने द्रव्यका अन्य समा- करता हूँ कि वे सारे प्रान्तमें-जहाँ सराक बसते है जापेक्षया सर्वाधिक व्यय कर जैन संस्कृतिकी बहत -जहाँ कहीं भी जैन अवशेष हों उनके चित्र तो अच्छी सेवा की है। बङ्गाल, मेवाह और मध्यप्रान्त अवश्य ही लेलें । खोजकी दुनियासे यह स्थान कोसों आदि कुछ स्थान ऐसे है जहाँपर कालके महाचक्रके दर है। कई ऐसे भी है जो प्राचीन स्मारक रक्षा प्रभावसं भाज जैनोंका निवास नहीं है पर जैनकला कानूनमे नहानेसे उनके नाशकी भी शीघ्र संभावना है। के मुखको समुज्ज्वल करने वाले मन्दिर, स्तम्भ, मेदपाट-मेवाड़मे भी कलाके अवतार-स्वरूप जैन प्रतिमा या खडहर विद्यमान है। ये पूर्वकालीन जैनों मन्दिरोंकी संख्या बहुत बड़ी है, ये खासकर १४वीं के निवासके प्रतीक है। एक समय था जब बङ्गाल शताब्दीकी बादकी तक्षणकलासे सम्बन्धित हैं। बड़े जैन संस्कृतिसे श्रासावित था, पूर्वी बङ्गालमे जैन विशाल पहाड़ोंपर या तलहटीमे मन्दिर बने हैं जहाँ प्रतिमाएँ प्राप्त हुई है । कलकत्ता विश्वविद्यालयकं पर कहीं-कहीं तो जैनीकं घरकी तो बात ही क्या प्रो० गोस्वामीने मुझे बताया था कि पहाड़पुर- की जाय मानवमात्र वहाँ है ही नहीं। ऐसे मन्दिरोंमेसे दिनाजपुरमे दिगम्बर जैन प्रतिमाएँ निकली हैं वे लोग मूति तो अवश्य ही उठा लेगये परन्तु प्रत्येक प्राचीन कला-कौशलकी दृष्टिसं अध्ययनकी वस्तु है। कमरोंमे जो लेख हैं उनकी सुधि आज तक किसीने (इन प्रतिमा-चित्रोंका प्रकाशन प्रा०स० इ० रिव्में नहीं ली। कहनेको ता विजयधर्मसूरिजीन कुछ लेख होचुका है)। अवश्य ही लिये थे पर उन्होंने लेखांके लेनेमे तथा आज भी उस ओर जब कभी उत्खनन होता है प्रकाशन भी पक्षपातसे काम लिया, साम्प्रदायिक तब जैनधर्मसे सम्बन्ध रखने वाली सामग्री निकलती व्यामोहकं कारण सव लेखोंका संग्रह भी वे न कर सके, ही रहती है; पुगतत्त्व-विभागवाले साधारण नोट पुरातत्त्वक अभ्यामीक लिये यह बड़े कलङ्ककी बात है। कर इन्हे प्रकट कर देते हैं, वे बेचारे इन अवशेषोंकी अत्यन्त खेदकी बात है कि उपर्युक साधनोंपर विविधता और प्रसङ्गानुसार जो भव्यता है, किसके न तो वहाँकी जैन जनताका समुचित ध्यान है और साथ क्या सम्बन्ध है आदि बाते ही आवश्यक न वहाँकी सरकार ही कभी सचेष्ट रही है। अस्तु, साधनोंके अभावसे नहीं जान पाते हैं तो फिर करें अब ता प्रजातन्त्रीय राज्य है, मैं आशा करता है कि भी तो क्या करें ? वहाँके लोकप्रिय मन्त्री इस ओर अवश्य ध्यान देंगे। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ भनेकान्त [वर्ष ९ मध्यप्रान्त और बरार छह वर्ष तक मेरे विहार पद्धतिसे देखते हैं। वे नहीं चाहते हैं कि हमारी का क्षेत्र रहा है, यहाँके पुरातत्त्वपर मैंने विशाल भारत सभ्यतासे सम्बन्धित कोई भी साधन हमारी दृष्टिसे १९४७ जुलाई, अगस्त, सितम्बर, नवम्बर, दिसम्बर वश्चित रहे। कैसी खोजकी लगन ? जब हम तो बड़े आदि अड्डोंमें कुछ लेख लिखे है। इनके अतिरिक्त आनन्दसे बैठे है, विशाल सम्पत्तिका स्वामी जैन लखनादौन, धुनसौर, कांकर, बस्तर, पद्मपुर, पारङ्ग, समाज भी आज अकिश्चिन बनकर जीवन यापन पौनार, भद्रावती आदि प्रचीन स्थानोंमें यदि खुदाई करे यह उचित नहीं। जैनोंका तो प्रथम कर्तव्य है करवाई जाय तो बहुत बड़ी निधि निकलनेकी पूर्ण कि वे अपने कलात्मक खण्डोंको एकत्र करें या सम्भावना है। इन सभी स्थानोंपर जैन प्रतिमाएँ उनपर अध्ययन करें। मैं मानता हूँ आज जैन समाज प्राप्त हुई हैं। यवतमालकी जैन रिसर्च सोसाइटीके के सामने बहुत-सी ऐसी समस्याएँ हैं जिनको कार्यकर्ताओंका ध्यान में इन क्षेत्रोंपर आकृष्ट करता सुलझाना, समयकी गति और शक्तिको देखना अनि. हूं। वे कमसे कम मध्यप्रान्त और बरारके जैन वार्य है, परन्तु जो प्राचीन संस्कृतिक रङ्गमें रङ्गे हुए पुरातत्वपर अन्वेषणात्मक प्रन्थ प्रस्तुत करें। है उनको तो पुरातन अवशेषोंकी रक्षाका प्रश्न ही भारतीय जैन तीर्थ और मन्दिर आदिका केवल सबसे अधिक महत्वपूर्ण और शीघ्रातिशीघ्र ध्यान वास्तुकलाकी दृष्टिसे यदि अध्ययन किया जाय तो देने योग्य है। यह युग सांस्कृतिक उत्थानका है। विदित हुए बिना न रहेगा कि तक्षणकलाके प्रवाहको स्वतन्त्र भारतका पुनर्निर्माण होने जारहा है। ऐसे जैनौने कितना वेग दिया, पुरातन जैनोंका नैतिक अवमरपर चुप बैठना-जबकि आजका वायुजीवन कलाके उच्चाति उच्च सैद्धान्तिक रहस्योंसे ओत- मण्डल सर्वथा हमारे अनुकूल है-भारी अकर्मप्रोत था, आज कलाकी उपासना स्वतन्त्ररूपसे करना ण्यता और पतनकी निशानी है । यों तो भारत तो रहा दूर परन्तु जो अवशेष निर्मित हैं उनको सरकारने पुरातत्त्वकी खोजका एक स्वतन्त्र विभाग सँभालना तक असम्भव होरहा है। एक लेखकने ही खोल रखा था, जिसके प्रथम अध्यक्ष जनरल ठीक ही लिखा है कि "इतिहास बनाने वाले व्यक्ति कनिंघम ई० सन् १८६२में नियुक्त किये गये थे। इन्होंने तो गये परन्तु उनकी कीर्ति-गाथाको एकत्रित करने और बादमे इसी पदपर आने वाले महानुभावोंने वाले भी उत्पन्न नही होरहे हैं" जैन समाज पर अपने गवेषणा-खुदाई के समय जो जो जैन अवा उपर्यत पंक्ति सोलहोंबाना चरितार्थ होती है। शेष उपलब्ध हुए और जिस रूपमे वे प्राप्त साधनोंके आजके गवेषणा-युगमें इनकी उपेक्षा करना आधारपर उनका अध्ययन कर सके, उसी रूपम अपनी जानबूझकर अवनति करना है। इनके प्रति यथासाध्य समझने का प्रयास किया। इस विभागकी अन्यथा भाव रखना ही हमारे पूर्वजोका भयङ्कर रिपोर्ट में जैन पुरातन अवशेषोक चित्र और विवरण अपमान है-उनकी कीर्तिलताकी अवहेलना है। भरे पड़े हैं। कहीं विकृतियुक्त भी वर्णन है । डा० सांस्कृतिक पतनसे बढ़कर मंसारमे कोई पतन नहीं जैन्स बर्जेस, कर्नल टॉड, डा० बूलर, डा० भांडारकर है। सुन्दर अतीत ही अनागतकालकी सुन्दर सृष्टि (पिता-पुत्र) डा० गेरिनॉड, डा. गौर हीरा० ओझा, कर सकता है । गड़े मुर्दे उखाड़ना ही पड़ेगा, वे ही मि. नरसिंहाचारियर, मुनि जिनविजयजी, और हमें आगामी युगके निर्माणमे मददगार होंगे। उनके स्व. बाबू पूर्णचन्दजी नाहर आदि अनेकों पुरातत्त्व मौनानुभवसे हमको जो उत्साह-प्रद प्रेरणाएँ मिलती के पण्डितोंने जैन पुरातन अवशेषोंकी जो गवेषणहै वे अन्यत्र कहाँ मिलेगी? आज सारा विश्व अपनी- कर भादर्श उपस्थित किया है वह आज भी अनुअपनी सभ्यताके गहनतम अध्ययनमे व्यस्त है। करणीय है। पूर्व गवेषित साधनोंके आधारपरसे यहाँके विद्वान् एक-एक प्रस्तर स्वण्डको विशिष्ट स्वर्गीय ब्रह्मचारी शीतलप्रमादजीनं "प्राचीन जैन Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६ ] स्मारक" नामक संग्रहात्मक प्रन्थोंकी रचना की है। वह बिल्कुल अपूर्ण है । उसमें अनुकरणमात्र है, थोड़ासा भी यदि स्वकीय खोजसे काम लिया जाता तो काम अच्छा और पुष्ट होता । उन दिनों न तो जैनसमाजकी सार्वभौमिक रुचि थी और न एतद्विषयक प्रवृत्ति में सहायता प्रदान करने वाले साधन ही सुलभ थे। आज सभी दृष्टिसे वायुमण्डल सर्वथा अनुकूल है । जो सामग्री नष्ट होचुकी है उनपर तो पश्चात्ताप व्यर्थ ही है, जो अवशिष्ट है उनका भी यदि समुचित उपयोग कर सके तो सौभाग्य ! "जगे तबसे ही प्रातःकाल सही" । जैनपुरातन अवशेष पूर्व पंक्तियों में सूचित किया जाचुका है कि जैन अवशेषों का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है । जहाँपर जङ्गलों मे जो प्रतिमाएँ है उनका कला या धार्मिक दृष्टिसे कौन मूल्याङ्कन करे ? वहाँ तो सुरक्षित रहना ही असम्भव हैं। मैंने कई जगह पर ( C. P. में) मूर्तियों - का पाषाण अच्छा होनेसे लोगोंको कुल्हाड़ी और छुरे घिसते हुए देखा, कई स्थानोंपर तो उनके सामने अमानुषिक कार्य भी होते है । परम वीतराग परमात्मा अहिसाके अवतार-सम प्रतिमाके सामने ग्रामीण लोग बलिदान तक करते देखे गये । जबलपुर वाला बहुरीचन्द इसका उदाहरण है । यदि स्वरूपसे गवेषणा करें तो ऐसे अनेकों उदाहरण मिल सकते हैं। शब्दकोशों और पुरातत्त्वकी सीमाका गम्भीर अध्ययन करनेके बाद अवभासित होता है कि पुरा तव एक ऐसा शब्द है जो अत्यन्त व्यापक अर्थको लिये हुए है, इतिहास श्रादिके निर्माण में जिन्हीं किन्हीं वस्तुओंकी -साधनों की आवश्यकता रहती है वे सभी इसके भीतर सन्निविष्ट है, उन सभी साधनोंपर तो प्रकाश डालने का यह स्थान है न कुछ पंक्तियोंमे उन सबका समुचित परिश्चय ही कराया जा सकता है। वर्षोंकी साधना के बाद ही वैसा करना सम्भव है। मैंने इस निबन्धमे अपना कार्य- प्रदेश बहुत ही सङ्कुचित रखा है । मुझसे यदि कोई पुरातत्वपर अध्ययन करने-करानेके सम्बन्धमें प्रश्न करे तो मैं तो २२९ यही सम्मति दूँगा कि जैनसमाजको सर्वप्रथम पुरातत्व के उस भागको लेना चाहिये जो तक्षणकलासे सम्बन्ध रखता हो, वही उपेक्षित विषय रहा है। क्योंकि इनकी संख्या भी सर्वाधिक है। मुझे स्पष्ट कर देना चाहिये कि अरक्षित अवशेषोंकी ओर ही केवल मेरा संकेत नहीं है मैं तो चाहता हूँ जो प्राचीन मन्दिरप्रतिमाएँ आज आमतौर से पूजा-अर्चनाके काम में आते हैं और कलापूर्ण हैं उनके उद्धार के लिये भी सावधान रहना अनिवार्य है । उद्धारका अर्थ कोई यह न लगा बैठें कि उनको नये सिरे से बनवावें, परन्तु उन कलापूर्ण सम्पतियोंके सुन्दर फोटू ले लिये जायें, जिस समयकी कला हो उस समयकी ऐतिहासिक सामग्रीका उपयोग कर उनका अध्ययन कर फल प्रकाशित करवाया जाय, नष्ट होने से बचाया जाय, अर्थात पुरातनताको प्रत्येक उपायसे बचाया जाय । जहाँपर मालूम हो कि यहाँपर खुदाई कराने जैनमन्दिर या अवशेष निकलेगे वहाँपर भी भारत सरकार के पुरातत्व विभागसे खुदाई करवानी चाहिये, आर्थिक सहायता करनी चाहिये । क्योंकि सरकार तो समस्त भारत के लिये सीमित अर्थ व्यय करती है। अतः इतने विशाल कार्यका उत्तरदायित्व केवल गवर्नमेण्टपर छोड़कर समाजको निश्चेष्ट न होना चाहिये। सरकार आपकी है । अपने कर्तव्य से समाजको च्युत न होना चाहिये । सारे समाजमें जबतक पुरातत्वान्वेषणकी क्षुधा जागृत नहीं होती तबतक अच्छे भविष्यकी कल्पना कमसे कम मैं तो नहीं कर सकता । अतीतको जाननेकी प्रबल आकांक्षा ही को मैं अनागतकालका उन्नतरूप मानता हूँ । कलकत्ताके बिहार मे मैंने केवल एक बाबू छोटेलालजी जैनको ही देखा जो जैन पुरातत्व विशेषतः राजगृही आदि जैन प्राचीन स्थानोंकी खुदाई और अन्वेषण के लिये तड़फते रहते हैं । वे स्वयं भा न केवल पुरातत्त्व के प्रेमी हैं अपितु विद्वान् भी हैं। वे वर्षोंसे स्वप्न देखते आये हैं कब जैन पुरातवका संक्षिप्त इतिहास तैयार हो, दौड़ते भी वे खूब हैं पर अकेला आदमी कर ही क्या सकता है ? Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० अनेकान्त प्रत्येक व्यक्तिको इस बातका सदैव स्मरण रखना चाहिये कि जिस विषयपर उसकी रुचि हो या जिसे वह अध्ययन करना चाहे उसे सबसे पहले तदनुकूल मानसिक पृष्ठभूमि तैयार करनी होगी जो विषयके आन्तरिक तत्त्वोंको हृदयक्रम करनेमें सहायक प्रमाणित हो सकें । पुरातत्वके अध्ययनको चलती भाषामे पत्थरोंसे सर फोड़ना या "गड़े मुर्दे उखाड़ना" कह सकते हैं। पर हृदय कोमल और भावुक चाहिये। यह जाल - चाहे आप रुचि कह लें - ही ऐसा विलक्षण है कि इसमें जो फँसता है वह इस जीवनमें तो नहीं निकल सकता, वह साधना ही बड़ी कठोर और भीषण श्रम साध्य है । पाषाण जगतके खण्डों में सदैव रत व्यक्तियकों का मानसिक अध्ययन करेगे तो मालूम होगा मानो बिश्वके बहुत से aaका यहीं समीकरण हुआ है। [ वर्ष ९ जैन अवशेषोंको समझने के लिये सारे भारतवर्ष में पाये जाने वाले सभी श्रेणी के अवशेषोंका अध्ययन भी अनिवार्य है क्योंकि जैन और अजैन शिल्पात्मक कृतियोंका सृजन जो कलाकार करते थे वे प्रत्येक शताब्दी में आवश्यक परिवर्तन करते हुए एक धारामें बहते थे, जैसा कि वास्तुकलाके अध्ययनसे विदित हुआ है । प्रान्तीय कलात्मक अवशेषोंको ही लीजिये उनमें साम्प्रदायिक तत्त्वोंका बहुत ही कम प्रभाव पायेंगे, परन्तु शिल्पियोंकी परम्परा जो चलती थी वह अपनी कलामें दक्ष और विशेषरूपसे योग्य थी । मध्यकाल के प्रारम्भिक जो अवशेष हैं उनको बारहवीं शतीकी कृतियोंसे तोलें तो बिहार, मध्यप्रान्त और बङ्गालकी कलामे कम अन्तर पाएँगे। मैंने कलचूरी और पालकालीन जैन तथा श्रजैन प्रतिमाओंका इसी संक्षिप्तावलोकन किया है उसपरसे मैंने मोचा है १०-१२ तक जो धारा चली वही तीर्थ प्रान्तोंको लेकर चली थी अन्तर था तो केवल बाह्य आभूषणोंका ही - जो सर्वथा स्वाभाविक है । कथनका तात्पर्य यह है कि एक परम्परामें भी प्रान्तीयकला भेदसे । प्राचीन लिपि और उनके कुछ पार्थक्य दीखता क्रमिक विकासका ज्ञान भी विशेषरूपसे अपेक्षित है। मूर्तिविधान के अनेक अङ्गका अध्ययन ठोस होना अत्यन्त आवश्यक है। इतिहास और विभिन्न राजवशकं कालोंमे प्रचलित कलात्मक शैली आदि अनेक विषयोंका गम्भीर अध्ययन पुरातत्त्वके विद्यार्थियों को रखना पड़ता है। क्योंकि ज्ञानका क्षेत्र विस्तृत है । यह तो सांकेतिक ज्ञान ठहरा । उपर्युक्त पंक्तियों को छोड़कर अन्य व्यक्तियोंकी जानकारी भी अपेक्षित है । पुरातन शिल्प और कलाके आभ्यन्तरिक मर्मको जाननेके लिये वर्तमानमें निम्न बातोंपर ध्यान देना अनिवार्य है। मैं ऊपर ही कह आया हूँ मेरा क्षेत्र अत्यन्त संकुचित है। भारतीय जैन शिल्पका अध्ययन तब तक अपूर्ण रहेगा जबतक वास्तुकला के अङ्ग-प्रत्यङ्गोंपर विकासात्मक प्रकाश डालने वाले साहित्यकी विविध शाखाओंका यथावत अध्ययन न किया जाय; क्योंकि तक्षरणकला और उसकी विशेषता में परस्पर साम्य होते हुए भी प्रान्तीय भेद या तात्कालिक लोकसंस्कृतिके कारण जो वैभिन्न पाया जाता है एवं उस समयके लोक जीवनको शिल्प कहाँ तक समुचिततया व्यक्त कर सका है। उस समयपर जो वास्तुकला विषयक प्रन्थ पाये जाते हैं न जिन जिन शिल्पकलात्मक कृतियोंके निर्माणका शास्त्रीय विधान निर्दिष्ट है उनका प्रवाह कलाकारोंकी पैनी छैनी द्वारा प्रस्तरोंपर परिष्कृतरूपमें कहाँ तक उतरा है ? यहाँ तक कि शिल्पकला जब तात्कालिक संस्कृतिका प्रतिबिम्ब है तब उन दिनोंका प्रतिनिधित्व क्या सचमुच ये शिल्प कृतियाँ कर सकती हैं ? आदि अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों का परिचय तलस्पर्शी अध्ययन और मननके बाद ही सम्भव है । शिल्पकी आत्मा वास्तुशास्त्रमें निवास करती है । परन्तु जैन शिल्पका यदि अध्ययन करना हो तो हमें बहुत कुछ अंशोंमे इतर साहित्यपर निर्भर रहना पड़ेगा, कारण कि जैनोंने जो शिल्पकलाको प्रस्तरों पर प्रवाहित करने-करानेमें जो योगदान दिया है उसका शतांश भी साहित्यिकरूप देने में दिया होता तो आज हमारा मार्ग स्पष्ट और स्थिर हो जाता, Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६] जैनपुरातन अवशेष २३१ . . प्रसङ्गानुसार कुछ उल्लेख पाते हैं जिनका सम्बन्ध जैन तक्षण कलावशेषोंको अध्ययनकी सविधाके शिल्पके एक अङ्ग-प्रतिमाओंसे है। यक्ष-यक्षिणी भादि लिये, निम्न भागोंमें बाँट दें तो अनुचित न होगाःकी मूर्तियोंके निर्माणपर उनके प्रायुधोंपर कुछ प्रकाश १ मन्दिर, २ गुफाएँ, ३ प्रतिमाएँ-(प्रस्तर वाले “निर्वाणकलिका" जैसे प्रन्थ हैं पर वे धातु और काष्ठकी), ४ मानस्तम्भ, ५ अभिलेखअपूर्ण ही कहे जा सकते हैं, जो कुछ हैं वे उस समय (शिलालेख व प्रतिमालेख), ६ फुटकर । के हैं जबकि जैनसमाज शिल्पकलाकी साधनासे विमुख होचुका था या उसमें रुचिका अभाव था। १ १ मन्दिरठक्कुर' फेरूने "वास्तुसार प्रकरण" अवश्य ही किसी भी आस्तिक सम्प्रदायके लिये उसका निर्माण किया है। प्रतिष्ठादिक साहित्यमें उल्लेख पाये अपना भाराधना-स्थान होना बहुत आवश्यक है, हैं पर सार्वभौमिक उपयोगिता नहीं के बराबर है। जहाँपर आध्यात्मिक साधना की जामके। अत: जैनोंको अपने अवशेषोंका अध्ययनकर प्रकाश जैनसमाजने पूर्वकालमें पर्याप्त मन्दिरोंका निर्माण मे लानेमें जरा कष्टका सामना करना पड़ेगा, साहित्य बड़े उत्साह पूर्वक किया, जिनमेंसे कुछ तो भारतीय के अभावमे अवशेषोंसे ही शिल्पकलाका प्रकाश लेकर तक्षणकलाके उत्कृष्टतम नमूने हैं। इन मन्दिरोंकी इसी प्रकाशसे अन्याय अवशेषोंकी गवेषणा करनी रचना-पद्धति अन्य सम्प्रदायोंकी भाराधना-स्थानोंकी होगी, काम कठिन अवश्य है पर उपेक्षणीय भी तो अपेक्षासे बहुत ही उन्नत और आंशिकरूपमें स्वतन्त्र नहीं है। श्रमजीवी और बुद्धिजीवी मानव-विद्वान ही भी है। भिन्न-भिन्न प्रान्तोंमें मन्दिर पाये जाते हैं वे इन समस्याओं को सुलझा सकते हैं। अपनी पृथक्-पृथक् विशेषता रखते हैं। इनके १ ठाकुर जैनसमाजके सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थकार इतिहास प्रेमी निर्माणका हेतु भी अत्यन्त व्यापक था, वास्तुशास्त्र में सजनोंके प्रथमश्रेणी में आते हैं इनके जीवन और कार्यके आया है धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी साधनाके लिये देखें "विशाल भारत," मई जून सन् १६४७। लिये मन्दिरोंकी सृष्टि होती है। यह सिद्धान्त इतर २ परिस्थितियोंपर विचार करनेके बाद यह प्रश्न तीव्रता मन्दिरोंपर सोलहों आना चरितार्थ होता है, परन्तु से उठता है कि जैन शिल्पकलाका निशानी हों, प्राचीन जैन मन्दिरकि अवलोकनसे विटित होता जब प्रतीक मोजूद हैं तो इतिवृत्त अवश्य चाहिये। जैन है कि जैनोंने इनको लोकभोग्य-आकर्षक-बनानेका विद्वानोंको गम्भीरतासे सोचकर एक ऐसी समिति नियुक्त __ भरसक प्रयास किया था, मन्दिरोंके बाहरके भागमे कर देनी चाहिये, जो इसका अनुशीलन प्रारम्भ कर दे। जो पक्तिबद्ध अलंकरण एव शिखरके निम्न भागमे इलाहाबाद विश्वविद्यालयके अध्यापक डा. प्रसन्नकुमार जो भिन्न-भिन्न शिल्पके स्थान हैं उनमे तात्कालिक प्राचार्य और पटना वाले डा. विद्यापद भट्टाचार्य लोक जीवनकं तत्त्व कहीं-कहीं खोदे गये है। शिखर भारतीय शिल्प स्थापत्यकला और एतद्विषयक साहित्यके निर्माणकलाको तो जैनोंकी मौलिक देन कहें तो कुछ गम्भीर विद्वान् है । इनसे भी लाभ उठाना चाहिये। है कि जिन जिन प्रकारके शिल्पोल्लेख साहित्य में श्राए आज भी गुजरात-काठियावाड़में सोमपुरा नामक हैं वे पायाणपर कहा कैसे और कब उतरे है, इनका एक जाति है जिसका प्रधान कार्य ही शास्त्रोक्त शिल्प- प्रभाव विशेषतः किन किन प्रान्तोंके जैन अवशेषोपर विद्याके संरक्षण एव विकासपर ध्यान देना है। ये पड़ा है, बादम विकास कैसे हुआ, अजेनसे जैनोंने और प्राचीन जैन शिल्प स्थापत्य के भी विद्वान् और क्रियात्मक जैनसे अजेंन कलाकारोंने क्या लिया दिया आदि बातोंअनुभवी है। इन लोगोंकी मददसे एक आदर्श जैन का उल्लेख सप्रमाण, सचित्र होना चाहिये। काम निःसंदेह शिल्पकला-सम्बन्धी अन्य अविलम्ब तैयार हो ही जाना अमसाध्य है पर असम्भव नहीं है, जैसा कि अकर्मण्य चाहिये । इममें इन बातोंका ध्यान रखा जाना अनिवार्य मान बैठते हैं। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ अनेकान्त [वर्ष ९ अंशोंमें अनुचित नहीं । पश्चिम भारतके प्रायः तमाम कहा कि आपका कार्य त्रुटिपूर्ण है क्योंकि इनमें जैन मन्दिरोंके शिखर एक ही पद्धतिके हैं । अन्य प्रान्तोंमें मन्दिरोंकी पूर्णतः उपेक्षा कीगई है जो कलाकौशलमें यहाँके प्रान्तीय तत्वोंका प्रभाव है। गर्भगृह, नव. किसी दृष्टिसे प्रकाशित चित्रोंसे कम नहीं पर बढ़कर चौकी, सभामण्डप आदिमें अन्तर नहीं, परन्तु हैं। वह कहने लगी मैं करूँ क्या मुझे जो सामग्री मन्दिर में गर्भगृहके अग्रभागमें सुन्दर तोरण, स्तम्भ मिली है उसके पीछे कितना श्रम करना पड़ा है एवं तदुपरि विविधवाद्यादि सङ्गीतोपकरण धारक आप जानते हैं। पुतलियाँ, उनका शारीरिक गठन, अभिनय, आभूषण मैं तो बहत ही लजित हुआ कि आजके युगमें तथा शिखरके ऊपरके भागमें जो अलङ्करण है उनमें भी हमारा समाज संशोधकको न जाने क्यों घृणित प्रान्तीय कलाका प्रभाव पाया जाना सर्वथा स्वाभविक दृष्टि से देखता है। मेरे लिखनेका तात्पर्य इतना ही है है। जैनमन्दिरोंके निर्माणका सब अधिकार सोम- AMA र साम• कि हमारी सुस्ती हमे ही बुरी तरह खाये जारही है, पुराघोंको था, वे आज भी प्राचीन पद्धतिके प्रतीक इस तो दःख होता है। न जाने आगामी सांस्कृतिक है, जिनमें भाई शङ्कर भाई और प्रभाशङ्कर भाई, निर्माणमे जैनोंका जैसा योगदान रहेगा. वे तो अपने नर्मदाशङ्कर आदि प्रमुख हैं। पं० भगवानदास जैन ही इतिहास के साधनोंपर उपेक्षित मनोवृत्ति रक्खे हुए भी शिल्पविद्याके दक्ष पुरुषोंमे हैं। श्राबू, जैसलमेर, है। जैन मन्दिगॅमेसे जो भरतीय शिल्प और वास्तुराणकपुर, पालिताना, खजुराहा. देवगढ़ और श्रवण- कलाको सिमानामविकास बेलगोला. जैनकाची, पाटन आदि अनेक नगरीक तैयार होना चाहिए जिसमे मन्दिर और उनकी कला मन्दिर स्थापत्यकलाके मुखको उज्ज्वल करते है । के क्रमिक विकासपर आलोक डालने वाला विस्तृत आबूके तोरण-स्तम्भ और मधुच्छत्र भारतमे विख्यात पानविकीदा। है। मध्यकालीन जैन शिल्पकलाके विकासके जो उदाहरण मिले हैं उनमें अधिकांश जैनमन्दिर ही है। २ गुफाएं--- इनके क्रमिक इतिहासपर प्रकाश डालने वाला एक जिस प्रकार मन्दिरोंकी संख्या पाई जाती है उतनी भी अन्य प्रकाशित नहीं हुआ, जिससे अजैनकला गुफाओंकी सख्या नहीं है गुफाओंको यदि कुछ प्रेमी भी जैनकलासे लाभान्वित होसकें । यह इतिहास प्रशोंमे मन्दिरोंका अविकमितरूप माने तो अनुचित तैयार होगा तब बहुतसे ऐसे तत्व प्रकाशमें भावेंगे , ग नहीं, यह रामटेक, चांदवड, एलोरा, ढङ्क आदि जो आज तक वास्तुकलाके इतिहासमे आये ही नहीं। पर्वतोत्कीर्ण गुफाघोंसे प्रमाणित होता है। इनका न जाने उस स्वर्ण दिनका कब उदय होगा? इतिहास तो पूर्णान्धकाराच्छन्न है, जो कुछ गजेटियर्स कलकत्ता-विश्वविद्यालयकी ओरसे हाल हीमें और आंग्ल पुरातत्त्ववेत्ताओंने लिखा है उसीपर "हिन्दु टेम्पिल" नामक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ दो माधार रखना पड़ता है। इनमे एक भूल यह होगई भागोंमें प्रकाशित हुआ है जिसे एक हंगेरियन स्त्री है कि बहुसंख्यक जैन गुफाएँ बौद्धस्थापत्यावशेषोंके डॉ. स्टेलाक्रमशीशने वर्षों के परिश्रमसे तैयार किया रूपमें आज भी मानी जाती है। उदाहरणके लिये है। इसमें भारतवर्षके विभिन्न प्रान्तोंमे पाये जाने राजगृहस्थित रोहिणेयकी ही गुफा लीजिये, जो बाले प्रधानतः हिन्दूमान्य मन्दिर, उनका वास्तुशास पांचवें पहाइपर अवस्थित है। जनता इसे "सप्तपर्णी की दृष्टि से विवेचन, मन्दिरों में पाई जाने वाली अनेक गुफा" के रूपमें पहचानती है आश्चर्य तो इस बात शिल्पकृतियोंके जो चित्र प्रकाशित किये है वे ही उन का है कि पुरातत्त्व विभागकी ओरसे बोड भी वसा की महत्ताके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। मैंने अपनी परिचिता ही लगा है। और भी ऐसे अनेक जैन सांस्कृतिक डॉ० स्टेलाकेमशीशसे यों ही बातचीतके सिलसिलेमे प्रतीक मैंने देखे हैं जो इतर सम्प्रदायोंके नाम Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६] जैनपुरातन अवशेष २३३ से सम्बद्ध हैं। थे । ऐसी स्थितिमे लोग व्याख्यानादि औपदेशिक गुफाओंका निर्माण जिन विशेष परिस्थितियोंमें वाणीका अमृतपान करने के लिये जङ्गलोंमे जाया करते थे किया गया था वे तत्त्व ही आज विलुप्तप्राय हैं। आध्या- जैसाकि पौराणिक जैन पाख्यानोंसे विदित होता है त्मिक साधनाके उन्नत पथपर अग्रसर होने वाली जिनमन्दिरकी आत्मा-प्रतिमाएँ भी नगरके बाहिर भव्यात्माएँ यहाँपर निवास कर, दर्शनार्थ आकर गुफाओंमे अवस्थित रहा करती थीं। ऐसी स्थितिमें अपूर्व शान्तिका अनुभव कर आत्मिकतत्त्वके रहस्य सहजमे कल्पना जागृत हो उठती है कि या तो दोनोंके तक पहुँचनेका शुभ प्रयाम करती थीं, प्राकृतिक वायु- लिये म्वतन्त्र स्थान रहे होंगे या एक हीमें दोनोंके मण्डल भी पूर्णतः उनके अनुकूल था, स्वाभाविक लिये पृथक् पृथक् ग्थान रहे होंगे, मैने कुछ गुफाएँ शान्ति ही चित्तवृत्तियोंको स्थिरकर एक निश्चित मार्ग ऐमी देखी भी है। प्राचीन मन्दिरके नगर बाहर की ओर जानेके लिये इगित करती है। इनमें बनाए जाने का भी यही कारण है । मेवाड़ादि प्रदेशोंमें उत्कीणित विशालकाय ध्यानावस्थित जिन-प्रतिमाएँ जो जैन मन्दिर जङ्गलोंमे बहुत बड़ी संख्यामे उपलब्ध प्रत्येक दर्शनार्थीको एक बहुन बड़ा अनुपम सौंदर्य होते है वे गुफाओंकी पद्धतिके अवशेषमात्र है। वहाँ देती है, राग, द्वेष, मद, प्रमाद तथा आत्मिक प्रवच- ताला वगैरह लगानेकी आवश्यकता ही क्या थी? नाओंसे बचने के लिये, शुन्यध्यानमे विरत होनेमे जो क्योंकि वहाँ न तो श्राभूषण थे और न वैसी संपत्ति साहाय्य देती हैं वह अन्यत्र कहाँ ? कुछ गुफाएँ तो के लूट जानेका ही कोई भय था, यह प्रथा बड़ी अनक जिनमूर्ति एवं तदङ्गीभूत समस्त उपकरणोंसे सुन्दर और सर्व लोगोंके दर्शनके लिये उपयुक्त थी। सुसज्जित दृष्टिगोचर होती है जिनको देखनेसे अव- प्राज दशा भिन्न है। यही कारण है कि आज निवृत्ति भासित होता है कि मानो यहाँ शिल्पकला उन प्रधान जैन मंस्कृतिका प्रवाह रुक-सा गया है। कलाकारोंकी जीवित छैनीका तीव्र परिचय करानी है प्राचीन गुफाओंमें उदयगिरी खण्डगिरी, अइहोल कथनका तात्पर्य यह कि मानवोंके दैनिक जीवन और सित्तनवासल............ चांदवाड़, रामटेक, एलूरा। उनके प्रति औदासीन्यभावोंकी प्रेरणात्मक जागृति इन गुफाओंसे मानना होगा कि दशम शती तक कराने वाले सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्वोंका ममीकरण दृष्टि- सात्विक प्रथाका परिपालन होता था) ढागिरी, गोचर होता है। मानवके उन्नत मस्तिष्कक चरम जोगीमारा, गिरनार आदि विभिन्न प्रान्तोंमे पाई विकासका जीवन प्रतीक हमें वहाँ दीखता है। जाने वाली हाति प्राचीन और भारतीय तक्षणकलाकी इन गुफाओंके दो प्रकार किसी समय रहे होंगे उत्कृष्ट मौलिक सामग्री है। गुफाओंके सौन्दय अभिया एक ही गुफामें दोनोंका समावेश हुआ होगा, वृद्धि करनेक ध्यानमे जोगीमाग, मिननवास आदि कारण कि जैनोंका सांस्कृतिक इतिहाम हमे बताता है में चित्रांका अङ्कन भी किया गया था, इन भित्तिकि पूर्वकालमे जैनमुनि अरण्यमें ही निवाम करते थे चित्रांकी परम्पराको मध्यकालम बहुत बड़ा बल मिला, कंवल भिक्षार्थ-गोचरीके लिये ही नगरमे पधारते भारतीय चित्रकला विशारदोका नो अनुभव है कि १ राजगृहम शालिभद्रका एक सुन्दर विशाल निर्माल्यकृप' आज तक किमी न किसी रूपमे जैनोन भित्तिचित्र है जिस अाजकल "मगिमारम" कहते हैं। मणिनाग परम्पराके विशुद्ध प्रवाहको आज तक कुछ प्रशतक नामक काई बोद्ध महन्त थे, अत: उनके नामके साथ यह सुरक्षित रखा है। प्राचीन स्मारक जुट गया, सास्कृतिक पतनका इसमे बढ़ ता०८-३-४८को शान्तिनिकेतनमे कलाभवनके कर और क्या उदाहरण मिल सकता है। भारतमें ऐसे प्राचार्य और चित्रकलाके परम मर्मज्ञ श्रीमान् नन्दस्मारक बहुत हैं, विद्वान लोग प्रकाश डालें । मुगलकाल लालजी बोमको मैंने अपने पासकी हस्तलिखित जैन की मस्जिदे पूर्वमे जैन मन्दिर थे । सचित्र कृतियाँ एवं बड़ौदा निवासी श्रीमान् डॉ० Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ अनेकान्त [ वर्ष ९ - अंशोंमें अनुचित नहीं। पश्चिम भारतके प्रायः तमाम कहा कि आपका कार्य त्रुटिपूर्ण है क्योंकि इनमें जैन मन्दिरोंके शिस्त्रर एक ही पद्धतिके है । अन्य प्रान्तोंमें मन्दिरोंकी पूर्णतः उपेक्षा कीगई है जो कलाकौशलमें वहाँके प्रान्तीय तत्त्वोंका प्रभाव है। गर्भगृह, नव- किसी दृष्टिसे प्रकाशित चित्रोंसे कम नहीं पर बढ़कर चौकी, सभामण्डप आदिमे अन्तर नहीं, परन्तु है। वह कहने लगी मैं करूँ क्या मुझे जो सामग्री मन्दिरमे गर्भगृहके अप्रभागमे सुन्दर तोरण, स्तम्भ मिली है उसके पीछे कितना श्रम करना पड़ा है एवं तदुपरि विविधवाद्यादि सङ्गीतोपकरण धारक आप जानते हैं। पतलियाँ. उनका शारीरिक गठन, अभिनय, आभूषण मैं तो बहत ही लजिन हा कि आजके युगमें तथा शिखरके ऊपरके भागमे जो अलङ्करण है उनमें भी हमारा समाज सशोधकको न जाने क्यों घृणित प्रान्तीय कलाका प्रभाव पाया जाना सर्वथा स्वाभविक दृष्टि से देखता है । मेरे लिखनेका तात्पर्य इतना ही है है। जैनमन्दिरोंके निर्माणका मब अधिकार सोम- कि हमारी सुस्ती हमे ही बुरी तरह खाये जारही है, A पराको था. वे आज भी प्राचीन पद्धति के प्रतीक इससे तो दःख होता है। न जाने आगामी साकृतिक है. जिनमे भाई शङ्कर भाई और प्रभाशङ्कर भाई, निर्माणमे जैनोंका जैसा योगदान रहंगा. वे तो अपने नमेदाशङ्कर आदि प्रमुख है। प० भगवानदास जैन ही इतिहामक साधनोंपर उपेक्षित मनोवृत्ति रक्खे हए भी शिल्पविद्याकै दक्ष पुरुषोंमे है । आबू, जैसलमेर, है। जैन मन्दिरीमेसे जो भरतीय शिल्प और वास्तराणकपुर, पालिताना, खजुराहा, देवगढ़ और श्रवण- मला निपटानका एक man तैयार होना चाहिए जिसमे मन्दिर और उनकी कला मन्दिर स्थापत्यकलाके मुखको उज्ज्वल करते है। के क्रमिक विकासपर आलोक डालने वाला विस्तृत आबूके तोरण-स्तम्भ और मधुच्छत्र भारतमे विख्यात प्रास्ताविक भी हो। है । मध्यकालीन जैन शिल्पकलाकं विकासके जो उदाहरण मिले हैं उनमे अधिकांश जैनमन्दिर ही है। २ गुफाए--- इनक क्रामक इतिहासपर प्रकाश डालन वाला एक जिस प्रकार मन्दिरोंकी संख्या पाई जाती है उतनी भी प्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ, जिससे अजैनकला. गुफाओंकी संख्या नही है गुफाओंको यदि कुछ प्रेमी भी जैनकलासे लाभान्वित होसकें । यह इतिहाम अशोम मन्दिरोंका अविकसितरूप माने तो अनुचित तैयार होगा तब बहुतसे ऐसे तत्त्व प्रकाशमे आवेगे नहीं, यह रामटेक, चाँदवड, एलोरा, ढक आदि जो आज तक वास्तुकलाके इतिहासमे आये ही नहीं। पर्वतोत्कीर्ण गुफाओंसे प्रमाणित होता है। इनका Mina न जाने उस स्वण दिनका कब उदय होगा? इतिहास तो पर्णान्धकाराच्छन्न है, जो कुछ गजेटियर्स कलकत्ता-विश्वविद्यालयकी ओरसे हाल हीमें और आंग्ल पुरातत्त्ववेत्ताओने लिखा है सीपर "हिन्दु टेम्पिल" नामक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रन्थ दो आधार रखना पड़ता है । इनमे एक भूल यह होगई भागोंमें प्रकाशित हुया है जिसे एक हंगेरियन बी है कि बहुसंख्यक जैन गुफाएँ बौद्धस्थापत्यावशेषों के डॉ० स्टेलाक्रमशीशने वर्षों के परिश्रमसे तैयार किया रूपमे आज भी मानी जाती है। उदाहरणकं लिये है। इसमे भारतवर्षके विभिन्न प्रान्तोंमे पाये जाने राजगृहस्थित रोहिणेयकी ही गुफा लीजिये, जो वाले प्रधानतः हिन्दूमान्य मन्दिर, उनका वास्तुशास्त्र पाँचवें पहाड़पर अवस्थित है। जनता इसे "मप्तपर्णी की दृष्टिसे विवेचन, मन्दिगेमें पाई जाने वाली अनेक गुफा" के रूपमें पहचानती है आश्चर्य तो इस बात शिल्पकृतियोंक जो चित्र प्रकाशित किये है वे ही उन का है कि पुरातत्व विभागकी ओरसे बोड भी वमा की महत्ताके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। मैने अपनी परिचिता ही लगा है। और भी ऐसे अनेक जैन सांस्कृतिक डॉ० स्टेलाळेमशीशसे यों ही बातचीतके मिलसिलेमे प्रतीक मैने देखे है जो इतर सम्प्रदायोंके नाम Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६ जैनपुरातन अवशेष २३३ से सम्बद्ध है'। थे। ऐसी स्थितिमे लोग व्याख्यानादि औपदेशिक गुफाओंका निर्माण जिन विशेष परिस्थितियोंमे वाणीका अमृतपान करने के लिये जङ्गलोंमे जाया करते थे किया गया था वे तत्त्व ही आज विलुप्तप्राय है । श्राध्या- जैमाकि पौराणिक जैन आख्यानोंसे विदित होता है त्मिक साधनाके उन्नत पथपर अग्रसर होने वाली जिनमन्दिरकी प्रात्मा-प्रतिमाएँ भी नगरके बाहिर भव्यात्माएँ यहाँपर निवास कर, दर्शनार्थ श्राकर गुफाओंमें अवस्थित रहा करती थी। ऐसी स्थितिमे अपूर्व शान्तिका अनुभव कर आत्मिकतत्त्वके रहम्य सहजमे कल्पना जागृत हो उठती है कि या तो दोनोंके तक पहुँचनेका शुभ प्रयास करनी थीं, प्राकृतिक वायु- लिये स्वतन्त्र स्थान रहे होंगे या एक हीमे दोनोंके मण्डल भी पूर्णत उनके अनुकूल था, म्वाभाविक लिये पृथक पृथक स्थान रहे होंगे, मैने कुछ गुफाएँ शान्ति ही चित्तवृत्तियोको स्थिरकर एक निश्चित मार्ग ऐमी देखी भी है। प्राचीन मन्दिरके नगर बाहर की ओर जानके लिये इगित करती है। इनमें बनाए जानका भी यही कारण है । मेवाडादि प्रदेशोंमे उत्कीणित विशालकाय ध्यानावस्थित जिन-प्रतिमाएं जो जंन मन्दिर जगालोमे बहुत बड़ी सख्याम उपलब्ध प्रत्येक दर्शनार्थीको एक बहुत बड़ा अनुपम मौदर्य होते है वे गुफाओंकी पद्धतिक अवशेषमात्र है । वहाँ देनी है, राग, द्वेष, मद, प्रमाद तथा आत्मिक प्रवञ्च- ताला वगैरह लगानेकी आवश्यकता ही क्या थी? नाओंसे बचने के लिये, शुन्यध्यानम विरत होनम जो क्योंकि वहाँ न तो श्राभूषण थे और न वैमी मपत्ति साहाय्य देती है वह अन्यत्र कहाँ ? कुछ गुफाएं तो कं लूट जानका ही कोई भय था, यह प्रथा बड़ी अनेक जिनमुर्ति एवं तदङ्गीभूत ममम्त उपकरणोंसे सुन्दर और सर्व लोगोंके दर्शनके लिये उपयुक्त थी। सुसज्जित दृष्टिगोचर होती है जिनको देखनम अव- आज दशा भिन्न है। यही कारण है कि आज निवृत्ति भामित होता है कि मानी यहां शिल्पकला उन प्रधान जैन मस्कृतिका प्रवाह रुक-सा गया है। कलाकारोंकी जीवित छैनीका तीव्र परिचय कराती है प्राचीन गुफाओंमें उदयगिरी खण्डगिरी, अइहोल कथनका तात्पर्य यह कि मानवोंके दैनिक जीवन और मित्तनवासल ......... - चाँदवाड़, रामटेक, एलूग। उनके प्रति औदासीन्यभावोंकी प्रेरणात्मक जागृति इन गुफाओस मानना होगा कि दशम शती तक कराने वाले सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्वोंका ममीकरगा दृष्टि- सात्विक प्रथाका परिपालन होता था) ढगिरी, गोचर होता है। मानवकं उन्नत मस्तिष्ककं चरम जोगीमाग, गिरनार आदि विभिन्न प्रान्तोंमे पाई विकासका जीवन प्रतीक हमे वहाँ दीखता है। जाने वाली हानि प्राचीन और भारतीय तक्षणकलाकी इन गुफाओंके दो प्रकार किसी ममय रहे होंगे उत्कृष्ट मालिक मामग्री है। गुफाओं मौन्दय अभिया एक ही गुफामे दोनोंका समावेश हुअा होगा, वृद्धि करनेके ध्यानम जोगीमाग, मिनन्नामल्ल आदि कारण कि जनोंका साम्कृतिक इनिहाम हम बनाना है में चित्रांका अङ्कन भी किया गया था, इन भित्तिकि पूर्वकालम जैनमुनि अरण्यमे ही निवास करने थे चित्रोंकी परम्पराको मध्यकालमें बहुत बडा बल मिला, कंवल भिक्षार्थ-गाचरीकं लिय-ही नगरम पधारने भारतीय चित्रकला विशारदांका नो अनुभव है कि १गजगृहमे शालिभद्रका एक मन्दर विशाल निर्माल्यका आज तक किसी न किसी रूपम जनांन भित्तिचित्र है जिसे अाजकल "मगिमारम" कहते हैं। मांगनाग परम्पगके विशुद्ध प्रवाहको आज तक कुछ अशतक नामक काई बाद महन्त थ अत: उनके नामके साथ यह मक्षित रग्या है । प्राचीन स्मारक जुट गया, सास्कृतिक पतनका हममे बढ ता०८-३-४८को शान्तिनिकेतनमे कलाभवनके कर ओर क्या उदाहरण मिल मकता है। भारतमें ऐमे श्राचार्य और चित्रकलाके परम मर्मज्ञ श्रीमान् नन्नस्मारक बहुत हैं, विद्वान लोग प्रकाश डालें । मुगलकाल । लालजी बोमको मैंने अपने पासकी हस्तलिखित जैन की मस्जिदे पूर्वम जैन मन्दिर थे । सचित्र कृतियाँ एव बड़ोदा निवामी श्रीमान् डॉ. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ अनेकान्त मंजूलाल भाई मजूमदार द्वारा प्रेषित दुर्गासप्तशती के मध्यकालीन चित्र बतलाये, उन्होंने देखते ही इनकी कला और परम्परापर छोटासा व्याख्यान दे डाला जो आज भी मेरे मस्तिष्कमे गुञ्जायमान होरहा है । उसका सार यही था कि इन कलात्मक चित्रोंपर एलोराकी चित्र और शिल्पकलाका बहुत प्रभाव है। जैन-शैली के विकासात्मक तत्वोंका मूल बहुत अशोमें एलोरा ही रहा है। चेहरे और चक्षु तो सर्वथा उनकी देन है । रङ्ग और रेखाओं पर आपने कहा कि जिनजिन रङ्गोंका व्यवहार एलोरा के चित्रों हुआ है व ही रङ्ग और रंग्याएँ आगे चलकर जैन-चित्रकलामे विकसित हुई। यह तो एक उदाहरण है इमीमे समझा जा सकता है कि जैन- चित्रकलाकी दृष्टिसे भी इन स्थापत्यावशेषोंका कितना बड़ा महत्व हैं जिनकी हम भूलते चले जारहे है । ज्यों-ज्यों सामाजिक और राजनैतिक समस्याएँ खड़ी होती गई या स्पष्ट कहा जाय तो विकमित हाती गई त्यों-त्यों पर्वता गुफाओंका निर्माण कम होता गया और आध्यात्मिक शान्तिप्रद स्थानों की सृष्टि जनावास - नगरी में होने लगी । इतिहास इसका साक्षी है । मेरा तो वैयक्तिक मानना है कि इससे हमारी क्षति ही हुई, स्थानोंको अभिवृद्धि अवश्य ही हुई परन्तु वह आत्मविहीन शरीरमात्र रह गई । प्रकृतिसं जा सम्बन्ध स्थापित था वह रुक गया, जो आनन्द कुटिया मे -- जहाँ श्रावश्यकताओं की कमी पर ही ध्यान दिया जाता था है वह महलोंम कहाँ ? स्व० महात्माजीका निवास इसका प्रतीक है शान्तिनिकेतनमें मैंन महात्माजीका निवास स्थान देखा, दूर से विदित होता है मानो कोई गुफा बनी हुई है, भारी व्यवस्था भी पूर्व स्मृतिका स्मरण करा देती हैं। + [ वर्ष ९ कलापर विस्तृत विवेचनात्मक प्रकाश डालनेवाला विवरण एवं महत्वपूर्ण भागोंके चित्र देकर एक ग्रन्थ प्रकाशित किया जाना चाहिए। यह इतिहास हमारी संस्कृति के महत्वपूर्ण अङ्ग जो देवस्थान, मुनिस्थान हैं उनके विकासपर बहुत बड़ा प्रकाश डालेगा। भारतीय पुरातत्त्व विभाग के डिप्टी डायरेक्टर जनरल श्रीमान् हरगोविन्दलाल श्रीवास्तव जैन- गुफाओं पर काम करनेवाले जैन विद्वानोंकी खोज मे है वे हर तरहसे सहायता प्रदान करनेको कटिबद्ध भी है, जैनाको ऐसा सुअवसर हाथसे न जाने देना चाहिए। अस्तु । ३ प्रतिमाएं -- निम्न उपविभागोंमें विभाजितकी जा सकती है: (अ) तीर्थकरों की प्रस्तर प्रतिमाएँ (आ) तीर्थकरों की धातु प्रतिमाएँ (इ) तीर्थंकरों की काष्ठ प्रतिमाएँ (ई) यक्ष-यक्षिणीकी प्रतिमाएँ (3) फुटकर (अ) प्रथम भागको हम अपनी अधिक सुविधा के लिये दो उपभागों में बाँटेंगे। उपर्युक्त पक्ति कथित (?) साधन हमारी संस्कृति के वास्तविक रूपको प्रकट करते है। भारतीय स्थापत्यकलाका चरम विकास उन्हीं में अन्तर्निहित है । परन्तु जैननि अपनी इस निधिको आजतक उपेक्षित वृत्तिसे देखा । मैं तो चाहता हूँ अब समय आगया है इन गुफाओंका बिस्तृत अध्ययन कर उनकी शिल्प १ मथुराकी प्रतिमास लगाकर १०वीं शती तक की समस्त पापा प्रतिमाएं एव प्रयाग पट्ट मिले है उनका महत्व सर्वोपरि है। प्राप्त जैन प्रतिमाश्रमे यहाँके ककाली टीले प्राप्त प्रतिभाएँ एव अन्य जैनावशेष सत्र प्राचीन है। मूर्तिका आकार-प्रकार भी अच्छा ही है। गुप्तोंके समयमे मूर्ति निर्माणकलाकी धारा तीव्रगति से प्रवाहित होरही थी। बौद्धोंने इससे खूब लाभ उठाया, क्योंकि उस समयका वायुमण्डल अनुरूप था। नालदाको अभी ही गत मास मुझे देखनेका सुअवसर प्राप्त हुआ था, यहॉपर जो जैन प्रतिमाएँ अवस्थित है व मथुराके बाद बनने वाली प्रतिमा श्रमे उच्च है, गुप्तकालीन कलाका प्रभाव उनपर‍ बहुत अधिक पड़ा है। इनके सम्मुख घण्टों बैठे राह मन बड़ा प्रसन्न होकर आध्यात्मिक शक्तिका अनुभव करने लगता है। शुभ परिणामांकी धारा बहने लगती है । अनेकों सात्विक विचार और परम वीतराग परमात्मा के जीवन के रहस्यमय तत्त्व मस्तिष्कमे Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६] जैनपुरातन अवशेष २३५ चक्कर लगाते रहते है। विहार प्रान्त प्राचीन जैन उपस्थितकी जा सकती है। कही-कहीं तो आधा भाग प्रतिमाओंका विशाल केन्द्र रहा मालूम होता है। ही है। जैनोंकी बेदरकारीके कारण न जाने संस्कृति कुण्डलपुर, राजगृह, विहार, पटना, लछबाड़ आदि को कितना नुक्सान उठाना पड़ेगा, इस बातका कुछ नगरोंमे मैने प्राचीन और प्रायः एक ही पद्धतिकी अनुभव जैनोंको करना चाहिए। २५-३० प्रतिमाएँ (गुप्त और अन्तिम गुप्तकालीन) मुझे यहाँपर बिना किसी अतिशयोक्तिके साथ देवी है। इनपर मेरा तो मत और भी दृढ़ होगया कहना चाहिए कि उपर्युत्त वर्णित जैन-प्रतिमाएँ गुप्तहै कि भारतम जैन और बौद्ध दो ही ऐसे लोक कालीन बौद्ध मूर्तियोंस संतुलित की जा सकती हैं। कल्याणकारी सम्प्रदाय है जिनकी प्रतिमाओंके सामने इस युगमे प्रतिमाएँ एक पापाणपर उत्कीर्णकर चारों बैठनमें अत्यधिक आनन्दका अनुभव होता है। और काफी रिक्त स्थान छोड दिया जाता था। इस विशुद्ध भावोंकी सृष्टि होती है । अद्गत प्रेरणा युगकी जो प्रतिमाएं प्राप्त होती है उनमे श्वेताम्बर मिलती है। दिगम्बरका कोई भेद भी पाया नहीं जाना, मालम वक्त कालकी जो देखनेमे प्रतिमा आई उनपर होता है ज्या-ज्यों साम्प्रदायिकता बढी त्या-त्यों लेग्व बहुत ही कम मिलते है, जो है वे बौद्धनोटी “ये शिल्पम विकृति आने लगी। धम्मा" है, कारण कि ५०वी शती पूर्व वैमी पृथा ही २इम विभागम वे मूर्तियां रखी जा सकती हैं कम थी । लान्छन भी सम्भवत: नहीं मिलते, कंवल जो १८वी शताब्दीकी है। उत्तरकालमे ००० वर्पोतक पार्श्वनाथ ऋषभदेव ( कंशावली और कभी-कभी तो कलाकागेंके हृदय, मस्तिष्क और हाथ बराबर वृपभका चिह्न कही मिल जाता है) इन नीथेकरांक कलात्मक मृजनमें लगे रहे, पर बादमे तो केवल हाथ चिह्न ना मिलते है पर अन्य नहीं मिलते, परन्तु ही काम करते रहे। न मस्तिष्कम विविध उदात्तभाष लॉछन स्थानपर दोनों मृगांक बीच "धर्मचक्र" रहन हृदय ही सात्विक था और न उनके प्रमों में मिलता है जिसे बहतसे लोग मुन्दर .मलाकृति वह शक्ति रह गई थी जो सीव यानि निर्मित कर मम बैठते है। मके। ऐमी स्थिति कला-कौशल की धारा शुष्क हो ____एक हाटस जैन प्रतिमाओंका यह मौलिक चिर गई, यही कारण है कि बादकी अधकांश मुनियाँ है। यह जैन धर्मका प्रधान और परम पवित्र प्रतीक कलाविहीन और भद्दी मालुम देती है। हाँ' कलचूरी, है । प्रथम तीर्थकर ऋपभदेव स्वामीजीन इमकी पाल, गङ्ग और चालुक्यां आदिक शासन-कालकं कुछ प्रवर्तनाकी थी और बादमे ईस्वी पूर्व ३-५ शदीम अवशंप एम है जिनके दर्शन कला-ममीक्षक सन्तुष्ट जैनोंम बौद्धान इम चिह्नको अपना लिया, अशोकन हो मकता है। १३वीं शतीक अनन्तर मृतियाँ प्रायः इस जिन शिल्प स्थापत्योंम स्थान दे दिया व प्रकाशम धार्मिक दृष्टिसे ही महत्वकी रहीं, कलाकी दृष्टिम नहीं। आगये और जैन अवशेप दबे पड रह, अतः पुगनत्व मुझं इसके दो प्रधान कारण मालूम होते हैं। प्रत्येक विभाग और भारत मरकारके प्रधान कार्यकर्ताओंन राष्ट्रकी राजनीतिका प्रभाव भी उसकी मभ्यता और इस अशोककी मौलिक कृत्ति मानकर गध्वजपर भी मस्कृतिक विकाममं महत्वका भाग रखता है। १३वीं स्थान दे दिया, निष्पक्षपात मनोभावाम यदि देवे शतीके बाद भारतकी राजनैतिक स्थिति और विशेपतो मानना होगा कि धर्मचक्र जैन मस्कृतिकी मुख्य कर जहाँ जैनांका अधिकाश भाग रहता था वहाँकी वस्तु है । इसका प्रधान कारण यह भी है कि गुप्त नो स्थिति अत्यन भीपण थी । विदेशी आक्रमण या अन्तिम गमकालक अनन्तर भी प्रतिमाओंम और प्रारम्भ होगये थे, जान-मालकी चिन्ता जहाँ मवार विशेषकर धानुकी मूतियोंमे धमचक्रका बगवर स्थान हो वहाँ कलात्मक मृजनपर कौन ध्यान देता है? रहा है। हजारों प्रतिमाएँ इमके उदाहरण म्वरूप ऐसी स्थितिमे पापाएकी प्रतिमाकी अपेक्षा लघुनम Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ भनेकान्त | वर्ष ९ धातु-मृतियोंका निर्माण अधिक होने लगा जो गृहमे मिली है। चौबीसी भी प्राप्त है। उत्तर भारत और भी आसानीसे रखी जा सकती है। दमवीं शतीक दक्षिण भारतकी क्लामे जो पार्थक्य पाया जाता है बादकी प्रतिमाएँ आजतक बहुत ही कम प्रकाशमे वह स्पष्ट है। प्रभावलीसे ही दोनोंका पार्थक्य स्वयं आई हैं । मध्यप्रान्तमे जबलपुर, धुनमौर, सिवनी होजाता है । इसमें लेख भले ही न हों पर दूरसे पता आदि नगरोंमे इस युगकी प्रतिमा-सामग्री है। १६वीं चल जाता है। घंटाकृति आमन और साँचीके तोरण शताब्दीम जीवराज पापडीवाल ने तो गजब ढा दिया, की आकृतियाँ कहीं-कहीं-है जो अन्तिम गुप्तकालीन हजागे प्रतिमाएँ तो श्राजतक मै देख चुका हूँ । इनके बौद्धकलाकी देन हैं। १३वीं शताब्दी तक तो धातु द्वारा प्रतिष्ठित मृतियाँ तो दूरसे ही पहचानी जाती है। मर्तियों के निर्माणपर जैनोंने खब सावधान होकर हाँ, इस युगकी प्रतिमाओंपर लेख खूब विस्तृतरूपसे ध्यान दिया, परन्तु बादको तो जो दशा हुई उसको मिलते हैं। जो मूर्तियाँ मिली हैं वे स्वतन्त्र फलकपर आज देखते हैं तो बड़ा दुःख होना है। परिकर युक्त इसप्रकार बनाई है कि मानो आगे स्थान ही नहीं प्रतिमाएँ तो पापागण और धातुकी और भी मिली है। रहा । कहने का तात्पर्य यह है कि परिकरवाली इन दिनोंम तो परिकारको इस प्रकार विस्तृत कर प्रतिमाएँ कम मिली है । जो है व ११से १३वी शती दिया कि मृतिक मूल भावोंकी रक्षाकी कोई चिन्ता तककी ही सुन्दर है। पूर्वकालमे परिकरके स्थानपर नहीं रक्खी । जो स्वतत्र धातुविम्ब विशालकाय प्रायः प्रतिमा या चामरादि लिये परिचायक, छत्र निर्मित हय व नि:मन्दह अच्छे है। चामदिसे विभूपित देव है-अष्ट प्रातिहारिज है। १०वी ११वी शती पूर्वक जिनविम्बोंको जिम ३ (आ) इस श्रेणीम वे मतियाँ आजाती हैं जो प्रकार अग्रभागपर ध्यान देकर सुन्दर बनाया जाता सप्तधातुओंसे बनी है। इसप्रकारकी प्रतिमाएँ पाषाण है पर पश्चान भाग खरखरा ही रहने दिया जाता था की अपेक्षा सुरक्षा और कला-कौशलकी हटिस अधिक पर बादमे ५३वी शती बाद तो वह भाग बहुत प्लैन उपयोगी है । पाषाणकी प्राचीन प्रतिमाएँ देखते है तो दीखता है कारण कि लेख यहीं खोदे जाते है । कही. कहीं पपड़ी खिर जाती है या जमीनमे खुदाईके समय कही पीछे भी चित्रोत्कीणित है । १ स्वर्ण और २ रजत खण्डित होजाती है। धातुमूर्तिको कोई स्वर्णके लोभ की प्रतिमा भी देखने आती हैं। १५वी शती तक से गला भले ही दे ...." .. " पर खण्डित नहीं कर यह प्रथा चली। माधारण जैन जनताम मूति विषयक मकता । कलाकारको भी इनके निर्माणमे अपेक्षाकृत ज्ञान कम होनसे बड़ा नुम्मान होरहा है। बहुत ही कम श्रम करना पड़ता है। क्योकि ये ढाली जाती थीं। सुन्दर हममुग्व मृतिको लोग तुरन्त कह डालते है यह धातुमृतियोंका इनिहाम तो बहुत ही अन्धकारमे है। तो बौद्ध प्रतिमा है। वर्धा जिलान्तगत श्रावकि जैन यदपि कुछेक चित्र अवश्य ही प्रकट हुए है पर उनकी मन्दिरम मैनं १२वी शताब्दीकी उत्तर भारतीय कला सार्वभौमिक व्याप्तिका पता उनसे नहीं चलता। की अत्यन्त सुन्दर जैन प्रतिमा एक कोनेमे-जिसपर पीडवाड़ा और महुडीमें जो जैन धातुप्रतिमाएँ प्राप्त काफी धूल जमी हुई थी-पड़ी देवी थी, मैंने वहाँक हो चुकी है वे कला-कौशलके श्रेष्ठ प्रतीक है और गुप्त- खडेलवाल भाइयोमं कहा कि यह मामला क्या है ? कालकी बताई जाती है। इनके बादकी भी मतियाँ वे कहने लगे प्रथम तो हम इसे पूजाम रग्बते थे मिली अवश्य है पर उनम धातुकी मफाई अच्छी नहीं पर जबसे इसके बौद्ध होने का हमे पता चला तभीमे पाई जाती है और न उनका मौष्ठत्व ही आकर्षक हमने कोनेमे पटक रक्खी है । यह हालत है। बीकानेर है। वीं शती पूर्व की प्रतिमाएँ एक माथ पाँच या के चिन्तामणि पाश्वनाथमन्दिरके गर्भगृहमे १००० तीन जुड़ी हुई मिली है। यों तो ११वी १२वीं शताब्दी धातु प्रतिमा है, जिनमे कलाकी दृष्टि से बहुमूल्य मे नवग्रह युक्त, शासनदेव-देवी सहित अधिक मूर्तियाँ भी है। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६] जैनपुरातन अवशेष २३७ उनपर इस दृष्टिसे आजकल किमीने अध्ययन जिनके परिकर या पासमे एक ही चट्टानपर अधिष्ठाकरनेका कष्ट नहीं उठाया, मुना है वहाँ जैनोंकी यक खुद हुए हैं। परन्तु कुछ कालके बाद स्वतन्त्र तदाद भी काफी है । तुर्रा यह कि बड़े-बड़े कलाकारों प्रतिमाएं बनने लगी, उपासकोंकी भक्ति ही इनके का वह आवास है। निर्माणका प्रधान कारण है । जैनमन्दिरके गर्भगृह के ____ "धातुतिमाएँ-विकास और पतन" शीर्पक दाएं-बाएँ और अक्सर छोटे-छोटे गवाक्षोंमे इनकी निबन्ध मै लिख रहा हूँ । अतः यहाँ नहीं लिया। स्थापना रहती है। कुछ प्राचीन पद्यावती, सिद्धायिका ३(ड) हम विभागकी मामग्री भारतमे बहत ही देवी और अम्बिकाकी एमी भी मृतियाँ देखी है कम मिलनी है, इमका कारण मुझे तो यहो प्रतीत जिनमें प्रधानता तो इनकी रहती है, पर इनके मस्तक होता है कि कारका प्रयोग जिम समय भवननिर्माण पर पाश्वनाथ, महावीर और नेमनाथजीकी प्रतिमा आदि कलाम विशेष रूपसे होता था उन दिनों जैन क्रमशः है। रोहणग्वेड आदि नगगेम स्वतन्त्र यक्षप्रतिमाओंके निर्माणम कामका उपयोग इसलिये वजित यक्षिणीकी खण्डिन प्रतिमाएं भी पाई जाती हैं। कही कर दिया होगा, क्योंकि वह तो अल्पायु है-पापाण कहीं जिनवेदीक ठीक निम्नभागम इनको देखते है। अधिक ममय टिक सकता है। फिर भी प्राचीनका- इमम कोई सन्देह ही नहीं, प्राचीन जैन प्रतिमालीन कुछ कान-प्रतिमा मिली है। मैंने कलकत्ता विधानम इनका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है। धातु विश्वविद्यालयकं आशनाप - आश्चर्यग्रहमे एक जैन तथा पाषाण दोनोपर ये बोदी जाती थी। मैं तो इन प्रतिमा काष्ठपर खदी हई देखी है जो बङ्गालसे ही कलात्मक प्रतिमाओका महत्व केवल जैन होने नाते प्राप्त की गई थी. इमका काल मेरे मित्र डी०पी० घोपन ही नहीं ममझा, पर भारतीय कलाकं सुन्दर सिद्धान्त 00 वर्ष पूर्व निश्रित किया है। कामको देखनेस और विविध उपकरणांका जो क्रमिक विकास इनमे मालूम होता है कि वह बहत वर्षों तक जलमग्न रहा पाया जाता है वह प्रत्येक एतद्विषयक गवषीको होगा, क्योंकि उममे सिकुड़न बहन है। बाचकं भागमे आकृष्ट किये बिना नहीं रहना; कारण कि वस्त्र और रखा ही रेखा दीखती है। अमेरिकास्थित पनीसि- केशविन्यास, शारीरिक गठन, आभूपण, विविध लटोनिया विश्वविद्यालयकं मस्कृत विभाग और शस्त्रास्त्र, चेहरा, खोका सुन्दर रजतकटाव, कलाकं अध्यक्ष तथा जैन सहित्यकं विशेषज्ञ सुप्रसिद्ध आदि कुछ ऐसी विशेषताएँ इनमे है जिनका महत्व कला-ममीक्षक श्रीयुन डा०विलियम नॉमन बॉउनसे भारतीय कला और कौशलकं इतना अधिक समीप ता० १-१-४८ को मैंने कलकत्ताम काप्रकी जैन प्रति- है कि हम उनकी कदापि उपेक्षा नहीं ही कर सकते। माांक सम्बन्धमे वार्तालाप किया था, श्रापन कहा जैनममाजकं बहुत ही कम व्यक्तियोंको उनके विविध कि हमारे देशमे भी चार जैन काष्ठप्रतिमाएं आजतक रूपों और वाहनांक शास्त्रीय ज्ञानका पता है। नासिक उपलब्ध हुई है, जिनका समय १५०० वर्ष पूर्वका है। जैनन्दिरमे एक स्फटिक रत्नकी जैन प्रतिमा है सम्भव है यदि गवेषणा की जाय तो और भी काष्ट जिसका रजत परिकर सुन्दर और अलग है। इनके प्रतिमाएं मिल सकती है । जैन वास्तुशास्त्रम काष्ठ माथ गामेदकी और नीलमकी प्रतिमाएँ है। एक तो प्रतिमाका उल्लेख पाया है। चन्दन आदि वृक्षोंका माना गणेश ही है। मुझसे कुछ लोगान कहा यह उसमें प्रयोग होता है। गणेशजीकी पूजा अपन कबसे करते आये है ? यह ३(ई) जैन स्थापत्यकलामे तीर्थकगेकी प्रतिमाओं गणेश नहीं पर पार्श्व-यक्ष है। इनके रुपमे शास्त्रीय के बाद उनके अधिष्ठायक यक्ष-यक्षिणीकी मृतियोंका सूक्ष्मान्तर है, जो मर्वगम्य नहीं। इमसे आगे चल स्थान पाना है। प्राचीनकालकी कुछ तीर्थकर प्रतिमाएँ कर अनर्थ खड़े होमकते है। एक बात मुझे स्पष्ट ऐमी भी देखनमे आती है जो प्रस्तर-धातुकी है और कहनी चाहिए कि देवियोंकी प्रतिमाओक कारगा जैन Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ अनेकान्त [वर्ष ९ तन्त्रोंमे कुछ विकास अवश्य हुआ है। मूर्तिकला भी जैन-मन्दिरमें जिनदेवके सम्मुख खड़ी कर देते थेप्रत्येक समय नये तत्त्व अपनानेको तैयार थी, क्योंकि आज भी कहीं-कहीं इस प्रथाका परिपालन किया यहाँ उनको पर्याप्त स्थान था जो जिनमूर्ति में न था, जाता है । कलाकी दृष्टि से इनका खास महत्व नहीं वहाँ नियमोंका पालन और मुद्राकी ओर ध्यान है। धातु और कहीं पापाण-प्रतिमाओंमे भी भक्तोंका देना अनिवार्य था । प्रदर्शन अवश्य ही दृष्टिगोचर होता है। बौद्ध-मूतियों जैन सरस्वतीकी भी प्रस्तर-धातु प्रतिमाएँ पाई गई मे तो सम्पूर्ण पूजनकी सामग्री तक बताई जाती है। हैं।बीकानेरकं गज-आश्चर्यगृहम विशाल और अत्यन्त ऐसी मूर्ति मेरे मंग्रहमे है। आबू पादलिप्तपुरकी यात्रा सुन्दर दो जैनमरस्वतीकी भव्य मूर्तियों है जो कला- करनेवाले उपयक्त प्रतिमाओं की कल्पना कर सकते है। कौशलमे १२वी १३वी शतीक मध्यकालीन शिल्प- वस्तुपाल, तेजपाल, उनकी पत्नी, वनराज चावड़ा, स्थापत्य-कलाका प्रतिनिधित्व करती है। मैंने सरस्वती मोतीशा आदिकी प्रतिमा एक-सी है । मै स्पष्ट करदू की मृतियाँ तो बहुत देखीं पर ये उन सबमे शिरोमणि कि इसप्रकारकी मूर्ति बनवानमे उनका उद्देश्य खुदकी हैं। मैंने स्टेलाक्रेमशीशको जब इनकं फोटो बताये वे पूजा न होकर एकमात्र तीर्थङ्करकी भक्ति ही था, हाथ मारे प्रसन्नता नाच उठी, उनका मन पाल्हादित जोड़कर खड़ी हुई मुद्रा इसीलिये मिलती है। हो उठा, तत्क्षण उनने अपने लिये इसकी प्रतिकृति ३-वास्तुकलाके सम्बन्धमे जो उल्लेख जैनलेली । धातकी विद्यादेवीकी प्रतिमा तिरूपति- साहित्यमे आये है. उनमे यह भी एक है कि जैनकुनरममे सुरक्षित है। इनकी कलापर दक्षिणी भारत मन्दिर या अन्य आध्यात्मिक माधनाके जो स्थान हों की शिल्पका बहुत बड़ा प्रभाव है। वहाँपर जैनधर्म और कथाओंसे सम्बद्ध भावोंका ३ (उ) उपर्यत पक्तियोंमे मूचित प्रतिमाओंसे अङ्कन अवश्य ही होना चाहिए जिसको देखकरके भिन्न और जो-जो प्रतिमाएं जैन-संस्कृतिमे मम्ब- आत्म-कर्तव्यकी ओर मानवका ध्यान जाय! इमप्रकार न्धित पाई जाती है वे सभी इस विभागम सम्मिलित के अवशेष विपुलरूपमे उपलब्ध हुए भी है जो की जाती है, जो इस प्रकार हैं: तीर्थङ्कगेका समोमरण, भरत-बाहुबलि युद्ध, श्रेणिक१-जैन-शासनकी महिमामे अभिवृद्धि करनेवाले की सवारी, भगवानका विहार, समलिविहार परम तपम्वी त्यागी विद्वान आचार्य या मुनियोंकी (भृगुमच्छ )की पूर्व कहानी आदि अनेकों भाव मृतियाँ भी निर्मित हुई है। इनमेसे कुछ ऐतिहासिक उत्कीण पाये जाते हैं परन्तु इन भावोंके विस्तृत भी हैं-गौतम म्वामी, धन्ना, शालीभद्र, (राजगृह) इतिहास और परिचय प्राप्त करनेके आवश्यक हेमचन्द्रसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनवल्लभमूरि, जिन- साधनोंके अभावमे लोग तुरन्त उन्हें पहिचान नहीं प्रभमुरि, जिनप्रबोधसूरि, जिनकुशलसूरि, अमरचन्द्र- पाते । अतः कहीं-कहीं तो इनकी उपेक्षा और अनासृरि, हीविजयसरि, देवसूरि आदि अनेक आचार्यों वश्यकतापर भी कुछ कह डालते है । जीर्णोद्धार की स्वतन्त्र मूर्तियां उनके भक्तों द्वारा पूजी जाती है। करनेवाले बुद्धिहीन धनी तो कभी-कभी इन भावोंको कहीं-कहीं तो गुरु-मन्दिर स्वतन्त्र है। इन सभीमे जान-बूझकर चूना-सीमेण्ट मे ढकवा देते हैं-राणक"दादा साहब"-जो श्रीजिनदत्तसूरिजीका ही प्रच- पुरमे कोशाका नृत्य और स्थूलभद्रजीक जीवनपर लित मंक्षिप्त नाम है-की व्यापक प्रतिष्ठा है । इन प्रकाश डालनवाल भाव प्रस्तरोंपर अङ्कित थे जो साफ प्रतिमानोंमे कोई खास कला-कौशल नही मिलता. तौरसे बन्द करवा दिये गये, जब वहाँ जैनकलाके कंवल ऐतिहासिक महत्व है। विशेषज्ञ साराभाई पहुंचे तब उन्हें ठीक करवाया। २-जैन राजा और मन्दिदि निर्माण कराने धानकोको अपना धन कलाकी हिसा-हत्यामे व्यय न वाले सद्गृहस्थ भी अपनी करबद्ध प्रतिमा बनवाकर करना चाहिए । विवेक न रखनेसे हमारे ही अर्थसे Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६ ] जैनपुरातन अवशेष २३९ हमारी कलाकी हिंसा हम ही कर रहे है । लोग तो पूर्णतः इनपर उपेक्षित भावसे काम लेते दक्षिण-भारतमे दिगम्बर कथाओंपर ऐतिहासिक आये हैं । मेरे परम मित्र डा० हंसमुखलाल सांकप्रकाश डालनेवाले भाव उत्कीर्णित मिले हैं सबसे लिया, श्रीशान्तिलाल छगनलाल उपाध्याय, उमाकान्त अधिक आवश्यक कार्य इन अवशेषोंका है जो सर्वथा प्रेमानन्दशाह, मि० रामचन्द्रम आदि कुछ अजैन ही उपेक्षित हैं। विद्वानोंने जैनमृति-विधान, कला-कौशलके विभिन्न ३ (ऊ) अष्टमङ्गल, स्वस्तिक, नद्यावत और अङ्ग-प्रत्यङ्गोंपर बड़ा गम्भीर अन्वेषण कर जो कार्य स्तूपाकतिम जो प्रतिमाएँ पाई जाती हैं उनका समावेश किया है और श्राज भी वे इसी विपयमे पूर्णत: मै इस विभाग करता हैं क्योंकि ये भी हमारी संस्कृति संलग्न है, वह हमारी समाजकं विद्वानोंके लिये के विशिष्ट अङ्ग है, ये अवशेष जङ्गालोमे पडे रहते है। अनुकरणीय आदर्श है । कलकत्तामे प्रोफेसर इनकी मुधि कौन ले ? नालन्दामे मैन एक स्वस्तिक अशोककुमार भट्टाचार्य है, जो जैनमूति शास्त्रपर -जो ईटोंमे उठा हुआ है-देखा, वह इतना सुन्दर वृहत्तर अन्य बृहत्तर प्रन्थ प्रस्तुत करने जारहे है । मैंने उनके था कि देखते ही बनता है। उसकी रेखाग एव मोड़ कामको देखा, स्तब्ध रह गया । अजैन होते हुए मन्दर थे । जैन-मन्दिगम जो म्तम्भ लगाये जाते है भी उनने जैनकलाके बहुसंख्यक सुन्दर और उपेक्षित उनमम किसी-किमीम वीतरागकी प्रतिमाएँ अति तत्त्वा तत्त्वोको खोज निकाला है। परन्तु मुझ अत्यन्त रहती है। बौद्धोंक स्नूपोंकी जैसी आकृति बनती है पार परितापके साथ मूचित करना पड रहा है कि इन वैमी ही आकतिवाली जैन-प्रतिमा तपमे मैंने अजैन विद्वानोंकी रुचि तो बहुत है पर उनको अपने महादेव' मिर्माग्या (मुंगेर जिला) रोहणम्बेडम देखी विषयमे महाय करने वाले साधन प्राप्त नहीं होते, हैं । इन प्रतिमाओंम अधिकांश नग्न ही रहा यही कारण है कि अजैन विद्वानोंस भूले होजाती करती थीं। है । तब हमारा समाज चिल्ला उठता है कि उसने ___ उपर्युक्त पंक्तियोंसे विदित होगया है कि जैनोंकी। बड़ी गलती की । जब हम म्वय न तो अध्ययन करते है और न करनेवालोंको सहायता ही पहुँचाते हैं। प्रतिमाकला-विषयक सम्पत्ति कितनी महान और जैनममाजको अब करना तो यह चाहिये कि म्पर्धा उत्पन्न करनेवाली है । इन सभी प्रकागेपर उपयुक्त प्रतिमाओमसे जो सुन्दर, कलापूर्ण है उनका आजतक किमी भी विद्वानके द्वारा सार्वभौमिक एक या अधिक भागोंमे अल्बम तैयार कराया जाय, प्रकाश डाला जाना तो दूर रहा, किसी एक प्रधान अङ्ग जिसमें अजैन विद्वानों तक वह वस्तु पहुँच मके। पर भी नहींके बराबर काम हुआ है । जैन-समाजकं आज हम देखते हैं भारत और बाहरकी जनताको १ यह स्थान गिद्धौर राज्यके अन्तर्गत है। यहाँ पर बड़ा जितना ज्ञान बौद्धपुरातत्त्वका है उसका शतांश भी प्रसिद्ध विशाल शैव-मन्दिर है, इसकी निर्माणकला शुद्ध जैनांका नहीं, जो है वह भी भ्रमपूर्ण है। जैन है और वहाँ के जमींदारसे भी मालूम हुआ कि ४ स्तम्भपूर्वमें यह जेन-मन्दिर ही था, पर प्रतापी नरेशने ५०- मध्यकालीन भारतम जैनमन्दिरक मम्मम्व ६० वर्ष पूर्व हर्म परिवर्तित कर शिव-मन्दिरका रूप दे १ लाहोरसे प्रकाशित “जैन इकोनोग्राफी" मेरे अवलोकनमें दिया। यहॉपर किसी कालग जैनी अवश्य ही रहे होंगे, आई है। यह जेन दृष्टिम बहुत टिपूर्ण है। उदाहरण के क्योंकि लछवाड़ भी समीप है तथा काकन्दाके पाम ही तौरपर प्रथम ही जो चित्र दिया है वह स्पष्टरूपसे है । यहाँ के मन्दिरमें बौद्ध-मूर्तिए अच्छी-अच्छी ऋषभदेवजीकी प्रतिमा है जब कि उसके निम्न भागम सुरक्षित हैं, जिनपर लेख भी हैं । विचित्रता यहाँपर यह महावीर लिखा है । एमी भलं अक्षम्य हैं । है कि कुम्भार पंडे हैं। देखें "जंन प्रतिमाप", शीर्षक मेरा निबन्ध । . -- Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. अनेकान्त [ वर्ष ९ विशाल स्तम्भ करनेकी प्रथा विशेषतः दिगम्बर जैन जीने श्रमपूर्वक प्रकाशित करवाये हैं। मथुराके समाजमें ही रही है। चित्तौड़का कीर्तिस्तम्भ इसका लेख जैन-इतिहासमें बहुत बड़ा महत्व रखते है। प्रत्यक्ष प्रमाण है। जैनधर्मकी दृष्टि से इन स्तम्भोंका डा० याकोबीने इनकी भाषाके आधारपर ही जैन बड़ा महत्व भले ही हो । परन्तु शिल्पकलाके इति- आगमोंकी भाषा की तीक्ष्ण जाँचकर प्राचीन स्वीकार हासपरसे मानना होगा कि यह अजैन वास्तुकी दैन किया है। विन्सेण्टस्मिथने मथुराके पुरातत्त्वपर एक है जिसको जैनोन अपना स्वरूप देकर अपना लिया, स्वतन्त्र ग्रन्थ ही प्रकट किया है । डा० अग्रवाल ये म्तम्भ भी दक्षिण भारतमे बहुत बड़ी संख्याम आदि महानुभाव समय-समयपर यहाँकी जैन पुरापाये जाते है। इनम जो कलाकौशल पाया जाता है तत्त्व-विषयक सामग्रीपर प्रकाश डालते रहे है। उमके महत्व जैनसमाज तक अनभिज्ञ है। मांची- कलकत्ता निवासी म्ब० बाय पूर्णचन्दजी नाहरने के उपरिभागमे जिन प्रतिमाएँ रहती थीं, कहा जाता मथुराके तमाम शिलालेग्योंकी जाँच दुबारा स्वयं है कि ये शूद्रोंके दर्शनार्थ रखी जाती थीं । आज भी जाकर की थी, डा०म्मिथने जो भूले की थी उनका प्रत्येक दिगम्बर जैनमन्दिरके आगे एक स्तम्भ यदि संशोधन करके अनन्तर उन समस्त जैन लेखोंका मृल खडा हो नो ममझना चाहिये कि यहाँ मानस्तम्भ है। पाठ शुद्धकर, हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं में उनका इनपर भी एक ग्रन्थ आमानीसे प्रस्तुत किया जामके अनुवाद कर एक विशाल मग्रह तैयार कर रखा था, इतनी मामग्री विद्यमान है। पर अकालमे ही उनकी मृत्युने इस महान कामको ५ लेख रोक दिया, वरना न जाने क्या क्या माधन प्रस्तुत जैन पुरातस्वकी आत्मा है किसी भी राष्ट्रकी करते। जैन साहित्यमे जहाँ जहाँ मथुराका उल्लेख राजनैतिक स्थितिके वास्तविक ज्ञान वृद्धचर्थ उसके भी आया है उन कई उल्लेखोंको नोट करके वहाँकी शिलालेखोंका परिशीलन आवश्यक है ठीक उसी जैन सम्कृति विषयक प्रचण्ड मामग्री भी मश्चित कर प्रकार जैन संस्कृति के तत्त्वोंका अनुशीलन अनिवार्य रखी थी। उनके सुयोग्य पुत्र राष्ट्रकने श्रीविजयसिह है । इसमे धार्मिक और सामाजिक इतिहासकी जी नाहर सहर्प प्रकट करनको भी तैयार है। मैं विशाल मामग्री भरी पड़ी है। राजनैतिक दृष्टिसे भी अपने सहयोगियोकी खोजम हैं। यदि समय और शक्ति ये उपेक्षणीय नहीं । तत्कालीन मानव जीवनक ने साथ दिया तो काम किश्चित् तो हो ही जायेगा। सम्बन्धमे जो बहुमूल्य तत्वोंका समीकरण हुआ था गुपकालीन भारतका उत्कर्ष चरम सीमापर था, चनका आभास भी इन प्रस्तरोत्कीर्ण शिलाखण्डोसे इस काल के मवत वाले जैनलेख अल्प मिले हैं। राजमिलता है। पश्चिम भारतके लेख ब्राह्मी या अधि. गृहीम मोन भण्डारम जो लेख लिम्बा है वह जैनकाशत देवनागरीमें मिले है जब दक्षिणभारतम धर्मसे सम्बन्धित होना चाहिय; क्योंकि वह स्मारक कनाडीमे । जैन लेखोंको यों तो कई भागोंमे बांटा जा ही शुद्ध जैन-मस्कृतिसे सम्बद्ध है । जैन-प्रतिमाएं सकता है पर मैं यहाँ कंवलदो भागोंम विभाजितकरूंगा। स्पष्टरूपसे उत्कीणित है । भारत सरकारके प्रधान (१) शिलाओंपर उत्कीर्ण लेख लिपि वाचक श्रीयुत डा० बहादुरचन्द छावड़ाने (२) प्रतिमाओंपर उत्कीर्ण लेख इसका इम्प्रेशन गत मासमें मँगवाया है इससे श्रदाज प्रथम श्रेणीक लेख बहुत ही कम मिलते हैं। है कि वे इसपर प्रकाश डालनका कष्ट करेगे। आचार्य खारवेलका लेख अत्यन्त मूल्यवान् है जो ईम्वी पूर्व मुनि वैरदेव नामका एक लघु लेख श्रीयुत भवरदूसरी शतीका है । उदयगिरि खण्डगिरिमे और भी लालजी जैनने मुझं कलकत्ताम बताया था, लिपि जो प्राकृत शिलालेख पाये जाते है उन सभीपर अन्तिम गुप्तकालीन थी। नालन्दाकी तलहटीमे एक विस्तृत विवरणके माथ पुरातत्त्वाचार्य श्रीजिनविजय गुफा बनवानेका उल्लेख था। (अगली किरणम समास) Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय निस्पृही कार्यकर्ता जिनवाणी-माताको बन्दी बनाकर रखने वालों के गढ़ोंपर ममीक्षाओं, परीक्षाओं और पालोचनाओंके बीसवीं शताब्दीरूपी वधूका डोला अभी पाया भी नहीं था कि उसके स्वागत-समारोहके लिये समूचे वे गोले बरसाये कि कुम्भकरणी नीदको मात करने बाले भी हड़बड़ाकर उठ बैठे। सेठ माणिकचन्द जैन भारतमे इस छोरसे उस छोरतक उत्साहकी लहर दौड़ गई । जनतामे सेवा, तप, त्याग, बलिदानके होस्टलोंकी दाराबेल डालनेमे जुटे तो पारेके देवकुमार जैन भरी जवानीमे शास्त्रोद्धारकी कसम खा बैठे। भाव अङ्करित हो उठे, और बड़े ही लाड़-प्यार और चावसे जीवन-मन्देशनी नववधूका स्वागत हुआ। फिर नाथूगम प्रेमी, दयाचन्द गोयलीय, कुमार वह अपने साथ राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक- देवन्द्रप्रमाद, रिषभदाम वकील, माणिकचन्द खडवा चेतना दहेजस्वरूप लाई । परिणाम यह हुआ कि का युवक-हृदय कब चुप रह सकता था ? ये मुमलमान, ईमाई, मनातनी, भार्य, सिक्ख सम्प्र कार्यक्षेत्रम युवकोचित ही ढङ्गस आये, जिन्हे देख दायोंसे निस्पृही कार्यकर्ताओंके जत्थे-के-जत्थे कार्य- जनता साधुवाद कह उठी । इन सब अलबेले कर्मक्षेत्रमे आने लगे। वारोंको नजर न लग जाए, इस आशङ्कासे प्रेरित जैन-समाजमे भी एक होड-सी मच गई। राजा जैनी जियालालजी भी अपने ज्योतिष-पिटारेके लक्ष्मणदाम और डिप्टो चम्पतराय आदि महासभा बलपर दुनियाए बदनज़रकी नजरसे बचानेको की स्थापना कर ही चुके थे। प० गोपालदाम वरैया निकल पडे । भी मोरेनाम आसन मारकर बैठ गये और न्यायाचार्य इन निस्पृही कार्यकर्ताओंकी लगन और दीवागणेशप्रसादजी व बाबा भागीरथदामजी वणी नगी दग्व कर जुगमन्दग्दाम और चम्पतराय अपनी बनारसमे धूनी रमा बैठे। श्रीअर्जुनलाल सेठी घीम बेरिएंटरी भूलकर यकायक दीवान हागये। ठिकानकी दीवानगिरीका मोह त्याग जयपुरम करा चारों और समाजमें जीवन ज्योति प्रज्वलित हो या मगेका मन्त्र जपने लगे। महात्मा भगवानदीन उठी। गांव-गाँवम पाठशालाएं खुल गई । पचामों हस्तिनागपुर-आश्रमको गुरुकुल-कागड़ो बना देनका विद्यालय और हाइस्कुल स्थापित होगये । सैकड़ों धुनमे स्टेशनमास्टरीको तिलाञ्जलि दे आये । बा० पुस्तकालयोका उद्घाटन हुआ। शहर-शहरमे मभाशानलप्रमादजी लग्ब नवी गृही-जीवनको धता बताकर ममितियों बनी। पत्र निकले, जैन-साहित्य प्रकाशम जोगी बन गये, और मार जैन समाजमे अलम्ब पाया, ट्रक्टोंक ढेर लग गये। इन निस्पृही सेवकांक जगा दी । मगनबहन, ललिताबाई और चन्दा मम्मानम श्रीमन्तान रुपयोंकी थैलियां खोल दी। मकुमारी पति-वियोगमन झुलसकर जैन-बदनांका लनवाल थक गय पर श्रीमन्त आज भी थैलियांक सीता, अञ्जना, राजमती बनानमें लग गई । जैनी मुंह खोल हए अपने निम्गृही कार्यकर्ताओंकी बाटम ज्ञानचन्द और प. पन्नालाल बाकलीवालने साहित्यो- बैठे हुए हैं। क्या श्रेयांसको जैसे ऋषभनाथ और द्धारका बीड़ा उठाया तो देवबन्दके तीन सपूतो- भिलनीको जैसे राम घर बैट मिल गये थे, बा० सूरजभानजी वकील, पं० जुगलकिशोर जी इनको भी अपनी समाजक अमिट, अडोल, निस्पृही मुख्तार, बा. ज्यातिप्रसादजी जैन-ने देवबन्दसही कार्यकत्र्ताकि फिर दशन होग? क्या इन्हें एक बार Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ अनेकान्त [ वर्ष ९ भी सुपात्र-दान देकर जन्म सुफल करनेका अबसर कभी सुननेको मिलता, किन्तु रोजाना मस्जिदमें, मिलेगा? सभा - सोसायटियोंमे और व्यावहारिक जीवनमे न जाने हमारी इस निस्पृहताको किस बदनज़र मजहबी दीवानों और तास्सुबी लोगोंके जबानके की नजर लगी है कि एक-एक करके सब छीजते चटखारे रोज़ सुननेको मिलते । जारहे हैं। जो बचे है वे भी हमारी नालायकियोंसे इधर काँग्रेसी-व्याख्यान भूले भटके किसीने तङ्ग आकर चलते बने, कुछ भरोसा नहीं, वे तो अब सुना भी तो अभी वह पूरी तरह उसको समझ भी हमारे लिये वन्दनीय और दर्शनीय हैं, जितने दिन भी नहीं पाया है कि मुहल्लेम होने वाले रोजाना लीगी उनका साया बना रहे हमारा सौभाग्य है। लेक्चरोंने सब गुड़ गोबर कर दिया । उसपर यह पर, जो कहते है- "ज्योतिसे ज्योति जलती आये दिन हलाल और झटका, गौ और सुअर, आई है, वह कभी बुझती नहीं।" उनसे हम पूछते अजॉन और बाजा, ताजिये और सड़क पेड़, हिन्दी है कि हमारी इम दीपमालाको क्या हश्रा ? जो दीप और उर्दू के झगड़े नित नया गुल खिलाते रहे। बुझा उससे नवीन क्यों नहीं जलता ! यह पंक्तिकी कांग्रेसी इत्तहाद और अहिसाका बराबर उपदेश देते पक्ति क्यों प्रकाशहीन होती जारही है ? ___ रहे, परन्तु यह आये दिन झगड़े क्यों होते है, न हमारी इस आकुलताका क्या कोई अनुभवी इसका कभी हल निकाला न कोई उपाय सोचा न सज्जन निराकुल उपाय बतानेकी दया करेगे ? उन उपद्रवी स्थलोंपर पहुँचकर सही परिस्थितिका जैन-एकता निरीक्षण किया । जब घर फुक जाते, बहन-बेटी जैन-एकताका नारा नया नहीं, बहुत पुराना है। बई बेइज्जत होजाती, सर्वस्व लुट जाता और प्रतिष्ठित परन्तु जिस प्रकार हिन्दु-मुस्लिम राज्यका नारा व्यक्ति पिट जाते तब उन्हीको यह कहकर कि "आपस जितनी-जितनी ऊँची आवाज और तेजीसे बुलन्द मे लड़ना ठीक नहीं", लानत मलामत देते। लुटेरे किया, उतनी ही शीघ्रता और परिमाणमे अविश्वास और शोहदे खिलखिलाते और ये काँप्रेमकी भेंडे और श्राशङ्काकी खाई चौड़ी होती चली गई। उसी गदन झुकाकर रह जाती। तरह जैन समाजके तीनों सम्प्रदायक सङ्गठनका कि ये भेड़े काँग्रेसका मरते दम तक साथ वृक्षारोपण जितनी बार किया गया है, घातक फल ही निभानकी प्रतिज्ञा कर बैठी थी, इसलिये मार खाकर देता रहा है। तीनों सम्प्रदाय एक होने तो दर, एक भी मिमयाती तो नहीं थी, पर पिटना क्यों ठीक है, एक सम्प्रदायमे भनेक शाखाएँ उपशाखाएँ बढ़ती यह उनकी समझमे नहीं आ पाता था और वह भेड़ियों जारही हैं। संमेल-मिलाप करते हुए ङ्कित ही रहती थीं । यदि हिन्दु-मुस्लिम इत्तहादमे जो काँग्रेस सदैव भल उन भेड़ियोंको भी काँग्रेसने भेड़ बनाया होता तो करती रही है, उसीका अन्ध-अनुकरण हमारे यहाँ बिना प्रयासके ही इत्तहाद होगया होता। होता रहा है। काँग्रेसने इत्तहादका नारा तो बुलन्द काँग्रेसने कभी मुसलमानोंक सामाजिक और किया पर अपनेसे भिन्न सम्प्रदायक हृदयमे घर नहीं धार्मिक जीवनमे आनेका प्रयत्न नहीं किया । परिणाम बनाया। काँग्रेसी मञ्चसे व्याख्यान देते रहे, अपील इसका यह हुआ कि हर मुसलमान काँग्रेसी नेताको निकालते रहे । परन्तु उनके साम्प्रदायिक गढ़ोंमे न केवल हिन्दु समझता रहा । अपनी कौमका नेता वह कभी गये, न उनकी रीति-रिवाजका अध्ययन किया, उन्हींको समझता रहा जो उनकी रोजाना जिन्दगीमे न इत्तहादके मार्गकी कठिनाइयोंको समझा, न उनका दिलचस्पी लेते रहे। और दुर्भाग्यसे काँग्रेसने भी हल हुधा । परिणाम इसका यह निकला कि मुस्लिम उन्हीं मजहबी दीवानोंको उनका नेता तस्लीम कर जनताको काँग्रेसी नेताका व्याख्यान तो शासोनादिर लिया जो मुसलमानोंको रोजाना काँग्रेस के विरुद्ध Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६] सम्पादकीय २४३ भड़का रहे थे । परिणाम सबके सामने है। गत ३-४ वर्षों में इस निर्जीव बुतको विवाहमादि इसी तरह जैनोंमें एकताकी बात उठती रही है। अवसरोंपर मिट्रीके गणेशकी जगह पुजवाकर देवत्व तीनों सम्प्रदायोंकी प्रतिनिधि सभाओंने अनेक बार लानेका प्रयत्न किया है। परिणाम स्वरूप व्याघरमे जैन-एकताके प्रस्ताव पास किये हैं। परन्तु इनके इसका स्वतन्त्र अधिवेशन भी हमने अपनी होशमे कार्य ऐसे रहे हैं कि इतर पक्षको विश्वास बढ़नेके पहलीबार होते सुना है। बजाय आशङ्का ही हुई है। अभिनन्दनीय हैं वे लोग जो सचमुच जैनएकता जैन महामण्डल जिसका निर्माण तीनों सम्प्रदाय के लिये प्रयत्नशील है। हम भी २३ वर्षांसे इस साध की एकताक लिय किया गया था। वह पुदल शरीर को अपने सीनेम छिपाये बैठे है। परन्तु प्रभ तो यह है बनकर रह गया । इंजेक्शनोंके जोरसे भी उसमे कि बिल्लीकं गलेमें घण्टी कौन बाँधे । व्यक्तिगत प्राण प्रतिष्ठा न हो पाई। हम हैरान हैं कि इस निर्जीव प्रभावसं अधिवेशन करा भी लिया १०-५ को किसी शरीरको अबतक कैसे ढोते रहे, जब कि उसके कार्य- तरह एकत्र भी कर लिया, या जैन-एकता कार्यालय कर्ता स्वयं जैन-एकतासे दूर भागते रहे । जीवनभर भी बना लिया। २-४ अच्छे खासे वेतन-भोजी क्लर्क अपना-अपना सम्प्रदाय उनका कार्यक्षेत्र बना रहा, भी मिल गये, पर इन सब कार्योस एकता कैसे तीर्थक्षेत्रोंके मुकदमोंमे एक मम्प्रदायक विरुद्ध दूमरे होसकेगी ? की पैरवी करते रहे । और एकताका निजीव पुनला आय दिन जो यह तीर्थोपर उपद्रव होते रहते भी उठाते रहे। है। यह क्यों होते है और क्योंकर रोके जा सकते महामण्डलकी ओरसे जैन-एकताका आन्दोलन है? एक दसरंक विरुद्ध पत्रों और ट्रक्टी द्वारा विषलगभग आर्यसमाजकी तरह रहा है । आयसमाजके वमन होता रहता है । वह कैसे राका जाय ? दिगम्बर उत्सवोंम दिनको तो हिन्दु-सङ्गठन पर प्रभावशाली कार्यकर्ता श्वेताम्बरोंमे और श्वेताम्बर कार्यकर्ता व्याख्यान-भजन होते और रात्रिको जैन, सनातनी, दिगम्बरोंम नि:स्वार्थ भावनासे किस प्रकार कार्य सिक्ख आदिको शास्त्रार्थ के लिये ललकारा जाता। करें और कौन-कौन करे ? जब तक यह अमली कार्यउनकं उनकं धार्मिक विश्वासोंका मखौल उड़ाया जाता क्रम नहीं बनता है। और लोग जिनकी अपने और महापुरुषांको असभ्य शब्द कहे जाते । दिनमें यहाँ भी आवाजका कोई मूल्य नहीं है उनकं प्रयत्न व कभी हिन्दु सङ्गठनपर व्याख्यान देनसे न चूके जेन-एकता तो नहीं हो सकेगी । हाँ वह भी हमारे और रातको शास्त्रार्थ करनेसे कभी बाज न आये। अनगिनत नेताओंकी श्रेणी में खड़े होकर भोली परिणाम इसका यह हुआ कि आर्यसमाजका हिन्दुः जनताको लानतमलामत देनेका अधिकार पा सकेंगे। सङ्गठन आन्दोलन बाजीगरके तमाशेसे भी कम डालमियानगर पाकर्षक होगया है। १४ ५-१९४८ -गोयलीय Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FACROBORASA9-BOARDENARD-COMIERREE युगके चरण अलख चिर चंचल ! [ 'तन्मय' बुखारिया ] रविकी गतिसे, शशिकी गतिसे, भूत, भविष्यतसे, सम्प्रतिसे, कभी यहाँ, फिर कभी वहाँ जो, उस मतवाले मनकी मतिसे; सम्भव कभी सभी ऊँध जाएँ, किन्तु न युगकी आँखोंमें जल! युगके चरण अलख चिर-चञ्चल !! आज परस्पर अविश्वास, सच , निर्गति-सा नरका विकास, सच , रक्त रक्तको भूल रहा-सा, चेतन जड़का क्रीत दास, सच , परिवर्तनके पग बढ़ते जब , तब होता ही है कोलाहल ! युगके चरण अलख चिर-चश्चल !! BRE-RESERROREGISROGRSIRRORSad पर, न सदा यह अन्धकार ही, प्राणोंपर विजयी विकार ही; मेरे जीवन ! उठो, न असमय , सचमुच, बनकर रहो भार ही ! क्योंकि कभी तो कविकी वाणी, बिखराएगी ही निज प्रतिफल !! (जब तव पद - नखकी कोरोंपर , लोट-लोट जाएँगे जल-थल !!!) युगके चरण अलख चिर- चश्वल ! ललितपुर, १७-६-४८ WRONGERRORIGHSANGASRAEBASHIRAISINGS वीरसेवामन्दिरको प्राप्ति अनेकान्तको सहायता गत किरणमे प्रकाशित सहायताके बाद प्राप्त हुई रकमे गत चौथी किरण प्रकाशित सहायताके बाद अनकान्तको निम्न महायता और प्राप्त हुई है जिसके १८००) 'ममनि-विद्या-निधि के रूपमे बाल-माहित्यके लिये दातार महानुभाव धन्यवादकं पात्र हैंप्रकाशनार्थ जुगलकिशोर मुख्तारने अपनी ५) ला० प्रतापसिंह प्रमादीलालजी बांदीकुई चि. दोनों दिवगत पुत्रियों मन्मति और विद्यावती चित्रारानी पुत्रीक निधनपर निकाले गये की ओरसे प्रदान किये। दानम मे। २५) श्रीमती पतलीदेवी धर्मपत्नी लारोढामलजी सेठ झथालालजी बडजात्याकं सुपौत्र और सेट जैन चिलकाना जि० महारनपुरस मधन्यवाद गेदोलालजी कामलीवाल की सुपौत्री के विवाहोपप्राप्त मार्फत भाई महाराजप्रमाद जैन बजाज लक्ष्यमे (मार्फत प. भंवरलालजी शास्त्री जयपुर) सरसावाक (बीमारीके अवमरपर निकाले दुए दानमेसे)। अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर व्यवस्थापक 'भनेकान्त' Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भारतीय ज्ञानपीठ काशीके प्रकाशन १. महाबन्ध-(महधवल सिद्धान्तशाख) प्रथम भाग | हिन्दी टीका सहित मूल्य १२) । २. करलक्खण-(सामुद्रिक शास्त्र) हिन्दी अनुवाद सहित । हस्तरेखा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ । सम्पादक-प्रो. प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम० ए०, अमरावती । मूल्य १) । ३. मदनपराजय-- कवि नागदेव विरचित (मूल सस्कृत) भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावना महित । जिनदेवके काम पराजयका मरम रूपक । सम्पादक और अनुवादक-प० राजकुमारजी सा० । मृ०८) ४. जनशासन-जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करने वाली सुन्दर रचना । हिन्द विश्वविद्यालयके जैन रिलीजनक एफ० एक के पाठ्यक्रममे निर्धारित । मुखपृष्ठपर महावीरस्वामीका तिरङ्गा चित्र । मूल्य ४/ ५. हिंदी जैन-माहित्यका संक्षिप्त इतिहास-हिन्दी जैन-माहित्यका इतिहास तथा परिचय । मूल्य २)। ६. आधुनिक जैन-कवि-वर्तमान कवियोंका कलात्मक परिचय और सुन्दर रचनाएँ । मूल्य ३॥) । ७. मुक्ति-दुत-अञ्जना-पवनक्षयका पुण्यचरित्र (पौराणिक रौमाम) मू०४|| ८. दो हजार वर्षकी पुरानी कहानियां--(६४ जैन कहानियाँ) व्याख्यान तथा प्रवचनोंमे उदाहरण देने योग्य । मूल्य ३) ९. पथचिव-(हिन्दी-साहित्यकी अनुपम पुस्तक) स्मृति रेखाएँ और निबन्ध । मूल्य २)। . १०. पाश्चात्यतकशास्त्र-(पहला भाग) एफ०ए० के लॉजिकके पाठ्यक्रमकी पुस्तक । लेखक-भिक्षु जगदीशजी काश्यप, एफ० ए०, पालि-अध्यापक, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी | पृष्ठ ३८४ । मृल्य ४। ११. कुन्दकुन्दाचायेके नीन रत्नमूल्य )। १२. कबडप्रान्तीय नाडपत्र ग्रन्थसूची-(हिन्दी) मृर्डाबद्रीक जैनमठ, जैनभवन, मिद्धान्तवर्माद तथा अन्य प्रन्थभण्डार कारकल और अलपुर के अलभ्य ताडपत्रीय प्रन्थोंक विवरण परिचय । प्रत्येक मन्दिरम तथा शास्त्र-भण्डारम विराजमान करने योग्य । मृल्य १०)। N वीरसेवामन्दिरके सब प्रकाशन भी यहाँपर मिलते हैं प्रचारार्थ पुस्तक मँगाने वालोंको विशेष सुविधाएँ भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. A-731 Pasagrogregresgroragrance कीरसेवामन्दिर सरसाकाके प्रकाशन ७१ अनित्य-भावना ४ सत्साधु-स्मरणगंगलपाठ3 आ० पद्मनम्दिकृत भावपूर्ण और हृदय ___ अभूतपूर्व सुन्दर और विशिष्ट संकलन, प्राही महत्वकी कृति, माहित्य-तपस्वी पंडित संकलयिता पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार, ६ जुगलकिशोरजी मुख्तारके हिन्दी-पद्यानुवाद भगवान महावीरसे लेकर जिनसेनाचार्य पर्यन्त के २१ महान जैनाचार्यों के प्रभावक गुणस्मरणों और भावार्थ सहित । मूल्य ।) से युक्त । मूल्य II) २ आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थस्त्र ५ अध्यात्म-कमलसरल-संक्षिप्त नया सूत्र-ग्रन्थ, पं० जुगल पश्चाध्यायी तथा लाटीसंहिता आदि ग्रन्थों किशोरजी मुख्तारकी सुबोध हिन्दी व्याख्या के रचयिता पं० राजमल्ल विरचित अपूर्व आध्यात्मिक कृति, न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल सहित । मूल्य ) कोठिया और पं० परमानन्दजी शास्त्रीके सरल ३ न्याय-दीपिका हिन्दी अनुवादादि-सहित तथा मुख्तार पंडित जुगलकिशोरजी-द्वारा लिखित प्रस्तावनासे (महत्वका नया संस्करण)- अभिनव विशिष्ट । मूल्य ११) धर्मभूषण यति रचित न्याय-विषयकी सुबोध प्राथमिक रचना, न्याचार्य पं. दरवारीलाल ६ उमास्वामिश्रावकाचार परीक्षाकोठिया द्वारा सम्पादित, हिन्दी अनुवाद, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी-द्वारा लिखित विस्तृत (१०१ पृष्ठकी) प्रस्तावना, प्राक्कथन, ग्रन्थ-परीक्षाओंका इतिहास-सहित प्रथम अंश । परिशिष्टादिस विशिष्ट, ४०० पृष्ठ प्रमाग, लागत मृल्य । मूल्य ५)। इसकी थोड़ी ही प्रतियां शेष रही हैं। ७ विवाह-ममुद्देश्यविद्वानों और छात्रोंने इम मम्करणको वृव ५० जुगलकिशोरजी मुख्तार गचत अपूर्व पमन्द किया है। शीघ्रता करे । फिर न मिलने और विवाहोंके अवसरपर वितरण करने योग्य पर पछताना पड़ेगा। सुन्दर कृति । मूल्य MERESCRISITORS PORIGHERIORBERIORGREEKSHIMBURIOSEROKES BENE । वीरसेवान्दिरमे जो साहित्य तैयार किया जाता है वह प्रचारकी रष्टिसे तैयार होता है व्यवसायके लिये नहीं और इमीलिये काराज, छपाई आदि के दाम बढ़ जानेपर भी पुस्तकोंका मूल्य वही पुराना (मन १९४३का) रखा है। इतनेपर भी १०) से ज्यादाकी पुस्तकोंपर उचित कमीशन दिया जाता है। @GHAGROIR प्रकाशन विभाग-वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर ) Satu rdGARIMARRIORORSROICES प्रकाश+--. परमानन.. शाखी मातीमा .पीट काशीके लये श्राशागम बनी द्वारा गयल प्रस सहारनपुरम मुद्रित Page #279 --------------------------------------------------------------------------  Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनेक का भाषाढ़, संवत् २००५ :: जुलाई, सन् १९४८ - - -- किरण ७ दो प्रश्न अन्तहित हल सहित पठन क्योंकर हो ? प्रथम तो 'पठनं कठिन' प्रभो! सुलभ पाठक-पुस्तक जो न हो। हृदय-चिन्तित, देह सरोग हो, पठन स्योंकर हो तुम ही कहो ? क्यों न निराश हो! प्रबल धैर्य नहीं जिस पास हो, हृदयमें न विवेक-निवास हो। न श्रम हो, नहिं शक्ति-विकास हो, जमतमें वह क्यों न निराश हो ? प्रधान सम्पादक जुगलकिशोर मुख्तार सह सम्पादक मुनि कान्तिसागर दरबारीलाल न्यायाचार्य भयोध्याप्रसाद गोयलीय सञ्चालक-म्यवस्थापक V भारतीय मानपीठ, काशी A संस्थापक-प्रवर्तक वीरसेवामन्दिर, सरसावा -युगधीर 4cm 14 ENTREAL TAITREASOOTHING Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २४५ २४६ २४७ २५० विषय-सूची लेख नाम १ निष्ठुर कवि और विधाताकी भूल (कविता)-[कवि भूधरदास २ जीरापल्ली-पार्श्वनाथ-स्तोत्र-सम्पादक ३ समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने (युक्त्यनुशासन)-[सम्पादक ४ स्मरण शक्ति बढ़ानेका अचूक उपाय-वसन्तलाल वर्मा ५ जीवका स्वभाव-श्रीजुगलकिशोर काराजी ६ कर्म और उसका कार्य-[पं० फूलचन्द सिद्धान्त शास्त्री ७ जैन पुरातन अवशेष (विहङ्गावलोकन)-स० मुनिकान्तिसागर ८ वैशाली (एक समस्या)-स० मुनिकान्तिसागर ह दान-विचार-श्रीक्षुल्लक गणेशप्रमादजी वर्णी १० मुरारमें वीरशासन-जयन्तीका महत्वपूर्ण उत्सव-पं. दरबारीलाल ११ भापण-श्रीक्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी १२ सम्पादकीय-अयोध्याप्रसाद गायलीय :: मुनिकान्तिसागर १३ पाकिस्तानी पत्र-[गलामहर्मन कमरा मिनहास २५१ २५३ २६६ २६६ २७५ २८१ वीरसेवामन्दिरको दस हजारका प्रशंसनीय दान श्रीमान बाबू नन्दलालजी मरावगी सुपुत्र सेठ ता०२८ जुलाई सन् १९४८ को आप वीरसेवामन्दिरके रामजीवनजी सरावगी कलकत्ताके शुम नामसे अने. दर्शनार्थ मरमावा तशरीफ लाये थे-तीन दिन ठहरे कान्तके पाठक भले प्रकार परिचित है। आप कल- थे। वीरसेवामन्दिर और उसकी लायब्रेरीको पहली कत्ताके सुप्रसिद्ध बाबू छोटेलालजी जैनके छोटे भाई ही बार देखकर आपने अपनी बडी प्रसन्नता व्यक्त हैं और अच्छे दानशील है। आप चुपचाप अनेक की और जव ापक मामने वे ग्रन्थ श्राए जो वीरमामि अनेक प्रकारका दान किया करते है। वार- सेवान्दिर-द्वारा तय्यार किये गये हैं और प्रकाशनकी सेवान्दिर और उनके कार्योंके प्रति आपका बडा प्रेम बाट जोह रहे है तब आपने बड़ी उदारताके साथ है और श्राप उसे कितनी ही सहायता भेजते तथा उनके शीघ्र प्रकाशनार्थ दस हजार रुपयकी रकम पुत्र-पनी आदिकी ओरसे भिजवाते रहे हैं। हालमे प्रदान की। इस उदार और प्रशंसनीय दानके लिये आप वीरशासन-जयन्तीके उत्सवपर अपनी पत्नी आपका जितना भी धन्यवाद दिया जाय वह सब श्रीमती कमलाबाईजी और लघुपुत्र चिरञ्जीव निर्मल- थोता है। इसके लिये यह संस्था आपकी चिरऋणी कुमार-महित मुरार (ग्वालियर) पधारे थे । वहाँसे रहेगी। मुझे साथ लेकर श्रीमहावीरजीकी यात्रा करते हुए जुगलकिशोर मुख्तार Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम वस्ततत्व-सपाल विश्व तत्त्व-प्रकाशक वार्षिक मूल्य ५) WhatsARATHIMIRAT TIME एक किरणका मूल्य । नीतिविरोधध्वसीलोकळ्यवहारवर्तकःसम्यक । परमागमस्यबीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः। वर्ष ९ । किरण ७ वीरसेवामन्दिर (ममन्तभद्राश्रम), मरमावा, जिला सहारनपुर आषाढ शुक्ल, वीरनिर्वाण-संवत २४७४, विक्रम संवत २००५ जीलाई १९४८ 599359999999999999999996555555 निष्टर कवि और विधाताकी मल F听听听听听听听听听听听听听听听听听听听乐听听听 गग-उदै जग अंध भयो, सहजै सब लोगन लाज गमाई । सीख विना नर मीखत हैं, विपयादिक - सेवनकी सुघराई ॥ तापर और रचै रम-काव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई ! अंध - असूझनकी अंखियानमें, डारत हैं रज राम - दुहाई !! 59999999999999999 हे विधि ! भूल भई तुमतें, समुझे न कहां कस्तूरि बनाई ! दीन कुरङ्गके तनमें, तृन दंत धरै करुना नहिं आई !! क्यों न रची तिन जीभनि जे रस-कान्य करै परको दुखदाई ! साधु - अनुग्रह दुर्जन-दंड, दुई सधते विसरी चतुराई !! -कवि भूधरदास SHES999999999999999999999 9999999 3 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीरापल्ली-पार्श्वनाथ-स्तोत्र [यह वही कानपुर के बड़े मन्दिरसे प्राप्त हुआ स्तोत्र है, जिसकी सूचना अक्तूबर सन् १९४७ की अनेकान्त किरण १२में, 'रावण-पार्श्वनाथ-स्तोत्र'को देते हुए, की गई थी और जो प्रभाचन्द्र के शिष्य पद्मनन्दीकी कृति होनेसे पूर्वानुमानके अनुसार अाजमे कोई ५५० वर्ष पहलेका बना हुआ होना चाहिये । इस स्तोत्रका मम्बन्ध उन श्रीपार्श्वनाथसे है जो जीरापल्ली स्थित देवालयके मूलनायक थे और जिनके कारण वह स्थान मुशोभित था--अतिशय-क्षेत्र बना हुया था । मालूम नहीं यह जीरापल्ली स्थान कहाँपर है और वहांपर अब भी उक्त देवालय पूर्ववत् स्थित है या नहीं, इसकी खोज होनी चाहिये। -~-सम्पादक (रथोद्धता) आनमन्त्रिदश-मौलि-मन्मणि-म्फार-रश्मि-विकचाहि-पङ्कजम । पार्श्वनाथमग्विलाऽर्थ-सिद्धय ताप्टुवीमि भव-ताप-शान्तये ॥शा वाग्मयेन महता महीयसा तावकेन जिननाथ जन्मिनाम । आन्त यदि तमः प्रमृत्वरं नाशमति तदिदं किमद्भूतम ना काम-चण्डिम-भिदलिम-प्रभं कः नमोऽत्र तव रूपांडितुम । वामयोऽपि यदि सेक्षणेच्छया चक्षुपां किल महसनामिनः ॥३॥ दर्शनाद्यदपहमि कल्मषं कयांश भवनाऽधिका स्तुनिः । ध्वान्त मस्त मरुणोदयादिदं याचिदिह किमद्भुतं मताभ ॥४ नाथ तत्र भवतः प्रभावता या गुणीव-गणनां चिकीपनि । पूर्वमन्धि-पयसाऽअलि-ब्रजः स प्रमाणमनिम्तनोत्वलम ॥५॥ दुम्तरेऽत्र भव-सागर सतां कम-चरिडम-भगनिमज्जनाम । प्रास्फुरीति न कराऽवलम्बने त्वत्परो जिनवरोऽपि भूतले ॥६॥ त्वत्पदाम्बुज-युगाऽऽश्रयादिदं पुष्यमेति जगतोऽवतां सताम । स्पृश्यतापि न चाऽन्यशीगंगं तब(त्वन )ममाऽत्र तवको निगद्यते । नाशयन्ति करि-सिंह-शूकर-व्याघ्र-चौर-निकरोग्गादयः ।। तं कदाचिदपि ना मनागृह पार्श्वनाथ जिन यस्य शुभसे | (शालिनी) जीरापल्ली-मण्डनं पार्श्वनाथं नत्वा स्तौति भव्य-भावन भव्यः । यस्तं ननं ढीकते नो वियोगः कान्तोद्भुतश्चाऽप्यनिष्टश्च(म्य)योगः ।। (वसन्ततिलका) श्रीमत्प्रभेन्दु-चरणाऽम्बुज-युग्म-भृङ्गश्चारित्र-निर्मल-मतिर्मुनिपद्मनन्दी । पार्श्वप्रभोविनय-निर्भर-चित्तवृत्तिभक्तया म्तवं रचितवान्मुनिषद्मनन्दी ॥१०॥ इति श्रोपद्मनन्दि-विरचितं जीरापल्ली-पार्श्वनाथ-स्तोत्रं समाप्तम् । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने युक्त्यनुशासन विधिनिषेधोऽनमिलाप्यता च नाम 'मप्तमगी' है। अतः नाना प्रतिपायजनोकी तरह एक प्रतिपादाजनके लिये भी प्रनिपादन करने वालोका त्रिरेकशस्त्रिर्दिश एक एव । मप्न विकल्पात्मक वचन विरुद्ध नहीं ठहरता है।' त्रयो विकल्पास्तव मनधाऽमी स्यादित्यपि स्याद्गुण-मुख्य-कल्पैस्याच्छन्दनेयाः सकलेऽर्थभेदे ।।४५।। कान्तो यथोपाधि-विशेष-वीक्ष्यः । विधि. निषेध और अनभिलाग्यता-म्यादम्त्येव तत्त्वं त्वनेकान्तमशेषरूपं म्यानाम्यव. म्यादवक्तव्यमवय एक-एक करके द्विधा भवार्थ-व्यवहारवत्त्वात् ॥४६॥ (पदक) तीन मूल विकल्प है। इनके विपक्षमत धर्मकी मधि-मंयोजनाम्पमे द्विसंयोगज विकल्प तीन- • 'म्यान' (शब्द) भी गुण और मुख्य म्वभावाके म्यादस्नि-नाम्न्यव म्यादम्यवक्तव्यमेव.म्यान्नाम्न्यवन- द्वाग कल्पिन किये हुए एकान्तोका लिये हुए होता हैव्यमव-होते है और त्रिमयाज विकल्प एक- नयांके आदेशसे । अर्थात् शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकी म्यादम्ति-नाम्न्यवक्तव्यमेव ही होना है। इस तरहसे प्रधानतामें अस्तित्व-कान्त मुख्य है। शेप नास्तिमात विकल्प हवार जिन मम्पूर्ण अर्थभदमे-अशेष त्वादि-कान्त गौण है, क्योंकि प्रधानभावमेव विवक्षित जीवादितत्त्वार्थ-पायांम. न कि किमी एक पर्यायम- नहीं होत और न उनका निराकरण ही किया जाना आपके यहाँ (आपके शासनमे) घटिन हात है. दृमग- है। इमक मिवाय. मा अस्तित्व गधक मांगकी तरह के यहां नहीं कयोकि 'प्रतिपर्यायं मतभङ्गी" यह असम्भव है जो नाम्निन्वादि धर्माकी अपेक्षा नहीं आपके शासनका वचन है. दुसरं सर्वथा एकान्तवादियो- रग्बना । म्यान' शब्द प्रधान तथा गौणरूपमे ही उनका के शासनम वह बनता ही नहीं। और ये सब विकल्प द्योतन करना है-जिम पद अथवा धर्मक साथ वह 'म्यान' शब्दके द्वारा नेय है-नेतृत्वको प्राप्त है- प्रयुक्त होता है उसे प्रधान और शेष पदान्तगं अथवा अर्थात एक विकल्पके साथ स्थान शब्दका प्रयोग हाने- धमाका गांगा बतलाता है, यह उसकी शक्ति है। मे शंप छहो विकल्प उमके द्वारा गृहीत होत हैं. उनके व्यवहाग्नयके आदेश(प्राधान्य)मे नास्तित्वादिपुनः प्रयोगकी जरूरत नहीं रहती, क्योंकि स्यात्पढके एकान्त मुख्य है और अस्तित्व-एकान्त गौण है; क्यासाथमे रहनेसे उनके अर्थविषयम विवादका अभाव कि प्रधानरूपमे वह नव विक्षित नहीं होता और न होना है। जहाँ कहीं विवाद हो वहाँ उनके क्रमशः उमका निराकरण ही किया जाता है. अस्तित्वका प्रयोगमे भी कोई दोप नहीं है, क्योंकि एक प्रतिपाद्यके मर्वथा निराकरण करनेपर नास्तित्वादि धर्म बनते भी सप्त प्रकारकी विप्रतिपत्तियोका मगाव होता है- भी नही, जैसे कछवेके रोम । नास्तित्वादि धर्माके द्वारा उतने ही मंशय उत्पन्न होने है उतनी ही जिज्ञासाओ- अपक्षमान जो वस्तुका अस्तित्व धर्म है वह 'म्यान' की उत्पत्ति होती है और उतने ही प्रश्रवचनों (मवालों) शब्दके द्वारा द्यानन किया जाता है। इस तरह स्यान' की प्रवृत्ति होती है। और प्रश्नके वशमे एक वस्तुम नामका निपात प्रधान और गौणरूपमे जा कल्पना अविरोधरूपमे विधि-निषेधकी जा कल्पना है उमीका करता है वह शुद्ध (मापेक्ष) नय के आदेशरूप सम्यक Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्पह - एकान्तमे करता है, अन्यथा नहीं क्योंकि वह यथा- ही कोई व्यवस्था बनती है-क्योंकि उसमें भी प्रमापाधि-विशेषणानुसार-विशेपका-धर्म-भेद अथवा णाभावकी दृष्टिसे कोई विशेप नहीं है, वह भी सकलधर्मान्तरका-यातक होता है. जिमका वस्तुम मद्भाव प्रमाणोके अगोचर है।' पाया जाता है।' (द्रव्यमात्रकी, पर्यागमात्रकी नथा पृथग्भूत द्रव्य(यहाँपर किमीका यह शा नहीं करनी चाहिय पर्यायमात्रकी व्यवस्था न बन मकनेसे) यदि सर्वथा कि जीवादि तच्च भी नव प्रधान तथा गौणम्प एकान्त द्वयात्मक एक तत्व माना जाय तो यह मर्वथा द्वयात्म्य का प्राप्त होजाता है, क्योंकि) नच नो अनकान्त है- एककी अर्पणाके माथ विरुद्ध पडता है.-सर्वधा एकत्वअनेकान्तात्मक है और वह अनेकान्त भी अनेकान्त- के माथ द्वयात्मकता बनती ही नहीं-क्योकि जो द्रव्यरूप है. एकान्तम्प नही, कान्त तो उसे नयकी की प्रतीनिका हेतु है और जो पर्यायकी प्रतीतिका अपेक्षासे कहा जाता है-प्रमाणकी अपेक्षासे नही. निमित्न है वे दाना यदि परम्परम भिन्नात्मा है ना केमे कमांकि प्रमाण मकलाप होता है-विकलाप नही नदात्मक एक तत्त्व व्यवस्थित होता है ? नहीं होता, विकलरूप तत्त्वका एकदेश कहलाता है जो कि नय- क्योंकि अभिन्नका भिन्नात्माओक माथ एकत्वका का विषय है और इमीम मकलम्प तत्त्व प्रमाणका विरोध है । जब वे दानो आत्मा एकसे अभिन्न है तर विषय है । कहा भी है-सकलादेशः प्रमाणाधीनः भी एक ही अवस्थित होता है. क्योंकि सर्वथा एकमे विकलादशो नयाधीनः ।' अभिन्न उन दोनोंक एकत्वकी मिद्धि होती है, न कि और वह तत्व दा प्रकारम व्यवस्थित है-एक द्वयात्म्य (दयात्मकता) की. जो कि एकत्वके विरुद्ध है। भवार्थवान होनेमे-द्रव्यरूप, जिसे मद्रव्य नथा कौन सा अमृढ (ममझदार) है जो प्रमाणको अङ्गी. विधि भी कहते है, और दमग व्यवहारवान हान- कार करता हुआ सर्वथा एक बम्नुके दो भिन्न अात्मा पयायप, जिसे अमद्रव्य गण तथा प्रतिपध भी की अपणा-विवक्षा कर 7-मूढक सिवाय दृमग कहते है । इनसे भिन्न उमका दमग कार्ड प्रकार नहीं है कोई भी नहीं कर सकता । अतः द्वयात्मक तत्व जो कुछ है वह मब इन्ही दो भेदोके अन्तर्भूत है।' मर्वथा एकापणाक-एक तत्त्वकी मान्यताक-माथ न द्रग्य-पर्याय-पृथग-व्यवस्था विरुद्ध ही है, पमा मानना चाहिये। द्वै यात्म्यमेकाऽर्पणया विरुद्धम् । (तब अविरुद्ध तत्व कैसे सिद्ध होवे ? इसका ममाधान करते हुए आचार्य महोदय बतलातहैं--) धर्मी च धर्मश्च मिथविधेमो (किन्तु हे वीर जिन :) आपके मतमे स्याद्वादन सर्वथा तेऽभिमती विरुद्धौ ॥४७॥ शासनमे-य धर्मों (द्रव्य) और धर्म (पर्याय) दानो 'मर्वथा द्रव्यकी (द्रव्यमेव' इस द्रव्यमात्रात्मक असर्वथारूपसे तीन प्रकार-भिन्न, अभिन्न तथा एकान्तकी) कोई व्यवस्था नहीं बनती क्योंकि सम्पूर्ण भिन्नाभिन्न-माने गये है और (इसलिय सर्वथा पायाने रहित द्रव्यमात्रतत्त्व प्रमाणका विषय नही विरुद्ध नहीं है। क्योकि सर्वथारूपसे तीन प्रकार है-प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणसे वह सिद्ध नहीं माने जानेपर भी ये प्रत्यक्षादि प्रमाणांसे विरुद्ध ठहरते होता अथवा जाना नहीं जासकता; न सर्वथा पर्यायकी हैं और विरुद्धरूपमें आपको अभिमत नहीं हैं। अतः (पर्यायएव-क मात्र पर्याय ही-इम एकान्त स्यात्पदात्मक वाक्य न तो धर्ममात्रका प्रतिपादन करता सिद्धान्तकी कोई व्यवस्था बनती है क्योकि द्रव्यकी है न धर्मीमात्रका, न धर्म-धर्मी दोनोंको सर्वथा अभिन्न एकान्तकी तरह द्रव्यसे रहित पर्यायमात्रतत्त्व भी प्रतिपादन करता है. न सर्वथा भिन्न और न सर्वथा किमी प्रमाणका विपय नहीं है, और न सर्वथा भिन्नाऽभिन्न । क्योकि ये सब प्रतीतिके विरुद्ध है। पृथग्भूत-परम्परनिरपेक्ष-द्रव्य-पर्याय ( दोनों) की और इससे द्रव्य-एकान्तकी, पर्याय-एकान्तकी तथा Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्नभद्र-भारतीके कुछ नमूने किरण ७ ] परस्परनिरपेक्ष पृथग्भूत द्रव्य-पर्याय एकान्तकी व्यस्थान बन सकनेका समर्थन होता है। द्रव्यादिके सर्वथा एकान्त में युक्त्यनुशासन घटित ही नहीं होता।' (तत्र युक्तयनुशासन क्या वस्तु है. उसे अगली कारिका मे स्पष्ट करके बतलाते हैं -) erssगमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपां युक्त्यनुशामनं ते । प्रतिक्षणं स्थित्युदय - व्ययात्मतत्त्व-व्यवस्था सदिहाऽर्थरूपम् ||४८|| • प्रत्यक्ष और आगमसे अविरोधरूप - अबाधित विपयस्वरूप - अर्थका जो अर्थ प्ररूपण है- अन्यथानुपपत्येकलक्षण साधनरूप अर्थमे साध्यरूप अर्थका प्रतिपादन है— उसे युक्तयनुशासन - युक्तिवचन-कहते है और वही (हे वीर भगवान् ) आपको अभिमत है ।" · (यहाँ आपके मतानुसार युक्तयनुशासनका एक उदाहरण दिया जाता है और वह यह है कि) अर्थका रूप प्रतिक्षण (प्रत्येक समय) स्थिति (धान्य) उदय (उत्पाद) और व्यय ( नाश) रूप तत्त्वव्यवस्थाको लिये हुए है, क्योंकि वह सन है।' (इस युक्तयनुशासन में जो पक्ष है वह प्रत्यक्षविरुद्ध नहीं है, क्योंकि अर्थका धौव्योत्पादव्ययात्मक रूप जिस प्रकार बाह्य घटादिक पदार्थोमं अनुभव किया जाता है उसी तरह आत्मादि श्राभ्यन्तर पदार्थों मे भी उसका साक्षात अनुभव होता है। उत्पादमात्र तथा व्ययमात्र की तरह स्थितिमात्रका — सर्वथा धौव्यका — सर्वत्र अथवा कही भी साक्षात्कार नहीं होता। और अर्थ इम व्योत्पादव्ययात्मक रूपका अनुभव बाधक प्रमाणका अभाव सुनिश्चित होनेसे अनुपपन्न नही है - उपपन्न है, क्योंकि कालान्तर में धौव्योत्पादव्ययका दर्शन होनेसे उसकी प्रतीति सिद्ध होती है. अन्यथा खर- विषाणादिकी तरह एकवार भी उसका योग नहीं बनता । अतः प्रत्यक्ष-विरोध नही आगम-विरोध भी इम युक्तमनुशासनके साथ घटित नहीं हो सकता; क्योंकि उत्पादव्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत' | २४६ यह परमागमवचन प्रसिद्ध है— सर्वथा एकान्तरूप आगम दृष्ट (प्रत्यक्ष ) तथा इष्ट (अनुमान) के विरुद्ध अर्थका अभिधायी होनेसे ठग पुरुषके वचन की तरह प्रसिद्ध अथवा प्रमाण नहीं है। और इसलिये पक्ष निर्दोष है। इसी तरह सतरूप साधन भी असिद्धादि दोपासे रहित है । अतः अर्थका रूप प्रतिक्षण धौव्योत्पादव्ययात्मक है सत होनसे.' यह युक्तयनुशासनका उदाहरण समाचान है ।) (इस तरह तो यह फलित हुआ कि एक ही वस्तु नाना-स्वभावको प्राप्त है जो कि विरुद्ध है। तब उसकी सिद्धि कैसे होती है उसे स्पष्ट करके बतलाते हैं -) नानात्मतामप्रजहत्तदेकमेकात्मतामप्रजहच्च नाना । अङ्गाङ्गिभावात्तव वस्तु तद्यत् क्रमेण वाग्वाच्यमनन्तरूपम् ||४९|| ' (हे वीर जिन ) आपके शासनमे जो (जीवादि) वस्तु एक है (सत्वरूप एकत्व - प्रत्यभिज्ञानका विषय होनेसे वह (समीचीन नाना ज्ञानका विषय होने से ) नानात्मता (अनेकरूपता) का त्याग न करती हुई ही वस्तुको प्राप्त होती है—जा नानात्मताका त्याग करती है वह वस्तु ही नहीं, जैसे दूसरोंके द्वारा परिकल्पित ब्रह्माद्वैत आदि । (इसी तरह) जो वस्तु (अबाधित नानाज्ञानका विषय होनसे) नानात्मक प्रसिद्ध है वह एकात्मताको न छोड़ती हुई ही आपके मनमे वस्तुत्वम्पसे अभिमत है— श्रन्यथा उसके वस्तुत्व नहीं बनता, जैसे कि दूसरोंके द्वारा अभिमत निरन्वय नानान्तरणरूप वस्तु । अतः जीवादिपदार्थ समूह परस्पर एक-दूसरेका त्याग न करनेसे एक-अनेक. स्वभावरूप है, क्योंकि वस्तुत्वकी अन्यथा उपपत्ति वनती ही नहीं' यह युक्तयनुशासन है. 1 (इस प्रकारकी वस्तु वचनके द्वारा कैसे कही जा सकती है ? ऐसी शङ्का नही करनी चाहिए, क्योंकि) वस्तु जो अनन्तरूप है वह अङ्ग अङ्गीभावके कारण गुण-मुख्यकी विवक्षाको लेकर क्रममे वचनगांवर Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० अनेकान्त [ वर्ष ६ है-युगपन नहीं, युगपन (एक माथ) एक रूपसे और नहीं होसकती है। प्रत्युत इमके, सर्वथा एकत्वके वचनअनेकरूपसे वस्तु वचनके द्वारा कही ही नहीं जाती, द्वारा अनेकत्वका निराकरण होता है और अनेकत्वका क्योंकि वैसी वाणीका असंभव है-वचनमे वैसी निराकरण होनेपर उसके अविनाभावी एकत्वके भी शक्ति ही नहीं है। और इस तरह क्रमसे प्रवर्तमान निराकरणका प्रसङ्ग उपस्थित होनेसे असत्यत्वकी वचन वस्तुम्प-मत्य-होता है उसके असत्यत्वका परिप्रापि अभीष्ट ठहरती है। क्योंकि वैसी उपलब्धि प्रसङ्ग नहीं आता, कांकि उमकी अपने नानात्व और नहीं है । और मर्वथा अनेकत्वके वचनद्वारा एकत्वका एकत्वविषयमे अङ्ग-श्रीभावसे प्रवृत्ति होनी है। जैसे निराकरण होता है और एकत्वका निराकरण होनेपर 'स्यादेकमेव वस्तु' इम वचनके द्वारा प्रधानभावसे उसके अविनाभावी अनेकत्वके भी निराकरणका एकत्व वाच्य है और गौणरूपसे अनेकत्व, 'म्यादनेक- प्रमङ्ग उपस्थित होनेसे मत्यत्वका विरोध होता है। मेव वस्तु' इस वचनके द्वारा प्रधानभावसे अनेकत्व और इसलिय अनन्त धर्मरूप जो वस्तु है उसे अङ्गऔर गौग्गरूपसे एकत्व वाच्य है, इस तरह एकत्व अङ्गी (अप्रधान-प्रधान) भावके कारण क्रमसे वाग्वाच्य और अनेकत्वके वचनके कैसे असत्यता होसकती है। (वचनगोचर) समझना चाहिये।' स्मरण शक्ति बढ़ानेका एक अचूक उपाय यदि तुम विचारके पक्षीको, वह जब और जहाँ प्रकट हो. पिजड़ेमे बन्द न करोगे तो वह सम्भवतः सदाके लिये तुम्हारे पाससे चला जायगा. कुछ भी हो उसे लिख डालो, उसे फौरन लिखो, बादमे तुम उन दममेसे नीको खारिज कर सकते हो। लेकिन अगर तुम उन दसमेसे एक भी बचाकर रख लोगे तो उससे तुम लाभ उठाओगे। इस लिये जब कभी तुम्हारे सामने नया विचार आये या नई बात दिमागमे पैदा हो, अथवा तुम कोई नई खोज कग तो उसे कागजपर लिख डालो। मस्तिष्कके विषयमे यह न समझना चाहिये कि वह किसी बातको ढूंढने में पुस्तकालयका काम करेगा. अथवा अपने कामके लिये हम जिन तथ्योकी आवश्यकता पड़ता है उनका वह गोदाम है । मस्तिष्कका कार्यक्षेत्र बहुत ऊँचा है-रचना. समन्वय मंघटन, प्रेरणा देना और निर्णय करना ये उसके श्रेष्ठ कार्याममे है। यह काम उमसे लीजिए। कागज और पेमिल खरीद कर तथ्यांके लिख डालनेमे उनका इम्तमाल करना. मनमें बेकार बातोको इकट्ठा करनेकी अपेक्षा बहुत अधिक सस्ता है। यह एक विज्ञान-मम्मत दृष्टिकोण है जिमे गत कुछ वाँसे मनोवैज्ञानिक एकमतसे म्वीकार करने लगे हैं। -वमन्तलाल वर्मा Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीक्का स्वभाव (लेखक-भीजुगलकिशोर जैन, कागजी) [पाठक, देहलीकी ला० धूमीमल धर्मदासजी कागजीकी प्रसिद्ध फमसे अवगत होगे । श्रीजुगलकिशोरजी जैन इमी फर्मके मालिक हैं। कितने ही वास मुझे अापके निकट मम्पर्कमे पानेका अवसर मिला है। एकबार तो वीरमेवामन्दिरके अनेक प्रकाशनोंको छपाने के लिये कई महीने तक मुख्तारमाहब और मैं आपके घरपर ही ठहरे। हमने निकटमे देखा कि श्राप बहुत शान्त परिणामी, भद्र, धार्मिक अोर तत्त्वजिज्ञामु हैं । आप घपटों नत्व-चर्चामे सब काम-काज छोड़कर रस लेते हैं। हालमे श्राप विदेशोंकी यात्रा करके लोटे हैं। वहाँ आपने अपनी सस्कृति, अपने चारित्र और जानका कितने ही लोगोपर आश्चर्यजनक प्रभाव डाला । अापके हृदयमे यही बलवती भावना घर किये हुए है कि देश और विदेशमे जैनधर्मका प्रसार हो-उसके सिद्धान्तोको दुनिया जाने और जानकर उनका आचरणकर सुख शान्ति प्राप्त करे । प्रस्तुत लेग्न आपकी पहली रचना है । पाठक, देखेंगे कि वे अपने प्रथम प्रयत्नम कितने अधिक मफल हुए हैं और जैनधमके दृष्टिकोण से जीवका स्वभाव समझानेमे समर्थहो सके हैं। समाजको अापसे अच्छी आशाएं हैं। काठिया] जैन धर्म प्रत्येक जीवको श्रमादिकालमे म्वतन्त्र, पदार्थ किमीको इष्ट मालूम होता है तो वही पदार्थ . अनादि और अकृत्रिम बनलाना है। इसमें दमरको अनिष्ट । एक पदार्थ एकको लाभदायक ज्ञात जीवका लक्षण इस प्रकार कहा गया है जो जीवे होता है ता दृमग्का वह हानिकारक प्रतीत होता मा जीव । अर्थात जो ज्ञान-दर्शन गणमे सहित है। है। हर जीव अपने-अपने संकल्प-विकल्पमें पड़ा हश्रा अनादिकालसे यह जीव इस मंसारमे मौजद है और किमीमे गग और किमीसे द्वेप करता हा शागरिक अनन्तकाल नक रहंगा- इसको किसीने पंदा किया व मानसिक द:खाको भागता रहता है। एक शरीरको है और न इमका कोई विनाश कर मकता है। द्रव्य- प्राप्त करता हुआ उमका छाडकर अन्य नवीन शरीरकी अपेक्षासे ममम्त जीव नित्य और समान है- को ग्रहण करना है। प्रत्येक प्राणी मुब चाहना है समान गुग्णवाले है । अनादिकालसे क्रोध.मान माया, और मुग्य प्राप्त करनेका उपाय भी करता है। परन्तु लाभ गग. द्वेष. माह. हाम्य, रति. अरनि. शांक.भय प्रत्यक दिन व प्रत्यक ममग उसे यही चिन्ता लगी ग्लानि, वेद आदि पुदलविकागंके वशीभूत हा वे रहती है कि मंग कार्य पूर्ण कब और कैसे होगा? नाना प्रकारके शरीराको धारण कर संसारम घम मुझ मग इन्छिन वस्तु कब और कैसे मिलेगी इम रहे हैं। मियादर्शन (भ्रान्त दृष्टि)मे मंसारके पदा- तरह विकल्प-जालोमे पडा हुत्रा उसकी प्राप्तिक लिय थीम सुख ममझकर वे उनका प्राप्त करनेके लिये अनुधावन करना है और कोशिश करता है। अनेक प्रकारकी चेष्टा करत रहन है और उन यह हम सब देखते ही हैं कि मनुष्य इस मंमार पदार्थोंके मेलका ही सदा अपनाते रहते है। मिथ्या- में प्रनि-दिन नई-नई ग्वाज करता जाता है और भागम दर्शनके ही कारण हर एक प्राणी अपनी मचिक मग्य व शान्तिके उपाय उनमे पाना-या प्रतीत होता है. अनुमार पदार्थोमे गग व द्वेष करता है। एक ही परन्तु हाना क्या है कि वह उन्हें प्राप्त करके भी Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ अनेकान्त [वर्ष वास्तविक सुग्य-शान्ति प्राप्त नहीं करता-केवल हुई । आत्माके स्वरूपको उन्होंने नहीं जाना। उनकी क्षणिक-मी शान्तिका पाकर फिरमे उन्हीं उलझनोमे दृष्टि मांसारिक भागोमे ही लगी रही। फॅम जाता है, पर मची शान्तिका हल वहाँ नहीं पाता। स्वर्गमें जाकर अनेक प्रकारके मांसारिक भागोमे मंमाग्मे असंख्य पदार्थ दिवाई देत है। प्रत्यकर्म रमण करने या नरकम निवास करके नाना प्रकार अनगिनत गुण है। प्रति-समय उनकी पयाय पलटती की यातनाको सहने या मनुष्य-भव प्राप्त करके जाती है-किसी पदार्थमे भी स्थिरता नहीं पाई जाती। कला-कौशल तथा प्रभुताको पानेपर भी प्रात्माका कोई पैदा होता है तो कोई नाश होता है। यह सब अपने असली स्वरुपकी पहचान नहीं हुई-श्रात्मा परिवर्तन क्या है ? क्या आपने कभी सोचा है ? यह बन्धनमें पडा ही रहा । परतन्त्र तो रहा ही। मध संसारचक्र है। जिस प्रकार २, ३, ४, ५ आदि शब्दांक मेलसे नाना प्रकारके पदवाक्यादि बन जाते कितने ही प्राणी यह समझत है कि धर्मस्थानामे है उसी प्रकार २. ३, ४ श्रादि वस्तुओके मेलसे नाना जानेमे और देवोकी भक्ति-उपासना करनेम आत्माका प्रकारके भौतिक पदार्थ नये-नय रूपमे सामने आतं असली स्वरूप मालूम होजायगा और इसके लिय वे रहते हैं। यह संसारका चक्कर है और वह इसी प्रकार वह वहाँ जाते है और रागी. दुपी नाना प्रकारके देवीसदा चलता रहेगा। मनुष्य अपनी अपूर्ण अवस्थामै दवताआकी मान्यता करत है। परन्तु उनसे भी उन्हें कभी भी किसी पदार्थके पूर्ण गुणोको जान नहीं सकेगी श्रात्मान श्रात्माका अमली स्वरूप मालूम नही हो पाता। -उसका पूग ज्ञान कभी नहीं हासकेगा। और इस वास्तवमे तथ्य यह है कि आत्माम राग-द्वपकी लिये उसे सदा असंतोष और दुख बना रहेगा। काई कल्पनाका अभाव हाजाना ही आत्माकी असली शांति भी प्राणी यह नहीं कहता कि “मै अव मंमारकी है और वही आत्माका वास्तविक निज स्वभाव हैसम्पत्ति व प्रभुना प्राप्त कर चुका है और यह सदा राग और द्रुपका सवथा अभाव अथान प्रशम-गुणमरे पास इसी तरहसे स्थिर बनी रहेगी और मैं मदा यथाव्यातचारित्रादि आत्मा (जीव) की असला मुख भांगता रहूँगा।" प्रत्येक प्राणी अधिकमे अधिक सम्पत्ति है। संसारदशाम वह पुगलकाँसे ढकी हुई धनादिककी इच्छा करता है। जो साधु भी होजाते है-अपने विवेक.संयम,तप:माधना आदि निज प्रयत्नो है उनमे भी अधिकांश अपनी मेवा कराकर धन से उन पुढलकों के अलग होजानेपर वह प्रकट आदिका ही आशीर्वाद देते है। इससे पता चलता है होजाती है। यह आत्मस्वभाव ही हम सबके लिये कि वे साधु होकर भी धनादिकमे ही सुखकी स्थापना उपादेय है और इस दिशामे ही संमारी जीवांके प्रयत्न करते हैं-उन्हें वास्तविक विवेक-बुद्धि जागृत नही श्रेयस्कर एवं दुबमोचक हैं। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म और उसका कार्य (लेखक-पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री) कर्मकी मर्यादा पर ग्लानि होती है । धन-सम्पत्तिको देखकर लोभ कर्मका मोटा काम जीवको संसारमं रोक रखना है। होता है और लोभवश उमके अर्जन करने. छीन लेने - परावर्तन संसारका दसरा नाम है। व्य. क्षेत्र. या चुरा लेनेकी भावना होती है। ठोकर लगनेपर काल. भव और भावके भेदसे वह पाँच प्रकारका है। दुःख होता है और मालाका संयोग होनेपर सुख । कर्मक कारण ही जीव इन पाँच प्रकारके परावर्तनामें इस लिय यह कहा जा सकता है कि केवल कर्म ही. घूमना फिरता है। चौरासी लाख योनियों और उनमे आत्माकी विविध परिणतिके होने में निमित्त नहीं है रहते हुए जीवकी जो विविध अवस्थाएँ होती है उनका किन्तु अन्य सामग्री भी उसका निमित्त है अतः कर्ममुख्य कारण कर्म है। स्वामी समन्तभद्र प्राप्तमीमांमा- का स्थान बाह्य सामग्रीको मिलना चाहिये। में कर्मक कार्यका निर्देश करते हुए लिग्बते है परन्तु विचार करनेपर यह युक्त प्रतीत नहीं होता, 'कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः' । क्योंकि अन्तरङ्गमे वैसी योग्यताके अभावमे बाह्य ‘जीवकी काम-क्रोध-श्रादिरूप विविध अवस्थाएँ अपने सामग्री कुछ भी नहीं कर सकती है। जिस योगीक अपने कर्मके अनुरूप होती है।' राग-भाव नष्ट होगया है उसके सामने प्रबल रागकी बात यह है कि मुक्त दशामे जीवकी प्रतिममय मामग्री उपस्थित होनेपर भी राग पैदा नहीं होता। जो म्वाभाविक परिणति होती है उसका अलग अलग इससे मालूम पड़ता है कि अन्तरङ्गमे योग्यताके बिना निमित्तकारण नहीं है. नही तो उसमें एकरूपता नही बाह्य सामग्रीका काई मूल्य नहीं है। यपि कमके बन सकती। किन्तु संसारदशामें वह परिणति प्रति विषयमे भी एमा ही कहा जा सकता है पर कर्म और समय जुदी जुदी होती रहती है इमलिय उमके जदे बाह्य सामग्री इनमे मौलिक अन्तर है। जुद निमित्तकारण माने गय है। ये निमित्त संस्कार ___कम वैसी योग्यताका सूचक है पर बाह्य सामग्रीरूपमे आत्मासे सम्बद्ध होते रहते है और तदनुकूल का वेमी योग्यनासे कोई मम्बन्ध नहीं । कभी वैमी परिणतिके पदा करनेमे महायता प्रदान करते है। योग्यताके मद्भावमे भी बाह्य मामग्री नहीं मिलती जीवकी अशुद्धता और शुद्धता इन निमित्तोंके मद्राव और कभी उसके प्रभाव भी बाह्य सामग्रीका संयोग और अमद्भावपर आधारित है। जब तक इन निमित्ता- देखा जाता है। किन्तु कमक विषय में एसी बात नहीं का एकक्षेत्रावगाहसंश्नशम्प मम्बन्ध रहता है तब है। उसका मम्बन्ध तभी तक आत्मासे रहता है जबतक अशुद्धता बनी रहती है और इनका सम्बन्ध तक उममें तदनुकूल याग्यता पाई जाती है। अतः छूटते ही जीव शुद्ध दशाको प्राप्त होजाता है। जैन कमका स्थान बाह्य सामग्री नहीं ले सकती। फिर भी दर्शनमें इन्ही निमित्तोको 'कर्म' शब्दसे पुकाग गया है। अन्तरङ्गी योग्यताकं रहते हुए बाह्य सामग्री के मिलने ऐसा भी होता है कि जिस ममय जैमी बाह्य पर न्यूनाधिक प्रमाण कार्य तो होता ही है इस लिय सामग्री मिलती है उम समय उमके अनुकूल अशुद्ध निमित्तांकी परिगणनामें बाह्य मामग्रीकी भी गिनती आत्माकी परिणनि होती है। सुन्दर सुस्वरूप श्रीक होजाती है। पर यह परम्परानिमिस है इसलिये इसकी मिलनेपर गग होता है। जुगुप्माकी सामग्री मिलने- परिगणना नोकर्मके स्थानमें की गई है। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०५४ अनेकान्त [वर्ष ६ इतने विवेचनमे कमकी कार्य-मर्यादाका पता लग जिनसे विविध प्रकारके शरीर. वचन, मन और जाता है। कर्मके निमित्तमे जीवकी विविध प्रकारकी श्वासोच्छ्वासकी प्राप्ति होती है वे पुद्गलविपाकी कर्म अवस्था होती है और जीवमं ऐसी योग्यता आती है. कहलाते हैं। इन दोनों प्रकारके कर्मोमे ऐसा एक भो जिमसे वह योगद्वारा यथायोग्य शरीर, वचन, मन कर्म नहीं बतलाया है जिसका काम बाह्य सामग्रीका और वामांच्छवामके योग्य पुदलोको ग्रहणकर उन्हें प्राप्त कराना हो। मानावेदनीय और अमातावेंदनीय ये अपनी योग्यतानुमार परिणमाता है। स्वयं जीवविपाकी है। राजवार्तिकमे इनके कार्यका कर्मकी कार्य-मर्यादा यद्यपि उक्त प्रकारकी है निर्देश करते हुए लिखा हैतथापि अधिकतर विद्वानांका विचार है कि बाह्य यस्योदयाद्देवादिगतिषु शरीरमानम्ममुग्बप्राधिमामीकी प्राप्ति भी कर्मस होती है। इन विचारोंकी स्तत्मद्वद्यम. यत्फलं दुःखमनेकविधं तदमद्वद्यम् ।' पुष्टिमं वे मोक्षमार्गप्रकाशक निम्न उल्लेखाको उपस्थित करन हैं-तहां वेदनीय करि तौ शरीर विषै वा शरीर इन वानिकोकी व्याख्या करते हुए वहाँ लिग्वा हैने बाह्य नाना प्रकार मुख दुःग्वनिका कारण पर द्रव्य 'अनेक प्रकारकी देवादि गतियांम जिम कर्मके उदयमे का मयांग जरै है।-पृष्ठ ३५।। जीवाके प्राप्त हुए द्रव्यके मम्बन्धकी अपेक्षा शारीरिक उमीम दृमग प्रमाण व यो देते है और मानमिक नाना प्रकारका सुखरूप परिणाम होता 'बहुरि कर्मनि विप वेदनीयक उदय करि शरीर है वह माता वेदनीय है। तथा नाना प्रकारकी नग्कादि विप बाह्म मुख दुःखका कारण निपज है। शरीर विपै गतियोमे जिम कमके फलस्वरूप जन्म, जरा, मरण. आरोग्यपनी, गेगीपनौ, शक्तिवानपनी, दुर्बलपनी और इष्टवियांग, अनिष्टमंयोग, व्याधि, वध और बन्धनादि क्षुधा तृपा गग ग्वेद पीडा इत्यादि मुग्व दु:खनिक से उत्पन्न हुआ विविध प्रकारका मानसिक और कारण हा है । बहुरि बाह्य विप सुहावना ऋत पावना- कायिक दुःमह दु:ग्य हाता है वह अमाता वेदनीय है।' दिक वा इष्ट स्त्री पुत्रादिक वा मित्रधनादिक सुख सर्वार्थमिद्धिमे जो सातावदनीय और अमातादुग्यके कारक हो हैं।-पृष्ठ ५६।। वेदनीयक स्वरुपका निर्देश किया है। उससे भी उक्त इन विचागकी परम्पग यहीं तक नहीं जाती है कथनका पुष्टि हाता है। किन्तु इससे पूर्ववर्ती बहुतसे लेखकोने भी मे ही भी इन कर्माका यही अथ किया है । एमी हालतमे इन विचार प्रकट किये है। पुराणामे पुण्य और पापकी कर्माका अनुकूल व प्रतिकूल बाह्य सामग्रीके मंयोगमहिमा इमी आधारसे गाई गई है। अमितगतिके वियागमे निमित्त मानना उचित नहीं है। वास्तवमे सुभापितरत्रमन्दाहमे दवनिम्पण नामका एक अधि बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति अपने-अपने कारणोमे होती कार है। उममें भी ऐमा ही बतलाया है। वहाँ लिखा है। इसकी प्राप्तिका कारण काई कर्म नहीं है। है कि पापी जीव ममुद्रमे प्रवेश करनेपर भी रन नहीं ऊपर मोक्षमार्ग प्रकाशकके जिम मतकी चर्चा की पाता किन्तु पुण्यात्मा जीव तटपर बैठे ही उन्हें इसके सिवा दो मत और मिलते हैं। जिनम बाह्य प्राप्त कर लेता है । यथा सामग्रीकी प्राप्तिक कारणोका निर्देश किया गया है। 'जलधिगनाऽपि न कश्चित्कश्चित्तटगोऽपि रत्नम्पयाति ।' इनमेसे पहला मत तो पूर्वोक्त मतसे ही मिलता किन्तु विचार कग्नपर उक्त कथन युक्त प्रतीत जुलता है। दृमरा मत कुछ भिन्न है। आगे इन दानो नहीं हाता । खुलामा इस प्रकार है- के आधारसे चर्चा कर लेना इष्ट है- - ___ कमकं दा भेद है-जीवविपाकी और पुदलविपाकी (१) षटखण्डागम चूलिका अनुयोगद्वारमे प्रकृजा जीवकी विविध अवस्था और परिणामांके होनेमें तियोंका नाम-निर्देश करते हुए सूत्र १८ की टीकामें निमित्त होते हैं वे जीविपाकी कर्म कहलाते हैं। और वीरसेन स्वामीन इन कोकी विस्तृत चर्चा की है। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] कर्म और उसका कार्य सर्वप्रथम उन्होंने माता और असातावेदनीय का वही स्वरूप दिया है जो सर्वार्थसिद्धि आदिमें बतलाया गया है। किन्तु शङ्का समाधानके प्रमङ्गसे उन्होंने सातावेदनीयको जीवविपाकी और पुलविपाकी उभयरूप सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। इस प्रकरणके वाचनेसे जाब होता है कि वीरसेन स्वामीका यह मत था कि सातावेदनीय और असातावेदनीयका काम सुग्य-दुखको उत्पन्न करना तथा इनकी मामग्रीको जुटाना दोनों है । (२) तत्त्वार्थसूत्र अध्याय २. सूत्र ४ की सर्वार्थfafa टीकामे बाह्य सामग्रीको प्राप्तिके कारणांका निर्देश करते हुए लाभादिकां उसका कारण बतलाया है । किन्तु सिद्धमं अतिप्रसङ्ग देनेपर लाभादिके साथ शरीरनामकर्म आदिकी अपेक्षा और लगा दी है। ये दो ऐसे मत है जिनमे बाह्य सामग्री की प्रामिका क्या कारण है इसका स्पष्ट निर्देश किया है। आधुनिक विद्वान भी इनके आधारमे दोनो प्रकारकं उत्तर देत पाये जाते है। कोई तो बेदनीयको बाह्य सामग्रीकी प्रातिका निमित्त बतलाते है। और कोई लाभान्नगय आदिके क्षय व नयोपशमको । इन विद्वानांके ये मत उक्त प्रमाणके बल भले ही बने हो किन्तु इतने मात्रसे इनकी पुष्टि नहीं की जासकती, क्योंकि उक्त कथन मूल कमव्यवस्थाके प्रतिकूल पड़ता है। यदि थोड़ा बहुत इन मतांको प्रश्रय दिया जा सकता है तो उपचारसे ही दिया जासकता है। वीरमेन स्वामीने तो स्वर्ग, भोग-भूमि और नरक में सुख-दुखकी निमित्तभूत सामग्री के साथ वहाँ उत्पन्न होनेवाले जrati माता और माता का सम्बन्ध दे कर उपचारसे इस नियमका निर्देश किया है कि बाह्य सामग्री माना और अमानाका फल है। तथा पूज्यपाद स्वामीने संसारी जीव बाह्य सामग्रीमे लाभादि रूप परिणाम लाभान्तराय आदिकं तयापशमका फल जानकर उपचार इस नियमका निर्देश किया है कि लाभान्तराय आदिके क्षय व क्षयोपशममं बाह्य सामग्री की प्राप्ति होती है। तत्त्वतः बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति न तो माता-माताका ही फल हैं और न लाभान्तराय :५५ आदि कर्मके क्षय व क्षयोपशमका ही फल है। सामग्री इन कारणोंसे न प्राप्त होकर अपनेअपने कारणोंसे ही प्राप्त होती है। उद्योग करना, व्यवसाय करना, मजदूरी करना, व्यापार के साधन जुटाना, राजा महाराजा या सेठ साहुकारकी चाटुकारी करना, उनसे दोस्ती जोड़ना. अर्जित धनकी रक्षा करना. उसे व्याजपर लगाना. प्राप्त धनको विविध व्यवसायांमे लगाना, खेती-बाड़ी करना, झाँसा देकर ठगी करना. जेब काटना, चोरी करना, जुया खेलना, भीख मांगना, धर्मादयका सचित कर पचा जाना आदि बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिके साधन हैं। इन व अन्य कारणांसे बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति होती है उक्त कारणों से नहीं । शक्का - इन सब बातोंके या इनमेंसे किसी एकके करनेपर भी हानि देखी जाती है मां इसका क्या कारण है ? समाधान-प्रयत्नकी कमी या बाह्य परिस्थिति या दोनो । शङ्का - कदचित व्यवसाय आदि नहीं करनेपर भी धनप्राप्ति देखी जाती है. मां इसका क्या कारण है ? समाधान - यहाँ यह देखना है कि वह प्राप्ति कैसे हुई है ? क्या किसीक देन हुई है या कही पडा हुआ धन मिलने से हुई है ? यदि किसीके देनम हुई है तो इसमें जिसे मिला है उसके विद्या आदि गुण कारण है या देनेवालको स्वार्थसिद्धि, प्रेम आदि गुण कारण है। यदि कहीं पड़ा हुआ धन मिलनेमे हुई है तो ऐसी धनप्राप्ति पुण्योदयका फल कैसे कही जा सकती है। यह तो चोरी है। अत: चोरी HTT इस धनप्राप्तिमं कारण हुए न कि माताका उदय । शङ्का आदमी एक साथ एक मा व्यवसाय करते हैं फिर क्या कारण है कि एकको लाभ होता है और दमको हानि ? समाधान-व्यापार करनेमें अपनी अपनी योग्यता और उस समयकी परिस्थिति आदि इसका कारण है, पाप-पुण्य नहीं । संयुक्त व्यापारमै एकको हानि और दूसरेको लाभ हो तो कदाचित हानि-लाभ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ अनेकान्त [ वर्ष पाप-पुण्यका फल माना भी जाय, पर ऐसा होता पाप-पुण्यका फल नहीं है। जिस प्रकार बाह्य सामग्री नहीं; अतः हानि-लाभको पाप-पुण्यका फल मानना अपने-अपने कारणासे प्राप्त होती है उसी प्रकार किसी भी हालतमें उचित नहीं है।। सरोगता और नीरोगता भी अपने-अपने कारणोंसे शङ्का-यदि बाह्य मामग्रीका लाभालाभ पुण्य- प्राप्त होती है । इसे पाप-पुण्यका फल मानना किसी पाप कर्मका फल नहीं है तो फिर एक गरीब और भी हालतमें उचित नहीं है। दूसरा श्रीमान क्यों है ? शङ्का-सरोगता और नीरोगताके क्या कारण हैं? समाधान-एकका गरीब दुसरेका श्रीमान होना समाधान-अस्वास्थ्यकर आहार, विहार व यह व्यवस्थाका फल है पुण्य-पापका नहीं। जिन देशों सङ्गति करना आदि सरोगताके कारण हैं और स्वामें पंजीवादी व्यवस्था है और व्यक्तिको सम्पत्ति जोड़ने सध्यवर्धक आहार, विहार व सङ्गति करना आदि की पूरी छूट है वहाँ अपनी अपनी योग्यता व साधनों नीरोगताके कारण हैं। के अनुमार लोग उसका संचय करते हैं और इमी इस प्रकार कर्मकी कार्य-मर्यादाका विचार करने व्यवस्थाके अनुसार गरीब और अमीर इन वर्गाकी पर यह स्पष्ट होजाता है कि कर्म बाह्य सम्पत्तिके संयोग सृष्टि हुश्रा करती है। गरीबी और अमीरी इनको वियोगका कारण नहीं है। उसकी तो मर्यादा उतनी ही पाप-पुण्यका फल मानना किमी भी हालत में उचित है जिसका निर्देश हम पहले कर आय है । हाँ जीवके नहीं है। रूसने बहुत कुछ अंशामे इम व्यवस्थाको विविध भाव कर्मके निमित्तसे होत है। और वे कहींतोड़ दिया है इस लिये वहाँ इस प्रकारका भेद नहीं कहीं बाह्य सम्पत्तिके अर्जन आदिमे कारण पड़त है, दिखाई देता है फिर भी वहाँ पुण्य और पाप तो है ही। इतनी बात अवश्य है। सचमुच में पुण्य और पाप तो वह है जो इन बाह्य नैयायिक दर्शन व्यवस्थाओसे परे है और वह है आध्यात्मिक । जैन कर्मशास्त्र ऐसे ही पुण्य-पापका निर्देश करता है। यद्यपि स्थिति सी है तो भी नैयायिक कार्यमात्र शका-यदि बाह्य सामग्रीका लाभालाभ पुण्य के प्रति कर्मको कारण मानते है। वे कमको जीवनिष्ठ पापका फल नहीं है तो सिद्ध जीवांका इसकी प्राप्ति मानते हैं। उनका मत है कि चेननगत जितनी विषमक्यों नहीं हाती? ता है उनका कारण कम तो है ही। साथ ही वह समाधान-बाह्य मामग्रीका सद्भाव जहाँ है वहीं अचेतनगत मब प्रकारकी विषमताओका और उनके उसकी प्राप्ति सम्भव है। या तो इसकी प्राप्ति जड न्यूनाधिक सय न्यूनाधिक सांगोका भी जनक है। उनके मतसे चेतन दोनोका होती है। क्योकि तिजाडी मे भी धन अगतमे द्वथणुक आदि जितने भ कार्य हात है वे किसी रक्सा रहता है, इसलिये उसे भी धनकी प्राप्ति कहीं न किमाक उपभागक याग्य होनेसे उनका कता जासकती है। किन्तु जडके रागादि भाव नहीं होता कम हा है। और चेतनके होता है इसलिये वही उसमे ममकार नैयायिकोने तीन प्रकारके कारण माने है-समऔर अहङ्कार भाव करता है। वायिकारण, असमवायिकारण और निमित्तकारण । शङ्का--यदि बाघ सामग्रीका लाभालाभ पुण्य- जिस द्रव्यमें कार्य पंदा हाता है वह द्रव्य उस कार्यके पापका फल नहीं है तो न सही पर मरोगता और प्रति ममवायिकारण है । संयाग असमवायि कारण नीरोगता यह तो पाप-पुण्यका फल मानना ही है। तथा अन्य सहकारी सामग्री निमित्त है। इनकी पड़ता है। __ सहायताके बिना किसी भी कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती। ममाधान-सरोगता और नीरोगता यह पाप- ईश्वर और कर्म कार्यमात्रके प्रति साधारण कारण पुण्यके उदयका निमित्त भले ही होजाय पर स्वयं यह क्या है, इसका खुलासा उन्होने इस प्रकार किया है Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण . ] कर्म और उसका कार्य ०५७ कि जितने कार्य हान है वे सब चेतनाधिषित ही होतं मिलने है और बुरे कर्म करता है तो बुरी योनि और हैं इम लिये ईश्वर मबका माधारण कारण है। बुर भाग मिलन है। इसीसे कविवर तुलसीदासजीने इमपर यह प्रश्न होता है कि जब सबका कर्ता अपने रामचरितमानसमे कहा हैईश्वर है तब फिर उसने मबको एक-मा क्यों नहीं कम्म प्रधान विश्व करि राग्वा । बनाया ? वह सबको एक-से सुग्न एक-से भांग और जा जम करहि मा तस फल चाग्वा ।। एक-मी बद्धि दे सकता था। म्वर्ग-मोक्षका अधिकारी इम इन्दक पवधि द्वारा ईश्वरवादका समर्थन भी मबका एक-मा बना सकता था। दुग्वी, दरिद्र अरि करनेपर जा प्रश्न उठ खदा होता है, तुलसीदासजाने निकृष्ट यानिवाले प्राणियोंकी उम रचना ही नहीं करनी । उम प्रश्नका इम छन्दके उत्तराध द्वाग ममर्थन करनेथी। उसने ऐमा क्या नहीं किया ? जगतमे ता विष- का प्रयत्न किया है। मता ही विपमना दिग्यलाई देती है। इसका अनुभव नेयायिक जन्यमात्रके प्रति कर्मको साधारण सभाका होता है क्या जीवधारी और क्या जड जितन कारण मानत है। उनके मतम जीवात्मा व्यापक है इस भी पदार्थ है उन मवकी आकृति. स्वभाव और जाति लिय जहा भी उमक उपभागके योग्य कार्यकी सृष्टि जुदी-जुदा है । एकका मल दृमरम नहीं खाना । मनुष्य होता है वहां उमक कर्मका संयोग होकर ही वैमा का ही लीजिये । एक मनुप्यमे दम मनुष्यम बडा होता है। अमेरिकामं बनने वाली जिन माटरी तथा अन्तर है । एक मुम्बा है तो दमग दुग्यो । एकके पास अन्य पदाथोका भारताया द्वारा उपभोग होता है वे मम्पत्तिका विपुल भण्डार है ना दृमग दान-दानका उन उपभोक्ताओंके कानुसार ही निर्मित हात है। भटकता फिरता है। एक मातिशय बुद्धिवाला ह ता इमीस वे अपने उपभोक्ताक पाम खिचे चले श्रात दमग निग मुर्ख । मात्म्यन्यायका ता मवत्र हा बाल- है। उपभांग योग्य वस्तुका विभागीकरण इमी बाला है। बड़ी मछली छोटी मछलीका निगल जाना। हिसाबसे होता है। जिसक पास विपुल सम्पत्ति है चाहती है। यह मंद या तक मामित नहीं है. धम वह उसके कर्मानुमार है और जो निधन है वह भी और धमायतनाम भी इस भेदने अडा जमा लिया है। अपने कानुमार है। कर्म बटवारेमे कभी भी पक्षयदि ईश्वग्ने मनुष्यको बनाया है और वह मन्दिगेम पात नहीं होने देता। गरीब और अमारका भेद तथा बैठा है तो उस तक उसके सब पुत्रांको क्या नहीं जाने स्वामी और मेवकका भंद मानवकृत नहीं है। अपनेदिया जाता है। क्या उन दलालोका. जो दमको अपन कानुसार हा य भंद होत है। मन्दिरमे जानमे रोकते हैं, उसीने निमाण किया है ? मा क्यो है ' जब ईश्वरने ही इस जगतको बनाया जो जन्ममे ब्राह्मण है वह ब्राह्मण ही बना रहता है और वह करुणामय नशा मर्व शक्तिमान है तब है और जा शद्र है वह भद्र ही बना रहता है। उसके फिर उसने जगतकी ऐसी विपम रचना क्यों की? कर्म ही एम है जिसमे जो जाति प्राप्त होती है जीवन यह एक गेमा प्रश्न है जिसका उत्सर नैयायिकांन कर्मको भर वही बनी रहती है। म्वीकार करके दिया है। वे जगनकी इम विषमताका कर्मवादक बाकार करने में यह नैयायिकाकी युक्ति कारण कर्म मानत है। उनका कहना है कि ईश्वर है। वैशेपिकाकी युनिःभी इमसे मिलती जुलती है। जगतका कर्ता है तो मही पर उमने इसकी रचना वे भी नैयायिकांके समान चेतन और अचेतनगत प्राणियोंके कमानुमार की है। इसमे उसका रत्तीभर मब प्रकारकी विषमताका साधारण कारण कर्म मानने भी दाष नहीं है। जीव जैसा कर्म करता है उमीके हैं। यद्यपि इन्होंने प्रारम्भमे ईश्वरवादपर जार नहीं अनुमार उस यानि और भोग मिलते हैं। यदि अच्छे दिया पर परवर्तीकालमें इन्होंने भी उसका अस्तित्व कर्म करता है तो अच्छी यानि और अच्छे भोग म्वीकार कर लिया है। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ अनेकान्त [ वर्ष ६ जैन दर्शनका मन्तव्य जाना, रोजगारमें नफा-नुकसानका होना, दूसरोंद्वारा अपमान या सम्मानका किया जाना, अकस्मात् मकान किन्तु जैन दर्शनमें बतलाये गये कर्मवादसे इम का गिर पडना, फसलका नष्ट हो जाना, ऋतुका मनका समर्थन नहीं होना । वहाँ कर्मवादको प्राण अनुकूल प्रतिकूल होना, अकाल या सुकालका पडना, प्रतिष्ठा मुख्यतया आध्यात्मिक आधारोपर की गई है। रास्ता चलते-चलते अपघातका होना, किसीके ऊपर ईश्वरको नो जैनदर्शन मानता ही नहीं । वह बिजलीका गिरना, अनुकूल प्रतिकूल विविध प्रकारके निमित्तको स्वीकार करके भी कार्यके आध्यात्मिक संयोगो व वियोगीका होना आदि ऐसे कार्य हैं जिनका विश्लेषणपर अधिक जार देता है । नैयायिक-वैशेषिको कारण कर्म नहीं है। भ्रमसे इन्हें कर्मोंका कार्य समझा ने कार्यकारणभावकी जो रखा ग्वींची है वह उसे जाता है। पुत्रकी प्राप्ति होनेपर भ्रमवश मनुष्य उसे मान्य नहीं । उमका मत है कि पर्यायक्रमसे उत्पन्न अपने शुभ कर्मका कार्य समझता है और उसके मर होना नष्ट होना और ध्रुव रहना यह प्रत्येक वस्तुका जानेपर भ्रमवश उसे अपने अशुभ कमका कार्य स्वभाव है। जितने प्रकारके पदार्थ हैं उन सबमे यह समझता है । पर क्या पिताके शुभादयसे पुत्रकी क्रम चाल है। किसी वस्तुमें भी इसका व्यतिक्रम उत्पत्ति और पिताके अशुभादयसे पुत्रकी मृत्यु नहीं देखा जाता । अनादिकालसे यह क्रम चालू है सम्भव है ? कभी नहीं। मच तो यह है कि ये इष्ट और अनन्तकाल तक चालू रहेगा । इसके मतमे संयोग या इष्ट वियोग आदि जितने भी कार्य है वे जिस कालमें वस्तुकी जैसी योग्यता होती है उसीके अच्छे बुरे कर्मों के कार्य नहीं। निमित्त और बात है अनुसार कार्य होता है। जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और और कार्य और बात । निमित्तको कार्य कहना भाव जिस कार्यके अनुकूल होता है वह उसका उचित नहीं है। निमित्त कहा जाता है। कार्य अपने उपादानसे होता गोम्मटसार कर्मकाण्डमें एक नोकर्म प्रकरण है किन्तु कार्यनिष्पत्तिके समय अन्य वस्तुकी अनु- आया है। उससे भी उक्त कथनकी ही पुष्टि होती है । कूलता ही निमित्तताकी प्रयांजक है । निमित्त उपकारी वहाँ मूल और उत्तर कोके नाकर्म बतलाते हुए इष्ट कहा जा सकता है का नहीं । इमलिय ईश्वरको अन्न-पान आदिको साता वेदनीयका, अनिष्ट अन्नस्वीकार करके कार्यमात्रके प्रति उमको निमित्त मानना पान आदिको असाता वेदनीयका, विदूषक या बहुउचित नहीं है। इसीसे जैनदर्शनने जगतको अकृत्रिम पियाको हास्य कर्मका. सपत्रको रतिकर्मका. इष्ट और अनादि बतलाया है। उक्त कारणसे वह यावत वियोग और अनिष्ट-संयोगको अरति कर्मका, पुत्रकार्योमे बुद्धिमानकी आवश्यकता स्वीकार नहीं मरणको शोककर्मका, सिंह आदिको भयकमका और करता। घटादि कार्याम यदि बुद्धिमान निमित्त देवा ग्लानिकर पदार्थोंको जुगुप्मा कर्मका नाकर्म द्रव्यकर्म भी जाता है तो इससे सर्वत्र बुद्धिमानका निमित्त बतलाया है। मानना उचित नहीं है ऐमा इसका मत है। गोम्मटसार कर्मकाण्डका यह कथन तभी बनता यद्यपि जनदर्शन कर्मको मानता है तो भी वह है जब धन-सम्पत्ति और दरिद्रता श्रादिका शुभ और यावत कार्याक प्रति उसे निमित्त नहीं मानता। वह अशुभ कर्मोंके उदयमे निमित्त माना जाता है। जीवकी विविध अवस्था, शरीर, इन्द्रिय, · श्वा- कर्माके अवान्तर भेद करके उनके जा नाम और सोच्छवाम, वचन और मन इन्हींके प्रति कर्मको जातियाँ गिनाई गई है उनको देखनेसे भी ज्ञात होता निमित्त कारण मानता है। उसके मतसे अन्य कार्य है कि बाह्य सामग्रियांकी अनुकूलता और प्रतिकूलता अपने अपने कारणोसे होते है कर्म उनका कारण नहीं में कर्म कारण नहीं है । बाह्य सामग्रियोकी अनुकूलता है। उदाहरणार्थ-पुत्रका प्राप्त होना, उसका मर और प्रतिकूलता या तो प्रयत्नपूर्वक होती है या सहज Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] कर्म और उसका कार्य २५४ ही होती है। पहले साता वेदनीयका उदय होता है. इस बुराईको दूर करना है और सब जाकर इट सामग्रीकी प्राप्ति होती है ऐमा नहीं है किन्तु इष्ट मामग्रीका निमिन पाकर माता __ यद्यपि जैन कमवादी शिक्षाओं द्वारा जनताको वेदनीयका उदय होता है ऐमा है। यह बतलाया गया कि जन्मसे न कोई छूत होता है और न अछूत । यह भेद मनुष्यकृत है। एकके पास रेलगाड़ीसे सफर करनेपर या किसी मेलामें हमे अधिक पूँजीका होना और दृसंरके पास एक दमडी कितने ही प्रकारक आदमियाका समागम होता है। का न होना, एकका माटरोमे घूमना और दुसरंका काई हॅमता हुआ मिलता है तो काई राता हुआ। भीख मांगते हुए डालना यह भी कर्मका फल नहीं है, इनसे हमे सुग्व भी होता है और दुख भी। तो क्या क्योकि यदि अधिक पूंजीका पुण्यका फल और पूंजी य हमार शुभाशुभ कर्मोके कारण रेलगाडीमे सफर के न हानेको पापका फल माना जाता है तो अल्पकरने या मला ठंला देखने आय है ? कभी नहीं। संतापी और माधु दांना ही पापी ठहरंगे। किन्तु इन जैसे हम अपने कामसे सफर कर रहे है वसे वे भी शिक्षाओका जनता और साहित्यपर-स्थायी असर अपने अपने काममे सफर कर रहे है। हमारे और नहीं हुआ। उनके मंयोग-वियोगमे न हमारा कर्म कारण है और न अन्य लेग्यकोने ती नैयायिकांके कर्मवादका उनका ही कर्म कारण है। यह मंयोग या वियोग या तो प्रयत्नपूर्वक होता है या काकतालीयन्यायसे समर्थन किया ही, किन्तु उत्तरकालवर्ती जैन लेग्वकाने सहज होता है । इसमें किसीका कर्म कारण नहीं है। जो कथामाहित्य लिखा है उससे भी प्रायः नैयायिक फिर भी यह अच्छे बुर कर्मके उदयमे सहायक होता कर्मवादका ही समर्थन होता है। वे जैन कर्मवादक रहता है। आध्यात्मिक रहस्यका एक प्रकारमे भूलने ही गये और उनके ऊपर नंयायिक कर्मवादका गहरा रंग नैयायिक दर्शनकी आलोचना चढ़ता गया । अन्य लग्बको द्वारा लिखे गय कथा साहित्यको पढ़ जाइयं और जन लेखको द्वारा लिखे इम व्यवस्थाको ध्यान रख कर नैयायिकोके गय कथा-साहित्यका पढ़ जाइय । पुण्य-पापके वर्णन कर्मवादकी आलोचना करनेपर उसमे हमे अनेक दोष करनेमे दानाने माल किया है। दाना ही एक दृष्टिदिखाई देते है। वास्तवमे देखा जाय तो आजकी काणसे विचार करत है । अन्य लखकांक ममान सामाजिक व्यवस्था. आर्थिक व्यवस्था और एकतन्त्रके जैन लेग्वक भी बाह्य आधारका लेकर चलन है। वे प्रति नैयायिकाका कर्मवाद ओर ईश्वरवाद ही उत्तरदायी जैन मान्यताके अनुमार कर्मोकं वर्गीकरण और उनके है। इमाने भारतवर्षको चालू व्यवस्थाका गुलाम बनाना अवान्तर भेदोका मवथा भूलने गय । जैन दर्शनम सिखाया । जातीयताका पहाड लाद दिया। परिग्रह- यद्यपि कर्मोक पुण्य-कर्म और पाप कर्म से भेद वादियोंकी परिग्रहके अधिकाधिक मंग्रह करने में मदद मिलते है पर इममे बाह्य मम्पत्तिका प्रभाव पाप दी। गरीबीका कर्मका दुर्विपाक बताकर सिर न कर्मका फल है और मम्पनि पुग्य कर्मका फल है यह उठाने दिया । दूत-अछून और स्वामी सेवक-भाव नहीं सिद्ध होता। गरीब होकर भी मनुष्य मुवी देवा पैदा किया। ईश्वर और कर्मके नामपर यह सब हममे जाता है और सम्पत्निवाला होकर भी वह दुखी देखा कराया गया। धर्मने भी इममे मदद की। विचारा जाता है। पुण्य और पापकी व्याप्ति मुख और दुग्यमे कम तो बदनाम हुआ ही धर्मका भी बदनाम होना की जा सकती है, अमीरी गरीबीसे नहीं। इमर्मास जैन पड़ा। यह संग भारतवर्ष में ही न रहा। भारतवर्षके दर्शनमें सातावेदनीय और अमाता वेदनीयका फल बाहर भी फल गया। सुख दुख बतलाया है, अमीरी गरीबी नहीं। किन्तु Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० अनेकान्त [वर्ष ६ जैन माहित्यमें यह दीप बराबर चालू है । इसी दाषके स्पष्ट घोपणा की थी कि सब मनुष्य एक है। उनमें कारण जैन जनताको कर्मकी अप्राकृतिक और काई जातिभेद नहीं है। बाह्य जो भी भेद है वह अवास्तविक उलझनम फमना पड़ा है। जब वे कथा- भाजीविकाकृत ही है। व्यक्ति-स्वातन्त्र्य यह जैनधर्म प्रन्यामे और सुभापितामे यह पड़ते हैं कि पुरुषका का मार है। इसकी उसने मदा रक्षा की है। यद्यपि भाग्य जागनेपर घर बैठे ही रत्न मिल जाते है और जैन लेखकाने अपने इस मतका बड़े जोरांसे समर्थन भाग्यके अभावमे भमुद्रमे पैठनेपर भी उनकी प्राप्ति किया था, किन्तु व्यवहारमें वे इसे निभा न सके। नहीं होती। मर्वत्र भाग्य ही फलता है। विद्या और धीरे-धीरे पडौमी धर्मके अनुमार उनमे भी जातीय पौरुष कुछ काम नहीं आता । तब वे कर्मवादके भेद जार पकड़ता गया। जैन कर्मवाटके अनुमार मामन अपना मस्तक टक दत है। व जैन कर्मवादके उच्च और नीच यह भेद परिणामगत है और चारित्र आध्यात्मिक रहस्यको मदाकं लिय भूल जाते है। उसका अाधार है । फिर भी उत्तर लेखक इम मत्यका वतमान कालीन विद्वान भी इम दापसे अन भूलकर आजीविकाके अनुमार उच्च-नीच भदको नही बचे हैं । वे भी धनसम्पत्तिके मद्भाव और। मानन लगे। असद्भावको पुण्य - पापका फल मानते है । उनक यद्यपि वर्तमानम हमार साहित्य और विद्वानोकी मामन आर्थिक व्यवस्थाका रमियाका सुन्दर उदाहरण यह दशा है तब भी निराश होनका काई बात नहीं है। है। मियामे आज भी थाड़ी बहन आर्थिक विपमता हम पुनः अपनी मूल शिक्षाओंकी और . नहीं है. एसा नहीं है। प्रारम्भिक प्रयोग है। यदि है। हम जैन कर्मवादक रहस्य और उसकी मर्यादाओं उचित दिशाम काम होता गया और अन्य परिग्रह- को समझना है और उनके अनुमार काम करना है। वार्दा अतण्व प्रकारान्तरसे मोनिकवादी राष्ट्रोका माना कि जिस बुराईका हमने ऊपर उल्लेख किया है अनुचित दबाव न पड़ा तो यह आर्थिक विषमता थाई वह जीवन और माहित्यम घुल-मिल गई है पर यदि ही दिनकी चीज है। जैन कर्मवादके अनुसार सांता- इस दिशाम हमारा दृढतर प्रयत्न चालू रहा तो वह असाता कमकी व्याप्ति सुग्व-दुखके साथ है. बाह्य पूजी- दिन दूर नहीं जब हम जीवन और माहित्य दानाम क मद्राव-असद्भावक माथ नहीं। किन्तु जैन लेखक आइ हुई इस बुराईका दूर करनमें सफल होंगे। अंर विद्वान आज इम मत्यका मा भूले हुए है। समताधर्मकी जय। गरीबी और पूँजीको पाप-पुण्य ___ मामाजिक व्यवस्थाकं सम्बन्धमे प्रारम्भमे यद्यपि कर्मका फल न बतलाने वाले कर्मवादकी जय । छूत जैन लेग्बकाका उतना दोष नहीं है। इस सम्बन्धम और अछूतको जातिगत या जीवनगत न माननेवाले उन्हान सदा ही उदारनाकी नीति बरती है। उन्होंने कर्मवादी जय । परम अहिमा धर्मकी जय । जैन जयतु शासनम Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पुरातन अवशेष [विहाऽवलोकन (लेखक-मुनि कान्तिसागर) [गत किरणसे आगे] दक्षिणभाग्चमे श्रवणबेलगोलामे अनेको महत्वपूर्ण लोग ना उन्हें पढ़नेमे ही वञ्चित रह जाते है । बहुन लेखोकी उपलब्धि हुई है. जो दिगम्बर जैन ममाजसे कम लोगांको पता है कि हमारे लेग्वापर कौन कौन मम्बद्ध है। इन लेम्बोका देवनागरी लिप्यंतर एवं काम कर चुके है। तदुपरि मुविस्तृत निहामिक प्रस्तावना-महित बम्बई- एक बातका उन्लेग्व मे प्रमअवशान करदूं कि मे प्रकाशन भी होचुका है। काम अवश्य ही उम प्राचीन और मध्यकालीन लेग्वनिर्माण और बुवाईमे ममयकी प्राप्त मामग्रीके आधारोकी अपेक्षा मन्तीपप्रद अतर था इम विषयपर फिर कभी प्रकाश डाला ही कहा जामकता है। दशम शता पूर्वक बहुमंन्यक जायगा । अजैन विद्वानोका बहुत बड़ा भाग यह लेख और भी मिल सकते है यदि गवेपणा मानता आया है कि य जैन लेख केवल जैन इतिहास कीजाय तो। कलिय ही उपयोगी है सार्वजनिक इतिहामसे इनका ___ मध्यकालीन जैन लेग्वांकी संख्या अवश्य ही कोई मम्बन्ध नहीं है । परन्तु मा उनका मानना मत्य प्राचीनकालकी अपेक्षा कुछ अधिक है। क्योंकि मध्य- से दूर है. कारण-कि जैन लम्बांका महत्व तोगजनैतिक कालम जैनाकी उन्नति भी खूब रही। राजवंशाम जैन दृष्टिमे किमी भी रूपमे कम नहीं। राजस्थान और गृहस्थ मभी उच्च स्थानपर प्रतिष्ठित थे। जैनाचार्य गुजगतके जो लेख छपे हैं उनसे यही प्रमाणित हो उनकी मभाके बुधजनोमे आदर ही प्राप्त न करने थे. चुका है कि उस समयकी बहुतसी महत्वपूर्ण गजकहीं-कही ता विद्वानांके अग्रज भी थे. मी स्थितिम नैतिक घटनाका पना इन्हींसे चलता है। कामराका माधनोकी बाहुल्यताका होना सर्वथा स्वाभाविक है। जो बाकानेर स्टेटपर आक्रमण हुआ था वह घटना जैमलमर. राजगृह (महठियाण-प्रशम्ति). पावापुरी नत्रन्थ लग्यमे है। गोमटेश्वग्के लग्यांसे तो उस ममय सम्पूर्ण गुजरात और राजपूताना आदि प्रान्तामे के धके भावों तकका पता चल जाता है। ये मैंने जो कुछ प्राचीन लेख प्राप्त किये गये हैं उनका बहुत उदाहरण मात्र दिये हैं। ममस्त लेखाकी एक विस्तृत ही कम भाग एपिप्राफिका इंडिया' या 'इंडियन सूर्चा (कौन लेग्य कहाँ है ? विषय क्या है ? मुख्य एण्टीकगं' में छपा है। स्वर्गीय बाबू पुग्नचन्दजी नाहर घटना क्या-क्या है ? संवन किसका है 'लिपि पंक्ति मुनि श्रीजिनविजयजी. विजयधर्ममूरिजी. मुनिगज आदि बातांका व्यांग रहने से सरलता रहेगी) ता बन पुण्यविजयजी. नन्दलालजी लोढा डा० डी० आर० ही जानी चाहिये । मैं ना यह चाहूंगा कि सम्पूर्ण भांडारकर डा० मांकलिया आदि कुछ विद्वानाने समय लेम्वाकी एक मालाही प्रकट होजाय तो बहन बहा ममयपर मामयिकांम प्रकाश डाला है। पर आज काम होजाय. प्रत्यक पत्र वाले इम कामको उठा लंउनको कितना ममय होगया. बहुतमे मामयिक भी दा चार लेख प्रकाशनकी व्यवस्था करलें नोएक नया मर्वत्र प्राप्त नहीं सी स्थितिम माधारण अंगणीक क्षेत्र तैयार होजायगा। शर्त यह कि माम्प्रदायिक Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष मनोभावोसे काम न लिया जाय । मत्यको प्रकट कर उपर्युक्त पंक्तियोंसे जैनोंके कलात्मक विशिष्ट अयदेने में ही जैनधर्मकी ठोम सेवा है। शेषांका स्थूलाभाम मिल जाता है एवं इस बातका • प्रतिमा लेखांकी चर्चा या तो प्रसङ्गानुमार भी पता चल जाता है कि हमारे पूर्व पुरुषोंने कितनी उपर्यत पंक्तियां मे होचुकी है कि दशम शतीके बाद महान अखूट सम्पत्ति रख छोडी है। सच कहा जाये इसका विकास हुआ। ज्या-ज्यो प्रतिमाएँ बड़ी-बड़ी तो किमी भी मभ्य समाजके लिये इनसे बढ़कर बनती गई त्या-त्या उनके निर्माण-विधानमे भी कला- उचित और प्रगति-पथ-प्रेरक उत्तराधिकार हो ही क्या काराने परिवर्तन करना प्रारम्भ कर दिया। १२वी शनी मकता है ? सांस्कृतिक दृष्टिसे इन शिलाखण्डोंका बहुत मे लगातार आज तक जो-जो मूतिये बनी उनकी बडा महत्त्व है मैं तो कहेंगा हमारी और मार राष्ट्रकी बैठकके पश्चान और अग्रभागमे स्थान काफी छूट जाता उन्नतिके अमर तत्त्व इन्होम लुम है। बाहरी अनायथा वहीं पर लेख वदवाए जाते थे। म्पष्ट कहा जाय म्लेच्छांके भीपण अाक्रमणोक बाद भी सत्य पारतो दमीलिय स्थान छोडा जाता था। जब कि पूर्वमं म्परिक दृष्टिसे अखगिडत है। अतः किन किन दृष्टियो इस स्थानपर धर्मचक्र या विशेष चिह्न या नवग्रह आदि से इनकी उपयोगिता है यह आजक युगमे बनाना बनाये जाते देखे गय है। लेखोमें प्रतिस्पर्धा भी थी. पूर्व कथित उक्तियोका अनुसरण या पिटपेषण मात्र है धातुप्रतिमाओपर भी मंवत. प्रतिष्ठापक प्राचाय, समय निःस्वार्थभावसे काम करनेका है। समय अनु. निर्मापक, स्थान आदि सूचक लेख रहते थे. जब पूर्व- कूल है। वायुमण्डल साथ है। अनुशीलनके बाह्य कालीन प्रतिमाओंमें केवल संवत और नामका ही साधनाका और शक्तिका भी अभाव नहीं। अब यहाँ निर्देश रहता था। हाँ, इतना कहना पड़ेगा कि जैनाने पर प्रश्न यह उपस्थित होता है कि इतने विशाल प्रदेशचाहे पापाण या धातुकी ही प्रतिमा क्या न हो, पर मे प्रमारित जैन अवशेषोकी सुरक्षा कैसे की जाय उनम लिपि-सौदर्य ज्योका त्यो सुरक्षित रखा. मध्य- और उनके सार्वजनिक महत्वसे हमारे अजैन विद्वतकालीन लिपि-विकासके इतिहासमं वर्णित जैन लेखा समाजका कैसे परिचय कगया जाय, दानो प्रश्न का स्थान अनुपम है। दिगम्बर जैनसमाजकी अपेक्षा गम्भीर तो है पर जैन जैसी धनी समाजके लिये श्वेताम्बरोंने इसपर अधिक ध्यान दिया है । कभी-कभी असम्भव नहीं है। जो अवशेष भारत मरकार द्वारा प्रतिमाओंके पश्चात भागोमे चित्र भी खाद जांत थे। स्थापित पुरातत्त्वके अधिकारमे और जैन मन्दिरोमे ये लेख हजारांकी संख्याम प्रकट होचुके है पर अप्रका- विद्यमान है व तो मुरक्षित हैं ही, परन्तु जो यत्र तत्र शित भी कम नहीं' । २५८० बीकानेरके हैं ५०० मेरे सर्वत्र खण्डहरोमे पड़े हैं और जैन समाजके अधिमंग्रहम है, श्रीसाराभाई नबाबके पाम सैकडों है और कारम भी ऐसी वस्तु है जिनके महत्वका न तो भी होगे। इनकी उपयोगिता केवल जैनोंके लिये ही समाज जानता है न उनकी ओर कोई लक्ष ही है। है इसे मैं स्वीकार न करूंगा। मैने अवशेषांके प्रत्येक भागमे सूचित किया है कि जैन पुरातत्त्व विषयक एक स्वतन्त्र ग्रन्थमाला ही स्थापित १ आज भी अनेको प्रतिमाएं ऐसी हैं जिनके लेख नहीं की जाय जिसमे निम्न भागोका कार्य सञ्चालित हो:लिये गये । दिगम्बर प्रतिमाओंकी सख्या इसमें अधिक १-जैनमन्दिरोका मचित्र ऐतिहासिक परिचय । है। जैन मुनि विहार करते हैं वे कम से कम पाने वाले -जैन गुफाएँ और उनका स्थापत्य. सचित्र । मन्दिरके लेख लेले, तो काम हल्का होजायगा, दि० ३-जैन प्रतिमाओंकी कलाका क्रमिक विकाम । मुनियोंके साथ जो पडितादि परिवार रहता है वह भी इसे चार भागोमे बॉटना होगा । तभी कार्य सुन्दर कर सकता है। क्योंकि दि० मन्दिरोंमे श्वेताम्बशेको स्वा और व्यवस्थित हो सकता है। भाविक सुविधा नहीं मिलती है, मुझे अनुभव है। जैनलेग्य । इसे भी चार भागोमे विभाजित करना Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] जैन पुरातन अवशेष पड़ेगा-१ प्राचीन प्रस्तर लेग्य. • सम्पूर्ण प्रतिमा जाय कि कहॉपर क्या है । इसमें अजायबघरोकी लेख जो प्रस्तरपर है'. ३ मध्यकालीन प्रनर लेग्य, मामी भी श्राजानी चाहिये। ४ धातु प्रतिमाओंके लेख। जबतक उपर्युक्त कार्य नहीं होजाते है तबतक जैन ५-भिन्न भिन्न विविध भावदर्शक जो शिल्प पुरातत्वका विस्तृत या संक्षिप्त इतिहास लिखा ही मिलते हैं. उनको सचित्ररूपमे जनताके सम्मुग्व रग्या नहीं जा मकता। कई बार मैने अपने परम श्रद्धेय जाय. यह कार्य कुछ कठिन अवश्य है पर है महत्व- और पुरातत्त्व विषयक मेरी प्रवृत्तिके प्रोत्साहक पुरापूर्ण। तत्वाचार्य श्रीमान् जिनविजयजी श्रादि कई मित्रोसे -जैनकलाम सम्बद्ध मन्दिर, प्रतिमा मान- कहा कि श्राप पुरातत्त्वपर जैन धिमे बोन कुछ म्तम्भ. लेख. गुफाएं आदि प्रम्नरोत्कीरण शिल्पाकी लिखे. मर्व स्थानाम एक उत्तर मिलता है "माधना मी सूची तैयार की जानी चाहिये जिसमे पता चल कहाँ है ?" बात यथार्थ है। मामग्री है पर उपयुक्त १ इस विभागपर यद्यपि कार्य होचका है पर जो अवशिष्ट है प्रयाताके अभावमे या ही दिन प्रतिदिन नष्ट हो रही उमे पूर्ण किया जाय। है। मंग विश्वाम है कि हमारी इस पीढीका काम है २ इस प्रकार के विविध भावोंक परिपूर्ण शिल्पोंकी समस्या साधनाका एकत्रित करना विस्तृत अध्ययन, मनन तब ही सुलझाई जासकती है जब प्राचीन माहित्यका और लेखन ता अगली परम्पराक विद्वान करेंग । नलस्पशी अध्ययन हो, एक दिन मैं रॉयल एशियाटिक Tum निगल लिया साधनाको टोलनम भी बहुत ममय लग जायगा। मोमाइटीके रीडिंगरूममे अपने टंबलपर बैटा था इतनेमे जैन मन्दिर, गुफाओं और प्रतिमाश्रा आदिक प्राचीन मित्रवर्य श्रद्धेन्दुकुमार गागुलीने-जो भारतीय कलाके चित्र कुछ ता प्रकाशित हुए है फिर भी अप्रकट भी महान् ममीक्षक अोर 'रूपम' के भतपूर्व सम्पादक थे- कम नहीं; जा प्रकट हुए है व केवल प्राचीनताका मुझे एक नवीन शिल्पकृतिका फोट दिया. उनके पास प्रमाणित कग्नक लिय ही उनपर कलाके विभिन्न बड़ोदा पुरातत्त्व विभागकी श्रोरसे पाया था कि वे इस अङ्गापर समीक्षात्मक प्रकाश डालनेका प्रयास नहीं पर प्रकाश डालें, मैंने उसे बड़े ध्यानमे देवा, बात ममझ किया गया है। गयल शयाटिक मामाइटी लन्दन में आई कि यह नेमिनाथजीकी बगत है पर यह तो तीन और बङ्गाल, 'प्राकिलोजिकलसवे आफ इण्डिया' के चार भागोम विभक्त था, प्रथम एक तृतियांशम नेमिनाथ रिपाट रुपम 'इण्डियन पाट गड हरटी'. 'सासाजी विवाहके लिये रथपर श्रारूढ होकर जारहे है, पथपर इटी ऑफ दी इण्डियन प्रागिएन्टल आर्ट बम्बई मानव समूह उमड़ा हुआ है, विशेषता तो यह थी सभीक यूनिवमिटी'. 'जनरल ऑफ दी अमेरिकन सोसाइटी मुखपर हर्षोल्लासके भाव झलक रहे थे, रथके पास पशु आफ दी श्राट'. 'भांडारकर पारिएन्टल रिमर्च इन्मिरुध था, आश्चर्यान्वितभावोंका व्यकिकरण पशमखोपर टिल्यट' इण्डियन कलचर' आदि जनरल्स एवं बहुत अच्छे ढगसे व्यक्त किया गया था. ऊपरके भागमें भारतीय अभारतीय पाश्चयं गृहोंकी मूचियोंमे जैन रथ पर्वतकी श्रोर प्रस्थित बताया है। इस प्रकार के भावो पुगतत्व और कलाक मुखका उज्वल करने वाली की शिल्पोंकी स्थिति अन्यत्र भी मैंने देखी है पर इसम मामग्री पर्याप्तमात्रामें भरी पड़ी है (जैन पुरातत्त्व तो और भी भाव थे जो अन्यत्र शायद आज तक उप. विस्तृत ग्रंथ सूचा भार विस्तृत ग्रंथ सूची और अवशेषांकी एक सूची मैंने लब्ध नहीं हुऐ । यही इसकी विशेषता है। ऊपरके भाग रखता है । मेरे इसका उदाहरण देनेका एक ही प्रयोजन मे भगवानका लोग बताया है, देगना भी है और है कि ऐसे मान जहाँ कहीं प्राप्त हो तुरन्त फोटु तो निर्वाण महोत्सव भी है, दक्षिण कोनेपर गजिमतीकी उतरवा ही लेना चाहिये । दीक्षा और गुफामे कपड़े सुखानेका दृश्य मुन्दर है इतने १६न छहों विभागोंपर किस पढतिमे काम करना होगा भावोंका व्यक्तिकरण जैन कलाकी दृष्टिसे बहुत महत्व इसकी विस्तृत रूपरेखामै अलग निबन्धमें व्यक्त करू गा। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष : प्रारम्भ करदी है) कुछ अवशेष भी अभी कारग्वानेमे होजानेके बाद स्थान निश्चित होजाये तब) अपने प्रांत बन्द हैं। इन मभीकी महायनामे काम प्रारम्भ कर जिले और तहसीलमें पाये जाने वाले जैन अवशेषो देना चाहिये । परन्तु एक बातको ध्यानमे रखना की सूचना, यदि संभव होसके तो वर्णनात्मक परिचय आवश्यक है कि जहाँ तक होमके अपनी मौलिक ग्वोज और चित्र भी. भेजकर सहायता प्रदान करे । क्योकि को ही महत्व देना चाहिए अपनी दृष्टिसे जितना बिना इस प्रकारके सहयोगके काम सुचारू रूपसे अच्छा हम अपने शिल्पांको देव मकेगे उतना दूसरी चल न सकेगा. यदि प्रान्तीय संस्था प्रान्तवार इस इटिसे संभव नहीं। कामको प्रारम्भ करदे तो अधिक अच्छा होगा, कमसे इन कामोंको कैसे किया जाय यह एक समस्या है कम उनकी सूची तो अवश्य ही अनेकान्त' कार्यालय मुझे तो दो रास्त अभी मूझ रहे हैं: मे भेजें, वैसे निबन्ध भी भेजें. उनको सादर सप्रेम १ पुगतत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजी. बाब छोटे आमन्त्रण है। लालजी जैन डा. हीगलाल जैन. डा. एन. ____अब रही आर्थिक बात. जैनांके लिये यह प्रश्न तो उपाध्ये, मुनि पुण्यविजयजी, विजयन्द्रसरि. बाबू मेरी विनम्र सम्मतिक अनुमार उठना ही नहीं चाहिये जुगलकिशोर मुग्न्तार, पं० नाथूगमजी प्रेमी. डा. कमांकि देव द्रव्यकी सर्वाधिक सम्पत्ति जैनोंके पासमे बलचन्द, डा. बनारसीदासजी जैन. श्री कामताप्रमाद है. इसमे मेरा तो निश्चित मत है कि समस्त भारतीय जी जैन. डा० हॅममुग्ब मांकलिया, मि० उपाध्याय, श्री सम्प्रदायांकी अपेक्षा जैनी चाहे तो अपने स्मारकोको उमाकान्त प्रे. शाह, डा. जितेन्द्र बनग्जी. प्रो० अच्छी तरह रख सकत है। इससे बढ़कर और क्या अशाक भट्टाचार्य, श्रीयुत अद्धन्दुकुमार गांगुली. डा० सदुपयाग उम सम्पत्तिका समयका देखते हुए हासकता कालीदाम नाग, अंजुली मजूमदार. डा. स्टला है। अपरिग्रह पूर्ण जीवन यापन करने वाले वीतराग श्रीरणछोड़लाल ज्ञानी, डा० मातीचन्द, डा० अग्रवाल, परमात्माके नामपर अट सम्पत्ति एकत्र करना उनके डा. पी. के. श्राचार्य, डा० विद्याधर भट्टाचार्य, सिद्धान्तकी एक प्रकारस नैतिक हत्या करना है। यदि अगरचन्द नाहटा मागभाई नबाब आदि जैन एवं इस सम्पत्तिक रक्षक (?) इस कार्य के लिये कुछ रकम जैन पुरातत्त्व विद्वान एवं अनुशालक व्यक्तियोका देदे तो उत्तम बात, न दे तो भी मारा भारतवर्ष पडा एक जन पुरातत्त्व संरक्षक संघ" स्थापित करना हुआ है मॉगके काम करना है तब चिन्ता ही किम चाहिय । इनमेमे जो जिम विषयके योग्य विद्वान हो बातकी है। मेरी सम्यत्यनुसार यदि "भारतीय ज्ञानउनको वह कार्य सौपा जाय । उपर मैने जा नाम दिय पीठ" काशी इस कार्यको अपने नेतृत्वम करावे तो हैं उनमेसे ११ व्यक्तियों को मैंने अपनी यह योजना क्या कहना. क्योकि उन्हें श्रीमान पं० महेन्द्रकुमार मौग्विक कह सुनाई थी, जो महर्प योगदान देनेको न्यायाचार्य, बा० लक्ष्मीचन्दजी एम. ए. और श्रीतैयार है। हाँ कुछेक पारिश्रमिक चाहेगे। इसकी कार्य अयोध्याप्रसादजी गोयलीय जैसे उत्कृष्ट संस्कृति प्रेमी पद्धतिपर विद्वान जैसे सुझाव दे वैसे ढङ्गसे विचार और परिश्रम करने वाले बुद्धि जीवी विद्वान प्राप्त हैं। किया जासकता है। उनका सादर आमन्त्रण है। मान पूर्वमे ग्राहक बनाना प्रारम्भ करदं तो भी कमी नहीं लीजिये संघ स्थापित होगया। परन्तु इमकी संकलना रह मकती। ये बाते केवल यो ही लिख रहा हूँ मो तभी संभव है जब प्रत्येक प्रान्त और जिलेके व्यक्तियां बात नहीं है आज यदि कार्य प्रारम्भ होता है तो ५८० का हार्दिक और शारीरिक सहयोग प्राप्त हो, क्योंकि ग्राहक आमानीसे तैयार किये जामकते है ऐसा मेरा जिन-जिन प्रान्तोमे जैन संस्था है उनके पुरातत्व दृढ़ अभिमत है। प्रेमी कार्यकर्ताओं और प्रत्येक जिलके शिक्षित जैनो दसरा उपाय यह है कि जितने भी भारतम का परम कर्तव्य होना चाहिए कि वे (यदि स्थापित जैन विद्यालय या कॉलेज है उनमें अनिवार्यरूपसे जैन Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] जैन पुरातन अवशेष २६५ कलावशेषांका ज्ञान प्राप्त करनेकी व्यवस्था होनी को प्रकाशित करने वाले मौलिक माधन सुरक्षित रखे चाहिए, कमसे कम मनाहम एकलाम तो होना ही जाये, अलग-अलग कुछ गृहस्थोके पास सामप्रियाँ हैं चाहिए । इमसे विद्यार्थियांक हृदयम कला भावनाके पर उनका देवना सभीके लिय मम्भव नही जब तक अंकुर फूटने लगेग. होसकता है उनमेसे कर्मठ कार्य- उनकी वैयक्तिक कृपा न हो। कर्ता भी तैयार होजाये । ग्रीष्मावकाशमं जो-शिक्षण में जैनतीर्थों और प्राचीन मन्दिरोंके जीणोद्धार शिविर" हाना है उसमें भी ३-४ भापण इस विषयपर करानेवाले धनत्रानोका कहूँगा कि जहाँ कहींका भी प्रायोजिन हो तो क्या हर्ज है गत वर्ष कलकत्तासे मैंने जीणोद्धार कगवं भूलकर भी प्राचीन वस्तुको समूल विद्वत परिपदक मन्त्रीजीका ध्यान शिल्पकलापर नष्ट न करें, न जाने क्या बुरी हवा हमार समाजपर भापण दिलानेकी ओर आकृष्ट किया था पर ३-३ पत्र अधिकार जमाए हुए है कि लोग पुरानी कलापूर्ण देनके बावजूद भी उनका श्रीरसे कोई उत्तर आज तक मामग्रीका हटाकर तुरन्त मकरानंक पत्थरसे रिक्त मै प्रान न कर सका । संस्कृतके विद्वानांको इतनी इन- स्थानकी पूर्ती कर देन है और वे अपनेको धन्य भी की उपेक्षा न करनी चाहिए । जिम युगमे हम जाते हैं मानते है। यही बर्दा भाग भूल है। न केवल जैन और आगामी नवनिर्माणम यदि हम अपना साम्कृतिक ममाजका ही अपितु सभी भारतीयांका मंगमरमर योगदान करना है तो पापाणोंमे ही मस्तिष्कको टक- पापाणका बड़ा माह लगा हुआ है जो मूक्ष्म कलागाना होगा। इसमें काई सन्देश नहीं कि इस विषयका कौशलको पनपने नहीं देता। प्राचीन मन्दिर और माहित्य मामूहिक रूपमे एक स्थानमं प्रकाशिन नहीं कलापूर्ण जैनाद प्रतिमा एवं अन्य शिल्पांक दर्शनका हुआ. अतः वक्ताका परिश्रम तो करना होगा. उन्हें जिन्हें थाडा भी मौभाग्य प्राप्त है व दृढ़ता पूर्वक कह पर्याप्त अध्ययनक बाट वर्णित ऋनियांक माथ चक्षु- मकत है कि पुगनन प्रबल कल्पनाधार्ग कलाकार मयांग भी करना आवश्यक होगा। अस्तु, आग ध्यान और श्रीमन्तगण अपने ही प्रान्तम प्राप्त होने वाल दिया जायगा ना अच्छा है । मैं विश्वामक पाथ पापागणापर ही विविध भावोत्पादक शिल्पका प्रवाह कहना है कि वे दि इम विपयपर ध्यान दंग ना वना बड़ी ही योग्यता पूर्वक प्रवाहिन करन-करवान थे. की कर्मा नहीं रहेगी वनमानमे मै देखना है कि लोग वे इतनी शक्ति रखन थे कि कम भी पापारणको वे शीघ्र कह डालन है कि क्या करें. कोई विद्वान नहीं अपने अनुकूल बना लेने थे. उनपर कीगई पालिश मिलता है इसका कारण यही प्रतीत होता है कि मभी आज भी म्पर्धाकी वस्तु है। अल्प परिश्रममे आज विषयक विद्वानांका सम्पर्क न होना। लांग मुन्दर शिल्पी जो आशा करन है वह जैन शिल्पकलाकं विशाल ज्ञान प्राम करनका दुगशा मात्र है। यह भी मार्ग है कि या ताम्वनन्त्रमपम इमक गम्भीर मरी मचि थी कि मैं जैन शिल्पकलांक जो जो माहित्यादिका अध्ययन किया जाय बादमे अवशेषां फुटकर चित्र जहाँ कहाँ मा प्रकाशित हा उनकी का विशिष्ट प्ठम ग्वामकर तुलनात्मक ष्टम मम- विस्तृत सूची एवं जिन महानुभावाने उपयुक्त विषयचिन निरीक्षण किया जाय अथवा पद्विषयक विशिष्ट पर आजतक महान परिश्रम कर जो महद् प्रकाश विद्वानोंक पास रहकर कुछ प्राप्त किया जाय दृमग डाला है उन प्रकाशित स्थान या पत्रादिका, उल्लंग्व तर्गका मर्व है बिना मा किय हमाग अध्ययन- कर दूं परन्तु सायन- कर दं परन्त यां भी नाटका निबन्ध ना बन ही गया मूत्र विस्तृत और व्यापक मनांभावो तक पहुँचंगा है अनः अब कलवर बढ़ाना उचित न जानकर केवल नहीं। अस्तु । अनि मंतिमरूपस इतना ही कहंगा कि 'भारतीय जैन जैन ममाजके पास काई भी गमा व्यापक अजा- तीर्थ और उनका शिल्प स्थापन्य' नामक एक अन्य यबघर भी नहीं जिमम मांस्कृतिक सभी समस्याओं जैन शिल्प विद्वान श्री साराभाई नवाबने श्रम Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ अनेकान्त [वर्षह पूर्वक प्रकट किया है, पर इम मंग्रहमें केवल कलात्मक ध्यानसे बाहर नहीं है पर मैं जानबूझ कर उनको यहाँ दृष्टिसे ही काम लिया जाना तो ग्रन्थका महत्व उल्लिग्वित नहीं कर रहा है। सम्भव है यदि समय निःमहेह बहुत बढ़ जाता. मे मूल्यवान पन्थाम और शक्तिने साथ दिया नो अगले निवन्धमे लिखू । विषयके मावभौमिक महत्वपर प्रकाश डालने वाली इस निबन्धमें मबसे बड़ी कमी जो चित्रोकी रह गइ भूमिका न हो, मबसे बड़ी कमी है । श्वेताम्बर इसे मैं तुःख पूर्वक स्वीकार करता हूँ। क्योंकि समस्त मम्प्रदायसे इन चित्रोका सम्बन्ध है। मैं आशा करता प्रकृतियांकी व्यवस्था न मका, एक कारण यह भी है कि है कि भविष्यम जो भी भाग प्रकट होगे उनमें इसकी निबन्ध लेखन कार्य विहारमें ही हुआ है। यदि किसी पूर्तिपर समुचित ध्यान दिया जायगा, जब एक नवीन भी प्रकारकी स्खलना रह गई हो तो पाठक मुझे विषयको लेकर कोई भी व्यक्ति समाजमें उपस्थित हों अवश्य ही सूचित करे । जैन संस्कृति प्रेमी भाई और विषय स्फोटिनी भूमिका न हो तो जिनको शिल्प बहनाको एवं गवेषकोंसे मेरा निवेदन है कि वे ऊपर का मामान्य भी ज्ञान न हो तो वे उसे कैसे ता समझ सूचित कार्यमे अधिकसे अधिक महायता प्रदान करें। सकते हैं और क्या ही उनके आन्तरिक मर्मको यदि किसी भी अंशमे निबन्ध उपयोगी प्रमाणित हृदयङ्गम कर कार्य आगे बढ़ा सकते हैं । "बाबू" भी हुआ हो तो मैं अपना अत्यन्त क्षुद्रप्रयास सफल इमी प्रकार है। जैन संस्था या मुनिवर्ग इसकी समझंगा। उपेक्षा करते हैं । अबसे इसे ध्यान रखा जाय। गङ्गासदन, पटनासिटी. जैन पुरातत्त्वको और भी जो शाखाएँ हैं वे मेरे ता० १३-५-१९५८ वैशाली-(एक समस्या) (लेखक---मुनि कान्तिसागर, पटना सिटी) इसमें कोई संदेह नहीं कि आजके परिवर्तनशील लिये अपनी प्यारी जान तककी हँसते-हंसते बाजी युगमें अज्ञानता वश अपने ही पैरोसे पूर्वजोकी कीर्ति- लगादी, अपने चिरंतन आदर्शसे पतित न हुए अपितु लताकी जड कुचली जारही है। जहॉपर आध्यात्मिक अनेकोको वास्तविक मार्गपरलाय उन पवित्र आत्माग्री ज्योतिको प्रज्वलित करने वाले प्रातः स्मरणीय महा- के मंस्मरण जिस भूमिके साथ व्यवहारिक रूपसे जुड़े पुरुषांने वर्षों तक सांसारिक वासनाओका परित्याग हुए हो ऐसे स्थानको काई भी विचारशील, सुसंस्कृत कर भीषणातिभीषण अकथनीय कष्ट और यातनाओ व्यक्ति कैसे भूल सकता है ? उनसे आज भी हमे को महनकर, किसी भी प्रकारके विघ्नांकी लेशमात्र भी प्रेरणा और स्फूर्ति मिलती है । वहाँके रजःकरण चिन्ता न कर अात्मिक विकामके प्रशस्त मार्गपर मांस्कृतिक इतिहासके अमर तत्त्वासे ओत-प्रोत है। अग्रमर होने के लिये एवं भविष्यके मानवके कल्याणार्थ जहॉपर पैर रखनेसे हमारे मस्तिष्कमे उनतर विचाग कठोरतम माधनाएँ की थी, मानव संस्कृति और की बाढ़ आने लगती है. अतीत फिल्मके अनुसार सभ्यताके उच्चतम विकमित तत्त्वोकी जहॉपर गम्भीर घूम जाता है, पूर्वकालीन स्वणिम स्मृतियाँ एकाएक गवेषणा हुई, मानव ही क्यों. जहॉपर जीवमात्रको जागृत हो उठनी है. हृदयमे तूफान-सा वायुमण्डल सुखपूर्वक जीवन-यापन करनेका नैतिक अधिकार थिरकता है, नसामे रक्तका दौड़ाव गति पार कर जाता मिला, "वसुधैवकुटुम्बकम' जैसे आदर्श वाक्यको है. रोम-रोम पुलकित हो उठते हैं. मानव खडा-बड़ा जीवनमे चरितार्थ करनेकी योजना जहॉपर सुयोजित न जाने चित्रवन क्या-क्या खींचता है. कहनेका तात्पर्य हुई, जिम भूमिने अनेको एसे माईके लाल उत्पन्न किये यह कि कुछ क्षणोके जीवनमे आमूल परिवर्तन हो जिन्होंने देश, समाज और सांस्कृतिक तत्त्वोकी रक्षाके जाता है, हृदयमे उमँगोंकी तरंगें उठती रहती है और Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] वैशाली-(एक समस्या) २६७ संमार क्षणिक सुम्बका स्वप्न भामिन होने लगता है। प्राचार्य श्रीविजयेन्द्रसूरिजी कृत "वशाली" का कभी आपने मोचा है मा क्रान्तिकारी परिवर्तन यो अध्ययन करें। आपने इममे गम्भीरताके साथ होजाता है तीर्थस्थानाकी महिमाका यही बहुत बड़ा विश्लेषण किया है। प्रभाव है। बहुतांके जीवनमे ऐसे अनुभव अवश्य ही पुरातत्त्वाचार्य श्रीमान जिनविजयजी, डॉ. हुए होगे। मै तो जब कभी प्राचीन तीर्थस्थान या याकोत्री और डॉ. हॉर्नलेने बहुन ममय पूर्व जन बण्डहरांमे पर रखता हूं तब अवश्य ही ऐसे क्षणिक समाजका ध्यान इस वशाली की ओर आकृष्ट किया आनन्दकी घरियांका अनुभव करता हूं। अनः हमारी था पर तब बात संदिग्ध थी. किन्तु गत चार वर्षासे संस्कृतिके जीवित प्रतीकमम प्राचीन तीथस्थानों की तो इम आन्दोलनको बड़ा महत्व दिया जारहा है। रक्षाका प्रश्र अविलम्ब हाथमे लेने योग्य है । एमे गत वर्ष स्टेटममनसे श्रीयुत जगदीशचन्द्र माथुर। 5. स्थानोंमें वैशालीकी भी परिगणना मरलतासे की जा ने इस ओर जैनोंको फिर खीचा और बतलाया कि सकती है। जैनसाहित्यमे इमका स्थान बहुत गौरव वैशाली भगवान महावीरका जन्म स्थान होनेके कारण पूर्ण है। ई० म. पूर्व छठवीं शतीमें यह जैनसंस्कृति उनका एक विशाल स्तम्भ वा स्टेच्यु वहाँ प्रस्थापित का बहुत बड़ा केन्द्र था. उन दिनो न जाने वहाँ की किया जाना चाहिये जिमसे स्मृति सदाके लिये बनी उन्नति कितनो रही होगी श्रमण भगवान महावीर रहे। आप ही के प्रयत्नामे वहॉपर “वैशाली संघ" स्वामीजीकी जन्मभूमि होनेका सौभाग्य भी अब इसे की स्थापना हुई जिमका प्रधान उद्देश्य पत्र विधान प्राप्त होने जारहा है। आचारात और पवित्र कल्प- और चतुर्थ वार्षिकोत्सव का मेरे सम्मुख है। संघका सूत्रादि जैनसाहित्यके प्रधान प्रन्यासे भी प्रमाणित प्रधान कार्य इस प्रकार बॅटा हुश्रा है-"वैशालीके हा है। गणतंत्रात्मक राज्यशासन पद्धतिका यहीपर प्राचीन इतिहास और संस्कृति तथा इसके द्वारा उपपरिपूर्ण विकाम हुआ था जिसकी दुहाई आजके स्थित किय गय प्रजासत्तात्मक आदमि लोकरुचि यगर्म भी दी जारही है। तात्कालिक भगवान महावीर जागन करना. वैशाली और उसके ममीपके पुरातत्त्व दीक्षिन होनेके बाद जिन-जिन नगरांम विचरण करते सम्बन्धी स्थानांकी खुदाईके लिये उद्योग करना और थे उनकी अवस्थिति आज भी नामांके परिवर्तनके उनके मंरक्षणमें सहायता देना" इनके अतिरिक्त माथ विद्यमान है । कुमार प्राम. मांगकमन्निवेश वैशालीका प्रामाणिक इतिहास और वहॉपर पल्लवित श्रादि-आदि । यो तो वर्तमानमे लछवाड और कुंडल- पुष्पित संस्कृतिक गौरव पूर्ण अवशेषोंकी रक्षा एवं उन पुर श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदायोके द्वारा क्रमशः जन्म परमे जागृति प्राप्त कर हर उपायोसे प्राचीन आदर्श, स्थान माने जाते हैं पर वे मेरे ध्यानसे स्थापना तीर्थ का-जा यहाँ पूर्वमे थे-पुनरुज्जीवन, पुस्तकालयां रहे होगे । कयोकि गत ४ सौ वर्षसि ही या इससे कुछ वाचनालय, प्रामाणाकी मांस्कृतिक दृष्टिसे उन्नति अधिक कालके उल्लेख ही लवानकी पुष्टि करते हैं आदि कार्य है। भारतवर्गम योजना तो मागपण सम्भव है बादमे श्वेताम्बरोने इसे जन्म स्थान मान बननी है पर किसी एक आवश्यक अनपर भी ममुलिया हो। इन उभय स्थानांकी यात्रा करनेका मौभाग्य चिन रूपेण कार्य नहीं होना । केवल प्रतिवर्ष एक मुझे इमी वर्ष प्राप्त हश्रा है। परन्तु उभय स्थानोकी शानदार जल्मा होजाता है. लोग लम्ब-लम्बे व्याख्यान वतमान स्थितिको देखते हुए यह मानना कठिन-मा दे डालन है। अप-टू-डेट निमन्त्रण पत्र छपते है। प्रतीत होरहा है कि वहॉपर भगवान महावीरका जन्म चार दिनकी चहल-पहलके बाद "वही रफ्तार बेढली" हा होगा, ऐतिहासिक और भौगोलिक स्थिति इमसे आश्चर्य इस बातका है कि कभी-कभी मभापनि ही संगति नहीं रखती । इम विषयपर अधिक रुचि रखने वार्षिक उत्सवसे गायब । किमी भी ठोस कार्य करने वाले महानुभावोसे मैं निवेदन कर देना चाहूंगा कि वे सांस्कृतिक संस्थाके लिय इस प्रकारका कार्य पद्धति Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ अनेकान्त [वर्ष ६ उन्नति मूलक नहीं मानी जा सकती। कौमिल भी बनाना यह बात कुछ स्वार्थ प्ररित तत्त्वांकी सूचना इतनी लम्बी जैसा कोई लम्बा और मोटा अजगर हो:- देती है। मन्दिर नहीं बनाना तो जैनोंको बार-बार .५ सभापति, ११ उपमभापति, ४ मन्त्री, १ प्रोत्साहित ही क्यों किया जाता है ? मैं तो चाहूंगा कि कोषाध्यक्ष, ४१ सदस्य । इस चुनावकी परिपाटी भी वहाँ मन्दिर जरूर बने पर वह लम्बा चौडा न बनकर बिल्कुल असन्तोपजनक है। अधिकांश व्यक्ति एक एक ऐसा सुन्दर और कलापूर्ण निर्मित हो जिसमें डिवीजनके हैं या प्रान्तके है। इनमेमे बहुत ही कम मागधीय शिल्प स्थापत्य कलाके प्रधान सभी तत्त्वो से व्यक्ति हैं जो भारतीय संस्कृति, सभ्यता और का मर्माकरण हा. प्राचीन शिल्पकी ही अनुकृति हो. तन्मूलक गवेषणासे अभिरुचि रखते हो या उनका इस दिगम्बर श्वेताम्बर दोनो सम्प्रदायोका संयुक्त मन्दिर दिशामे कुछ ठोस कार्य हो। इसके मन्त्रीजीसे मैंने हाना चाहिये । सङ्गठनका यही अादर्श है। अब तो पदस्योकी लम्बी सूचीपर कुछ कहा वे कहने लगे कि समय आगया है दानी मिलकर जन संस्कृतिका अनुक्या करे कुछ लोगोंको प्रथम हभने न रक्या तो उनने पान करें। दोनो समाजाने मॅझटें खड़ीकर संस्कृतिको संघके विरुद्ध प्रचारकर दिया, अतः उनको रख लिया विकृतिके रूपमें परिणितकर दिया है। अच्छा हो मी प्रणालिका रहेगी तो मै ता कहूँगा कि वहॉपर वैशालीसे ही इस सङ्गठन और असाम्प्रदायिक भावो कुछ भी कार्य हाने की सम्भावना नहीं है, भले ही का विकाम-प्रचार हा । वाचनालय बनाना यह तो वर्तमान पत्राम सुन्दरसे सुन्दर रिपार्ट छप जाय। दर सर्वथा उपयुक्त है ही। अमल होना तो यह चाहिये था कि सदस्यताका एक मरे पास कुछ पत्र श्राय है कि वैशालीमें यदि हिम्सा उन लोगोंक लिय छोड दिया जाता. जो इतिहास मन्दिर निर्मित हा ता पम कहाँ भज जाये । मे म्पष्ट पुरातत्त्व आदि संशाधनक विपयांसे रात दिन सर राय तो यही दूंगा कि. जब तक एक समिति नियुक्त पचात रहते हैं भले ही वे इतर प्रान्तोके ही क्यों न नहीं होजाती-जिसमें विश्वसनीय समाजसेवी कार्यहो। डॉ. निहाररखनराय. डॉ. कालीदास नाग, डा कता हो तब तक रुपये कहींपर भी न भजे । और सुनातिकुमार चटर्जी, डॉ. आर० सी० मजूमदार. सावधानीसे काम ले; एक क्तिके भरोसेपर विश्वास डॉ० भॉडारकर, डॉ. ताराचन्द (पटना) भट्टाचार्य, कर आर्थिक सहायता भजना कभी-कभी बुरा नतीजा डॉ. अल्तकर, पी० के गाड M. A , डॉ. हंसमुख माल ल लना है। खंदकी बात तो यह है कि पटना सांकलिया आदि महानुभावोका रहना अनिवाय है बिहार आदिके जन गृहस्थी की भी इस कामम कार्ड जो ग्खनन और पुरातत्त्व तथा इतिहासकी शाखाओके खाम सामूहिक रुचि नहीं है' । मे पटनासे ही इन विद्वान है। ११ जनोको भी शामिल कर लिया है। पंक्तियोको लिख रहा हूँ। मुझे कहना होगा कि कुछ और जैन श्रीमन्तोंके साथ अन्तम मै यह सूचित कर देना अपना परम विद्वानोका भी रखना चाहिये, यदि मास्कृतिक विकास कसव्य समझता हूँ कि वशाली संघके कार्यकता का प्रश्न है तो। अपनी कार्य प्रणाली और सदस्योके चुनावमे बुद्धिचतुर्थ अधिवेशनमें प्रस्ताव पास किये गये है उन मानासे काम ले ता भविष्यमे बिहारका सांस्कृतिक में एक जैन मन्दिर बनवानेका भी है. मन्दिर जैनीही महत्त्व बढ़ेगा और वशाली भी विगत गौरवको प्राप्त अपने रुपयोसे बनवाये । परन्तु संघके वर्तमान कर आर्यसस्कृतिको अभूतपूर्व विकास केन्द्रका स्थान कोषाध्यक्ष श्रीमान् कमलसिहजी बदलियाने मुझे ता ग्रहण कर सकेगी। ४-७-४८ को बताया कि हमे वहॉपर जन मन्दिर १ सर्वप्रथम सघवालोका परम कर्तव्य यह होना चाहिये निर्माण नहीं करवाना; परन्तु लायब्ररी बनाना है। जब कि जैनसमाजमे वेसा वायुमण्डल तैयार करें कमसे कम महावीरकी स्मृति कायम रखना है और मन्दिर नहीं वैशालीके नजदीकके जैनोंको तो प्रोत्साहित करे ही। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान- विचार (लेखक-श्रीक्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी, न्यायाचार्य) हमारी समाजमें दान करनेकी प्रथा है। किन्तु दान क्या पदार्थ है इसके करनेकी क्या विधि है प्रायः इसमें विषमता देखी जाती है । अतः मैं इसपर कुछ अपने विचार प्रकट करता है। [वि. नरेन्द्र जैन काशी गत ग्रीष्मावकाशमें सागर गये थे । वहाँ पूज्य वर्णीजीके पुराने कागजोंके ढेरमे उन्हें वर्णीजीके ४, ६ महत्वपूर्ण लेख मिले हैं। यह बहुमूल्य लेख उन्हीं लेखोंमेसे एक है। यद्यपि यह लेख २७ वर्ष पहले लिखा गया था और इमलिये प्राचीन है तथापि उसमें पाठकोंके लिये आधुनिक नये विचार मिलेंगे और दानके विषयमें कितनी समस्याओंका हल तथा समाजमे चल रही अन्धाधुन्ध दान-प्रवृत्तियोंका उचित मार्ग दर्शन मिलेगा । वास्तवमे 'क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः के अनुमार यह लेख प्राचीनतामें भी नवीनताको लिये हुए है और इस लिये अपूर्व एवं सुन्दर है। उसे वि. नरेन्द्रने अपने अनेकान्तमें प्रकाशनार्थ भेजा है। अतः मधन्यवाद यहाँ दिया जाता है । देखें, समाज अागामी पयूपणपर्वमें, जो बिल्कुल नजदीक है और जिसमें मुख्यतः दान किया जाता हैं, अपनी दान प्रवृत्तिको कहाँ तक बदलती है ? --कोठिया दानकी आवश्यकता पात्र मनुष्योंकी तीन श्रोणियां द्रव्य प्रिसे जब हम अन्तःकरणमे परामर्श करते . १-इस जगतमें अनेक प्रकारके मनुष्य देखे जाते है तब यही प्रतीत होता है कि सब जीव समान है। । । है. कुछ मनुष्य तो ऐसे हैं जो जन्मसे ही नीतिशाली इस विचारसे समानतारुपमे तो दानकी आवश्यकता और धनाढ्य हैं। नहीं, किन्तु पर्यायदृष्टिसे सर्व श्रात्माएँ विभिन्न-विभिन्न -कुछ मनुष्य ऐसे हैं जो दरिद्रकुलमें उत्पन्न पर्यायामें स्थित है। कितनी ही श्रात्माएँ तो कर्मकलङ्क- " हुए हैं। उन्हें शिक्षा पानेका, नीतिके, सिद्धान्तोके उन्मुक्त हो मर्व अनन्तसुग्वके पात्र होचुकी हैं। कितने __ समझनेका अवसर ही नहीं मिलता। ही प्राणी मुग्वी देवे जाते हैं। और कितने ही दुखी ३-कुछ मानवगण से हैं जिनका जन्म तो देग्वे जाते हैं। बहुनसे अनेक विद्याके पारगामी विद्वान उत्तम कुलमे हुआ है किन्तु कुत्सित पाचरणांके है। और बहुतमे नितान्त मूर्व दृष्टिगोचर होरहे है। कारण अधम अवस्थामे काल-यापन कर रहे हैं। बहुतमे सदाचारी और पापसे परामुग्व हैं. तब बहुत इनके प्रति हमारा कर्तव्य से असदाचारी और पापमें तन्मय है । कितने ही जोधनवान तथा मदाचारी हैं अर्थात प्रथमश्रेणीबलिष्टताके मदमे उन्मत्त है, तब बहुतसे दुर्बलतासे के मनुष्य है उन्हें देखकर हमको प्रसन्न होना चाहिए। हाकर दुखभार वहन कर रह है। अतएव तदुक्त-गुणिषु प्रमादम" उनके प्रति इप्यादि नहीं आवश्यकता इस बातकी है कि जिमको जिस वस्तुकी करना चाहिए। आवश्यकता हो उसकी पूर्ति कर परोपकार करना द्वितीय श्रेणीके जो दरिद्र मनुष्य हैं उनके कष्टचाहिए । उमाम्वामीने भी कहा है-"परस्परोपग्रहो अपहरणके अर्थ यथाशक्ति दान देना चाहिए । जीवानाम" (जीवाका परस्पर उपकार हुआ करता है)। तदुक्तम्--"परानुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्” तथा सर्वोत्तम पात्र तो मुनि हैं उनकी शरीरकी स्थितिके उनको सत्य सिद्धान्तोका अध्ययन कराके सन्मार्गपर अर्थ भक्तिपूर्वक दान देना चाहिए। स्थिर करना चाहिए। तृतीय श्रेणीके मनुष्योको साम Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष यिक सत्शिक्षा और सदुपदेशोसे सुमार्गपर लाकर १-आहारदान और औषधिदान उन्हें उत्थान पथका पथिक बनाना चाहिए । शक्ति जो मनुष्य क्षुधासे क्षामकुक्षि एवं जर्जर होरहा है. होते हुए भी यदि उसका विनियोग न किया जावे तो तथा रोगसे पीडित है। सबसे प्रथम उसके क्षुधा एक प्रकारका घातकीपन है। श्रेणीके पहले मुनि श्रादि रोगोंको भोजन औषधि देकर निवृत्त करना लोगोंकी भी भावना मंसारके उद्धारकी रहती है। चाहिए । आवश्यकता इसी बातकी है। क्योंकि जो मनुष्य दयाके कार्योंको नहीं करते वे भयङ्कर पाप "बुभुक्षितः किं न करोति पापं” (भूम्या आदमी कौनकरनेवाले हैं। अतएव यथाशक्ति दुःखियोंके दुःख सा पाप नहीं करता) इससे किसी कविने कहा है कि दर करनेका यन्त्र प्रत्येक मनुष्यको करना चाहिए। "शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधन" तथा शरीरके नीरोग बहुतसे भाइयांकी ऐमी धारणा होगई कि पात्रोके बिना रहने पर बुद्धिका विकाश होता है; तदुक्तं- 'स्वस्थदान देना केवल पापबन्धका करने वाला है। उन्हें चित्त बुद्धयः प्रस्फुरन्ति” तथा ज्ञान और धमके अर्जन इन पं. राजमल्लके वाक्योंका स्मरण करना चाहिए:- का यत्न होता है। शरीरके नीरोग न रहनेपर विद्या दानं चतुर्विधं देयं, पात्रबुद्ध्याथ श्रद्धया । और धर्मकी चि मन्द पड़ जाती है अतएव अन्नजघन्यमध्यमोत्कृष्टपात्रेभ्यः श्रावकोत्तमैः॥ जल आदि औषधि द्वारा दुःखसे दु:वी प्राणियोके सुपात्रायाप्यपात्राय, दानं देयं यथोचितम् । दुःखका अपहरण करके उन्हें ज्ञानादिके अभ्यासमें पात्रबुद्ध्या निषिद्ध स्या-निषिद्धनं कृपाधिया। लगानेका यन्त्र प्रत्येक प्राणीका मुख्य कर्तव्य होना शेषोभ्यः क्षत्पिपासादि पीडितेभ्यो शभोदयात् । चाहिए। जिससे ज्ञान द्वारा वह यथार्थवस्तुका जान दीनेभ्योऽभयदानादि, दातव्यं करुणार्णवः॥ कर प्राणी इस संसारके जालमें न फंसे। (पञ्चाध्यायी ... ... " तृतीय श्रेणीके मनुष्य जो कुमार्गके पथिक होचुके ज्ञानदान हैं, तथा जिनकी अधम स्थिति होचुकी है वह भी 'अन्नदानकी अपेक्षा विद्यादान अत्यन्त उत्तम दयाके पात्र हैं। उनको दुष्ट आदि शब्दोंसे व्यवहार है। क्योंकि अन्नसे प्राणिकी क्षणिक तृप्ति होती है कर छोड़ देनेसे कार्य नहीं चलेगा। किन्तु उन्हें भी किन्तु विद्यादानसे शास्वती तृप्ति होती है। सन्मार्गपर लगानेका प्रयत्न करना चाहिए। जैनधर्म विद्याविलासियोको एक अद्भुत मानसिक सुख तो प्राणिमात्रके हितका कर्ता है सूकर, सिंह, नकुल, होता है. इन्द्रियोंके विलासियोंकों वह सुख अत्यन्त बानर तक जीवोको उपदेशका पात्र इसके द्वारा हा दुलभ है क्योकि वह सुख स्व-स्वभावोत्थ है जब कि मनुष्योंकी कथा तो दूर रही। तथा श्री विद्यानन्दिने इन्द्रियजन्य सुख पर जन्य है। भी कहा है कि जो दुष्ट और असदाचारी हैं वह अभयदान सद्धर्मको न जानकर इस उदाहरणके जालमें फँस गये इसी तरह अभयदान भी एक दान है. यह भी हैं। अतएव ऐसे जो प्राणी है वह धिक्कारके पात्र नहीं बड़ा महत्वशाली दान है। इसका कारण यह है कि प्रत्युत आपके द्वारा दयाके पात्र हैं। उनके ऊपर मनुष्यमात्रको ही नहीं, अपितु प्राणीमात्रको अपने . अत्यन्त सोम्यभाव रखते हुए सम्यगुपदेशों द्वारा शरीरसे प्रेम होता है। बाल हो अथवा युवा हो, उन्हें सन्मार्गपर लगाना प्रत्यक दयाशील मनुष्यका आहोस्वित् . वृद्ध हो, परन्तु मरना किसीको इष्ट नहीं। कर्तव्य है। मरते हुए प्राणिकी अभयदानसे रक्षा करना बड़े ही दानके भेद महत्व और शुभबन्धका कारण है। ऐसी रक्षा करने इस दानके प्राचार्योंने संक्षेपसे ४ भेद बतलाये १ अन्नदान पर दान विद्यादानमतः परम् । हैं। (१) आहार (२) औषध (३) अभय (1) ज्ञान। अन्नन क्षणिका तृप्तिर्याजीवं तु विद्यया । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] दान विचार २७१ वाले मनुष्योंको शास्त्रमें परोपकारी, धर्मात्मा आदि दानोंके द्वारा प्राणी कुछ कालके लिये दुःखसे विमुक्तशब्दोसे सम्बोधित कर सम्मानित किया है। सा होजाता है परन्तु यह दान ऐसा अनुपम और धर्मदान महत्वशाली है कि एक बार भी यदि इसका सम्पर्क इस अभय दानसे भी उत्तम धर्मदान है। इस होजावे तो प्राणी जन्म-मरणके क्लेशोंसे विमुक्त होकर परमोत्कृष्ट दानके प्रमुख दानी तीर्थङ्कर महाराज तथा निर्वाणके नित्य आनन्द सुखोका पात्र होजाता है । गणधगदि देव हैं। इसीलिये आपके विशेषगोमें अतएव सभी दानोकी अपेक्षा इस दानकी परमा"मोक्षमार्गस्य नेत्तारम” (मोक्षमार्गके नेता) यह प्रथम वश्यकता है। धर्मदान ही एक ऐसा दान है जो विशेपण दिया गया है। बड़े-बड़े राजा. महाराजा, प्राणियोको मंसार दुःखसे सदाके लिये मुक्तकर सच्चे यहाँ तक कि चक्रवतियाने भी बडे-बडे दान दिय किंत सुग्वका अनुभव कराता है। मंमारमे उनका आज कुछ भी अवशिष्ट नहीं है । तथा अपनी आत्मताडनाकी परवाह न करके दूसरोंके तीर्थकर महाराजने जो उपदेश द्वाग दान दिया था लिय मीठ स्वर सुनाने वाले मृदङ्गकी तरह जो अपने उसके द्वारा बहुतमे जीव तो उमी भवसे मुक्तिलाभ अनेक कष्टोकी परवाह न कर विश्वहितके लिय निरपेक्ष कर चुके और अब तक भी अनेक प्राणी उनके बताये निस्वाथ उपदेश देत है वे महात्मा भी इसी धर्मदानके सन्मागपर चलकर लाभ उठा रहे है। भव-बन्धन कारण जगत पूज्य या विश्ववन्ध हुए है। . परम्पराके पाशसे मुक्त होगे, तथा आगामीकालमे भी जब तक प्राणीको धार्मिक शिक्षा नहीं मिलती तब • उस सुपथपर चलनेवाले उस अनुपम सुखका लाभ तक उसके उच्चतम विचार नहीं होते, और उन विचारो उठावेंगे। कितने प्राणी उस पवित्र धर्मोपदेशसे लाभ के अभावमें वह प्राणी उस शुभाचरणसे दूर रहता है उठावेंगे यह कोई अल्पज्ञानी नहीं कर सकता। जिसके बिना वह लौकिक सुखसे भी वनित रहकर धोबीके कुत्तेकी तरह “घरका न घाटका" कहींका भी धर्मदानके वतेमान दातार नहीं रहता। क्योकि यह सिद्धान्त है कि "वही जीव वर्तमानमे गणधर. आचार्य श्रादि परम्परासे यह , यह सुखी रह सकते हैं जो या तो नितान्त मूर्ख हो. या दान देनेकी योग्यता मंसारसे भयभीत, बाह्याभ्यन्तर परिग्रह विहीन. ज्ञान-ध्यान-तपमें आमक्त, वीतराग, करने वाले हैं वही संसारमे पूज्य और धर्म संस्थापक पारन दिग्गज विद्वान हो।" अतः जो इस दानके दिगम्बर मुनिराजके ही हैं। क्योंकि जब हम स्वय कडे जाते है। विषय कषायोसे दग्ध है तब क्या इस दानका करेंगे। इसी तरह धर्मदानकी महत्ता जानकर हमें उस जो वस्तु अपने पास होती है वही दान दी जासकती दानको प्राप्त करनेका पात्र होना चाहिये। सिंहनीका है। हम लोगोंने तो उस धर्मको जो कि आत्माकी निज दध स्वर्ण के पात्रमें रह सकता है, धर्मदान सम्यग्ज्ञानी परणति है; कषायाग्निसे दग्ध कर रक्खा है। यदि वह पात्रमे रह सकता है। वस्तु आज हमारे पास होती तब हम लोग दु:खोके पात्र न होते । उमके बिना ही आज संमारमे हमारी अवस्था कष्टप्रद होरही है। उस धर्मके धारक परम उक्त दानोके अतिरिक्त लौकिक दान भी महत्वपूर्ण दिगम्बर निरपेक्ष परोपकारी; विश्वहितैपी वीतराग दान है जगतमे जितने प्रकारके दुःख हैं उतने ही भेद ही हैं अतएव वही इस दानको कर सकते हैं । इमीसे लौकिक दानके हो सकते हैं परन्तु मुख्यतया जिनकी उसे गृहस्थदानके अन्तर्गत नहीं किया। आज आवश्यकता है बे इस प्रकार हैंधर्मदानकी महत्ता ___ *यश्च मूढतमो लोके, यश्च बुद्ध: परांगतः । यह दान सभी दानोमें श्रेष्ठतम है, क्योंकि इतर तावुभो सुख मेधेते, क्लिश्यन्तीतरे जनाः ॥ लौकिक दान -..- - - - Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ अनेकान्त [वर्ष ६ - १-बुभुक्षित प्राणीको भोजन देना। *६-सभीका कल्याण हो, सभी प्राणी सन्मार्ग२-तृषितको पानी पिलाना। गामी हो, सभी सुखी समृद्ध और शान्तिके ३-वस्त्रहीनको वस्त्र देना। अधिकारी हो। ४-जो जातियाँ अनुचित पराधीनताके बन्धनमें ७-जोधर्ममें शिथिल होगये हों उनको शुद्ध उपपड़कर गुलाम बन रही है उनको उस दुःखसे देश देकर दृढ़ करना। मुक्त करना। E-जो धर्ममे दृढ़ हो उन्हें दृढ़तम करना। ५-जो पापकर्मके तीव्र वेगसे अनुचित मार्गपर ह-किसीके उपर मिथ्या कलङ्कका आरोप न जारहे हैं उन्हें सन्मार्गपर लानेकी चेष्टा करना। करना। ६-रोगीकी परिचर्या और चिकित्सा करना, १०-अशुभ क्रमके प्रबल प्रकोपसे यदि किसी प्रकारका अपराध किसीसे बन गया हो तो उसे प्रकट कराना । न करना अपितु दोपी व्यक्तिको सन्मार्गपर लानेकी ७–अतिथिकी सेवा करना। चेष्टा करना। ८-मार्ग भूले हुए प्राणीको मार्गपर लाना। ११-मनुष्यको निर्भय बनाना । ह-निर्धन व्यापारहीनको व्यापारमें लगाना। संक्षेपमे यह कहा जासकता है कि जितनी मनुष्य १०-जो कुटुम्ब-भारसे पीडित होकर ऋण देने की आवश्यकता है उतने ही प्रकारके दान होसकते में असमर्थ हैं उन्हे ऋणसे मुक्त करना। है। अतः जिस ममय जिस प्राणीको जिस बातकी . ११-अन्यायी मनुष्योंके द्वारा सताये जाने वाले आवश्यकता हो उसे धर्मशास्त्र विदित मार्गसे यथा मारे जाने वाले दीन, हीन, मूक प्राणियोकी रक्षा शक्तिपूर्ण करना दान है। करना। दुःख अपहरण उच्चतम भावना प्राप्त करनेका सुलभ माग यदि है ता वह दान ही है अतः जहाँ तक आध्यात्मिक दान ___ बने दुखियांका दुख दूर करनेके लिये सतत प्रयत्नशील . जिस तरह लौकिक दान महत्वपूर्ण है उसी तरह रहो. हित मित प्रिय वचनोंके साथ यथाशक्ति मुक्त एक आध्यात्मिक दान भी महत्वपूर्ण और श्रेयस्कर हस्तसे दान दो। है। क्योकि आध्यात्मिक दान स्वपर-कल्याण-महल दानके अपात्र की नीव है। वर्तमानमे जिन आध्यात्मिक दानाकी दान देते समय पात्र अपात्रका ध्यान अवश्य आवश्यकता है वे यह हैं रखना चाहिये अन्यथा दान लेने वालेकी प्रवृत्तिपर ५-अज्ञानी मनुप्योको ज्ञान दान देना। दृष्टिपात न करनेमे दिया हुआ दान ऊमर भूमिमें बोये २-धर्ममें उत्पन्न शङ्काओका तत्वज्ञान द्वारा गये बीजकी तरह व्यर्थ ही जाता है। जो विषयी है, समाधान करना। लम्पटी है. नशेबाज है, ज्वारी है, पर वञ्चक है. उन्हें ३-दुराचरणमें पतित मनुष्योंको हित-मित द्रव्य देनेसे एक तो उनके कुकर्मकी पुष्टि होती है. दूसरे वचनों द्वारा सान्त्वना देकर सुमार्गपर लाना । * क्षेम सर्वप्रजानां; प्रभवतु बलवान् , धार्मिको भूमिपालः , ४-मानसिक पीडामे दुखी जीवोंको कमेसिद्धांत- काले काले च सम्यग्वर्षतु मघवा, व्याधयो यान्तु नाशं । की प्रक्रियाका अवबोध कराकर शान्त करना। दुर्भिक्ष चौर मारी, क्षणमपि जगतां, मास्माभूजीव लोके , ५-अपराधियोंको उनके अज्ञानका दोष मानकर जैनेन्द्र धर्मचक्र, प्रभवतु सततं, सर्वसौख्यपदायि ॥ उन्हें क्षमा करना। (शान्तिपाठ) Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७] दान-विचार २७३ दरिदोकी वृद्धि और आलमी मनुष्योंकी संख्या बढ़ती व्यापार बन्धके उत्पादक नहीं होते । अथवा यों कहना है और तीसरे अनर्थ परम्पराका बीजारोपण होता है. चाहिये कि जो सर्वोत्तम मनुष्य हैं वे बिना स्वार्थ ही परन्तु यदि से मनुष्य बुभुक्षित या रांगी हों तो उन्हे. दुसरका उपकार किया करते है। और उन्ही विशुद्ध (दान दृष्टिसे नहीं अपितु) कृपादृष्टिमे अन्न या परिणामोंके बलसे सर्वोत्तम पदके भोक्ता होते है । जैसे औपधि दान देना वर्जित नहीं है। क्योकि अनुकम्पा प्रखर सूर्यकी किरणोसे सन्तप्त जगतको शीतांशु दान देना प्राणीमात्रक लिय है। (चन्द्रमा) अपनी किरणो द्वारा निरपेक्ष शीतल कर दान देनेमें हेतु देता है, उसी प्रकार महान पुरुपोका स्वभाव है कि वे दान देनेमे प्राणियोके भिन्न-भिन्न हेत होते है। समार-तापमे सन्ता पित प्राणियोके तापको हरण कर लेते है। म्थूलदृष्टिसे परके दुःखको दूर करनेकी इच्छा मर्व माधारणकी कही जासकती है परन्तु पृथक-पृथक् मध्यम दावार दानागे भिन्न-भिन्न पात्रोमें दान देनेके हेतुऑपर यदि जो पराये दुःग्यको अपने स्वार्थके लिये दान करते आप मूत्मतम प्टिसे विचार करेंगे तव विभिन्न अनेक + है वह मध्यम दानार है। क्योंकि जहाँ इनके स्वार्थमे कारण दिखाई पडेंगे। उन हेतुओंमे जो मर्वोत्तम हेतु , 1 वाधा पहुँचती है वहाँपर यह परोपकारके कार्यको हो वही हमको ग्रहण करना चाहिये । १-किनने ही त्याग देन है। अतः इनके भी वास्तविक दयाका मनुष्य परका दुःख देख उन्हे अपनेसे जघन्य स्थिति विकाम नही होता परन्तु धनकी ममता अत्यन्त प्रबल में जानकर "दुखियाकी सहायता करना हमारा कर्तव्य है. धनको त्यागना सरल नहीं है अतः इनके द्वारा यदि है" मा विचारकर दान करते है। २-कितने ही अपनी कीर्ति के लिये ही धनका व्यय किया जावे मनुष्य दृमगक दुःव दूर करनेके लिये, परलोकम मुम्ब प्रानि और इम लोकमे प्रतिष्ठा (मान) के लिये किन्तु जब उसमे दमरे प्राणियोका दुःग्य दूर होता है तब परकी अपेक्षामे इनके दानको मध्यम कहने में दान करत है। ३-और कुछ लोग अपने नामके लिय काई मंकोच न करेगा। क्योकि वह दान से दान कानि पानेका लालच और जगतमे वाहवाहीके लिये करने वालेके आत्म-विकाममे प्रयोजक नहीं है। आपने द्रव्यको परोपकारमें दान करते है। दातारके भेद जघन्य दातार मुग्न्यनया दातारके तीन भेद होते है १-उत्तम जो मनुष्य केवल प्रतिष्ठा और कार्तिके लालचसे दातार २-मध्यम दातार ओर ३-जघन्य दाताह। दान करते है वे जघन्य दातार है। दानका फल लाभ उत्तम दातार निरशनपूर्वक शान्ति प्राप्त होना है. वह इन दातागेको जो मनुष्य निःस्वार्थ दान देते है पगय दुःश्वको नहीं मिलता। कमांकि दान देनसे शान्तिके प्रतिबन्धक दर करना ही जिनका कर्तव्य है वही उत्तम दातार हैं आभ्यन्तर लोभादि कपायका अभाव होता है अतएव परोपकार करते हुए भी जिनकं अहम्बुद्धिका लेश नहीं प्रात्मामे शान्ति मिलती है। जो कीर्तिप्रमारकी इच्छावहीं सम्यकदानी है और वही संसार मागरमे पार से देते है उनके आत्म-सुम्ब गुणक घातक कर्मकी हांत है; क्याकि निष्काम (निम्वार्थ) किया गया कार्य हीनना तो दूर रही प्रत्युत बन्ध ही होता है । अतएव बन्धका कारण नहीं होना । जो मनुष्य इच्छापूर्वक सदान देने वाले जो मानवगण हैं उनका चरित्र कार्य करंगा उमे कार्य मिद्धान्तके अनुमार नजन्य उत्तम नहीं । परन्तु जो मनुष्य लोभके वशीभूत होकर बन्धका फल अवश्य भोगना पड़ेगा। और जानिष्काम १पाई भी व्यय करने में संकोच करते है उनसे यह 'वृत्तिस कार्य करंगा उमके इच्छाके बिना कायादिकृत उत्कृष्ट है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ अनेकान्त [ वर्ष ह पापका बाप लोभ अतः उसे संसारवर्धक दुष्ट विकल्पोंसे बचाये रहना, लोभके आवेगमें मनुष्य किन-किन नीच कृत्योंको सम्यग्दर्शनादि दान द्वारा सन्मार्गमें लानेका उद्योग नहीं करते ? और कौन-कौनसे दःखाको भोगकर करते रहना चाहिये। दूसरे दयाका क्षेत्र२ अपना निज दुर्गतिके पात्र नहीं होते यह उन एक दो ऐतिहासिक घर ह फिर ३ जाति ४ देश तथा ५ जगत है अन्तमें व्यक्तियोके जीवनसे स्पष्ट होजाता है। जिनका नाम जाकर यही-'वसुधैव कुटुम्बकम्” होजाता है। इतिहामके काले पृष्ठामे लिखा रह जाता है। । अनुरोध गजनीके शामक, लालची लुटेरे महमूद गजनवीने १००० और १०२६के बीच २६ वर्षमे भारतवर्षपर ___इस पद्धतिके अनुकूल जो मनुष्य स्वपरहितके १७ वार आक्रमण किया. धन और धर्म लूटा ' मन्दिर । निमित्त दान देते है वही मनुष्य साक्षात् या परम्परामें अरि मूर्नियाका ध्वंसकर अगणित रनराशि और अतान्द्रिय अनुपम सुखके भोक्ता होते हैं। अतएव अपरमित स्वर्ण चॉदी लूटी ! परन्त जब इतने- श्रात्म-हितेपी महाशयोंका कर्तव्य है कि समयानुकल पर भी लोभका मंवरण नहीं हुआ तब सोमनाथ इस दानपद्धतिका प्रसार करें । भारतवर्षमे दानकी मन्दिरके काठके किवाड़ और पत्थरके खम्भे भी न पद्धति बहुत है किन्तु विवेककी विकलताके कारण छोड़े, ऊँटोपर लादकर गजनी ले गया!" दानके उद्देश्यकी पूर्ति नहीं हो पाती। दूसरा लाभी था (ईशवी सनके ३२७ वर्ष पूर्व) ऊसर जमीनम, पानीसे भरे लबालब तालाबमें, ग्रीसका बादशाह सिकन्दर; जिसने अनेक देशोको सार और सुगन्धि हीन सेमर वृक्षोके जङ्गलमे. दावापरास्तकर उनकी अतुल सम्पत्ति लूटी, फिर भी सार नलमें व्यर्थ ही धधकने वाले बहुमूल्य चन्दनमे यदि संसारको विजित करके संसार भरकी सम्पत्ति हथयान मेघ समानरूपसे वर्षा करता है ता भले ही उसकी की लालसा बनी रही! उदारता प्रशंसनीय कही जा सकती है परन्तु गुणरत्न लोभके कारण दोनोंका अन्त समय दयनीय दशा- पारखी वह नहीं कहला सकता। इसी तरह पात्र में व्यतीत हुआ। लालच और लोभमे हाय ! हाय !! अपात्री. आवश्यकताकी पहिचान न कर दान देने करत मर, पर इतन समथ शासक हात हुए भा एक वाला उदार कहा जा सकता है परन्तु गुणविज्ञ वह फूटी कौड़ी भी साथ न ले जा सके। नहीं कहला सकता । आशा है हमारा धनिक वर्ग दयाका क्षेत्र उक्त बातोपर ध्यान देते हुए पद्धतिके अनुकूल ही १-प्रथम तो दयाका क्षेत्र अपनी आत्मा है, दान देकर सुयशके भागी बनेंगे। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुरारमें वीरशासन - जयन्तीका महत्वपूर्ण उत्सक इस वर्ष वीरसेवामन्दिर, सरसावा द्वारा श्रायोजित वीर शासन - जयन्तीका महत्वपूर्ण उत्सव श्री क्षुल्लक पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्यकी अध्यक्षतामं श्रावण कृष्णा १.२ ता० २२, २३ जुलाई १६४८. बृहस्पतिवार, शुक्रवार को मुरार ( ग्वालियर) मे सेठ गुलाबचन्द गणेशीलालजी जैन रईस मुरारके विशाल उद्यानमें बड़े समारोह के साथ मानन्द सम्पन्न हुआ । उत्सवमे भाग लेनेके लिये वन्दनीय त्यागीवर्ग के अलावा विविध स्थानोसे अनेक प्रमुख विद्वान् और श्रीमान् पधार थे । विद्वानांमे प० जुगल किशोरजी मुख्तार अधिष्ठाता वीरसेवामन्दिर सरसावा, पडित राजेन्द्रकुमारजी न्यायनीर्थ मथुरा, पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री बनारस, पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री बनारस, पं० दयाचन्द्रजी शास्त्री सागर, पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य बीना. पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य मागर, पं० दरबारीलालजी कोठिया न्यायाचार्य सरसावा. प्रोफेसर पन्नालालजी बनारस प० परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थ ललितपुर, पं० परमानन्दजी शास्त्री सरसावा. वा० अयोध्याप्रसादजी गोयलीय डालमियानगर, वा० ज्ञानचन्दजी जैन कोटा. मास्टर शिवरामजी रोहतक, आदिके नाम उल्लेखनीय है और श्रीमानोमे लाला महावीरप्रसादजी ठेकेदार देहली, ला० रतनलालजी मादीपुरिया देहली ला० राजकृपणजी देहली, रायबहादुर बा० उल्फतरायजी देहली, ला मक्खनलालजी ठेकेदार देहली, बा० महतावसिहजी - मराफ देहली. बा पन्नालालजी अग्रवाल देहली, बा० नन्दलालजी कलकत्ता ( वा० छोटेलालजी जैन कलकत्ताके लघुभ्राता), ला चतरसेनजी सरधना, ला त्रिलोकचन्दजी खतौली ला हुकुमचन्दजी मलावा आदिके नाम उल्लेख योग्य है। ग्वालियर, लश्कर, भिड. मोग्ना, जबलपुर आदि भी कितने ही सज्जन उत्सवमें सम्मिलित हुए थे। त्यागीवर्ग भी - कम नहीं था, श्री क्षुल्लक पूर्णसागरजी, श्री तुल्लक विशालकीर्तिजी, ब्र० चिदानन्दजी, ब्र० सुमेरुचन्दजी भगत व कस्तूरचन्दजी नायक, प्र० मूलशङ्करजी आदि वन्दनीय त्यागी मण्डलसे उत्सव विशेष शोभनीय था । श्रीमती विदुषीरत्न पं० प्र० सुमतिबाईजी न्याय काव्यतीर्थ सोलापुर जैसी महिलाएँ भी अपनी समाज के प्रतिनिधित्वकी कमीको दूर करती हुई उत्सव में शामिल हुई थी । यद्यपि २१ और २२ जुलाईको लगातार वर्षा होती रही और वर्षा होते रहने से प्रभातफेरी नहीं होमकी, पर झण्डाभिवादन बड़े भारी जनसमूहके मध्यमे कुछ बूंदाबांदी के होते हुए भी अपूर्व उत्साह के साथ सम्पन्न हुआ। पूज्य वर्गीजीने झण्डा फहराते हुए कहा कि इसी प्रकार वीरके शासनको ऊँचा रखे-अपने आचरण द्वारा उसे उच्च बनायें और वीर जैसे वीतरागी वीर -- विश्वकल्याण कर्ता बनें। दोपहरको श्री क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्गीक अध्यक्षतामै जन्सा प्रारम्भ हुआ। पं० परमेष्ठीदासजीने मङ्गलाचरण किया । इसके बाद वा० हीरालालजी मुरारका स्वागत भाषण हुआ. जिसमें आपने श्रागन्तुक सज्जनोका स्वागत करते हुए कटके लिए क्षमायाचना की। इसके अनन्तर अध्यक्षजीका महत्वका मुद्रित भाषण हुआ. जिसे लाउडस्पीकरके काम न देनेके कारण पं० चन्द्रमोलिजीने पढ़कर सुनाया और जो अनेकान्तमे अन्यत्र प्रकाशित हो रहा है । पं० दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्यने बाहर से आये सन्देशी और शुभकामनाओं को सुनाया। साथ ही वीरसेवामन्दिरके अब तकके अनुसंधान, साहित्य और इतिहास निर्माण सम्बन्धी महत्वपूर्ण कार्योंका संक्षेपमं परिचय दिया । सदेश और शुभकामनाएँ भेजनेवाला भारतके प्रधानमन्त्री पं जवाहरलाल नेहरू, सर मेठ हुकुमचन्दजी इन्दौर, सर सेठ भागचन्द Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष जी मानी अजमेर. रायबहादुर सेठ हीरालालजी उस समय हम लोग वीरसेवामन्दिरको अपनी शक्ति इन्दौर. बा० निर्मलकुमारजी जैन आग, ला० से भी अधिक महयोग देनेके लिये तैयार रहेंगे और कपूरचन्दजी कानपुर. माह श्रेयांमप्रमादजी बम्बई. मुन्नार मालकी इच्छानुसार वीरसेवामन्दिरके लिये सेठ लालचन्दजी सेठी उज्जन, सेठ गुलाबचन्दजी स्थानादिका अपने यहाँ सुप्रबन्ध कर देगे। इसका उपटोग्या इन्दौर मेट रतनचन्द चुन्नीलाल झवेरी बम्बई. स्थित जनताने हर्पध्वनिके माथ अभिनन्दन किया और वैद्यारत्न हर्काम कन्हैयालालजी कानपुर बा० मानिक- वडा ही आनन्द व्यक्त किया । उमके बाद विदुपीरत्न चन्दजी सगवगी कलकत्ता, बा० छोटेलालजी जैन न.पं. सुमतिवाईका सारगर्भित भापण होकर उत्सवकलकत्ता बा- नेमचन्द बालचन्दजी गाँधी सालापुर, की शेप कार्रवाई गत्रिके लिय स्थगित की गई। बा लालचन्दजी एडवाकट गहतक. बा० नानकचन्द रात्रिम पं० मुन्नालालजी ममगौरया. प. दयाचन्द्र जी एडवोकेट रोहतक. बा. उग्रसेनजी वकील गहनक जी शास्त्री. मा० शिवगमजी प० परमेष्ठीदासजी बा० जयभगवानजी एडवोकेट पानीपत पं० इन्द्रलाल आदिक प्रकृत विपयपर ओजस्वी व्याख्यान हुए। दृमर जी शास्त्री जयपुर, पं० चैनमुग्वदासजी जयपुर पं. दिनपं पन्नालालजी साहित्याचार्य,प्रो० पन्नालालजी जगन्मोहनलालजी कटनी. ला. परमादीलालजी धर्मालङ्कार, वा० सुकुमालचन्दजी देहली. मुख्तार मा० पाटनी देहली. ला. तनसुग्वरायजी देहली मि और पूज्य अध्यक्षजीक मामयिक भाषण हुए। इसके गनपतलालजी गुरहा खुरई. बा. कामताप्रमादर्जा बाद धन्यवादादि सहित विमर्जनपूर्वक उत्सव निर्विघ्न अलीगञ्ज.पं.तुलसीरामजी बात मठ चिरञ्जीलाल समान ग्रा। जी बड़जात्या वर्धा, प. भुजबलीजी शास्त्री मूडबिद्री उत्सवम तीन प्रस्ताव भी पाम हुए दा प्रस्ताव पं. बलाद्रजी सम्पादक जैन सन्देश' आगरा प्रभृति महात्मा गाँधी और पं. रामप्रसादनी शास्त्रीके श्रवमहानुभाव है । पं. फुलचन्द्रजी शास्त्री पं० कलाशचद्र मानपर शांक-विषयक है और तीसग वारशामनजी शास्त्री और पं० गजेन्द्रकुमारजी न्यायतार्थक वीर- जयन्तीपर्वको मर्वत्र व्यापकम्पमं मनाय जानकी शासनपर महत्वके भापण हुए। पं. राजन्द्रकुमारजाने प्रणा विपयक है। जब वारसेवामन्दिरके कायोका उल्लेग्य करते हुए इसी अवमरपर भा, दि० जैन विद्वत्परिपदकी मुम्तार मालकी जन-साहित्य और इतिहास लिय कार्यकारिणी और पाठ्य-निमागणमितिकी भी बैठक की गई सेवाओपर गर्व प्रकट किया और वीरसेवा हुई और जिनमे अनक बातोपर विचार-विमश हुआ। भन्दिरको इतिहासनिमाणकी ओर मुख्यतः गति करने इन आयोजनामे सबसे ज्यादा व्यवस्थादिविपयक पर जोर दिया तब मुख्तार मा० ने एक मार्मिक भापण कष्ट और परिश्रम प. चन्द्रमौलिजी शास्त्री. श्री दिया जिसमे आपने वीरसेवामन्दिरकी आवश्यकताओं भैयालालजी म्वागतमन्त्री. बा. हीरालालजा स्वागतातथा अपनी इच्छाओ और प्रवृत्तियोंका व्यक्त करत यक्ष और सेठ गणेशीलालजीका उठाना पड़ा है और हुए समाजका मचा महयोग देने एवं वीरसवामन्दिर इसके लिये वे अवश्य समाजके धन्यवादपात्र है। को पूर्णतः अपनाकर उसे देहलीमें विशालरूप देनेके मुरारकी जन-समाज भी धन्यवादका पात्र है, जिसने लिये प्रेरित किया। इसपर पूज्य अध्यक्षजीका बड़ा अपने श्रद्धापूर्ण हृदयोसे पूज्यवर्णीसंघका चतुर्मास ही प्रभावपूर्ण भाषण हुया. जिसके द्वारा समाजका का कराया और उसके निमित्तसे वीरशासन-जयन्ती जैसे उक्त महयोग देनेकी विशप प्रेरणा की गई । महत्वपूर्ण उत्सव तथा विद्वत्परिपदकी कार्यकारिणी और देहलीके उपस्थित सभी श्रीमानोकी भाग्से की बैठकांका आयोजन किया। रायबहादुर बा. उल्फतरायजीने स्पष्ट शब्दोंमे श्राश्वासन दिया कि जब पूज्य वर्णाजी देहला पधारेगे -दरबारीलाल . Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीर-शासन-जयन्ती-महोत्सवके अध्यक्ष पूज्य श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्यका भाषा महानुभाव ' शुल्लकजी और ब्रह्मचारीगण, जैन- दुःखाद्विभेपि नितरामभिवांछसि सुखमतोप्यहमात्मन् । धर्ममर्मज्ञ विद्वद्वर पण्डितगण, जैनधर्म-इतिहासवेत्ता दुःखापहारि सुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ॥ मुख्तारमाहब, उपस्थित समस्त सजनवृन्द एवं हे आत्मन् तू दुखसे भय करता है और सुग्वकी महिला समाज. आकांक्षा करता है. अतः मै तुझे जो अभिमत है __'पाज मैं श्रीवीरशासनजयन्ती-महोत्सवका सभा- अथात जो दुःखको हरण करने वाली और सुग्यको पति चुना ग है यह सर्वथा अनुचित है क्योकि वीर- करने वाली शिक्षा है उसीको कहूँगा। कहनेका तात्पर्य शामन-जयन्ती उत्मवका भार वही वहन कर सकता है यह है कि शिक्षा वही है जो सुग्वका देवे और दुःखका जो ज्ञानवान होकर वीतराग हो। जो वीतराग नहीं वह विनाश कर । भाषामें कविवर श्रीदौलतरामाने भी माक्षात् मोक्ष-मार्गका साधन नहीं दिखा सकता। जो लिखा हैआंशिक वीतराग हा और पदार्थक प्रदर्शन करनेमे जे त्रिभुवनमें जीव अनन्त सुख चाहे दुःख ते भयवन्त । अक्षम हो वह भी उनके शासनको दिखानेमें समर्थ ता दुःखहारि सुखकार कहे सीख गुरु करुणा धार ।। नही हो सकता। अतः इस पदके योग्य यहां कौन है, अर्थात इस दुःखमय संसारमें जिस उपदेशके मंग बुद्धिम नहीं आता । परन्तु एक बल हमे है और द्वारा यह आत्मा दुःबसे छूट जावे और निराकुलतारूप संभव है उससे इस भारका कुछ दिग्दर्शन करनेमे, मै सुखको प्राप्त कर लेवे वही उपदेश जावका हितकर है। हो सएसी संभावना है। प्रत्यक्ष दग्यताई जा श्रीवीरप्रभुने पहले ता आत्मीय प्रवृति द्वारा बिना ही वीरके नाममंस्कारसे मंगमरमरको मूर्तिकी अर्चा शब्दाच्चारणके वह शिक्षा दी जिसे यदि यह जीव होरही है तथा वीरके नामसे राजग्रहका विपुलाचल पालन कर ता अनायास अलौकिक सुग्वका पात्र हो पर्वत लाखो मनुष्यों द्वारा पूजा जारहा है। वीरप्रभूने सकता है। श्रीवीरप्रभुने बाल्यावस्थासे ही ब्रह्मचर्यवहांपर तपस्या ही तो की थी ? वीरप्रभुका जिस स्थान व्रतको म्वीकार किया था और दार-परिग्रहमे सर्वथा पर निर्माण हुआ वह क्षेत्र आजतक पूजित हो रहा मुक्त रहे थे। है। वीर-चरित्र जिस पुस्तकमे लिखा जाता है वह संसार-वृद्धिका मूल-कारण स्त्रीका समागम है। पुस्तक भी उदक-चंदनादि अघसे अर्चित होती है। स्त्री-समागम होते ही पाँचो इन्द्रियांके विषय स्वयमेव मैंने भी उस वार-प्रभुको अपने हृदयारविन्दमे स्थापित पुष्ट हाने लगते है। प्रथम तो उसके रूपको देखकर कर रखा है। अतः मुझसे यदि अाजका कार्य निर्वाह निरन्तर देखनेकी अभिलाषा रहती है, वह सुन्दर होजावे तब इसमे आश्चर्य की कौनसी बात है । आज- रूपवाली निरन्तर बनी रहे इसके लिय अनेक प्रकार के दिन मुझे श्रीमहावार भगवान शासनको दिखाना के उपटन, तेल आदि पदार्थोंके संग्रहमें व्यस्त रहता है जिसके द्वारा हितको बात दिखाई जावे और अहित है। उसका शरीर पसेव आदिसे दुर्गन्धित न होजाय, का निवारण किया जावे उसीका नाम शासन है। श्री अतः निरन्तर चन्दन, तैल, इत्र आदि बहुमूल्य गुणभद्रम्बामाने आत्मानुशासनमें लिखा है:- वस्तुओका संग्रह कर उस पुतलीकी सम्हालम संलम Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ अनेकान्त [वर्ष ६ - रहता है। उसके केश निरन्तर लम्बायमान रहें. अतः स्वयमेव विरक्त होकर दैगम्बरी-दीक्षाका अवलम्बन कर उनके अर्थ नाना प्रकारके गुलाब, चमेली, केवड़ा मोक्ष-मार्गका पथिक बन जाता है । श्रीवीरप्रभुने आदि तैलोंका उपयोग करना है। तथा उसके मरल दारपरिग्रह तो किया ही नहीं उसके रागको बाल्याकोमल, मधुर शब्दोका श्रवण कर अपनेको धन्य वस्था ही से त्याग दिया तब अन्य परिग्रह तो कुछ मानता है और उसके द्वारा सम्पन्न नाना प्रकारके ही वस्तु न थी. दीक्षाका अवलम्बन कर माक्षात माक्षग्माम्वादको लेता हुआ फूला नहीं समाता । कोमलाङ्ग मार्ग प्राणियोका दिग्या दिया तथा लोकको अहिमाको स्पर्श करके तो आत्मीय ब्रह्मचर्यका और बाह्यमं तत्वका साक्षात्कार करा दियाशरीर-मीन्दयका कारण वीर्यका पात हात हुए भी अहिसा भूताना जगति विदितं ब्रह्म परमम्, अपनेको धन्य मानता है। इस प्रकार स्त्री-समागममे न सा तत्रारम्भीरत्यगुरपि यत्राश्रमविधी । यमाही पंचेन्द्रियके विषयमे मकड़ीकी तरह जालमे फॅम ततस्तत्सिद्ध्यर्थ परमकरुणो ग्रन्थमुभयम्, जाते है। श्रीवीरप्रभुने उसे दृरसे ही त्यागकर मंमारके भवानेवात्याक्षीन च विकृतवेपोपधिरतः।। प्राणियोको यह दिखला दिया कि यदि इस लोक और मंसारमें परिग्रह ही पञ्च पापांक उत्पन्न होनेमे परलाकम सुग्बी बनना चाहते हा ता इस ब्रह्मचर्य- निमित्त होता है। जहाँ परिग्रह है वहां गग है. और व्रतका पालन करो। भत हरि महाराजने जो कहा है जहाँ राग है, वही आत्माके आकुलता है तथा जहाँ वह तभ्य ही है: आकुलता है वहीं दुःग्य है एव जहाँ दुःग्य है वहाँ ही मत्तभ-कुम्भ-दलने भुवि सन्ति शूराः, सुखगुणका घात है और सुग्वगुणके घातका ही केचित्प्रचण्डमृगराजवधेऽपि दक्षाः । नाम हिंसा है। संसारमे जितने पाप है उनकी जड किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य, परिग्रह है। आज जो भारतमे बहुसंख्यक मनुष्याका कन्दर्प - दर्प-दलने विरला मनुष्याः ।। घात होगया है तथा होरहा है उसका मूल कारण यद्यपि इसी व्रतके पालनसे सम्पूर्ण व्रतोंका समा- परिग्रह ही है। यदि हम इससे ममत्व हटा देवे ना वेश इसीमे हो जाता है तथा सर्व प्रकारके पापोंका वह अगणित जीवोका घात स्वयमेव न होगा। इस त्याग भी इसी बनके पालनसे हो जाता है। फिर भी अपरिग्रहके पालनेसे हम हिमा पापसे मुक्त हो सकते लोकमे सर्व प्रकारके मनुष्य हैं, अनेक प्रकारकी रुचि हैं और अहिंसक बन सकते हैं। परिग्रह के त्यागे बिना है। चिकी विचित्रतासे अन्य अहिंसादि धर्मो (व्रता) अहिंसा-तत्वको पालन करना असम्भव है। भारतवर्ष को भी श्रीवीरने स्वयं पालन कर साक्षात् कल्याणका मेजा यागादिकसे हिसाका प्रचार हागया था, उसका मार्ग दिखा दिया। प्रथम तो यदि आप लोग विचार कारण यही तो है कि हमको इम यागसे स्वर्ग मिल करेंगे तब इमीमे सर्व व्रत आजाते हैं। विचारी, जब जावेगा, पानी बरम जावगा अन्नादिक उत्पन्न होगे। स्त्रीसम्बन्धी राग घट गया तब अन्य परिग्रहसे देवता प्रसन्न होग यह सव क्या था । परिग्रह ही सुतरां अनुराग घट गया। किसी कविने कहा है:- ता था। यदि परिग्रहकी चाह न हाती त। निरपराध गाहणी गृहमाइः' अथान खी ही घर है। घाम- जन्तुआका कान मारता । आज याद इस पारण फूम, मिट्टी-चूना आदिका बना हुआ गृह-गृह नहीं है। मनुष्य आसक्त न होते तब ये समाजवाद कम्यूइसके अनुराग घटनेसे शरीर के शृङ्गारादि अनुराग निस्टवाद क्या होते ? आज यदि परिग्रहके धनी न स्वयं घट जाते है तथा माता-पिता आदिसे स्वयं हात तब य हडताल क्या होता ? यदि परिग्रह-पिशाच न स्नेह छूट जाता है। कुटुम्ब आदि सबमे विरक्त हो होना तब जमीदारी प्रथा, राजसत्ताका विध्वंस करनेजाता है। द्रव्यादिकी ममता स्वयमेव छूट जाता है, का अवसर न आता ? यदि यह परिग्रह-पिशाच न जिसके कारण गृह-बन्धनसे छूटनेमे असमथ भी होता तब कॉग्रेस जैसी स्वराज्य दिलानेवाली संस्था Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] भाषण २७६ विरोधियो द्वारा निन्दित न होती। और वे स्वयं इनके की महती आवश्यकता है। उस ओर समाजकी दृष्टि स्थानमे अधिकारी बननेकी चेष्टा न करतं ? आज यह नहीं । पूजन तो देव-शास्त्र-गुरु तीनोकी करते हो परिग्रह-पिशाच न होता तो हम उच्च हैं अप नीच परन्तु शास्त्रोंकी रक्षाका कोई उपाय नहीं। सहस्रों हैं. यह भेद न होता । यह पिशाच तो यहाँ तक अपना शास्त्र जीर्ण-शीर्ण होगये और होरहे है. इसकी ओर प्रभाव प्राणियोपर गालिब किये है जो सम्प्रदायवादो- समाजका लक्ष्य नहीं । मेरी समझमे एक पुरानी ने धर्म तकको निजी मान लिया है। और उस धर्मकी संस्था (वीर-सेवा-मन्दिर) मुख्तार साहबकी है। परन्तु सोमा बाँध दी है। तत्व-दृष्टिमे धर्म तो आत्माकी पर. द्रव्यकी टिके कारण आज कोई महान ग्रन्थका गतिविशेषका नाम है, उसे हमारा धर्म है यह कहना प्रकाशन मुख्तार साहब न कर सके। न्यायदीपिका. क्या न्याय है ? जोधम चतुतिके प्राणियाम विकसित अनित्यपश्चाशत् ममाधिशतक आदि छोटे-छोटे ग्रन्थ होता है उसे इने-गिने मनुष्योम मानना क्या न्याय है। प्रकाशमें ला सके । समाजको उचित है जो इस संस्था परिग्रह-पिशाचकी यह महिमा है जो इस कूपका जल का अजर-अमर करदे । होना तो असम्भव है क्योंकि तीन वर्णक लिय है, इसमें यदि शुद्रांक घड़े पद गय हम लोगांका उसका स्वाद नहीं आया। अगर स्वाद तब अपय हागया दट्टीम हाकर नल आजानेसे जल आया हाता. तब, एक श्रादमी इस पूर्ण कर देता। पेय बना रहता है। अन्तु, इस परिग्रह पापसे ही कलकत्तामे सुनते है इसके उद्धारके लिये चार लाख संमारक सर्व पाप हात है। श्रीवीर प्रभुने तिल-तुप- रुपया हुआ था, परन्तु उसका कुछ भी सदुपयोग नहीं मात्र परिग्रह न रखके पूर्ण अहिंसा-व्रतको रक्षा कर हुअा। उस कमटीक प्रमुख श्री बाबू छाटलालजीका प्राणियाका बता दिया कि यदि कल्याण करनेकी इस आर अवश्य ही ध्यान देना चाहिये और इस पुनीत अभिलापा है तब दंगम्बर-पदका अङ्गीकार करो। यही कार्यको शीघ्र ही प्रारम्भ करना चाहिए। मेरा तो स्वयं उपाय संमार-बन्धनसे छूटनेका है। यदि संसारमे मुख्तार साहबसे यह कहना है जो आपके पाम है सुग्व-शान्तिका साम्राज्य चाहते हो तब मेरे स्मरणसे उसे अपनी अवस्थामे व्यय कर अपने द्वारा सम्पादित सुग्व-शान्ति न होगी. और न स्वयं तुम सुनी हाग, लक्षणावली आदि जा ग्रन्थ है, प्रकाशित कर जाइये । किन्तु जैसे मैंने कार्य किये है वहीं करा । जैसे मैन परलोक बाद क्या आप देखने आवेंगे कि हमारी बाल्यावस्थासे ही ब्रह्मचर्य-व्रत पाला वैसे ही तुम भी सस्थाम क्या होरहा है? इस अवस्थासे मुक्ति तो पालन करो तुम लोगांका उचित है कि यदि मर होना नही, स्वर्गवासी देव होगे. सो वे इस कालमे अन्तरगसे भक्त और अनुरागी हो ता मेरा अनुकरण बात नहीं । समाजम गुणग्राही पुरुषाकी विग्लता है। करो। यदि उस ब्रह्मचर्यव्रतकं पालनमें असमर्थ हा सम्भव है वे इसपर दृष्टिपात करें । महावीर स्वामीका तब बाल्यावस्था व्यतीत हानेपर जमा गृहस्थधमम ता यही आदेश है कि प्रभावना करो। इसका विधान है उस रीतिसे इसे पालन करा । आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव । अनन्तर जब युवावस्था व्यतीत हाजावे तब परिग्रहको दानतपाजिनपूजाविद्यातिशयश्च जिनधर्मः॥ त्याग अपरिग्रहीबननेकी चेष्टा करां, इसी कीच दमे मत | স্মখা फसे रहा । द्रव्यको न्यायपूर्वक अर्जन करो. अन्यायसे अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । मत उपार्जन करा. मयादाका त्याग म्वेच्छाचारी मत निजशासनमहात्म्यप्रकाशः स्यात् प्रभावना ।। बना. दान करते समय विवेकको मत ग्वा दो, मन्दिर केवल बैण्ड बाजे बजानेसे प्रभावना नहीं होती। बनाओ, पञ्चकल्याणक उत्सव करा. निषेध नहीं. दुसर, समाजके मामने पुगतत्त्वकी खोज कर परन्तु जहॉपर इनकी आवश्यकता है। मनुप्याके हृदयाम धर्मको प्रभावना जमा देना उत्तम वारशामनके प्रचागर्थ प्राचीन माहित्यके उद्धार कार्य है। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० अनेकान्त T तीसरे, प्राचीन संस्कृत विद्याके पारगामी पण्डित बनाकर जनता के समक्ष वास्तविक तत्त्वके स्वरूपको रख देना आवश्यकीय । यद्यपि समयके अनुकूल कुछ विद्वान् जैन समाजमें गणनीय हैं पर उनके बाद भी यह परिपाटी चली जावे, इसकी महती आवश्यकता है। एक भी ऐसा विद्यालय नहीं जहां १०० छात्र भी संस्कृतका अध्ययन करते हों । जितने विद्वान हैं वे तो अपने बालकोको अर्थकरी विद्या पढ़ाने में लगा देते हैं। जो बालक सामान्य स्थितिके है उनके यह धारणा होगई है जो संस्कृत विद्या पढ़नेसे कुछ लौकिक वैभव तो मिलता नहीं । पारलौकिककी आशा की जावे. जब कुछ धर्मार्जन हो. मो जहाँ नोन-तेल- लकड़ीकी चिन्ता से मुक्ति नहीं वहाँ धर्मार्जन कैसा । अतः वे बालक भी उदास होगये । रहे धनाढ्यो बालक, सो उन लोगों के यह विचार है जो हमको पण्डित थोड़े ही बनाना है जो दर-दर जावे। हमे तो धनकी कृपा है तब अनायास बीमो पण्डित हमारे यहाँ आते ही रहेंगे । अतः मामूली विद्या पढ़ाकर बालकोको दुकानदारी धन्धेमे लगा देते है । आप ही बतावे. ऐसी अवस्थामै वीरशासनका प्रचार कैसे हो ? रहा त्यागीवर्ग. मो प्रथम तो जैनियोमे त्यागी ही नही, जो है उन के पठन-पाठनकी कोई व्यवस्था नहीं । अथवा. समाजने उनके लिये एक या दो आश्रम जो खोले भी है किन्तु वहाँ यथे पठन-पाठनकी व्यवस्था नही । समाज रुपया भी देना चाहती है तब परिग्रह-पिशाच की ऐसी कृपा होती है जो त्यागी महाराज भी उसीके बढ़ानमे अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं। क्या कहूँ मै श्री वीरप्रभुको अन्तिम नमस्कार करके यह प्रार्थना करता [ वर्ष हूँ जो हे नाथ ! मैं आपके चरणों का अन्तरङ्गसे अनुरागी हूँ, मेरी सामर्थ्य नहीं थी जो उत्कृष्ट श्रावकका आचार पाल सकूँ; परन्तु आपके शासनके मोहवश इस तुल्लक पदको अङ्गीकार किया है। इसी वर्ष तीव्र गरमी पड़ी, दो मास तृषा परीषहका अनुभव होगया और देगम्बर धर्ममें दृढ श्रद्धा होगई। मेरे मन में यह आता है कि जो यथागम इसे पालन करूँ. और इस संसार यातनासे बचूँ । आपके आगमसे मेरी तो दृढ़तम श्रद्धा होगई है जो आत्मा ही आत्माका गुरु है । जिस समय इन रागादि शत्रुओं पर विजय कर लूँगा उस समय स्वयं ही आप जैसा बन जाऊँगा । 時刻 हे हे वीर ! आपने यही तो मार्ग बताया, परन्तु भगवन् ! हम लोगोने उस मार्गको नहीं अपनाया । की मूर्ति पूजी, निर्वाण - भूमि पूजी, किन्तु आपके बताये मार्गपर न चले। आपने तो परिग्रह त्याग बताया. किन्तु हम लोग आपके नामपर लाखो रुपया एकत्रित कर मूलांक पात्र बने हैं। मान लो रुपया भी एकत्रित करे तो उसी वीरप्रभुके शासन प्रचारमै लगा दें । परन्तु उस ओर हमारा लक्ष्य नहीं । हे प्रभो अब बहुत कष्टमय काल है। एक बार फिर प्राचीन कालकी लहर आ जाय हम लोग सुमार्ग पर श्रावे और आपके शासनका प्रचार करें । अन्तमे क्रान्तिके इस युगमें वीरशासन के प्रचारके लिये समाजके विद्वानो और श्रीमानामे मङ्गठित कार्य करनेकी शक्ति जागृत हो इसकी भावना करते हुए हम अपने भाषणको समाप्त करते है । वीरशासनकी जय | Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय घबराने लगता है, अपने आपतु लोक-रक्षा प्रेरित होकर ये मनुष्य हैं या सांप ? रेखा खीच ली है। और इन रेखाओके अन्दर रहने यानते हैं डायन भी अपने-परायेका भेद जानती है। १. वाले एक दमरेका संहार करना तो दूर अनिष्ट करना भी नही सोचत । परन्तु भारतके हिन्दु और वह भी वह कितनी ही भूखी क्यों न हो, फिर भी अपने निरामिप भोजी, उच्चवर्णोत्पन्न उक्त मर्यादाम नहीं बच्चोंका भक्षण नहीं करती। सिंह-चीत. घडियाल बन्धे हैं। मुक्तिके इच्छुक इस बन्धनमे मुक्त है। न मगरमच्छ. बाज-गरुड आदि कर हिंसक जानवर भी इनसे अपने देशवासी बच पाते है. न सहधर्मी मजातीयोंको नहीं खाते। कहते हैं मॉपन एकमो एक और न सजातीय। अण्ड प्रसव करती है और प्रसव करते ही उनमेसे अधिकांश खा लेती है .या नष्ट कर देती है। हमारा चूँकि यह निगमिप भांजी है; रक्तमात्र देवनेसे इनका हृदय घबराने लगता है । इसलिये इन्होंने अपना विश्वास है कि वह क्षुधा-शान्त करनेको मन्तान-भक्षण नहीं करती; अपितु लोक-रक्षाकी अपने कुटुम्बियो, इष्ट-मित्रो. सजातीय और सहधर्मी भावनासे प्रेरित होकर ही विपैली सन्तानकं भक्षणको बन्धु-बान्धवाके संहारका उपाय भी अहिंसक निकाल रक्खा हैबाध्य होती है। कर-से-कर पशु-पक्षी भी अपनी सीमाके अन्दर 'होजाएँ खून लाखों लेकिन लहू न निकले। ही केवल सुधा-पूर्ति के लिये विजातियोका शिकार क्या किमी देशमे, समाजमे अपनी बहन-बेटियोकरत है। किन्तु, हज़रत इन्सानसे कुछ भी बईद को. बन्धु-बान्धवोको शत्रुओके हाथों सौपत हुए नहीं । ये जल-थल-नभ मर्वत्र विश्व-सहारका पहुँते किमीने देखा है ? न देवा, सुना हो तो भारतमें हैं । आवश्यक-अनावश्यक संसारको कष्ट देते है। आकर यह पैशाचिक लीला अपने ऑग्याके सामने शत्रुका तो संहार करत ही है, मित्रों और परोपकारियो हाती देख लो। ये लोग गायका रस्सा तो कमाईसे को भी नहीं छोड़त । जो काम शैतान करते हुए लजाय, छानत है पर, बहन-बाँटयोका हाथ स्वयं उनके हाथों उसे य मुस्कराते हुए कर डालत है। मे पकड़ा देते है। कुत्तो-बिल्लियोको तो अपने साथ ___ संमारमे शायद मछली और मनुष्य ही केवल दो सुलाते और खिलाते है, पर अपने सजातियो-सह ऐसे विचित्र प्राणी हैं जो सजातीयोंको भी नहीं धर्मियोंसे घृणा करते है। सांपोको दूध पिलाने और छोड़ते । सम्भवतया जैनशास्त्रांमें इसीलिय इन दानोंके चिंउटियांका शक्कर बिलानेके लिये तो ये लोग सातव नरक तकक बन्ध होनेका उल्लेग्य मिलता है जबकि जङ्गल-जङ्गल घूमते है, पर अपहत महिलाओके अन्य कर-से-कर पशु-पक्षियोंके प्रायः छठे नरक तक उद्धारके बजाय उनकी छायासे भी दूर भागते है। का ही बन्ध होता है। ईमानकी बात तो यह है कि चिठीमारके हाथामे तात-चिड़ियाओंका तो रुपया देकर मनुष्यकी करतूतोकी तुलना किसी भी जानवरसे उद्धार करत है. पर आतताइयोंके चंगुल में फॅमीराती. नहीं की जा सकती। यह अपनी यकतॉ मिमाल है। बिलग्बती नारियोको मुक्त करना पाप समझते है। मनुष्य अपने मजातीय यानी मनुष्यका संहार यूँ तो आय दिन इस तरहके काण्ड होत ही रहते करनेका आदी है। फिर भी भारतके हिन्दुओंके अति- है, परन्तु सीनेपर हाथ रखकर एक घटना और रिक्त प्रायः सभी मनुष्योने देश, धर्म. ममाजकी पढ़ लीजिये: Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ अनेकान्त 'साम्प्रदायिक उपद्रवोंके परिणामस्वरूप अन्यत्र की तरह देहरादून में भी हिन्दू मुसलमानोंमें संघर्ष हुआ। उसी श्रवसरपर चार मुसलमान हाथोंमें तलवार लिये एक ब्राह्मणके घर पहुँचे । और ब्राह्मणसे कर बोले कि तुम कुटुम्ब मुसलमान हो जाओ और अपनी जवान लड़कीको हममेसे एकके साथ शादी कर दो. वर्ना हम सबको जानसे मार डालेंगे । [ वर्ष को. शावासी देनेके बजाय उसे अपने साथ रखना भी पाप समझता है " ब्राह्मण यह दृश्य देखकर घबराया और लडकी देने तथा धर्म-परिवर्तन करनेको प्रस्तुत हो होया । किन्तु जब वह अपनी युवती कन्याका हाथ उनमे से एक मुसलमान के हाथमें देने लगा तो लडकीने फुर्ती से उस मुसलमान से तलवार छीनकर पलक मारते ही दोको खुदा भेज दिया; बाकी दो भाग गये । वीर लड़कीके साहसके कारण ब्राह्मण और उसका कुटुम्ब तो धर्म-परिवर्तनसे बच गये, लेकिन उस वीराङ्गनाको खूनके अपराध में पुलिस पकड़ कर गई । भाग्यसे देहरादूनका कलकर महदय और गुणज्ञ अंग्रेज था । उसे जब वास्तविक घटनाका ज्ञान हुआ तो उसने वह मुक़दमा किसी तरह अपनी अदालत में ले लिया और दो-चार पेशियोंके बाद लड़कीको निरपराध घोषित करके उसको लिवा जानेके लिये उस ब्राह्मणके पास इत्तला भेजी तो ब्राह्मणने कहलवा भेजा कि चार-पाँच राजमे बिरादरीसे पूछ कर बतला सकूंगा कि लड़कीको घरपर वापिस ला सकता हूं या नहीं। चार-पाँच रोजके बाद ब्राह्मणने लिख दिया कि - 'लड़कीको घरपर वापिस लानेकी बिरादरी इजाजत नही देती. इसलिये वह मजबूर है।' इस उत्तरको पढ़कर कलकर बहुत हैरान हुआ और arrest इस निष्ठुरताका कारण उसकी समझ मे नही आया | लाचार उसने वहाँके आर्य समाजियोको वह लडकी सौंपते हुए कहा - यदि यह लड़की इङ्गलिस्तानमें उत्पन्न होकर ऐसा वीरतापूर्ण कार्य करती तो अंग्रेज इसकी मूर्ति बनवाकर स्मृतिस्वरूप किसी वाटिकामें स्थापित करते और जो स्त्री-पुरुष वहाँ से पास होते उसको आदर देते । किन्तु यह हिन्दुस्तान है. यहाँका हिन्दु पिता अपनी लड़की मालूम होता है कलकुर साहबको हिन्दुस्तान आये थोड़े ही दिन हुए होगे । अन्यथा देहरादूनके उस ब्राह्मणकी इस करतूत से वे व्यथित नहीं हुए होते। उन्हें क्या मालूम कि यहाँ ऐसे ही सन्तानघातक और समाज-भक्षियोका प्राबल्य है । ऐसे ही पापियोंके कारण भारतके १४-१५ करोड हिन्दू ईसाई और मुसलमान बने हैं। फिर भी इनकी यह लिमा अभी शान्त नहीं हुई है और दिन-रात अपने समाज और वंशका घात करने में लगे हुए हैं । यशोदाने मुस्लिम प्याऊ से पानी पी लिया धनीराम सिंघाईक तांगेके नीचे चूहा मर गया. कनौजियांकी पगंतपर यवनोंकी परछांई पड गई। छुट्ट, पंडेका तिलक रमजानी भटियारेने चाट लिया. गुड़गांवेंके गूजरोने मेवोंके हाथ गाय बेच दी श्रीमालीब्राह्मण मस्जिद के कुए पर स्नान कर आये। अतः ये सब विधर्मी होगये है । हिन्दुजाति से वहिष्कृत. हुक्का-पानी, रोटी-बेटी व्यवहार इनके साथ बन्द' और तारीफ यह कि वे स्वयं भी अपनेको पनित समझकर विधर्मियोमे आंसू बहाते हुए मिल जाते हैं। न तो ये मोने- चॉदी से मढ़ भगवान ही उनकी रक्षा कर पाते है न पतित-पावनी गङ्गा-यमुना न भगवानका गन्धोदक | सब निकम्मे होजाते हैं और वे गायकी तरह डकराने हुए अपनो विछुडनेका बाध्य होते है । इन पांगापन्थियो के कारण भारतको अनेक दुर्दिन देखने पड़े है । भारतपर जब विदेशियोंके आक्रमण होने लगे तो ये तिलक लगाये हाथमें माला लिये निश्चेष्ट गां-मन्दिरोका विध्वंस देखते रहे । सीता-हरणकी कथा पढ़-पढ़कर रोते रहे परन्तु आँखों के सामने हजारो सीताओका अपहरण देखते हुए भी इनका रोम न हिला । काश्मीरके ब्राह्मण बलात मुसलमान बना लिये गये तो काश्मीरमहाराज काशी कर गिडगिडाये और इन धर्मके ठेकेदारोसे उन्हें वापिस धर्ममे ले लेनेकी व्यवस्था चाही पर ये टम-से-मस न हुए। मूर्तिको पतित-पावन और गणिका तथा सदना Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] सम्पादकीय २८३ कसाईके उद्धारकी कथा कहते-सुनते स्वयं पत्थर कैसे किसी एक भी औरतको जबर्दस्ती भगाया या बन गये। बेइज्जत किया जा सकता है ? जब तक हम यह बुत बनके वोह सना किये बेदादका गिला। मानते रहेगे कि हमारी ऐसी बेइज्जती करत ही रहेगे।" सूझा न कुछ जवाब तो पत्थरके होगये । वास्तवमें हिन्दुओकी इस आत्म-घातक बुनियादी करोड़ो राजपूत-मेव,राँघड़. मलकाने मुसलमान कमजोरीका जडमूलसे उखाड़नेके लिये बहुत बड़े बन गये. पर इन्होने उनके रोने और घिघयानेपर भी आन्दोलनकी आवश्यकता है। मनुष्य जब आत्मउन्हें गले नहीं लगाया । लाखो महिलायें गत वर्ष ग्लानियोसे भर उठता है और स्वयं अपनी नजरोंसे अपहत होगई परन्तु ये वञहृदय न तो उनकी रक्षा पतित होजाता है, तब उसका उद्धार त्रिलोकीनाथ भी ही करनेको उद्यत हुए और न अब उन्हें वापिस लेने नहीं कर सकते। को ही तैयार हैं। गिर जाते है हम खुद अपनी नजरोसे सितम यह है । जिन पापियोके कारण १०-१५ करोड हिन्द बदल जाते तो कुछ रहते, मिटे जाते हैं ग़म यह है॥ विधर्मी हुए उनके प्रायश्चित्तका असली उपाय यही है -अकबर कि उनकी सन्तानको काश्मीर और हैदराबादके मोर्चा जो धर्म पतितोंको उबारने, विधर्मियोंको अपना पर हिन्दु जातिकी रक्षार्थ भेज देना चाहिये। क्योकि बनानेमें सञ्जीवनी शक्ति था। वही आज चौका-चल्हे, अाक्रामक अधिकांश वही लोग है जा इनके कारण तिलक-जनेऊमें फंसकर समाज-भक्षक बन रहा है। विधर्मी बने हैं। और जो अब भी इस तरहके अप- हिन्दु जातिकी यह कितनी आत्म-घातक नीति वित्र मनुष्य हैं, उन्हें भङ्गियाका कार्य सौप देना रही है कि झूठ-मूठ दोष लगा देनेपर, या बलात कोई चाहिए और भडियोको कोई दृमग कार्यताकि अधर्म कार्य कराय जानेपर वह स्वयं अपनेको धर्मउनके मिलानेमे भगी अपना अपमान न मम। भृष्ट ममझ लेती है। और इस अपमानका बदला न समाजके से कोढ़ियांका जिनमे समाज क्षीण होता लेकर स्वयं विधर्मियोमे सम्मिलित हो जाती। हो, चाण्डालोकी मंज्ञा देकर उनसे चाराटाला जैमा और नारी-सतीत्व जो उसके अमरत्वके लिये व्यवहार करना चाहिए। अमृत था. वही अब विपमे भी अधिक घातक सिद्ध वाहरे पांगापन्थियो। मकुदम्ब धम-परिवर्तनको हो रहा है। जब स्त्री-पुरुष ममान है तब बलात्कारसे तैयार ' लुञ्चे-लफंगाको जवान लड़की देना मन्जूर" केवल स्त्रीका ही धर्मभृष्ट क्यो समझा जाना है ? पुरुप न इसमे बिरादरीकी नाक कटती और न जातीय- का धमभृष्ट क्यो नही होता? नारी ही क्यो तिरस्कृत मर्यादा नष्ट होती। परन्तु आतताइयांको पाठ पढ़ाने और घृणित हाकर रह जाती है ? वह क्या भाग्य वाली मीतासे भी बढ़कर सुशीला लड़कीको भपनाने- बनी हुई है। मे बिरादरीकी इज्जत गोबर हाती ___ नागकी इमी दुर्बलतासे कामुक पुरुष लाभ उठात बेशक ऐसी हिजडी समाज उमे कैसे अपनाती है। नारी इम कृत्यका इतना बुग समझती है कि और कैसे अपना कलुषित मुह दिखलाती:- पुरुपके बलात्कार करनेपर भी उसे गापन रखनेकी परदेकी और कुछ वजह अहले जहाँ नहीं । म्वयं मिन्नते करती है। और किसीपर प्रकट न कर दे दुनियाको मह दिखानेके काबिल नहीं रहे। इम आशङ्कामे उसके इशारोपर नाचती है। उचितआत्म-घातक नीति अनुचित सभी बात मानती है। स्वयं अपनेको भृष्ट ____ एक ही रास्ता' शीर्षकमे महात्मा गांधीजीने लिखा समझती है। और भृष्ट करने वाले नर-पशुसे बदला था-"मेरी समझम यह नहीं आता कि कैसे किसी न लेकर उसके हाथोंमे खेलती है। आदमीका दीन-धर्म जबरन बदला जा सकता है। या १-हरिजन सेवक १ दि. १६४६ पृ. ४१२ । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ अनेकान्त [ वर्ष अतः अब इस प्रबल आन्दोलनको आवश्यकता वाला अनुष्ठान होना चाहिये सो नहीं हो पाता। जबतक है कि नारीसे बलात्कार करनेपर भी उसका सतीत्व प्राचीन कीर्तिकलाकी जड़ें कुछ अंशोमें हरी न होजायें अखण्ड रहता है। कोई पापी कुछ ही ग्विलादे और तबतक कोई भी व्यक्ति हमारे समाजको शिक्षित कैसे और कुछ भी करले. पर धमभृष्ट नहीं होता। क्योकि मान सकता है ? जैन विद्यालयों में जो बालकोको शिक्षा धर्म आत्माकी तरह अजर-अमर है। न इसे कोई नष्ट दी जाती है वह उनके नैतिक विकासके लिये तो कर सकता है. न छीन सकता है, न अपवित्र कर पर्याप्त है ही परन्तु यदि समाज अजैन शिक्षा-विपयक सकता है। जो धर्म आत्माको परमात्मा बनानेकी संस्थाओमें जैन पीठ स्थापितकर मांस्कृतिक अनुअमोघ शक्ति रखता है. वह किसीसे भी छिन्न-भिन्न शीलनका काम करे-करवावे तो बौद्धिक जीवन यापन नहीं हो सकता। . करनेवाले समाजका बहुत बड़ा उपकार हो सकता है। दालमियानगर (विहार) -गोयलीय और मै तो मानता है कि जैन संस्कृतिर्की सच्ची सेवा १६ जौलाई १६४८ किसी न किसी रूपमें हो सकती है। मै समाजका श्रीशान्तिनिकेतनमें जैनशिक्षापीठकी ध्यान कविवर श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा प्रस्थापित शान्तिनिकेतन आश्रमकी ओर खीचना चाहता हूँ, • आवश्यकता जहाँपर भारतीय संस्कृति और सभ्यताके सभी अङ्गाआज दुनियाके सामने जो जलती हुई समस्याएँ का समुचित अध्ययन बड़े मनोयोग-पूर्वक कराया हैं उनमें शैक्षणिक समस्या बहुत ही अधिक महत्त्व जाता है । शायद ही भारतका काई शिक्षित व्यक्ति रखती है क्योंकि किसी भी राष्ट्रकी सांस्कृतिक स्थिति- ऐसा होगा जो वहॉकी शिक्षण - प्रणालिकासे की रक्षा शिक्षाकी मजबूत नींवपर ही अवलम्बित है। अपरिचित हो। मानवके आधिभौतिक और आध्यात्मिक उन्मतिके कलकत्तासे पटनाकी और विहार करते हए मुझे मूल इसीमें सन्निविष्ट है। बात बिल्कुल दीपकवत कुछ यहां पर रहनेका सुअवसर प्राप्त हुआ था, वहाँ स्पष्ट है। अतः शिक्षा-विषयक अधिक लिखना या पर मैंने चीनाभवन. हिन्दीभवन, प्राच्यविद्याभवन, विचार करना उपयुक्त नहीं; परन्तु यदि सचमुचमे कलाभवन आदि पृथक पृथक विद्याकी शाखाओकी हमे यह हमारी कमजोरी दीखती है तो उसे क्रियात्मक सुसाधना करनेवाले शिक्षा मन्दिरीका अवलोकन उपायोसे अविलम्ब दूर करना चाहिये। कथन और किया एवं अध्यापकोसे भी एतद्विषयक विचार विनिमय मननका जमाना गया, जमाना है ठोस काम करनेका, किया। चीनी फारसी अरबी. पाली, हिन्दी. सस्कृत, वह भी मूकभावसे । वर्तमान जैनसमाजकी शिक्षण- बंगला आदि भारतकी सभी प्रान्तीय भाषाओं और प्रणालिकापर यदि दृष्टि कर उसपर गम्भीरतापूर्वक विविध साहित्योंका गभीर अध्ययन तथा मनन यहॉपर विचार करेंगे तो बड़ी भारी निराशा होगी । जिस होता है। यही कारण है कि विदेशोंमें इस आश्रमका पद्धतिके अनुसार जैन बालक और प्रौढोकी शिक्षा जो स्थान है वह किमीको प्राप्त नहीं हुआ। विदेशी होनी चाहिये उमका हमारे सर्वथा अभाव भले हीन हो गवेपक और भारतीय संस्कृतिके प्रमो विद्वान यहॉपर पर वह दिशा अवश्य ही उपेक्षित है। इसके कटुफल आते ही रहते हैं। वे तो यही समझते है कि भारतीय हमारी सन्तानको चग्वना पड़ेंगे। आजका सांस्कृतिक सभी धर्मो और माहित्याका प्रधान कन्द्र शांतिनिकेतन वायुमण्डल जैनोके अनुकूल होनेके बावजूद भी समाज है और बात भी कुछ अंशोमे सच है । परन्तु यहॉपर इसपर समुचित ध्यान नहीं दे रहा है। कहनेको तो दा बाताकी मैने जो कमी देखी वह मुझे उसी समय शिक्षालय-गुरुकुलोकी हमारे यहाँ कोई कमी नहीं है बहुत ही अखरीक तो इतनी विशाल लायब्ररीमे परन्तु फिर भी जो सांस्कृतिक गौरव-गरिमाको बढ़ाने उच्च श्रणिके जैन-माहित्यका सर्वथा अभाव जो अनु Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ७ ] सम्पादकीय शीलनात्मक कार्यों में सहायता करना हो वहॉके अध्ययन-प्रवृत्तियाँ यहाँ चलें और जैन शिक्षाकी कोई विद्वानोंमें पं० प्रवर हजारीप्रसादजी द्विवेदी. आचार्य भी समुचित व्यवस्था न हो, यह भी आश्चर्यका ही क्षितिमोहनसेन, जैनमाहित्यके प्रेमी और अन्वेषक है। विषय है । १५ वर्ष पूर्व बाबू बहादुरसिंह सिंघीके श्रीयुत् रामसिंहजी तोमर तो प्राकृत और अपभ्रंश प्रयाससे 'सिंघीविद्यापीठ' संस्थापित हुई थी, जिसके साहित्यके गंभीर अभ्यासी हैं। आपने अपभ्रंशभापा मुख्य अध्यापक पुरातत्त्वाचार्य जिनविजयजी थे और माहित्यका विवेचनात्मक इतिहास भी बड़े परि- परन्तु उनका जबसे वहाँसे प्रयाण हुआ तभीसे श्रमपूर्वक तैयार किया है जो शीघ्र ही हिन्दीभवनकी संस्था भी चली गई । अब जैनोकी कोई खास ओरसे प्रकाशित होगा। आगे भी उपर्यक्त विद्वान जैन व्यवस्था वहॉपर नहीं है। जबकि वहॉके कार्यकर्ता संस्कृतिपर अध्ययन करनेकी सुरुचि रखते हैं; परन्तु चाहते अवश्य है । अतः जैनसमाजके श्रीमन्त आवश्यक साधनाके अभावमे उनका कार्य बढ़ नहीं व्यक्तियोंको चाहिये कि प्राकृतभाषा और जैनसकता. जब कभी कुछ जैनसाहित्य औरसंस्कृति- साहित्यादिकी शिक्षाके लिये या तो जैन संस्कृतिविषयक ग्रन्थोकी आवश्यकता पड़जाती है तो उन्हें शिक्षापीठ जैसी कोई स्वतन्त्र संस्था या ऐसी जैनवैयक्तिक रूपसे कहीसे प्राप्त कर काम चलाना पड़ता चेयर वहॉपर अवश्य ही स्थापित कर देंवे जिसपर एक है। जैन समाजके लिये यह अत्यन्त खेदका विषय ऐसे विद्वानकी नियुक्ति की जाये जो जैन दर्शन, धर्म, होना चाहिये । स्वतंत्र अन्वेषण करना तो रहा दूर, पर साहित्यादि सभी विषयोका विद्वान् और तुलनात्मक जो एतद्विपयक कार्योंमे अपना बहुमूल्य समय दे रहे है. अभ्यास करनेमे रुचि रखता हो, साम्प्रदायिक व्याउनको आवश्यक साहित्यिक साधनो की भी पूति न माहसे दर हो। यदि यह व्यवस्था जैनसमाज कर दें करना और सांस्कृतिक प्रचारकी बड़ी बड़ी बातें करना तो रहने-करनेकी सुविधा वे देनेको तैयार हैं। अधिक इसका क्या अर्थ हो सकता है ? खुशीकी बात है कि खर्च भी नहीं है केवल प्रतिवर्ष ५००० हजारका खर्च कलकत्ता-निवासी प्रसन्नचन्द बाथराने उपाध्याय होगा, परन्तु वहाँ के सांस्कृतिक वायुमण्डलमें जो तुलसुखसागरजी महाराजके सदुपदेशसे ५०० रुपयोका नात्मक अध्ययन जैन-अजैन व्यक्ति करेंगे वे आगे जैनसाहित्य यहॉके लिये मॅगवाना ते किया है। पर चलकर हमारी समाजके लिये बहुत ही उपयोगी इससे होगा क्या ? सम्पूर्ण जैनमाहित्यिक संस्थाओ- प्रमाणित होंगे । मैं तो चाहूँगा कि जैनी लोग इस का-जा प्रचार कर रही है-चाहिय कि प्रकाशित बातका अतिशीघ्र विचार कर “जैनशिक्षापीठ" स्थाग्रन्धाकी एक-एक प्रति तो अवश्य ही यहॉ भिजवावे। पित कर दे । जहाँ जैन संस्कृतिके विविध अङ्गोका दसरी अखरनेकी बात है वहॉपर जैन विद्यापीठका तलस्पर्शी अध्ययन, मनन और अन्वेपण हो। न होना, जब अधिक प्रसिद्ध धर्मो. साहित्योंकी पटना सिटी, ता. २३-७-४८ -मुनिकान्तिसागर वीरसेवामन्दिरको प्राप्त सहायता गत किरणमें प्रकाशित सहायताके बाद वीरसेवामन्दिरको निम्र सहायताकी प्राप्ति हुई है, जिसके लिये दातार सहानुभाव धन्यवादके पात्र हैं:६००) बावू नन्दलालजी सरावगी कलकत्ता (तैयार ग्रन्थोंके प्रकाशनार्थ स्वीकृत दस हजारकी सहायताके मध्ये)। १००) निर्मलकुमारजी सुपुत्र उक्त बाबू नन्दलालजी कलकत्ता। १००) बाबू शान्तिनाथजी सुपुत्र उक्त बाबू नन्दलालजी कलकत्ता। १०) श्रीदिगम्बर जैनसमाज बाराबडी. मार्फत ला० कन्हैयालजी जैन बाराबकी। -अधिष्ठाता Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाकिस्तानी पत्र [पं० उग्रसेन गोस्वामी बी० ए०, एल-एल० बी० रावलपिंडी जिले के अन्तर्गत सैय्यद कसरा गॉवके रहने वाले हैं | विभाजन होनेसे पूर्वं कई लाखके आदमी थे । मकान-बगीचा था, सैकड़ों बीघे जमीन थी । गॉव में अपनी भद्रता और वंश प्रतिष्ठा के कारण श्रादर-सम्मान की दृष्टिसे देखे जाते थे । आजकल डालमियानगरमें रहते हैं और मेरे पास उठते बैठते हैं। इनके बाल्य-सखा कसरा साहबके अक्सर पत्र पाकिस्तान से आते रहते हैं । एक पत्र उनमेसे नीचे दिया जा रहा है। कमरा साहब उर्दू के ख्यातिप्राप्त शायर और लेखक हैं। बड़े नेक सहृदय मुसलमान हैं । डालमियानगर में भारत-विभाजनसे पूर्व एक बार तशरीफ लाये थे; तब उनकी पत्नीका देहान्त हुए ४ रोज हुए थे। फिर भी मेरे यहाँ बच्चे की वर्षगाँठ में सम्मिलित हुए मुबारकबादी- ग़जल पढी । रातके १२-१ बजे तक शेरोशायरीका दौर चला, परन्तु यह श्राभान तक न हो सका कि श्रापपर पत्नी वियोगका पहाड़ टूट पडा है । उनके जानेके बाद ही उक्त घटनाका पता चला । ऐसा वज्र-हृदय मनुष्य भी पञ्जाबका रक्त-काण्ड देखकर रो उठा । - गोयलीय ] मुहन्विये दिलनवाज जनाब गोस्वामी साहब, यह ख़त क्यों भेज रहा हूँ, कुछ न पूछिये । मैने सैयदके हालात सुने है, अभी गया नहीं। लेकिन जो कुछ सुना है, वह इतना है कि मै और आप अपने हमवतनोकी रजालत, मजहबी दीवानगी और दरिन्दगी की वजह से कभी किसी मौजिज शख्शके सामने शर्मिन्दगीसे सर नही उठा सकेंगे। एक दीवानगीका सैलाब था, जो आया और रास्तेमें जो कुछ भी मिला उसे बहाकर ले गया । गाँवके एक-एक मकान को जलाया गया। स्कूलको खाकिस्तर कर दिया । यह नही सोचा कि आइन्दा बच्चो की तालीमका क्या होगा ? चीज मिटाई तो आसानीसे जा सकती है, लेकिन बनाना मुश्किल होता है । फिर इस क़िस्मके अदारे जिसमें हर कौम और हर मज़हबके बच्चे अपने मजाक और काबलियत के मुताबिक फायदा उठा सकते है । इनको मिटाना एक ऐसा गुनाह है जिसको कोई माफ़ नही कर सकता । रावलपिडी, जेहलम, केमलपुर या जैसे अजला जहाँ अहले नूद और सिक्ख भाइयोकी तादाद कम है। ह! इस अकलियतको किस तरह बरबाद किया गया । ऐसा जुल्म तो किसी बडे-से-बड़े जालिम बादशाहने भी मखलू के खुदापर नहीं किया । चंगेज और हलाकू फिसाने बनकर रह गये । इस तरक्की के जमानें यह बरबरेयत ? या अल्लाह ! ख़ुदाकी पनाह, दिल नही चाहता कि ऐसे मुल्क में रहें । यह मुल्क दरिन्दोका मुल्क है । इन्सानियतकी क़ीमत यहाँ कुछ भी नहीं । जज्चये शराफत नापैद और खिजफे रजालत अनगिनत । अत्र कैसा सलाम और कैसी दुआ ? मिलें भी तो कैसे मिलें ? वे सिल्सिले ख़त्म हो गये । वे दिन जाते रहे । इन्सानियत बदल गई। मेरे भाई, मै आपसे निहायत शर्मिन्दा हॅू कि मेरी क़ौमने दरिन्दगीका वह मजाहिरा किया जिसके लिये मेरा सर हमेशा नीचा रहेगा। - गुलाम हुसैन कसरा मिनहास Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaiSada भारतीय ज्ञानपीठ काशीके प्रकाशन १. महाबन्ध-(महधवल सिद्धान्तशास्त्र) प्रथम भाग । हिन्दी टोका सहित मूल्य १२) । २. करलक्खरण-(सामुद्रिक-शास्त्र) हिन्दी अनुवाद सहित । हस्तरेखा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ । सम्पादक-प्रो० प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम० ए०, अमरावती । मूल्य १)। ३. मदनपराजय- कवि नागदेव विरचित (मूल संस्कृत) भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावना सहित।जिनदेवके कामके पराजयका सरस रूपक । सम्पादक और अनुवादक-पं०राजकुमारजी सा०। मू०८) ४. जैनशासन-जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करने वाली सुन्दर रचना । हिन्द विश्वविद्यालयके जैन रिलीजनके एफ. ए० के पाठ्यक्रममें निर्धारित । मुखपृष्ठपर महावीरस्वामीका तिरङ्गा चित्र । मूल्य ४-) ५. हिन्दी जैन-साहित्यका संक्षिप्त इतिहास-हिन्दी जैन-साहित्यका इतिहास तथा परिचय । मूल्य २)। ६. आधुनिक जैन-कवि-वर्तमान में कवियोंका कलात्मक परिचय और सुन्दर रचनाएँ । मूल्य ३) । ७. मुक्ति-दुत-अञ्जना-पवनञ्जयका पुण्यचरित्र (पौराणिक रौमांस) मू०४) ८. दो हजार वर्षकी पुरानी कहानियां--(६४ जैन कहानियाँ) व्याख्यान तथा प्रवचनोंमे उदाहरण देने योग्य । मूल्य ३)। ९. पथचिह-(हिन्दी-साहित्यकी अनुपम पुस्तक) स्मृति रेखाएँ और निबन्ध । मूल्य २)। १०. पाश्चात्यतकशास्त्र-(पहला भाग) एफ० ए० के लॉजिकके पाठ्यक्रमकी पुस्तक । लेखक-भिक्षु जगदीशजी काश्यप, एफ० ए०, पालि-अध्यापक, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी । पृष्ठ ३८४ । मूल्य ४|| ११. कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्नमूल्य २)। १२. कन्नडप्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची-(हिन्दी) मूड बद्रीके जैनमठ, जैनभवन, सिद्धान्तवसदि तथा अन्य ग्रन्थभण्डार कारकल और अलिपूरके अलभ्य ताडपत्रीय प्रन्थोंके सविवरण परिचय । प्रत्येक मन्दिरमे तथा शास्त्र-भण्डारमें विराजमान करने योग्य । मूल्य १०)। वीरसेवामन्दिरके सब प्रकाशन भी यहाँपर मिलते हैं प्रचारार्थ पुस्तक मँगाने वालोंको विशेष सुविधाएँ भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस । म Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. A-731 Pager@ greereaERBreangrewar कीरसेकामन्दिर सरसाकाके प्रकाशन - - - - - - - - - - - - - - - - १ अनित्य-भावना ४ सत्साधु-स्मरणगंगलपाठआ० पद्मनन्दिकृत भावपूर्ण और हृदयः ।। अभूतपूर्व मुन्दर और विशिष्ट संकलन, प्राही महत्वकी कृति, साहित्य-तपस्वी पंडित संकलयिता पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार, भगवान महावीरसे लेकर जिनसेनाचार्य पर्यन्त जुगलकिशोरजी मुख्तारकं हिन्दी-पद्यानुवाद क२१ महान जैनाचार्योक प्रभावक गणस्मरणों और भावार्थ महित । मूल्य ।) में युक्त । मूल्य ॥ M२ आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थसूत्र- ५ अध्यात्म-कमल-मात एड--. पञ्चाध्यायी तथा लाटीहिता आदि ग्रन्थों मरल-मंक्षिप्त नया सूत्र-प्रन्थ, प० जुगल के रचयिता ५० राजमल-विचित अपूर्व " किशोरजी मुख्तारकी सुबोध हिन्दी-व्याग्या आध्यात्मिक कृति, न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल साहिन । मृल्य।) कोठिया और पं० परमानन्दजी शास्त्रीक मरल ३ न्याय-दीपिका हिन्दी अनुवादादि-सहित तथा मुग्नार पंडिन जगाकशोरजी-द्वाग लिखित विस्तृत प्रम्ना(महत्वका नया मंस्करण)- अभिनव बनास विशिष्ट । मूल्य धर्मभूपण-यात रचित न्याय-विषयकी सुबोध र प्रार्थामक रचना. त्याचार्य पं० दरबारीलाल । ६ उमास्वामिश्रावकाचार-पराक्षाकोठिया द्वारा सम्पादित, हिन्दी अनुवाद, । मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी-द्वारा लिखित विस्तृत (१०१ पृष्ठकी) प्रम्नावना. प्राककथन, । प्रन्थ-परीक्षाओंका इतिहास-महित प्रथम अश । परिशिष्टादिसे विशिष्ट, ४०८ पृष्ठ प्रमाण, लागन मूल्य ।) १२ मूल्य ५) । इमकी थोड़ी ही प्रनियाँ शेष रही है। । ७ विवाह-ममुद्दे श्य विद्वानों और छात्रोंन इम मम्करणको सव ५० जुगलकिशोरजी मुख्तार-रचित विवाह पमन्द किया है । शीघ्रना करे। फिर न मिलने के रहस्यको बतलाने वाली और विवाहोंक श्रवपर पछताना पड़ेगा। | मरपर वितरण करने योग्य मुन्दर कृति । | वीग्मेवान्दिग्म जो साहित्य नैयार किया जाता है वह पचारकी टिम नैयार होता है। गवमायके लिये नहीं और इसीलिये कागज, छपाई आदिके दाम बढ़ जानपर भी पुस्तकोंका मूल्य वही पुराना (मन् १९४३का) रखा है। इतनेपर भी १०) संज्यादाकी पुस्तकोपर चिन कमीशन दिया जाता है। प्रकाशन विभाग-वीरसेवामन्दिर, सरसावा जिला सहारनपुर KharatIRBIRVEKSHAKARMERRORSARMAGAR काश+--- भान Im Hi Hitem. 01.2mment Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमकान्त श्रावण, संवत् २००५ : अगस्त, सन् १९४८ LS Bana INDI - manumanmmmmmmmmm m m विश्ववन्द्य बापू वर्ष ६ किरण ८ hardhanaimamasumments imadan TamiwriramreA प्रधान सम्पादक जुगलकिशोर मुख्तार सञ्चालक-व्यवस्थापक भारतीय ज्ञानपीठ, काशी । a newsHIRALANKARNama Home सह सम्पादक मुनि कान्तिमागर दरबारीलाल न्यायाचार्य अयोध्याप्रसाद गोयलीय डालमियानगर (विहार) a i सस्थापक -प्रवर्तक वीरसेवामन्दिर, सरसावा महाप्रयागा ३० जनवरी १६४८ २ अक्त:बर १८६६ ParvaHEAmAn imaMMONOMMItcorn विषय-सूची पृष्ठ ६१ लेख नाम १-समन्भद्र-भारतीके कुछ नमूने २-वादीभसिहमूरिकी एक अधूरी अपूर्व कृति ३-५० शिवचन्द्र देहलीवाल ४-धमका रहस्य ५-व्यक्तित्व s-पॉच प्राचीन दि. जैन मूर्तियाँ लेख नाम ७- मंजद' शब्दपर इतनी आपत्ति क्यों? ८-अपहरणकी आगमे मुलमी नाग्यिाँ ह-सम्यग्दृष्टिका आत्म-सम्बोधन १०-अतिशयक्षेत्र श्रीकुण्डलपुरजी १५-शिमलाका पयंपणपर्व १०-सम्पादकीय ३१४ ३१६ ३१६ ३२१ ३२४ ३२५ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवाबू नन्दलाल जी कलकत्ताकी उदारता श्रीमान् बाबू नन्दलालजी सरावगी कलकत्ताने वीरसेवामन्दिर द्वारा तय्यार जैन ग्रन्थोंके प्रकाशनार्थ गत जलाई मासके अन्तमें दस हजार रुपयेके प्रशंसनीय दानका जो वचन दिया था उस दान सम्म रकमको आपने बड़े ही विनम्र और प्रेममय शब्दोंके साथ भेज दिया है। साथ ही ८००) रु० अपने दोनों पुत्रों चि० शान्तिनाथ और चि० निर्मलकुमारकी ओरसे अगले चार वर्षोंकी वार्षिक सहायताके रूपमें पेशगी भेजे हैं-वर्तमान वर्षको सहायतामें २००) रु० उनकी ओरसे आप दे गये थे-और १००) रु० अपनी पत्नी श्रीमती कमलाबाईजीकी ओरसे 'सन्मति-विद्या-निधि' को प्रदान कर गये हैं. जो बालसाहित्यके प्रकाशनार्थ स्थापित की गई है। इस तरह हालमें आपने १११००) की रकम वीरसेवामन्दिरको नकद प्रदान की है। इस महती उदारता और सरस्वती-सेवाकी उत्कट भावनाके लिये आप भारी धन्यवादके पात्र है। जुगलकिशोर मुख्तार वीरसेवामन्दिरको प्राप्त अन्य सहायता गत किरणमें प्रकाशित सहायताके बाद वीरसेवा- चार्यके, जिसमे २५) सफर खर्च के शामिल हैं। मन्दिरको जो अन्य सहायता प्राप्त हुई है वह निम्न १०२) दि० जैन समाज शाहगढ़, जिला सागर (दशप्रकार है और उसके लिये दातारमहानुभाव धन्यवाद- लक्षणपर्व के उपलक्षम) मार्फत पं० परमानन्द के पात्र हैं: शास्त्रीके, जिसमें ४१) मफर खर्च के शामिल है। ५००) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन. कानपुर १०१) श्रीमती पद्मावतीदेवीजी धर्मपत्नी साह सुमत(दशलक्षणपर्वके उपलक्षमे) प्रसादजी नजीबाबाद (चि० पुत्र जिनेन्द्रकुमारके ५१) ला० चन्दनलाल गोपीचन्दजी जैन, कानपुर विवाहोपलक्षमे निकाले हुए दानमेसे)। (दशलक्षणपर्वके उपलक्षम) ५) दिगम्बर जैन पञ्चायत किशनगढ़. जि. जयपुर १७६) दिगम्बर जैन सभा शिमला, (दशलक्षणपर्वके (दशलक्षणपर्व के उपलक्षमे)। उपलक्षमें) मार्फत पं० दरबारीलालजी न्याया- ९३५) अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर' अनेकान्तको प्राप्त सहायता गत किरण नं० ६में प्रकाशित सहायताके बाद पलक्षमे) अनेकान्तको जो सहायता प्राप्त हुई है वह निम्न प्रकार ५) ला० वसन्तलालजो जैन जयपुर (दशलक्षणपर्वहै और उसके लिये दातारमहानुभाव धन्यवादके पात्र है के उपलक्षम)। १०) ला० मुन्नीलालजी मुरादाबाद व ला० बच्चलाल ५) दि. जेन पञ्चायत, गया (दशलक्षणपर्वके उप जी आगरा (विवाहोपलक्षमे) मा. पं. विष्णुकान्त लक्षमे) मार्फत मोहनलालजी जैन मन्त्री। ५) ला. दीपचन्दजी पांच्या. छिन्दवाडा (विवाहो व्यवस्थापक 'अनेकान्त' अनेकान्तकी सहायताका सदुपयोग अनेकान्तपत्रको जो सहायता विवाह-शादी आदिके शुभ अवसरोपर भेजी जाती है उसका बड़ा ही अच्छा सदुपयोग किया जाता है । उस सहायतामें अजैन विद्वानो, लायजेरियों, गरीब जैन विद्यार्थियो तथा असमर्थ जैन संस्थाओंको अनेकान्त फ्री (बिना मूल्य) अथवा रियायती मूल्य ३) रु.में भेजा जाता है। इससे दातारोंको दोहरा लाभ होता है-इधर वे अनेकान्तके सहायक बनकर पुण्य तथा यशका अर्जन करते हैं और उधर उन दूसरे सजनोंके ज्ञानार्जनमे सहायक होते है. जिन्हे यह पत्र उनकी सहायतासे पढ़नेको मिलता है। अतः इस दृष्टिसे अनेकान्तको महायता भेजने-भिजवानेकी ओर समाजका बराबर लक्ष्य रहना चाहिये और कोई भी शुभ अवसर इमके लिये चूकना नहीं चाहिये । व्यवस्थापक 'अनेकान्त' Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम् तस्व-सपा विश्वतत्व-प्रकाशक वार्षिक मूल्य ५) MAHARASHTRAITESTRICTLimitunesma MINTOHINITIATIOGRAMINATANMamtammingRHINITIHA एक किरणका मूल्य नीतिविरोधष्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः। वर्ष ९ । किरण ८ । वोरमेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जिला महारनपुर श्रावणशुक्ल, वीरनिर्वाण-संवत २४७४, विक्रम संवत २००५ अगस्त १९४८ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने युक्यनुशासन मियोऽनपेक्षाः पुरुषार्थ हेतु शीततारूपमें व्यवस्थित भी नहीं होती । परस्परनिर पेक्ष मत्वादिक धर्म अथवा अवयव पुरुषार्थहेतुतारूपनौशा न चांशी पृथगस्ति तेभ्यः। से उपलभ्यमान नहीं हैं, अतः पुरुषार्थहेतुतारूपसे परस्परेक्षाः पुरुषार्थ हेतु व्यवस्थित नहीं होते। यह युक्त्यनुशासन प्रत्यक्ष और दृष्टा नयास्तद्वदसि-क्रियायाम् ॥५०॥ आगमसे अविरुद्ध है।' ‘(वस्तुको अनन्तधर्मविशिष्ट मानकर यदि यह जो अंश-धर्म परम्पर-सापेक्ष हैं वे पुरुषार्थके कहा जाय कि वे धम परस्पर-निरपेक्ष ही हैं और धर्मी हेतु हैं क्योंकि उस रूपमें देखे जाते हैं जो जिस उनसे पृथक् ही है तो यह कथन ठीक नहीं है. क्योंकि) रूपमे देखे जाते है वे उसी रूपमे व्यवस्थित होते हैं, जो अंश-धर्म अथवा वस्तुके अवयव परस्पर-निरपेक्ष जैसे दहन (अनि) दहनताके रूपमें देखी जाती है हैं वे पुरुषार्थके हेतु नहीं हो सकते; क्योंकि उस रूपमें और इसलिये तद्रूपमें व्यवस्थित होती है; परस्परउपलभ्यमान नहीं है जो जिस रूपमें उपलभ्यमान सापेक्ष अंश स्वभावतः पुरुषार्थहेतुतारूपसे देखे जाते नहीं वह उस रूपमें व्यवस्थित भी नहीं होता, जैसे हैं और इसलिये पुरुषार्थहेतुरूपसे व्यवस्थित हैं। यह अग्नि शीतताके साथ उपलभ्यमान नहीं है तो वह स्वभावकी उपलब्धि है।' Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] अनेकान्त [ वर्ष ६ ___(इसी तरह) अंशी-धर्मी अथवा अवयवी- तरह परात्मामें भी राग होता है-दोनोंमें कथंचित् अंशोंसे-धर्मों अथवा अवयवोंसे-पृथक् नहीं है; अभेदके कारण, तथा परात्माकी तरह स्वात्मामें भी क्योंकि उसरूपमें उपलभ्यमान नहीं है जो जिस द्वेष होता है-दोनोंमें कथंचित् भेदके कारण, और रूपमें उपलभ्यमान नहीं वह उसमें नास्तिरूप ही है, राग-द्वेषके कार्य ईर्ष्या, असूया. मद. मायादिक दोष जैसे अग्नि शीततारूपसे उपलभ्यमान नहीं है अतः प्रवृत्त होते हैं, जो कि संसारके कारण है, सकल शीततारूपसे उसका अभाव है। अशोसे अंशीका विक्षोभके निमित्तभूत हैं तथा स्वर्गाऽपवगके प्रतिबन्धक पृथक होना सर्वदा अनुपलभ्यमान है अतः अंशोसे हैं। और वे दोष प्रवृत्त होकर मनके समत्वका निरापृथक अंशीका अभाव है। यह स्वभावकी अनुपलब्धि करण करते है-उसे अपनी स्वाभाविक स्थितिमें स्थित है। इसमें प्रत्यक्षतः कोई विरोध नहीं है, क्योंकि न रहने देकर विषम-स्थितिम पटक देते हैं-.मनके परस्पर विभिन्न पदार्थों मह्याचल-विन्ध्याचलादि जैसों- समत्वका निराकरण समाधिको रोकता है, जिससे के अंश-अंशीभावका दर्शन नहीं होता। आगम-विरोध समाधि-हेतुक निर्वाण किसीके नहीं बन सकता । और भी इसमें नहीं है क्योंकि परस्पर विभिन्न अर्थोके अंश. इसलिये जिनका यह कहना है कि 'माक्षके कारण अंशीभावका प्रतिपादन करनेवाले आगमका अभाव समाधिरूप मनके समत्वकी इच्छा रखने वालेको है और जो आगम परस्पर विभिन्न पदार्थोके अंश- चाहिय कि वह जीवादि वस्तुको अनेकान्तात्मक न अंशीभावका प्रतिपादक है वह युक्ति-विरुद्ध होनेसे माने' वह भी ठीक नहीं है, क्योकि) वे राग-द्वेषादिक भागमाभास सिद्ध है। -जो मनकी समताका निराकरण करते है..-कान्त____ "अंश-अंशीकी तरह परस्परसापेक्ष नय नैगमा- धर्माभिनिवेश-मूलक होत है-कान्तरूपसे निश्चय दिक-भी (मत्तालक्षणा) असिक्रियामे पुरुषार्थके हेतु किये हुए (नित्यत्वादि) धममे अभिनिवेश-मिथ्या है। क्योंकि उस रूपमें देखे जाते है-उपलभ्यमान है। श्रद्धान' उनका मूलकारण होता है-और (माही-इससे स्थितिमाहक द्रव्यार्थिकनयके भेद नैगम, मिथ्याष्टि) जीवाकी अहंकृतिसे---अहकार तथा उससंग्रह, व्यवहार और प्रतिक्षण उत्पाद-व्ययके ग्राहक के माथी ममकारसे---- उत्पन्न हात है। अर्थात पयायाथिकनयक भेद ऋजुसूत्र. शब्द, समभिरुढ उन श्रहंकार-ममकार भावोस ही उनकी उत्पत्ति है जो एवंभूत ये सब परम्परमें सापेक्ष होते हुए ही वस्तुका मिन्यादर्शनरूप माह-राजाक सहकारी है-मन्त्री है'. जो साध्य अर्थक्रिया-लक्षण-पुरुपार्थ है उसके निणय- अन्यसे नहीं--दृमर अहकार-ममकारके भाव उन्हे के हेतु है-अन्यथा नहीं। इस प्रकार प्रत्यक्ष और जन्म देनेमे अममथ हैं। और (सम्यग्दृष्टि-जीवोक) भागमसे अविराधरूप जो अर्थका प्ररूपण सत्रूप नकि प्रमाणसे अनेकान्तात्मक वस्तुका ही निश्चय होता है वह सब प्रतिक्षण ध्रौव्योत्पाद-व्ययात्मक है; है और मम्यक् नयस प्रातपक्षका अपेक्षा रखनेवाले अन्यथा सतपना बनता ही नहीं। इस प्रकार युक्त्यनु एकान्तका व्यवस्थापन होता है अतः एकान्ताभिनिवेशका शासनको उदाहत जानना चाहिये ।' नाम मिध्यादर्शन या मिथ्याश्रद्धान है, यह प्रायः निर्णात है। एकान्त-धर्माऽभिनिवेश-मूला २'मैं इसका स्वामी' ऐसा जो जीवका परिणाम है वह रागादयोऽहंकृतिजा जनानाम् । 'अहकार' है और 'मेरा यह भोग्य' ऐसा जो जीवका परिएकान्त-हानाच्च स यत्तदेव णाम है वह 'ममकार कहलाता है। अहंकारके साथ सामर्थ्यसे ममकार भी यहाँ प्रतिपादित है। स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते ॥५१॥ ३ कहा भी है-“ममकाराऽहकारी सचिवाविव मोहनीयराजस्य । '(जिन लोगोंका ऐसा खयाल है कि जीवादिवस्तु- रागादि-सकलपरिकर-परिपोषण तत्परौ सततम् ॥१॥" का अनेकान्तात्मकरूपसे निश्चय होनेपर स्वात्माकी -युक्त्यनुशासनटीकामें उद्धृत । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र - भारती के कुछ नमूने किरण ८ ] एकान्तकी हानिसे - एकान्त धर्माभिनिवेशरूप मिथ्यादर्शनके प्रभावसे वह एकान्ताभिनिवेश उसी अनेकान्तके निश्चयरूप सम्यग्दर्शनत्वको धारण करता है जो श्रात्माका वास्तविक रूप क्योकि एकान्ताभिनिवेशका जो अभाव है वही उसके विरोधी अने कान्तके निश्चयरूप सम्यग्दर्शनका सद्भाव है। और चूँकि यह एकान्ताभिनिवेशका अभावरूप सम्यग्दर्शन श्रमका स्वाभाविक रूप है अतः (हे वीर भगवन् ) आपके यहाँ आपके युक्त्यनुशासनमें - ( सम्यग्दृष्टिके) मनका समत्व ठीक घटित होता है । वास्तवमें दर्शनमोहके उदयरूप मूलकारणके होते हुए चारित्रमोहके उदयमें जो रागादिक उत्पन्न होते है वे ही जीवीके अस्वाभाविक परिणाम हैं; क्योकि वे औदfra भाव हैं और सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्ररूप जो परिणाम दर्शनमोहके नाश, चारित्रमोहकी उदय हानि और गगादिके अभाव से होते है वे आत्मरूप होनेमे जीवोके स्वाभाविक परिणाम है- किन्तु पारिणामिक नहीं, क्योंकि पारिणामिक भाव कर्मोके उपशमादिकी अपेक्षा नहीं रखते। ऐसी स्थिति में असंयत सम्यग्दृष्टिके भी स्वानुरूप मनः साम्यकी अपेक्षा मनका सम होना बनता है, क्योंकि उसके संयमका सर्वथा अभाव नहीं होता । अतः अनेकान्तरूप युभ्यनुशासन गंगादिकका निमित्तकारण नहीं. वह तो मनकी समताका निमित्तभूत है । प्रमुच्यते च प्रतिपक्ष-दुषी जिन ! त्वदीयैः पटुसिंहनादैः । एकस्य नानात्मतया ज्ञ- वृत्त े - बन्ध-मोक्ष स्वमतादबाह्यौ ॥ ५२ ॥ ( यदि यह कहा जाय कि अनेकान्तवादीका भी अनेकान्त राग और सर्वथा एकान्तमें द्वेष होनेसे उसका मन सम कैसे रह सकता है. जिससे मोक्ष बन सके ? मोक्षके अभाव में बन्धकी कल्पना भी नहीं बनती | अथवा मनका सदा सम रहना माननेपर बन्ध नही बनता और बन्धके अभावमं मोक्ष घटित नहीं हो सकता, जो कि बन्धपूर्वक होता है । अतः [ २८६ बन्ध और मोक्ष दोनों ही अनेकान्तवादीके स्वमतसे बाह्य ठहरते हैं—मनकी समता और असमता दोनों ही स्थितियो में उनकी उपपत्ति नहीं बन सकती - तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि ) जो प्रतिपक्षदूषी हैप्रतिद्वन्द्वीका सर्वथा निराकरण करनेवाला एकान्तायही है - वह तो हे वीर जिन ! आप (अनेकान्तवादी) के एकानेकरूपता जैसे पटुसिहनादोंसे - निश्चयात्मक एवं सिंहगर्जनाकी तरह अबाध्य ऐसे युक्ति - शास्त्राविरोधी आगमवाक्योके प्रयोगद्वारा - प्रमुक्त ही किया जाता है— वस्तुतत्त्वका विवेक कराकर तत्त्वरूप एकान्ताग्रहसे उसे मुक्ति दिलाई जाती है- क्योंकि प्रत्येक वस्तु नानात्मक है, उसका नानात्मकरूपसे निश्चय ही सर्वथा एकान्त प्रमोचन है । ऐसी दशाम अनेक, न्तवादीका एकान्तवादीके साथ कोई द्वेष नही हो सकता और चूँकि वह प्रतिपक्षका भी स्वीकार करनेवाला होता है। इसलिये स्वपक्षमें उसका सर्वथा राग भी नहीं बन सकता । वास्तवमे तत्त्वका निश्चय ही राग नहीं होता । यदि तत्त्वका निश्चय ही राग होवे तो क्षीणमोहीके भी का प्रसङ्ग आएगा जोकि असम्भव है. और न तत्त्वके व्यवच्छेदको ही द्वेष प्रतिपादित किया जा सकता है, जिसके कारण अनेकान्तवादीका मन सम न रहे । अतः अनेकान्तवादीके मनकी ममता के निमित्तसे होनेवाले मोक्षका निषेध कैसे किया जा सकता है ? और मनका समत्व सर्वत्र और सदाकाल नही बनता. जिससे राग-द्वेपके प्रभावसे बन्धके अभावका प्रसङ्ग श्रावे, क्योंकि गुणस्थानोंकी अपेक्षासे किसी तरह, कहीं और किसी समय कुछ पुण्यबन्धकी उपपत्ति पाई जाती है। अतः बन्ध और मोक्ष दोनों अपने ( अनेकान्त) मतसे - जोकि अनन्तात्मक तत्त्व विषयको लिये हुए है - बाह्य नहीं हैं— उसीमें वस्तुतः उनका सद्भाव है- क्योंकि बन्ध और मोक्ष दोनों ज्ञवृत्ति हैं — अनेकान्तवादियोद्वारा स्वीकृत ज्ञाता श्रात्मामें ही उनकी प्रवृत्ति है । और इसलिये सांख्योंद्वारा स्वीकृत प्रधान (प्रकृति) के अनेकान्तात्मक होनेपर भी उसमें वे दोनो घटित नहीं हो सकते; क्योंकि प्रधान (प्रकृति) - के अता होती है वह ज्ञाता नही माना गया है।' Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] श्रात्मान्तराभाव-समानता न वागास्पदं स्वाssश्रय-भेद - हीना । भावस्य सामान्य विशेषवत्त्वादेrये तयोरन्यतरभिरात्म ॥५३॥ ' (यदि यह कहा जाय कि एकके नानात्मक अर्थके प्रतिपादक शब्द पटुसिंहनाद प्रसिद्ध नहीं है; क्योकि बौद्धों श्रन्याऽपोहरूप जो सामान्य है, उसके वागा स्पदता --वचनगोचरता - है, और वचनोके वस्तुविषयत्वका असम्भव है, तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि) श्रात्मान्तरके अभावरूप - आत्मस्वभावसे भिन्न अन्य अन्य स्वभाव के अपाहरूप - जो समानता (सामान्य) अपने श्राश्रयरूप भेदोंसे हीन (रहित) है. वह वागास्पद - वचनगोचरं – नही होती; क्योकि वस्तु सामान्य और विशेष दोनों धर्मोको लिये हुए है।' ¿ ( यदि यह कहा जाय कि पदार्थ के सामान्यविशेषवान होनेपर भी सामान्यके ही वागास्पदता युक्त है; क्योंकि विशेष उसीका आत्मा है, और इस तरह दोनोंकी एकरूपता मानी जाय तो ) सामान्य और विशेष दोनोंकी एकरूपता स्वीकार करनेपर एकके निरात्म (अभाव) होनेपर दूसरा भी (अविनाभावी होनेके कारण) निरात्म (प्रभावरूप ) हो जाता है— और इसतरह किसीका भी अस्तित्व नहीं बन समता अतः दोनोंकी एकता नहीं मानी जानी चाहिए ।' श्रमेयमश्लिष्टममेयमेव भेदेऽपि मत्यपवृत्तिभावात् । वृत्तिश्च कृत्स्नांश - विकल्पतो न अनेकान्त [ वर्ष लगाया जासकता - और अष्ट है - किसी भी प्रकार के विशेष (भेद) को साथमें लिये हुए नही है - वह ( सर्वव्यापी, नित्य, निराकाररूप सत्त्वादि) सामान्य अमेय - अप्रमेय ही है-- किसी भी प्रमाणसे जाना नहीं जासकता । भेदके माननेपर भी - सामान्यको स्वाश्रयभूत द्रव्यादिकोके साथ भेदरूप स्वीकार करने पर भी - सामान्य प्रमेय नहीं होता; क्योंकि उन द्रव्यादिकोमें उसकी वृत्तिकी अपवृत्ति (व्यावृत्ति) का सद्भाव है -- सामान्यकी वृत्ति उनमे मानी नहीं गई है, और जब तक सामान्यकी अपने आश्रयभूत द्रव्यादिकोमें वृत्ति नहीं है तब तक दोनोका संयोग कुण्डीमें बेरोके समान ही होसकता है, क्योकि सामान्य के अद्रव्यपना है तथा संयोगका अनाश्रयपना है और संयोगक द्रव्याश्रयपना है। ऐसी हालत में सामान्यकी द्रव्यादिकमे वृत्ति नही बन सकती ।' मानं च नाऽनन्त- समाश्रयस्य ॥५४॥ ' ( यदि यह कहा जाय कि श्रात्मान्तराभावरूप - अन्यापोहरूप —- सामान्य वागास्पद नहीं है, क्योंकि वह श्रवस्तु है; बल्कि वह सर्वगत सामान्य ही वागास्पद है जो विशेषोसे लिष्ट है - किसी भी प्रकारके भेदको साथमें लिये हुए नहीं है - तो ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योकि ) जो अमेय है— नियत देश, काल और आकार की दृष्टिसे जिसका कोई अन्दाजा नहीं "यदि सामान्यकी द्रव्यादिवस्तुके साथ वृत्ति मानी भी जाय तो वह वृत्ति भी न तो सामान्यको कृत्स्न (निरंश) विकल्परूप मानकर बनती है और न अंश विकल्परूप |क्योकि अंशकल्पनासे रहित कृत्स्न विकल्परूप सामान्यकी देश और काल से भिन्न व्यक्तियोंमे युगपनवृत्ति सिद्ध नहीं की जासकती । उससे अनेक सामान्योकी मान्यताका प्रसङ्ग आता है, जो उक्त सिद्धान्तमान्यता के साथ माने नहीं गये है; क्योंकि एक तथा अनशरूप सामान्यका उन सबके साथ युगपत् योग नहीं बनता। यदि यह कहा जाय कि सामान्य भिन्न देश और कालके व्यक्तियोके साथ युगपन सम्बन्धवान् है, क्योंकि वह सर्वगत, नित्य और अमूर्त है. जैसे कि आकाश, तो यह अनुमान भी ठीक नहीं है । इससे एक तो साधन इष्टका विघातक हो जाता है अर्थात् जिस प्रकार वह भिन्न देश कालके व्यक्तियोंके साथ सम्बन्धिपनको सिद्ध करता है उसी प्रकार वह सामान्यके आकाशकी तरह सांशपनको भी सिद्ध करता है जोकि इष्ट नहीं है; क्योंकि सामान्यको निरंश माना गया है। दूसरे, सामान्यके निरंश होनेपर उसका युगपत् सर्वगत [ शेषांश पृष्ठ ३२० पर ] Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वादीभसिंहमूरिकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्थाबादसिद्धि (लेखक-न्यायाचार्य ५० दरबारीलालजी, कोठिया) गत वर्ष श्रीयुत पं० के० भुजबलीजी मूडबिद्रीकी गम्भीर होती है। पर इस कृतिकी भाषा अत्यन्त, प्रसन्न कृपासे हमे वादीभसिहसूरिकी एक कृति प्राप्त हुई थी. विशद और बिना किसी विशेष कठिनाईके अर्थबोध जिसका नाम है 'स्याद्वादसिद्धि' और जिसके लिये हम करानेवाली है। ग्रन्थको आप सहजभावसे पढते उनके आभारी हैं। जाइये, अर्थबोध होता जायगा । हॉ. कुछेक स्थल यह जैनदर्शनका एक महत्वपूर्ण एवं उच्चकोटिका ऐसे जरूर है जहाँ पाठकको अपना दिमाग लगाना अपूर्व ग्रन्थरत्न है। सुप्रसिद्ध जेनतार्किक भट्टाकलङ्क- पड़ता है और जिससे ग्रन्थकी प्रौढता, विशिष्टता एवं देवके न्यायविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह. लघीयत्रय आदि- अपूर्वताका भी कुछ परिचय मिल जाता है। भाषाकी तरह यह कारिकात्मक प्रकरण-ग्रन्थ है। दुःख है के सुन्दर और सरल पद-वाक्योके प्रयोगोसे समूचे कि विद्यानन्दकी 'सत्यशासनपरीक्षा' और हेमचन्द्र- ग्रन्थकी रचना भी प्रशस्त एवं हृद्य है। चूंकि ग्रन्थकार की प्रमाणमीमांमा' की तरह यह कृति भी अधूरी ही उत्कृष्ट कोटिके दार्शनिक और वाग्मीके अतिरिक्त उच्चउपलब्ध है। मालूम नहीं, यह अपने पूरे रूपमे और कोटि के कवि भी थे और इस लिये उनकी यह रचना किसी शास्त्रभण्डारमें मौजूद है या नहीं । अथवा, कवित्व-कलासे परिपूर्ण है। यह ग्रन्थकारकी स्वतन्त्र यह ग्रन्थकारकी अन्तिम रचना है, जिसे वे स्वर्गवास पद्यात्मक रचना है-किसी गद्य या पद्यरूप मूलकी होजानेके कारण पूरी नहीं कर सके। फिर भी यह व्याख्यात्मक रचना नहीं है। इस प्रकारकी रचना प्रसन्नताकी बात है कि उपलब्ध रचनामें १३ प्रकरण रचनेकी प्रेरणा उन्हे अकलङ्कदेवके न्यायविनिपूर और १४वॉ प्रकरण अपूर्ण (बहुभाग), इस तरह श्वयादि और शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रहादिसे मिली लगभग १४ प्रकरण पाये जाते है और इन सब जान पड़ती है। बौद्धदर्शनमे धर्मकीर्ति (ई०६२५)की प्रकरणोमे अकलङ्कदेवके न्यायविनिश्चयसे, जिसकी सन्तानान्तरसिद्धि, कल्याणरक्षित (ई० ७००)की कारिकाश्रोका प्रमाण ४८० है, २१ कारिकाएँ अधिक बाह्यार्थसिद्धि. धर्मोत्तर (ई. ७२५)की परलोकसिद्धि अर्थात ५०१ जितनी कारिकाएँ सन्निबद्ध हैं। इससे तथा क्षणभङ्गसिद्धि, श्रीर शङ्करानन्द (ई० ८००) इस ग्रन्थकी महत्ता और विशालता जानी जा सकती की अपाहसिद्धि, प्रतिबन्धसिद्धि जैसे सिद्धधन्त है। यदि यह अपने पूर्णरूपमे होता तो कितना विशाल नामवाल ग्रन्थ रचे गये हैं। और इनसे भी पहले होता, यह कल्पना ही बड़ी सुखद प्रतीत होती है। स्वामी समन्तभद्रकी जीवसिद्धि रची गई है। दुर्भाग्यसे यह अभी तक विद्वत्ससारके सामने नहीं संभवतः ग्रन्थकारने अपनी 'स्याद्वादसिद्धि' भी उसी आ सका और इमलिये अप्रकाशित एवं अपरिचित तरह सिद्धयन्त नामसे रची है। दशामे पड़ा चला आ रहा है। __ ग्रन्थका मङ्गलाचरण और उद्देश्य ग्रन्थकी भाषा और रचना शैली प्रन्थको प्रारम्भ करनेके पहले प्रन्थकारने अपनी यद्यपि दार्शनिक ग्रन्थोंकी भाषा प्रायः दुरूह और पूर्वपरम्परानुसार एक कारिकाद्वारा ग्रन्थका मङ्गला Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२] अनेकान्त [वर्ष : चरण और दूसरी कारिकाद्वारा ग्रन्थका उद्देश्य निम्न · द्वादसिद्धौ क्षणिकवादिनं प्रति युगपदनेकान्तसिद्धिः।' प्रकार प्रदर्शित किया है -पद्य ६६-१४२। " ". द्वनाय स्वामिने विश्ववेदिने । (४) 'इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचितायां स्यानित्यानन्द-स्वभावाय भक्त-सारूप्यदायिने ॥१॥ द्वादमिद्धौ क्षणिकवादिन प्रति क्रमानेकान्तसिद्धिः।' सर्व सौख्यार्थितायां च तदुपाय-पराङ्मुखाः । -कारिका १४३-२३१ । तदुपायं ततो वक्ष्ये न हि कार्यमहेतुकम् ॥२॥" (५) 'इति नित्यवादिनं प्रति धर्मकर्तुर्भोक्तृत्वायहाँ पहली मङ्गल-कारिकामें प्रथम पाद टित है भावसिद्धिः।' -का० २३२-२६३ । और जो इस प्रकार होना चाहिए.-'नमः श्रीवर्द्ध (६) इति नित्यकान्तप्रमाणे सर्वज्ञाभावसिद्धिः।' मानाय' । अक्षर और मात्राओंकी दृष्टिसे यह पाठ -का० २६४-२८५। ठीक बैठ जाता है। यदि यही शुद्ध पाठ हो तो इस (७) 'इति जगत्कतुरभावसिद्धिः ।' कारिकाका अर्थ इस प्रकार होता है -का०२८६-३०७। ___ 'श्री अन्तिम तीर्थङ्कर वर्द्धमानस्वामीके लिये (८) इति भगवदहमेव सर्वज्ञ इति सिद्धिः।' नमस्कार है जो विश्ववेदी (सर्वज्ञ) हैं. नित्यानन्द स्वभाव -का०३०८-३०४। (अनन्तसुखात्मक) हैं और अपने भक्तोंको समानता () 'इत्यर्थापत्तेर प्रामाण्यसिद्धिः ।' (बराबरी) देनेवाले हैं जो उनकी उपासना करते हैं -का० ३३०-३५२ । वे उन जैसे बन जान है।' (१०) 'इति वेदपौरुषेयत्वसिद्धिः।' का०३५३-३६२ __दूसरी कारिकामें कहा गया है कि 'समस्त प्राणी (११) 'इति परतः प्रामाण्यसिद्धिः।' का. ३६३-४१६ सुख चाहते हैं, परन्तु वे सुखका सच्चा उपाय नहीं (१२) इत्यभावप्रमाणदूपणसिद्धिः।' का.४००-४२४ जानते । अतः इस ग्रन्थद्वारा सुखके उपायका कथन (१३) इति तकंप्रामाण्यसिद्धिः ।' का. ४०५-४४५ करूँगा क्योकि बिना कारणके कार्य उत्पन्न नहीं हाता।' (१४) यह प्रकरण का० ४४६ से का० ५०१ तक उपलब्ध है और अधूरा है। जैसा कि उसकी निम्न विषय-परिचय अन्तिम कारिकासे स्पष्ट हैजान पड़ता है कि ग्रन्थकार इस ग्रन्थकी रचना न संबध्नात्यसंबद्धः परत्रैवमदर्शनात् । बौद्धविद्वान् शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रहकी तरह विशाल समवेतो हि संयोगो द्रव्यसंबन्धकृन्मतः ॥५०१|| रूपमे करना चाहते थे और उन्हींकी तरह इसके इन प्रकरणोमें पहले 'जीवसिद्धि' प्रकरणमें अनेक प्रकरण बनाना चाहते थे। यही कारण है कि चार्वाकको लक्ष्य करके सहेतुक जीव-आत्माकी जो उपलब्ध रचना है और जो समग्र ग्रन्थका संभवतः सिद्धि की गई है और आत्माको भूतसंघातका कार्य भाग है उसमें प्रायः १४ प्रकरण ही उपलब्ध है। माननेका निरसन किया गया है। जैसाकि इन प्रकरणोके समाप्तिसूचक पुष्पिकावाक्यांसे प्रकट है और जो निम्न प्रकार हैं: दूसरे ‘फलभोक्तत्वाभासिद्धि' प्रकरणमें क्षणिक(१) 'इति श्रीवादीभसिहरिविरचितायां स्या वादी बौद्धोके मतमे दूषण दिया गया है कि क्षणिक द्वादसिद्धी चार्वाक प्रति जीवसिद्धिः।-पद्य १से २४। चित्तसन्तानरूप आत्मा धादिजन्य स्वगोदि फलका (२) इति श्रीमद्वादीभसिहसूरिविरचितायां स्या भोक्ता नही बन सकता, क्योंकि धर्मादि करनेवाला द्वादसिद्धौ बौद्धवादिन प्रति स्याद्वादानभ्युपगमे धर्म चित्त क्षणध्वंसी है-वह उसी समय नष्ट हो जाता है कर्तुः फलभोक्तत्वाभावसिद्धिः। -पद्य २५से ६८। १ 'सत्येवाऽऽत्मनि धौ च सौख्योपाये सुखार्थिभिः । (३) इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचितायां स्या- धर्म एव सदा कार्यो न हि कार्यमकारणे ॥२४॥' Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८ ] और यह नियम है कि 'कर्ता ही फलभोक्ता होता है।' अतः आत्माको कथचित् नाशशील-सर्वथा नाशशील नहीं - स्वीकार करना चाहिए। और तब कर्तृत्व और फलभोक्तृत्व दोनो एक (आत्मा) के बन सकते हैं'। artifiहरिकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याद्वादसिद्धि [ २९३ ' 'अन्य ग्रन्थकारों और उनके ग्रन्थवाक्योंका उल्लेख तीसरे 'युगपदनेकान्त सिद्धि' और चौथे 'क्रमानेकान्तसिद्धि' नामके प्रकरणोमे वस्तुको युगपत् और क्रमसे वास्तविक अनेकधर्मात्मक सिद्ध किया गया है। और बौद्धाभिमतं संतान तथा संवृतिकी युक्तिपूर्ण मीमांसा करते हुए चित्तक्षणोको निरन्वय एवं निरंश स्वीकार करनेमे एक मार्केका दृषण यह दिया गया है. कि जब चितक्षणोमे अन्वय नहीं है- वे सर्वथा भिन्न है तो दाताको ही स्वर्ग हो और वधकको ही नरक हो' यह नियम नहीं बन सकता । प्रत्युत इसके विपरीत भी सम्भव है — दाताको नरक और वधकको स्वर्ग क्यों न हो ? पाँचवे भोक्तृत्वाभावसिद्धि, छठे सर्वज्ञाभावसिद्धि. सातवें जगत्कर्तृ त्वाभावसिद्धि, आठवें अर्हत्सर्वज्ञमिद्धि, नवें अर्थापत्ति प्रमाणसिद्धि दशवें वेदपौरपेयसिद्धि, ग्यारहवें परतः प्रामाण्यसिद्धि, बारहवे अभावप्रमाणदूषणसिद्धि और तेरहवें तर्कप्रामाण्यसिद्धि नामक प्रकरणो में अपने-अपने नामानुसार विषय चर्णित है । चउदहवे प्रकरण में वैशेषिकके गुण-गुणी दाद और समवायादि पदार्थोंका समालोचन किया गया है । सम्भव है प्रन्थका जो शेष भाग अनुपलब्ध है उसमें ग्रन्थकारने सांख्य, नैयायिक आदि दर्शनोकी मीमांसा की हो अथवा करनेका विचार रखा हो। अस्तु १ ' ततः कथविनाशित्वे कर्त्रा लब्ध फल भवेत् । तन्नाशो नेष्यते तस्माद्धर्मो कार्योऽस्तु सौगतैः ||६८|| २ ' तथा च दातुः स्वर्गः स्यान्नरको इन्दुरित्ययम् । नियमो न भवेत् किन्तु विपर्यामोऽपि सम्भवेत् ॥ ३-११६' ३ 'गुणाद्यभेदो गुण्यादेस्तथा निर्वाधबोधतः । प्रन्थकारने इस रचनामें अन्य प्रन्थकारों और उनके प्रन्थवाक्योंका भी उल्लेख किया है। प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिलभट्ट और प्रभाकरका नामोल्लेख करके उनके वेदवाक्यार्थका खण्डन किया है। यथा नियोग- भावनारूपं भिन्नमर्थद्वयं तथा । - प्रभाकराभ्यां हि वेदार्थत्वेन निश्चितम् ॥६-२८२ ॥ इसी तरह अन्य तीन जगहोंपर कुमारिलभट्टके मीमांसाश्लोकवार्तिकसे 'वार्त्तिक' नामसे अथवा बिना उसके नामसे निम्न तीन कारिकाएँ उद्धत हुई हैं और उनकी आलोचना की गई है (क) स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम् । न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तु मन्येन शक्यते ॥ [मी० लो० सू० २, का० ४७ ] । ११-४११।। इति वार्तिकसद्भावात् । ११-३६३ ।। (ख) शब्द दोषोद्भवस्तावद्वक्तृयधीन इति स्थितिः । तदभावः कचित्तावद्गुणवद्वक्तृकत्वतः ॥ [मी० ० सू० २. का० ६२ ] इति वार्तिकतः शब्द''''''''' (ग) यद्वं दाध्ययनं सर्व तदध्ययनपूर्वकम् । तदध्ययन वाच्यत्वादमने भवेदिति (दघुनाध्यनं यथा)। [मी० ० ० ७ का ३५५ ] इत्यस्मादनुमानात्स्याद्वेदस्यापौरुषेयता |१०-३७६।। इसी तरह प्रशस्तकर, दिग्नाग, धर्मकीर्ति जैसे विद्वानोके पद-वाक्यादिको भी उल्लेख इसमें पाये जाते है । ग्रन्थकर्ता और उनका समय ग्रन्थकता और उनके समयपर भी कुछ विचार कर लेना आवश्यक है। ये प्रन्थकार वादीभसिंहसूरि कौनसे वादीभसिहसूरि है और कब हुए हैं- उनका क्या समय है? नीचे इन्हीं दोनों बातोंपर विचार किया जाता है। तद्वत्तस्यान्यथा हनेगुणादेखि सख्यया || १४-४४६॥ समवायान्न तद्बुद्धिरिहेदं प्रत्ययो ह्यतः । (१) आदिपुराणके कर्ता जिनसेनस्वामीने, जिनका समय ई० ८३८ है, अपने आदिपुराणमें एक 'वादिसिंह' दृष्टान्तं तदटेश्व तत्सम्बन्धेऽप्ययोगतः || १४-४४७ ॥' नामके आचार्यका स्मरण किया है और उन्हें उत्कृष्ट Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष । कोटिका कवि, उत्कृष्टकोटिका वाग्मी तथा उत्कृष्ट कोटिका मिथ्या - भाषण - भूषणं परिहरेतौद्धत्यमुन्मुञ्चत, गमक बतलाया है। यथा- . स्याद्वादं वदतानमेत विनयाद्वादीभकएठीरवं । कवित्वस्य परा सीमा वाग्मितस्य परं पदम् । नो चेत्तद्गुरुगर्जित-श्रुति-भय-भ्रान्ता स्थ यूयं यतगमकत्वस्य पर्यन्तो वादिसिंहोऽर्च्यते न कैः॥ स्तूपर्ण निग्रहजीरार्णकूप-कुहरे वादि-द्विपाः पातिनः॥ ५५ (२) पार्श्वनाथचरितकार वादिराजसूरि (ई. १०२५) सकल-भुवनपालानम्रमूर्द्धावबद्धने भी पार्श्वनाथचरितमें 'वादिसिह'का समुल्लेख किया स्फुरित-मुकुट-चूडालीढ-पादारविन्दः। है और उन्हें स्याद्वादवाणीकी गर्जना करनेवाला (स्या- मदवदखिल -वादीभेन्द्र -कुम्भप्रभेदी, द्वादविजेता) तथा दिग्नाग और धर्मकीर्तिके अभिमान- गणभदजितसेना भाति वादीभसिंह ॥५७|| का चूर-चूर करनेवाला प्रकट किया है। यथा -शिलालेख नं०५४ (६७) स्याद्वादगिरमाश्रित्य वादिसिंहस्य गर्जिते । (४) अष्टसहस्रीके टिप्पणकार लघुसमन्तभद्रने दिङ्नागस्य मदध्वंसे कीर्तिभङ्गो न दुर्घटः॥ भी अपने टिप्पणके प्रारम्भमें एक वादीभमिहका (३) श्रवणवेलगोलाकी मल्लिपेरणप्रशस्ति (ई० उल्लेख निम्न प्रकार किया है११२८) मे एक वार्दीभमिहसूरि अपरनाम गणभृत् तदेवं महाभागैस्तार्किकारुपज्ञातां श्रीमता वादीभ(श्राचार्य) अजितसेनका गुणानुवाद किया गया है और सिंहनोपलालितामाप्तमीमासामलंचिकीर्षवः स्याद्वादोउन्हें स्याद्वादविद्याके पारगामियोंका आदरपूर्वक सतत भासिसत्यवाक्यमाणिक्यमकारिकाघटमदेकटकाराः सूरयो वन्दनीय और लोगोंके भारी श्रान्तर तमको नाश विद्यानन्दस्वामिनस्तदादी प्रतिज्ञाश्लोकमकमाह-।' करनेके लिये पृथिवीपर पाया दुसरा सूर्य बतलाया -अष्टसहस्त्री टि० पृष्ठ ५ । गया है । इसके अलावा, उन्हें अपनी गर्जनाद्वारा यहाँ लघुसमन्तभद्रने वादीभसिहको समन्तभद्रावादि-गजोको शीघ्र चूप करके निग्रहरूपी जीर्ण गमे चार्य रचित आप्तमीमामाका उपलालन (परिपाषण) पटकनेवाला तथा राजमान्य भी कहा गया है। यथा- कर्ता बतलाया है। यदि लघुसमन्तभद्रका यह उल्लख वन्दे वन्दितमादरादहरहस्स्याद्वादविद्या - विदां । अभ्रान्त है तो कहना होगा कि वादीभसिहने श्राप्तस्वान्त-ध्वान्त-वितान-धूनन-विधी भास्वन्तमन्यं भुवि ।। मीमांसापर कोई महत्वकी टीका लिखा है और उसके भक्त्या त्वाजितसेनमानतिकृतां यत्सन्नियोगान्मनः- द्वारा आप्तमीमांसाका उन्होंने परिपोपण किया है। पद्म सम भवेद्विकास-विभवस्योन्मुक्त-निद्रा-भरं ॥५४॥ श्री.पं. कैलाशचद्रजी शास्त्राने भी इसकी सम्भावनाकी १ इस श्लोकपरसे प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीको कुछ भ्रम है' और उसमें आचार्य विद्यानन्दक 'अत्र शास्त्रपरिहुश्रा है। अतएव उन्होंने वादिसिहको दिग्नाग और समाप्ती केचिदिदं मङ्गलवचनमनुमन्यन्ते' शब्दाके साथ धर्मकीर्तिका समकालीन समझते हुए लिखा है कि उद्धृत किये 'जयति जगति' आदि पद्यको प्रस्तुत किया उद्धृत किय 'जयति जगात' 'वादिराजने इस श्लोकमे बौद्धाचार्य दिड नाग और है। कोई आश्चर्य नहीं कि विद्यानन्दके पूर्व आप्तकीर्ति (धर्मकीर्ति) का ग्रहण करके वादिसिहको उनका मीमांसापर लघुममन्तभद्रद्वारा उल्लिखित वादीभसिंहसमकालीन बतलाया है।' (न्याय कु. प्र. प्र. पृ. ११२)। ने ही टीका रची हो और जिससे हो लधुसमन्तभद्रने पर वास्तवमे वादिराजने वादिसिहको उक्त बौद्धविद्वानोका। उन्हें श्राप्तमीमांमाका उपलालनकर्ता कहा है और समकालीन नहीं बतलाया । उनके उक्त उल्लेखका विद्यानन्दने केचित्' शब्दोंके साथ उन्हीकी टीकाके इतना ही अभिप्राय है कि दिग्नाग और धर्मकीर्तिको उक्त 'जयति' आदि समाप्तिमङ्गलको अष्टसहस्रीके अपनी कृतियोपर जो अभिमान रहा होगा वह वादिसिंह अन्तमें अपने तथा अकलङ्कादेवके समाप्तिमङ्गलके की गजना-स्यादादविद्यासे भरपूर अपनी (स्याद्वादसिद्धि पहले उद्धृत किया है। जैसी) कृतियोंसे नष्ट कर दिया गया। १ न्यायकु० प्र० भा० प्र० पृ० १११ । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८ ] (५) क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणि काव्यग्रन्थोंके कर्ता वादी सिंहसूरि विद्वत्समाजमें अतिविख्यात और सुप्रसिद्ध हैं । arata सिंहसूरकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याद्वाद मिद्धि (६) पं० के० भुजबलीजी शास्त्री' ई० १००० और ई० ११४७ के नं० ३ तथा नं० ३७ के दो शिलालेखोके आधारपर एक वादीभसिंह ( अपर नाम अजितसेन) का उल्लेख करते हैं। (७) श्रुतसागरसूरिने भी सोमदेवकृत यशस्तिलक (आश्वास २ १२६) की अपनी टोकामें एक वादीभसिंहका निम्न प्रकार उल्लेख किया है और उन्हें सोमदेवका शिष्य कहा है: 'वादीभसिंहांऽपि मदीयशिष्यः श्रीवादिराजोऽपि मदीयशिप्यः । इत्युक्तत्वाच ।' वादसिंह और वादी सिंह के य सात उल्लेख हैं अबतककी खोजके परिणामस्वरूप विद्वानोको जैनसाहित्य में मिले है। अब देखना यह है कि ये सातो उल्लेख भिन्न भिन्न है अथवा एक ? अन्तिम उल्लेखका प्रेमीजी'. पं० कैलाशचन्द्रजी' आदि विद्वान अभ्रान्त और विश्वसनीय नहीं मानते। इसमें उनका हेतु है कि न तो वादीभसिहने ही अपने की मामदेवका कहीं शिष्य प्रकट किया और न बादिराजने ही अपेनेका उनका शिष्य बतलाया है । प्रत्युत वादीभसिंहने तो पुष्पसेन मुनिको और वादिराजने मतमगरको अपना गुरु बतलाया है। दूसरे सोमदेवने उक्त वचन किस ग्रन्थ और किस प्रसङ्गमें कहा, यह सोमदेवके उपलब्ध ग्रन्थोंपरसे ज्ञात नहीं होता । अतः जबतक अन्य प्रमाणोंसे उसका समर्थन नहीं होता तबतक उसे प्रमाणकोटिमे नहीं रखा जा सकता। अवशिष्ट छह उल्लेग्बो में, मेरा विचार है कि तीसरा और छठा ये दो उल्लेख अभिन्न हैं तथा उन्हें एक दूसरे [ २६५ वादीभसिंहके होना चाहिए, जिनका दूसरा नाम मल्लिषेणप्रशस्ति और निर्दिष्ट शिलालेखों में श्रजितसेन मुनि अथवा अजितसेन पंडितदेव भी पाया जाता है. तथा जिनके उक्त प्रशस्तिमें शान्तिनाथ और पद्मनाभ अपरनाम श्रीकान्त और वादिकोलाहल नामके दो शिष्य भी बतलाये गये हैं । इन मलिषेणप्रशस्ति और शिलालेखका लेखनकाल ई० ११२८, ई० १०६० और ई० ११४७ है और इस लिये इन वादोभसिंहका समय लगभग ई० १०६५ से ई० ११५० तक हो सकता है। बाकी चार उल्लेख- पहला, दूसरा, चौथा और पाँचवाँ - प्रथम वादीभसिंहके होना चाहिए, जिन्हें 'वादिसिंह' नामसे भी साहित्य में उल्लेखित किया गया है। वादीभसिह और वादिसिंहके अर्थमें कोई भेद नहीं है- दोनोंका एक ही अर्थ है । चाहे वादीरूपी गजोके लिये सिंह' यह कहो. चाहे वादियोंके लिये सिंह' यह कहो - एक ही बात है । १ देखो, जैन सिद्धान्तभास्कर भाग ६, कि० २, पृ० ७८ । २ देखो, ब० शीतल प्रसादजी द्वारा सङ्कलित तथा अनुवादित 'मद्रास व मैसूर प्रान्त के प्राचीन स्मारक' नामक पुस्तक । ३ देखो, जैनसाहित्य और इतिहास पृ० ४८० | ४ देखो, न्यायकुमुद प्र० भा० प्रस्ता० पृ० ११२ । यदि यह निष्कर्ष निकाला जाय कि क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणि इन प्रसिद्ध काव्यग्रंथोके कर्ता वादीभसिंहसूरि ही स्याद्वादसिद्धिकार है और इन्हींने आप्तमीमांसापर विद्यानन्दसे पूर्व कोई टीका अथवा वृत्ति लिखी है जो लघुसमन्तभद्रके उल्लेख परसे जानी जाती है तथा इन्ही वादसिंहका 'वादिसिंह' नामसे जिनसेन और वादिराजने बड़े सम्मानपूर्वक स्मरण किया है। तथा 'स्याद्वादगिरामाश्रित्य वादिसिहस्य गर्जिते वाक्यमें वादिराजने 'स्याद्वादगिर' पदके द्वारा इन्हीकी प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धि जैमी स्याद्वादविद्या से परिपूर्ण कृतियोकी ओर इशारा किया है तो कोई अनौचित्य नहीं प्रतीत होता । इसके औचित्यको सिद्ध करनेके लिये नीचे कुछ प्रमाण भी उपस्थित किये जाते हैं। (१) क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणिके मङ्गलाचरणोंमे कहा गया है कि जिनेन्द्र भगवान् भक्तोंके समीहित (जिनेश्वरपदप्राप्ति) को पुष्ट करें - देवें । यथा(क) श्रीपतिर्भगवान्पुष्याद्भक्तानां वः समीहितम् । यद्भक्तिः शुल्कतामेति मुक्तिकन्याकरमहे ||१|| - क्षत्रचू० १-१ । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८] अनेकान्त [वर्षह दिया। यदि वादीभसिंह जिनसेन और सोमदेवके किया हैं; जो प्राचीन परम्पराका द्योतक है। -भारत: उत्तरकालीन होते तो वे, बहुत सम्भव था कि उनकी का एक भी जगह उल्लेख नहीं किया। इससे हम इस परम्पराको देते अथवा साथमें उन्हें भी देते। जैसा नतीजेपर पहुंचते हैं कि यदि वादीभसिंह न्यायकि पं० श्राशाधरजी आदि विद्वानोंने किया है। इसके मञ्जरीकार जयन्तभटके उत्तरवर्ती होते तो वे उनका अलावा वादीमसिंहने गुणव्रतों और शिक्षाबतोंके अन्य उत्तरकालीन विद्वानोंकी तरह जरूर अनुसरण सम्बन्धमें भी स्वामी समन्तभद्राचार्यकी रत्नकरण्डक- करते-'भारताध्ययनं सर्व' इत्यादिको अपनाते । श्रावकाचार वर्णित परम्पराको ही अपनाया है। इन और उस हालतमें 'पिटकाध्ययनं सर्व' इस नई बातोंसे प्रतीत होता है कि वादीभसिंह, जिनसेन और कारिकाको जन्म न देते। इससे ज्ञात होता है कि सोमदेव, जिनका समय क्रमशः ईसाकी नवमी और वादीभसिंह न्यायमञ्जरीकारके उत्तरवर्ती विद्वान नहीं दशमी शताब्दी है, पश्चाद्वर्ती नहीं हैं-पूर्ववर्ती हैं। हैं। न्यायमञ्जरीकारका समय ई.८४० माना जाता ३. न्यायमञ्जरीकार जयन्तभट्टने कुमारिलकी है। अतः वादीभसिह इससे पहलेके हैं। मीमांसाश्लोकवार्तिकगत 'वेदस्याध्ययनं सर्व' इस, वेद- ४. श्रा० विद्यानन्दने प्राप्तपरीक्षामें जगत्कत त्वकी अपौरुषेयताको सिद्ध करनेके लिये उपस्थित की का खण्डन करते हुए ईश्वरको शरीरी अथवा गई, अनुमान-कारिकाका न्यायमञ्जरीमें सम्भवतः सर्व अशरीरी माननेमे दृषण दिये है और विस्तृत मीमांसा प्रथम 'भारताध्यनं सर्व' इस रूपसे खण्डन किया है, की है। उसका कुछ अंशदीका सहित नीचे दिया जिसका अनुसरण उत्तरवर्तो प्रभाचन्द्र', अभयदेव जाता हैदेवसूरि'. प्रमयरत्नमालाकार अनन्तवार्य प्रभृति 'महश्वरम्याशरीरम्य स्वदेहनिर्माणानुपपत्त। तथा हितार्किकांने किया है। न्यायमञ्जरीकारका वह खण्डन दहान्तराद्विना "तावत्स्वदेहं जनयद्यदि । इस प्रकार है तदा प्रकृतकार्येऽपि दहाधानमनर्थकम् ॥१८॥ 'भारतेऽप्येवमभिधातुं शक्यत्वान'. देहान्तरात्स्वदेहस्य विधाने चानवस्थितिः। भारताध्ययनं सर्व गर्वध्ययनपूर्वकं । तथा च प्रकृतं कार्य कुर्यादीशा न जातचित् ।।१६।। भारताध्ययनवाच्यत्वादिदानीन्तनभारताध्ययनवदिति ॥ यथैव हि प्रकृतकार्यजननायापूर्व शरीरमीश्वरी निष्पा -न्यायमं० पृ. २१४। दयति तथैव तच्छरीरनिष्पादनायापूर्व शरीरान्तरं निष्पापरन्तु वादीमसिंहने स्याद्वादसिद्धिमे कुमारिलकी दयेदिति कथमनवस्था विनिवार्येत । उक्त कारिकाके ग्वण्डनके लिये अन्य विद्वानीकी तरह यथाऽनीशः स्वदेहस्य कर्ता देहान्तरान्मतः । न्यायमञ्जरीकारका अनुगमन नही किया । अपितु पूर्वस्मादित्यनादित्वानानवस्था प्रसज्यते ॥२१॥ स्वरचित एक भिन्न कारिकाद्वारा उसका निरमन किया तथेशस्यापि पूर्वस्माइ हाइ हान्तरोद्भवात् । है जो निम्न प्रकार है: नानवस्थेति यो ब यात्तस्याऽनीशत्वमीशितुः ॥२२॥ पिटकाध्ययनं सर्व तदध्ययनपूर्वकम् । अनीशः कर्मदहनाऽनादिसन्तानवर्तिना । तदध्ययनवाच्यत्वादधुनेव भवेदिति ॥ यथैव हि सकर्माणस्तद्वन्न कथमीश्वरः ।।२३।। -स्या. १०-३८२।। यही कथन वादीभसिंहने स्याद्वादसिद्धिमें सिर्फ इसके अतिरिक्त वादीभसिहने काई पाँच जगह ढाई कारिकाओंमें किया है और जिसका पल्लवन एवं और भी इसी स्थाद्वादसिद्धिमें 'पिटक'का ही उल्लेख १ अष्टशती और अष्टमहसी (पृ. २३७) मे अकलङ्कदेव १ देखो, न्यायकुमुद पृ. ७३१, प्रमेयक. पृ. ३६६ । तथा उनके अनुगामी विद्यानन्दने भी इसी (पिटकत्रय) २ देखो, सन्मति टी. पृ. ४१ । ३ देखो, स्या. र. पृ. ६३४॥ का उल्लेख किया है। ४ देखो, प्रमेयरन. पृ. १३७ । २ देखो, न्यायकु. द्वि भा. प्र. १६ । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] वादीभसिहसूरिकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याद्वादमिद्धि . [२९६ विस्तार ही उपयुक्त जान परता है। वे ढाई कारिकाएँ निःसारभूतमपि बन्धनतन्तुजातं, मूर्ना जनो वहति हि प्रसवानुषङ्गात् । देहारम्भोऽग्यदेहस्य वक्तृत्ववदयुक्तिमान् । जीवन्धरप्रभवपुण्यपुराणयोगादेहान्तरेण दहस्य यद्यारम्भोऽनवस्थितिः।। द्वाक्यं ममाऽप्युभयलोकहितप्रदायि ॥३॥ अनादिस्तत्र बन्धश्च त्यक्तोपात्तशरीरता । अतएव वादीभसिंह गुणभद्राचार्यमे पीछेके है। अस्मदादिवदवाऽस्य जातु नैवाऽशरीरता ।। २. सुप्रसिद्ध धारानरेश मोजकी झूठी मृत्युके दहस्यानादिता न स्यादतस्यां च प्रमात्ययात् ॥ शोकपर उनके समकालीन मभाकवि कालिदास, जिन्हे -६-२७३. ०७४३। परिमल अथवा दूसरे कालिदास कहा जाता है. द्वारा इन दानो उद्धरणाका सूक्ष्म ममीक्षण करनेपर कहा गया निम्न श्लोक प्रसिद्ध हैकोई भी सूक्ष्म-समीक्षक यह कहे बिना न रहेगा कि अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती । वादीभमिहका कथन जहाँ मौलिक और संक्षिप्त है पण्डिता खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवंगते ॥ वहाँ विद्यानन्दका कथन विस्तारयुक्त है और जिसे और इमी नोकके पूर्वार्धकी छाया मत्यन्धर वादीभसिंहके कथनका खुलासा कहना चाहिए । अतः महाराजके शोकके प्रसङ्गमे कही गई गद्यचिन्तामणिविद्यानन्दका समय वादीमसिहकी उत्तगवधि है। की निम्न गद्य में पाई जाती हैयदि ये दानो विद्वान समकालीन भी हो जैसा कि 'अद्य निराधारा धरा निरालम्बा सरस्वती।' सम्भव है ता भी एक दृमरका प्रभाव एक दूसरपर अतः वादाभामह राजा माज (राव अतः वादीभमिह राजा भोज (वि० सं० १०७७से पड़ सकता है और एक दुसरेके कथन एवं उल्लेखक वि. १५१२)के बादके विद्वान है। श्रादर एक दूसरा कर सकता है। विद्यानन्दका समय य दो बाधक प्रमाण हैं जिनमे पहलेके उद्भावक हमने अन्यत्र ई. ७७५मे ई०८४. निर्धारित किया पं० नाथूरामजी प्रेमी है और दुसरेके स्थापक श्रीकुप्पुहै। अतः इन प्रमाणांसे वादीभमिहसूरिका ममय स्वामी शास्त्री तथा समर्थक प्रेमीजी है। इनका ईसाकीवी और हवी शताब्दीका मध्यकाल (ई०७० समाधान इस प्रकार हैसे ई०८६०) अनुमानित होता है। १. कवि परमेष्ठी अथवा परमेश्वरने जिनसेन और बाधकोंका निराकरण गुणभद्रके पहले 'वागथसंग्रह' नामका जगप्रसिद्ध पुगण रचा है। और जिसमें वेशठशलाका पुरुषोइस समयके स्वीकार करनेमे दो बाधक प्रमाण का चरित वर्णित है तथा जिसे उत्तरवर्ती अनेकों उपस्थित किये जा सकते है और वे य है पुगणकागेन अपने पुराणोंका आधार बनाया है। १. क्षत्रचूडामणि और गधचिन्तामणिमे जीवन्धर खद जिनमेन और गुणभद्रने भी अपने आदिपुराण स्वामीका चरित निबद्ध है जो गुणभद्राचार्यके उत्तर तथा उत्तरपुराण उमाके आधारसे बनाये हैं-इनका पुराण' (शक सं० ७७०, ई०८४८) गत जीवन्धर- मूलस्रोत कवि परमेष्ठी अथवा परमेश्वरका वागर्थचरितसे लिया गया है। इसका संकेत भी गद्यचिन्ता संग्रह पुराण है, यह प्रमीजी स्वयं स्वीकार करते है । मणिके निम्न पद्यमे मिलता है तब वादाभमिहने भी जीवन्धरचरित जो उक्त प्रमाण१ पेमीजीने जो इसे 'शक सं. ७०५ (वि सं.८४०) की में निबद्ध होगा, उर्मा (पुराण)से लिया है. यह में! रचना' बतलाई है (देखो, जैनमा. और इति. प्र.YER) कहनेमें काई बाधा नहीं जान पड़ती। गद्यचिन्तावह प्रसादिकी गलती जान पड़ती है। क्योंकि उन्हीने उसे १ देखो, डा. ए. एन. उपाध्येका 'कवि परमेश्वर या अन्यत्र शक सं. ७७०, ई.८४८के लगभगकी रचना परमेष्ठी' शीर्षक लेख, जैन सि. भा. भाग १३, कि.२। सिद्ध की है, देखो, वही पृ. ५१४ । २ देखो, जैनमाहित्य और इतिहास पृ. ४२१ ।। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००] अनेकान्त [वर्ष मणिकारने यह कहीं नहीं लिम्बा कि उन्होंने गुणभद्रके छा गया और समस्त नगरवामी सन्तापमें मग्न होगये उत्तरपुराणसे अपने ग्रन्थोंमें जीवन्धरचरित निबद्ध तथा शोक करने लगे। इसी समयकी उक्त गद्य है किया है। गद्यचिन्तामणिका जो पद्य प्रस्तुत किया गया और जो पाँचवे लम्बमे पाई जाती है जहाँ सत्यन्धरहै उसमें सिर्फ इतना ही कहा है कि इसमें का कोई सम्बन्ध नही है-उनका तो पहले लम्ब तक जीवन्धरस्वामीके चरितके उद्गावक पुण्यपुराणका ही सम्बन्ध है । वह पूरी प्रकृतोपयोगी गद्य इस सम्बन्ध होने अथवा माक्षगार्मा जीवन्धरके पुण्य- प्रकार हैचरितका कथन होनमे यह (मंग गद्यचिन्तामणिरूप 'अद्य निराश्रया श्रीः, निराधारा धरा, निरालम्बा वाक्य-समूह) भी उभय लाकके लिये हितकारी है। सरस्वती, निष्फलं लोकलोचनविधानम, निःसारः संसारः, और वह पुण्यपुराण उपर्युक्त वागर्थसंग्रह भी हो नीरसा रसिकता, निराम्पदा वीरता इति मिथः प्रवर्तयति सकता है । वह गुणभद्रका उत्तरपुराण है. यह उससे प्रणयाद्गारिणी वाणीम् .' -पृ. १३१ । मिद्ध नहीं होता। इसके सिवाय, गद्यचिन्तामणिकारने इस गद्यके पद-वाक्योंके विन्यामको देखते हुए वस्तुतः उम जीवन्धरचरितका गद्यचिन्तामणिमे कहने यही प्रतीत होता है कि यह गद्य मौलिक है और की प्रतिन्ना को है जिसे गणधरने कहा और अनेक वादीभसिंहकी अपनी रचना है। हो सकता है कि उक्त सूरिया (आचार्यो) द्वारा-न कि केवल गुणभद्रद्वारा-- परिमल कविने इमी गद्यक पदोको अपने उक्त श्लोकमें जगतमे ग्रन्थरचनादिके रूपमें प्रख्यापित हुअा है। यथा- समाविष्ट किया है । यदि उल्लिम्वित पद्यकी इसमे इत्यवं गणनायकन कथितं पुण्यास्रवं शृण्वता छाया होती ना अद्य' और 'निराधारा धग' के बीचमें तज्जीवन्धरवृत्तमत्र जगति प्रख्यापितं मूरिभिः । निगश्रया श्री:' यह पद न पाता। छायामें मूल ही विद्याम्फूर्तिविधायि धर्मजननीवाणीगुणाभ्यर्थिनां तो आता है। यही कारण है कि इस पदको शास्त्रीजी वक्ष्य गद्यमयेन वाडमयसूधावरण वाक्सिद्धय ॥१५॥ और प्रेमीजी दोनो विद्वानोन पूर्वोल्लिखित गद्यमे उद्धत अतः वादीभमिहका गणभद्राचार्यका उत्तरवर्ती नहीं किया-उसे अलग करक और 'अदा' का निरामिद्ध करनेके लिय जो उक्त हेतु दिया जाता है वह धाग धरा' के साथ जोड़कर उपस्थित किया है । अतः युक्तियुक्त न होनेसे वादीभसिंहके उपरोक्त समयका यह दूसरी बाधा भी निबल एवं अपने विपयकी बाधक नहीं है। अमाधक है। २. दृमरी बाधाको उपस्थित करते हुए उसके पुष्पसेन और ओडयदेव उपस्थापक श्रीकुप्पुम्वामी शास्त्री और उनके समर्थक वादीभसिहके साथ पुष्पसेनमुनि और प्रोडयदेवप्रेमीजी दानी विद्वानोको एक भ्रान्ति हुई है जिमका का सम्बन्ध बतलाया जाता है। पुष्पसेनको उनका अनुसरण अन्य विद्वानों द्वारा आज भी होता जारहा गुरु और आडयदेव उनका जन्म-नाम अथवा वास्तवहै और इम लिय उमका परिमार्जन होजाना चाहिए। नाम कहा जाता है। इसमें निम्न पद्य प्रमाणरूपम वह भ्रान्ति यह है कि गद्यचिन्तामणिकी उक्त जिस दिये जाते हैगद्यको मत्यन्धर महाराज शाकके प्रमगमे कही गई पुष्पसेनमुनिनाथ इति प्रतीतो, बतलाई है वह उनके शोकक प्रमद्गमे नहीं कही गई। दिव्यो मन्ह दि सदा मम संनिदध्यात् । अपितु काठाङ्गारके हार्थीको जीवन्धरस्वामीने कडा यच्छक्तितः प्रकृतमूढमतिर्जनोऽपि, मारा था. उससे कद्ध हुए कामागारके निकट जब वादीभसिहमुनिपुङ्गवतामुपैति ॥ जीवन्धरस्वामीका गन्धोत्कटने बाँधकर भेज दिया और कामागारने उन्हें वधस्थानमे लेजाकर फॉसी देने- श्रीमद्वादीभसिहेन गद्यचिन्तामणिः कृतः । की मजाका हुकुम दे दिया तो माग नगरम मन्नाटा स्थेयादोडयदेवेन चिरायास्थानभूषणः ।। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] वादीभमिहमूरिकी एक अधूरी अपूर्व कृति स्याद्वादसिद्धि [३०१ स्थेयादोडयदेवेन वादीभहरिणा कृतः । मणिके अन्तमे वे अलगसे दिये गये हैं और श्रीकुप्पूगद्यचिन्तामणिलोंके चिन्तामणिरिवापरः ॥ स्वामी शास्त्रीने फुटनोटमे उक्त प्रकारकी सूचना की इनमें पहला पदा गद्यचिन्तामणिकी प्रारम्भिक है। दूसर. प्रथम श्लोकका पहला पाद और दूसरे पीठिकाका छठा पद्य है और जो स्वयं प्रन्थकारका श्लोकका दूसरा पाढ. पहले श्लोतका दूसरा पाद और रचा हुश्रा है। इस पद्यमें कहा गया है कि वे प्रसिद्ध दूसरे श्लोकका तीसरा पाद. तथा पहले श्लोकका तीसरा पुष्पसेन मुनीन्द्र दिव्य मनु-पूज्य गुरु-मेरे हृदयमें पाद और दूसरे श्लोकका पहला पाद परस्पर अभिन्न सदा श्रासन जमाये रहें वर्तमान रहे जिनके प्रभावसे हैं- पुनरुक्त हैं-उनसे कोई विशेषता जाहिर नहीं होनी मुझ जैसा निपट मूर्ख साधारण आदमी भी वादीभ- और इस लिय ये दोनों शिथिल पद्य वादीभसिंह जैसे मिह-मुनिश्रेष्ठ' अथवा वादीभसिहमूरि बन गया ।' उत्कृष्ट कविकी रचना ज्ञात नहीं होते। तीसरे वादीभअतः यह तो सर्वथा असंदिग्ध है कि वादीभमिहसूरि- मिहमूरिकी प्रशस्ति दनेकी प्रकृति और परिणति भी के गुरु पुष्पमेन मुनि थे-उन्होंने उन्हे मूर्खसे विद्वान् प्रतीत नहीं होती। उनकी क्षत्रचूडामणिमे भी वह नहीं और साधारणजनसे मुनिश्रेष्ठ बनाया था और इम है और म्याद्वामिद्धि अपूर्ण है. जिससे उसके बारेमें लिये वे वादीभमिहक दीक्षा और विद्या दोनोंके कुछ कहा नहीं जा सकता। अतः उपयुक्त दानो पद्य गुरु थे। हमे अन्यद्वारा रचित प्रक्षित जान पड़ते हैं और इस अन्तिम दोनो पद्य, जिनमे श्रोडयदेवका उल्लेख लिय आडयदेव वादीभमिहका जन्म-नाम अथवा है. मुझे वादीभमिहके स्वयंक ग्चे नहीं मालूम हात, वास्तव नाम था. यह बिना निर्बाध प्रमाणाके नहीं कांकि प्रथम तो जिम प्रशस्निकै रुपमे व पाय जाते है. कहा जा सकता। हॉ. वादीभसिहका जन्मनाम व वह प्रशस्ति गदाचिन्तामणिकी सभी प्रतियोम उप- अमली नाम काई रहा जरूर होगा। पर वह क्या लब्ध नहीं है सिर्फ नारकी दो प्रतियोमेसे एक ही होगा. इसके साधनका काई दूसरा पुष्ट प्रमाण ढूँढना प्रतिम वे मिलते है। इस लिय मुद्रित गद्यचिन्ता- चाहिए। १५० के० भुजबलीजी शास्त्रीने जो यह लिग्वा है कि उपसंहार 'पुग्पसेन वाटीमिहके विद्यागुरु नहीं थे, किन्तु दीक्षागुरु । संक्षेपतः 'म्याद्वामिद्धि' जैनदर्शनकी एक प्रौढ अन्यथा इनकी कोई कृति मिलती और माहित्य-समारमें और अपूर्व अभिनव रचना है। जिन कुछ कृतियोसे इनकी भी ख्याति होती । मगर साहित्य-ससारमे ही नहीं जैनदर्शनका वाङ्मयाकाश देदीप्यमान है और मस्तक यो भी वादीमिहकी जितनी ख्याति हुई है, उतनी इनके उन्नत है उन्हीमें यह कृति भी परिगणनीय है। यह गुरु पुषसेनकी नहीं हुई अनुमित होती है।' (भा. भा. ६, अभीतक अप्रकाशित है और इसी लिये अनेक विद्वान किरण २, पृ.८४)। वह ठीक नहीं जान पडता; क्योंकि इससे अपरिचित हैं। वैसी व्याप्ति नहीं है । रविभद्र-शिष्य अनन्तवीर्य, वर्धमान. हम उम दिनकी प्रतीक्षामें हैं जब वादीभसिंहकी मुनि-शिष्य अभिनव धर्मभपण और मतिमागर-शिष्य यह अमर कृनि प्रकाशित होकर विद्वानोमे अद्वितीय वादिराजकी माहित्य-ससारमै कृतियाँ तथा ख्याति दोनों श्रादरका प्राप्त करेंगी और जैनदर्शनकी गौरवमय उपलब्ध हैं पर उनके इन गुरुओंकी न कोई साहित्य-संसार. प्रतिष्ठाको बढ़ावंगी । क्या कोई महान साहित्य-प्रेमी में कृतियाँ उपलब्ध हैं और न ख्याति । वर्तमानमे भी ऐमा इसे प्रकाशित कर महत श्रयका भागी बनेगा और देखा जाता है जिसके अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये ग्रन्थ-ग्रन्थकारकी तरह अपनी उज्ज्वल कीनिको जा सकते हैं। अमर बना आयगा? Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० शिवचन्द्र देहलीवाले देहलीमें पं. शिवचन्द्र नामके एक अच्छे साहित्य-प्रमी विद्वान् होगये हैं जिन्होंने पञ्चायती मन्दिरके भण्डारमें ग्रन्थोका बहुत अच्छा संग्रह किया है और स्वयं भी हिन्दी साहित्यका कितना ही निर्माण किया है। इनका उल्लेख श्रद्धय पंडित नाथूरामजी प्रमीने अपनी हिन्दी जैनसाहित्यका इतिहास' नामक पुस्तकमें किया है। उक्त भण्डारकी सूचीका निरीक्षण करते हुए हमें उनके निम्न ग्रन्थोंका पता चला है । इनमे कौन अनुवादित और कोन स्वनिर्मित हैं, इसका निर्णय विज्ञ पाठक ही इन ग्रन्थोंका पूर्णतः अवलोकन कर कर सकेंगे । यहाँ तो सिर्फ उनकी सूची दी जारही है । आशा है कोई विद्वान् इनपर पूरा प्रकाश डालेंगे। (१) भक्तामरस्तोत्र भाषा (२८) भक्तिपाठसप्तक स.टि. (सं. १६४८) ४६ पत्र (२) कल्याणमन्दिरस्तोत्र (२६) नीतिवाक्यामृतवचनिका । (३) एकीभावस्तोत्र ५७ पत्र पद्व्यकथनादिधार्मिकचर्चा (४) विषापहारस्तोत्र (३०) ध्यानकी विधि १४ पत्र (५) भूपालचौबीमी (३१) जैनउद्योतपत्रिका (सं० १९२७) (६) स्वयम्भूस्तोत्र १० पत्र (३२) अलौकिकगणित (७) जिनसहस्रनाम पत्र (३३) शिक्षाचन्द्रिका (८) तत्वार्थटीका (३४) अन्यमतके ग्रन्थोमे जैनधर्म सम्बन्धी श्लो.४पत्र (8) सर्वार्थसिद्धिटीका ६५ पत्र (३५) प्रश्नोत्तर । ११ पत्र (१०) नीतिवाक्यामृतीका ६८ पत्र (३६) पदमतव्यवस्थावर्णन , ७ पत्र (११) दशलक्षणधर्मटीका १७ पत्र (३७) मतखण्डनविवाद ८ पत्र (१२) सोलहकारणधमटीका १६ पत्र (३८) गृहस्थचर्या (१३) त्रिवर्णाचार-टीका २७४ पत्र (३६) जैनमतप्रबोधिनी ७१ पत्र (१४) धर्मप्रश्रोत्तरश्रावकाचारटीका १३६ पत्र (४०) गुणस्थानचर्चा ४ पत्र (१५) देवशास्त्रगुरुपूजासार्थ (सं० १९६०) ६ पत्र (४१) विवाहपद्धति ह पत्र (१६) बीसमहाराज . . १. पत्र (४२) सत्यार्थप्रकाशकी समालोचना ३७ पत्र (१७) मिद्धपूजा ४ पत्र (४३) पंचेन्द्रियविषयवर्णन ३ पत्र (५८) सालहकारण ४ पत्र (४४) आर्यसमाजियोसे प्रश्न १३ पत्र (१९) दशलक्षणपूजा ४ पत्र (४५) अनादि दिगम्बर (२०) कलिकुण्डपूजा (४६) जैनसभाव्याख्यान ८ पत्र (२१) पञ्चमेझपूजा ५ पत्र (४७) आरापैतीसी (निर्माण सं० १९२०) २५ पत्र (२२) सप्तऋषिपूजा (४८) चैत्यवन्दना (२३) इतिहासरत्नाकर २ भाग पूर्ण (सं.१९२०) ५५ पत्र (४६) शास्त्रपूजा सार्थ (२४) तीसरा अपूर्ण (५०) गुरुपूजा सार्थ .. चौथा भाग , १०१ पत्र (५१) यात्राप्रबन्ध (सं० १९२७) १४ पत्र (२६) लोकचर्चावचनिका ५६ पत्र (५२) अष्टाह्निकापूजा (२७) दायभागप्रकरण १६ पत्र -पन्नालाल जैन अप्रवाल Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मका रहस्य (लेखक-पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री) शामकी चर्चा करना जितना मरल है उसके रहस्य और स्पर्शसे रहित है। राग, द्वेष, ईर्षा, मद. मात्सर्य, च (सत्यरूप) को हृदयङ्गम करना उतना ही कठिन अज्ञान. अदर्शन आदि दोष भी उसमें नही है । घर, है। यों तो अहिसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य और स्त्री. सन्तान, कुटुम्ब, धन, दौलत. शरीर, वचन, मन, परिग्रहपरिमाणको सबने धर्म माना है। पर क्या इन्द्रियाँ, स्वदेश, विदेश, स्वराज्य, परराज्य आदि तो इतने मात्रसे हम धर्मका निर्णय कर सकते है। यह उसके हो ही कैसे सकते है। वह इनमें ममकार तथा एक सामान्य प्रश्न है जो प्रत्यक विचारशीलके हृदयमे अहङ्कार भी नहीं करता है। वह वर्णभेद तथा जातिभेदसे उठा करता है। और जबकि इन सब बातोके रहते भी पर है। छूत. अछूतका भी भेद उसमे नहीं है। वह हुए भी इनके माननेवाले परम्परमे घात-प्रत्याघात न किसीका आदर ही करता है और न अनादर ही। करते है बात-बातमे झूठ बोलते हैं, नफा-नुकसानको स्वयं भी वह किसीसे पूजा-सत्कार नहीं चाहता। न्यूनाधिक बताकर चारी करत है. अब्रह्मक सहायक इच्छा और वासना तो उसे छू तक नहीं गई है। उसे साधनांके जटानेमे लगे रहते है और जितना अधिक न भूख लगती है और न प्यास ही। जन्म, जरा, परिग्रह जुडता जाता है उतना ही अपना बड़प्पन मरण, आधि-व्याधि, आदि भी उसके नहीं होते। वह समझते है तब उसका हृदय सन्तापसे जलने लगता न ता शस्त्रसे काटा ही जा सकता है और न अग्निसे है और वह क्रमशः धर्मकी निःसारताको जीवनमे जलाया ही जा सकता है। वह किसी अन्य वस्तुका अनुभव करने लगता है। वह यह मानने लगता है कर्ता भाक्ता भी नहीं है। यदि कर्ता भोक्ता है भी तो कि ईश्वरवादके ममान यह भी एक वाद है जो व्यक्ति- प्रति समय होनेवाले अपने परिणामोंका ही कर्ता की स्वतन्त्रताका शत्रु है और पब अनर्थीकी जड़ है। भोक्ता है। विश्व अनादि और अविनश्वर है। उसका परन्तु विचार करनेपर ज्ञात होता है कि यह सब बनानेवाला भी वह नहीं है। ऐसा सर्व शक्तिमान धर्मका दाप नहीं है। किन्तु जिस अधर्मका त्याग ईश्वर भी नहीं है जिसने इसे बनाया हो। यह हमारा करने के लिये धर्मकी उत्पत्ति हुई है यह उसीका दाप बुद्धि-दाप है जिससे हम सवशक्तिमान ईश्वरकी कल्पना है। इस लिये मानवमात्रका कर्तव्य है कि वह धर्मका कर उसे विश्वका कना मानत है। यद्यपि जीव ऐसा है कित अनुमन्धान कर उसके सत्यरूपको समझनेका अनादि कालसे माह और अज्ञानवश वह अपने इस प्रयत्न कर। स्वभावमच्युत हो रहा है। जैसे भाजनम नमक मिला धर्म शब्द 'धृ' धातुमें 'मप' प्रत्यय जोडनेमे देनपर उमका रम बदल जाता है या जैसे वर्षाका बनता है जिसका अर्थ धारण करनेवाला होता है। शुद्ध जल पात्रोंके मंदसे अनेक रसवाला हो जाता है इसके अनुसार धर्म जीवनकी वह परिणति है जिसके वैसे ही जीवके साथ कर्मका बन्धन होनेसे उसमें धारण करनेसे प्रत्येक प्राणी अपनी उन्नति करने में अनेक विकारी भाव पैदा होगये हैं। जिसके धारण सफल होता है। करनेसे जीवकं य विकारी भाव दूर होते है उसीका धर्म सब पदार्थोंमें व्याप रहा है। वह व्यापक नाम धर्म है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। सत्य है। जिमका जो स्वभाव है वहीं उसका धर्म है। धर्मका विचार मुख्यतः दो दृष्टियोसे किया जाता जीवका स्वभाव ज्ञान. दर्शन है। वह रूप, रस. गन्ध है। पहली प्राध्यात्मिक दृष्टि है और दूसरी व्याव Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ६ हारिक । जिसमें श्रात्माकी विविध अवस्थाओंका कर्ता गये हैं किन्तु धर्म दो नहीं हैं। यह तो एक ही वस्तुको स्वयं आत्माको बतलाकर अपनी शुद्ध अवस्थाको दो पहलुओसे समझनेका तरीका है। प्रकृतमें धर्म है प्राप्तिके लिये प्रात्म-पुरुषार्थको जागृत किया जाता है, जीवका स्वभाव और अधर्म है जीवमें विकारी भाव । वह अध्यात्म-दृष्टि है और जिसमें अशुद्धताका कारण जहाँ अधर्मका त्याग कर धर्मको धारण करना चाहिये, निमित्तको बतलाकर उसके त्यागका उपदेश दिया ऐसा उपदेश दिया जाता है वहाँ इसका यह अर्थ जाता है वह व्यावहारिक दृष्टि है। इस हिसाबसे धर्म लिया जाता है कि काम, क्रोध, ईर्ष्या, मद, मात्सर्य दो भागों में बँट जाता है-अध्यात्म धर्म और व्यवहार आदि विकारी भावोंका त्याग कर क्षमा, मादव, धर्म । अध्यात्म धर्मका दूसरा नाम निश्चय धर्म है और आर्जव आदि भावोंको धारण करना चाहिये। व्यवहार धर्मका दूसरा नाम उपचार धर्म है। अधिकतर लोकमें बाह्य क्रियाकाण्डपर अधिक पुराणोमें एक कथा आई है। उसमें बतलाया है जोर दिया है और उसे ही धर्म माना जाता है। कि श्रमण भगवान महावारके समयमें वारिषेण और आन्तरिक परिणतिके सुधारपर कदाचित भी ध्यान पुष्पडाल नामक दो मित्र थे। वारिपेण राजपुत्र था नहीं दिया जाता है। यह स्थिति उत्तरोत्तर बढ़ती ही और पुष्पडाल वैश्यपुत्र । एक समय वारिषेण श्रमण जा रही है। जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें इसका एकाधिकार भगवान महावीरका उपदेश सुनकर साधु हो गया। है। जो अपनेको साधु, त्यागी या व्रती मानते है जब यह बात पुष्पडालको ज्ञात हुई तो मित्रस्नेहवश उनमें भी इस अवस्थाका बोलबाला है। हमने अपनेवह भी दीक्षित होगया । पुष्पडाल साधधर्ममे तो को माधु, त्यागी या व्रती माननेवाले से कई मनुष्य दीक्षित होगया किन्तु वह अपनी एकमात्र कानी स्त्रीको देखे है जो स्वभावसे क्रोधी है. मायावी है. दम्भी हैं न भुला सका। या झूठ बोलते है और भोजनके समय आकाशजब वारिपेरणने इस बातको जाना तो वह विचार- पातालको एक कर देते है । उनका दावा है कि पिण्डमें पड़ गया और गृहस्थ अवस्थाकी अपनी बत्तीस शुद्धि (शरीर-शुद्धि) के बिना आत्म-शुद्धि हो ही नहीं स्त्रियोंको दिखाकर उसका मोह दुर किया। सकती। इसके लिये वे गायको नहला कर उसका दूध __ यद्यपि इस कथानकमे पुष्पडालके सच्चे साधु न दुहाते हैं। चौके में धुले हुए कपड़े पहने ऐसे आदमीको, बन सकनेका कारण व्यवहारसे उसकी एकमात्र कानी जिसे दुसरेने स्पर्श कर लिया हो घुसने नहीं देते। स्त्रोको बतलाया गया है किन्तु अध्यात्मिक पहलू हर किसीको पानी नहीं भरने देते । सिजाए हए इससे भिन्न है। इस दृष्टिसे तो साधु बनने में बाधक भोजनको चौकसे बाहर नहीं लाने देत । छूताछूतको ममताको ही माना जा सकता है। स्त्रियाँ दोनोंके थीं मानकर जिन्हे वे छूत ममझते है उन सबके हाथका फिर भी एक साधु बन जाता है और दूसरा नहीं बन भोजन नही लेते। गृहत्यागी होकर भी पैसे रखते हैं पाता है, इसका मुख्य कारण उनकी आन्तरिक परि. और इस बातको अच्छा समझते हैं कि हम किसीका णति ही है। बाह्य निमित्त तो उपचारसे ही किसी न खाकर अपना ही खाते हैं। स्वयं अपने हाथसे कार्यके होने या न होनेमें साधक बाधक माने जाते हैं। दाल. चावल आदि सोधते हैं। दिनका बहुभाग इसीमें निश्चयसे जिस वस्तुकी जिस कालमे जैसी योग्यता निकाल देते है । धर्मको स्वीकार करने-करानेमें भेद होती है तदनुकूल कार्य होता है। निश्चय धर्म और करते हैं। यह अवस्था केवल इन्हीकी नहीं हैं ऐसे व्यवहार धर्म इसी अन्तरको बतलाते हैं। इसीसे कई गृहस्थ है जो इनका अन्धानुसरण करते है। निश्चय घटि उपादेय मानी गई है और व्यवहार किन्तु जैनधर्म ऐसे क्रियाकाण्डको स्वीकार नहीं दृष्टि हेय । करता । भोजन शुद्धि एक बात है और भोजन शुद्धिके इस प्रकार यद्यपि दृष्टि-भेदसे धर्म दो बतलाये नामपर घृणा और अहंकारका प्रचार करना दुसरी Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण -] धर्मका रहस्य बात है । मनुष्य मनुष्यमें पर्यायगत ऐसी कोई वस्तुओंपर रंचमात्र-अवलम्बित नहीं है । मन्दिर, अयोग्यता नहीं है जिससे एक बड़ा और दूसरा छोटा मूर्ति और धर्मपुस्तक श्रादि यद्यपि धर्मके साधन माने समझा जाय । श्राजीविकाके अनुसार कल्पित किये जाते हैं किन्तु इनसे धर्मकी प्राप्ति नहीं होती। जो गये वीके आधारसे माने गये उच्च-नीच भेदको प्रात्मशुद्धिके सन्मुख होता है उसके लिये प्रात्मशुद्धिमे जीवनमे कोई स्थान नहीं । कदाचित जीवन-शुद्धिके ये निमित्त हो जाते हैं इतना अवश्य है। धर्ममे आधारभून आचारके अनुसार स्थूल वर्गीकरण किया प्रधानता आत्मशुद्धिकी है। आत्मशुद्धिको लक्ष्यमें भी जा सकता है पर यह वर्गीकरण उन दोषोंसे रहित रखकर जो भी क्रिया की जाती है वह सब धर्म है है जिनको जन्म देकर ब्राह्मणधर्म सर्वत्र उपहासका और आत्मशुद्धिके अभावमें राग, द्वेष या अहङ्कारवश पात्र बना है। धर्मका जन्म आत्मशुद्धिके लिये हुश्रा की गई वही क्रिया अधर्म है। यह धर्म और अधर्मका था और इसका उपयोग इसी अर्थमें होना चाहिये। विवेक है। जो आत्मार्थी इस दृष्टिसे जीवन यापन करता है वह इस दृष्टिसे विचार करनेपर यह स्पष्टतः अनुभवन तो स्वयं गलत रास्तपर जाता है और न कभी मे आता है कि धमका अर्थ मत-मतान्तर नहीं। धर्मदूसरोको गलत रास्तेपर जानेके लिये उत्साहित ही का अर्थ धर्मशारूके नामसे प्रचलित. पुस्तकोका पढ़ करता है। यह एक विचित्र-सी बात है कि मनुष्य जाना या कण्ठस्थ कर लेना भी नहीं। धर्मका अर्थ होनेपर एक धर्मका अधिकारी माना जाय और दूसरा मन्दिरमे जाकर वहाँ बतलाई गई विधिके अनुसार न माना जाय। वह जन्ममे इस अधिकारसे वश्चित प्रभुकी उपासना करना भी नहीं । धर्मका अर्थ अपने कर दिया जाय । भला एक आत्मशुद्धि कर सके और अपने मतके अनुसार तिथि-त्यौहारोका मानना या दूसरा न कर सके यह कैसे सम्भव है। पर्यायगत विविध प्रकारके क्रियाकाण्डोका करना भी नहीं । धर्मअयोग्यता तो समझमें आती भी है पर पर्यायगत का अर्थ जनेऊ, दाढ़ी या चाटीका धारण करना भी अयोग्यताके न रहते हुए ऐसी सीमा बाँधना उचित महीं । धर्मका अर्थ नदी में स्नान करना, सूतक-पातकका नहीं है। तीर्थङ्कगंने इस रहस्यको अच्छी तरहसे मानना, अप्टमी और चतुदशीके दिन उपवास करना जान लिया था इसलिये उन्होंने आत्म-शुद्धिका या अनध्याय रखना. एकान्तमे निवास करना. कायदरवाजा मबके लिये समानरूपसे खोल दिया था। लश करना आदि भी नहीं। ये सब क्रियाएँ धर्म उनकी मभामें सब मनुष्योको समानरूपसे आत्मधर्म- ममझकर की तो जाती है पर श्रात्मशुद्धिके अभावमें का उपदेश दिया जाता था और वे उसे बिना रुकावट- ये धर्म नहीं हैं इतना उक्त कथनका सार है। के धारण भी कर मकते थे। जो श्रमण होना चाहता जैनधर्मने एसे पाखण्डका सदा ही निषेध किया है था वह श्रमण हो जाता था और जो गृहस्थ अवस्था जिसका आत्म-शुद्धिमे रंचमात्र भी उपयोग नही में रहकर ही जीवन-शुद्धिका अभ्यास करना चाहता होता या जिसे लौकिक लाभकी दृष्टिसे स्वीकार किया था उसे वैसा करने दिया जाता था। किन्तु जो इन जाता है। अवस्थाओंको धारण करने में अपनेको अममर्थ पाता जिन' शब्दका अर्थ ही 'जीतनेवाला है। जिसने था उसे बाधित नहीं किया जाता था । वह अपने परि. विपय और कषायपर विजय पाई है वह भला थोथे णामोंके अनुसार जीवन यापन करनेके लिय पाखण्डको प्रश्रय कैसे दे सकता है ? यद्यपि जैनधर्मने स्वतन्त्र था। बाझ क्रियाकाण्डका निर्देश किया है अवश्य और धर्ममे अधिकार और सत्ता नामकी कोई वस्तु उसका आत्मार्थी धर्म समझकर पालन भी करते हैं, नहीं है। वह तो व्यक्तिके जीवनमेंसे पाकर जीवनके पर उसने बाह्य क्रियाकाण्डको धर्मरूपसे स्वीकार निर्माणद्वारा इनका ध्वंसं करता है। वह बाह्य करनेका कभी भी दावा नहीं किया है। वह मानता है Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मृतिकी रेखाएँ 모리 FEN (लेखक-श्रीअयोध्याप्रसाद गोयलीय) मनुष्यके निजी व्यक्तित्त्वसे उसके देश, धर्म, वंश सम्बन्धमें वहाँ वालोकी बहुत ही भ्रामक धारणाएँ | आदिका परिचय मिलता है। अमुक देश, धर्म, बन गईं । और वहाँ कुली शब्द ही भारतीयताका समाज और वंश कितना सभ्य, सुसंस्कृत, द्योतक होगया । हर भारतीयको अफ्रीकामे कुली विनयशील, सेवाभावी और सञ्चरित्र है. यह उस सम्बोधित किया जाने लगा। यहाँ तक कि महात्मा देशके मनुष्योके व्यक्तित्त्वसे लोग अनुमान लगाते गान्धी भी वहाँ इस अभिशापसे नहीं बच पाये। हैं। कहाँ कैसे-कैसे महापुरुष हुए हैं, किस धमके कलकत्तेमें अक्सर मोटर-ड्राइवर सिक्य है। कितने उच्च सिद्धान्त हैं, इस पुरातत्त्वका ज्ञान सर्व एकबार वहाँ गुरु नानकके जुलूसको देखकर किसी साधारणको नहीं हाता । वह तो व्यक्तिक वतमान अंग्रेजने बंगालीसे पूछा तो जवाब मिला-"यह व्यक्तित्त्वसे खरे-खोटेका अनुमान लगाते हैं। ड्राइवरोके मास्टरका जुलूस है। सुना है यह मोटर दक्षिण अफ्रीकामें शुरू-शुरूमें भारतसे बहुत ही चलाने में बहुत होशियार था।" जवाब देनेवालेका क्या निम्न कोटिके मनुष्याको लेजाया गया और उनसे कुसूर ? वह सिक्ख मोटर-ड्राइवरोंकी बहुतायत और कुलीगीरीका काम लिया गया । उनकी घटिया मौजूदा व्यवहारके परे कैसे जाने कि सिक्खामे बड़े-बड़े मनोवृत्ति और महनत-मजदूरीके कार्योंसे भारतके त्यागी, तपस्वी, शूरवीर, राजे-महाराजे हुए है कि जो आत्मधर्मसे विमुख है वह ता मिध्यादृष्टि है 1 और है। ही किन्तु जो आत्मधर्म समझकर इस क्रियाकाण्डका __ यूरुपकी किसी लायब्रेरीमे एक भारतीय पहलेपालन करता है वह भी मिथ्याष्टि है। जैनधर्मने पहल गया और वहाँ किसी पुस्तकसे चित्र निकाल । भावोकी शुद्धिपर जितना अधिक जोर दिया है उतना लाया। दूसरे दिन ही बार्ड लगा दिया क्रियाकाण्डपर नहीं। यह इसीसे स्पष्ट है कि परिपर्ण (भारतीयांका प्रवेश निषिद्ध है)। सन १९१७मे अपने धर्मकी प्राप्ति वह सब प्रकारको क्रियाके अभाव में ही रिश्तेदार महावीरजी हात हुए भरतपुर भी उतरे । मै स्वीकार करता है। भी उनके साथ था। महाराज भरतपुरके रंगमहल यह धर्मका रहस्य है जो आत्मार्थी इस रहस्यको मोतीमहल आदि देखने गय तो एक स्थानमे औरतोको जानकर जीवनमें उसे उतारता है वास्तवमें उसीका नहीं जाने दिया गया। पूछनेपर मालूम हुआ कि जीवन सफल है। क्या वह दिन पुनः प्राप्त होगा जब कोई औरत कुछ सामान चुराकर लेगई थी. तबसे हम आप सभी धर्मके इस रहस्यको हृदयङ्गम करनेमे सफल होंगे ? जीवनका मुख्य आधार श्राशा है। हम विदेशोमे भारतियोके लिये उनकी परतन्त्रता तो आशा करते हैं कि हम आप सभीका वे दिन पुनः अभिशाप थी ही. कुछ कुपूतोंने भारतीयताके उच्च प्राप्त होंगे। धरातलका परिचय न देकर जघन्य ही परिचय दिया। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८ ] इससे समस्त यूरुपमे भारतके प्रति बड़ी भ्रामक धारणाएँ बन गई। व्यक्तित्व अधिकांश यहाँ के राजे-महाराजे वहाँ रङ्ग-रेलियाँ करने गये तो आमलोगोको विश्वाम होगया कि भारतीय ऐय्याश और पैसेवाले होते है। और इसा विश्वासके नाते यूरुपियन महिलाएँ इण्डियन्मके पाछे farai तरह भिनभिनाने लगीं। अमेरिका कनाडामे गरीब तबकेके सिक्ख महनतमजदूरी करने पहुंचने लगे तो वहाँ समझा गया कि इडयन बहुत निर्धन होते है, अतः नियम बना दिया गया कि निद्धरित निधि दिखाये बिना कोई भी भारतीय अमरीकन सीमामे प्रवेश नही कर सकेगा । भारत मे जब इंग्रेजीका प्रभुत्व जमने लगा तां उन्होंने नीति निश्चित कर ली कि भारतमें उच्च श्री के इंग्रेज ही जाने पाएँ । ताकि शामित जातिपर शाanair ाधिक प्रभाव जम सके । उक्त नीति के अनुसार भारतमे जबतक इंग्रेज उच्चकोटिके आते रहे उनके सम्बन्धमे भारतीयांकी धारणा ae are aadi गई। लोगोका विश्वास दृढ़ होगया कि हिन्दुस्तानी न्यायाधीश. हाकिम व्यापारी और मित्र कही अधिक श्रेष्ठ इंग्रेज न्यायाधीश. हाकिम व्यापारी और मित्र होते है। ये बातके धनी. वक्तकं पाबन्द उदार हृदय और ईमानदार होते हैं। परिणाम इस धारणाका यह हुआ कि इंग्रेज जज, हाकिम, डाक्टर वकील इञ्जनियर व्यापारी आदि हिन्दुस्तानियांकी नजरोमें हिन्दुस्तानियोंसे अधिक निष्पक्ष, योग्य और चतुर बन गये । यहाँ तक कि विलायती वस्तु के सामने हम स्वदेशी वस्तुको हेच समझने लगे। हमारा अभीतक विश्वास भी हैं कि विलायती वस्तु खालिस और उत्तम होता है। स्वदेशी नकली. मिलावटी और घटिया होती है। लिम्बा कुछ होगा और माल कुछ और होगा। ऊपर कुछ और अन्दर कुछ और होगा । हिन्दुस्तानीके व्यापार-व्यवहारमें स्वयं हिन्दुस्तानीको नैतिकनाकी [ ३०७ पूञ्जीपतिके सामानको छोड़कर कुली इंग्रेजका सामान उठायेगा. लॉगेवाले टैक्सीवाले भी पहले इंग्रेजको ही तरजीह देंगे । यहाँतक कि मँगत भी पहले उन्हीके आगे हाथ पसारेगे । शङ्का बनी रहती है। इंग्रेजोकी उदारता-नैतिकताकी यहाँ तक छाप पड़ी कि बड़ेसे बड़े भारतीय इंग्रजो व्यक्तित्वका जहाँ प्रभाव पड़ा, वहाँ उनके अवगुणोंसे भी लोग शङ्कित हुए। टामी लोगो में सच्चरित्र और विश्वस्त भी रहे होगे; परन्तुइनका किसी ने विश्वास नहीं किया। ये हमेशा यूरूपके कलङ्क समझे गये। गुरुपियन महिलाओ की स्वच्छन्दतासे आरतीय इतना घवगत थे कि कोई भी भला आदमी उनके सम्पर्क में आनेका साहस नहीं करता था । लोगोंका विश्वास था: - 'काजरकी कोठरी में कैसो हू सयानो जाय, काजरकी एक रख लागे पर लागे है ।' एक बार एक उद्योगपतिने मुझसे कहा था कि यदि मेरे बराबर के डिब्बेमें भी कोई यूरुपियन महिला सफ़र कर रही हो तो मै तत्काल उस डिब्बेको छोड़ देता हूं। यह लोग कब क्या प्रपञ्च रच दें अनुमान नही लगाया जा सकता। एक ही श्रादमीके अच्छेबुरे व्यक्तित्वसे लोग अच्छे-बुरे अनुमान लगाते रहते हैं । २-४ आदमियोकी तनिक सी भूल उनके देश. धर्म. समाजवंशके मार्गमें पहाड़ बनकर खड़ी होजाती है। १०-५ ब्राह्मणांने लोगोको विष दे दिया तो लोग कह बैठत है ब्राह्मणोका क्या विश्वास ? नाथूराम विनायक गांडसे के कारण - विदेशो में हिन्दुओं को और भारतमे ब्राह्मणो महाराष्ट्रों, विनायको और गोडमोंको कितना कलङ्कत होना पड़ा है ? ईसाईयांने अपने सेवाभावी व्यक्तित्वकी ऐसी छाप मारी है कि उनके मायेसे भी घृणा करनेवाले बड़े-बड़े तिलकधारी अपनी बहू-बेटियोंको बच्चा प्रसत्रके लिये मिशनरी हॉस्पिटल्समं निःशङ्क अकेली छोड़ आते हैं। सबका अटूट विश्वास है कि उतनी सेवापरिचर्या घरवालांसे हो ही नही सकती । मुसलमानोंमें अनेक सदाचारी तपस्वी. और मुन्सिफ हुए हैं। परन्तु यहाँ जो उन्होंने अपने Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ] अनेकान्त [ वर्ष व्यक्तित्वका अमर डाला है. उसको देखते हुए कोई दो-चारक ग्वरे-ग्बोटे आचरण और व्यक्तित्वके हिन्द स्त्री अकेली उनके मुहल्लोमे निकलनेका साहम कारण ममूचा देश, धर्म समाज, वंश कलङ्कित हो नहीं कर मकती । जनता तो व्यक्तियोंके वर्तमान जाता है। और यह कलङ्क ऐसे हैं कि नानीके पाप व्यक्तित्वसे अपनी धारणा बनाती हैं। उनके पूर्वज धेवतोको भुगतने पड़ते है। बादशाह थे या पैग़म्बर. इमसे उसे क्या मरोकार ? एक बार एक मजन (मम्भवतया मुनि तिलक अलीगढ़के ताले और लुधियानेकी नकली मिल्क विजय) वर्मा गये। वहाँ दो वर्मियोंने उनका यथेष्ट एजेण्टोंके धाग्योसे तङ्ग आकर. अलीगढ़ी और लुधि- मत्कार किया। प्रवामयोग्य उचित सहायता पहुँचाई। यानवी लोगांपरसे ही जनताका विश्वास उठ गया । जब वे वमासे प्रस्थान करने लगे तो वर्मी मेजवानोका कई धर्मशालाओंमें उनके ठहरनेपर भी आपत्ति आभार मानते हुए बार-बार अपने लिय कोई सेवाहोती देखी गई है। कार्य बतलानेके आग्रह करनेपर वर्मियोंने मकुचाते __कुछ मारवाड़ी फूहड़ और लीचड़ होते है । फर्स्ट हुए कहा-यदि वर्मा-प्रवासमें आपको वर्मियोकी क्लासमें सफर करें तो बाथरुमके बेमिनको मिठीसे आरसे कोई लेश पहुंचा हो या उनके स्वभावभगदें. डिब्बेमें पानीकी बाल्टी छलका-छलका कर आचरण आदिके प्रति कोई आपने धारणा बना ली मिलबिल-मिलबिल कर दें। मारवाड़ी औरतें घूघट हो तो कृपाकर आप उसे समुद्रमे डालते जाएँ। मार रहेंगी. पर सेटफार्मपर बारीक धोती पहिन कर अपने देशवासियोको इसका आभाम तक भी न नहारेंगी और धोती जम्पर बदलते हुए नङ्गी भी होने दे। जरूर होंगी। कलकत्तसे बीकानेर जाते-जाते बाबुओं यो ? यही ननिक-तनिक-मी धारणा देश और कुलियोको धूमके पचामों रुपये देते जाएंगे परन्तु समाजके लिये पहाड जैसी कलङ्क बनकर उभर आती दो रुपये देकर लगेज रमीद नहीं लेंगे। इन १००-५० है। बनियेके यहाँ लोग बिना रमीद लिय रुपया दे फहडोंके कारण अच्छे-अच्छे प्रतिष्ठित नैतिक मार- आत है। जो देना-पावना उसको बहा बतलाती है ठोक वाडियोंको भी कुली और बाबूसे तग होना पड़ता है। मान लन है परन्तु बैङ्कके बड़ेमे बड़े अफमरको बिना चङ्गीका जमादार गैर काननी वस्तुओंके आयात-निर्यात रमीद एक पाई भी कोई नहीं देना न पाई-टू-पाई करनेवाले बदमाशोको तो नजरन्दाज कर देगा परन्तु हिमाब मिलाय बिना कोई विश्वास हो करता है। सुमभ्य सुसंस्कृत मारवाड़ीका टुकविस्तर जार खल- इमका भी कारण यही है कि बनिया लेन-देनमे वायेगा। क्योकि उसकी धारणा बन गई है कि मार- अधिक प्रामाणिक समझ लिया गया है। जितनावाडीको तङ्ग करनेपर पैमा जरूर मिलता है। जितना अब वह पतनकी और जारहा है. उतना ही एक सम्प्रदाय और प्रान्त विशेषके नौकरीके वह बदनाम भी होता जारहा है। इच्छुकोको कलकत्ते-बम्बईमे यह कहकर टाल दिया शिकारपुर भागाँव. बलियाके निवासी मर्य जाता है-"नौकरी तो है परन्तु छोकरी नहीं" । और बिहारी बुद्ध क्यों कहलात है ? क्या इन जगहीअर्थान जहाँ छोकरी नहीं. वहाँ तुम नौकरी कगंगे मे मार भारतके मूख इकट्ठे कर दिये गये है. अथवा नही और जहाँ छोकरी होगी तुम लेकर जरूर यहाँ मूर्ख और बुद्ध, पैदा ही होते हैं ? नही. इन भागोगे। शहरोके १०-५ गधोंने बाहर जाकर इस तरहकी भारतमें कई जातियाँ ऐसी हैं कि लोग राह हरकतें की कि लोगांने उनसे उनके प्रान्त और शहरके चलते रात होनेपर जङ्गलोंमें पड़ रहना तो ठीक सम्बन्धमें उपहासास्पद धारणाएँ बना ली। वे गध तो समझते हैं किन्तु उनके गॉवमेंसे गुजरना मंजूर नहीं न जाने कबके मर गये होगे, पर उनके गधेपनका करते। प्रसाद वहाँ वालोको बराबर मिल रहा है। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण -] व्यक्तित्व [ ३०६ भूमिका तनिक लम्बी होगई। प्रत्येक व्यक्तिको बन्दियोंके लिये शामके भोजनकी व्यवस्था दिनमे यह ध्यान रखना आवश्यक है कि उसके कारण न होकर गत्रिमे होती है। हालाँकि जेल-नियमानुसार उमके देश-ममाज आदि प्रतिष्ठित न हो सके तो मूर्यास्त से पूर्व मब कैदी भोजन कर लेते हैं। परन्तु बदनाम भी न होने पाएँ। प्रमङ्गवश आपबीती कुछ गजनैतिक बन्दी अपना भोजन गत्रिको ही बनवाते घटनाएँ दी जारही है। थे । रात्रिको भोजन न लेनेपर एक नेता बोले-. (१) "यहाँ दिन-विनका नियम नहीं चल पायेगा. इम दिल्लीमे १६३०के नमक सत्याग्रहके पहले जत्थेमे पाखण्डबाजीको अब धता बताओ" । मैंने प्रकट में ५ सत्याग्रहियोमे हम दो जैन थे । बाकी तीनमेंसे तो कुछ नहीं कहा. पर मनमे संकल्प किया-यह १ मुमलमान और दो बाहरके मज़दरवर्गसे थे। नियम अब डङ्ककी चोट निभेगा । हायर हम और ७.-८० हजारकी भीड़, हमे देहलीसे मत्याग्रह स्थल हमारे नियम । किसीमे मैंने कुछ कहा नहीं, उन (मलीमपुर-शाहदरा) की ओर पहुंचाने चली तो लोगोके भाजन-समय चुपचाप टल गया। परन्तु फिर मागमे किलक मामने जैन लालमन्दिर आया । भी पाखण्डीका फतवा नाजिल हो ही गया होना तो प्रत्यक शुभ कार्योम जैनी मन्दिर जान ही है। अतः यह चाहिये था कि हमार भूखे रहनेपर हमारे माथी हम दोनों भी मन्दिरको देवतं ही भीको गककर भी गत्रिमे भोजन करते हुए कुछ सङ्कोच अनुभव दर्शनार्थ गये । इम ननिक-मी बातसं देहलीम यह करत और व्रतकी विशेषता और दृढ़ताकी प्रशंसा बात फैल गई कि देहलीके दोनो सत्याग्रही जैन है। करते। इसके विपरीत हमार मुहपर ही इसे पाखण्ड जैनाने मबसे आगे बढ़कर अपनेका भंट चढ़ाया है। बताया जारहा है। मालूम होता है कोई न कोई त्रुटि हाँ भेट ही. कयाकि उस ममय किमीको गवर्नमण्टके हमम दिग्याई अवश्य देती है:इरादेका पता नहीं था । हमे जब जत्थमे लिया नियाजे इश्क़म खामी कोई मालम होती है । गया तब कॉग्रेस-अधिकारियोंने स्पष्ट चेतावनी दे दी तुम्हारी बगहमी क्यो बरहमी मालम होती है। थी-'सम्भव है तुमपर घोड़े दौड़ा जाएँ गालियां भाई नन्हंमलका जेलमे माथ छूट गया। हम चलाई जाएँ.लाठियां बरसाई जा अङ्गहीन याअपाहिज दोनो जुदा-जुदा गिरफ्तार किये गये थे। अतः मैं बनाये जाये। हर तरह के खतराको ध्यानमें रखकर अकेला ही उस समय जेलमें जैन था मैंने गोयलीय ही माबूत कदम और पूर्ण अहिसक बने रहनेकी के बजाय अपनेका तब जैन लिखना प्रारम्भ कर हमन एक लाग्य जन-समूहमे प्रतिज्ञा की थी। दिया था। २-४ रोज शामको भूखा रहना पड़ा होगा अतः लोगोका जब मालूम हुआ कि दोनों जैन है कि दिल्ली जेलवालोने हम सी-क्लास बन्दियोके लिये तो लोग अश-अश करने लगे और जैन तो गले मिल भोजनका प्रबन्ध हमारे सुपुर्द कर दिया। और हमने मिलकर रोने लगे। 'भाई तुम लोगांने हमार्ग पत सा प्रबन्ध किया कि मब सूयास्तसे पूर्व भोजन कर रखली" । नमक-सत्याग्रह हुअा। पुलिसने अण्डकोष लेते। हमारी भाजन-व्यवस्था स्वच्छता. प्रम-व्यवपकडकर घमीटे, नमकका गरम पानी छीनाझपटीमे हारका देग्यकर सभी प्रसन्न हुए। यहाँ नक कि उन शरोपर गिरा । परन्तु सदेव इसी 'पत'का ध्यान नेता महादयके मुहसे भी अनायास निकल ही गयाबना रहा। व्यक्ति तो हमार जैसे अनगिनत पैदा होगे. "भई नोकी भोजन-व्यवस्था और स्वच्छताको पर पत' गई तो फिर हाथ न श्रायेगी । इसी भाव- कोई नहीं पहुँच सकता ' इन लोगोका दिनमें भोजन नाने लहमेभरको विचलित नहीं होने दिया। करना और पानी छानकर पीना ता अनुकरणीय है। (२) रात्रिमें लाख प्रयत्न करो कुछ न कुछ जीव-जन्तु पेटमें जेल पहुंचनेपर मालूम हुआ कि राजनैतिक चले ही जाते हैं और भोजन ठीक नहीं पचता"। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ] अनेकान्त [वर्ष अङ्गलियाँ यकसाँ नहीं होतीं।" "इस पार्सलमें किताबें कैसी आई हैं ? राजनैतिक दिल्लीसे मिण्टगुमरी जेल भेज दिया गया । या सरकारविरोधी तो नहीं हैं ?" अण्डमानमें स्थान रिक्त न होनेके कारण पंजाबके जीवन-पर्यन्तके सजायाफ्ता]ढी यहीं रक्खे जाते थे। जी. मैं देखकर अभी बतलाये देता हूं। आप हमें भी यहाँ एक वर्ष रहनेका मीभाग्य प्राप्त हुआ। विश्वास रखें जेल-नियम विरुद्ध किताब मैं एक भी ४ बजेका समय था, मैं अपना बान बॉटकर बैठा ही नही रक्तूंगा।" था कि लाला बनारसीदास (जेलबाबू) आये और किताब धर्म लाला पन्नालालजी अग्रवालने किताबोंका पार्सल दिवाकर बोले दिल्लोसे सब धार्मिक भेजा थी । किताबें लाला "यह पार्सल आपका है " बनारसीदासको भी पढ़ने दी गई तो उन्हे गोश्तस "जी" घृणा होने लगी। उन्होने कई बार कहा कि इन "क्या आप जैन हैं" किताबोंके पढ़नेसे हम पति-पत्नीक दिलपर बड़ा असर "जी।" हुआ है । वह अक्सर मुझसे तत्वचर्चा करने आता "आप लोग. सुना है गोश्त नहीं खाते" " । था। (व्यंग्यात्मक हॅमी) "जी, हम लोग गोश्त नहीं खाते"। "क्यो" जेलमे साग-दालमे प्याज-लहसन इतना पडता "जैनोंका विश्वास है कि जो किसी में जान नहीं डाल था कि खाना ता दरकिनार उसकी गन्धसे हा जी सकता वह किसीकी जान नहीं ले सकता । हमें दूसरो ऊपर-ऊपरका आने लगता था। अतः करीब ५-६ के साथ वही व्यवहार करना चाहिये, जिस व्यवहार माह रूखी रोटी. पानी या गु के महार पटमें उतरता। के लिये हम उनसे इच्छुक हैं। जैसी करनी वैसी एक राज भोजन करत समय लाला बनारसीदास श्रा भरनीके जैन कायल हैं। आज जो शक्तिके मद में दूसरों पहुंचे। इस तरह हावी राटी खात देखकर सबब को कष्ट पहुँचाते है, उन्हें एक न एक रोज़ अपराधियों- पूछा तो साथियोंने बतला दिया कि यह प्याज लहसन की श्रेणीमे खड़ा होना होगा। नहीं खा सकते। सुना तो बेहद बिगड़े। तुम लोगोंने दादख्वाहीके लिये हश्रका मेदॉ होगा । मुझे क्यों नहीं कहा.? ये रूर्खा रोटी खाते रहते है हाथ मकतूलका कातिलका गिरेबॉ होगा । और तुम लोग मजेसे इनके सामने दाल-साग खाते "ओह, माफ करना. मैने आपसे ऐसी बात की रहत हो । यदि तुम लोग ५० श्रादमी तैयार होजाओ जो आपके जमीरके खिलाफ थी।" तो आजसे ही प्याज-लहसनरहित दाल-भागका प्रबन्ध किया जा सकता है। साथियोंको इसमे क्या ___ "नहीं, यह तो श्रापका सौजन्य है जो आपने एक कैदीसे बात की. वर्ना यहाँ कौन किसीसे बात ऐतराज होता. वह तो मजबूरन खाते थे। दूसरे दिन ६०-७० के लिये प्याज-लहसनरहित भोजन आने करता है ?" "सुना है. जैन झूठ नहीं बोलते ?" लगा। मिण्टगुमरीमें भोजन जेलका बना ही मिलता "हॉ. बोलना तो नही चाहिये। पर, कला तो था। दिल्लीकी तरह हमारा प्रबन्ध नहीं था। चन्द्रमामें भी होता है। क्या कहा जासकता है. पॉचों (शेष हवी किरणमें) Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँच प्राचीन दि० जैन मूर्तियाँ * * (लेखक-मुनि कान्तिसागर) ___ ता० २५-७-४८ रविवारका दिन था. मैं कुछ लेटे की चेष्टा करती है । वह सफल कहाँ तक होता है इसका हुए. डॉ. भांडारकरका जैन मूर्तिशासका वह नोट पढ़ निर्णय करना एतद्विषयक रुचि रखनेवाली जनताका रहा था जो 'बायोलोजिक सर्वे ऑफ इंडिया' काम है। सफल कलाकारका जीवन भी कई विलक्षणइतिवृत्तमें प्रकट हुआ है । था भी निश्चिन्त, रविवारके ताओंका एक समन्वयात्मक केन्द्र है । उसके मस्तिष्कदिन मैं भी अपनी लेखनीको कष्ट नहीं देता । यों तो की रेखाएँ ही इसका सूचनात्मक प्रतीक है । वह कभी "आराम" जैनमुनियोकी जीवन-विषयक डिक्शनरीमें तो शान्त-मुद्रा में रहता है, कभी गांभीर्य भावोंकी मूर्तिनही होता, भगवान महावीरने स्पष्ट शब्दोमें बारबार सम प्रतीत होने लगता है और सबसे बड़ी विशेषता कहा है "समयं गोयम मा पमाए" हे गौतम क्षणमात्र है वह अप्रसन्न कभी नहीं होता, जैसे कोई शिकारी भो प्रमाद न कर । उपयुक्त नोट पूरा करके ऑखें बन्द शिकार न मिलनेपर भी--निराश होना मानो उसके होना ही चाहती थीं. रोकना भी मैंने उचित नहीं जीवनके बाहरकी ही वस्तु हो। यदि स्पष्ट कह दिया समझा. इतनी देग्में मेरे सामने एक सज्जन श्रा पहुंचे जाय तो कलाकारका हृदय एक समुद्रके समान जो पुरातत्वमे ही एम० ए० है, इसी विषयपर गम्भीर होता है। नदी-नाले जैसे एकत्र होकर रत्नाकरप्राचार्यत्वके लिये थीसिस-महानिबन्ध-भी लिखी मे विलीन होजाते हैं ठीक उसी प्रकार ज्ञान-विज्ञानकी है। मेरा मन तो था कि कह दूंकल आइये परन्तु आपने समस्त धाराएँ उसके हृदयमें समा जाती हैं. बिना आते ही मेरे सम्मुख छह चित्र उपस्थित कर दिये। इनके संगमके वह सफल कलाकार माना ही नहीं मुझे तो अत्यानन्द हुआ; क्योंकि पुरातत्त्व-संशोधनका जासकता; तभी तो वह प्रस्तर और धातुओंपर गंग जिसे लगा हो वह तो अपनी गवेषणा-विषयक प्रवाहित भावांका समझकर विवेचना करनेको उद्यत रुचिका पूर्तिके लिये पहाड़ों और खण्डहरांमें घूमता रहता है । भावनाशील हृदय प्रत्येक स्थानको अपने ही रहता है उसके लिये मागमें आनेवाली बाधाएँ विशेष दृष्टिकोणसे देवता है। यही कारण है कि कोई मूल्य नहीं रखती, जब मुझे तो घर बैठे ही ये जहाँ कीचड़ भी न हो वहाँ वह उत्तम मरोवर देखता चीजे प्राप्त होगई और वह भी जैन पुरातत्वसे है। कहनेका तात्पर्य यह कि जहाँपर पाषाणोंका या सम्बन्ध रखने वाली.फिर प्रसन्नता क्यों न हो? दिल कलात्मक अवशेषांका ढेर हो वे है तो प्रस्तर पर उछलने लगा। मैंने बहुत चेष्टा की कि मै इन्हें अभी अपने कलाकारके लिये वे तात्कालिक सांस्कृतिक प्रवाहोंका पास ही रखू कल लौटा दूंगा. पर जो सज्जन ये चित्र प्रधान केन्द्र मालूम देते हैं। कलाकारको दुनिया ही लाय थे उनके स्वामीकी आज्ञा रखनेकी न थी. नवे निराली है। इसमें जा कुछ क्षण विचरण करनेका मुझे अभी नोट्स लेने देना ही चाहते थे। मैंने इन्हें सौभाग्य प्राप्त करता है वही उपयुक्त पक्तियोका खूब गौरसे देखा कि इनकी कला वगैरहका ठीकसे साक्षान अनुभव करनेकी क्षमता रखता है। अध्ययन करलू और बादमें कुछ पंक्तियाँ लिख लूंगा हाँ तो अब मैं अपने मूल विषयपर आजाऊँ, जिससे और अपरिचित जन भी इनके परिचयसे मुझे नोट्स न लेने दिये तब कुछ रञ्ज-सा अवश्य लाभान्वित हों. परन्तु मेरा अनुभव है कि जब तक हुआ इसलिये कि इतनी सुन्दर जैनकलात्मक कृतिएँ मुल वस्तु-अवशेष-सम्मुख उपस्थित न हो तब तक होते हुए भी आज जैनी इनसे क्यो अपरिचित रहें? उनका वास्तविक परिचय उचितरूपेण लिपि नहीं क्या प्रतिमा-निर्माण करवानेवालोंका यही उद्देश्य किया जा सकता. क्योंकि कलाकार (पाठक भूलसे था? बिल्कुल नहीं। परन्तु जब मैंने जाना कि उसके मुझे ही कलाकार न समझ बैठे) जब सामनेको वस्तु स्वामीके यहाँ दो दिन चित्र रह सकते हैं और मैं देखता है और कलम हाथमें उठाता है तब उसकी वहाँ जाकर नोट कालूं तो उन्हें आपत्ति नहीं होगी, तब मनोवृत्तियाँ केन्द्रित होकर उसके भीतर प्रवेश करने- मैंने भी स्वीकार कर लिया । बादमे मैंने अपने दिलमें Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२. ] यही अन्दाज लगाया कि चित्र उसने इस भयसे शायद न रखें होंगे कि मैं कहीं उनकी प्रतिकृति उतरवा लूँ या ब्लॉक बनवा लूँ, अस्तु । ये मेरा मन उन्हींमें लगा रहा, सोच रहा था क्या ही अच्छा हो यदि रात छोटी होजाये और दिन निकलते ही मैं अभिलषित कार्यको कर डालू, पर अनहोनी बात थी । श्रनेकान्त तारीख २६-०-४८ को मैं बिहार प्रान्तके बहुत बड़े कलात्मक वस्तुसंरक्षकके यहाँपर सहयोगी बाबू पदमसिंह बललियाको लेकर पहुंचा ही । १२ बजनेका समय रहा होगा, मैं तो चाहता था कि वे श्रीमन्त मुझे चित्र अवलोकनार्थ देकर आरामकी नींद लें ताकि मैं शान्तिपूर्वक अपना काम निपटालं, पर वे भी थे धुनके पक्के, बहुत धूप-छाँह देख चुके थे, मैं तो उनके सामने बचा था। चित्र मेरी टेबिलपर श्रा गये और पाँच-सात मिनटके बाद वापिस लेनेकी भी तैयारी करने लगे। मैंने कहा, देखिये, ये काम उतना आसान नहीं कि पाँच-दस मिनटमें इनको समुचित रूपसे समझ लिया जाय । वे फिर अपने कामपर गये और मैं अपना और सारा काम छोड़कर प्रतिमा-चित्रोंका परिचय लिखने लगा. बीच-बीचमे वे आये और के मस्तिष्ककी रेखाओ में मैं पढ़ रहा था कि जो कुछ काम मैं कर रहा हूँ वह आपको मान्य नही है । पर मैं भी मुँह नीचे दबाये लिखता ही गया. जो कुछ भी लिखा वही आपके सामने समुपस्थित करते हुए मैं श्रानन्दका अनुभव करता हूं। हो सकता है इनके परिचयसे और संस्कृतिप्रेमी भी मेरे श्रानन्दमें भाग बटावें । [ वर्ष ६ गठन और तदुपरि जो पालिशकी स्निग्धता है उससे सौंदर्य स्वाभाविकतया खिल उठता है । हाथ घुटने तक लगते हैं और इस प्रकार से अङ्गुलियाँ रखी हुई हैं मानो यह सजीव है । प्रतिमाका मुखमण्डल बहुत ही आकर्षक और शान्तभावोंको लिये हुए हैं। होठोंसे स्मितहास्य फरक उठता है । मस्तकपर घुंघरवाले केशो कीर्णित हैं । उष्णीश भी है। ऑंखें कायोत्सर्ग मुद्राकी स्मृति दिलाती हैं। वाम और दक्षिण भाग में यक्षिणी-यक्ष चामर लिये अवस्थित हैं । चामर जटिल हैं। दोनोंकी प्रभावलि और मुखमुद्रा शान्त है परन्तु यक्षिणीकी जो मुद्रा कलाकारने अङ्कित की है उसमें स्त्री-सुलभ स्वाभाविक चाश्वल्य विद्यमान । उभय प्रतिमाओके उत्तरीय वस्त्र बहुत स्पष्ट है । गले में माला, कर्ण में केयूर और भुजदण्डमे बाजूबन्ध हैं । यक्षिणीकी जो प्रतिमा है उसके वाम चरणके पास एक स्त्री स्त्रियोचित समस्त आभूषणोसे विभूषित होकर अंजली धारे भक्तिपूर्वक नमस्कार-वन्दना करती हुई बनाई गई है। मुखमण्डल पर सूक्ष्म दृष्टि डालने से अवभासित होता है कि उनके हृदय में प्रभुके प्रति कितनी उच्च और आदर्शमय भावनाएँ अन्तर्निहित हैं। ऐसी प्राकृतिक मुद्राएँ कम ही देखनेमे आती हैं। प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यह स्त्री कौन होसकती है ? मेर मतानुसार तो यह मूर्तिनिर्माण करवानेवाली श्राविका ही होनी चाहिए; क्योंकि प्राचीन और मध्यकालीन कुछ प्रतिमाएँ मैंने ऐसी भी देखी हैं जिनमे निर्मापकयुगल रहते हैं । उभय प्रतिमाओके उपरि भागमें पद्मासनस्थ दोनो ओर दो जिन प्रतिमाएँ हैं । तदुपरि दोनों ओर आकाशकी आकृतिपर देवियाँ हस्तमें पुष्पमाला लिये खड़ी हैं, उनका मुखमण्डल कहता है कि वे अभी ही भगवानको मालाओसे सुशोभित कर अपने भक्तिसिक्त हृदयका सुपरिचय देंगी। मालाच्योंके पुष्प भी बहुत स्पष्ट हैं । मस्तकपर छत्राकृति है । मूल प्रतिमाका निम्न भाग उतना कर्षक और कलापूर्ण नहीं । मध्यमें धर्मचक्र और उभय तरफ विपरीतमुखवाले प्रास हैं । परन्तु प्रतिमापर निर्माणकाल - सूचक खास संवत् या वैसा १ - यह प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथजीकी है जैसा कि मस्तकोपरि सप्त फनोंसे सूचित होता है । निम्न भाग सर्पाकृति नहीं है। यह प्रथा ही प्राचीन कालीन प्रतिमाओं नहीं थी या कम रही होगी। उप युक्त फने इतने सुन्दर बने हैं कि मध्य भागकी रेखाएँ भी सुस्पष्ट हैं । सर्पाकृति पृष्ठ भागीय चरणसे प्रारम्भ हुई है जैसा कि ढकगिरिमें प्राप्त प्रतिमाओं में पाई जाती है। प्रतिमा सर्वथा नम है। इसका शारीरिक Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] पाँच प्राचीन दि. जैन मूर्तियाँ [ ३१३ कोई उल्लेख नहीं है । अतः प्रतिमाकी निर्माणकलापर- इस प्रकार पॉची खडगासनस्थ दिगम्बर मूर्तियाँ हैं। से ही इसकी शताब्दी निति करनी होगी। मैं और इस प्रकार पाँच चित्र प्रतिमाओंके मेरे सम्मुख चित्रवाहक सजन इसे अन्तिम गुप्तकालीन कृतियोंमें आये, जैसा मुझपर प्रभाव पड़ा और समझा वह समाविष्ट करते हैं। पूर्वीय कलाका प्रभाव है। इस आपके सामने है । छठवाँ चित्र एक ताम्र पत्रका था, टाइपकी और भी अनेक शिल्पकृतियाँ मगधमें फोटू इतना रही और अस्पष्ट था कि उनको ठीकसे उपलब्ध होचुकी हैं। पढ़ना असम्भव था। कार्डसाइजमें ३४ पंक्तियोंकी ___ लम्बाई. चौड़ाई और मुटाई इस प्रकार चित्रके कृतिको कैसे पढ़ा जासकता था, परन्तु इतना अवश्य पृष्ठ भागमें उल्लिखित थीं- २२|. १६॥ ४ इंच है। प्रतीत हुआ कि समय १२३८ आषाढ़ कृष्णा अमावस्या २-प्रस्तुत प्रतिमा उपर्युक्त प्रतिमाके अनुरूप है। का है । चन्द्रदेव नृप, गोबिन्दचन्द, मदनपाल और विदित होता है कि एक ही कलाकारकी दो कृतियाँ हैं। नृपचन्ददेवके नाम पढ़े गये। उपर्युक्त सभी सामग्री अन्तर केवल इतना ही है कि ऊपर वाली मूर्तिमें विक्रयाथें ही किसीके संग्रहमें रखी है। नामका मुझे पद्मासनस्थ २ प्रतिमाएँ हैं जब इसमें चार हैं और स्वयं पता नहीं सुना है ६०० रुपये मूल्य है। ताम्रनिम्नभागमें भी धर्मचक्रके दोनो ओर पद्मासनस्थ पत्र अलग ६०० रुपये। प्रतिमा है। पास नहीं हैं। परन्तु भव्यतामें कुछ मेरे ही सहश और भी पुरातत्वप्रेमियोंको ऐसे उतरती हुई है। समय वही प्रतीत होता है। नाप. अनुपलब्ध प्रतिमाओ तथा संस्कृतिकी सभी शाखाओं१२ १२ .२ इंच है। से सम्बन्ध रखनेवाले अवशेष या चित्र दृष्टिमे पाते ३-एक लघुतम प्रस्तर चट्टानपर उत्कीर्णित है। ही होगे। मेरा उनसे अनुरोध है कि वे इस प्रकारक इमकी रचना दोनोंसे सर्वथा भिन्न है। उभय कंध. नोट्स ही-यदि होसके तो चित्र भी-अनेकान्त मे प्रदेशसे सटी हुई २ प्रतिमा और निम्न भागमें यक्ष प्रकाशनार्थ अवश्य ही भेजकर सांस्कृतिक उत्थानमें यक्षिणि है । ग्रास धर्मचक्र समान हैं। मलका मग्य सहयाग द । वरना सामग्री यों ही संसारसे विदा हो बडा शान्त है. पर इसकी नामिका कुछ चपटी है जो जायगी। यद्यपि इस प्रकारके शाब्दिक चित्रोसे कलाबुद्ध धर्मकी आंशिक देन है क्योंकि बौद्ध कलावशेषों कारोंको उसके रहस्योंका सूक्ष्म परिज्ञान भले ही न में चपटी नाक आती है जैमाकि बुद्धदेवकी जातिका हो पर पुरातत्वके मुझ जैसे सामान्य व्यक्तियोंको ही गुण है । नेपालका प्रभाव माना जाय तो आपत्ति अग्रिम अध्ययनमें बड़ी सहायता मिलती है। यो तो नही। नाप १३१. ६.३ इन्च है । नग्न है। इसे मैं बिहार प्रान्तके खण्डहरोंमें और पटना भ्यजियममें पाल कालीन प्रतिमा मानता हूँ। भी अनेकों सुन्दर कलापूर्ण जैन प्रतिमाएँ पाई जाती ४-यह प्रतिमा कलाकौशलकी द्रप्रिसे उतनी है जिनका विस्तृत सचित्र परिचय मैं बिहारकी तीर्थ महत्वपूर्ण भले ही न हो पर मर्तिनिर्माणशासक भूमिमें" शीर्षक निबन्धमें दूंगा। उल्लेखोके सर्वथा अनुरूप है। इसकी उठी हई छाती पटना सिटी, ता० २७-७-४८ एक सैनिकका स्मरण दिलाती है। मुझे तो कहते १ जैन समाजका एक भी सार्वजनिक पुरातत्वविषयक तनिक भी संकोच नहीं कि इसके निर्माणपर गोम्म- संग्रहालय नहीं है । यह अफसोसकी बात है। वरना ऐसी टेश्वर महाराजकी प्रतिमाका असर स्पष्ट है। मुख और सामग्रियाँ भटकती न फिरतीं। परन्तु अब ४.५ लाख शारीरिक रचनासे एवं हस्तोंपर बिखरी हुई लताएँ रूपयेका चन्दा करके क्यों न इस ओर कदम बढ़ाया भी इसकी पुष्टि करती हैं। रचनाकाल १२ शती होगा। जाता, थोड़ा-थोड़ा संग्रह भी आगे विशाल संग्रहका रूप ५-यह प्रतिमा खडगासनस्थ है। मोटी आकृति धारण कर लेता है। 'भारतीयज्ञानपीठ' के कार्यकर्तामोहै। काल १३ शती है। का ध्यान मैं इन पंक्तियों द्वारा प्राका करना चाहता हूँ। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'संजद' शब्दपर इतनी आपत्ति क्यों ? (लेखक-श्री नेमचन्द बालचन्द गांधी, वकील) . प्रो. हीरालालजीने कोई ७ वर्ष पूर्व षट्खंडागम- उसपर टीका होनेपर भी उसका जब मूलप्रतिसे के प्रथम भाग जीवट्ठाणकी प्रथम पुस्तक प्रसिद्ध की मुक़ाबिला कराया गया और मूलप्रतिमे संजद' शब्द थी। इसके ३३२वें पृष्ठपर ६३वाँ सूत्र छपा है, जो का होना निीत होगया तव वस्तुस्थितिसे सब परिनीचे उद्धृत किया जाता है चित होगये। इतना होनेपर भी श्री पं. मक्खनलालजी "सम्मामिच्ष्ठाइट्ठि-असंजमसम्माइटि शास्त्री प० पू० प्राचार्य महाराजजीसे निवेदन करते संजादासंजद'-द्वाणे णियमा पज्जतियाओ ME३॥ है कि "ताम्रपत्र निमापक कमेटीको आदेश देकर इस सूत्रपर सम्पादको द्वारा दीगई .१ अत्र 'संजद' पद जिस ताम्रपत्रपर खुदा हो उसको "संजद" इति पाठशेषः प्रतिभाति' इस टिप्पणीको अलग करा देवें।" देखते ही दिगम्बर जैन समाजमें एक धूम मच मूल ताडपत्रकी प्रतिमें 'संजद' पद है और उसी गई। उसका यह खयाल हुआ कि प्रोफेसर साहबका के अनुसार ताम्रपत्रपर भी खोदा गया है। ऐसी इस सूत्रमें "संजद" शब्दको बढ़ानेमें कुछ हेतु है। हालतमें उस ताम्रपत्रको ही अलग करा देनेका अनुक्योंकि इस शब्दके बढ़ानेसे दिगम्बर आम्नायके रोध कुछ समझ नहीं आता । गनीमत है कि मूल विरुद्ध द्रव्यस्त्रीको मुक्ति प्राप्त होना सिद्ध होगा। इस ताडपत्रके अलग करा देनेका अनुरोध नही भयके कारण पं० मक्वनलालजी शास्त्री मारना और किया गया । पं० रामप्रसादजी शास्त्री बम्बईने लेख और ट्रैक्ट सिद्धान्तसूत्रसमन्वयके खण्डनपर विद्वद्वर पं. लिखे और 'संजद' शब्दको हटानेकी प्रेरणा की। यह पन्नालालजी सानी न्यायसिद्धान्त-शास्त्रीने 'षटधूम सिर्फ ममाज तक ही महदूद (सीमित) नहीं रही खण्डागम रहस्योद्घाटन" नामकी एक पुस्तिका २३२ किन्तु परमपूज्य आचार्य श्री १०८ शांतिसागर पेजकी लिखकर प्रकाशित की है, जिसमे बहत ही महाराजजी तक पहुँचा दी गई । और उनको यह स्पष्टतासे यह माधार सिद्ध किया है कि सूत्र ६२-६३ सुझाया गया कि अगर सूत्रमें यह 'संजद' शब्द का सम्बन्ध भावस्त्रीसे है, न कि द्रव्यस्त्रीसे। जो जीव बढ़ाया जाय तो बड़ा अनर्थ होगा, और श्वेताम्बर द्रव्यपुरुष हाकर भावस्त्री हो उसके चौदह गुणस्थान आम्नाय-मम्मत स्त्री-मुक्तिकी पुष्टि होकर दिगम्बरा- हो सकत है और जो जीव द्रव्यस्त्री हो वह पाँचवे म्नाय नेस्तनाबूद हो जायगा। गुणस्थानके आगे नहीं जासकता। ___ पं० मक्खनलालजीने जो ट्रेक्ट लिखा वह १७० इसलिये सूत्र ६३में स्थित "संजद” पद किसी पेजोंका है। उसका नाम है-सिद्धांतसूत्रसमन्वय” प्रकार द्रव्यस्त्रीकी मुक्ति नहीं सिद्ध कर सकता । इसे आपने बड़ी भक्तिसे श्रीशांतिसागरजी महाराजके अतएव उसे दूर करनेका आग्रह निष्प्रयोजन है। करकमलोंमें समर्पित किया है। प्रत्युत उस पदके दूर होजानेपर ही दिगम्बर आम्नाय प्रो० हीरालालजीने "संजद” पदकी आवश्यकता तथा षट्खण्डागममे विसङ्गति आदि अनेक दोष खड़े को अपनी टिप्पणीमें दिखाकर एक प्रकारसे प्रशस्त होजाते है, जोकि अनर्थकारी ही सिद्ध होते हैं। कार्य ही किया। लेकिन उसके बाद समाजकी ओरसे ये सब बाते पण्डितप्रवर सोनीजीने अपने ट्रैक्टमें Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८ ] 'संजद' शब्दपर इतनी आपत्ति क्यों ? इतनी विशद रीतिसे स्पष्ट की हैं कि उस विषयमें और हैं, यह क्यो ? कुछ लिखना पिष्टपेषण करना होगा । पं० मक्खनलालजीने अपने "सिद्धान्तसूत्रसमन्वय" ट्रैक्टमे “निर्णय देनेके आचार्य महाराज ही अधिकारी हैं" इस शीर्षकका एक प्रकरण लिखकर यह सिद्ध करना चाहा है कि 'संजद' पदका विवाद सिद्धान्तशास्त्र - सम्बन्धी है । अतः इसके निर्णयका अधिकार प० पू० चारित्रचक्रवर्ती श्री १०८ शांतिसागरजी महाराजको ही है। कारण कि वे वर्तमानके समस्त साधुगण एवं आचार्य - पदधारियो में सर्वोपरि शिरोमणि हैं । इत्यादि । लेकिन सुना जाता है कि प० पू० आचार्यश्रीने फर्माया है कि इसका निर्णय हम नही कर सकते । यह काम पंडित लोगोका है । संस्कृत और प्राकृत भाषाके जानकार पंडित लोग ही होते है । अतः वे ही लोग इसका निर्णय करले । मातृप्रतिसे मिलान करनेके बाद 'संजद' पदको ताम्रपत्र से निकलवा देनेका पू० आचार्यजीसे अनुरोध करना व्यर्थ ही नहीं किन्तु अनर्थकारक होगा । मातृप्रतिके विरोधी ताम्रपत्रको कोई भी पसन्द नहीं करेगा। मैं तो पं० मक्खनलालजीसे सविनय अनुरोध करता हूँ कि आप एक पत्रक निकालकर यह प्रकट कर दीजिये कि "सिद्धान्तसूत्रसमन्वयमे हमने जो विचार प्रकट किये है वे 'पट्खण्डागम रहस्योद्घाटन' को विचारपूर्वक पढ़नेके बाद अब कायम नहीं रहे हैं । हवाँ सूत्र वस्तुतः भावबीसे सम्बन्ध रखता है, द्रव्यसे नहीं ।" प्रो० हीरालालजीसे भी सविनय विनती है कि भगवान् श्रीकुन्दकुन्दाचार्य, श्रीसमन्तभद्राचार्य. श्री पूज्यपाद भट्टाकलङ्कदेव, वीरसेनाचार्य, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती आदिकोंको क्या आप आधुनिक आचार्य अतएव अप्रमाण समझते हैं । षट्खण्डागम की प्रस्तावना में तो इन आचार्यप्रवरोंकी स्तुति करके आपने उनके प्रन्थों और वचनोको प्रमाण माना है । और अब भाववेद और द्रव्यवेदकी व्यवस्थाके विषयमें उनके वचनोंको प्रमाण माननेको श्राप तय्यार नहीं [ ३१५ पुरिसिच्छिढवेदोदयेण पुरिसिच्छिद भावे । णामोदयेण दव्वे पायेण समा कहिं विसमा ॥ गोम्मटसार - जीवकाण्डकी इस गाथासे वेदवैषम्य स्पष्टतया सिद्ध होनेपर भी उसे न मानना अनुचित है । गोम्मटसारप्रन्थ श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती जीकी अनुपम कृति है, जो षट्खण्डागमप्रन्थराजका पूर्णमन्थन करके ही उसके साररूपमें तय्यार की गई है । नेमिचन्द्राचार्यने भी इस बातको गोम्मटसारकर्मकाण्ड गाथा ३९७में बड़े गौरवसे कहा है - "जह चक्के य चक्की लक्खंडं साहियं विग्घेण । तह मइचक्केण मया छक्खंडं साहियं सम्मं ॥ " "जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने चक्रके द्वारा पट्खण्ड पृथ्वीको सिद्ध कर लेता है । उसी प्रकार मतिरूपी चक्र के द्वारा मैंने छह खण्ड अर्थात् षट्खंडागम को सम्यक्रूपसे साध लिया है ।" श्रीनेमिचन्द्राचार्यको "सिद्धान्तचक्रवर्ती” यह उपाधि भी इसी हेतुसे प्राप्त हुई, जो उनके सिद्धान्तfaras पारगामित्वकी द्योतक है । अतएव उनके गोम्मटसारादि ग्रन्थोके प्रति अविश्वास प्रकट करना ही है। प० पू० आचार्य श्री शान्तिमागर महाराजजीके चरणों में भी सविनय विनती है कि मातृप्रतिमें 'संजद' पदका होना सिद्ध हो चुका है और उक्त सूत्रमे उसका स्थिर रहना टीकादिपरसे सङ्गत और आवश्यक है। तथा विद्वत्परिषद् ने भी अपना यही निर्णय दिया है तो अब उस ताम्रपत्रको बदल देने या उसपर कुछ टिप्पणी देनेका आग्रह अथवा प्रयत्न अनुचित ही होगा । पं० मक्खनलालजीने जो यह लिखा है कि हवें सूत्रमें 'संजद' पदको कायम रखनेसे द्रव्यस्त्रीको मुक्ति सिद्ध होगी सो बिलकुल गलत है। पं० सोनीजीने इस आक्षेपका शास्त्राधार पूर्वक अच्छी तरहसे खंडन किया है। अतएव यह भ्रम दूर होजाना चाहिये । पं० मक्खनलालजी विद्वान हैं और इस लिये उन्हें Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपहरणकी आगमें झुलसी नारियाँ रावण और कसकी कथाएँ जब हमने पढ़ी तो कर उसीके पास रहती हैं। पति-वियोग एक पलको हमारा मन सिहर उठा-श्रोह, ऐसे अत्याचारी थे ये वे पाप समझती है। जैसे सीता चुपचाप गर्दन दुष्ट ! पर आज हमारे चारों ओर जो कुछ होरहा है, लटकाये सुबकती हुई रावणके द्वारा हरण कर ली उसे देखकर रावण और कंस दोनो झेप गये हैं। मार- गई, उसी प्रकार आज भी हिन्दु नारियाँ आततायियोंकाट और फूंक- फॉक तो श्राम बातें हैं, पर सबसे मर्म- के साथ मिमयाती हुई चली जाती है और वे उनके बेधी है हमारी बहू-बेटियोका बलपूर्वक अपहरण। अत्याचारोको बिलखती हुई, कराहती हुई सहन करती आज जाने कितनी हजार नारियाँ इन रावणोंके पंजेमें हैं। हॉ, यदि सीताने अहिसात्मक सत्याग्रह (१) का हैं। लज्जाकी बात है कि हम उन्हें बचा न सके और अवलम्बन न लेकर रावणद्वारा हरण किये जानेपर दुःख है कि जो बच रही हम उन्हें सच्चा पथ भी छीना-झपटीमें देर लगाई होती, अंगुलियोसे आँखे न बता सके। अङ्गारोंसे लिखा यह प्रश्न है कि जो कुचा दी होती. दॉतोसे नाक कुतर ली होती या लङ्कास्त्रियाँ बलपूर्वक अपहृत होगईं या होजायें, क्या वे में जाकर उसे धोखेमे फंसाकर सोते हुए बध कर दिया इसे 'कर्मोका फल' मानकर चुपचाप उन्हीं राक्षसोंके होता, या महलोमे आग लगा दी होती. तो बादमे पंजे में फंसी रहें या उनके लिये भो कोई मार्ग है? होने वाली ये नारियाँ भी इसी आदर्शका अनुकरण हमारे नेता नारियोंको सीताका आदर्श उपस्थित करती। कितने खेदकी बात है कि जिन नारियोका करनेको कहते है। हमारी मूढ बुद्धिमें नहीं आया कि बलात् हरण हो. उन्हां नारियांकी सन्तान विधर्मी वह कौनसा आदर्श था, जो सीताने उपस्थित किया होकर अपनी माताओके अपमानका बदला न लेकर और जिसपर आजकी देवियाँ कार्य नहीं कर रही हैं। दुष्टों और आततायियोको अपना पूर्वज समझकर हमारी तुच्छ सम्मतिमे तो हिन्द खियाँ सदैवसे उल्टा हिन्दु जातिके रक्तकी प्यामी बनी रहती है। भगवती सीताके पथपर चल रही है। बनोमें जब हिन्दुओमे यह बड़ी आत्म-घातक प्रथा रही है पति ही नहीं जाते तब पत्नियाँ उनके साथ कैसे जाये कि बलात् हरण करने वाले आदरका दृष्टिसे देखे हॉ जेलों. सभाओं मेलों. सिनेमाश्रो. थियेटरो. नाच- गये है और स्त्रियाने बिना हील-हज्जत किय उन्हे पति घरों और क्लबोंमे वे पतिसे कन्धा भिदाये रहती ही स्वीकार कर लिया है। हम तो कहत है कि यह प्रथा है। पति कितनी ही दूर हो. बूढ़े सास-ससुरको छोड ही हिन्दू जातिक लिय घातक है । हिन्दू जातिका यदि __ यह सिद्धान्त हुआ होता कि हरण करनेवाला या एकबार जो मत दिया उसको बदलना नागवार और बलात्कार करनेवाला महानसे महान व्यक्ति क्यो न हो. अपमानास्पद मालूम होता होगा। पर अपने पहले मतमें अपहता या दृषित की गई नारीद्वारा बध होना ही प्रमादसे हुई कोई गलती या दोष पीछे मालूम होजाय चाहिये और यदि यह मार्ग सीता या अन्य पतिव्रता तो उसको मान्य करना सम्मान्योंका काम है-उसमे नारियोंने बना दिया होता तो आज किसी भी प्रातउनकी प्रतिष्ठा और गौरव है। और अपमान समझना तायीको यह साहस न होता कि वह एक भी नारीका दुराग्रह या दुरभिनिवेशका द्योतक है। अपहरण करे । अस्तु! 'बीती ताहि बिसार दे, आगेयह सिद्ध हो जानेके बाद कि संजद' पद मूलप्रति- की सुधि लेय', अब भी क्या बिगड़ा है ? हमारे नेता, में विद्यमान है और ताम्रपत्रपर भी वह खादा गया है। व्याख्यानदाता, कथावाचक आज भी घर-घरमें संदेश फिर भी ताम्रपत्रसे उसको निकाल देनेका अनुरोध पहुंचा सकते है-आततायी यदि तुम्हे बलात् भ्रष्ट और आग्रह प. पू. आचार्यजीसे हो रहा है. इसीलिये करते हैं या घर लेजाते हैं तो अवसर पाकर बदला यह लेख प्रसिद्ध करनेकी आवश्यकता प्रतीत हुई। लो । खानेमें विष मिलाकर उनके परिवारको नष्ट Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] अपहरणकी श्रागमें झुलसी नारियाँ [ ३१७ कर दो. घरमें आग लगाकर उनका सर्वस्व भस्मीभूत बस गया ही गया। पर जीवन, शत्रुके हाथोंमें पड़नेकर डालो। भले ही इसके लिए महीना दो महीना पर भी'उबर सकता है । यह भी निश्चित् है कि या वर्ष दो वर्ष भी प्रतीक्षा करनी पड़े, पर अपहरण जीवित स्त्रीको शत्रु या आततायी अपहरण कर ले के अपमानको न भूलो। अवसरकी हर घड़ी ताकमे जा सकता है और आजकी भाषामें उसका दुरुपयोग रहो और अवसर मिलते ही बदला लो। हिन्द समाज भी हो सकता है. पर इस दुरुपयोगको, उ के नेता नारियोको बदलेका यह मन्त्र देकर ही चुप न भ्रष्टता या नैतिक पतन माननेको. हम कदापि तैयार हो जायें, अपनेका कर्तव्य-मुक्त न मान लें। वे यह नहीं हैं। आततायीका शरीरपर अधिकार कर लेना भी ध्यानमें रक्वे कि यदि कोई नारी ऐसा करके नैतिक पतन नहीं होता है। ऐमा होता, तो जेलमें लौटती है. तो उसे यही नही कि घरमें अपना स्थान बन्द स्वयं श्रद्धेय महात्माजी, पं० जवाहरलाल नेहरू मिले अपितु समाजमे सार्वजनिक रूपसे उस वीर- और मौलाना अबुलकलाम आजाद नैतिक दृष्टिसे नारीको अभिनन्दन भी मिले। हमारे समाजमे ऐसे पतित माने जाते । हमारी रायमे नैतिक पतन है २.४ भी अभिनन्दनोत्मव हो जाये तो वे अपहरणोंको आतता के सामने झुक जाना, उसे अपनी आत्मा असम्भव बना दें। तब विरोधियोंके लिए हमारी सौंप देना. उसका हो जाना, उसे (विवशतामें ही सही) बह-बेटियाँ गुड़की डली न रहेंगी, फास्फारसकी अपना मान लेना और उस अपमानकोभूल जाना । टिकिया हो जायेगी. जो हवा लगत ही जल उठती है. आज हमे नारीको यह बताना है कि अपहरण और जला डालती है । गाँधीजाने लिग्या था- मार्चका अन्तिम अध्याय नहीं है। अपहत होकर भा __ "अगर मरनेका सीधा रास्ता जहर ही हो तो मै नारी अपनी लड़ाई जारी रख सकती है और उसे कहूंगा कि बेइज्जती कराने के बनिस्बत जहर खाकर मर जारी रखनी चाहिये । आज हम नारीको जो सबसे जाना बेहतर है। जिन्हे खञ्जर रखना है वे भले बड़ा अरू दे सकत है वह यही भावना है किही स्वञ्जर रम्बे लेकिन खञ्जरसे एक-दोका मामना आक्रमणके समय उसे लडना है और अपहरणकिया जा सकता है मैकडोका नहीं खञ्जर तो से बचना है । पर यदि अपहरण हो ही जाये, तो उसे कमजोरीका निशान है। आखिरकार जानपर खेल अपना युद्ध जारी रखना है, हार नहीं माननी है, जानेकी तैयारी ही हर हालतमे औरतोंकी इजत बचा थकना नहीं है, समयकी प्रतीक्षा करनी है और मकती है और कुछ न कर सकें तो वे अपनी जेबमे निश्चितरूपसे उसे एक दिन अपने घर लौटना है। जहर ही खं, जहर खाकर मरना नैतिक पतनसे लौटना भी है, तो लुटेरोंको लूटका दण्ड देकर और कही अच्छा है।" पीढियों तक स्मरण रखने योग्य एक चुभता-सा महात्माजीका यह उपाय निःसन्देह अमोघ है पाट पढा कर। और यह उत्सर्गकी उस भावनाका प्रतीक है जो अभी यह धोखा नहीं है, विश्वासघात नहीं है, नसिक पिछले महायुद्धमे रूसके देशभक्त निवामियोने बरती। पतन नहीं है. यह शाखोंमें वर्णित और प्रमाणित वे जर्मनोंसे लड़े, जब उनके लिए जमे रहना असम्भव प्रापद्धर्म है, युद्धकी एक नीति है, रणका एक दाव है हो गया तो वे पीछे हटे. पर उस स्थानका कण-कण और निश्चय ही यह नारीका पवित्र गुरीला युद्ध है। फेंककर पीछे हटे। इस प्रकार जर्मनोका केवल जले जहाँ खुला युद्ध सम्भव नहीं होता, वहाँ यह गुरीला हुए खण्डहर ही मिले। युद्ध लड़ा जाता है और भारतकी नारीको आज इसी हम इम भावनाका अभिनन्दन करते है. पर जड़ गुरीला युद्धकी शिक्षा लेनी है। सम्पत्ति और जीवित सम्पत्तिमें कुछ भेद दिखाई इस युद्धमें उसे टैक, मैशीनगन, राइफिल. बन्दूक देता है। जड़ पदार्थ जब शत्रुके हाथमे गया, तो फिर और तलवार नहीं मिले, तो कोई चिन्ता नहीं। शाक Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ] अनेकान्त [वर्ष बनारनेका दराँत, सब्जी काटनेका चाकू, भाग ठीक फिर सतीत्व तो आत्माकी वस्तु है, उसका कोई भी करनेका चिमटा, पतीली उतारनेकी सिण्डासी, तेज कुछ नहीं बिगाड़ सकता । अपवित्र पुगलको कोई किनारेकी थाली या कटोरी, तेलसे भरी लालटेन दुष्ट बलात् अपवित्र करता है, तो इससे सतीका क्या और छतपरसे धका देनेको सधी हथेलियाँ उससे बिगड़ता है ? सीताका सहर्ष स्वागत करके यदि राम कौन छीन सकेगा। यदि उसमें भावना हो तो उसके यह परिपाटी डाल जाते कि हरण की हुई स्त्रियाँ हर ये अस्त्र अग्निवाण सिद्ध होगे और देशके इतिहास- दशामें पवित्र हैं और उन्होंने यदि सीताकी आलोचना लेखक आनेवाले दिनोंमें इन अस्त्रोंके प्रयोगकी कला- करने वाले नीच धोबीकी यह कहकर जिह्वा काट ली का ऐसा गुणगान करेगे कि सेनापति-रोमेल और होती कि जो निरपराध नारीको दोष लगाता है, उसको मैकार्थरकी आत्माएँ ईर्ष्यासे उसे सुनेंगी । गाँधीजीने यही दण्ड मिलता है, तो आज स्त्रियोंकी जो यह लिखा था दुरवस्था है, न हुई होती। "भगाई गई लड़कियाँ बेगुनाह हैं। किसीको उनसे आज तो स्थिति यह है कि हमारी जो बहन-बेटी नफरत न करनी चाहिये । हर सही विचारनेवाले गई. सो गई: क्योंकि यदि उसे लौटनेका अवसर आदमीको उनपर तरस आना चाहिये और उनकी पूरी मिलता भी है और वह आना भी चाहती है, तो वह मदद करनी चाहिये । ऐसी लड़कियोंको अपने घरोंमे सोचतो है कि जहाँ मैं जारही हैं वहाँ मेरे लिये स्थान खुशी-खुशी और प्यारसे लौटा लेना चाहिये और कहाँ है ? जतेमें परसी रोटियाँ मिलेगी और चारो उनके लायक लड़कोंसे उनकी शादी होनेमें कोई ओर घणा भरी आँखोकी छाया। ऐसे अवसरोंपर दिक्कत नहीं होनी चाहिये।" पुरुष तो हैं ही, पर स्त्रियाँ भी अपनी उस बहनको दिक्कत तो नहीं होनी चाहिये थी, किन्तु ऐसा सम्मान या प्यार नहीं दे पाती। उनके व्यङ्गवाण कठिनाइयाँ हिन्दू नारियोके उद्धारमें बाधक अवश्य तो उस समय इतने पैने होजाते है कि वे कलेजेको रही हैं। हम सनातन पन्थियोको एक सनातन भूल बांधनेमे चुकते ही नहीं। खाये जा रही है। रावणका वध होजानेपर सीता अपहत हाजानेपर भी आज नारीको जहाँ यह रामके शिविरमें आई। सीता सोचती थी-राम मुझे सीखना है कि वह हताश न हो और अपना गुरीला देवकर विह्वल हो उठेगे, वे मुझे हृदयसे लगानेको यद्ध जारी रक्खे, वहाँ हमें भी तो अपनी मनोवृत्तिमे दौड़ेगे और मैं चटसे उनके चरणोंमे गिर जाऊँगी, परिवर्तन करना है। यह परिवर्तन ही ता उस योद्धा उठायेंगे तो भी न उठूगी और रोकर भीख मागूंगा नारीका असली बल है। प्यार और मानकी दुनिया कि नाथ, अब यह चरण-सेवा पलभरको भी न कराके संसारमे कौन आना चाहेगा? छूटने पावे | किन्तु सीताकी यह आशा हवामें तैर जो काम रामने नहीं किया, वह आजके समाजको गई। रामने सीताकी ओर देखा भी नहीं। गुप्तरूपसे करना है, उसे जीना है तो यह करना ही होगा। हनुमानसे सीताके पवित्र बने रहनेकी बात पाकर भी अपहरणसे लौटी हुई स्त्रियोंको भरपूर सम्मान उनका हृदय अविश्वासी हो उठा। मिलना चाहिये। उन्हें उनका स्थान मिलना चाहिये। कहा जाता है कि वे सीताके सतीत्वकी ओरसे उनके लिये सम्मान और स्थानकी गारण्टी करके ही निश्चित थे, किन्तु लोक-लाजके लिए अग्नि-परीक्षा हम इस युद्धमे विजय पा सकते हैं। गोयलीय आवश्यक थी। हम कहते हैं यही सबसे बड़ी भूल रामने की थी। रावणके यहाँसे असती लौटनेपर भी १ यह लेख मेरी एक लेखमालाका अश है जो सन् ४७के सीताका कोई अपराध नहीं बनता। बलवान आत- 'नया जीवन में प्रकाशित हुअा था तथा 'महारथी' तायियोंके आगे शारीरिक सतीत्व रह ही नहीं सकता 'सरिता' श्रादि कई पत्रोंने जिसे उद्धृत किया था। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दृष्टिका आत्म-सम्बोधन ( लेखक - श्रीजिनेश्वर प्रसाद जैन ) हे वीर आत्मन् । कुछ तू कितना धीर कितना शक्तिशाली और अखंड ज्ञानचंद्र, प चिन्मूर्तिस्वरूप श्रनन्त-लक्ष्मीका धनी है और कहां तेरी इस हाड-मांसके अस्थिर गलनरूप शरीर में मोह-ममकार-बुद्धि | तरी इस दशापर खेद होता है कि तू मोहमे कितना अन्ध होरहा है। सब जानते हुए भी कुछ नहीं जानता. सब कुछ देखते हुए भी कुछ नहीं देखता । अरे ! अब तो चेत और इस मोहकी शृंखलाको तोड । इस मोहके फन्देमे पड़े-पड़े ही तूने कितना कल्पकाल बिता दिया । कितनी शताब्दियाँ तूने संसारमें जन्मते और मरते बिता दी । कितनी माताका दुग्धपान आज तक तूने किया और कितनी माताको तूने आज तक अपने वियोगमे लाया और कितनी पर्यायांम तूने जीवन बिताया तथा आज तक कितने संकल्पो और विकल्पो में फंसकर स्वको भूलकर - निजकी सुध-बुधको खोकर गरिक भेड़ की तरह हँकता रहा । अरे महान् पुरुषार्थी ! अब पुरुषार्थ कर । पुरुष बन । जागरूप होकर जाग । चेतनस्वरूप होकर चेत और समभपूर्वक समझ । अपने निजकुटुम्बमें मिलनेका प्रयास कर । तुझे श्रवश्य सफलता प्राप्त होगी। वह सफलता बाहर नहीं तरेमे ही है । मृगकस्तूरीकी तरह बाहर मत खोज । अन्दर निरख । शान्त हो । भववासना और पापवासनाओका अन्त कर । शान्तचित्त और निराकुल दशा तेरा स्वरूप है उसे पहचान । अपनी मस्ती में मस्त हो जा। खुद में समा जा। 'दासोऽहं' का विकल्प काटकर • सोsहं' से भी आगे बढ़ कर हमे गोता लगा । तब ही तू निजमें निजरूप होकर ठहरेगा । संसारमें भटकते हुए किमी जीवको जब कभी कदाचित् - किसी मन समागम या गुरुकी मुखारविन्दवाणी आत्म-ज्योतिकी झलक आ जाती है तब वह जीव आध्यात्मिक कहे, विवेकबुद्धिवाला कहो अथवा स्वरूपमे तल्लीन कहो या सम्यग्दृष्टि कहो आदि अनेक नामांसे पुकारा जाता है। जब यह जीव सम्यक दर्शनसे विभूषित होता है. तब इसकी दशा ही कुछ अपूर्व होजाती है। इसकी समस्त क्रियायें इसकी समस्त भावनायें ही कुछ अजीब (अद्भुत) होजाती हैं। यह बहिरंग में सब कुछ करते हुए भी अन्तरगम किसीका स्वामित्व नहीं रखता । वह भोजन करता है परन्तु किसीको भी कष्ट न देकर। वह स्त्री- पुत्रादिके मध्यमे रहता हैं, उनसे स्नेह करता है, उनका सर्व प्रबन्ध एवं सर्व कार्य करता है. फिर भी उसकी मोहबुद्धि नहीं होती. वह अन्तरङ्गमें ज्ञाता-दृष्टा रहता है। शरीरको शरीर पर पदार्थोको पर और अपने चिन्मात्र चेतनको उससे भिन्न तथा निज अनुभव करता है वह संसारके समस्त कार्योंको करता है परन्तु निजउपयोगका ध्यान नहीं छोड़ता । उसका जीवन, उसका व्यवहार. उसकी कार्यकुशलता, उसका सांसारिक प्रोमकुछ विलक्षण ही है । वह खाते हुए भी नहीं खाता, शयन करते हुए भी शयन नही करता और विषय भोगते हुए भी विषय नहीं भोगता । वह तो प्रतिसमय श्रात्मतत्परसावधान रहता है। ऐसे ही जीवका आत्मीय कल्याण होता है, क्योंकि जो भी कार्य वह करता है उसका वह स्वामी नही बनता, क्योंकि जब भेद-विज्ञानका रसिक होगया, परसे निजको भिन्न जान लिया, फिर वह अन्य पदार्थों का कर्ता या स्वामी कैसे होमकता है ? जैसे पत्ता जब तक हरा रहता तभी तक वह रस खीचता है - मूत्र जानेपर रस नहीं खींचता । इस तरह वह जब तक अन्य कार्योंमें रचता है तभी तक बँधता है । स्वमें रचनेपर नहीं बँधता है। उसका उपयोग अत्यन्त निर्मल है। हर समय जेलबन्दकी तरह विचारता रहता है कि कब मेरा यहाँ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२०] अनेकान्त [ वर्ष ह से छुटकारा होगा । जैसे जेलका बन्दी जेलमें समस्त की कुछ न्यूनता होनेपर दृष्टि नोनपर ही जाती है उसी कार्य करता है, अपनी कोठरीको माफ भी करता है तरहसे सब कुछ करते हुए भी अपने निज आत्मतेज और भी अन्य कार्य करता है परन्तु उनमें रचता पुञ्जपर ही उपयुक्त रहता है। जैसे कि मिह होती नहीं। हर समय छूटना ही चाहता है। उसी तरह है उसे कूटने-छेतनेपर भी वह अपनी हरियाईको नहीं वह सम्यग्दृष्टि जीव भी संसारमे रहते हुये भी समस्त तजती, परन्तु रचनेपर हरियाईको तजकर लाल हो कार्योंके करते हुए भी अपनी दृष्टि अपनी निज जाती है उसी तरहसे यह आत्मविभोर प्राणी अपनी सम्पत्तिकी ओर लगाये हुए रहता है । वह प्रतिसमय निजघटरूपी लालोमें ही तल्लीन रहता है। यद्यपि जैसे समस्त मसालों सहित भोजन करते हुए भी नोन- बाहरकी हरियाईमें भी वह रहता है परन्तु निजकी (पृष्ठ २६० का शेषांश) लाली इसके घटमें प्रकट होचुकी है इसलिये इसका होना उसी प्रकार विरुद्ध पड़ता है जिस प्रकार कि उपयोग किसी समय भी स्वरूपसे भिन्न नहीं होता। एक परमाणुका युगपत् सर्वगत होना विरुद्ध है, और प्रातःस्मरणीय परमपूज्य आचार्य श्रीकुन्दकुन्द इससे उक्त हेतु (साधन) असिद्ध है तथा अमिद्ध भगवानने श्रीसमयसारमें कहा है कि सम्यग्दृष्टि हेतुके कारण कृलविकल्पम्प (निरंश) सामान्यका निरबन्ध होता है सोई ठीक है। सर्वगत होना प्रमाणसिद्ध नहीं ठहरता । अरे भैय्या। जिसका अनन्त संसारका बन्ध कट (यदि यह कहा जाय कि सत्तारूप महासामान्य गया क्या वह बन्धवाला कहलायेगा ? जिसके सिर तो पूरा सर्वगत सिद्ध ही है, क्योंकि वह सर्वत्र परसे अनन्त भार उतर गया-सिर्फ तिल बराबर भार सत्प्रत्ययका हेतु है, तो यह ठीक नहीं है; कारण ?) रह गया वह क्या भारवाला कहलायेगा? अरे ! जो अनन्त व्यक्तियोके समाश्रयरूप है उस एक (मत्ता- जिसके मोहके जहरकी लहर उतर गई वह कहाँका महासामान्य)के ग्राहक प्रमाणका अभाव है क्योकि मोही?जिसने भव-वासना और पाप-वासनाओंका अनन्त सव्यक्तियोंके ग्रहण विना उसके विषयमें अन्त कर दिया उससे ज्यादा सुखिया कौन ? इससे युगपत् सत् इस ज्ञानकी उत्पत्ति असर्वज्ञों(छास्थो)- जाना जाता है कि वही सम्यग्दृष्टि है, वही समस्त के नही बन सकती, जिससे सर्वत्र सत्प्रत्ययहेतुत्वका जीवोको समान देखनेवाला है, वही परमक्षमावान् सिद्धि हो सके। सर्वत्र मत्प्रत्ययहेतुत्वकी सिद्धि नहोनेपर है, अत्यन्त दयालु है, कृपावान् है, ज्ञानी है. खुद अनन्त समाश्रयी सामान्यका उक्त अनुमान प्रमाण नहीं जीता है और दूसरोको जीने देता है. जिसने माह-मदहो सकता। और इसलिये यह सिद्ध हुआ कि कृत्स्न- मानादिको चकना-चूर कर दिया है। जो सदैव अलिप्त विकल्पी सामान्यकी द्रव्यादिकोमें वृत्ति सामान्यबहुत्व- रहता है वही जीव धर्मी है. मदा संतोषी है, जोतलोभी का प्रसङ्ग उपस्थित होनेके कारण नहीं बन सकती। है। जो समस्त बन्धुआंको बन्धनरहित देखना चाहता है यदि सामान्यकी अनन्त स्वाश्रयोंमें देशतः युगपत् वृत्ति और सदा जागरूप है। निज आत्माका दृढ विश्वासी मानी जाय तो वह भी इसीसे दृषित होजाता है; क्यों- है. शान्तचित्त है. मौनी है । जो वृथाकी कलहमें नहीं कि उसका ग्राहक भी कोई प्रमाण नहीं है । साथ ही पड़ता वही सच्चा सुखिया आत्मार्थी श्रात्म-हितैषी, सामान्यके सप्रदेशत्वका प्रसङ्ग आता है, जिसे अपने प्रात्मयोगी, परमसंयमी, जितेन्द्री और जिनेश्वरका उस सिद्धान्नका विरोध होनेसे जिसमें सामान्यको लघु नन्दन है; क्योंकि उसके ज्ञान-ज्योतिका उदय निरंश माना गया है, स्वीकार नहीं किया जामकता । होगया है। वह दुतियाका चन्द्रमा है। और इसलिये अमेयरूप एक सामान्य किसी भी हे आत्मन अगर तुम संसारके आवागमनसे छूटना प्रमाणसे सिद्ध न होनेके कारण अप्रमेय ही है- चाहते हो तो सच्चे सम्यग्दृष्टि बननेकी कोशिश कगे अप्रामाणिक है।' Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशयक्षेत्र श्रीकुण्डलपुरजी (लेखक-श्रीरूपचन्द बजाज) जी० आई० पी० रेलवेके बीना और कटनी अत्यन्त आवश्यकता है। छठवीं शताब्दीके एकजंकशनके मध्य, दमोह स्टेशनसे २४ मील दूर. पटेरा दो मठ या मन्दिर जीर्णोद्धारके अभावमें मिटीके ढेर रोडपर कुण्डलाकार उच्च पर्वतमालाओमें मध्यके बन गये है तथा उनके निर्माणकाल श्रादिका पता शिखरपर. पृथ्वीके गर्भमें, १४०० वर्षकी सभ्यता, लगाना बिलकुल ही असम्भव-सा होगया है। संस्कृति और इतिहास छपाए समुद्र-सतहसे करीब यहॉका छठवीं शताब्दीसे ग्यारहवीं शताब्दी तक३००० फुट ऊँचाईपर, कुण्डलपुर नामक स्थानमें, का इतिहास अन्धकारमें है। संवत् ११८३की प्रतिष्ठित ३ फुट ऊँचे सिंहासनपर, १२ फुट ऊँचाईके पद्मासन सिंघई मनसुभाई रैपुरा निवासी द्वारा स्थापित प्रतिमा आकारमें ध्यान-मुद्रा लगाए, भगवान महावीर से फिर हमे कुछ प्रकाश मिलता है जिससे मालूम विराजमान हैं और मारे जगतको उपदेश दे रहे है कि- होता है कि उस समय तक यह स्थान जनसाधारणकी __ "हे मनुष्य पृथ्वीके क्षणभङ्कर सखोको छोड। जानकाराम पूर्णरूपेण था। सुग्व आत्माकी वस्तु है जिसे आत्मध्यानद्वारा ... इसके पश्चात् ४५० वर्षके इतिहासका कुछ पता नहीं चल रहा है। एक शिलालेख संवत् १५०१का एक ही पाया जा सकता है। यदि सच्चा सुख चाहता है. मठमे मिलता है तथा उसके बाद सं० १५३२का प्रतिमातो आजा मेरे पास और हांजा मेरे समान ।” लेख । इसी सदीकी अनेक प्रतिमा अभी तक स्थित है। कुण्डलाकार पवतमालाआक मध्य वद्धमानसागर बड़े बाबाकी पीछेकी दहलान बन्द है, जिसमें नामक सुन्दर सगेवर है, जिसमे किनार तथा पर्वतो- शायद कल इतिहास शायद कुछ इतिहास मिलता। बड़े बाबाके नीचे - पर विद्यमान ५८ जिन-मन्दिर प्रतिविम्बित होते है। तहखाना भी धन्द है। बड़े बाबाकी बायीं जॉपके ऊपर मौन्दर्यकी श्रेणीमें अद्वितीय तथा विशालकाय पद्मा- एक छेद भी था जिसमे रुपया-पैसा डालनेपर वह सनप्रतिमाके रूपमें यह स्थान भारतवर्षम प्रायः आवाज करता हुआ अन्दर चला जाता था। इसे प्रथम श्रेणीका है। अपव्यय समझकर प्रबन्धकोने बन्द तो कर दिया, दमाहसे श्रीकुण्डलपुरजी तक रास्ता कच्चा होनेके परन्तु यह पता लगानेकी आजतक कोशिश नहीं की कारण फिलहाल यात्रा बैलगादी. तॉगा और निजी कि आखिर वह सिक्का जाता कहाँ था ? मेरा अनमाटरद्वारा की जाती है, परन्तु शीघ्र ही जनपदमभा मान है कि उस छेदका सम्बन्ध तहखानेसे है, तथा तथा राष्ट्रीय सरकारद्वारा पक्का रास्ता बनानेकी १ अच्छा होता यदि छठवी शताब्दीका माधक कोई आधार योजना कार्यरूपमे परिणत होनेवाली है। तब ता यह यहाँ प्रदर्शित किया जाता; क्योंकि जब 'मठ और मन्दिर अछूता स्थान प्रकाशमें आकर इतिहासकारो तथा मिट्टीके ढेर होगये और उनके निर्माणकाल आदिका पता प्राकृतिक सौन्दर्य प्रमियोके लिये एक आश्चर्यजनक लगाना बिल्कुल ही असम्भव-सा होगया है' तो यह पहेली बन जावेगा। निर्धारित कैसे किया गया कि वे छठवी शताब्दीके हैं ? यहॉपर कई ऐसे स्थान अभी भी विद्यमान हैं यदि ऐसा कोई शिलालेखादि प्रमाण उपलब्ध है तो जहॉपर खुदाई तथा प्राचीनताकी खोज करनेको लेखक महाशयको उसे प्रकाशमे लाना चाहिये। -कोठिया Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ कुण्डलपुर के बड़े बाबा श्रीमहावीरजी तहखाना खुलवानेपर छठवी शताब्दीसे आजतकके वे भग्नावशेप । श्रीकुण्डलपुरजीके जिन-जिन मन्दिरोमें मब सिक्कं प्राप्त हो सकते हैं जिनसे यह पता लगाना छठवी सदीकी जितनी प्रतिमा पाई जाती वे सब बिलकुल सरल हो जावेगा कि भाग्नवामि कौन-कौन ही रुक्मणीमठमे ही लाकर प्रतिष्ठित की गई हैं। शामक यहाँ दर्शनार्थ आचुके है और उस समय इम चिह्नम्वरुप रुक्मण/मठमे एक पापाणपर यक्ष-यक्षिणी स्थानकी प्रसिद्धि कहाँ-कहाँ तक फैली हुई था। खजूरके वृक्षके नीचे बड़े और उनके मिरपर पाश्व श्रीकुण्डलपुरजीरो करा आधा माल दर फतेपुर नाथ भगवानको प्रतिमा है। रुक्मणीमठके कुछ अवनामक ग्राम है जहाँ भवमणामठ नामक नमन्निरके शेप लक किनार एक चतग्पर पीपलक वृक्षके Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] अतिशयक्षेत्र श्रीकुण्डलपुरजी [ ३२३ नीचे भी रखे हैं। गण सरस्वती भनाविद्याधीश आचार्य श्रीसुरेन्द्रकीर्ति___इतिहासकारोके सम्मुख एक बड़ी पहेली यह है जी कुन्दस्वामी कुन्दकुन्दाचायके वंशज अपने शिष्यों कि श्राग्विर ऐसी कौनसी बात छठवीं शताब्दीमें या सहित इस स्थानपर दर्शन हेतु पधार । बड़े बाबाके इसके पूर्व यहॉपर घटित हुई जिसके कारण यहाँ बड़े दशनसे वे बड़े प्रभावित हुए और उनके शिष्य श्री बाबाकी ऐसी विशाल प्रतिमाका निर्माण हुआ। ध्यान सुचन्दगणिजीने मन्दिरके जीर्णोद्धारके हेतु भिक्षा रहे कि इस कालमे इस स्थानपर गुप्तशासकोंका मॉगनेकी आज्ञा गुरुसे ली । आप मन्दिरजीका शासन था जो जैनधर्मानुयायी भी थे। कुछ इतिहास- कुछ हिस्सा ही बनवा पाये थे कि दैवदुर्विपाकसे कार' मानते है कि यह वही कुण्डलपुर नामक स्थान है आपकी आयु पूर्ण होगई तब उनके सच्चे मित्र जहाँसे अन्तिम श्रु तकेवली श्रीधर स्वामी मोक्ष गये थे नमिसागरजी ब्रह्मचाराने इस अधूरे कार्यका पूर्ण और इसलिये यह निर्वाणभूमि हानेके कारण करनेका बीड़ा उठाया। प्राचीन कालसे ही इस तरह पूज्यनीय बना चला इसी समय बुन्देलखण्डगौरव शूर-वीर-सम्राट औरहा । खैर बात जो भी हो, परन्तु निर्णय या क्षत्रसाल मुगल-आततायिया द्वारा सताए हुये अपनी अधिकारपूर्वक तभी कुछ कहा जा सकता है जबकि राजधानी पन्ना छोड़कर मार-मार इधर-उधर सहायता जैन विद्वान भी इस विषयपर एकमत हो। इस क्षेत्रकी और अपना राज्य वापिस लेनेके प्रयत्नमे फिर रहे बुन्देल-शासकांके कालमें अधिक उन्नति हुई. यह थे। मनुष्यका जहाँ वश नहीं चलता वहाँ वह अपनेबात निर्विवाद सिद्ध है और इसके प्रमाणस्वरूप बड़े को भगवानके बलपर छोड़ देता है। यही हाल महाबाबाके प्रवेश-द्वारपर लगा शिलालेख अब भी राजाधिराज क्षत्रसालका हुआ। वे बड़े बाबाके दरविद्यमान है। बारमे आए। नमिसागरजी ब्रह्मचारीसे उनकी भेंट सैकडो वर्षकी धूप और वर्षाने बड़े बाबाके मन्दिर हुई। ब्रह्मचाराजाने उनके सामने भी मन्दिरजीकी को न मालूम कब जीर्ण-शीर्ण बना दिया और वह मरम्मतके लिय हाथ फैला दिय। परन्तु सम्राट ढहकर एक टोलेका रूप धारण कर चूका जिससे लोग लाचार थे। वे खुद ही विपत्तिके मारे फिर रहे थे। उसे मन्दिर-टीला नामसे सम्बोधित करने लगे। तो भी सम्राट्ने साहस बटार कर प्रतिज्ञा की कि यदि उस टीलेमे बड़े बाबा पूर्ण सुरक्षित और अखण्ड बने मै पुनः अपना राज्य वापिस पाऊँ तो इस मन्दिरजीरहे । मन्दिर-टीला नाम शिलालेखमें मिलता है। का जीर्णोद्धार कोषकी तरफसे करा दूंगा। ___ इस प्रकार बड़े बाबाकी वह कीर्ति और यश कुछ आप इसे अतिशय कहिये या सम्राट्का पुण्यो दय कि उन्हें फिरसे अपना राज्य वापिस मिल गया। समयके लिये आलोप-सा हो गया। उस स्थानपर वे अपनी प्रतिज्ञा नहीं भूले और शाही-कोषसे मन्दिरभीहड़ झाड़ियो वृक्षों और जङ्गली पशुओका निवास जीका जीर्णोद्धार कार्य शुरू होगया। साथ ही मध्यहोजानेसे मनुष्यका गमन ही बन्द-सा हो गया। हाँ, स्थित तालाबके चारो ओर घाट बनवाए जाने लगे। कुछ लोग यह जानते रहे कि अमुक प्राममें मन्दिर संवत् १७५७ मघा नक्षत्र माघ सुदी १५ सोमवारको टीले नामक स्थानपर एक विशाल जैन प्रतिमा मौजूद . जीर्णोद्वार कार्य पूर्ण हुआ। है। इस प्रकार यह प्राचीन मन्दिर करीब २०० वर्ष । इस अवसरपर महाराजाधिराज क्षत्रसाल मन्दिरतक समाधिस्थ बना रहा। जीकी प्रतिष्ठा हेतु स्वयं श्रीकुण्डलपुरजी पधारे । संवत् १७७० या इसके करीब श्रीमूलसंघ बलात्कार उन्होने बड़े बाबाकी पूजन की और द्रव्य, वर्तन तथा १ जिनकी यह मान्यता है उनमेंसे एक दोके नाम यहाँ सोने-चॉदीके चमर-छत्र भी भेंट किये। उनका दिया प्रकट कर दिये जाते तो अच्छा होता। -कोठिया पीतलका एक थाल (कोपर) अब भी श्रीकुण्डलपुरजी लगा परन्त Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ] के भडार में मौजूद है। उन्होंने उस स्थानका नाम परिवर्तनकर वहाँकी कुण्डलाकार पर्वत श्रेणियोंके आधारपर श्रीकुण्डलपुरजी रखा और तालाबका नाम वर्द्धमानसागर । तबसे पुनः बाबाकी ख्याति बढ़ने लगी और धीरे-धीरे यह स्थान जनसाधारणकी जानकारी में फिरसे गया। श्रीकुण्डलपुरजीके आसपास के ग्रामीणोंने भगवान महावीरकी इस विशालकाय जैनप्रतिमाको बड़े बाबाके सुन्दर नामसे सम्बोधन करना शुरू कर दिया । इस जीर्णोद्धारकी तिथिकी स्मृतिस्वरूप सम्राट्की आज्ञासे माह सुदी ११ से १५ तक प्रतिवर्ष यहाँ विशाल मेला भरने लगा जिसका प्रबन्ध राज्यकी तरफ से रहता था। आज भी मेलेमें जैन और जैन आकर बड़े बाबाके दर्शनकर अपनी अनेकान्त [ वर्ष 1 भक्ति प्रकट करते और पुण्य लाभ उठाते हैं बुन्देलखण्डको इस प्राकृतिक सौन्दर्यपूर्ण महान क्षेत्रके अपनी गोदमें होनेका अभिमान है। मन्दिरजीके प्रवेशद्वार पर जिनशासनरक्षकदेवता क्षेत्रपाल भी वृहताकारमें उसीसमयसे स्थित हैं जबसे कि बड़े बाबा । इस वर्ष शिमला जैनसभाके मन्त्री लाला जिनेश्वरप्रसादजी जैनके निमंत्रण और प्रमपूर्ण आग्रह पर मैं पर्यूषण पर्व में शिमला गया था । ६ सितम्बरको चलकर ७ मिनम्बरको सुबह ८-२० पर शिमला पहुंचा स्टेशनपर उतर कर रिम झिम वर्षा, कुहर और महाच्च पर्वतीय दृश्योंका अवलोकन करता हुआ जैनधर्मशाला पहुंचा, जहाँ जैन श्रजैन सभी यात्रियोके ठहरनेकी बड़ी ही अच्छी सुख-सुविधा तथा व्यवस्था है । शिमला में रात्रिको ७३ बजेसे १० बजे तक शास्त्रप्रवचन होता है । दिनमे प्रायः सभी धर्मबन्धुआं के ऑफिस में कामपर जानेके कारण उक्त समय ही धर्मचर्चाके लिये वहाँ उपयोगी होता है । पञ्चमीसे द्वादशी तक मेरेद्वारा शास्त्र-प्रवचनादि होता रहा । त्रयोदशीको अस्वस्थ हो जानेर अन्तिम दोनो दिन शास्त्रप्रवचन ला० मिहरचन्दजी खजाञ्ची इम्पीरियल बैंक ने किया । शिमला का पर्युषण पर्व 1 चतुर्दशीको दिन ३ बजे एक आम सभा की गई जिसके अध्यक्ष बा० मन्तलालजी देहली थे । जैनधर्म की विशेषताओं पर मेरा करीब एक घण्टा भाषण हुआ। मेरे बाद मोनपत के एक धर्मबन्धु और उनकी धर्मपत्नी भी भाषण हुए। अन्तमें ला जिनेश्वर प्रसादजीने सभाकी वार्षिक रिपोट सुनाई । संवत् २०००से श्रीकुण्डलपुरजी क्षेत्रपर बड़े बाबा का एकाधिपत्य होगया है । इस क्षेत्रका प्रबन्ध जनतन्त्रीय कमेटीद्वारा होता है । क्षेत्रमें यात्रियोकी सुविधा हेतु विशाल धर्मशालाएँ बन गई हैं। क्षेत्रका प्रबन्ध सुव्यवस्थित होनेपर भी अर्थाभावके कारण यहाँ जीर्णोद्धार कार्य इतना पड़ा हुआ है कि यदि लाखो रुपया भी खर्च किया जावे तो थोडा होगा फिर भी जीर्णोद्धार बारहमासी चालू ही बना रहता है । पर्युपपर्व के प्रसङ्गसे शिमला के कई अपरिचित उत्साही और लगनशील युवकबन्धुओसे परिचय हुआ । इनमें बा० अयोध्याप्रसादजी. ला० जिनेश्वरप्रसादजी, निरञ्जनलालजी, पं० बालचन्दजी, डॉ० एस० मी० जैन आदिके नाम उल्लेखनीय है । इनकी शक्ति और उत्साहसे सभाको पूरा लाभ उठाना चाहिये । शिमला अखिल भारतवर्षीय और पञ्जाब गवर्नमेण्टकी प्रवृत्तियोंका महत्वपूर्ण स्थान है । दूर-दूरसे सहस्रों व्यक्ति उसे देखने के लिये जाते हैं जो प्रायः शिक्षित ही होते हैं, उनमे जैनधर्मके ज्ञानका अभिरुचि पैदा कर जैन साहित्य और जैन धर्मका अच्छा प्रचार किया जा सकता है। अतः सभाका ध्यान निम्न तीन कार्योकी ओर आकर्षित कर रहा हूँ १. जैन-लायब्रेरीकी स्थापना, जिसमें प्रचारयोग्य जैन - साहित्यके अलावा जैन-ग्रन्थोका वृहत् सग्रह हो । २. जैनकॉलानी, जहाँ बाहरसे कामके लिये श्राये हुए जैन बन्धुओ को किराये पर स्थान मिल सके । ३. जैन पाठशाला की स्थापना, इसके द्वारा स्थानीय बालक-बालिकाओंको जैनधर्म तथा अन्य विपयोकी स्वच्छ वातावरणमे शिक्षा दी जा सकेंगी। ४-१०-१६४८, - कोठिया । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय दि विहार रिलिजियस ट्रस्ट बिल और जैन- देखकर कँपन हो पाता है। अचिंतित अनिष्ट तक हुआ ___ स्वाधीन भारतकी प्रान्तीय सरकारोंका ध्यान अब करते हैं. यदि इम सम्पत्तिको समुचित व्यवस्था हो धार्मिक सम्पत्तिकी ओर आकृष्ट हुआ है। बम्बई तो जानतिक सम्पत्तिका सदुपयोग हो और स्वतन्त्र सरकारने टेंदुलकर कमैटी बैठाई है जो आज जनता । भारत जो अपना सांस्कृतिक उत्थान अतिशीघ्र करने जारहा है उसमें भी कुछ मदद मिले. ऐसे ही कारणों का मत प्राप्तकर. उनकी सुविधाओंको ध्यानमें रखकर के वशीभूत होकर शायद सरकारने कथित सम्पत्तिकी कानून बनाया जाय, परन्तु बिहार सरकारने तो जन सद्व्यवस्थाके लिये ही कानून बनाया हो. इससे स्पष्ट मत लेना आवश्यक न समझकर मीधा बिल ही तैयार प्रतीत होता है. द्रस्टियोकी लापरवाहीने ही कानून करवा डाला जो कानुनका रूप धारण करने जारहा है. बनानेका मरकारको एक प्रकारसे मौन निमन्त्रण प्रथम अधिकार स्वीकार करनेपर ही इसका निर्माण काँग्रेस सरकारने किया था पर जैनोंके तीव्र विरोधके दिया. कोई भी सुसंस्कृत हिन्दू इसका सहर्ष स्वागत करगा। कारण या तोराजनैतिक या भूमण्डल प्रतिकूल होनेसे यह उसे पास न करा सकी, १९४७ में पुनः यह बिल १६ प्रकरण ८० धाराएँ तथा सामान्य या समस्या खड़ी करदी गई है। इसकी प्रतिलिपि हमार विशेष कई धाराओंमे विभाजित है। प्रथम प्रकरणकी सम्मुग्व है । इसपर सूक्ष्मतासे दृष्टिपात करनेसे अव- दुसरी धारामें हिन्दूकी जो व्याख्याएँ दी हैं उनमें जैन गत होता है कि सरकार "बिहार प्रान्तीय धार्मिक ट्रस्टी बौद्ध और सिखोंको भी सम्मिलित कर लिया है, जो का एक मण्डल” स्थापित करना चाहती है। जो एक सवथा अनुचित और न्याय सङ्गत नहीं है। जैनोके और बिहार सरकार और दूसरी ओर धार्मिक सम्पत्ति धार्मिक स्थानो और व्यवस्थापकोमें हिन्दुओं जैसी के व्यवस्थापकके बीच अधिकारी, उत्तरदायित्वपूर्ण । अव्यवस्था नहीं है। जैनी धार्मिक सम्पत्ति-देवद्रव्यको एजेंटके रूपमे काम करेगी. इस प्रकार अधिकारी अत्यन्त पवित्र मानकर उनका उपयोग फिर कभी मण्डल बनेगा, जिसका प्रधान कार्य होगा धार्मिक सामाजिक कार्योमे नहीं करते, ऐसी स्थितिमें गेहंके ट्रस्टोंपर सरकारकी ओरसे निगरानी रखना और साथ घुन पीसने जैसी कहावत चरितार्थ करना सरकारकी ओरसे उन्हे समय समयपर सलाह देत सरकारके लिये शोभास्पद नहीं । सांस्कृतिक और रहना, यहॉपर प्रश्न यह उपस्थित होता है कि सरकार सैद्धान्तिक दृष्टियोंसे हिन्दुओंसे जैन सर्वथा प्रथक हैंको किन परिस्थितियोंने कानून बनानेको बाध्य किया? आकाश-पातालका अन्तर है। गत अप्रेल को क्योकि पश्चात् भूमिकाको समझ लेनेसे कार्य आसान अखिल भारतवर्षीय जैन-प्रतिनिधि मण्डल इसके होजाता है और विरोधकी गुंजायश भी कम रहती है विरोधमें बिहार सरकारके प्रधानमन्त्री श्री कृष्णसिंह हमारी समझमे तो यही आता है कि आज हिन्दू और विकास मन्त्री श्री डॉ. सैयदमहमूदसे मिला था, मन्दिर मठ और तीर्थ स्थानोमें महंतों. पंडो और आप लोगोंने आश्वासन दिया है । प्रतिनिधि मण्डलमें तथाकथित व्यवस्थापको द्वारा जनता द्वारा प्रदत्त बाबू इन्द्रचन्दजो सुचन्नी (बिहारशरीफ) और बाबू धार्मिक सम्पत्तिका जैसा दुरुपयोग होता है उसे Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ] अनेकान्त [वर्प दोनों तथा बाबू मङ्गलचन्दजी सा० भाबकको मिलना उनके वसीयतनामामें लिखा है पाठशाला, अनाथालय चाहिये । अब पुनः ६ मितम्बरको जब धारासभा और बहनोंको सहायता करना । ट्रस्टकी मूल सम्पत्ति खुलेगी तब यह बिल उपस्थित किये जानेकी संभावना १ लाख २५ हजारसे भी अधिक है। इसके ब्याजसे है इस प्रसङ्गपर जैनोंको विरोध करना चाहिये । यदि ही यदि काम किया जाय तो बिहार-प्रान्तमें जैनधर्म बिल जैनोंपर लागू हुआ तो जैनोंकी जो धार्मिक और गंस्कृतिको ज्योति जलाई जासकती है। स्व० स्वतन्त्रता है वह मदाके लिये नष्ट होजायगी, कारण जौहरीजीका तो यही ध्यान था, पर आज तक कुछ भी कि बोर्डको जो अधिकार दिये गये हैं वे जैनांके लिये काम नहीं हश्रा। न जाने कुछेक ट्रस्टी लोग अपने घातक हैं। उदाहरणके लिये बोर्ड में जैन तो एक परिवारवालोंके साथ क्या-क्या कर रहे हैं । आज जैन सदस्य रहेगा और सरकारी ११ रहेंगे. काम बहुमतसे जनता इसे सहायता कर उन्नत बनाना चाहती है तो होंगे और जिस मन्दिरमें अधिक सम्पत्ति है उसका वे सहायता इसलिये नही लेते कि उनको हिसाब पेश परिवर्तन भी संभव है। ऐसी परिस्थितिमे जैनोको बड़ा करना पड़ेगा। सामाजिक सम्पत्तिका मनमाना उपनुकसान उठाना पड़ेगा. अतः क्यों नहीं सार भेदभाव योग करना मूर्खताकी पराकाष्ठा है । जनताको हिमाब भुलाकर एक स्वरसे सरकारका विरोध करते। मुझे न बताना, ऐसे ट्रस्टोकी व्यवस्थासे जैन युवक स्वाभाअपने धार्मिक और सामाजिक ट्रस्टोंके ट्रस्टियोसे भी विक रूपसे क्षुब्ध रहते है । मैने तो केवल दो उदाहरण दो बातें कहनी हैं। मान लीजिये कि जैनी उपरि कथित ही दिये हैं। न जाने कितने जैनट्रस्टोकी भी वैसी ही काननसे पृथक होगये तो इसका अर्थ यह न होना दुरवस्था होगी। समयका तकाजा है कि अधिकारीगण चाहिये कि आप अपनी दुव्यवस्थाकी परम्पराके प्रवाह- अब अपनेको वह सम्पत्तिका स्वामी न समझे, बल्कि को आगे बढ़ाते जाये। यह बड़ी भूल होगी, तीथस्थानांके जनताका सेवक समझे. वरना आगामी युगका वायुरुपयोका उपयोग यदि अन्य प्राचीन जैन मन्दिरोक मण्डल उनके सर्वथा प्रतिकूल होगा। जीर्णोद्धारमें व्यय हो तो क्या बुरा है ? विहारकी ही प्रान्तमें हम सूचित करत है कि बिलका विरोध मै बात करूँगा, उदाहरण रूपमे मैने यहॉकी कलापूर्ण किया जाय उसकी प्रति सेठ मङ्गलचन्द शिवचन्द प्रतिमाएँ देखी । मेरा विचार था कि यदि पावापुरी चौक सिटीके पतेपर सूचना दें। भण्डारसे इनका एक सचित्र आल्बम निकल जाय तो ता० २६ को मै बिहारसरकारके अर्थसचिव कितना अच्छा हो । साथमें बिहार-प्रान्तीय जैन- श्रीश्रनग्रहनारायणसे मिला था जैनसंस्कृतिकी दृष्टि संस्कृतिके इतिहासको पालाकित करनेवाली कुछ से मैंन उनको समझाया कि जैन पृथक.ही रखे जायें। पंक्तियाँ भी रहें. पर मुझे दुःख है कि यह सांस्कृतिक आपने कहा कैविनेटमै मैं आपके विचार उपस्थित विकासकी बात भी उनकी समभम नहीं आई यदि करूँगा. आप निश्चिन्त रहे मझसे बनेगा उतना मैं आई है तो क्यो नहीं उसे क्रियान्वित करते ? यह तो करूंगा। मरा तो विश्वास है कि वे अवश्य जैनोंको हई धार्मिक ट्रस्टकी बात । दूसरी बात यह है कि पटना बिलसे पृथक रखेगे। में स्व. सुराना किमनचन्द जौहरीने १६३४ माचमें २६-8-ye मुनि कान्तिसागर एक जैन श्वेताम्बर सुकृत फण्ड' स्थापित किया था, पटना सिटी Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SADHANTER भारतीय ज्ञानपीठ काशीके प्रकाशन | १. महाबन्ध--(महधवल सिद्धान्तशास्त्र) प्रथम भाग । हिन्दी टीका सहित मूल्य १२)। २. करलक्खण-(सामुद्रिक-शास्त्र) हिन्दी अनुवाद सहित । हस्तरेखा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ । सम्पादक-प्रो० प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम० ए०, अमरावती । मूल्य १)। ३. मदनपराजय-कवि नागदेव विरचित (मूल संस्कृत) भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावना सहित । जिनदेवके कामके पराजयका मरस रूपक । सम्पादक और अनुवादक-पं० राजकुमारजी सा०। मू०८) ४. जैनशासन-जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करने वाली सुन्दर रचना । हिन्द विश्वविद्यालयके जैन रिलीजनके एफ० ए० के पाठ्यक्रममे निर्धारित । मुखपृष्ठपर महावीरस्वामीका तिरङ्गा चित्र । मूल्य ४। ५. हिन्दी जैन-साहित्यका संक्षिप्त इतिहास-हिन्दी जैन-साहित्यका इतिहास तथा परिचय । मूल्य २)। ६. आधुनिक जैन-कवि-वर्तमान कवियोंका कलात्मक परिचय और सुन्दर रचनाएँ । मूल्य ३॥)। ७. मुक्ति-दुत-अञ्जना-पवनञ्जयका पुण्यचरित्र (पौराणिक रोमांम) मू०४) ८. दो हजार वर्षकी पुरानी कहानियां-(६४ जैन कहानियाँ) व्याख्यान तथा प्रवचनोंमें उदाहरण देने योग्य । मूल्य ३)। ९. पथचिह्न-( हिन्दी साहित्यकी अनुपम पुस्तक) स्मृति रेखाएँ और निबन्ध । मूल्य २)। १०. पाश्चात्यतकशास्त्र-(पहला भाग ) एफ० ए० के लॉजिकके पाठ्यक्रमकी पुस्तक । लेखक-भिक्षु जगदीशजी काश्यप, एफ० ए०, पालि-अध्यापक, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी । पृष्ठ ३८४ । मूल्य ४| ११. कुन्दकुन्दाचायेके तीन रत्नमूल्य २)। १२. कन्नडप्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची-(हिन्दी) मूडबिद्रीके जैनमठ, जैनभवन, सिद्धान्तवदि तथा अन्य प्रन्थभण्डार कारकल और अलिपूरके अलभ्य ताडपत्रीय प्रन्थोंके सविवरण परिचय । प्रत्येक मन्दिरमें तथा शास्त्र-भण्डारमें विराजमान करने योग्य । मूल्य १०)। ORANIKARSACREDRESED SAMRAANEMATARRACT वीरसेवामन्दिरके सब प्रकाशन भी यहाँपर मिलते हैं प्रचारार्थ पुस्तक मँगाने वालोंको विशेष सुविधाएँ भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस । DOCOMDISCSCRIGINGREACOCHEMISTHIXEMESTERNATAKAM RSMARAOKINEAAMSABHENR2125500R D ASSEMBERSADNINGHRSHAN Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. A-731 AaseDEArrengereasagreARY शेर-ओ-शायरी Gadar@GAURRENCHAIRMERGEMERGHURMEDESEARCH INSIDE [उर्दू के सर्वोत्तम १५० शेर और १६० नज़्म] प्राचीन और वर्तमान कवियोंमें सर्वप्रधान लोक-प्रिय ३१ कलाकारों के मर्मस्पर्शी पद्योंका सङ्कलन और उर्दू-कविताकी गति-विधिका आलोचनात्मक परिचय प्रस्तावना-लेखक हिन्दी-साहित्य-सम्मेलनके सभापति महा पंडित राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं "शेरोशायरी"के छ सौ पृष्ठोमें गोयली जीने उर्दू - कविताके विकास और उसके चोटीके कवियोका काव्य-परिचय दिया । यह एक कवि दय, साहित्य-पारखीके श्राधे जीवनके परिश्रम और साधनाका फल है। हिन्दीको ऐसे ग्रन्थोकी कितनी आवश्यकता है. इसे कहनेकी आवश्यकता नहीं । उर्दू-कवितासे प्रथम परिचय प्राप्त करनेवालोके लिये इन बातोंका जानना अत्यावश्यक है। 6 गोयलीयजी जैसे उर्द-कविताके मर्मज्ञका ही यह काम था, जो कि इतने संक्षेपमे उन्होने उद्द "छन्द और कविता"का चतुमुखीन परिचय कराया । गोयलीयजीके संग्रहकी पंक्ति-पंक्तिम उनकी अन्तर्दृष्टि और गम्भीर अध्ययनका परिचय मिलता है । मै तो समझता हूँ इस विषयपर ऐसा प्रन्थ वही लिख सकते थे।" कर्मयोगीके सम्पादक श्रीसहगल लिखते है "वर्षोंकी छानबीनके बाद जो दुर्लभ सामग्री श्रीगोयलीयजी भेंट कर रहे हैं इसका जवाब हिन्दी-संसारमै चिराग़ लेकर ढूंढनेस मी न मिलेगा. यह हमारा दावा है।" सुरुचिपूर्ण मुद्रण, मनमोहक कपड़ेकी जिल्द पृष्ठ संख्या ६४०-मूल्य केवल आठ रुपए STAGRAMMERICADEMICRORGreaCANCERONICS भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड, बनारस RahuOGHOD IOSMRIDGIRBASHIRE प्रकाशक-4. परमानन्द जैन शास्त्री भारतीय भानपीट काशीके लिये प्राशागम बनी दाग गंगल पमहानपरम मंदिर Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . कान्त भाद्रपद. संवत् २००५ :: सितम्बर, सन् १९४८ वर्ष है विधिका विधान किरण जीवनकी औ' धनकी, आशा जिनके सदा लगी रहती । विधिका विधान सारा, उनहीके अर्थ होता है। प्रधान सम्पादक जुगलकिशोर मुख्तार सञ्चालक ब्यवस्थापक भारतीय ज्ञानपीठ, काशी -oletoo सह सम्पादक मुनि कान्तिमागर दरबारीलाल न्यायाचार्य अयोध्याप्रसाद गोयलीय डालमियानगर (विहार) विधि क्या कर सकता है, उनका जिनकी निराशता आशा ? भय -काम-वश न होकर, जगमे स्वाधीन रहते जो ॥ 'युगवीर Pan सस्थापक-प्रवर्तक वीरसेवामन्दिर, सरसावा - - Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरी वर्षगाँठ पर गॉठे लगें और गॉठें खुल जायें V भारतके प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू १४ नवम्बर को आपकी देश- विदेशमे सर्वत्र ३०वी वर्षगाँठ मनाई गई विषय-सूची नाम लेख १ कामना ( कविता ) -- [ 'युगवीर' २ मेरी द्रव्यपूजा (कविता) - [ जुगल किशोर मुख्तार ३ समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने (युक्यनुशासन ) - [ सम्पादक ४ मूर्तिकला - [ श्रीलोकपाल ५ जैन - अध्यात्म - [पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ६ तीन चीत्र - [ जमनालाल जैन बन्ध - मोक्ष के सम्मिश्रण से जीवन- तन्तु नया बल पायें प ७ हिन्दीके दो नवीन महाकाव्य - [ मुनि कान्तिमागर ८ मथुरा-संग्रहालयकी महत्वपूर्ण जैन पुरातत्त्व सामग्री-- [ बालचन्द एम० ए० समाज-सेवक के पत्र - [ ब्रह्मचारी सीतलप्रसाद १० व्यक्तित्व ( स्मृतिकी रेखाएँ ) - [ गोयलीय ११ साहित्य - परिचय और ममालोचन १२ श्रद्धाञ्जलि (कविता) - [ श्रीब्रजलाल उर्फ भैयालाल जैन १३ सम्पादकीय -- [ मुनि कान्तिसागर पृष्ठ ३२७ ३०८ ३२६ ३३३ ३३५ ३४१ ३४३ ३४५ ३५१ ३५५ ३५८ ३६२ ३६३ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम् 77 वस्तुतत्त्व-सपतिव विश्वतत्व-प्रकाशक वार्षिक मूल्य ५) एक किरणका मूल्य 11) नीतिविरोधष्यसीलोकव्यवहारवर्तकःसम्यक्। परमागमस्यबीज भुवनैकगर्जयत्यनेकान्तः। । वर्ष है किरण 8 वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम ), सरसावा, जिला सहारनपुर भाद्रपदशुक्ल, वीरनिर्वाण-संवत २४७४, विक्रम-संवत २००५ सितम्बर १६४८ ရွှေ कामना CSSssssssssssssssssss परमागमका बीज जो, जैनागमका प्राण । 'अनेकान्त' सत्सूर्य मो, करो जगत्-कल्याण ॥१॥ 'अनेकान्त'-रवि-किरणसे, तम-अज्ञान-विनाश । मिट मिथ्यात्व-कुरीति सब, हो सद्धर्म-प्रकाश ॥२॥ कुनय-कदाग्रह ना रहे, रहे न मिथ्याचार । तेज देख भागें सभी, दम्भी - शठ - बटमार ॥३॥ सूख जायं दुगुण सकल, पोषण मिले अपार । सद्भावोंको लोकमें, हो विकसित संसार ॥४॥ शोधन-मथन विरोधका, हुआ करे अविराम ।। प्रेम-पगे रल-मिल सभी, करें कम निष्काम ॥५॥ युगवीर &0000000000000000000000000000000003 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी द्रव्यपूजा कृमि - कुल-कलित नीर है, जिसमें मच्छ- कच्छ मेंडक फिरते. है मरते श्र' वहीं जनमते. प्रभो । मलादिक भी करते । दूध निकालें लोग छुड़ाकर बच्चेको पीते पीते. है उच्छिष्ट नीतिलब्ध. यो योग्य तुम्हारे नहिं दीखें || १ || दही - घृतादिक भी वैसे है कारण उनका दूध यथा; फूलोंको भ्रमरादिक सूघें, वे भी है उच्छिष्ट तथा । दीपक तो पतङ्ग - कालाऽनल जलते जिनपर कीट मढ़ा, त्रिभुवनसूर्य | आपको अथवा दीप दिखाना नहीं भला ॥ २ ॥ फल - मिष्टान्न अनेक यहाँ, पर उनमे ऐसा एक नही. मल - प्रिया मक्खीने जिसको आकर प्रभुवर । छुआ नही । यो अपवित्र पदार्थ, अरुचिकर त पवित्र सब गुणघेरा; किस विधि पूजूं ? क्या हि चढ़ाऊँ ? चित्त डोलता है मेरा ॥ ३ ॥ औ' आता है ध्यान. तुम्हारे क्षुधा तृषाका लेश नहीं. नाना रस-युत अन्न पानका, अतः प्रयोजन रहा नही । नहिं वांछा, न विनोद-भाव नहिं राग अंशका पता कही. इससे व्यर्थ चढ़ाना होगा. औषध-सम, जब रोग नहीं ' ॥ ४ ॥ यदि तुम कहो 'रत्न-वस्त्रादिक भूषण क्यों न चढ़ाते हो अन्यसदृश पावन है. अर्पण करते क्यो सकुचाते हो' । तो तुमने निःसार समझ जब खुशी खुशी उनको त्यागा, हो वैराग्य- लीन-मति. स्वामिन | इच्छाका तोड़ा तागा ॥ ५ ॥ तब क्या तुम्हे चढ़ाऊँ वे ही. करूँ प्रार्थना ग्रहण करो' ? होगी यह तो प्रकट श्रज्ञता तव स्वरूपकी सोच करो । मुझे धृष्टता दीखे अपनी और अश्रद्धा बहुत बड़ी. तथा संत्यक्त वस्तु यदि तुम्हें चढ़ाऊँ घडी - घड़ी ॥ ६ ॥ इससे युगल' हस्त मस्तकपर रचकर नम्रीभूत हुआ, भक्ति - सहित मैं प्रणम् तुमको बारबार. गुण लीन हुआ । संस्तुति शक्ति-ममान करूँ ओ सावधान हो नित तरी; काय वचनकी यह परिणति ही अहा ! द्रव्यपूजा मेरी || ७ || भाव-भरी इस पूजासे ही होगा आराधन तेरा. होगा तव सामीप्य प्राप्त औ' सभी मिटेगा जग फेरा ॥ तुझमे मुझमें भेद रहेगा नहि स्वरूपसे नव काई, ज्ञानानन्द कला प्रकटेगी. थी अनादि जो वरसेवा मन्दिर, सरसावा खोई ॥ ८ ॥ जुगलकिशोर मुमतार Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने युक्त्यनुशासन नाना-सदेकात्म-समाश्रयं चेद्- प्रमंग श्राएगा और व्यक्तियोंके असदात्मकत्व. अद्रव्यत्व. अगुणत्व अथवा अकर्मत्व-रूप होनेपर अन्यत्वमद्विष्ठमनात्मनोः क। सत्सामान्य. द्रव्यत्वसामान्य, गुणत्वसामान्य अथवा विकल्प - शून्यत्वमवस्तुनश्चेत कर्मत्वमामान्य भी व्यक्तित्वविहीन होनेसे अभावतस्मिन्नमेये व खलु प्रमाणम् ॥५५॥ मात्रकी तरह असत ठहरेगा, ओर इस तरह व्यक्ति 'नाना सतो-सत्पदार्थोंका-विविध द्रव्य-गुण तथा मामान्य दोनोंके ही अनात्मा-अस्तित्वविहीनकोका-क आत्मा-एक स्वभावरूप व्यक्तित्व; जैसे होनेपर वह अन्यत्वगुण किसमे रहेगा जिसे अद्विष्ठ -एकमे रहने वाला माना गया है किसीमें भी मदात्मा. द्रव्यात्मा, गुणात्मा अथवा कर्मात्मा-ही। जिसका समाश्रय है ऐसा सामान्य यदि (सामान्य उनका रहना नहीं बन सकता और इसलिए अपने वादियोके द्वारा) माना जाय और उसे ही प्रमाणका व्यक्तियोसे सर्वथा अन्यरूप सामान्य व्यवस्थित नहीं होता।' विपय बतलाया जाय अर्थात यह कहा जाय कि सत्तामामान्यका समाश्रय एक सदात्मा. द्रव्यत्वसामान्यका यदि वह सामान्य व्यक्तियोंसे सर्वथा अनन्य समाश्रय एक द्रव्यात्मा. गुणत्वसामान्यका ममाश्रय (अभिन्न) है तो वह अनन्यत्व भी व्यवस्थित नही एक गुणात्मा अथवा कमत्व सामान्यका समाश्रय होता; क्योकि सामान्यके व्यक्तिमें प्रवेश कर जानेपर एक कर्मात्मा जो अपनी एक सद्व्यक्ति. द्रव्य- व्यक्ति ही रह जाती है-सामान्यकी कोई अलग व्यक्ति. गुणव्यक्ति अथवा कर्मव्यक्तिके प्रतिभास- सत्ता नहीं रहती और सामान्यके अभावमें उस कालमें प्रमाणसे प्रतीत होता है वहीं उससे मिन्न व्यक्तिकी संभावना नहीं बनती इसलिए वह अनात्मा द्वितीयादि व्यक्तियोके प्रतिभास-कालमे भी अभि- ठहरती है. व्यक्तिका अनात्मत्व (अनस्तित्व) होनेपर व्यक्तताको प्राप्त होता है और जिससे उसके एक सत सामान्यके भी अनात्मत्वका प्रसंग आता है और अथवा द्रव्यादिस्वभावकी प्रतीति होती है. इतने मात्र इस तरह व्यक्ति तथा सामान्य दोनों ही अनात्मा आश्रयरूप सामान्य ग्रहणका निमित्त मौजूद है (अस्तित्व-विहीन) ठहरते है; तब अनन्यत्व-गुणकी अतः वह प्रमाण है. उसके अप्रमाणता नहीं है, योजना किसमें की जाय, जिसे द्विष्ठ (दोनोमें रहने क्योकि अप्रमाणता अनन्तस्वभावक समाश्रयरूप वाला) माना गया है किसी में भी उसकी योजना नहीं सामान्यके घटित होती है, तो ऐसी मान्यतावाले बन सकती। और इसके द्वारा सर्वथा अन्य-अनन्यमामान्यवादियोंसे यह प्रश्न होता है कि उनका वह रूप उभय-एकान्तका भी निरसन हो जाता है; क्योंकि सामान्य अपने व्यक्तियोसे अन्य (भिन्न) है या उसकी मान्यतापर दोनों प्रकारके दोषोंका प्रसंग अनन्य (अभिन्न) यदि वह एक स्वभावके आश्रय- आता है। रूप सामान्य अपने व्यक्तियांसे सर्वथा अन्य (भिन्न) 'यदि सामान्यको (वस्तुभूत न मान कर) अवस्त है तो उन व्यक्तियोंके प्रागभावकी तरह असदात्म- (अन्याऽपोहरूप) ही इष्ट किया जाय और उसे कत्व. अद्रव्यत्व, अगुणत्व अथवा अकर्मत्वका विकल्पोंसे शून्य माना जाय-यह कहा जाय कि उसमें Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ] अनेकान्त [ वर्ष खरविषाणकी तरह अन्यत्व-अनन्यत्वादिके विकल्प 'यदि इसके विपरीत अन्वयहीन व्यावृत्तिसे ही नहीं बनते और इसलिए विकल्प उठाकर जो दोष साध्य जो सामान्य उमको सिद्ध माना जाय तो वह दिये गये हैं उनके लिए अवकाश नहीं रहता-तो उस भी नहीं बनता-क्योकि मवथा अन्वयरहित अतद्अवस्तुरूप सामान्यके अमेय होनेपर प्रमाणकी व्यावृत्ति-प्रत्ययसे अन्यापाहकी सिद्धि होनेपर भा प्रवृत्ति कहाँ होती है ? अमेय होनेसे वह सामान्य उसकी विधिकी असिद्धि होनेमे --- उस अर्थक्रियाप्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणका विषय नहीं रहता और रूप साध्यकी सिद्धिके अभावसे-उसमें प्रवृत्तिका इसलिए उसकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती।' विरोध होता है-वह नहीं बनती। और यह कहना (इस तरह दृमरोंके यहाँ प्रमाणाभावके कारण भी नहीं बनता कि दृश्य और विकल्प्य दोनोके किसी भी मामान्यकी व्यवस्था नहीं बन सकती।) एकत्वाऽध्यवमायसे प्रवृत्तिके हानेपर माध्यकी मिद्धि होती है। क्योंकि दृश्य और विकलयका एकत्वान्यावृत्ति-हीनाऽन्वयतो न सिद्धय द् ध्यवमाय असम्भव है। दर्शन उस एकत्वका अध्यविपर्ययेऽप्यद्वितयेऽपि साध्यम् । वसाय नहीं करता, क्योकि विकलय उमका विपय अतद्ब्युदासाऽभिनिवेश-वादः नहीं है। दशनकी पीठपर होनेवाला विकल्प भी उस एकत्वका अध्यवमाय नहीं करता, क्योकि दृश्य पराभ्युपेताऽर्थ-विरोध-वादः ॥५६॥ विकल्पका विपय नहीं है और दानाको विपय करनेवाला 'यदि साध्यको-सत्तारूपपर मामान्य अथवा काई झानान्तर सम्भव नहीं है. जिससे एकत्वा द्रव्यत्वादिरूप अपरसामान्यको-व्यावृत्तिहीन अन्वय ध्यवसाय हो मके और एकत्वाध्यवसायकं कारण से-असतकी अथवा अद्रव्यत्वादिकी व्यावृत्ति (जुदा- अन्वयहीन व्यावृत्तिमात्रले अन्यापाहरूप सामान्यकी यगी)के बिना कवल सत्तादिरूप अन्वय हेतुसे-सिद्ध सिद्धि बन सके। इस तरह स्वलक्षणरूप साध्यकी माना जाय तो वह मिद्ध नहीं होता क्योंकि विपक्ष- मिद्धि नहीं बनती। का व्यावृत्तिके विना सत-अमत अथवा द्रव्यत्व- यदि यह कहा जाय कि अन्वय और व्यावृत्ति अद्रव्यत्वादिरूप माधनांक संकरमे मिद्धिका प्रसंग दानोसे हीन जा अद्वितयम्प हंतु है उसमे सन्मात्रका पाता है और यह कहना नहीं बन सकता कि जो प्रतिभाम न हानसे मत्ताद्वतरूप सामान्यकी सिद्धि सदादिरूप अनुवृत्ति (अन्वय) है वही असदादिकी होती है, तो यह कहना ठीक नहीं है। क्योकि मवथा व्यावृत्ति है, क्योकि अनुवृत्ति (अन्वय) भाव-स्वभाव. अद्वितयकी मान्यतापर माध्य-माधनकी भेदसिद्धि रूप और व्यावृत्ति अभाव-स्वभावरूप है और दोनोमें नहीं बनती और भदको मिद्धि न होनेपर माधनसे भेद माना गया है। यह भी नहीं कहा जा सकता माध्यका सिद्धि नहीं बनती और माधनसे साध्यका कि सदादिके अन्वय पर अमदादिककी व्यावृत्ति सिद्धिके न हानेपर अद्वितय-हतु विरुद्ध पडता है।' सामथ्यसे ही हो जाती है. क्योकि तब यह कहना नहीं यदि अद्वितयका संवित्तिमात्रक रूपमे मानकर बनता कि व्यावृत्तिहीन अन्वयमे उस माध्यकी मिद्धि असाधनव्यावृत्तिस माधनको और असाध्यव्यावृत्तिसे होती है, सामथ्र्यसे अमदादिककी व्यावृत्तिको सिद्ध साध्यको अतद्व्युदासाभिनिवेशवादके रूपमें आश्रित माननेपर तो यही कहना होगा कि वह अन्वयरूप किया जाय तब भी (बौद्धाके मतमे) पराभ्युपेतार्थके हेतु श्रमदादिकी व्यावृत्तिमहित है. उसासे मत्सा- विगंधवादका प्रसङ्ग आता है; अर्थात बौद्धांके द्वारा मान्यकी अथवा द्रव्यत्वादि मामान्यकी सिद्धि होती संवेदनाद्वैतरूप जो अथ पराभ्युपगत है वह अतद्है। और इसीलिए उस सामान्यके सामान्य विशेषा- व्युदासाभिनिवेशवादसे-अतव्यावृत्तिमात्र आग्रहग्ख्यत्वकी व्यवस्थापना होती है।' वचनम्पसे-विरुद्ध पड़ता है, क्योंकि किसी अमाधन Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण 81 समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने [३३१ तथा असाध्यके अर्थाभावमें उनकी अव्यावृत्तिसे निशायितस्तः परशुः परघ्नः साध्य-साधन-व्यवहारकी उपपत्ति नहीं बनती और स्वमूर्ध्नि निर्भेद-भयाऽनभिज्ञैः । उनको अर्थ माननेपर प्रतिक्षेपका योग्यपना न होनेसे द्वैतकी मिद्धि होती है। इस तरह बौद्धोंके पूर्वाभ्युपेत वैतण्डिकैर्यैः कुसृतिः प्रणीता अथके विरोधवादका प्रसङ्ग आता है।' मुने ! भवच्छासन-दृक -प्रमूढः ॥५८॥ अनात्मनाऽनात्मगतेरयुक्ति (इस तरह) हे वीर भगवन । जिन वैतण्डिकोंने -परपक्षके दृषणकी प्रधानता अथवा एकमात्र धुनको वस्तुन्ययुक्त यदि पक्ष-सिद्धिः। लिये हुए संवेदनाद्वैतवादियोने-कुमृतिका-कुत्मिता अवस्त्वयुक्त प्रतिपक्ष-सिद्धिः गति-प्रतीतिका-प्रणयन किया है उन आपके न च स्वयं साधन-रिक्त-सिद्धिः॥५७॥ (स्याद्वाद) शामनकी दृष्टिसे प्रमृढ एवं निर्भेदके भयसे अनभिज्ञ जनोने (दर्शनमोहके उदयसे आक्रान्त होनेके (यदि बौद्धाक द्वारा यह कहा जाय कि वे साधन- कारण) परघातक परशु-कुल्हाड़ेको अपने हीमस्तकपर को छानात्मक मानते हैं. वास्तविक नहीं और साध्य मारा है ।। अर्थात जिस प्रकार दुसरेके घातके लिये भी वास्तविक नहीं है, क्योकि वह संवृतिके द्वारा उठाया हुआ कुल्हाड़ा यदि अपने ही मम्तकपर पड़ता कल्पिताकाररूप है अतः पराभ्युपेतार्थ के विरोधवाद है ना अपने मस्तकका विदारण करता है और उसको का प्रसङ्ग नहीं आता है तो ऐसा कहना ठीक नहीं है. उठाकर चलानेवाले अपने घातके भयसे अनभिज्ञ क्योकि) अनात्मा-निःस्वभाव सवृतिरूप तथा कहलाते है उसी प्रकार परपक्षका निराकरण करने अमाधनको व्यावृत्तिमात्ररूप-साधनके द्वारा उसी वाले वैतरिडकांके द्वारा दर्शनमोहके उदयसे श्राक्रान्त प्रकारके अनात्ममाध्यकी जो गति-प्रतिपत्ति (जान हानेके कारण जिस न्यायका प्रणयन किया गया है वह कारी) है उसकी मर्वधा अयक्ति-अयोजना है-वह अपने पक्षका भी निराकरण करता है और इस लिये बनता ही नहीं।' उन्हें भी स्वपक्षघातके भयसे अनभिज्ञ एवं हकप्रमुढ - यदि (संवेदनाद्वैतम्प) वस्तुमें अनात्ममाधनके ममझना चाहिये।' द्वारा अनात्ममाध्यकी गनिकी अयक्तिसे पक्षकी सिद्धि भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मो मानी जाय-अर्थात संवेदनाद्वैतवादियांक द्वारा यह कहा जाय कि साध्य-साधनभावस शून्य संवेदनमात्रके भावान्तरं भाववदहतस्ते । पक्षपनेसे ही हमारे यहाँ तत्त्वमिद्धि है तो (विकल्पि. प्रमीयते च व्यपदिश्यतेच ताकार) अवस्तुमें साधन-साध्यकी अयुक्तिसे प्रति- वस्तु-व्यवरथाऽङ्गममेयमन्यत् ॥५९॥ पक्षकी-दुतकी-भी सिद्धि ठहरती है। अवस्तुरूप (यदि यह कहा जाय कि 'साधनके विना माध्य. माधन अवनतत्त्वम्प माध्यको सिद्ध नहीं करता है, की स्वयं सिद्धि नहीं होती' इस वाक्य के अनुसार क्योकि मा होनेसे अतिप्रसङ्ग पाता है-विपक्षी संवेदनाद्वतकी भी सिद्धि नहीं होती तो मत हो. भी मिद्धि ठहरती है।' परन्तु शून्यतारूप सर्वका अभाव तो विचारबलसे 'और यदि माधनके विना स्वतः ही संवेदना- प्राप्त हो जाता है, उसका परिहार नहीं किया जा द्वनम्प माध्यकी मिद्धि मानी जाय तो वह युक्त नहीं सकता अतः उसे ही मानना चाहिये तो यह कहना है क्योंकि नव पुरुषाढतकी भी म्वय मिद्धिका प्रसङ्ग भी ठीक नहीं है क्योकि) है वीर अर्हन । आपके आता है. उसमे किसी भी बौद्धका विप्रतिपत्ति नहीं मतमें प्रभाव भी वस्तुधर्म होता है-बाह्य तथा हो सकती।' आभ्यन्तर वस्तुके असम्भव हानेपर सर्वशून्यतारूप Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०] तदभाव सम्भव नहीं हो सकता; क्योंकि स्वधर्मी के असम्भव होनेपर किसी भी धर्मकी प्रतीति नहीं बन सकती । श्रभावधर्मकी जब प्रतीति है तो उसका कोई धर्मी (बाह्य आभ्यन्तर पदार्थ) होना ही चाहिये, और इस लिये सर्वशून्यता घटित नहीं हो सकती । सर्व ही नहीं तो सर्व-शून्यता कैसी ? तत् ही नहीं तो तदभाव कैसा ? अथवा भाव ही नहीं तो प्रभाव किसका ? इसके सिवाय, यदि वह अभाव स्वरूपसे है तो उसके वस्तुधर्मत्वकी सिद्धि है; क्योकि स्वरूपका नाम ही वस्तुधर्म है । अनेक धर्मसेि किसी धर्मके अभाव होनेपर वह अभाव धर्मान्तर ही होता है और जो धर्मान्तर होता है वह कैसे वस्तुधर्म सिद्ध नहीं होता ? होता ही है । यदि वह अभाव स्वरूपसे नहीं है तो वह अभाव ही नहीं है; क्योंकि अभावका भाव होनेपर भावका विधान होता है। और यदि वह अभाव (धर्मका अभाव न होकर) धर्मीका अभाव है तो वह भावकी तरह भावान्तर होता है - जैसे कि कुम्भका जो अभाव है वह भूभाग है और वह भावान्तर (दूसरा पदार्थ) ही है. योगमतकी मान्यताके अनुसार सकल शक्ति-विरहरूप तुच्छ नहीं है । सारांश यह कि अभाव यदि धर्मका है तो वह धर्मकी तरह धर्मान्तर होने से वस्तुधर्म है और यदि वह धर्मीका है तो भावकी तरह भावान्तर ( दूसरा धर्मी) होनेसे स्वयं दूसरी वस्तु है - उसे मकलशक्ति-शून्य तुच्छ नही कह सकते। और इस सबका कारण यह है कि अभावको प्रमाणसे जाना जाता है. व्यपदिष्ट किया जाता है और वस्तु - व्यवस्थाके अङ्गरूप में निर्दिष्ट किया जाता है।' अनेकान्त [ वर्ष ( यदि धर्म अथवा धर्मी के अभावको किसी प्रमाणसे नहीं जाना जाता तो वह कैसे व्यवस्थित होता है ? नहीं होता। यदि किसी प्रमाणसे जाना जाता है तो वह धर्म-धर्मो के स्वभाव-भावकी तरह वस्तुधर्म अथवा भावान्तर हुआ । और यदि वह अभाव व्यपदेशको प्राप्त नहीं होता तो कैसे उसका प्रतिपादन किया जाता है ? उसका प्रतिपादन नहीं बनता । यदि व्यपदेशको प्राप्त होता है तो वह वस्तुधर्म अथवा वस्त्वन्तर ठहरा. अन्यथा उसका व्यपदेश नही बन सकता । इसी तरह वह अभाव यदि वस्तु व्यवस्थाका अङ्ग नहीं तो उसकी कल्पनासे क्या नतीजा ? घटमे पटादिका अभाव है इस प्रकार पटादिके परिहार द्वारा अभावको घट व्यवस्थाका कारण परिकल्पित किया जाता है, अन्यथा वस्तुमें सङ्कर दोषका प्रमङ्ग आता है -- एक वस्तुको अन्य वस्तुरूप भी कहा जा सकता है, जिससे वस्तुकी कोई व्यवस्था नही रहती - अतः अभाव वस्तु व्यवस्थाका अङ्ग है. और इस लिये भावकी तरह वस्तुधर्म है ।) 'जो अभाव-तत्त्व (सर्वशून्यता) वस्तु - व्यवस्थाका म नही है वह (भाव -एकान्तकी तरह) अमेय (अप्रमेय) ही है - किसी भी प्रमाणके गोचर नही है।' या ( इस तरह दूसरो द्वारा परिकल्पित वस्तुरूप वस्तुरूप सामान्य जिस प्रकार वाक्यका अर्थ नहीं बनता उसी प्रकार व्यक्तिमात्र परस्पर-निरपेक्ष उभयरूप सामान्य भी वाक्यका अर्थ नहीं बनता, क्योंकि वह सामान्य अमेय है - सम्पूर्ण प्रमाणोके विषय से अतीत है अर्थात किसी प्रमाणसे उसे जाना नही जा सकता ।) Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ति-कला (लेखक-'श्रीलोकपाल') स्थापत्य या मूर्तिकलाने जैनमूर्तियों में अपने चरम पूछनेपर उन्होंने भी कुछ संतोष-जनक उत्तर नहा उत्कर्षको पाया है। बौद्धमूर्तियोको देखनेपर भी कुछ दिया या कुछका कुछ दे दिया। शास्त्रोंका ज्ञान मेरा बहुत ऐसा ही भास होता है। पर जैन और बौद्धमूर्तियोंमे ही कम नहीं के बराबर है। पर अब जबसे मैंने इधर एक सूक्ष्म पर बडा भारी भेद है, जिसकी पूर्ण महत्ता दो चार सप्ताहोसे चित्रों या मूर्तियोंपर लिखना तो वही बतला सकता है जो मूर्तिकलाका ज्ञाता होनेके आरम्भ कर दिया तब बातें अपने आप बहुत कुछ साथ ही माथ मनोविज्ञानका भी ज्ञाता हो और यदि माफ हाती जाती है। पूरा विवरण-Details ता दशन भी दखल रखता हो तो फिर पूछना ही क्या मैं नहीं जानता. न उनका ब्योरेवार कारण ही जान है। मै तो तीनोमंसे कोई भी नहीं जानता। यो ही बुद्धि- पाया हूँ पर अपनी विचार-प्रणालीपर चलते हुए मैंने पर जार देनेसे मै जो कुछ समझ मका हूँ उसी बूतपर यह देखा है कि इन जैनमूर्तियोपर अङ्कित एक-एक वह सब कुछ है जो मैने लिखा है या लिखता है। रेखा या बनावटका मतलब है-और यह सब कुछ बुद्धकी मूर्तियांको देखनेसे यही ज्ञात होता है कि बुद्ध संयोगवश नहीं बल्कि बहुत-बडी मनोवैज्ञानिक जानकिसी बड़े ही गम्भीर, गम्भीरतर या गम्भीरतम कारीके साथ ही की गई है-जैसे शिरोपरि, कान, विचारमें लीन है। कोई बात सोच रहे हैं-विचार वक्ष या हाथके ऊपरकी जो बनावटें है वे सब मूर्तिकी रहे है। इस तरह इनका मानसिक स्तरपर होना भव्यता, मजबूती वगैरहसे सम्बन्धित होते हुए भी जाहिर होता है। जबकि जैनमूर्तियोमें जो मुद्रा या गूढ मनावैज्ञानिक महत्व रखती हैं। भाव अङ्कित है उनसे यही दोग्यता है कि जिनेन्द्र सचमुच ही यथाविधिरूपसे बनी हई जैनमर्तियों(तीर्थङ्कर) ध्यानमग्न या परम निर्विकार ध्यानमे लीन मे 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' का सच्चा समन्वय एवं हैं। इमसे जैनमूर्तियाँ मानसिक स्तरसे निकाल कर दिग्दर्शन होता है-Plaun living .and high आध्यात्मिक या आत्मिक ऊँचे स्तरपर पहुँचा दी गई thinking-अतिसरल स्वाभाविक सुन्दर मूर्ति है। इभ तरह बुद्धकी मूर्तियाँ जब विचार-मुद्रा प्रद- और ऊंचेसे ऊँचे भाव उनपर अङ्कित होना ही शित करती हैं तब जैन मूर्तियाँध्यान-मुद्रा । इस ध्यान- 'सत्यं शिवं सुन्दरम्'को साबित कर दिखलाते है जो मे भी और ध्यानोसे विशेषता है । य मुद्रा ही और कहीं नहीं मिलता। अपूर्णता (अपूर्णज्ञान) और पूर्णता (पूर्णज्ञान एवं बनारसके भेलू पुराके बड़े मन्दिर में मैंने एक मूर्तिनिर्विकारता)की द्योतक जान पड़ती है। इतना ही को देग्वा जिसमें प्राचीन परिपाटीसे हटनेकी चेष्टा की नहीं मूर्तिमे क्या बात होनेसे उसका दर्शकके ऊपर गई है। मूर्ति विशेषरूपसे मानवाकृतिकी साधारण गम्भीर, स्थायी एवं गुरु (Serious) प्रभाव पड़ तोरसे बनाई गई है जिसमे माधारण मानवसे जहाँ मकता है या पड़ेगा इमका भी हर तरहका खयाल तक हो सके सदृशता लानेकी कोशिश की गई है। या अचूक सूक्ष्म ध्यान रखा गया है। जैनमूर्तियोंके सिर या मस्तकके ऊपरकी बनावट या और सब बारेमें मोचनेपर अकसर ही मै उनपर अङ्कित कई Extra-अधिक चीजोको निकाल दिया गया है। बातोका कुछ मतलब नहीं लगा पाया हूं। लोगोसे मैं जब भी उस मूर्तिके दर्शन करता तभी यह प्रश्न Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ] मेरे मनमें बराबर उठता रहा कि क्यों इस मूर्तिका असर या प्रभाव मेरे ऊपर नहीं पड़ता जो पडना चाहिये। यह अब मैं सोचता हूं कि कोई मनोवैज्ञानिक कारण है — और उसी वजहसे हमारे पूर्वजोने अपनी मूर्तियॉ बनवाने में हर बातका हरएक रेखा - लाइनपर मुद्राको अनेकान्त त करनेमे इस मनोवैज्ञानिक जरूरत या आवश्यकताका बराबर ध्यान रखा है कि मूर्तिका प्रभाव जैमा पड़ना चाहिये या जिस कामको या मतलबको सम्पादन करनेके लिये मूर्तिका निर्माण हुआ है वह पूर्णरूपसे पूरा हो, जो केवल सीधा सादेरुपसे एक आदमीकी मूर्ति ज्योंका त्यो बना देनेसे नहीं होता था । बड़ी मूर्तियों और छोटी मूर्तियां एवं धातुकी मूर्तियोमें और पत्थरकी मूर्तियांमें फिर उनके रङ्गोंके कारण प्रभाव. असर तथा बनावटमें थोड़ा अन्तर हो सकता है - और पाया जाता है । पर उसमें भी खयाल रखा गया है कि स्वाभाविकतासे लग जाना कमसे कम हो और मानसिक प्रभाव उसका ऐसा हो कि स्वाभाविकताकाही भान हम मूर्तिसे करें । बल्कि साधारण तौर से मूर्ति बना देनेसे उसका असर जो पड़ता उसमें उतनी स्वाभाविकता का भाव नहीं होता । और भी जो बड़ा भारी महान् भाव हमारे भीतर पैदा करना तथा मूर्तिपर दिखलाना था वह तो उसी तरीकसे हो सकता था जैसा कि हम अपनी मूर्तियो पर देखते हैं— अन्यथा सम्भव नहीं हैं। हाँ, ये सब बातें दिगम्बर मूर्तियां के सम्बन्धमे है। मालूम होता है कि जैनियोने जब देखा कि लोग arrant ठीक ठीक महत्व या मतलब नहीं समझते एवं उसका मखौल तक उड़ाते है तब उनमें से कुछ ऐसोने ही जो जैनों की संख्या कम होना नहीं पसन्द करते थे श्वेताम्बर मूर्तियोंको प्रचलित किया । पर ध्यानके वास्ते और निर्विकार ध्यान या मुद्राके वास्ते दिगम्बर मूर्तियाँ ही सर्वश्रेष्ठ हैं । बुद्धकी मूर्तियां में विचार- मुद्रा होनेसे वे सांसारिक अवस्था में मनके आधारपर रहते हैं. जबकि जिनेन्द्रकी मूर्तियों में -- [ वर्ष ध्यानमुद्रा होनेसे वे सांसारिक और मनके आधारसे अलग ऊपर उठ जाते हैं । बुद्धकी मूर्तियोंमें सांसारिकता तो छूटी रहती है पर संसार अभी रहता है. जबकि जैनमूर्तियो में सांसारिकता और संसार दोनों अलग ऊपर भाव हो जाते है । चित्रकलाके ज्ञाता यदि निष्पक्ष (Unbiased) होकर जैनमूर्तियांका मनन करें तो उन्हें बड़ी भारी जानकारीका लाभ होगा। ब्राह्मणधर्मने तो मूर्तिकलाको दिनपर दिन नीचे ही आडम्बरको ही स्थान दिया है— ध्यानसे कोई सम्बंध उतारा है । वहाँ तो मूर्तिमं केवल सौष्ठव और ही नहीं - और 'निर्विकार' होना तो बदी दूरकी बात है। दिनपर दिन हमारी मूर्तिकलाका ह्रास होता गया है और जो कुछ भी हम देखते हैं वह विकृत, अन्यथा मार्ग या गलत रास्ते पर चला हुआ हो गया है। इसे सुधारनेके लिये धार्मिक मनोभावनाओ को एवं धर्मान्धता को दूर करना होगा तभी वह सम्भव है। आज तो हमने बुद्धि और तकसे तर्कमवालान कर रखा है या उन्हें धर्मका दुश्मन बना दिया है। जब तक इनमें आपस मेल, सहयोग एवं अतिनिकट सम्बन्ध या एकता नहो स्थापित होती तब तक कुछ सुधार होना तथा भारतकी उन्नतिका होना स्थायी नहीं हो सकता । दो-चार ताकर ही क्या सकते है ? वे आगे बढ़ेगे - देशको आगे बढ़ायेंगे. पाछेसे धर्मान्धलोग उन्हे उनकी टॉगोको पकड़कर खीच लेंगे -- क्योकि उन्हें बुद्धिसे तो कोई सरोकार ( प्रयोजन) है ही नहीं । और संसार मे सक्रिय प्रभाव-शक्ति या स्थायी जो कुछ भी हो सकता है वह बुद्धिसे ही हो सकता । बाकी तो सब कुछ भ्रमपूर्ण - विकृत - उल्टापलटा एवं गलत ही हैचाहे भले ही हम अपनी बहूक या घमण्डमं या अज्ञानतामे उसे ही ठीक सीधा या मही मानते रहे । पर फल तो हमारे माननेके ऊपर निर्भर नहीं करता वह तो वस्तुस्वभावपर एवं तथ्य तत्त्व या सत्यपर ही निर्भर करता है 1 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन अध्यात्म [पं. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य पदार्थस्थिति मर्वव्यापी है । धर्म और अधर्म लोकाकाशके बराबर है। पुद्गल और काल अणुरूप हैं। जीव असंख्यातप्रदेशी 'नाऽसतो विद्यते भावो नाऽभावो विद्यते सतः' है और अपने शरीरप्रमाण विविध आकारोमे जगतमें जा मत् है उमका सर्वथा विनाश नहीं हो मिलता है। एक पदलद्रव्य ही ऐसा है जो सजातीय सकता और मवेथा नए किसी असन्का सद्रूपम अन्य पुदलद्रव्योंसे मिलकर स्कन्ध बन जाता है और उत्पाद नहीं हो सकता। जितने मौलिक द्रव्य इस कभी कभी इतना रासायनिक मिश्रण हा जाता है कि जगतमे अनादिसे विद्यमान है वे अपनी अवस्थाश्रामे उसके अणुओकी पृथक सत्ताका भान करना भी परिवर्तित हात रहत है। अनन्तजीव. अनन्तानन्त कठिन होता है । तात्पर्य यह कि जीवद्रव्य और पुद्गलपुद्गल अणु, एक धर्मद्रव्य. एक अधर्मद्रव्य, एक द्रव्यमें अशुद्ध परिणमन होता है और वह एक दसरे आकाश और असंख्य कालाणु इनसे यह लाक के निमित्तसे। पदलमें इतनी विशेषता है कि उसकी व्याप्त है। ये छह जातिके द्रव्य मौलिक है. इनमेसे न अन्य सजातीयपुदलासे मिलकर स्कन्ध-पर्याय भी तो एक भी द्रव्य कम हो सकता और न कोई नया उत्पन्न होती है पर जीवी दसरे जीवमे मिलकर स्कन्ध होकर इनकी संख्यामें वृद्धि कर सकता है। को पर्याय नहीं होती। दो विजातीय द्रव्य बँधकर एक द्रव्य अन्यद्रव्यरूपमें परिणमन नहीं कर सकता. पर्याय नहीं प्राप्त कर सकते। इन दा द्रव्योके विविध जीव जीव ही रहेगा पुद्गल नहीं हो सकता। जिस तरह , परिणमनोंका स्थूलरूप यह दृश्यजगत् है। विजातीय द्रव्यरूपमे किसी भी द्रव्यका परिणमन नहीं होता उसी तरह एक जीव दूसरे मजातीयजीव- द्रव्य-परिणमनद्रव्यरूप या एक पुद्गल दूसरे सजातीय पुद्गलद्रव्यरूप- प्रत्येक द्रव्य परिणामीनित्य है । पूर्वपर्याय नष्ट मे सजातीय परिणमन भी नहीं कर सकता। प्रत्येक होती है उत्तर उत्पन्न होती है पर मूलद्रव्यकी धारा द्रव्य अपनी पर्यायो-अवस्थाओकी धारामे प्रवाहित है अविच्छिन्न चलती है । यही उत्पाद-व्ययकिसी भी विजातीय या सजातीय द्रव्यान्तरकी धारामें नौव्यात्मकता प्रत्येक द्रव्यका निजी स्वरूप है। धर्म, उसका परिणमन नही हो सकता । यह सजातीय अधर्म. श्राकाश और कालद्रव्योका सदा शुद्ध परिया विजातीय द्रव्यान्तरमे असंक्रान्ति ही प्रत्येक णमन ही होता है। जीवद्रव्यमें जो मुक्त जीव है द्रव्यकी मौलिकता है। इन द्रव्योंमें धर्मद्रव्य. अधर्म- उनका परिणमन शुद्ध ही होता है कभी भी अशुद्ध द्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्योंका परिणमन सदा नहीं होता। समारी जीव और अनन्त पुद्गलद्रव्यका शुद्ध ही रहता है. इनमें विकार नहीं होता. एक जैसा शुद्ध और अशुद्ध दोनों ही प्रकारका परिणमन होता परिणमन प्रतिसमय होता रहता है। जीव और पुदल है। इतनी विशेषता है कि जा समारी जीव एकबार इन दो द्रव्योमे शुद्धपरिणमन भी होता है तथा अशुद्ध मुक्त होकर शुद्ध परिणमनका अधिकारी हुआ वह परिणमन भी। इन दो द्रव्योमें क्रियाशक्ति भी है जिमस फिर कभी भी अशुद्ध नहीं होगा पर पुदलद्रव्यका : इनमे हलन-चलन.आना-जाना आदि क्रियाएँ होती है। कोई नियम नहीं है। वे कभी स्कन्ध बनकर अशुद्ध शेष द्रव्य निष्क्रिय हैं वे जहाँ है वहीं रहते है। आकाश परिणमन करते हैं तो परमाणुरूप होकर अपनी शुद्ध Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ - अवस्थामें श्राजाते हैं फिर स्कन्ध बन जाते हैं इस परिणमनकी प्रत्येक शक्ति मूलतः प्रत्येक जीवद्रव्यमें है। तरह उनका विविध परिणमन होता रहता है । जीव हाँ अनादिकालीन अशुद्धताके कारण उनका विकास और पुद्गलमें वैभाविकी शक्ति है जिसके कारण वे विभिन्न प्रकारसे होता है। चाहे हो भव्य या अभव्य, विभाव परिणमनका भी प्राप्त होते हैं। दोनों ही प्रकारके प्रत्यक जीव एक-जैसी शक्तियोके आधार हैं शुद्ध दशामे सभी मुक्त एक-जैमी शक्तियोंद्रव्यगतशक्ति के स्वामी बन जाते हैं और प्रतिममय अग्रण्ड शुद्ध धर्म, अधर्म. आकाश थे तीन द्रव्य एक एक है। परिणमनमे लीन रहते हैं । मंमारी जीवाम भी कालाणु असंख्यात है । प्रत्यक कालागुमे एक-जैसी मूलतः मी शक्तियाँ है। इतना विशेष है कि अभव्यशक्तियाँ है। बतना करनेकी जितने अविभागप्रतिच्छद- जीवोमे केवलनानादिशक्तियोके अविभावकी शक्ति वाली शक्ति एक कालाणुमें है वैसी ही दूसरं कालाणु- नहीं मानी जाती । उपर्युक्त विवेचनसे एक बात में। इस तरह कालाणुओंमें परस्पर शक्ति-विभिन्नता निर्विवादरूपसेम्पष्ट हो जाता है कि चाहे द्रव्य चेतन हा या परिणमन-विभिन्नता नही है।। या अचेतन, प्रत्येक मूलतः अपनी अपनी चेतनपुद्रलद्रव्यके एक अणुमें जितनी शक्तियाँ हैं उतनी अचेतन शक्तियोका धनी है उनमें कहीं कुछ भी न्यूनाही और वैमी ही शक्तियाँ परिणमन-योग्यता अन्य धिकता नहीं है। अशुद्धदशामे अन्य पर्यायशक्तियाँ पुद्गलाणुओमें हैं । मूलतः पुद्गल-अणुद्रव्योमे शक्तिभेद, भी उत्पन्न हो जाती हैं और विलीन होती रहती हैं। योग्यताभेद या स्वभावभेद नहीं है। यह सो सम्भव है परिणमनके नियतत्वकी सीमाकि कुछ पुद्गलाणु मूलतः स्निग्ध स्पर्शवाले हो और उपयुक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि द्रव्योमें परिदूसरं मूलतः रूक्ष. कुछ शीत और कुछ उष्ण, पर णमन होनेपर भी कोई भी द्रव्य सजातीय या उनके ये गुण नियत नहीं, रूक्षगुणवाला भी विजातीय व्यान्तररूपमें परिणमन नहीं कर सकता। स्निग्धगुणवाला बन सकता है तथा स्निग्धगुण- अपनी धारामें सदा उसका परिणमन होता रहता है। वाला भी रूक्ष। शीत भी उष्ण बन सकता है उष्ण द्रव्यगत मूल स्वभावकी अपेक्षा प्रत्येक द्रव्यके अपने भी शीत । तात्पर्य यह कि पुदलाणुओंमें ऐसा कोई परिणमन नियत हैं। किसी भी पुद्गलाणुके वे सभी जातिभेद नहीं है जिससे किसी भी पुद्गलाणुका पदलसम्बन्धीपरिणमन प्रतिसमय हो सकते हैं और पुद्रलसम्बन्धी कोई परिणमन न हो सकता हो । किमी भी जीवके जीवसम्बन्धी अनन्त परिणमन । पुद्रलद्रव्यके जितने भी परिणमन हो सकते हैं उन यह तो सम्भव है कि कुछ पर्यायशक्तियोसे सीधा सबकी योग्यता और शक्ति प्रत्येक पुद्गलागुगुमें स्व- सम्बन्ध रखनेवाले परिणमन कारणभूत पर्यायशक्तिभावतः है. यही द्रव्यशक्ति कहलाती है। स्कन्ध- के न होने पर न हों। जैसे प्रत्येक पुदलपरमारणु यद्यपि अवस्थामें पर्यायशक्तियाँ विभिन्न हो सकती है । जैसे घट बन मकता है फिर भी जबतक अमुक परमाणुकिसी निस्कन्धमें मम्मिलित परमाणुका उष्ण- स्कन्ध मिटीरूप पर्यायको प्राप्त न होंगे तबतक उनमें स्पर्श और तेजोरूप था. पर यदि वह अग्निस्कन्धसे मिटीरूप पर्यायशक्तिके विकाससे होनेवाली घटपयोय जुदा हो जाय तो उमका शीतस्पर्श तथा कृष्णरूप हो नहीं हो सकती। परन्तु मिट्टापर्यायसे होनेवाली घट. सकता है। और यदि वह स्कन्ध ही भस्म बन जाय सकोरा आदि जितनी पर्याय सम्भवित है वे निमित्ततो सभी परमाणुओंका रूप और स्पर्श आदि बदल के अनुसार कोई भी हो मकती हैं । जैसे जीवमें मकते हैं। __ मनुष्यपर्यायमें अग्यिसे देखनेकी योग्यता विकसित है ___सभी जीवद्रव्योंकी मूल स्वभावशक्तियों एक तो वह अमुक समयमें जो भी सामने आयेगा उसे जैसी हैं. ज्ञानादि अनन्तगुण और अनन्त चैतन्य- देखेगा। यह कदापि नियत नहीं है कि अमुक समयम Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ह] जैन अध्यात्म अमुक पदार्थको ही देखनेकी उसमे योग्यता है शेषकी पुराने संस्कारोंके परिणामस्वरूप कुछ ऐसे निश्चित नही या अमुक पदार्थ में उस समय उसके द्वारा ही कायकारणभाव बनाए जा सकते है जिनसे यह नियत देखे जानेकी योग्यता है अन्यके द्वारा नहीं। मतलब किया जा सकता है कि अमुक समयमें इस द्रव्यका ऐसा यह कि परिस्थितिवश जिम पर्यायशक्तिका द्रव्यमे परिणमन होगा ही पर इस कारणताकी अवश्यंविकास हुआ है उस शक्तिसे होनेवाले यावत्कार्योंमेंस भाविता सामग्रीकी विकलता तथा प्रतिबन्धकजिम कार्यकी मामग्री या बलवान निमित्त मिल जायेंगे कारणकी शून्यता पर ही निर्भर है। जैसे हल्दी और उसक अनुमार उसका वैसा परिणमन होना जायगा। चूना दाना एक जलपात्रमे डाले गय ना यह अवश्यंएक मनुष्य गह पर बैठा है उस समय उमम हॅमना- भावा है कि उनका लालरङ्गका पारणमन हा। एक गेना, आश्चर्य करना.गम्भीरतासे मोचना श्रादि अनेक बात यहॉ यह खासतौरमध्यानमे रखनेकी है कि अचेतन कार्योकी योग्यता है। यदि बहुरूपिया सामने आजाय परमाणुओंमें बुद्धिपूर्वक क्रिया नहीं हो सकती । और उसकी उसमें दिलचस्पी हो तो हंसनेरूप पर्याय उनमे अपने मंयोगांके आधारसे क्रिया तो हाती हो जायगी। कोई शोकका निमित्त मिल जाय तोसे रहती है। जैसे पृथिवीमे कोई बीज पड़ा हो तो मरदी भी सकता है। अकस्मात् बात सुनकर आश्चर्यमें डूब गरमीका निमित्त पाकर उसमें अंकुर आजायगा और मकता है और तत्त्वचर्चा सुनकर गम्भीरतापूर्वक वह पल्लवित, पुष्पित होकर पुनः बीजको उत्पन्न कर सोच भी सकता है। इसलिए यह समझना कि देगा। गरमांका निमिन पाकर जल भाप बन जायगा। प्रत्येक द्रव्यका प्रतिसमयका परिणमन नियत है उसमें पुनः भाप सरदीका निमित्त पाकर जलके रूपमे कुछ भी हेर-फेर नहीं हो सकता और न कोई हेर फेर बरमकर पृथिवीको शस्यश्यामल बना देगा । कुछ एसे कर सकता है, द्रव्यके परिणमनस्वभावको गम्भीरतासे भी अचेतन द्रव्योके परिणमन है जो चेतन निमित्तसे न सांचनेके कारण भ्रमात्मक है। द्रव्यगत परिणमन होते हैं जैसे मिट्टीका घदा बनना या रुईका कपड़ा नियत है अमुक स्थूलपर्यायगत शक्तियोंके परिणमन बनना । तात्पर्य यह कि अतीतके संस्कारवश वर्तमान भी नियत हो सकते हैं जो उस पर्यायशक्तिके अवश्यं- क्षणमे जितनी और जैसा योग्यताएँ विकसित होगी भावी परिणमनोमेंसे किसी एकरूपमें निमित्तानुमार और जिनके विकासके अनुकूल निमित्त मिलेंगे द्रव्योसामने आते हैं। जैसे एक अंगुली अगले समय टेढी का वैमा वैसा परिणमन होता जायगा। भविष्यका हो सकती है सीधी रह मकती है. टूट सकती है. घूम कोई निश्चित कार्यक्रम द्रव्योका बना हुआ हा सकती है. जैसी सामग्री और कारण-कलाप मिलेंगे और उसी सुनिश्चित अनन्त क्रमपर यह जगत चल उममें विद्यमान इन सभी योग्यताप्रामसे अनुकूल रहा हो यह धारणा ही भ्रमपूर्ण है। योग्यताका विकास हो जायगा । उस कारणशत्तिसे नियताऽनियतत्ववादवह अमुक परिणमन भी नियत कराया जा मकता है जैन दृष्टिसे द्रव्यगत शक्तियाँ नियत हैं पर उनके जिसकी पूरी सामग्री अविकल हो प्रतिबन्धक कारणको प्रतिक्षणके परिणमन अनिवार्य है। एक द्रव्यकी उम सम्भावना न हो ऐसी अन्तिमक्षणप्राप्त शक्तिमे ममयकी योग्यतासे जितने प्रकार के परिणमन हो वह कार्य नियत ही होगा पर इसका यह अर्थ कदापि मकते हैं उनमेंसे कोई भी परिणमन जिसके कि निमित्त नही है कि प्रत्येक द्रव्यका प्रतिक्षणका परिणमन और अनुकूल सामग्री मिल जायगी हो जायगा । सुनिश्चित है उसमें जिसे जा निमित्त हाना है नियनि- तात्पर्य यह कि प्रत्येक व्यकी शक्तियों तथा उनसे चक्रके पेटमें पड़कर ही वह उसका निमित्त बना होनेवाले परिणमनोकी जाति सुनिश्चित है। कभी भी रहेगा । यह अतिसुनिश्चित है कि हराएक द्रव्यका प्रति- पुद्गलके परिणमन जीवमे तथा जीवके परिणमन पुल समय कोई न कोई परिणमन होना ही चाहिए। में नहीं हो सकते । पर प्रतिममय कैमा परिणमन होगा Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ] अनेकान्त [वर्ष यह अनियत है। जिस समय जो शक्ति विकसित होगी पाकर इलाहाबादमें बदली और इलाहाबादकी गन्दगी तथा अनुकूल निमित्त मिल जायगा उसके बाद वैसा आदिके कारण काशीकी गङ्गा जुदी ही हो जाती है। परिणमन हो जायगा। अतः नियतत्व और अनियतत्व यहाँ यह कहना कि "गङ्गाके जलके प्रत्येक परमाणुका दोनो धर्म सापेक्ष हैं । अपेक्षाभेदसे सम्भव है। प्रतिसमयका सुनिश्चित कार्यक्रम बना हुआ है उसका नियतिवाद नहीं जिस समय परिणमन होना है वह होकर ही रहेगा" ___ जो होना होगा वह होगा ही. हमाग कुछ भी द्रव्यकी विज्ञानसम्मत कार्यकारणपरम्पराके प्रतिकूल है। पुरुषार्थ नहीं है. इस तरह के निष्क्रिय नियतिवादके 'जं जस्स जम्मि' आदि भावनाएं हैंविचार जैनतत्त्वस्थितिके प्रतिकूल हैं। जो द्रव्यगत स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामे सम्यग्दृष्टिके चिन्तनमें ये शक्तियाँ नियत हैं उनमें हमारा काई पुरुषार्थ नहीं. दो गाथाएँ लिखी हैंहमाग पुरुषार्थ तो कोयलेकी हीरापुर्यायक विकास जंजम्स जम्मि देसे जेण विहारोण जम्मि कालम्मि। कराने में है। यदि कोयलेके लिए उसकी हीरापर्यायके णादं जिणेण णियदं जम्मं व अहव मरणं वा ॥३२॥ विकासके लिए आवश्यक सामग्री न मिले तो या तो तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि । वह जलकर भस्म बनेगा या फिर खानिमें ही पड़े पड़े को चालेद सक्को इदो वा अह जिणि वा ॥३२२।। समाप्त हो जायगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि जिसमे अर्थात् जिसका जिस समय जहाँ जैसे जन्म या मरण उपादान शक्ति नहीं है उसका परिणमन भी निमित्त- होना है उसे इन्द्र या जिनेन्द्र कोई भी नहीं टाल से हो सकता है या निमित्तमें यह शक्ति है जो निरु- सकता. वह होगा ही। पादानको परिणमन करा सके। इन गाथाओंका भावनीयार्थ यही है कि जो जब उभय कारणोंसे कार्य होना है होगा उसमें काई किसीका शरण नहीं है आत्मनिर्भर रहकर जो आवे वह सहना चाहिए । इस कार्योत्पत्तिके लिए दोनों ही कारण चाहिएँ उपा तरह चित्तसमाधानके लिए भाई जानेवाली भावदान और निमित्त; जैसा कि स्वामीसमन्तभद्रने कहा नाओसे वस्तुव्यवस्था नहीं हो सकती । अनित्यहै कि “यथा कार्य बहिरन्तरुपाधिभिः' अर्थात् कार्य भावनामें ही कहते है कि जगत स्वप्नवत् है इसका बाह्य-श्राभ्यन्तर दोनो कारणोसे होता है। यही अनाधनन्त वैज्ञानिक कारण-कार्यधारा ही द्रव्य है जिसमें अर्थ यह कदापि नहीं कि शून्यवादियोंकी तरह जगत् पदार्थोंकी सत्तासे शून्य है बल्कि यही उसका तात्पर्य है पूर्वपर्याय अपनी सामग्रीके अनुसार सदृश, विमहश. कि स्वप्नकी तरह वह आत्महितके लिए वास्तविक कार्यअर्धसदृश, अल्पसदृश श्रादिरूपसे अनेक पर्यायोकी कारी नहीं है। यहाँ सम्यग्दृष्टिके चिन्तन-भावनामें उत्पादक होती है। मान लीजिए एक जलबिन्दु है. स्वावलम्बनका उपदेश है। उससे पदार्थव्यवस्था नही उसकी पर्याय बदल रही है, वह प्रतिक्षण जलबिन्द रूपसे परिणमन कर रही है पर यदि गरमीका निमित्त की जा सकती। मिलता है तो तुरन्त भाप बन जाती है। किसी मिट्टी- सबसे बड़ा अस्त्र सर्वज्ञत्वमें यदि पड गई तो सम्भव है पृथिवी बन जाय । यदि नियतिवादी या तथाक्त अध्यात्मवादियोंका सबसे साँपके मुंहमे चली गई जहर बन जायगी। तात्पर्य बड़ा तर्क है कि सर्वज्ञ है या नहीं? यदि मर्वज्ञ है यह कि एकधारा पूर्व-उत्तर पर्यायोंकी बहती है उसमें तो वह त्रिकालज्ञ होगा अर्थात भविष्यज्ञ भी होगा। जैसे जैसे संयोग होते जायेंगे उसका उस जातिमें परि- फलतः वह प्रत्यक पदार्थका अनन्तकाल तक प्रतिक्षण णमन हो जायगा। गङ्गाकी धारा हरिद्वारमं जो है वह जो होना है उसे ठीकरूपमें जानता है। इस तरह कानपुरमें नहीं. और कानपुरकी गटर आदिका संयोग प्रत्यक परमाणुकी प्रतिसमयकी पर्याय सुनिश्चित है Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ह] जैन अध्यात्म [३३६ उनका परस्पर जो निमित्तनैमित्तिकजाल है वह भी होना था। माना जगनके परिणमनाको ऐसा ही होना उसके ज्ञानके बाहिर नहीं है। सर्वज्ञ माननेका दूसरा था' इम निर्यात भगवतीने अपनी गोदमे लेरग्बा हो। अर्थ है नियतिवादी होना । पर, आज जो सर्वज्ञ नहीं अध्यात्मकी भकर्तृत्व भावनाका उपयोगमानते उनके सामने हम नियनिचक्रको कैसे सिद्ध कर ___ तब अध्यात्मशास्त्रकी अकर्तृत्वभावनाका क्या मकत है ? जिम अध्यात्मवादके मूलमें हम नियति- . अर्थ है ? अध्यात्ममे ममस्त वर्णन उपादानयोग्यताक वादको पनपाने है उम अध्यात्मपिसे मर्वज्ञता व्यव आधारमे किया गया है। निमित्त मिलानेपर यदि हारनयको अपेक्षासे हैं । निश्चयनयसे तो आत्मज्ञतामें उपादानयोग्यता विकमित नहीं होती. कार्य नहीं हो ही उमका पर्यवसान होता है जैसाकि स्वयं आचाय सकेगा । एक ही निमित्त-अध्यापकसे एक छात्र प्रथम कुन्दकुन्दने नियमसार (गा. १५८)मे लिखा है श्रेणीका विकाम करता है जबकि दृमग द्वितीय श्रेणी"जाणदि पस्सदि सव्वं व्यवहारणएण केवली भगवं । का और तीमरा अज्ञानीका अज्ञानी बना रहता है। केवलणाणी जाणदि पम्सदि णियमण अप्पाणं ॥" अतः अन्ततः कार्य अन्तिमक्षणवर्ती उपादानअर्थात केवली भगवान व्यवहारनयसे सब पदार्थांका योग्यतास ही होता है। हॉ. निमित्त उस योग्यताको जानन देखते हैं । निश्चयसे केवलज्ञानी अपनी विकासोन्मुख बनाते हैं. तब अध्यात्मशास्त्रका कहना आत्माको जानता देखता है। है कि निमित्तका यह अहङ्कार नहीं होना चाहिए कि अध्यात्मशास्त्रमें निश्चयनयकी भूतार्थता और पर. हमने उसे ग्मा बना दिया. निमित्तकारणका मांचना मार्थता तथा व्यवहारनयकी अभूताथतापर विचार चाहिए कि इसकी उपादानयोग्यता न होती तो मैं करनेसे तो अध्यात्मशास्त्रमे पूर्णज्ञानका पर्यवमान क्या कर मकता था अतः अपने मे कतृ त्वजन्य अन्तनः आत्मज्ञानमे ही होता । अतः सर्वज्ञत्वकी अहङ्कारके निवृत्तिके लिए उपादानमे कतत्वकी दलालका अध्यात्मचिन्तनमूलक पदार्थव्यवस्थामे उप- भावनाका दृढमूल करना चाहिए ताकि परपनार्थयोग करना उचित नहीं है। कर्तृत्वका अहङ्कार हमारे चित्तमे आकर रागद्वेषकी नियतिवादमें एक ही प्रश्न एक ही उत्तर सृष्टि न करे । बड़ेसे बड़ा कार्य करके भी मनुष्यका यही सोचना चाहिए कि मैने क्या किया ? यह तो नियतिवादमे एक ही उत्तर है ऐमा ही होना था, उसकी उपादानयोग्यताका ही विकास है मै नो एक जो हाना हागा सो होगा हा इसमे न कोई तक है. न साधारण निमिन ई । “क्रिया हि द्रव्यं विनयति कोई पुरुषार्थ और न कोई बुद्धि । वस्तुव्यवस्थामे इस नाद्रव्यं' अर्थान क्रिया योग्यमें परिणमन कराती है प्रकारके मृत विचारीका क्या उपयोग ? जगतमें अयोग्यमें नहीं । इस तरह अध्यात्मकी अकतृत्वविज्ञानसम्मत कार्यकारणभाव है । जैमी उपादान- भावना हमें वीतरागताकी ओर ले जानेके लिए है। योग्यता और जो निमित्त होगे तदनुमार चेतन-अचे न कि उसका उपयांग नियतिवादके पुरुषार्थ विहीन तनका परिणमन होता है। पुरुषार्थ निमित्त और कुमार्गपर लेजानेको किया जाय । अनुकूल सामग्रीके जुटानेमे है । एक अग्नि है पुरुषार्थी यदि उसमें चन्दनका चूग डाल देता है तो समयसारम निमित्ताधानउपादान पारणमनसुगन्धित धुआँ निकलेगा, यदि बाल आदि डालता है ममयसार (गा०८६-८८)मे जीव और कर्मका तो दुर्गन्धित धूआँ उत्पन्न होगा । यह कहना कि चूग- परम्पर निमित्तनाम को उममे पड़ना था. पुरुपको उसमे डालना था. अग्निका है किउमे ग्रहण करना ही था। इसमे यदि कोई हर-फर "जीवपरिणामहंदु कम्मत्त पुग्गला परिणमंति । करता है तो नियतिवादीका वहीं उत्तर कि नया ही पग्गलकम्मणिमित्त तहब जीवो वि परिणमदि। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ] अनेकान्त [ वर्ष ण वि कुव्वदि कम्मगुरोजीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । और हमे यह उत्तर देना ही था। ये सब बातें न अगणोराणिमित्तण दु कत्ता आदा सारण भावेण ॥ अनुभव सिद्ध कार्यकारणभावके अनुकूल ही हैं और पुग्गलकम्मकदाणं रण दु कत्ता सव्वभावारणं ॥ न तकसिद्ध। अर्थात जीवक भावोके निमित्तसे पगलांकी कर्मम्प वहारपर्याय होती है और पुदलकति निमित्तसे जीव निश्चयनय वस्तुकी परनिरपेक्ष स्वभूत दशाका रागादिरूपम परिगणमन करता है। इतना समझ लेना वर्णन करता है। वह यह बतायगा कि प्रत्येक जीव चाहिए कि जीव उपादान बनकर पुद्गलके गुणरूपमे स्वभावसे अनन्तज्ञान-दर्शन या अखण्ड चैतन्यका परिणमन नहीं कर सकता और न पुगल उपादान पिण्ड है। आज यद्यपि वह कर्मनिमित्तसे विभाव बनकर जीवके गुणरूपसे परिणति कर सकता है। परिणमन कर रहा है पर उसमें स्वभावभूत शक्ति हॉ. परम्पर निमित्ननमितिक सम्बन्धक अनुमार अपने प्रचण्ड निर्विकार चैतन्य होनेकी है। व्यवदानोका परिणमन होता है। इस कारण उपादानोष्ट- हारनय परसाक्षेप अवस्थाओंका वर्णन करता है । मे आत्मा अपने भावोंका कर्ता है. पुद्गलके ज्ञाना वह जहॉ आत्माको पर-घटपटादि पदार्थोके कतृत्वके वरणादिरूप द्रव्यकमात्मक परिणमनका कत्ता नहीं है। वर्णनसम्बन्धी लम्बी उड़ान लेता है वहाँ निश्चयनय ___ इस स्पष्ट कथनम कुन्दकुन्दाचार्यकी कर्तृत्व- गगादि भावोके कर्तृत्वको भी प्रात्मकोटिमे बाहर अकर्तृत्वकी दृष्टि समझमे आ जाती है। इसका निकाल लेता है और आत्मानो अपन शुद्ध भावांका ही विशद अर्थ यह है कि प्रत्येक द्रव्य अपने परिणमनमे की बनाता है अशद्ध भावांका नहीं । निश्चयनयकी उपादान है दसग उसका निमित्त हो सकता है उपा- भतार्थताका तात्पर्य यह है कि वही दशा आत्माक लिग दान नहीं। परम्पर निमित्नम दाना उपादानोका अपने वास्तविक उपादेय है. परमार्थ है. यह जो गगादिम्प अपने भावरूपसे परिणमन होता है। इसमें निमित्त- विभावपरिणति है यह अभूनाथ है अर्थात आत्माके नैमित्तिकभावका निषेध कहाँ है? निश्चय हटिसे पर- लिए उपाय नहीं है इसके लिए वह अपरमार्थ है निरपेक्ष आत्मस्वरूपका विचार है उममें कतृत्व अग्राह्य है। अपने उपयोगरूपम ही पयमित हाना है। अतः कुन्दकुन्दके मतमे द्रव्यम्वरुपका अध्यात्ममे वही निश्चयनयका वर्णन हमारा लक्ष्य हैनिरूपण है जो आगे समन्तभद्रादि प्राचार्याने अपने निश्चयनय जो वर्णन करता है कि मै सिद्ध हूँ अन्यामे बताया है। बुद्ध है निर्विकार हे निष्कषाय हूँ यह सब हमारा लक्ष्य है। इसमे है के स्थानमें हो सकता हूँ' यह प्रयोग मूलमें भूल कहां ?-- भ्रम उत्पन्न नहीं करंगा । वह एक भाषाका प्रकार है। __ इममे कहाँ मूलमे भूल है ? जो उपादान है वह जब साधक अपनी अन्तर्जल्प अवस्थामे अपने ही उपादान है जो निमिन है वह निमित्त ही है। कुम्हार आत्माको मम्बोधन करता है कि हे आत्मन. तू तो घटका कनों है यह कथन व्यवहार हो सकता है। स्वभावसे मिद्ध है बुद्ध है, वीतराग है, आज फिर कारण. कुम्हार वस्तुतः अपनी हलन-चलनक्रिया यह तेरी क्या दशा हो रही है तू कषायी और अज्ञान तथा अपने घट बनाने के उपयोगका ही कर्ता है, उसके बना है। यह पहला सिद्ध है बुद्ध है वाला' अंश दूसरे निमिनमे मिट्टीके परमागामें वह श्राकार उत्पन्न हो 'आज फिर तेरी क्या दशा हो रही है तू कषायी जाता है। मिट्टीका घड़ा बनना ही था और कुम्हारके अज्ञानी बना है। इस अंशसे ही परिपूर्ण होता है। हाथको वैमा होना ही था और हमे उसकी व्याख्या इस लिए निश्चयनय हमारे लिए अपने द्रव्यगतगमी करनी ही थी. आपको ऐसा प्रश्न करना ही था मूलम्वभावकी ओर संकेत कराता है जिसके बिना Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६] तीन चित्र [३४१ हम कषायपङ्कसे नहीं निकल सकते । अतः निश्चय- की आवाज अब फिरसे उठी है और वह भी कुन्द नयका सम्पूर्ण वर्णन हमारे सामने कागजपर मोटे कुन्टके नामपर। भावनीय पदार्थ जुदा हैं उनसे मोटे अक्षरोंमें लिखा हुश्रा टॅगा रहे ताकि हम अपनी तत्त्वव्यवस्था नहीं होती यह मै पहले लिख चुका हूँ। उम परमदशाको प्राप्त करनेकी दिशाम प्रयत्नशील यो ही भारतवर्षने नियतिवाद और ईश्वरवादके रहे। न कि हम तो सिद्ध है कर्मासे अस्पृष्ट हैं यह कारण तथा कर्मवादके स्वरूपको ठीक नही समझनेके मानकर मिथ्या अहङ्कारका पोषण करें और जीवन- कारण अपनी यह नितान्त परतन्त्र स्थिति उत्पन्न चारित्र्यस विमुख हो निश्चयकान्तरूपी मिथ्यात्वको कर ली थी । किसी तरह अब नव-स्वातन्त्र्योदय बढ़ावें। हुआ है। इम युगमें वस्तुतत्त्वका वह निरूपण हो जिमसे सुन्दर समाजव्यवस्था-घटक व्यक्तिका निर्माण ये कुन्दकुन्दके अवतार हो।धर्म और अध्यात्मके नामपर और कुन्दकुन्दाचार्यमानगढ़में यह प्रवाद है कि श्रीकानजीस्वामी के सुनामपर आलस्य-पापक नियतिवादका प्रचार न कुन्दकुन्दके जीव हैं और वे कुन्दकुन्दके समान ही हो। हम सम्यक तत्त्वव्यवस्थाका समझे और मद्गुरुरूपसे पुजते हैं। उन्हें सद्गुरुभक्ति ही समन्तभद्रादि प्राचार्योंके द्वारा परिशीलित उभयमुखी विशिष्ट आकर्षणका कार्यक्रम है। यहॉसे नियतिवाद- तत्त्वव्यवस्थाका मनन करें। -भारतीयजानपीट काशी। तीन चित्र (लेग्बक-श्रीजमनालाल जैन, माहिल्यग्न्न ) दग्बनेकी वस्तु दीख विना कैमे रह ' परन्तु यदि उठी है । काई उमे देख नहीं पाता ता वस्तुका क्या दाप' और पर? जो नहीं देखना चाहता उसे भी कम दाप दिया जाय? पर वह अपने आपमे अकेला है, अनन्त मे ही कई प्रश्रोका लेकर मै हैरतमे पड़ गया है।.. आकाश तथा विस्तृत वसुधाके बीच उसका अस्तित्व एक कलाकार है। उसने अपनी मानमिक अधरताका प्रतीक है। उमका ऐसा कोई नहीं जा उसे भूमिकापर गहराई तथा वेदनाको अनुभूतियोका बल अपना कह सके, काई नहीं जो उसको निन्दा करनेकी पाकर अपने पॉव स्थिर किये हैं और जगतको अपनी मामर्थ्य रख सके । प्रकृतिके जिन कुरूप-सुरूप साधना द्वारा सत्य शिव तथा सुन्दरकी अभिव्यक्ति उपादानोका. ज्यातिमण्डलके प्रकाशमान नक्षत्रोको. दी है। उसकी रेखा-रेखामे, शब्द-शब्दम. कल्पनाके नद-नदी-निर्भगका उमने अविभाज्य प्यार किया. कण-कणमें कविताकी लहर-लहरमें जीवन बोल रहा अपनेमे श्रात्म-सान किया. क्या वे भी उमम दूर नहीं है. गा रहा है नाच रहा है। पढ़ते. सुनते तथा देखते है ? उमके एकाकी. निरीहपनको अनुभव कर शायद समय ऐसा लगता है मानो प्रत्यक प्राणीकी श्रात्म- यह सब भी अपनी विवशताओंका. दुर्बलताओंको देख. पुकार उसकी अपनी व्यथामें समाहित हो गई है। आँखोसे ओझल हो जाते रहते है। और वह है जो अपना उसकी कला विश्वमानवताकी प्रतीक. प्रतिनिधि हो कार्य अनवरत किये जा रहा है। विश्वकी मानवताको Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. ] अनेकान्त [ वर्ष प्रकाश देनेवाला वह, शायद अपने प्रति अंधकारके परन्तु एक और है तीसरा चित्र सिवा किमीकी कल्पना भी नहीं कर पा रहा है। ___ यह ? यह कौन ? जिसे अपनी ही सुध नहीं है. अपने अस्तित्व तकसे बेखबर है. क्या ऐमा व्यक्ति दुनियादार हो ___ हॉ. यह आदमी है आदमी। यह न कलाकार है सकता है ? और जो दुनियादार नहीं है. उस विश्व न दुनियादार । यह तो वह है जो कलाके पीछे पड़कर वेदनासे व्यथित मानवको दुनियामे रहनेका क्या न दुनियासे दूर हटना चाहता है. न कुशलताका अधिकार है ? आश्रय लेकर दुनिया में रहना चाहता है। यह यशमे भागता है. पर वह उसके पीछे दौड़ता है। दुनियाको एक दूसरा चित्र वह छोडना चाहता है. वह उसे नहीं छोड़ना चाहती। एक लेग्यक है. जो वक्ता भी है। शरीरसे सुन्दर, इमन विश्वके लिए अपनेको निर्मोही बना लिया है, वाणीमे माधुर्य । श्राँग्खामे चपलता. कार्यमे कुशलता। पर उसके प्रति मोह बढ़ता जाता है। दुनियादारने पॉवोमें स्फति, अंगुलियोंमें चुटकी। कला और साधना पूछा, उत्तर मिला मै कलाकार हूँ। कलाकारका उत्तर ऋषियोंकी थाथी है. हमें तो चाहिए पैमा। पैसा मिले मिला कि वह दुनियादार है। लेकिन वह स्वयं कहता इसी लिए लिखते है। लिखा कि टोली तैयार है. और जानता नहीं कि वह क्या है। बड़ा अजीब अग्वबारवाले मित्र है। व्यवसायी है तो विज्ञापनका मामला है। श्रीर माधना बाजार गर्म है। मभा-मोमाइटी. चाय-पार्टी. मीटिङ्ग- माधना साधना क्या ? वह स्वयं नही जानता वीटिङ्ग. गप-शपमे उन्हें सबके आगे देखा जा सकता कि उसकी साधना क्या है। उसे अचरज है कि मब है। दिग्वानवाले माथ ही जा रहते है। उसके पीछे हाथ धोकर क्यो पड़े है। कहता है कि मैं __ यो तादात्म्य किसी वस्तुसे नहीं. पर जा बैठे तो कुछ नहीं। किसीका उसे कुछ नहीं चाहिए सब तो सबके ऊपर । पत्रिकाओने छापा. नेताओंका आशीर्वाद छाड़ दे रहा है । लो यह फेका, फेंक ही तो दिया। मिला. वाणीकी कुशलताने कानोंको आनन्द दिया. लोगोने कहा नहीं जी यह पक्का कलाकार है. पूरा रुप और ऑघोकी मोहकताने विश्वास दिलाया और साधक है। देखो न, कैसी सीधी पर चुभने वाली बातें यो मान लिए गये चाटीके कलाकार । नाम बढ़ा, यश करता है ! क्या ऐसा-वैसा दुनियादार इतनी गहरी मिला और धन भी घरमें आने लगा। कह सकता है । यह जीवनका कलाकार है। लेकिन ? हॉ. है. होगा। पर' लेकिन कौन जानता है भीतर क्या है ! इतना पर उसके भीतरका कौन जान पाया है ? उसने नाम, यश श्रीर धन पल्ले पड़नेपर भी ऐसी कौन-सी अब तक कहा, सुना तथा समझाया। माना किसीने शक्ति है जो भीतर ही भीतर चोट कर रही है. पीडित नहीं। क्या माने? कर रही है। पर दमरोंको इससे क्या। इसे अपनी सुध है, दृसगेंकी हो तो हो। हीङ्ग लगे न फिटकरी रङ्ग चोखा लानेमे कुशल तो वे हैं ही। ऐसे ही चित्र प्रथम ?-दुख. किन्तु स्वयंके लिए सुख । श्रादमी तो होते हैं दुनियादार । हॉ. साहब इन्हें चित्र द्वितीय -सुग्व, किन्तु अन्तमें दुख । ही होता है अधिकार कि वे दुनियामें रहें। चित्र तृतीय-मुख-दुखकी आँख-मिचौनी। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दीके दो नवीन महाकाव्य (मुनि कान्तिसागर) "मुझे जैनोंके प्रति कोई विशेष प्रकारका पक्षपात सम्मुख रहना ही चाहिये । एवं जिस भाषाका युग नही है क्योंकि मानवमात्र मेरे लिए समान है। मैं होगा उसीमें उसे अपनी भाव-धारा मिला देनी होगी। जैनकुलमें पैदा हुआ हूँ इससे कुछ मोह अवश्य है। युगके साथ रहना है तो नूतन साहित्य सृजन करना अतः कहनेमें आ जाता है। हमारा जैनसमाज अपनी ही होगा जो मानसिक पौष्टिक खाद्यकी पूर्ति कर सके। साम्प्रदायिक सीमाओंकी रक्षाके लिए प्रतिवर्ष पर्याप्त जैन साहित्यका अन्वेषण करनेसे स्पष्ट हो जाता धन व्यय करता है। यदि उसमेंसे दशांश भी है कि जैन विद्वानोने सदैव अपने विचारोको रखने में साहित्यिक कार्य में या कोई जनकल्याण कार्य, स्थायी सामयिक भाषाओका अपनी कृतियोंमें बड़ी उदारताकार्योमे व्यय करे तो कितना अच्छा हो भगवान महा से उपयोग किया है। यही कारण है कि आज प्रान्तीय वीरकी सैद्धान्तिक प्रणालीके अनुसरण करने तक में भाषाओका साहित्य-भण्डार जैनकृतियोसे चमक रहा हम पश्चातपाद-से प्रतीत हा रहे है। हमारा प्राचीन है। जैन विद्रोग्य एवं लोकभाग्य साहित्यके मना साहित्य ऐसा है जिसपर न केवल, हम भारतीय ही. थे। यदि स्पष्ट शब्दोंमे कह दिया जाय कि "भारतीय अपितु सारा संसार गर्व कर सकता है। जब वर्तमान भाषाओंके संरक्षण और विकासमे जैनाने बहुत बड़ा जैनमाहित्यको देखते हैं तो मनमें बड़ी व्यथा योगदान किया है ।" तो अत्युक्ति न होगी। परन्तु होती है।" वर्तमानमें जैनसमाजका बहुत बड़ा भाग उपयुक्त हिन्दीके सुप्रसिद्ध लेग्वक और कुछ अंशोंमें चिन्तक परम्पराके परिपालनमे असमर्थ प्रमाणित हो रहा है बाबू जैनेन्द्रकुमार जैन गत माम कलकत्ता जाते समय अर्थात् वह राष्ट्रभाषा हिन्दीकी उपेक्षा कर रहा है। पटनामे ठहरे थे । उस समय आपने मर सम्मुख जिस समय जिस भाषाका प्रावल्य हो उसीमें प्रसारित जैनसमाजकी दान-विषयक भीषण अव्यवस्थाक. सिद्धान्त ही सर्वप्राय हो सकते है। आज कहानी, नग्न चित्र बड़े ही मार्मिक शब्दोमें उपस्थित करते हुए उपन्यास और कविताकी चारो ओर धूम मची हुई उपर्युक्त शब्द कहे। . है। गम्भीर साहित्यके पाठकोंकी संख्या अपेक्षाकृत श्रीजनेन्द्र जीके शब्दों में कितनी वेदना भरी हुई है। अत्यल्प है। अतः क्यो नहीं उन्हीके द्वारा जैनअखण्ड सत्य चमक रहा है। हम प्राचीनतापर फले संस्कृतिके तत्वोंका प्रचार किया जाय । इमसे दो नही समाते. परन्तु वर्तमानपर लेशमात्र भी विचार लाभ होंगे-आम जनता जैनसंस्कृतिके हृदयका तक नहीं करते जो वह भी एक दिन प्राचीन होकर सरलतासे पहिचानेगी एवं हिन्दी साहित्यकी श्रीवृद्धि रहेगा। अतः वर्तमान जैनसमाजपर साहित्यिक दृष्टि- होगी। हमें प्रसन्नता है कि बनारससे श्रीयत बालसे विचार करना अत्यन्त वांछनीय है। समाजको चन्द्र जैन आदि कुछेक उत्साही युवकोंने वैसा प्रयास उच्च स्तरपर सामयिक साहित्य ही ले जा सकता है। चालू किया है। हम यहॉपर उन बन्धुओंका स्वागत प्रत्येक युग अपनी-अपनी समस्याएँ रखते हैं। इनकी करते हैं और भविष्यके लिए आशा करते हैं कि वे उपेक्षा करना हमारे लिए घातक सिद्ध होगा। युवक- अपनी धाराका शुष्क न होने देंगे। वर्ग क्या चाहता है यह प्रश्न साहित्य-निर्माताके विहारके प्रथम पंक्तिक कवियोंमें कविसम्राट Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४] अनेकान्त [वर्ष श्रीरामधारीसिंह 'दिनकर'का स्थान अत्यन्त महत्व- कवियो द्वारा प्रशंसित हैं। स्वर्ण-सीता. मीरा-दर्शनपूर्ण और उच्च है। आपकी समस्त रचनाओंपर हमें (दीशशिखाके तौरपर) विद्यापति आदि रचनात्रोने आलोचना लिखनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है । उसपर- जनताके हृदयपर बड़ा गहरा स्थान प्राप्त कर लिया है। से हम कह सकते है कि दिनकरजीमें कल्पनाशक्ति श्राप अब भगवान महावीर और स्थविर स्थूलभद्र और सूक्ष्मतम प्रतिभाका अद्भुत सामंजस्य है। भाषा- एवं गणिका कोशापर दो महाकाव्य प्रस्तुत करने जा में आवश्यक प्रवाह न होते हुए भी ओजको लिए रहे हैं । कल्पनामें नाविन्य और आध्यात्मिकता है जो कविकी खास सम्पत्ति होती है। अभी आप आपकी खाम विशेषता है। आप चित्रकार होने के विहार सरकारके डिप्टी डायरेकर ऑफ पब्लिसिटि कारण कुछ चित्रका भी निर्माण करेंगे। अरिष्टनेमिहैं। अतः साहित्यिक साधना शिथिल गतिसे चलती परं भी एक काव्य वे लिखना चाहते हैं, पर यह है। बुद्धदेवपर आपने बहुत कुछ लिखा है। वह भी विचाराधीन है। अधिकारपूर्ण ! इन दिनों हमारा उनसे प्रायः मिलना उपर्युक्त काव्य भले ही अजैन विद्वान् कवियो होता ही रहता है । बातचीतके सिलसिलेमे यूहीं द्वारा निर्मित हो पर मेरा विश्वास है कि उनमें जैन आपने एक दिन कहा-"भगवान बुद्धपर तो काव्य संस्कृतिके प्रति लेशमात्र भी अन्याय न होगा, तथा लिखे गये । गुप्तजीने बुद्ध, अल्ला-कल्लापर तो लिखा, कथित कवियों द्वारा निर्माण करवानेका हमारा केवल परन्तु महावीरपर तो एक भी काव्य आज तक नहीं इतना ही ध्येय है कि उनका विहारमे अपना स्वतन्त्र लिखा गया। यह भी एक आश्चर्य ही है। यदि कोई स्थान है और सार्वजनिकरूपमे इनकी रचनाएँ ममात प्रयास करे तो क्या ही अच्छा हो ?” हमने कहा, की जाती है अतः नवीन महाकाव्यो द्वारा जितना अच्छा "सबसे अच्छा तो यही होगा कि आप ही के द्वारा व्यापक प्रचार होगा उतना शायद जैन कविकी रचनाका यह कार्य सम्पन्न हो। जब बुद्धपर आपने लिखा ता न हो, इसका अर्थ यह नहीं कि जैन कवियोमे वह महावीरपर क्यो नहीं। वे भी तो आप ही के प्रान्तकी क्षमता नहीं जो जानतिक अभिरुचिको अपनी ओर महान विभूति थे ? अतः श्रापका कर्तव्य हो जाता है आकृष्ट न कर सकें। परन्तु प्रासङ्गिक रूपमें इतना कि भारतीय संस्कृतिके अद्भुत प्रकाशस्तम्भस्वरूप तो मुझे निःसंकोच भावसे कहना पड़ेगा कि ऐसे जैन वर्धमानपर श्रद्धाञ्जलिस्वरूपमें ही कुछ लिखें।" विद्वान् कम है जिनके नाममात्रसे जनता प्रभावित हो। जैनसमाजका सौभाग्य है कि दिनकरजीने श्रमण वैसी पृष्ठभूमि तैयार करना जरूरी है । श्रावीरेन्द्रभगवान महावीरपर एक महाकाव्य लिखना स्वीकार कुमार उपयुक्त पंक्तियोके अपवाद है। मैंने देखा कर लिया है। शीघ्र ही कार्यारम्भ होगा। दिनकरजी जनतामें उनकी रचनाकी बड़ी प्रतीक्षा रहती है। महावीरके ही वंशज हैं। अतः उनका कर्तव्य है। हम उनमे प्रतिभा है। उनका हार्दिक स्वागत करते है और उनसे भविष्यके हम तो और प्रान्तीय जैन जनतासे अनुरोध लिये आशा करते हैं कि जैनसंस्कृतिके उन तत्वोको वे करेंगे कि वे अपने प्रान्तके प्रसिद्ध कवि, औपन्यासिक अपनी कविताका माध्यम बनावेंगे जिनका सम्बन्ध और कहानीकारोको जैन साहित्य अध्ययनके लिये विहारसे है या था। देकर उनसे जैन संस्कृतिपर प्रकाश डालनेवालासाहित्य विहारके उदीयमान कवियोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं- तैयार करवाया जाय तो बहुत बड़ा काम होगा। 'अरुण, जिनपर प्रान्तवासी मुग्ध है । वे मर्वोच्च पटना, ता० १०-१०-१९४८ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा-संग्रहालयकी महत्त्वपूर्ण जैन पुरातत्त्व-सामग्री (श्रीबालचन्द्र जैन एम० ए०, संग्रहाध्यक्ष 'जैनसंग्रहालय सोनागिर') बकवास रा-कता मथुराका महत्व कोई स्थान नहीं रह जाता कि प्राचीनकालमें जैनोंमें पुरातन कालमे मथुरा और उसके आसपास भी स्तूपो और चैत्यांकी पूजाका प्रचलन था। हिन्दू, जैन और बौद्ध तीनों धर्मोकी त्रिवेणी बहती थी । जनतापर तीनों धर्मोके विचारो और मान्यताओं- मथुराकी जैनकला बौद्धकलाकी भाँति ही कुषाण का अच्छा प्रभाव था और उनके केन्द्र-स्थानोकी और गुप्त राजाओके समयमें क्रमशः विकसित होती स्थितिसे विदित होता है कि उस समय तीनो धर्मोके गई। इन दोनों युगोंकी जैन और बौद्ध मूर्तियों एवं माननेवाले पारस्परिक विद्वेषसे परे थे । वर्तमान अन्य शिल्पके तक्षणमे कोई विशेष अन्तर न था। खुदाईसे यह स्पष्ट ज्ञात हो गया है कि मथुरा केन्द्र मही बात तो यह है कि कला कभी किमी सम्प्रदायआपसी द्वेप और कलहके कारण नष्ट नहीं हुआ था विशेषके नामसे विकसित हुई ही नहीं। इस लिए बल्कि किसी भयङ्कर विदेशी आक्रमणकी बर्बरता जैनधर्म या मम्प्रदायके नामपर कलाका विभाजन और उनकी तहमनहस नीतिका शिकार बनकर ही करना उचित नहीं प्रतीत होता । कलाका विकास यह भूगतवासी बन गया। मथुराकी संस्कृति और कालके अनुसार होता है। और जो मूर्ति या मन्दिर वहाँके पुरातत्त्वको नष्ट करनेवाली जाति हूण थी जो जिस कालमें निर्मित होते हैं उनपर उस कालका अपनी बर्बरता और असंस्कृतपनेके लिए प्रसिद्ध है। प्रभाव अवश्य रहता है चाहे वे जैन हो या बौद्ध या उनसे भी जो कुछ बचा रहा वह मूर्तिपूजाके विरोधी अन्य काई । यही कारण है कि जैन और बौद्ध स्तूपोंके मुमलमानोकी ऑखोसे न बच सका और अन्ततोगत्वा तोरण, वेदिका आदिमें समानता है। मथुराकी वह कला सदाके लिए विलीन हो गई। डाकर बूलरका मत है: जैन इतिहासमें मथुराका एक ही स्थान है। "The early art of the Jains did not दिगम्बर सम्प्रदायका तो यह गढ़ था. प्राचीन भागमो differ materially from that of the और सिद्धान्तग्रन्थोंकी भाषा मथुगकी शौरसेनी Buddhists. Indeed art was never प्राकत ही है. अनेक विहार और श्रमणसंघ मथुग- communal. Both sects used the same क्षेत्रमें स्वपरकल्याणमें प्रतृवृ थे। प्राचीनतम जैन ornaments, the same artistic motives मूर्तियाँ मथुरासे ही प्राप्त हुई है । और जितनी अधिक and the same sacred symbols, diffeसंख्यामें सुन्दर और कलापूर्ण मूर्तियाँ और शिल्प rences occuring chiefly in minor points यहाँके कङ्काली टीलेकी खुदाईमे प्राप्त हुए है उतने only. The cause of this agreement is किसी भी अन्य स्थानसे प्राप्त नहीं हुए। in all probobility not that adherents प्राप्त लेखों और पायागपट्टोपर बनी हुई प्रतिकृति- of one sect immitated those of the से यह प्रमाणित हो गया है कि ईमासे दूसरी शती others, but that both drew on the पूर्व मथुरामें एक विशाल जैन स्तूप था जो बौद्ध national art of India and employed स्तूपांकी भॉति सुन्दर वेदिका. तोरण आदिसे सुसज्जित the same artists." था। इस विशाल स्तूपके उल्लेखसे अब इसमें शङ्काको Epigraphia Indica Vol.II Page 322. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ३४६ ] कङ्काली टीलेसे प्राप्त वेदिकास्तम्भ आदिका निर्माणकला बौद्धस्तूपोंके वेदिका स्तम्भों आदिकी कला ही जोडकी है। प्राचीनतामें भी जैनकला बौद्धकलासे पिछड़ी नहीं है, यह कङ्काली टीलासे प्राप्त लेखोंमें जैनस्तूपके उल्लेख से प्रमाणित हो जाता है । कुषाणोंके राज्यकालमें ही मथुराकी कलाका प्रभाव चारों कोनोंमें फैल गया था । सारनाथ, कौशाम्बी, सांची आदि स्थानोसे मूर्तियोकी मांग आती थी और मथुरा उसकी पूर्ति करता था । अन्य स्थानों के तक्षक और मूर्तिनिर्माता इन्ही मूर्तियोंके आधारपर स्थानीय शैलीकी मूर्तियोंका निर्माण करते थे। मथुरामें गढ़ी गई मूर्तियाँ और शिल्प लाल चित्तेदार पत्थर की होती थीं यहाँ बहुतायतसे मिलता है । यद्यपि यहाँकी कला सांची और भरहुतकी देशी कला के साथ ही साथ कुछ अंशोंमें गांधारकी कलासे भी प्रभावित थी । तो भी मधुराकी कला में पूर्ण मौलिकता है । कुषाण-कालकी मूर्तियॉ चौड़े चेहरे, चिपटी नाक और स्थूल कायकी विशेषताओं से गुप्तकाल की मूर्तियो - से सरलता से पृथक की जा सकती है जिनके गाल चेहरे और नुकीली नाकमे सौन्दर्य भर दिया गया है। गुम-कालकी मूर्तियाँ विशेष आकर्षक और प्रभावक हैं । इस कालमें मूर्तिनिर्माणकला अपनी चरम सीमापर पहुँच चुकी थी। कुषाण कालमें जो प्रभामण्डल अत्यन्त सादे बनाए जाते थे. इस कालमें वे अत्यन्त अलकृत बनाए जाने लगे थे और उनमें हस्तिनख मणिबन्ध, तथा अनेक बेलबूटे भरे जाते थे । कुषाण युगकी मूर्तियोका मिर प्रायः मुण्डितमस्तक होता था पर गुप्तयुगमे छल्लेदार बालो की रचना और भां भली लगती है । यह अन्तर मथुरा संग्रहालयके कुषाणकालीन सिर नं० बी ७८ और गुप्तकालीन सिर नं० बी ६१में तथा कुषाणकालीन मूर्ति नं० बी २, बी ६३ और गुप्तकालीन मूर्ति नं० बी १, बी ६ आदिमें स्पष्ट लक्षित किया जा सकता है। खुदाईका इतिहास मथुरा कङ्काली टीकी खुदाई सर्वप्रथम सन् [ वर्ष ह १८७१ में लोकनिघमने की और इस खुदाई में उन्हे अनेक तीर्थङ्कर मूर्तियाँ - जिनपर कुषाणवंशी प्रतापी सम्राट कनिष्कके ५ वें वर्पसे वासुदेवके ह८वें वर्ष तक के लेख खुदे थे- मिलीं । दूसरी खुदाई १८८८-९१ में विस्तृतरूपसे डाकुर फ्यूररने की और इसमे उन्होंने ७३७ मूर्तियाँ तथा अन्य शिल्प खोद निकाले । वे सब आज भी लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित है । इसके पश्चात् पं० राधाकृष्णजीने भी कङ्काली टीलेकी खुदाई की और अनेक प्रकारकी महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त की। इस प्रकार कङ्काली टीला जैन सामग्री के लिए खदान सिद्ध हुआ है । लखनऊ संग्रहालय इसी सामग्री से सजा हुआ है । पीछेकी सामग्री मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित है और वहाँ सैकड़ो मूर्तियाँ और लेख विद्यमान हैं। उन्हीमेसे कुछेकका संक्षिप्त विवेचन यहाँ किया जाएगा । श्रायागपट्ट (क्यू२) संग्रहालयकी दरीची नं० २ ( Court B) के दक्षिणी भागमे एक वर्गाकार शिलापट्ट प्रदर्शित है, इसपर एक स्तूप तोरणद्वार और वेदिकाओ सहित कि इस प्रकार के शिलापट्टाका आया कहा बना हुआ है। पट्टपर खुदे हुए लेखसे विदित होता है था और ये पूजाके काममे लाए जाते थे । यह अनुमान किया जाता है कि उक्त श्रायागपट्टपर उत्कीर्ण ताग्या और वेदिका - मण्डित स्तूप मथुरा के विशाल जैनस्नूपकी प्रतिकृति है जो ईसासे दूसरी शती पूर्व स्थित था । प्रस्तुत आयागपट्ट पर एक लेख खुदा हुआ है जिसके अनुसार वृद्ध गरिणका लवणशोभिकाकी पुत्री और श्रमणांकी श्राविका वसु नामक एक वेश्याने इसे दानमे दिया था। लेखकी लिपि ई० पू० पहली शतीकी हैं और मूल लेख निम्न प्रकार है: २. १. नमो अरहतो वर्धमानस श्रारामे गनिका ये लोणशोभिकाये धितु शमणसाविकाये नादाए गणिकाए वासु (यु) आरहातो देविक (3 ) ल ३. ४. प्रायामसभा प्रपा शिलाप (तो) पतिस्ठापिता निगथा Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ह] मथुरा-संग्रहालयकी महत्त्वपूर्ण जैन पुरातत्त्व-मामग्री [३४७ ५. नो अरह (ता) यतने स (हा) मातरे भगिनीये नं० डी ६ ऋषभदेवकी यक्षिणी चक्रेश्वरीकी धिताप पुत्रेण मूर्ति है । इसके आठ हाथ हैं और आठोंमें चक्र है। ६. सर्वेन च परिजनेन अरहतपूजाये इसका वाहन गरुड है जो नीचे दिखाया गया है। इसी प्रकारके और भी अनेक आयागपट्र मथुरा ऊपर ऋषभनाथकी पद्मासन ध्यानस्थ मूर्ति है। की खुदाईमें प्राप्त हुए हैं। नं० २५६३ भी एक ये दोनों मूर्तियाँ मध्यकालकी हैं और कङ्काली आयागपटिका है जो शक सं० में दान की गई थी। टालस प्राप्त हुई है। क्यू ३ भी आयागपट्ट ही है। इसके सिवाय अनेक सर्वतोभद्रिका प्रतिमाए आयागपट्ट लग्वनऊके प्रान्तीय संग्रहालयमे सुरक्षित है। मथुरा संग्रहालयमे अनेक सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएं नैगमेष मूर्तियां हैं। इन प्रतिमाओमे चारो ओर एक-एक तीर्थङ्करकी ___ दरीची नं० ३ (Court C)के दक्षिणी भागमें मूर्ति बनी है । चारा आरसे दर्शन होने तथा चारों आरसे कल्याणकारी होनेसे इन प्रतिमाओको 'प्रतिमा नं. ई १. ई • और २५४७ नं की तीन मूर्तियाँ रखी , सर्वतोभद्रिका' कहा जाता था । इनपर खुदे हुए हुई है। ये कुषाणकालीन है और इनके मुग्व बकरके लेखोमे भी यही नाम मिला है। इस प्रकारकी कुषाणश्राकारके है । य नैगमेष है और जैन मान्यताके कालीन प्रतिमाएँ अधिकतर खड़ी होती है। नं० बी अनुमार मन्तानोत्पत्तिके देवता है। इनके हाथोमे या कन्धोपर खेलते हुए बच्चे चित्रित किए गए है। ७. एक ऐसी ही मूर्ति है जो सं० ३५मे दान की गई __ थी। अन्य मूर्तियोमें भी लेख है। नं० बी ७१ संवत प्रस्तुत मूर्तियांमे नं० ई - नैगमषका स्त्रीरूप है और ५ (ई०८३)की है। सर्वताभद्रिकाओके कुषाणकालीन ई १ तथा ०५४७ पुरुपरूप । अन्य नमूने बी ६७-६८ श्रादि हैं। पीछेकी सर्वतोमध्यकालमे जैन लोग सन्तानोत्पत्तिके लिए एक नए भद्रिकाओके नमूने बी ६६ आदि है जो उत्तर गुप्तप्रकारकी मूर्तियांकी स्थापना और पूजा करने लगे थे। कालकी है। नं. बी ६६में चारो ओर चार तीर्थङ्कर इनमे जैन यक्ष और यक्षिणी कल्पवृक्षके नीचे विराज- पद्मासन और ध्यानमुद्राम स्थित हैं। इसका ऊपरी मान अङ्कित किए जाते थे। दरीची नं. ४ (Court भाग खण्डित है। D) दक्षिणी भागकी २७८ नं की मूर्ति इस प्रकारकी तीर्थङ्करोंकी प्रतिमाएं मूर्तियोका नमूना है। __यद्यपि कङ्काली टीलेसे प्राप्त उत्तमोत्तम मूर्तियाँ देवियोंकी मूर्तियां लखनऊके प्रान्तीय संग्रहालयमे ले जाई गई हैं फिर मथुरा सग्रहालयके षट्कोण गृह नं० ४मे ब्राह्मण भी मथुरा संग्रहालयमे अनेक सुन्दर और कलापूर्ण धमकी अनेक मूर्तियोंके माथ दो जैन देवियोंकी मूर्तियाँ तथा विभिन्न शैलीकी नीर्थकर मूर्तियाँ अभी भी भी प्रदर्शित हैं। इनमे डी ७ बाईसवे तीर्थङ्कर नेमि- सुरक्षित हैं। स्थानकी कमीसे उनमेंसे मुख्य मुख्य ही नाथकी यक्षिणी अम्बिका है। इसके बाई जंघापर प्रदर्शन मन्दिरम सजाई गई हैं, अन्य सब गोदामोमें गोदमे बालक है और नीचे इसका वाहन सिंह भरी पड़ी हैं। उत्कीर्ण है। ऊपर ध्यानस्थ नेमिनाथके दोनो और मथुरासे प्राप्त तीर्थङ्कर मूर्तियाँ सबकी सब वैजयन्ती धारण किए वासुदेव कृष्ण और हलधारी दिगम्बर सम्प्रदायकी है । नग्न हानेके कारण ये बलरामकी मूर्तियाँ उत्कीण हैं । देवी लीलासनमें स्थित बुद्धमूर्तियोंसे महज ही अलग पहचानी जा सकती हैं। है और हार करधौनी आदि अनेक आभूषण धारण पद्मासन मूर्तियाँ श्रीवत्स चिह्नसे पहचान ली जाती किए हुए है। बालकके गलेमें भी कराठी है। हैं। पहचाननेका एक और साधन है. वह यह कि Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ बुद्धके मस्तकपर उष्णीष होता है और जैन तीर्थङ्करों- हैं. पीछे छायामण्डल और छातीपर श्रीवत्साङ्क है। की मूर्तियोंमें इसका अभाव है। कुषाणकलाका यह सुन्दर उदाहरण है। बी १२ ___मूर्ति-निर्माणकी दृष्टिसे हम मथुरा कलाको त्रिधा ऋषभदेवकी प्रतिमा है और इसपर उनका चिह्न विभाजित कर सकत हैं: बैल उत्कीर्ण है। • (१) कुषाणकालीन कला-कुषाणकालकी जैन (1) गुप्तकालीन कला-भारतीय कलाके इलिमूर्तियोमें समयके प्रभावकी वही सब विशेषताएँ हैं जो हासमे गुप्तयुग स्वर्णयुग माना जाता है। इस युगमे बुद्ध मूर्तियों में हैं । इस समयकी जैन मूर्तियाँ खड़गासन पाकर कला पूर्ण विकसित हाचका थी और भाव और पद्मासन दानो आसनोंमें पाई जाती है और प्रदर्शन उसका मुख्य लक्ष्य हो गया था। इस काल में उनमेंसे अधिकांश अभिलिखित हैं । नं० बी २-३-४- बनी मूर्तियाँ अत्यन्त सुन्दर सुडौल समानुपात और ६३ आदि पद्मासन और बी ३५-३६ आदि खड़गा- प्रभावकतापूर्ण है। सारनाथकी धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रासनके नमूने है। में स्थित बुद्धमूर्ति और मथुराकी भिक्षु यशदिन्न द्वारा बी • कुपाग राजा वासुदेवके राज्यकालमं शक दान की गई अभय मुद्रामे खड़ी बुद्धमूर्ति (नं० ए. ५) सं०८३मे जिन-दामी द्वारा दान की गई थी। बी४ इमी कालकी देन हैं। तीर्थङ्कर ऋषभदेवकी अभिलिखित प्रतिमा है और जैन मूर्तियोमेसे मथुग संग्रहालयकी नं. बी उसपर लिया गया मूल लेग्व इस प्रकार है:- की मृति विशेष महत्त्वकी है जो दरीची नं. २ १. सिद्ध महाराजस्य रजतिरजम्य देवपुत्रम्य (Court B) दक्षिणी भागमे अनेक मृनियांक (शाही) वासुदेवस्य राज्यमंवत्सरं ८ (+)४ साथ प्रदर्शित है। इसमे एक तीर्थङ्कर उत्थित पद्माग्रीष्ममासे द्वि. मनमे समाधिमुद्रामे बैठे है। उनकी दृष्टि नामिकाक २. दि ५ एतस्य पूर्वाया भट्टदत्तम्य उगनिदकम्य कारणपर जमी हुई है. ला जैन शास्त्रोम ध्यानका वधुये स्य कुटुबिनी ये गृत्त कुमार (द) श्रावश्यक अङ्ग बताया गया है । पीछ हस्तिनम्व. त्तम्य निर्वर्तन मणिबन्ध और अनेक प्रकारके बेलवृटोसे अलंकृत ३. भगवतो अरहती रिपभदेवम्य प्रतिमा प्रतिष्ठा- प्रभामण्डल है जो गुप्तकालकी विशेषता है । यह मूर्ति पिता धरसहम्य कुटुबिनीये . . . . मथुरामे प्राप्त तीर्थङ्कर मूर्तियोंमे कला और प्रभावइम लेखमे महाराज वासुदेवकी सभी राजकीय शीलताम सर्वोत्कृष्ट है। उत्थित पद्मासन एक कठिन उपाधियो तथा संवतः४में भगवान अहन ऋषभदेव- आमन माना गया है और यह उसका उदाहरण है। की प्रतिमा प्रतिष्ठित किए जानेका उल्लेख है। मूर्ति मंख्या बी ६-७-३३ गुप्तकालीन कलाके ____ नं. ४६० वर्धमान स्वामीको प्रतिमा थी जिसकी अन्य नमूने है। बी ३३ खड्गामन मूर्ति है जिमके चौकी मात्र अवशिष्ट रह गई है। इसे मंवत ८४ नीचे और ऊपरका भाग टूट गया है. मिफ धड़ बाकी (१६२ ई०)मे दमित्रकी पुत्री अोखरिका आदिने दानमे है। तीर्थङ्करके दाना और दो पार्श्वचर (?) कमलपर दिया था। मूल लेग्व इस प्रकार है: खड़े है और पाछे अलकृत प्रभामण्डल है। नबी १. सिद्ध स८० (+ ) ४ व ३ दि २० (+) ६-पद्मासन और ध्यान मुद्राकी मूर्तियाँ है और ५एतस्य पूर्वाया दमित्रस्य धित आंख ऋषभनाथकी हैं। इनके कन्धोपर बाल लटक रहे है २. रिकाये कुटुबिनीये दत्ताये दीनं वर्धमान प्रतिमा जो ऋषभनाथका विशेष चिह्न है। दानी मूर्नियामे ३. गणातो कोहियातो __.. दानों और पार्श्वचर है और पीछ पूर्ववन बलबृटोसे बी ६३ पद्मामन मूर्ति है और इसम चौकीपर धर्मचक्र- अलंकृत प्रभामण्डल भी है। की पूजाका दृश्य है। तीर्थकरके टोना और दो पार्श्वचर वैसे तो इस कालकी और भी अनकों मूर्तियाँ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६] मथुरा-मंग्रहालयकी महत्त्वपूर्ण जैन पुरातत्त्व-सामग्री [ ३४६ - संग्रहालयमें प्रदर्शित हैं पर उनमेंमे बी २० और मर्प- चपटी नाक और मुंडित मस्तक इसके प्रमाण हैं। फणयुक्त पार्श्वनाथ (१५०५)के माथ ही साथ ०६८. नंबी ४५ गुप्तकालोन सिर है यह उसके धुंघराले ४८८ नं०की भी दृष्टव्य हैं। बाल. गोल चेहरे आदिसे जाना जा सकता है। नं. (३) उत्तरगुप्त और मध्यकालकी कला-जहाँ बी ५१ में लहरिया केश हैं और भ्रमध्यमें ऊर्णा गप्पकाल अपनी मरल-भावव्यंजनाके लिये प्रमिद्ध चिन्ह बना हुआ है। है वही मध्यकाल कृत्रिम अलंकरण और सजावटके . सबसे अधिक महत्वका है नं० बी ६१ जो षट्लिय ध्यान देने योग्य है। इस कालकी बनी मतियो- कोण गृह नं.३ के बीचोबीच चबूतरपर सजा हुआ में वह स्वाभाविकता नहीं रही जो गुप्त कालके ततका है। यह किसी विशाल मूर्तिका सिर है और इसकी की छैनीमे निसृत हुई थी। ऊँचाई • फुट ४ इंच है। मूर्तिनिर्माणकलाका यह मथुरा सग्रहालयकी १५०४ नं० की ऋपभनाथकी अद्वितीय नमूना है। यह गुपकालीन है और मथुरामूर्ति उत्तरगुप्त कालकी है। इसका श्रासन बहत के चिचदार लाल पत्थरका बना हुआ है। सुन्दर है और मम्तकपर तीन छत्र तथा पीछे प्रभा- बाहर बरामदेमे भी सिर प्रदर्शित हैं जो कम मंडल है। ऊपर पच जिन है । नं० बी ६६ उत्तरगुप्त महत्वक है। बी ४४ किसी तीथङ्करका कद्दावर सिर काल की मर्वनाद्रिका प्रतिमा है जिसका उल्लेग्य है और बी ६० तीथङ्कर पाश्वनाथका षट्फण युक्त पहिलेमे किया जा चुका है। मिर है जो दृष्टव्य है। ये दोनों कुषाणकालीन है। अन्य मूतियाम बी ७७ सुन्दर अलंकृत श्रासन मिरीकी बनावटके अन्य दा और प्रकार प्रतिमा पर ध्यानमुद्रामे स्थित तीर्थकर नेमिनाथकी मूर्ति है। नं. ४८८ और प्रतिमा नं. २६८ में भी लक्षित किये इसकी चीकीपर शंख चिन्ह. ऊपर छत्र तथा पीछे जा सकन है। प्रभामंडल है। नं. बी ५ कमलाकार प्रभामंडल उपसंहार और हरिण चिन्ह युक्त शान्तिनाथकी मूर्ति है। इसके अतिरिक्त कंकाली टीलेसे प्राप्त अन्य बगमदमे रखा २७३८ नं० पद्मासन मृति भी इमी शिल्प. मिटीक खिलीने. वेदीका स्तम्भ, तारणोंके कालकी है। अंश आदि भी उक्त संग्रहालयमें प्रदर्शित है। और तीर्थङ्कर मूर्तियोंके सिर इम प्रकार मथुरा सग्रहालयन जन कलाका सरक्षण जैसा कि पहले लिग्वा जा चुका है. जैन तीर्थ- और वैज्ञानिकरूपेण प्रदर्शन करके जैनसमाजपर करीको मृतियोके सिर उष्णीपहीन होनस बद्ध- भारी उपकार किया है। मिरामे अलग किय जा सकते है। मथुग मग्रहालय- संग्रहालयके क्यूरेटर श्रीकृष्णदत्तवाजपेयी में इस प्रकारके मिरांकी संख्या कम नहीं है और सब क्यूरेटर श्रीचतुर्वेदी अत्यन्त सरलप्रकृति और वहाँ कुषाण और गुप्त दानी कालोक मूर्तिमिर मिलनसार व्यक्ति हैं। जैन पुरातत्त्वमें आप दोनोप्रदर्शित है। की विशेष रुचि है और हमारे लिये प्रसन्नताकी बात पटकोण गृह नं. १ मिरोंका प्रदर्शनगृह है। है। यहाँ अनेक बुद्ध, बोधिसत्व और हिन्दू देवताओक अंतमें मै जनसमाजके कलापारखियों और पुरामिराके साथ ही जैन तीर्थङ्कराके सिर रोध करूंगा कि वे ऐसी योजना सहारे एक कतारमें मजे हुये हैं। नं० बी ७८ किसी बनायें जिससे यहाँ वहाँ बिखरे पुरातत्त्वकी रक्षा तीर्थङ्करका कुपाण कालीन सिर है. चौड़ा चेहरा हो सके। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hariantayaindyap TE A . AREA Mithmetimattee RESE ST Hin PR अतिशयक्षेत्र श्रीकुराडल पुरजीके जलमन्दिर Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-सेवकोंके पत्र जैनधर्मभूषण ब्र० सीतलप्रसादजीके पत्र हमारे यहाँ तीर्थङ्करोंका पूरा प्रामाणिक जीवन-चरित्र नहीं. प्राचार्यों के कार्य-कलापकी तालिका नहीं। जैन सडके लोकोपयोगी कार्योंकी कोई सूची नहीं। जैन राजाओं, मन्त्रियों, सेनानायकोंके बलपराक्रम और शासनप्रणालीका कोई लेखा नहीं, साहित्यिकोका कोई परिचय नही। और तो और हमारी आँखोंके सामने कल-परसों गुज़रनेवाले-दयाचन्द गोयलीय, बाबू देवकुमार, जुगमन्दरदास जज, वैरिस्टर चम्पतराय, ब्र. सीतलप्रसाद, बाबू सूरजभान, अर्जुनलाल सेठी आदि विभूतियोंका ज़िक्र नहीं, और ये जो हमारे दो-चार बड़े-बूढे मौतकी चौखटपर खडे है, इनसे भी हमने इनकी विपदाओ और अनुभवोंको नही सना है और शायद भविष्यमे एक पीढ़ीमें जन्म लेकर मरजानेवालों तकके लिये उल्लेख करनेका हमारे समाजको उत्साह नही होगा। ___ श्राचार्योंने इतने ग्रन्थ निर्माण किये, परन्तु अपने गुरुका जीवन चरित्र न लिखा । खारवेल, अमोघवर्ष जैसे जैनसम्राटोंक सम्बन्धमे उनके समकालीन आचार्यों ने एक भी पंक्ति नही लिखी। चार पाँच स्मारकग्रन्थ लिखने वाले ब्रह्मचारी सीतलप्रसादजीसे अपनी आत्म-कथा नहीं लिखी गई। स्वर्गीय आत्माओंकी इस उपेक्षाकी चर्चा करके हम धष्टता जैसा पाप नही करना चाहते । परन्तु दुःख तो जब होता है जब कि जीवित महानुभावोसे निवेदन किया जाता है कि आपके उदर-गहवरमे जो सामाजिक संस्मरण छपे पड़े है उन्हें दया करके बाहर फेंक दें। परन्तु सुनवाई नही होती । कौन ग्रन्थ पुराना है, फलॉ श्लोक शुद्ध है या अशुद्ध, निब रोजाना कितना घिसता है, इनकी ओर तो सतत् प्रयत्न होता है, परन्तु समाजके इतिहासकी ओर ध्यान नही है। अतः हमने सोचा है कि इतिहास सम्बन्धी जो भी बात हमारे हाथ आये, उसे हम तत्काल प्रकाशित कर दें। इतिहासके लिये पत्रोंका भी बड़ा महत्व है। उर्दू साहित्यमें ऐसे पत्रोके कितने ही सङ्कलन पुस्तकाकार छप चुके है। हम भी 'अनेकान्त में यह स्तम्भ जारी कर रहे है। जैन साहित्योद्धारका मूककार्य करनेवाले दिल्लीके पाई पन्नालालजीके पास अनेक कार्यकर्ताओंके हजारों पत्र सुरक्षित है । मेरी अभिलाषानुसार उन्होंने ब्रह्मचारी सीतलप्रसादजीके पत्रोका सार लिखकर भेजा है। यह सब पत्र भाई पन्नालालजीको लिखे हुए है । ब्रह्मचारीजीने अपने प्रत्येक पत्रमें उन्हें 'भाई साहब' और 'प्रतिदर्शन' लिखा है। हस्ताक्षरमें अपने नामके साथ 'हितेपी' लिखा है। अतः पत्रसे इतना अंश हमने अलग कर दिया है। पत्रमें ब्रह्मचारीजी तारीख श्रीर मास तो लिखते थे, परन्तु सन् नहीं लिखते थे। अतः पोष्ट आफिसकी मुहरमे जहाँ सन पढा गया है साथमें लिख दिया गया है। ब्रह्मचारीजीके पत्र न साहित्यिक हैं न रोचक । फिर भी उनमे जैन समाजके लिये कितनी लगन और चाह थी यह ध्वनित प्रत्येक पत्रसे होता है। -गोयलीय] . Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ] (१) (२) भाई जौहरीमलजी धर्मस्नेह कहें (२) प्रभाचन्द शास्त्री सुना है— यहाँ नौकरी की है वह धर्मको न त्यागे इसपर ध्यान - (३) देहली में एक जैनबोर्डिङ्गकी बड़ी जरूरत है इसका प्रयत्न करावें । (५) कर्मानन्दजीका क्या हाल है । सर्व धर्मस्नेह कहे । अनेकान्त दाहोद (पंचमहाल) (६) जैन पाठशाला १६-१० हिसार, महावीरप्रसाद वकील ६-११-३६ वैरिस्टर चम्पतराय क्या देहली आयेंगे, कब तक किस दिन किस समय आवेंगे. ठीक पता हो तो लिखें । व. वे देहली में कहाँ ठहरेंगे । मैं १४ या १५ को यहाँ से चलूँगा यदि अवसर तो मिलता जाऊँगा । (३) (५) श्राविकाश्रम, तारदेव बम्बई ३-११ मैं १५ दिनसे बीमार था। अब ठीक हूँ। जूता पाया । नाप ठीक हुई. आपका धर्मप्रेम सराहनीय है। क्या देहलीमें बो० की कोई तजबीज सर्राफ व सबसे धर्मप्र म कहें । [ वर्ष ह वर्धा C/o जमनालाल बजाज १२-११-२७ ट्रैकृ नं० ४८ किस विषयका - आप एक कोई इतिहास मुझे भेजिये जो वर्तमान पठनक्रममें चलता हो मैं देखकर उत्तर लिख भेजूंगा उसे श्राप मंजूर करावें फिर दूसरी पुस्तकको भेजें या प्रोफेसर हीरालालजी कर सकते हैं 1 (8) २४-१० मेर पुस्तक मिली पढ़कर यदि कामताप्रसाद चाहेंगे तो भेज देंगे । लेख निकल गया होगा । जैनगजट अङ्क ४३ अभी आया नही आप सूरत से मॅगा लें व वही कहीसे देख लें । उपजातिविवाह आन्दोलनको जोर देना चाहिये । वर्धा, २२-३-२७ यदि बैरिस्टर साहब तैयार है तो मंडलकी ओरसे उन्हीं को गुरूकुलके उत्सवमें भेजिये । यदि मुझे भेजना हो तो नियत तिथि होनी चाहिये व एक जैनी रसोई के लिये साथ चाहिये तथा उनकी स्वीकारता आपके ही द्वारा आनी चाहिये । वर्धा. सेठ जमनालाल बजाज २-११-२७ कार्ड पाया मैं ता० १८ नवम्बर तक यहाँसे बाहर नहीं जा सकता हूं इसलिये आप पं० जुगलकिशोरजीको बुला लेवें या बाबू न्यामतसिंहजी हिसारको । जौहरी मलजीका पता क्या है धर्मस्नेह कहे । खंडवा २५-१०-२७ (८) मैं स्वस्थ हॅू चिन्ता की बात नहीं है । जयन्ती पर आने के सम्बन्धमे अभी कुछ नहीं कह सकता हूं। was a आप तीनों दिन भाई चम्पतरायजीको सभापति बनावें व उनका बढ़िया छपा हुआ भाषण करावें व बॉटें । चम्पतरायजीसे काम लेना चाहिये नहीं तो वे फिर वकालतमे फँस जावेंगे यदि लाला लाजपतरायसे कुछ जैनमतकी प्रशंमा पर कहला सकें तो बहुत प्रभाव हो । (ह) खंडवा. १५-१०-२७ पत्र पाया व पुस्तकें पाई। नागपुर भेजा बहुत खूब धर्मप्रचार करें। मेरा लिखा ट्रैक यह अशुद्ध अच्छा किया उर्दू पुस्तके पहले मिली थीं। आप छुपा है क्योंकि मेरे अक्षर सिवाय सूरनवालोंके और कोई पढ़ नहीं सका। यदि आप कोई हिन्दी ट्रैक चाहते हों तो मैं लिख सकता हूं पर आप कमेटी से पाम करालें कि वह सूरत ही शीघ्र छपे तो मैं लिखूँ पं० मथुरादासको समझाकर बोलपुर शान्तिनिकेतन भिजवावें वहाँ बहुत जरूरत है अधिक वेतनका लोभ न करें यहाँ उनकी भी योग्यता बढ़ेगी उनका जवाब लेकर लिखना । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ह] समाज-सेवकोंके पत्र [३५३ ___ खंडवा. १-१०-२७ (२) माईदयाल वाला ट्रैक नहीं मिला। ___ जैनकलाके सुधारके लिये ब्रह्मचारी कुंवर (३) सत्यार्थप्रकाशका खंडन लिखकर लाला दिग्विजयसिह नागपुरमें उद्यम कर रहे हैं पता-परवार देवीसहाय फीरोजपुरको भेजा है। वे पं० माणकचन्द दि. जैनमन्दिर इतवारी बाजार । कुछ पुस्तकें हिन्दीकी न्यायाचार्यको दिखाकर सत्यार्थदर्पणमें बढ़ाकर बॉटनेको भेजें । सनातन जैन १० प्रति जिनेन्द्रमत- छापेंगे पंडित माणकचन्दका देखना काफी होगा हर दर्पण १० प्रति अन्य हिन्दीके उपयोगी ट्रैक ५-५ एकके दिखलानेसे पुस्तक बिगड जाती है । ऋषभदास फिर जो वे मंगावें भेजते रहे। ५ सनातन जैन का खंडन सूरजभानको दिखाकर छापं । मुझे भेज दें। सनातनजैनपत्र मिला होगा प्रचार करें सत्यको 6-३-२७ प्रकट किये बिना काम नहीं चल सकता था इससे प्रफ व कापी मामनचन्द प्रेमीके द्वारा भेजी है उद्यम किया है । नवयुवकोको मदद देनी चाहिये। मिले होगे। लेख मेरे पास है मै लाहौर अहिक्षेत्र (१५) मूरत, १-३-२५ होकर जाता हूं। पता-बलवंतराय बैङ्कर पुरानी कार्ड ता० २६ का पाया अनारकली लाहोर। मुझे श्रीमहावीरजी चौदसको सवेरे जाना है उदृके कुछ ट्रक भेंटरूप धर्मस्वरूप. कर्ताखंडन इसलिये मैं तरसको ७ अप्रेलको रातको ॥ बजेकी श्रादिके एक-एक मलके दो-दो ५ व ७ प्रकारके भेज दे गाडीसे महावीरजी जाना चाहता हूं। वस यदि मेरा लिख दे बॉट दे। व्याख्यान उस समयके भीतर होसके तो मैं आनेको ला० प्रभुराम जैन मास्टर गवर्नमेंट स्कूल महाम तैयार हैं इसी श्राशयका तार आपका किया है। जिला राहतक पता पूछा है कुछ नहीं जानन निराकुलता रहे इससे सफरखर्चकी बात भी लिख दी जरूर भेजे। है आप जवाब जरूर देना यदि उपयोग न हो तो भी (१२). ४-२-२७ जवाब देना जिससे मैं न आनेके लिये निश्चित होजाऊँ। टेक पाये लाला लाजपतरायकी पुस्तकपर नोट अर्जुनलाल सेठीजीका भाषण बहुत मर्यादामें होना मैने पहले उनको भेजे थे। अब वह पुस्तक मेरे पास चाहिये वे ऐसीसी बाते कह जाते है कि अस्पृश्योनहीं है यदि वह बदलना स्वीकार करें, आप उनसे का मूर्ति स्पर्श कराई जावे मो कोई जैन सुननेको मिले तो पुस्तक भिजवा दे। मैं फिर नोट लिखकर तैयार नहीं है। इससे उनका भाषण व भगवानदीनका भेज दूंगा। भाषण विचारे हुए शब्दोंमें होना चाहिये जिमसे सनातनजैनमत सूरतमे ही छपवाना वह हमारे शान्ति रहे क्षोभ न रहे जल्सा आप दिनमें शुरू करें अक्षर पढ़ सकेगे। वही चलता रहे। कटक. १६-३-२४ पुराने लोगोको साथ लेकर अपना काम बनाना ला कमेटीका क्या काम होरहा है। अहिंमा धर्मके ठीक होगा। दो ट्रैक भेज देना मेरे नाम C/o सेठ जोखीराम (१६) ' ७-७-२६ मूंगराज १७३ हरीसनरोड कलकत्ता जरूरत है। (१) इटलीकी कापी पढ़ी लौटाते है सब बम्बई. श्राविकाश्रम जुबलीबाग श्वेताम्बर ग्रन्थ हैं। तारदेव ७-११-०७ (२) हमारा एक बढ़िया लेक्चर जैनगजट आपके पत्र ता० १६ । १८-११ के पाए। मदरासमें निकल रहा है। दो अङ्कमें निकल चुका है (१) प्राचीनस्मारककी प्रतियाँ लागतके मूल्यमें शेष और निकलेगा उसे आप ट्रैकृरूप छपवा लें बहुत सूरतसे प्राप्त होंगो मुफ्त नहीं। ही उपयोगी पड़ेगा। मार्च व मईमें निकला है। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ . (३) चम्पतरायजीका वास्तवमें भले प्रकार (१६) लखनऊ. ४-१०-२६ सम्मान करना चाहिये। पदवी मेरी रायमें नीचे १-जैनगजटकी खबरका खण्डन किसी बड़े लिखेमेंसे हो। आदमीके नामसे छपवावें। (१) जैनसिद्धान्तरत्नाकर (२) जैनतीर्थोद्धारक २-रिलीजन ऑफ इम्पायर पुस्तकमें क्या जैन(३) जैनतत्त्वसागर (४) जैनधर्मकुमदेन्दु धर्मका कुछ विशेष हाल लिखा है यदि हो तो आप (५) जैनबोधमार्तण्ड (६) जैनदर्शन सूर्य पढ़ने भेज दीजियेगा। ए० सी० बोसका लेक्चर भी छपवा लें ट्रकृमें ३-गोम्मटसार जीवकांड करीब आधा छप (४) आगामी जयन्तीमें ऐसे अजैन विद्वानोंको गया है। १ मासके अनुमानमें शायद पूर्ण होजायगा सभापति करें जो हरएक जल्से में हाजिर हो कार्यवाई फिर कर्मकांड १ तिहाई तर्जुमा हुआ है सो छपेगा करे यदि महर्षि शिवव्रतलाल रह सके तो ठीक फिर और ग्रन्थ मि० जैनीका तर्जुमा उन्हीके खर्चसे अन्यथा मि० बोस ही सभापति रहे । छप रहा है। लैक्चरर-- ४-सेठ हुकमचन्दके विरोधमें एक बड़ी सभा ___ ऋषभदास वकील-मस्तराम एम० ए० लाहौर, देहली आदि कहीं होकर विजातीय विवाहकी पुष्टिमे प्रो० हीरालाल एम० ए० अमरावती, कस्तूरचन्द जैन प्रस्ताच सब पञ्चायतमें जावे। सभापति प्यारेलाल वकील जबलपुर. पं० दरबारीलाल इन्दौर. पं० वकीलके समान कोई व्यक्ति हो। आप ट्रैकृका तो माणिकचन्दजी. पं० कुँवरलालजी न्यायतीर्थ, रतन- प्रचार करते रहे। लाल वकील बिजनौर, वर्णी गणेशप्रसादजी. फनी- (क) लखनऊ १-६-२६ भूषण अधिकारी बनारस, विंध्यभूषण भट्टाचार्य १-सूचनाये सूरत भेजी जाचुकी है।। शान्तिनिकेतन, बोलपुर बङ्गाल आदि विद्वानोको २-कविता पूजाकी करना बहुत कठिन काम है बुलावे। अजितप्रसाद वकील कर सकते है यदि परिश्रम करें। उत्साहपूर्वक ट्रकोको खूब बाँटें। धर्मका प्रचार ३-पजाम भूमिका ठीक करनेकी जरूरत है उस करें। काममे शिथिलता न करे । पहाडी हाई स्कूल मे तेरह-पंथकी रीति दी है चाहिय दानो रीति देना। की रक्षा करावे । देहलीमे जैनबोर्डिङ्ग करावें। हमने शब्द व शब्द वाँचा नहीं तथापि तर्जुमा ठीक (१८) ७-१२-०६ होगा वारिस्टर साहबका काम है। __आपके सब ट्रैक व सैंससका उतारा पाया मैं (२५) वर्धा, १५-३-०६ यथाशक्ति पानेकी कोशिश करूँगा अजितप्रशादजीको आज लेख मुक्ति व उसके साधनपर भेजा है १५-२० दिन पहले लिखना अभी वे हाँ नहीं करेंगे सदुपयोग करे व सूरतमे ही छपावे बड़ी मेहनतसे मै एक ट्रक "हमारा सनातन जैनमत" लिखना चाहता लिखा है। हूँ इसीपर व्याख्यान दूंगा उमका आप छपवाकर यदि मेरे बुलानेका विचार हो जयन्तीपर तो बँटवा सके तो मै लिखनेका कष्ट उठाऊँ। ४० पृष्ठक सम्मति करके बुलावे व पूर्ववत् सम्मानसे बिठाले व करीब होगा उत्तर दीजियगा। भाषण अपन विषयपर दिलावे यदि राय न पड़े तो चन्द्रकुमार शास्त्री, कुँवरलाल शास्त्री, दरबाग- कभी न बुलावें आपका जल्सा निर्विघ्न हो सो करें। लालजी, जुगल किशोरजी. बनवारीलाल मेरठ श्रादि एक दिन २ घण्टे विशेष पूजा सब मिलकर करें। को बुलावें तथा आप जितने बड़े-बड़े अजैन विद्वानों उत्मवके साथ जिसे अजैन भी देखे । मंडपमें श्रीजीको को जानते हैं उनसे message मॅगावें। काम उत्माह विराजमान करके करे फिर पूजाके पीछे वहीं पहुँचा से करें। धर्मकी महिमा प्रगटे सो उपाय करे। देखें । पहुँच देखें लेखकी। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मृतिकी रेखाएँ RAMETREENAMEEN EARN Een न्यवान Dum HTRA (लेखक- अयोध्याप्रसाद गोयलीय) [८वी किरणका शेष] बिना हलद-फिटकरी लगे उस वक्त जियारत नसीब मन १९३१में गान्धी-अरविन समझोतके अनु- हो सकी। मार प्रायः सभी राजनैतिक बन्दी छोड दिये गय। मियाँवाली जेलमे तीन राजनैतिक बन्दी पहलेसे परन्तु मेरे भाग्यमे इन स्तराती होटलोके स्वादिष्ट ही मौजूद थे चार हम पहुँच गये। सातों एक ही भोजनका रखा' शेष थी. इसलिये एक वर्षके लिये छोटेसे कमरमे जमीनपर कम्बल विछाकर सात थे। और राक लिया गया। लेकिन खाली बैठा तो दामाद अभी हमे पहुंच दो-तीन घण्टे हा हुए थे कि देखा भी भारी हो उठता है। इस तरह डण्ड पेल-पेलकर कि दो सिक्व पटापट ततैये मार रहे है। परस्पर राटियां तोड़ना अधिकारावगको कबतक सुहाता ? होड़-मी लगी हुई थी। कमरमें श्राने वाले ततैयाँका मजबूरन उन्होने मियाँवाली जेलमे चालान कर दिया; उछल-उछलकर कहकहे लगा लगाकर मार रहे थे। क्योकि यहाँ भी राजनैतिक बन्दी रोक लिये गये थे। मैं उनकी इस हरकतसे हैरान था कि गान्धीजीके मियांवाली जेलका तो जिक्र हो क्या मियाँवाली सैनिक यह कौन-मा अहिमा-यज्ञ कर रहे हैं। अभी जिलेमें बदली होते सुनकर बड़े-बड़े ऑफिसर कॉप एक-दूसरसे परिचित भी न हो पाये थे। उनकी इस उठते है। कोई भूल या अपराध किये जानेपर प्राय- संहार-लीलापर क्या कहा जाय ? यह मैं सांच ही श्चिनस्वम्प ही उनका यहाँ ट्रांसफर होता है। रहा था कि मेरे माथ आये पाण्डेय चन्द्रिकाप्रसादसे रतोलाप्रदेश अधिकाधिक गर्मी-मदी अस्मी-अस्मी न रहा गया और वे आवेश भर स्वरम बोले-सरघण्टेकी लगातार ऑधी पानीकी कर्मा मनोरञ्जनका दारजी. यदि आपको दया-धर्म छू नहीं गया है तो अभाव कर और मूख जङ्गली लागोका इलाका अपने साथी जैन साहबकी मनोव्यथाका तो ध्यान हर-एकको रास नहीं आता। जरा-जरामी बातपर रखना था! आप क्या नहीं समझते कि आपके इस खून हो जाना यहाँ श्राम रिवाज है । बादशाही काण्डसे इनको कितनी वेदना हो रही होगी? इतना जमानेमे जिन हत्यारां और पापियोका देश निकालेकी सुनते ही एक सरदारजी तो तत्काल अपनी भूल सजा दी जाती थी। वह इसी प्रदेशमे छोड दिये जात समझ गये और ततैयकी हत्या बन्द करके मुझसे क्षमाथे। उन्हीं अपराधियोके वंशज यहाँ के मूल निवामी याचना कर ली। यह सरदार साहब मास्टर काबुलहै। अब तो यह प्रदेश पाकिस्तानमें चला गया है सिंह थे ! जा ७-८ वर्षसे जेल जीवन बिता रहे थे और बिना पासपोटके देखना असम्भव होगया है। और आजकल पञ्जाब असेम्बलीके सदस्य हैं। बड़े भाग्य ही अच्छे थे जो इस समयकी विलायतकी सहृदय. तपस्वी और उच्च विचारोंके राष्ट्रवादी Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६] अनेकान्त [ वर्ष ६ सिक्ख हैं। किन्तु दूसरे सरदारजी न माने और क्षुब्ध हो उठे और बोले-"सरदारजी, झूठ बोलते कड़ककर बोले-"तो क्या हम जैन साहबकी वजहसे शर्म आनी चाहिये, एक जैन मांस-अण्डे खानेकी शर्त हार जाएँ। ततैयोंने हमें काटा तो हमने भी इजाजत देगा यह नामुमकिन है। यह बात कहकर प्रतिज्ञा कर ली कि १०० ततैये मार कर ही दम जैन साहबका तुमने दिल दुखाया है. इसके लिये लेंगे। हममेंसे जो पहले १०० मार लेगा वही शत उनसे माफी माँगो।" जीतेगा। अगर जैन साहबको काट ले तो क्या यह नहीं मारेंगे? अगर ये न मारं तो हम भी मारना मियाँवाली जेलमें रहते हुए जब १५-२० रोज छोड़ सकते हैं।" होगये । तब एक राज़ तीसरा साथी मुहम्मद __अब मेरी बन आई । मैंने कहा-"जब मैं उनके शरीफ बोलामतानेकी भावना नहीं रतूंगा. तब वे मुझे हरगिज़ 'लालाजी. क्या आप मचमुच जैन है ?" नहीं काटेंगे । और यदि वह आपके धोखेमे मुझ "जी. इममे भी क्या शक है " काट भी लें तब भी मै उन्हें नहीं मारूँगा। अगर "मुझे तो यकीन नहीं आता. कि आप जैन हैं, मारूं तो तुम फिर ततैय मारनेमे स्वतन्त्र रहोगे। फिर आप तो बहुत अच्छ इन्सान मालूम होत है।" तुम्हें कोई नहीं रोकेगा।" श्राश्चयकी बात यह हुई कि "तो क्या जैन इन्सान नहीं होत" मक्खियोंकी तरह अधिक संख्यामे उड़ने वाले उन "खुदा-कसम पाधाजी (एक बन्दी जो रिहा हो ततैयोने मुझे नहीं काटा और मेरी पत रख ली, इम गये थे) अक्सर कहा करते थे. जेनियांकी परछाँहासे बातका उन मरदारजीपर बड़ा असर हुआ किन्तु बचना. यह इन्मानका खून चूस लेते हैं । मै तो दुख है कि अधिक गर्मी बर्दाश्त न होनेके कारण खयाल करता था कि यह लोग बनमानुपकी किस्मक १०-१५ गेजमें ही उन्हें उन्माद हो गया और हमसे लोग होत होग और इन्हें किमी अजायबघरमे पृथक कर दिय गय। दग्धूंगा। मगर जब आप यहाँ तशरीफ लाये और राजनैतिक बन्दियोके विचारोकी थाह लेनेके लिये मालूम हुआ कि श्राप जैन है तो मै फौरन घबग जेलमें मी. आई.डी. के आदमी भी सत्याग्रह आन्दो- कर कमसे बाहर आगया था। और आपने महसूम लनमे मजा लेकर आजाते थे। यह लोग कितना किया होगा कि ४-५ गज़ मै आपसे बचा-बचामा गहरा काटते है यह तो किसी और प्रमङमें लिखा रहता था। आपके माम आपकी तारीफ सुनकर जायगा । यहाँ तो केवल इतना लिखना है कि एक यकीन नहीं पाया था। जब आपको इतने नजदीकसे से छद्मवेषी सज्जन हमारे पास और भेज दिय देखा है तब भरम दूर हुआ है।" गय । ये हजरत एक रोज़ सिविलसर्जनसे स्वास्थ्य- मैने कहा-"पाधाजीने ग़लत नहीं कहा. उनका लाभक नामपर गोश्त और अण्डोंकी मॉग कर बैठे। किसी जैनने सताया होगा. तभी उनकी ऐसी धारणा डाकरने कहा-आपका यह खान-पान जैन साहबको बनी होगी। एक मछली मार तालाबको गन्दा अखग्गा तो नहीं। कर देती है।" नही. "मैंन इनसे इजाजत ले ली है।" में यह सुनकर कि कर्तव्य विमूढ़ हो गया. यह मियाँवाली जेल में अमर शहीद यतीन्द्रनाथदाम कहूं कि मुझसे क़तई नहीं पूछा तो माथी झूठा बनता भगतसिंह और हरिमिह रह चुके थे. मौभाग्यसे है. राजनैतिक बन्दियोकी शानमें फर्क आता है और उन्हीं बैरिका और कोठरिया में मुझे भी रहनेका चुप रहता हूँ. तो यह सब देग्वा कैसे जायगा ? मैं अवसर मिला । ४५ माह बाद ४ नजरबन्द बङ्गाली कुछ निश्चय कर भी न पाया था कि सिविलमर्जन और श्रागय। जो हमसे सर्वथा दर और गुप्त रख Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] व्यक्तित्व [३५७ गये । किन्तु पता उनके आनेसे पहले ही हमें चल मैं उनका मतलब ताड़ गया। यदि वास्तविक गया और हममेंसे एक साथीका जेलमें उनसे पत्र घटना बतलाता हूँ तो एक माथी मुसीबतमें फँसता है. द्वारा विचारांका आदान-प्रदान होने लगा। माथी मर दामनपर देशद्रोहका दारा लगता है। इमलिय सी० आई० डी०के संकेतपर एक पत्र जेलवालांने बातको बचाकर बोला-'बेशक. जैन कोई ऐसी बात पकड़ लिया और उससे बड़ी खलबर्ला मच गई। उस नहीं कहते जिससे किसीका दिल दुग्वे या काई मंकट वक्त मैं और एक वे पत्र व्यवहार करने वाले साथी में फंसे ।" दो ही जेलमें थे । पत्र पकड़े जाते ही उन्हें अन्यत्र भेज "बेशक. जैनियोकी ऐसी ही तारीफ सुना है ।" दिया और मुझे फॉसीकी १८ नं० कोठरीमे इसलिये फिर वह इधर-उधर की बात करके बाले-"क्यो भई भेज दिया कि मै घबराकर मब भेद खोल दूं। इस जैन साहब, वह बात आखिर क्या थी?" १० नं. की कोठरी में फाँसीकी मजा पाने वाला वही “जी. कौनमी ?" व्यक्ति एक रात रखा जाता था जिसे प्रातः फॉसी "भई वही. तुम तो बिल्कुल अजान बनत हो?" देना होती थी। कोठरिया में बन्द मृत्युकी सजा पाये मेरे होटसे सूख गये. मैं थूकको निगलता हुआ फिर हुए बन्दियोका करुण क्रन्दन नीद हराम कर देता था बोला-'मैं आपकी बातोंको क़तई नहीं समझा।" सा मालूम होता था कि श्मशानभूमिमे बठे धू-धू जैनसाहब, सच-सच कह दो हम तम्हे यकीन जलती चिताओको देख रहा हूँ। ३-४ गेज बन्द रहने दिलाते हैं तमपर जरा भी ऑच न आयगी। जैन पर जब अधिकारियोका विश्वास होगया. मार भयके . होकर झूठ न बोलो।" अब सब उगल देगा तो कलकर जेल सुपरिन्टेन्डेन्ट के साथ मेर पाम आया। मै उम वक्त कोठरीक "मुझ अफसोम है कि मेरे कारण आपको हमारी बाहर बंटा चरग्वा कात रहा था। वे मुझसे बिना बाले जातिपरसे विश्वास उठ रहा है। मैं आपको क्रमम ग्वाकर यकीन दिलाता हूँ कि भूठ बोलना तो दरमुआयनेक बहाने मेरी कोठरीमे गय और किमी काम किनार जिससे किमीका दिल दुग्वे हम एमा एक भी लायक काँगजकी ग्वाजके लिय मेग किताबोको इस तरह देखने लग जैसे लाइब्रेरीमे पुस्तकोंका यूँही उलट शन्न नहीं बालन.?" पलटकर देखा जाता है। फिर बोलनका बहाना ढूंढ ___ कलकर खुद अपने जालमे फॅम गया था वह क्या बात चलाये लाचार मुँह लटकाय चला गया। काई कर कलकर बोले- अच्छा ना आप दीवानं ग़ालिब भेट न मिलनेके कारण जब वे मर माथी रिहा कर समझ लेते हैं।" दिय गय तब ५ माह बाद मर्ग मजा पूरी होनेपर "जी ममझा ता नहीं हूँ ममझनेकी बेकार कोशिश उन्हें मुझको भी छोड़ना पड़ा। करता रहता है।" ___ मी० आई० डी० मुपरिन्टेन्डन्ट और जेल सुप"आप तो जैन हैं न?" रिन्टेन्डेन्टन काफी तरकीबे लडाई पर मफलता "जा। न मिली। “भई. सुना है जन झूठ नहीं बोलत ... १७ नवम्बर सन १६४८ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य - परिचय और समालोचन १ भारतीय संस्कृति और अहिंसा - मूल लेखक, स्व० धर्मानन्द कोसम्बी । अनुवादक. पं० विश्वनाथ दामोदर शोलापुरकर। प्रकाशक. हिन्दीग्रंथ रत्नाकर कार्यालय बम्बई । मूल्य दो रुपया । प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् स्व० कोसम्बीजीने यह पुस्तक मराठीमें 'हिन्दू संस्कृति आणि अहिंसा' नाम से लिखी थी । उसीका यह हिन्दी संस्करण है. जिसे हिन्दी भाषाभाषियोंके लाभार्थं हिन्दी - साहित्यके प्रसिद्ध सेवा और प्रकाशक पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने स्वर्गीय पुत्र हेमचन्द्रकी स्मृतिमें हिन्दीप्रन्थ रत्नाकर कार्यालयद्वारा प्रकाशित किया है और जो हेमचन्द्रमादी-पुस्तकमालाका प्रथम पुष्प है। प्रस्तुत पुस्तक में भारत की प्राचीन वैदिक श्रमण और पौराणिक इन तीन संस्कृतियों. उनके अङ्गप्रत्यङ्गो. विविध मतों अनेक मतप्रवर्तको राजनैतिक घटनाओं आदिपर ऐतिहासिक और स्वतन्त्र नई दृष्टिसे विचार किया गया है। साथ ही पाश्चात्य संस्कृति और उसकी सामाजिक व्यवस्थापर प्रकाश डालते हुए भारतीय सामाजिक क्रान्ति और महात्मा गांधीकी राजनीति साम्राज्यके गुण-दोषोंपर विचार करके अहिंसाका प्राचीन और अर्वाचीन तुलनात्मक स्वरूप बतलाया है । अतएव पुस्तकको वैदिक-संस्कृति श्रम संस्कृति, पौराणिक - संस्कृति, पाश्चात्य सस्कृति तथा संस्कृति और अहिसा इन पाँच मुख्य विभागोंअध्यायोंमें रखा गया है। लेखक अपने विशाल अध्ययन और कल्पनाके आधारपर जहाँ इसमें कितना ही स्पष्ट स्वतन्त्र विचार किया है वहाँ अनेक बातोकी तीव्र आलोचना भी की है। जैनोके ऋषभदेव आदि २० तीर्थङ्करो के चरित. उनके शरीरकी ऊँचाई और जैन साधुसंघकी बृहद्रूपता आदिपर भी संदेह व्यक्त किया है और उन्हें काल्पनिक बतलाया है। पुस्तकके 'अवलोकन' (प्रस्तावना) में उसके लेखक पं० सुखलालजीने उनके इस सन्देहका उचित समाधान कर दिया है। अतः उस सम्बन्ध में यहाँ लिखना अनावश्यक है । लेखकने जो एक खास बातका उल्लेख किया है वह यह है कि जैन तीर्थङ्कर पार्श्व के पहले अहिंसासे भरा हुआ तत्त्वज्ञान नहीं था - उन्हीने उसका उपदेश सुसम्बद्धरूपमें दिया था । लिखा है पार्श्वका धर्म बिल्कुल सीधा सादा था । हिसा असत्य स्तेय तथा परिग्रह इन चार बातो के त्याग करनेका वह उपदेश देते थे। इनने प्राचीनकालमें अहिसाको इतना सुसम्बद्धरूप देनेका यह पहला ही उदाहरण है । X x नात्पर्य यह है कि पार्श्वके पहले पृथ्वीपर सी अहिंसा से भरा हुआ धर्म या तत्त्वज्ञान था ही नहीं । पार्श्व मुनिने एक और भी बात की। उन्होंने अहिसाको सत्य अस्तंय और अपरिग्रह इन तीनो नियमोंके साथ जकड़ दिया । इस कारण पहले जो अहिंसा ऋषि-मुनियोंके आचरण तक ही थी और जनताके व्यवहारमे जिसका कोई स्थान न था. वह अव इन नियमोके सम्बन्धसे सामाजिक एवं व्यावहारिक होगई। पाश्वमुनिने तीसरी बात यह की कि अपने नवीन धर्म के प्रचार के लिये उन्होंने संघ बनाये । बौद्ध साहित्यसे इस बातका पता लगता है कि बुद्धके समय जो मघ विद्यमान थे उन सबमें जैन साधु और साध्वियोंका संघ सबसे बड़ा था।" पुस्तक नई दिशामें लिखी गई है और नये विचारोको लिये हुए है। अतः कितने ही पाठकांके क्षोभका कारण बन सकती है। पर संशोधक और गुग्न तटस्थ विचारकोंके लिये नतन और निर्भीक स्पष्ट विचार करनेकी एक नवीन दिशा प्रदर्शित करती Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] साहित्य-परिचय और समालोचन [ ३५९ दी. उयार प्रात और है। हिन्दी-साहित्यमें ऐसी पुस्तकको प्रस्तुत करनेके विन्यास अच्छा है । लेखकका यह प्रथम प्रयास लिये लेखक और प्रकाशक दोनो धन्यवादाह हैं। सराहनीय है और पुस्तक प्रचारके योग्य है। छपाई-सफाई सब सुन्दर है। ४. जैनधर्मपर लोकमत-संग्राहक और २. भाग्य-फलं (भाग्य-प्रकाशक-मार्तण्ड)- प्रकाशक, 'स्वतन्त्र' सूरत । मूल्य, जैनधर्म प्रचार । लेखक, पं० नेमिचन्द्र शास्त्री, ज्यातिषाचार्य न्याय- इसमे महात्मा गान्धीसे लेकर राजगोपालाचार्य ज्योतिषतीर्थ साहित्यरत्र । प्रकाशक और प्राप्ति कान्तकुटीर. आरा। मूल्य सजिल्द शा) और कोटिके विद्वानोंके जैनधर्मपर प्रकट किये गये मतोंअजिल्द ११॥)। विचारोका सङ्कलन किया गया है। पुस्तक संग्रहणीय ___ हरेक व्यक्ति यह जानने के लिये उत्सुक होता है तथा प्रचारके योग्य है। कि मेग भाग्यफल कैमा है ? मुझे कब और क्या ५. विश्वविभूति-स्वगारोहः-(श्री गान्धी गुणगीताञ्जलिः) लेखक, मुनि श्रीन्यायविजय । इस पुस्तकद्वारा इन्ही सब बातोपर अपने प्रशंसनीय प्रकाशक. श्री केशवलाल मङ्गलचन्द शाह पाटण ज्योतिषज्ञानका प्रकाश डाला है । इसमें वैशाम्बसे (गुजरात)। मूल्य कुछ नहीं। प्रारम्भ करके चैत्र तक बारह महीनामें उत्पन्न हुए प्रस्तुत छोटी-सी १६ पद्यात्मक रचना मुनि न्यायपुरुषों और स्त्रियोंका तिथि तथा दिनवार फलादेश विजयजीने गान्धोजीके स्वर्गारोहणपर संस्कृतमें रची (शुभाशुभ फलका प्रदर्शन) प्रस्तुत किया है। पुस्तक है और गुजराती अनुवादका लिय हुए है। रचना भारतीय और पाश्चात्य ज्योतिर्विदाके विविध ग्रन्थों ललित और सरल है। तथा प्राचीन और अर्वाचीन विचारोंके आधारसे ६. वस्तुविज्ञानसारलिखी गई है। भाषा मरल और चालू है। हिन्दी श्रीकानजी स्वामी । हिन्दो-अनुवाक, पं० परमेष्ठीदास सार-प्रवक्ता. अध्यात्मयोगी साहित्यके भण्डारमे ऐसी अच्छी भेंट उपस्थित करने जैन न्यायतीर्थ । प्रकाशक, श्रीजैन स्वाध्यायमन्दिर के लिय लेखक अवश्य ही अभिनन्दनके याग्य है। ट्रस्ट सोनगढ़ (काठियावाड़)। मूल्य, कुछ नहीं। हम उनकी इस सत्कृतिका ममादर करते हुए पाठकोसे अनुरोध करते हैं कि वे इस पुस्तकका जरूर मॅगाकर ___यह श्रीकानजी स्वामीके गुजरातीमें दिये गये पढ़ें और अपने फलाफलको ज्ञात करें। आध्यात्मिक प्रवचनोंका महत्वपूर्ण संग्रह है। इसमें अनन्त पुरुषार्थ, आत्मस्वरूपकी यथार्थ समझ. उपा३. सम्राट खारवेल-लेखक, जयन्तीप्रसाद दान-निमित्त आदि मात विषयोंपर अच्छा विवेचन जैन साहित्यरत्न । प्रकाशक और प्राप्तिस्थान, नवयुग किया गया है। स्वाध्याय-प्रेमियोंके लिये पुस्तक पठजैन साहित्य-मन्दिर खतौली। मूल्य १।)। नीय और संग्रहणीय है। ___ यह एक नाटक ग्रन्थ है जिसमें जम्बूकुमार ७. सत्य हरिश्चन्द्र-रचयिता. मुनि श्रीअमर(अन्तिम केवली जम्यूस्वामी) अन्जन मुक्तियज्ञ और चन्द्र कविरत्न । प्रकाशक. सन्मतिज्ञानपीठ आगरा। सम्राट् ग्वारवेल ये चार नाटक निबद्ध हैं। इनमें मूल्य शा)। सम्राट खारवेल अन्य नाटकोंसे बड़ा है और इस सत्य हरिश्चन्द्र भारतीय इतिहासमें प्रसिद्ध हैं। लिये उसकी प्रधानतासे पुस्तकका नाम भी सम्राट गाँव-गाँधमे और नगर-नगरमें उनकी गुण-गाथा गाई खारवेल रखा गया जान पड़ता है। नाटक सभी जाती है। उन्होंने सत्यके लिये स्त्री. पुत्र और अपना भावपूर्ण और शिक्षाप्रद हैं। शब्द और भाव दोनोंका तन भी उत्सर्ग कर दिया था और भारतके परातन Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ३६० ] उज्ज्वल आदर्शको उन्नत किया था। मुनिजीने हिन्दी पद्योंमे उन्हींकी बड़े सुन्दर ढङ्गसे गुण गाथा गाई है । पुस्तक अच्छी बन पड़ी है और लोकरुचिके अनुकूल है । भाषा और भाव सरल तथा हृदयग्राही हैं। ८. सामायिकसूत्र -- लेखक उक्त उपाध्याय मुनि श्री अमरचन्द कविरत्न. प्रकाशक, सन्मतिज्ञानपीठ आगरा। मूल्य ३ | | ) | मुनिजीने इसमें सामायिकके सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन किया है और अपनी स्थानकवासी परम्परानुसार सामायिकसूत्रोंका सङ्कलन और सरल हिन्दी व्याख्यान दिया है । पुस्तकके मुख्य तीन विभाग है । पहले-प्रवचन विभागमें विश्व क्या है चैतन्य मनुष्य और मनुष्यत्व, सामायिकका शब्दार्थ आदि सामाकिसे सम्बन्ध रखनेवाले कोई २७ विपयोपर विवेचन है । दूसरे 'सामायिकसूत्र' में नमस्कारसूत्र आदि ११ सूत्रोंका अर्थ है और अन्तिम तीसरे विभागमे परिशिष्ट है, जिनकी संख्या पाँच है । प्रन्थकं प्रारम्भ में पं० वेचरदासजीका विद्वत्तापूर्ण अन्तर्दर्शन' (भूमिका) है । श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओंके सामायिकापर भी संक्षेपमें प्रकाश डाला है । दिगम्बर परम्परा के आचार्य अमितगतिका सामायिकपाठ भी अपने हिन्दी अर्थ के साथ दिया है। पुस्तक योग्यतापूर्ण और सुन्दर निर्मित हुई है । भाषा और भाव दोनो और आकर्षक है। सफाई - छपाई अच्छी है। लेखक और प्रकाशक दोनो इसके लिये धन्यवादके पात्र है । ९. कल्याणमन्दिर - स्तोत्र - लेखक और प्रकाशक, उपर्युक्त मुनिजी तथा पीठ । मूल्य ।। ) । [ वर्ष अच्छा और सरल हुआ है। पं० बनारसीदासजीका भाषा कल्याणमन्दिर - स्तोत्र भी इसके साथ में निबद्ध है । कल्याणमन्दिर - स्तोत्र जैनोंकी तीनो परम्पराओं में मान्य है। यह स्तात्र बड़ा ही भावपूर्ण और हृदय - ग्राही है। प्रस्तुत पुस्तक उसीका हिन्दी अनुवाद है । ग्रन्थके आरम्भ में मुनिजी ने इसे सिद्धसेन दिवाकरकी कृति बतलाई है जो युक्तियुक्त नही है। यह दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्रकी रचना है, जैसा कि ग्रन्थके अन्तमें 'जननयनकुमुदचन्द्र' इत्यादि पदके द्वारा सूचित भी किया गया है। मुनिजीका यह अनुवाद भी प्रायः १० श्रीचुतविंशति - जिनस्तुति (वृत्ति सहित) - लेखक विद्यावारिधि श्रीसुन्दरगरिण । प्रकाशक, श्रीहिन्दीजैनागम - प्रकाशक- सुमतिकार्यालय, जैन- प्रेस काटा (राजपूताना )। मूल्य ।) । इसमे ऋषभादि चौबीस जैन तीथङ्करो की संस्कृत भाषा में गरणीजीने स्तुति की है और स्वयं उसकी संस्कृत वृत्ति भी लिखी है । पुस्तक उपादेय है । ११. श्रीभावारिवारण-पादपूर्त्यादिस्तोत्र संग्रहसंग्राहक और संशोधक मुनिविनयसागर । प्रकाशक. उक्त जैनप्रेस कोटा । मूल्य भेट । इस संग्रहसें तीन छोटे-छोटे सवृत्ति स्तोत्रोंका संकलन हैं | पहला समसंस्कृत और अन्य दोनों संस्कृत भाषामे है । प्रथम भावारिवारणपादपूर्ति और दूसरे पार्श्वनाथलघुस्तोत्र तथा दोनोंकी वृत्तियों के रचयिता वाचनाचार्य श्रीपद्मराजगण है । और तीसरी 'सवृत्त जिनस्तुति' रचनाकं कर्ता श्रीजिनभुवनहिताचार्य है । तीनो रचनाएँ प्राय: अच्छी है। १२. चतुर्विंशति - जिनेन्द्रस्तवन - रचयिता, वाचनाचार्य श्रीपुण्यशील गणी । प्रकाशक, उपर्युक्त प्रेम कोटा । मूल्य भेंट | नाना रागो और रागनियों में रची गई यह एक संस्कृतप्रधान रचना है। इसके कुछ स्तवनोंमे देशियोका भी उपयोग किया गया है। इस रचनामे कुल २५ स्तवन हैं । २४ तो चौबीस तीर्थङ्करो के हैं और अन्तिम लोकरुचि-प्रदर्शनका रहा है। पुस्तक प्राह्य है। सामान्यतः जिनेन्द्रका स्तवन है । लेखकका उद्देश्य 1 - कोठिया । १३. कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न - लेखक, गोपालदास जीवाभाई पटेल | अनुवादक पंडित शोभाचन्द्र भारिल्ल । प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ. काशी । पृष्ठ संख्या १४२ । मूल्य सजिल्द प्रतिका २) । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण है ] इस पुस्तक आचार्य कुन्दकुन्द के पचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार नामके तीन प्रन्थोंके मुख्य विषयोका अपने ढङ्गसे एकत्र सग्रह और सङ्कलन किया गया है। इससे संक्षेप- प्रिय पाठकोको विषय-विभागसे तीनों ग्रन्थोका रसास्वादन एक साथ होजाता है । लेखकका यह प्रयत्न और परिश्रम प्रशंसनीय है । पुस्तकके उपोद्घातमे प्रन्थकर्ता. उनके ग्रन्थों तथा उनकी गुरुपरम्पराका भी संक्षेपमें परिचय दिया है। पुस्तक अच्छी उपयोगी एवं संग्रहणीय है । छपाई - सफाई सब ठीक है । १४. करलक्खण (सामुद्रिकशास्त्र) – संपादक प्रफुल्लकुमार मोदी एम० ए०. प्रो० किङ्ग एडवर्ड कॉलेज अमरावती । प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी | पृष्ठ संख्या सब मिलाकर ३८ । मूल्य, सजिल्द प्रतिका १) इस अज्ञात कतृक पुस्तकके नामसे ही उसके विषयका परिचय मिल जाता है। इसमें शारीरिक विज्ञानके अनुसार हाथकी रेखाओकी आकृति. बनावट रूप रङ्ग कोमलता कठोरता स्निग्धता और रूक्षता तथा सूक्ष्म-स्थूलनादिकी दृष्टिसे विभिन्न रेखाका विभिन्न फल बतलाया गया है। शरीर सबन्धी चिह्नो या रेखाओं के द्वारा मानवीय प्रवृत्तियोके शुभाशुभ फलका निर्देश करना भारतीय सामुद्रिकग्रन्थीकी प्राचीन मान्यता है । इस विपयपर भारतीय साहित्य में अनेक ग्रन्थोकी रचना हुई है। प्राक्कथनद्वारा डाकर ए.एन. उपाध्ये एम.ए ने इमपर संक्षेपतः प्रकाश डाला है । वीरसेवामन्दिर में भी एक अज्ञान कर्तृ के कररेहालक्खण' नामका ५६ गाथाप्रमाण छोटा-सा सामुद्रिक ग्रन्थ है जो एक प्राचीन गुटकेपरसे उपलब्ध हुआ है। इन दोनों ग्रन्थोका विषय परस्पर मिलता-जुलता है और कहीं-कहीपर गाथा तथा पदवाक्य भी मिलते हैं। परन्तु मङ्गलाचरण दोनोका भिन्न-भिन्न है। दोनों प्रथोको सामने रखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि उनपर एक दूसरेका प्रभाव स्पष्ट है। वे मङ्गल पद्य इस प्रकार है:पणमिय जिणममित्रगुणं गयरायसिरोमणि महावीरं । वुच्छं पुरिसत्थीगं करलक्खणमिह समासेणं ||१|| - मुद्रित प्रति साहित्य-परिचय और समालोचन [ ३६१ वंदित्ता अरिहंते सिद्ध आयरिय सव्वसाहूय । संखेवेण महत्थं कररेहालक्खणं वुच्छं ॥१॥ - लिखित प्रति मुद्रित प्रतिमें मङ्गलाचरणके बाद निम्न गाथा दी हुई है : पावइलाहालाहं सुहदुक्खं जीविश्रं च मरणं च । रेहाहि जीवलोए पुरिसोविजयं जयं च तहा ||२|| परन्तु लिखित प्रतिमें इस स्थानपर निम्न दो गाथाएँ दी हुई हैं जिनमेंसे प्रथम गाथाका चतुर्थ चरण भिन्न है शेष तीन चरण मिलते-जुलते हैं । किन्तु तीसरी गाथा मुद्रित प्रतिमें नहीं मिलती। पाइलाला सुह- दुक्खं जीविय मरणं च । रेहाए जीवलोए पुरिसो महिलाइ जाणिज्जइ ॥२॥ पुत्तं च धणं कुलवंसं देह- संपत्ती | पुव्वभव संचियाणि य पुन्नाणि कहंति रेहा ॥३॥ इन उद्धरणोसे स्पष्ट है कि एक ग्रन्थपर दूसरेका प्रभाव अवश्य है । १५. मदनपराजय- मूल लेखक, कवि नागदेव । अनुवादक-सम्पादक. पं० राजकुमारजी साहित्याचार्य । प्रकाशक. भारतीय ज्ञानपीठ काशी । पृष्ठ संख्या. सब मिलाकर २४२ । मू० सजिल्द प्रतिका ८) रुपया । प्रस्तुत ग्रन्थ एक रूपक-काव्य है. जिसमें कामदेव के पराजयकी कथाका भावपूर्ण चित्रण किया गया है। कविने अपनी कल्पना - कलाकी चतुराईसे कथावस्तुकी घटनाको अपूर्व ढङ्गसे रखनेका प्रयत्न किया है और वह इसमें सफल भी हुआ है। प्रस्तुत रचना बड़ी ही सुन्दर एवं मनोमोहक है और पढ़नेमे अच्छी रुचिकर जान पड़ती है । सम्पादकद्वारा प्रस्तुत प्रथका मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद भी साथमें दिया हुआ है । प्रन्थके आदिमे महत्वपूर्ण प्रस्तावनाद्वारा भारतीय कथासाहित्यका तुलनात्मक विवेचन करके उसपर कितना ही प्रकाश डाला गया है। पं० राजकुमारजी जैनसमाजके एक उदीयमान विद्वान और लेखक हैं। आशा है भविष्य में आपके द्वारा जैन साहित्य सेवाका कितना ही कार्य सम्पन्न हो सकेगा। प्रस्तुत प्रन्थ पठनीय व संग्रहणीय है । - परमानन्द शास्त्री Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धांजलि [यह श्रद्धाञ्जलि पूज्य श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी के मुरार (ग्वालियर)से प्रस्थान करनेके अवसरपर पढ़ी गई] (रचयिता-श्रीब्रजलाल उर्फ भैयालाल जैन "विशारद" मुगर) हे पूज्यवर्य गुरुवर तुम हो, विद्या निधान मानव महान ! शचि शान्ति-सुधा वर्षण करके, जन-मनमें प्रेम बढाया है । मानव-कर्तव्य स्वयं करके, युगधर्म हमें दर्शाया है । देकर ज्ञान-दान, जगका तुम करने चले आत्म कल्याण ॥ हे पूज्य० अज्ञान मिटा करके तुमने लघु-जनको विद्या दान दिया । निजवरद हस्त देकर हमको आत्मोन्नतिका सद्ज्ञान दिया । तुम धर्मस्नेह लेकर आये करने मानवको दीप्तिमान ॥ हे पूज्य० निज जीवन कर अर्पण तुमने मानव-संस्कृति-विस्तार किया । "स्याद्वाद" "सत्तर्क भवन" से जैन सिद्धान्त प्रसार किया । तुम ज्ञान-कोष लेकर आये देने जीवोंको अमर दान ॥ हे पूज्य उपहार नहीं ऐसा कुछ है, उत्साह बढ़ाऊँ मै जिससे । श्रद्धाञ्जलि भक्तीकी "भैया" ले मात्र उपस्थित हूँ इससे ॥ गुरुदेव इसे स्वीकार करो कर अपराधोका क्षमा दान ॥ हे पूज्य० चिरजीवो तुम युग-युग वर्णी शभ यही भावना है प्रतिक्षण । गुरुवर तेरे उपकारोसे है ऋणी हुआ जगका कण-कण ॥ अभिनन्दन करने हम आये कर भावोंकी माला .प्रदान ॥ हे पूज्य छैह मास हुए जबसे हमने प्रिय वाणीका आस्वाद लिया ॥ दिल्ली प्रस्थान दिवस सुनकर, है हमे मोहने घेर लिया । हृद्गत सुभक्ति नयनोंमे अश्रु , हे देव ! सफल हो तव प्रस्थान ॥ हे पूज्य Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय जैन-साहित्यपर विहारके शिक्षामन्त्री इतिहास, पुरातत्वकी तमाम शाखा. जैन. साहित्य, शिलालिपि, टेराकोटा, मुद्रा, प्रतिमाएँ आदि जितनी जबसे मैंने बिहार प्रान्तमे प्रवेश किया है तभीसे भी मौलिक साधन-सामग्री समुपलब्ध हो रही है मनमें एक बात बहुत ही खटक रही है कि इस उनका विस्तत वैज्ञानिक रूपसे गम्भीर अध्ययन किया प्रान्तका सवागपूण इतिहाम क्यान तयार कराया जाय, तदनन्तर संक्षिप्त रूपमे उपर्युक्त साधनोको जाय, क्योकि नालन्दा राजगृह, पावापुरी. वैशाली, उपयोगिता. महत्ता और उनके जन-जीवनसे सम्बन्ध गया आदि दर्जनो प्राचीन ऐतिहासिक स्थान ऐसे है; ज्ञापक साहित्य तैयार करवाकर एक ग्रन्थ संग्रहीत जिनका मूल्य न केवल विहार प्रान्तीय दृष्टिसे हा ह कर प्रकाशितकर जनताके सम्मुख उपस्थित किया अपित शिक्षा और संस्कृतिका जहाँ तक सम्बन्ध है, जाय यह काम कुछ श्रम और अथसाध्य तो अवश्य उनका अन्तराष्ट्रीय महत्व भी अधिक है। मुझे कुछेक हा है पर सरकारका सर्वप्रथम कार्य भी यही होना खण्डहरोम घूमनेका पौभाग्य प्राप्त हुआ है. उसपरसे चाहिय । यह विहारका सवोगपूर्ण इतिहास नहीं मै कह सकता हूँ कि वहाँ विचारोका प्रवाह इतने होगा पर आगामी लिखे जाने वाले इतिहासकी पूर्व जागसे बहता है कि दो-दा शाट हेण्ड रखें तो भा भूमिकाका एक मागदशक अङ्ग हागा, हमारा कार्य उसे गिरफ्तार नहीं किया जा सकता । उनके कण- साधनोंका संग्रह होना चाहिये, लेखन कार्य अगली कणम माना विहारका सांस्कृतिक आत्मा बाल रही है पीढी करी जो मानसिक स्वातन्त्र्यके युगमें शिक्षा जहाँपर विहार और विभिन्न प्रान्तीय या देशीय पाकर अपनी दृष्टिसे अपने पूर्वजाक कृत्यांकी समीक्षा विदानाने बैठकर ज्ञान-विज्ञानको समस्त शाखाश्रीका करनेकी योग्यता रखता हो। गम्भार बहुमुखी अध्ययन किया, जहाँ के पण्डितोंने विदेशोमे आयसंस्कृतिकी विजय-वैजयन्ती फहराई। आज हम जो कुछ भी लिखते-सोचते हैं केवल परन्तु आज अतिखेदकं साथ मूचित करना पड़ रहा अँग्रेजोद्वारा प्रस्तुत किये तथ्योंके आधारपर ही । जो है कि उपर्युक्त ऐतिहासिक विशाल-माधन सामग्रीकी उनकी अपनी एक दृष्टिसे प्रस्तुत किय गय हैं । परन्तु उपेक्षा, जितना बाहर वाले नहीं करते उससे कहीं अबतो समयने बहुत परिवर्तन ला दिया है। हमार अधिक विहारके विद्वानो द्वारा हो रही है। मै यहाँ प्रान्त या सारे देशमे ऐसे कितने प्रतिभा-सम्पन्न देग्यता हूँ कि किसीको पुरातत्वके माधनाके प्रति विद्वान है; जो खंडहरोंकी खाक छानकर ऐतिहासिक हमदर्दी ही नहीं है। मै यह भी स्वीकार करता हूँ कि स्थानोंमें परिभ्रमणकर, जंगलोमें यातना सहकर, यह विषय इतना सूग्वा है कि कहानी-कविनाकी उपा- वहॉकी पुरातन सामग्रीको अपनी दृष्टिसे देखकर मना करने वाला वर्ग इनको नहीं समझ सकता। लिखनेकी योग्यता रखते है, जिनमें अपनी स्वकीयता वर्षीकी ज्ञान उपासना करनेके बाद ही उनकी मार्व- हो। किसी भी वस्तुके वास्तविक मर्मको बिना समझे भौमिक महत्ताको आत्मसात किया जामकता है। यह उसे आत्मसात् करना असम्भव है और बिना उपेक्षा अग्रिम निर्माणमे बड़ी घातक सिद्ध होगी। आत्मसान् किये कुछ लिखना-पढ़ना कोई अर्थ नहीं गत दिसम्बर मासमें मैं इस सम्बन्धमें विहार रखता. जिनमें अनुभूति न हो । सच कहना यदि सरकारके अर्थमन्त्री डाफर अनुग्रहनारायणसिंहसे उलटा न माना जाय तो मैं जोरदार शब्दोंमें कहेंगा मिला था उनके सम्मुख मैंने अपनी एक योजना कि अभी तो विहारके विद्वानोने विहारकी संस्कृति रखी. जिसमें बताया गया था कि विहार प्रान्तके और इतिहासके विभिन्नतम साधनोंका समचित Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ अध्ययन नहीं किया प्रत्युत उस ओर सर्वथा पक्षपात- बहुतसे ऐसे तत्व प्रकाशमें आवेंगे जिनका ज्ञान हमें पूर्ण या उपेक्षित मनोवृत्तिसे काम लिया है। यही श्राजतक न था। मैं तो स्पष्ट कहूँगा कि विहारका कारण है कि इतनी विशाल ऐतिहासिक सामग्रीके इतिहास भारतका इतिहास है । विहारका इतिहास रहते हुए भी योग्य विद्वानके अभावमें श्राज वह बहुत कुछ अंशोंमें जैनसाहित्यके अध्ययनपर सामग्री विधुरत्वका अनुभवकर रही है। निर्भर है। अतः बिना जैनसाहित्यके अन्वेषणके ता०४-१०-५८ को विहारके कविसम्राट श्रीयुत् ' हम अपने प्रान्तका इतिहास लिखनेकी कल्पना रामधारीसिंह 'दिनकर'के साथ मैंने अपनी हार्दिक तक नही कर सकते। व्यथा विहार सरकारके शिक्षामन्त्री श्रीयुत बद्रीनाथ हमारे प्रान्तकी प्राचीनतम भाषाका स्वरूप भी वर्माके मन्मुख रखी । मुझे वहाँ मालूम हुआ कि वे जैनोंने अपने साहित्यमें सुरक्षित रखा है। अतः भी इसी रोगसे पीड़ित हैं, वे स्वयं चाहते है कि हम हम उन्हें कैसे भूल सकते है, बल्कि मै तो कहूँगा अपनी दृष्टिसे ही अपने प्रान्तका सर्वाङ्गपूर्ण इतिहास कि हमारा प्रान्त उन जैन विद्वानोंका सदैव ऋणी तैयार करवावें । आपने अपनी युद्धोतर योजनामे रहंगा जिन्होंने हमारे सांस्कृतिक तत्व सुरक्षित संशोधन सम्बन्धी भी एक योजना रखी है जिसपर रखने में हमारी बड़ी मदद की। मैं यह चाहता हूँ भारत सरकारकी मंजूरी भी मिल गयी है. परन्तु उसे और आपसे प्रार्थना करता हूँ कि यदि आप स्वयं मूर्तरूप मिलनेमें पर्याप्त समयकी अपेक्षा है । श्रादर्श जैनसाहित्यमे विहार, नामक एक ग्रन्थ तैयार कर की सृष्टि करना उतना कठिन नहीं जितना उनको दें तो बड़ा अच्छा हो । हमारी सरकार इस कार्य में मूर्तरूप देना कठिन है । प्रसंगवश मैने विहारकी हर तरहसे मदद करनेको तैयार है। सरकार ही संस्कृतिके बीज जैन-साहित्यमें पाये जानेकी चर्चाकी इसे प्रकाशित भी करंगी । हमारी तो वर्षोंकी तो उनका हृदय भर आया। मुग्वाकृति ग्विल उठी। मनोकामना है कि प्रत्येक धर्म और साहित्यकी इस समय आपने सद्भावनाअोसे उत्प्रेक्षित होकर दृष्टियोमें हमारे प्रान्तका स्थान क्या है ? हम जाने जो शब्द जैन-साहित्यपर कहे उन्हें मैं सधन्यवाद और वर्तमानरूप देने में आवश्यक सहायता करें। उधृत किये देता हूं: यदि आप अभी लेखन कार्य चाल करें तो "जैनसाहित्य बडा विशाल विविध विषयोंसे ४००) रुपये तक मासिक जो कुछ भी क्लर्क या सहायक विद्वान्का खर्च होगा, हम देंगे।" समृद्ध है । अभी तक हमारे विहार प्रान्तके विद्वानोंने इस महत्वपूर्ण साहित्यपर समुचित ध्यान उपर्युक्त शब्द बद्री बाबूके हृदयके शब्द हैं । इनमें नही दिया है। विहार प्रान्तके इतिहास और पॉलिश नहीं है। उनके शब्दोसे मेरा उत्साह और भी संस्कृतिकी अधिकतर मौलिक सामग्री जैनसाहित्य- आगे बढ़ गया। मैने उपर्युक्त शब्द इस लिए उद्धत मे ही सुरक्षित है। विशेषतः श्रमण भगवान किये हैं कि हमारे समाजके विद्वान जरा ठंडे दिमागसे महावीर कालीन हमारे प्रान्तका सांस्कृतिक चित्र सोचें कि हमारे साहित्यमे कितनी महान निधियाँ जैसा जैनोंने अपने साहित्यमें अङ्कित कर रखा है भरी पड़ी हैं जिनका हमें ज्ञान तक नहीं और अजैन वैसा अजैन साहित्यमें हर्गिज नही पाया जाता। लोग जैनसाहित्यको केवल विशुद्ध सांस्कृतिक दृष्टिसे साहित्य-निर्माण और संरक्षणमें जैनोंने बड़ी उदा- देखते है तो उन्हें बड़ा उपादेय प्रतीत होता है। वे रतासे काम लिया है। यदि हम जैनसाहित्यका मुग्ध हो जात है। केवल सांस्कृतिक दृष्टिसे ही अध्ययन करें तो १०-१० १९४८ मुनि कान्तिसागर Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ canegree ATARNA PRAKASE | भारतीय ज्ञानपीठ काशीके प्रकाशन | १. महाबन्ध-(महधवल सिद्धान्तशास्त्र) प्रथम भाग । हिन्दी टाका महिन मूल्य १२)। २. करलक्खण-(सामुद्रिक शास्त्र) हिन्दी अनुवाद महित । हस्तरेखा विज्ञानका नवीन प्रन्थ । मम्पादक---प्रो० प्रफुल्लचन्द्र मोदी एमए, अमरावती । मूल्य २)। ३. मदनपगजय- कवि नागदेव विरचित (मूल संस्कृत) भापानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावना मस्ति । जिनदेवके कामके पराजयका मम्म रुपक । सम्पादक और अनुवादक-प- राजकुमारजी सा० । मू०८) ४. जैनशासन-जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करने वाली सुन्दर रचना । हिन्दू विश्वविद्यालयके जैन रिलीजनकं एफ० ए. के पाठ्यक्रममे निर्धारित । मुखपृष्ठपर महावीरस्वामीका तिरङ्गा चित्र । मूल्य ४४) ५. हिन्दी जैन-साहित्यका संक्षिप्त इतिहास-हिन्दी जैन-माहित्यका इतिहास तथा परिचय । मूल्य २)। ६. आधुनिक जैन-कवि-वर्तमान कवियोंका कलात्मक परिचय और सुन्दर रचनाएँ । मूल्य ३)। ७. मुक्ति-दूत-अञ्जना-पवनञ्जयका पुण्यचरित्र (पौगणिक गैमास) मू० ४||| JX ८. दो हजार वर्षकी पुरानी कहानियां-(६४ जैन कहानियाँ) व्याख्यान तथा प्रवचनोंमे उदाहरण देने योग्य । मूल्य ३)। ९. पथचिह्न-( हिन्दी साहित्यकी अनुपम पुस्तक ) स्मृति रेखाएँ और निबन्ध । मूल्य २)। १०. पाश्चात्यतकशास्त्र-(पहला भाग) एफ० ए० के लॉजिकके पाठ्यक्रमकी पुस्तक । लेखक-भिक्षु जगदीशजी काश्यप, एफ० ए०, पालि-अध्यापक, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी | पृष्ठ ३८४ । मूल्य ४|| ११. कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्नमूल्य २)। १२. कन्नडप्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची-(हिन्दी) मृडबिद्रीक जैनमठ, जैन भवन, सिद्धान्तवसदि तथा अन्य प्रन्थभण्डार कारकल और अलिपूरके अलभ्य ताडपत्रीय प्रन्थोंके सविवरण परिचय । प्रत्येक मन्दिरमे तथा शास्त्र-भण्डारमे विराजमान करने योग्य । मृल्य १३)। वीरसेवामन्दिरके सब प्रकाशन भी यहाँपर मिलते हैं प्रचारार्थ पुस्तक मॅगाने वालोंको विशेष सुविधाएँ भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस ।। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. A-731 ArrogreRRERGES AgreAgreARE शेर-ओ-शायरी Baw@RGEMBERa@GAUREGERMOGHEROIRREGAR [उर्दू के सर्वोत्तम १५०० शेर और १६० नम] प्राचीन और वर्तमान कवियोंमें सर्वप्रधान लोक-प्रिय ३१ कलाकारोंके मर्मस्पर्शी पद्योंका सङ्कलन और उर्दू-कविताकी गति-विधिका आलोचनात्मक परिचय प्रस्तावना-लेखक हिन्दी-साहित्य सम्मेलनके सभापति महापंडित राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं "शेरोशायरी"के छ सौ पृष्ठोंमे गोयलीयजीने उर्दू - कविताके विकास और उसके चोटीके कवियोंका काव्य-परिचय दिया । यह एक कवि-हृदय, माहित्य-पारखीके आधे जीवनके परिश्रम और साधनाका फल है । हिन्दीको ऐसे ग्रन्थोंकी कितनी आवश्यकता है. इसे कहनेकी आवश्यकता नहीं । उर्दू-कवितासे प्रथम परिचय प्राप्त करनेवालोके लिये इन बातोका जानना अत्यावश्यक है। गोयलीयजी जैसे उर्द-कविताके मर्मज्ञका ही यह काम था. जो कि इतने मंक्षेपमें उन्होंने उर्दू 'छन्द और कविता"का चतुमुखीन परिचय कराया । गोयलीयजीके संग्रहकी पक्ति-पंक्तिसे उनकी अन्तदृष्टि और गम्भीर अध्ययनका परिचय मिलता है । मै तो ममझता हूँ इस विषयपर ऐसा ग्रन्थ वही लिख सकते थे।" कर्मयोगीके सम्पादक श्रीसहगल लिखते है "वर्षोंकी छानबीनके बाद जो दुर्लभ सामग्री श्रीगोयलीयजी भेट कर रहे हैं इसका जवाब हिन्दी-संसारमे चिराग़ लेकर ढूँढनेसे भी न मिलेगा. यह हमारा दावा है ।" सुरुचिपूर्ण मुद्रण, मनमोहक कपड़ेकी जिल्द पृष्ठ संख्या ६४० -मूल्य केवल आठ रुपए भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड, बनारस GORIBRARRETURMERSTARROTHERRIERaod प्रकाशक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री भारतीय शानपीठ काशीके लिये श्राशागम खत्री द्वारा गेयत्न प्रेम महारनपुरम मटित Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ grac वर्ष प्रधान सम्पादक जुगलकिशोर मुख्तार सह सम्पादक मुनि कान्तिसागर दरबारीलाल न्यायाचार्य अयोध्याप्रसाद गोयलीय डालमियानगर (विहार) ⭑ कान्त श्रश्विन, संवत् २००५ :: अक्तूबर, सन् १६४८ ww Pargate 望 विषय-सूची विषय १ - मदीया द्रव्य - पूजा (कविता) २-समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने ( युक्तयनुशासन) ३ - महावीरकी मूर्ति और लङ्गोटी ४ - गॉधीजीकी जैन-धर्मको देन ५- भारतीय इतिहास में अहिंसा ६ - अहारक्षेत्रके प्राचीन मूर्ति-लेख ७ – नर्म (कहानी) মद 7h ***** पृष्ठ ३६५ ३६६ ३६८ ३६६ ३७५ ३८३ ३६१ ८- अपभ्रंशका एक शृङ्गार-वीर काव्य ३६४ - चित्र क्षुल्लक श्रीगणेशप्रसादजी वर्णी ४०५ १० – समाज सेवको के पत्र ४०६ किरण १० सञ्चालक-व्यवस्थापक भारतीय ज्ञानपीठ, काशी 100000 संस्थापक-प्रवर्तक वीरसेबामन्दिर, सरसावा Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तका 'सन्मति-सिद्धसेनाङ्क' U CKe TV Wa DUO अनेकान्तकी अगली (११वीं) किरण 'सन्मति-सिद्धसेना के रूपमें विशेषाङ्क होगी, जिसमें अनेकान्तके प्रधान सम्पादक मुख्तारश्री जुगलकिशोरजीका 'सन्मति-सूत्र और सिद्धसेन' नामका एक बड़ा ही महत्वपूर्ण एवं गवेषणापूर्ण खास लेख (निबन्ध) रहेगा, जो हाल ही में उनकी महीनोंकी अनमोल साधना और तपस्यासे सिद्ध हो पाया है। लेखमें सन्मतिसूत्रका परिचय देने और महत्व बतलानेके अनन्तर १ ग्रन्थकार सिद्धसेन और उनकी दूसरी कृतियाँ.. सिद्धसेनका समयादिक, ३ मिद्धसेनका सम्प्रदाय और गुणकीर्तन नामके तीन विशेष प्रकरण है. जिनमें गहरी छान-बीन और खोजके साथ अपने-अपने विषयका प्रदर्शन एवं विशद विवेचन किया गया है और उसके द्वारा यह स्पष्ट करके बतलाया गया है कि सन्मतिसूत्र, न्यायावतार और उपलब्ध सभी द्वात्रिशिकाओको जो एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ माना जाता तथा प्रतिपादन किया जाता है वह सब भारी भूल, भ्रान्त धारणा अथवा ग़लत कल्पनादिका परिणाम है और उसके कारण आजतक सिद्धसेनके जो भी परिचय-लेख जैन - तथा जैनेतर विद्वानोके द्वारा लिखे गये हैं वे सब प्रायः खिचड़ी बने हुए हैं और कितनी ही गलतफहमियोको जन्म दे रहे तथा प्रचारमें ला रहे है। इन सब ग्रन्थोके कर्ता प्रायः तीन सिद्धसेन है, जिनमें कतिपय द्वात्रिशिकाओके कर्ता पहले, सन्मतिसूत्रके कर्ता दूसरे और न्यायावतारके कर्ता तीसरे मिद्धसेन है-तीनोका समय भी एक दूसरेसे भिन्न है, जिसे लेखमे स्पष्ट किया गया है । शेप द्वात्रिशिकाओके कर्ता इन्हीमेंसे कोई हो सकते हैं। साथ ही, यह भी स्पष्ट किया गया है कि सन्मतिसूत्रके . कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर सम्प्रदायके एक महान आचार्य थे-वेताम्बर सम्प्रदायने उन्हें समन्तभद्रकी तरह अपनाया है। अनेक द्वात्रिंशिकार भी दिगम्बर सिद्धसेनकी कृतियाँ हैं। मुख्तार साहबकी इस एक नई खोजसे शताब्दियोंकी भूलोको दूर होनेका अवसर मिलेगा और कितनी ही यथार्थ वस्तुस्थिति सभीके सामने आएगी, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है। लेख विस्तृत, गम्भीर तथा विचारपूर्ण होनेपर भी पढ़ने में बड़ा रोचक हैएकबार पढ़ना प्रारम्भ करके छोड़नेको मन नहीं होता और उममें दूमरी भी कितनी ही बातोपर नया प्रकाश डाला गया है। पाठक इस विशेषाङ्कको देखकर प्रसन्न होगे और विद्वज्जन उससे अपने-अपने ज्ञानमें कितनी ही वृद्धि करनेमें समर्थ हो सर्व ऐसी दृढ़ आशा है। परमानन्द जैन शास्त्री प्रकाशक 'अनेकान्त' 志志去去去去去去去去去去去去去去火的志去去去去 रka Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अहम् A सतत्त्व-प्रकाशक l lagnituRNIMAL बार्षिक मूल्य ५) एक किरणका मूल्य || NAL नीतिविरोधचसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥ वर्षह किरण १० वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जिला सहारनपुर आश्विनशुक्ल, वीरनिर्वाण-संवत २४७४, विक्रम संवत् २००५ अक्तूबर १९४८ TERROMALHDAMISRO STORISRDHAcegree मदीया द्रव्य-पूजा (शार्दूलविक्रीडितम्) SERIOUSERIEOBANSHASwe पनीरं कच्छप-मीन-भेक-कलितं, तजन्म-मृत्याकुलम्, निःसारं प्रतिबुध्य रत्ननिवहं, नानाविधं भूषणम् ६ वत्सोच्छिष्टमयं पयश्च, कुसुमं ध्रातं सदा षट्पदः । हृद्य कान्तिसमन्वितं च वसनं सर्व त्वया श्रीपते । मिष्टानं च फलं च नाऽत्र घटितं यन्मक्षिकाऽस्पर्शितम्। संत्यक्त प्रमुदा विरागमतिना तत्तम् त्वदग्रेऽधुना तत्कि देव ! समर्पयामि इति मच्चित्त तु दोलायते ॥ यद्याऽऽराध्य ! समर्पयामि भगवन् ! तद्धष्टता मेऽखिला एतच्चाऽऽहृदि वर्तते प्रभुवर ! जुत्त ड विनाशाच्च ते तस्मान्यस्त-शिरोम-हस्त-युगलो भूत्वा विनम्रस्त्वहं, न नार्थः कोऽपि हि विद्यते रसयुतै-रचादिपानैः सह । भक्त्या त्वां प्रणमामि नाथमसक-झोकैक-दीपं परम् । ॐ 6 नो वांछा न विनोदभावजननं नष्टश्च रागोऽखिलः, शक्त्या स्तोत्रपरो भवामि च मुदा दत्ताऽवघानः सदा, a एवं वर्पण-व्यर्थता गतगदे सद्भषजाऽऽनर्यवन् ॥ एतन्मे तव द्रव्य-पूजनमहो ! मोहारि-संहारये ॥ Ro@sak @ Saska@85 SSIR @ SAR@LS Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र -भारतीके कुछ नमूने युक्त्यनुशासन विशेष- सामान्य विषक्त - भेदविधि-व्यवच्छेद- विधायि-वाक्यम् । श्रमेद-बुद्ध रविशिष्टता स्याद् व्यावृत्तिबुद्धश्व विशिष्टता ते ॥ ६०॥ ‘वाक्य (वस्तुतः) विशेष (विसदृश परिणाम) और सामान्य (सदृश परिणाम) को लिये हुये जो (द्रव्यपर्यायी अथवा द्रव्य-गुण-कर्मकी व्यक्तिरूप) भेद हैं उनके विधि और प्रतिषेध दोनोंका विधायक होता है । जैसे 'घट लाओ' यह वाक्य जिस प्रकार घटके लानेरूप विधिका विधायक ( प्रतिपादक ) है उसी प्रकार घटके न लानेरूप प्रतिषेधका भी विधायक है, अन्यथा उसके विधानार्थ वाक्यान्तरके प्रयोग - का प्रसंग आता है और उस वाक्यान्तरके भी तत्प्रतिषेधविधायी न होनेपर फिर दूसरे वाक्यके प्रयोगकी जरूरत उपस्थित होती है और इस तरह antarन्तर के प्रयोगकी कही भी समाप्ति बन न सकनेसे अनवस्था दोषका प्रसंग आता है, जिससे कभी भी घटके लारूप विधिक प्रतिपत्ति नही बन सकती । अतः जो वाक्य प्रधानभावसे विधिका प्रतिपादक है वह गौणरूपसे प्रतिषेधका भी प्रतिपादक है और जो मुख्यरूपसे प्रतिषेधका प्रतिपादक है वह गौणरूपसे विधिका भी प्रतिपादक है, ऐसा प्रतिपादन करना चाहिये । (हे कीर जिन!) आपके यहाँ आपके स्याद्वाद - शासनमें- (जिस प्रकार) अभेदबुद्धिसे (द्रव्यत्वादि व्यक्तिकी) अविशिष्टता (समानता) होती है ( उसी प्रकार) व्यावृत्ति(भेद)बुद्धिसे विशिष्टताकी प्राप्ति होती है।' सर्वान्तवत्तद्गुरण - मुख्य- कल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वाssपदान्तकरं निरन्त सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैत्र ॥ ६१ ॥ ' ( हे वीर भगवन्!) आपका तीर्थ- प्रवचनरूप शासन - अर्थात् परमागमवाक्य जिसके द्वारा संसार महासमुद्रको विरा जाता है— सर्वान्तवान् है - सामान्यविशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध, एक-अनेक, आदि अशेष धर्मोको लिये हुये है - और गौण तथा मुख्यकी कल्पनाको साथमें लिये हुये है-एक धर्म मुख्य है तो दूसरा गौस है, इसीसे सुव्यवस्थित है, उसमें प्रसंगतता अथवा विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं है । जो शासन- वाक्य धर्मो में पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नहीं करता - उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाता है वह सर्व धर्मोसे शून्य है-उसमें किसी भी धर्मका अस्तित्व नही बन सकता और न उसकेद्वारा पदार्थव्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है। अतः आपका ही 'यह शासनतीर्थ सर्व दुःखोंका अन्त करनेवाला है, यही निरन्त है- किसी भी मियादर्शनके द्वारा खंडनीय नही है-और यही सब प्राणियोके अभ्युदयका कारण तथा आत्माके पूर्ण अभ्युदय (विकास) का साधक है ऐसा सर्वोदयतीथ है।' भावार्थ:- आपका शासन अनेकान्तके प्रभावसे सकल दुर्नयों (परस्पर निरपेक्ष नयों) अथवा मिथ्यादर्शनोंका अन्त ( निरसन) करनेवाला है और ये दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्तवादरूप मिथ्यादर्शनी सँसारमे अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखरूप आपदाओंके कारण होते हैं, इसलिये इन दुर्नयरूप मिथ्यादर्शनोका अन्त करनेवाला होनेसे आपका अर्थात जो लोग आपके शासनतीर्थका आश्रय लेते शासन समस्त आपदाओंका अन्त करनेवाला है, हैं दूर उसे पूर्णतया अपनाते हैं— उनके मिध्यादर्शनादि होकर समस्त दुःख मिट जाते हैं। और वे अपना पूर्ण अभ्युदय - उत्कष एवं विकास- सिद्ध करनेमें समर्थ हो जाते हैं । कामं द्विपमप्युपपत्तिचक्षुः समीक्ष्यतां ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खण्डित-मान-शृङ्गो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ||६२|| Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] समन्तभद्र-मारतीके कुछ नमूने [३६७ (हे वीर जिन!) आपके इष्ट-शासनसे यथेष्ट के संसारबन्धनोंको तोड़ना-हमें भी इष्ट है और इस अथवा भरपेट द्वेष रखनेवाला मनुष्य भी. यदि सम- लिये यह प्रयोजन भी इस स्तोत्रकी उत्पत्तिका एक दृष्टि (मध्यस्थवृत्ति) हुआ; उपपनि-चक्षुसे-मात्सर्यके हेतु है। इस तरह यह स्तोत्र श्रद्धा और गुणज्ञताकी त्यागपूर्वक युक्तिसङ्गत समाधानकी दृष्टिसे-आपके अभिव्यक्तिके साथ लोक-हितकी दृष्टिको लिये हुये है।' इष्टका-शासनका-अवलाकन और परीक्षण करता इति स्तत्यः स्तत्यखिद-मनि-मख्येः प्रणिहितः है तो अवश्य ही उसका मानशृङ्ग खंडित होजाता है - स्तुतः शक्तया श्रेयःपदमधिगस्त्वं जिन ! मया । और वह अभद्र अथवा मिथ्यादृष्टि होता हुआ भी महावीरो वीरो दुरित-पर-सेनाऽभिविजये. सब ओरसे भद्ररूप एवं सम्यग्दृष्टि बन जाता है। विधेया मे भक्तिं पथि भवत एवाऽप्रतिनिधी॥६४ अथवा यों कहिये कि आपके शासनतीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है।' 'हे वीर जिनेन्द्र श्राप चूंकि दुरितपरकी-मोहा दिरूप कर्मशत्रुकी-सेनाको पूर्णरूपसे पराजित न रागानः स्तोत्रं भवति भव-पाश-च्छाद मुना करनेमें वीर हैं-बीर्यातिशयको प्राप्त हैं-निःश्रेयस न चाऽन्येषु पादपगुरप-कथाऽभ्यास-खलता। पदको अधिगत (स्वाधीन) करनेसे महावीर हैं और किमु न्यायाऽन्याय-प्रकृत-गुणदोषज्ञ-मनसा देवेन्द्रों तथा मुनीन्द्रो (गणधर देवादिकों) जैसे स्वयं हिताऽन्वेषोपायस्तव गुण-कथा-सङ्ग-गदितः ॥६३॥ स्तुत्योके द्वारा एकाप्रमनसे स्तुत्य हैं, इसीसे मेरे___(हे वीर भगवन । ) हमारा यह स्तोत्र श्राप जैसे मुझ परिक्षाप्रधानीके द्वारा-शक्तिके अनुरूप स्तुति भव-पाश-छेदक मुनिके प्रति रागभावसे नहीं है, न किये गये हैं। अतः अपने ही मार्गमें-अपने द्वारा हो सकता है:- क्योकि इधर तो हम परीक्षा-प्रधानी अनुष्ठित एवं प्रतिपादित सम्यग्दर्शन-शान चारित्र हैं और उधर आपने भव-पाशका छेदकर संसारसे रूप मोक्षमार्गमे, जो प्रतिनिधिरहित है-अन्ययोगअपना सम्बन्ध ही अलग कर लिया है; ऐसी हालतमें व्यवच्छेदम्पसे निर्णीत है अर्थात् दूसरा कोई भी आपके व्यक्तित्वके प्रति हमारा राग-भाव इस मार्ग जिसके जोड़का अथवा जिसके स्थानपर प्रतिस्तोत्रकी उत्पत्तिका कोई कारण नहीं हो सकता। ष्ठित होनेके योग्य नहीं है-मेरी भक्तिको सविशेष दमरोके प्रति द्वेषभावसे भी इस स्तोत्रका कोई रूपसे चरितार्थ करो-आपके मार्गकी अमोघता सम्बन्ध नही है:-क्योंकि एकान्तवादियोक साथ और उससे अभिमत फलकी सिद्धिको देखकर मेरा अर्थात उनके व्यक्तित्व के प्रति हमारा कोई द्वेप नहीं है अनुराग (भक्तिभाव) उसके प्रति उत्तरोत्तर बढ़े, -हम तो दुर्गुणोंकी कथाके अभ्यासको खलता' जिससे मैं भी उसी मागकी आराधना-साधना करता समझते है और उस प्रकारका अभ्यास न होनेसे हुआ कर्म शत्रुओकी सेनाको जीतने में समर्थ वह 'खलता' हममें नहीं है, और इसलिये दूसरोके प्रति हाऊँ और निःश्रेयस (मोक्ष) पदको प्राप्त करके सफल द्वेषभाव भी इस स्तोत्रकी उत्पत्तिका कारण नहीं हो मनोरथ हो सकूँ। क्योंकि सच्ची सविवेक-भक्ति ही सकता। तब फिर इसका इंतु अथवा उद्देश ? उद्दश मागका अनुसरण करनेमे परम सहायक होती है यही है कि जो लोग न्याय-अन्यायको पहचानना और जिसकी स्तुति की जाती है उसके मार्गका अनचाहते है और प्रकृत पदार्थके गुण-दोषो को जानने- सरण करना अथवा उसके अनुकूल चलना ही स्तुतिकी जिनकी इच्छा है उनके लिये यह स्तात्र को सार्थक करता है, इसीसे स्तोत्रके अन्तमें ऐसी 'हितान्वेपणके उपायस्वरूप' आपकी गुणकथाके फलप्राप्तिकी प्रार्थना अथवा भावना की गई है। माथ कहा गया है। इसके सिवाय जिस भव-पाशको इति युक्त्यनुशासनम्। आपने छेद दिया है उसे छेदना-अपने और दमरों जुगलकिशोर मुख्तार Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरकी मूर्ति और लड़ोटी ( लेखक - श्री 'लोकपाल' ) एक दिन मैं बाबू रघुवीर किशोरजी के साथ वृन्दान गया । वहाँ उन्होंने रास्तेमें बिड़लामन्दिर दिखलाया और मन्दिर में चारों तरफ देखते भालते तथा इधर उधर घूमते हुए एक जगह एक जैनमूर्ति श्रीवर्द्धमान महावीर स्वामीकी बनी हुई दिखलायी । और मेरा ध्यान विशेषतौर से एक बातकी तरफ आकर्षित किया कि मूर्ति लङ्गोटी पहनी हुई बनाई गई है। मुझे दुःख हुआ। खेद है कि ये लोग दिगंबरत्वका महत्व नहीं समझ सके और यह इन लोगोंकी मानसिक कमजोरी तथा विकारका सूचक है जिसने उलटी बातें सुनते और वर्तते रहने के कारण जड़ पकड़ ली है। सच्ची बात जाननेकी कोशिश कौन कहे उसे सुनना भी गवारा करने या बरदाश्त करने को तैयार नहीं। ऐसा वातावरण आज भारतमें पैदा कर दिया गया है कि लोग बग़ैर सोचे- सम-विचारे ही यों ही किसी बातपर निरे बेवकूफ और भौंदू-सा हँस देनेमें ही अपनी या अपने धर्मकी बहादुरी समझते हैं। इसे हम अज्ञान न कहें तो और क्या कहें ? आज कॉलेजोमें जाइएजैन लड़के अधिकतर जैनमन्दिरोंमें जानेमें शर्माते हैं और नहीं जाते हैं, केवल इस लिए कि दस आदमी किसी लड़के को यह कहकर लजवा देते हैं कि वह "नङ्गे" देवताओंकी पूजा करता है। दस आदमी मिलकर किसी भी बड़ेसे बड़े विद्वान या व्यक्तिको हँसकर और ताली पीटकर बेवकूफ बना देते है या बना सकते हैं। यही तरीका अबतक खासतौर से जैन-धर्म या जैनधर्मावलम्बियों के साथ वर्ता जाता रहा है। जब तर्क और बुद्धिसे कोई हार जाता है तब इन्हीं श्रोछे तौर-तरीकोंको अपनाता है। खैर, ये सब तो पुरानी तें हो गई। अब तो मिलने-मिलानेका समय है और सभी एक दूसरे से मिलना या एक दूसरेकी बातोंको समनेकी चेष्टा करने लगे हैं। यह अच्छा लक्षण है । देखें, भारत कबतक मानसिक पतनके खट्टेसे ऊपर उठता है । जबतक एक पतली-सी भी लङ्गोटी किसीके लिए रखनी श्रावश्यक रहेगी तबतक वह पूर्णरूप से निर्विकार हो ही नहीं सकता। और अधिक कपड़ोंकी कौन कहे केवल - मात्र एक लङ्गोटीका भी रखना ही यह साबित करता है कि लङ्गोटी पहननेवाला व्यक्ति पूर्णरूपसे निर्विकार नहीं है । इसके अतिरिक्त भी लङ्गोटी जबतक मौजूद है वह निर्विकार या एकदम परम निश्चिन्त हो ही कैसे सकता है ? लङ्गोटी गन्दी होगी मैली होगी- बदबू करगो - उसे साफ करना या साफ रखना एक फिकर या चिन्ता तो यही हुई । फट जाय तो दूसरीका प्रबन्ध करना - इत्यादि । यह तो हुई सांसारिक बात जो हर आदमी यदि समना चाहे तो स्वयं समझ सकता है-यदि ठीक मानसिक स्थितिमे हो तो। आगे तत्वतः देखा जाय तो जिसने संसारका सब कुछ जान लिया उसके लिए क्या छिपा रह जाता है-वह तो सब कुछ एकदम खुला हुआ यो ही प्रत्यक्ष देखता या जानता है । जब किसीको समता प्राप्त हो जाय, सबमें वह एक ही शुद्ध आत्माका दर्शन करने लगे या उसको देखने लगे जो स्वयं उसके शरीरके अन्दर है - या वह सभीको अपने समान केवल श्रात्मारूप ही देखने लगे तो फिर वहाँ पर्देकी क्या जरूरत रह जाती है ? परमवीतरागी, सर्वज्ञ - सर्वदर्शी और पूर्णत: शक्ति-सम्पन्न महात्मा किसके लिये लङ्गोटी लगाए ? उसे न अपने लिये जरूरत रहती है और न दूसरोंकी खातिर । वास्तवमें सविवेक दिगम्बरत्वका बड़ा महत्व है जो साधारणतः सभीके दिमागमें घुसना सम्भव नही । जिस समय इस विषयकी महत्ता लोगोंको ज्ञात होजाय उसी समय समना चाहिएकि अब देश या संसारके उत्थानमें देर नहीं। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाँधीजीकी जैन-धर्मको देन (भी पं. सुखलालजी) धर्मके दो रूप होते हैं। सम्प्रदाय कोई भी हो और दूसरा लक्षण है 'भन्यका बुरा न करना। ये उसका धर्म बाहरी और भीतरी दो रूपों में चलता विधि-निषेधरूप या हकार नकाररूप साथ ही साथ रहता है। ब्राह्य रूपको हम धम कलेवर' कहे तो चलते हैं। एकके सिवाय दूसरेका सम्भव नहीं। भीतरी रूप को धर्म चेतना' कहना चाहिये। जैसे-जैसे धर्मचेतनाका विशेष और उत्कट स्पन्दन ___ धर्म का प्रारम्भ, विकास और प्रचार मनुष्य वैसे-वैसे ये दोनों विधि-निषेधरूप भी अधिकाधिक जाति में ही हुआ है। मनुष्य खुद न केवल चेतन है सक्रिय होते हैं। जैन-परम्पराकी ऐतिहासिक भूमिका और न केवल देह । वह जैसे सचेतन देहरूप है वैसे को हम देखते हैं तो मालूम पड़ता है कि उसके इतिही उसका धर्म भी चेतनायुक्त कलेवर रूप होता है। हास कालसे ही धर्मचेतनाके उक्त दोनों लक्षण चेतना की गति प्रगति और अवगति कलेवर के सहारे माधारणरूपमें न पाये जाकर प्रसारण और के बिना असम्भव है। धर्म चेतना भी बाहरी आचार व्यापकरूपमें ही पाये जाते हैं । जैन-परम्पराका रीति-रस्म, रूढ़ि-प्रणाली श्रादि कलेवरके द्वारा ही ऐतिहासिक पुरावा कहता है कि सबका अर्थात् प्राणीगति, प्रगति और अवगति को प्राप्त होती रहती है। मात्रका. जिसमें मनुष्य, पशु-पक्षीके अलावा सूक्ष्म ___धर्म जितना पुराना उतने ही उसके कलेवर नाना- कीट जन्तु तकका समावेश हो जाता है-सब तरहसे रूपसे अधिकाधिक बदलत जाते हैं। अगर कोई धर्म भला करा। इसी तरह प्राणीमात्रको किसी भी प्रकारजीवित हो तो उसका अर्थ यह भी है कि उसके कैसे से तकलीफ न दो। यह पुरावा कहता है कि जैन भी भहे या अच्छे कलेवरमें थोड़ा-बहुत चेतनाका परम्परागत धर्मचेतनाकी वह भूमिका प्राथमिक नही अंश किसी न किसी रूपमें मौजूद है। निष्प्राण देह है । मनुष्यजातिके द्वारा धर्मचेतनाका जो क्रमिक सडाडकर अस्तित्व गॅवा बैठती है। चेतनाहीन विकास हुआ है उसका परिपक विचारका श्रेय पतिसम्प्रदाय कलेवरकी भी वही गति होती है। हासिक दृष्टिसे भगवान महावीरका ता अवश्य है ही। ___ जैन परम्पराका प्राचीन नाम-रूप कुछ भी क्यों कोई भी सत्पुरुषार्थी और सूक्ष्मदर्शी धर्मपुरुष न रहा हो; पर उस समयसे अभीतक जीवित है अपने जीवनमें धर्मचेतनाका कितना ही सदन क्यों जब जब उसका कलेवर दिखावटी और रोगग्रस्त हुश्रा न करे पर वह प्रकट होता है सामयिक और देशकाहै तब तब उसकी धर्म चेतनाका किसी व्यक्तिमें लिक आवश्यकताओं की पूर्तिके द्वारा । हम इतिहास विशेषरूपसे स्पन्दन प्रकट हुआ है। पार्श्वनाथ के बाद से जानते हैं कि महावीरने सबका भला करना और महावीरमें स्पन्दन तीव्ररूपसे प्रकट हुआ है जिसका किसीको तकलीफ न देना इन दो धर्मचेतनाके रूपों तिहास साक्षी है। को अपने जीवनमें ठीक-ठीक प्रकट किया। प्रकटीधर्मचेतनाके मुख्य दो लक्षण हैं जो सभी धर्म- करण सामयिक जरूरतोंके अनुसार मर्यादित रहा। सम्प्रदायोंमें व्यक्त होते हैं। भले ही उम आविर्भावमें मनुष्यजातिकी उस समय और उस देशकी निर्वतारतम्य हो । पहला लक्षण है. 'अन्यका भला करना' लता. जातिमेदमें, कूधाबूतमें, खी की लाचारीमें Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ] और यशीयहिंसा में थी । महावीरने इन्हीं निर्बलताओं का सामना किया। क्योंकि उनकी धर्मचेतना अपने आसपास प्रवृत्त अन्यायको सह न सकती थी । इसी करुणावृत्तिने उन्हे अपरिग्रही बनाया । अपरिग्रह भी ऐसा कि जिसमें न घर-बार और न वस्त्रपात्र । इसी करुणावृत्तिने उन्हें दलित- पतितका उद्धार करनेका प्रेरित किया । यह तो हुआ महावीर की धर्मचेतनाका स्पंदन | पर उनके बाद यह स्पंदन जरूर मन्द हुआ और धर्मनाक पोषक धर्म कलेवर बहुत बढ़ने लगा. बढ़ते-बढ़ते उस कलेवरका कद और वजन इतना बढ़ा कि कलेवर की पुष्टी और बृद्धिके साथ ही चेतना का स्पंदन मन्द होने लगा। जैसे पानी सूखते ही या कम होते ही नीचे की मिट्टी में दरारें पड़ती हैं और मिट्टी एक रूप न रह कर विभक्त हो जाती है वैसे ही जैन परम्पराका धर्मकलेवर भी अनेक टुकडो में farक्त हुआ और वे टुकड़े चेतनास्पंदनके मिथ्या अभिमान से प्रेरित होकर आपसमें ही लड़ने-झगडने लगे । जो धर्मचेतनाके स्पंदनका मुख्य काम था वह गौण होगया और धर्मचेतना की रक्षाके नामपर वे मुख्यतया गुजारा करने लगे । अनेकान्त [ वर्ष मालूम होते रहे; पर अपरिग्रहका प्राण उनमें कमसे कम रहा । इसीलिये सभी फिरकोके त्यागी अपरिग्रह व्रत की दुहाई देकर नंगे पाँवसे चलते देखे जाते हैं लूंचन रूपसे बाल तक हाथसे खींच डालते हैं, निर्वसन भाव भी धारण करते देखे जाते हैं. सूक्ष्मजन्तु की रक्षा के निमित्त मुहपर कपडा तक रख लेते हैं. पर वे अपरिग्रहके पालनके लिये अनिवार्य रूपसे आवश्यक ऐसा स्वावलम्बी जीवन करीब-करीब गँवा बैठे हैं। उन्हे अपरिग्रहका पालन गृहस्थों की मदद के सिवाय सम्भव नहीं दीखता । फलतः वे अधिकाधिक पर-परिश्रमावलम्बी होगये है । धर्म-कलेवरके फिरकोंमें धर्मचेतना कम होते ही आसपासके विरोधी बलोंने उनके ऊपर बुरा असर डाला। सभी फिरके मुख्य उद्देश्यके बारेमें इतने निर्बल साबित हुए कि कोई अपने पूज्य पुरुष महावीर की प्रवृत्तिको योग्य रूपमें आगे न बढ़ा सके । स्त्री उद्धार की बात करते हुए भी वे स्त्रीके अबलापनके पोषक ही रहे । उच्च-नीच भाव और छुआछूत के दूर करने की बात करते हुए भी वे जातिवादी ब्राह्मण परम्परा के प्रभाव से बच न मके और व्यवहार तथा धर्मक्षेत्र में उच्च-नीच भाव और छुआछूतपनेके शिकार बन गये । यज्ञीयहिंसा के प्रभावसे वे जरूर बच गये और पशु-पक्षी की रक्षामें उन्होंने हाथ ठीक ठीक बटाया; पर वे अपरिग्रहके प्राण मूर्द्धात्यागको गँवा बैठे। देखनेमे तो सभी फिरके अपरिग्रही बेशक. पिछले ढाई हजार वर्षोंमें देशके विभिन्न भागों में ऐसे इने-गिने अनागार त्यागी और सागार गृहस्थ अवश्य हुए है जिन्होंने जैन परम्परा की मूर्छित-सी धर्मचतनामें स्पंदनके प्राण फूंके । पर एक तो वह स्पंदन साम्प्रदायिक ढङ्गका था जैसा कि अन्य सभी सम्प्रदायोमे हुआ है, और दूसरे वह स्पंदन ऐसी कोई दृढ़ नीवपर न था जिससे चिरकाल तक टिक सके। इसलिये बीच बीचमे प्रकट हुए धर्मचेतना के स्पंदन अर्थात प्रभावन कार्य सतत चालू रह न सके । पिछली शताब्दीमे तो जैन समाजके त्यागी और गृहस्थ दोनोंकी मनोदशा विलक्षण-सी होगई थी वे परम्पराप्राप्त सत्य, अहिंसा और अपरिग्रहके आदर्श संस्कार की महिमाको छोड़ भी न सके थे और जीवनपर्यन्तमे व हिसा, असत्य और परिग्रह के संस्कारां काही समर्थन करते जाते थे। ऐसा माना जाने लगा था कि कुटुम्ब, समाज. ग्राम, राष्ट्र आदिसे सन्त्रन्ध रखने वाली प्रवृत्तियाँ सासारिक है. दुनियावी है, अव्यवहारिक है । इसलिये ऐसी आर्थिक औद्योगिक और राजकीय प्रवृत्तियों में न तो सत्य साथ दे सकता है. न अहिंसा काम कर सकती है और न अपरिग्रहात ही कार्यसाधक बन सकता है । य धर्म सिद्धान्त मच्चे हैं सही, पर इनका शुद्ध पालन दुनिया के बीच संभव नहीं। इसके लिये तो एकान्त बनवास Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] और संसार त्याग ही चाहिये । इस विचारने अनगार त्यागियोंके मनपर भी ऐसा प्रभाव जमाया था कि वे रात दिन सत्य, अहिंसा और अपरिग्रहका उपदेश करते हुए भी दुनियावी - जीबनमें उन उपदेशों के सच्चे पालनका कोई रास्ता दिखा न सकते थे। वे थक कर यही कहते थे कि अगर सच्चा धर्म पालन करना हो तो तुम लोग घर छोड़ो. कुटुम्ब समाज और राष्ट्रकी जबाबदेही छोड़ो ऐसी जवाबदेही और सत्यअहिसा अपरिग्रहका शुद्ध पालन दोनों एक साथ सम्भव नहीं । ऐसी मनोदशाके कारण त्यागी गण देखनेमे अवश्य अनगार था. पर उसका जीवन तत्त्वदृष्टिसे किसी भी प्रकार अगारी गृहस्थो की अपेक्षा विशेष उन्नत या विशेष शुद्ध बनने न पाया था। इसलिये जैन समाज की स्थिति ऐसी होगई थी कि हजारोंकी संख्या में साधु-साध्वियोके सतत हात रहनेपर भी समाजके उत्थानका कोई सच्चा काम हो पाता था और अनुयायी गृहस्थवर्ग तो साधुसाध्वियोके भरोसे रहनेका इतना आदि हो गया था कि वह हरएक बातमें निकम्मी प्रथाका त्याग सुधार परिवर्तन वगैरह करनेमे अपनी बुद्धि और साहम ही गंवा बैठा था। त्यागीवर्ग कहता था कि हम क्या करें ? यह काम तो गृहस्थोंका है। गृहस्थ कहते थे कि हमारे सिरमौर गुरु है । वे महावीरके प्रतिनिधि हैं. शास्त्रज्ञ है, वे हमसे अधिक जान सकते है. उनके सुझाव और उनकी सम्मतिके बिना हम कर ही क्या सकत है ? गृहस्थांका असर ही क्या पड़ेगा ? साधुओंके कथनको सब लोग मान सकते हैं इत्यादि । इस तरह अन्य धर्म समाजो की तरह जैन समाजकी नैया भी हर एक क्षेत्रमे उलझनोंकी भँवर में फँसी थी । गाँधीजीकी जैन धर्मको देन [ ३७१ जैन समाजके अपने निजी भी प्रश्न थे। जो उलझनों से पूर्ण थे । आपसमें फिरकाबन्दी, धर्मके निमित्त धर्म पोषक झगड़े. निवृत्तिके नामपर निष्क्रियता और ऐदीपन की बाढ़, नई पीढ़ीमें पुरानी चेतनाका विरोध और नई चेतनाका अवरोध, सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह जैसे शाश्वत मूल्य वाले सिद्धान्तोंके प्रति सबकी देखादेखी बढ़ती हुई अश्रद्धा ये जैन समाजकी समस्याएँ थीं । सारे राष्ट्रपर पिछली सहस्राब्दीने जो आफतें ढाई थीं और पश्चिमके सम्पर्कके बाद विदेशी राज्यने पिछली दो शताब्दियोंमें गुलामी, शोषण और 'आपसी फूटकी जो आफत बढ़ाई थी उसका शिकार तो जैन समाज शत प्रतिशत था ही. पर उसके अलावा इस अन्धकार प्रधान रात्रिमें अफ्रिकासे एक कर्मवीर की हलचलने लोगोंकी आँखें खो कर्मवीर फिर अपनी जन्म भूमि भारत भूमिमें पीछे लौटा। आते ही सत्य, अहिंसा और अपरिग्रहकी निर्भय और गगनभेदी वाणी शान्त-स्वरसे और जीवन-व्यवहारसे सुनाने लगा । पहले तो जैन समाज अपनी संस्कार- च्युतिके कारण चौंका । उसे भय मालूम हुआ कि दुनियाकी प्रवृत्ति या सांसारिक राजकीय प्रवृत्तिके साथ सत्य. श्रहिंसा और अपरिग्रह Marie कैसे बैठ सकता है ? ऐसा हो तो फिर त्याग मार्ग अनगार धर्म जो हजारों वर्षसे चला आता है वह नष्ट ही हो जायगा । पर जैसे-जैसे की ग एकके बाद एक नये-नये सामाजिक और राजकीय क्षेत्रको सर करते गये और देशके उच्चसे उच्च मस्तिष्क भी उनके सामने झुकने लगे। कवीन्द्र रवीन्द्र, लाला लाजपतराय, देशबन्धुदास, मोतीलाल नेहरू श्रादि मुख्य राष्ट्रीय पुरुषोंने गाँधीजीका नेतृत्व मान लिया । वैसे-वैसे जैन समाजकी भी सुपुत और मुद्रिती धमचेतनामे स्पन्दन शुरू हुआ। स्पन्दनकी यह लहर क्रमशः ऐसी बढ़ती और फैलती गई कि जिमने ३५ वर्ष के पहलेकी जैन समाजकी काया ही पलट दी। जिसने ३५ वर्ष के पहलेकी जैन समाजकी बाहरी और भीतरी दशा आँखो देखी है और जिसने पिछले ३५ वर्षोंमें गाँधीजी के कारण जैन समाजमें सत्वर प्रकट होने वाले सात्विक धर्मस्पन्दनोंको देखा है वह यह विना कहे नहीं रह सकता कि जैन समाजकी धर्मचेतना ---जो गॉधीजीकी देन है-वह इतिहास कालमें Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ] अनेकान्त [वर्ष ६ अभूतपूर्व है। अब हम संक्षेपमें यह देखें कि गाँधीजी जादूसे स्त्री शक्ति इतनी अधिक प्रकट हुई कि अब तो की यह देन किस रूपमें है। पुरुष उसे अबला कहनेमें सकुचाने लगा। जैन स्त्रियोंजैन समाजमें जो सत्य और अहिंसाकी सार्वत्रिक के दिलमें भी ऐसा कुछ चमत्कारिक परिवर्तन हुआ कार्यक्षमताके बारेमें अविश्वासकी जड़ जमी थी, कि वे अब अपनेको शक्तिशाली समझकर जबाबदेही गाँधीजीने देशमें आते ही सबसे प्रथम उसपर कुठारा- के छोटे मोटे अनेक काम करने लगी और आमतौरघात किया। जैन लोगोंके दिलमें सत्य और अहिंसाके से जैनसमाजमें यह माना जाने लगा कि जो स्त्री प्रति जन्मसिद्ध श्रादर तो था ही। वे सिर्फ प्रयोग ऐहिक बन्धनोसे मुक्ति पाने में असमर्थ है वह साध्वी करना जानते न थे और न कोई उन्हें प्रयोगके द्वारा बनकर भी पारलौकिक मुक्ति पा नहीं सकती। इस उन सिद्धान्तोंकी शक्ति दिखाने वाला था। गाँधीजीके मान्यासे जैन बहनोंके सूखे और पीले चेहरेपर सुर्सी अहिंसा और सत्यके सफल प्रयोगोने और किसी आ गई और वह देशके कोने कोनेमे जवाबदेहीके समाजकी अपने सबसे पहले जैन समाजका ध्यान अनेक काम सफलतापूर्वक करने लगी। अब उन्हें खींचा। अनेक बूदे तरुण और सभ्य शुरूमें कुतूहल- त्यक्तापन, विधवापन या लाचार कुमारीपनका कोई पश और पीछे लगनीसे गाँधीजीके आसपास इकट्ठे दु:ख नहीं सताता । यह स्त्रीशक्तिका कायापलट है। होने लगे। जैसे जैसे गाँधीजीके अहिंसा और सत्य- यों तो जैन लोग सिद्धान्तरूपसे जाति भेद और छुआके प्रयोग अधिकाधिक समाज और राष्ट्रव्यापी होते छूतको बिल्कुल मानते न थे और इमीमें अपनी गय वैसे वैसे जैन समाजको विरासतमें मिली अहिंसावृत्तिपर अधिकाधिक भरोसा होने लगा और फिर तो व्यापकतौरसे वे अमलम लानेमे असमर्थ थे। गाँधी वह उन्नत मस्तक और प्रसन्नवदनसे कहने लगा कि जीकी प्रायोगिक अंजनशलाकाने जैन समझदारीके 'अहिंसा परमो धर्मः' यह जो जैन परम्पराका मुद्रा- नेत्र खोल दिये और उनमे साहस भर दिया फिर तो लेख है उसीकी यह विजय है। जैन परम्परा स्त्रीकी वे हरिजन या अन्य दलितवगको समान भावसे समानता और मुक्तिका दावा' तो करती ही प्रारही अपनाने लगे। अनेक बूढ़े और युवक स्त्री-पुरुषोंका थी; पर व्यवहारमें उसे उसके अबलापनके सिवाय खास एकवर्ग देशभरके जैन समाजमे ऐसा तैयार कुछ नजर आता न था। उसने मान लिया था कि हो गया है कि वह अब रूढ़िचुस्त मानसकी बिल्कुल त्यक्ता, विधवा और लाचार कुमारीके लिये एकमात्र परवाह बिना किये हरिजन और दलितवर्गकी सेवामें बलप्रद मुक्तिमार्ग साध्वी बननेका है। पर गाँधीजीके या तो पड़ गया है, या उसके लिये अधिकाधिक जादूने यह साबित कर दिया कि अगर स्त्री किसी सहानुभूति पूर्वक सहायता करता है। अपेक्षासे अबला है तो पुरुष भी अबल ही है। अगर जैनसमाज में महिमा एकमात्र त्यागकी रही, पर पुरुषका सबल मान लिया जाय ता बीके अबला कोई त्यागी निवृत्ति और प्रवृत्तिका सुमेल साध न रहते वह सबल बन नही सकता। कई अंशोमे ता सकता था। यह प्रवृत्तिमात्रको निवृत्ति विरोधी समझ पुरुषकी अपेक्षा स्त्रीका बल बहुत है। यह बात गाँधी कर अनिवार्यरूपसे आवश्यक ऐसी प्रवृत्तिका बोझ जीने केवल दलीलोंसे समझाई न थी. पर उनके भी दूसरोके कन्धं डालकर निवृत्तिका मन्तोष अनुभव करता था। गाँधीजीके जीवनने दिया कि निवृत्ति और १ यह श्वेताम्बर परम्पराकी दाहिसे है। प्रवृत्ति वस्तुतः परस्पर विरुद्ध नहीं है । जरूरत है तो दिगम्बर-परम्परा स्त्री-मुक्ति नहीं मानती। दोनोंके रहस्य पानेकी । समय प्रवृत्तिकी मॉग कर रहा -सम्पादक था और निवृत्तिकी भी। मुमेलके बिना दोनो निरर्थक Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] ही नहीं बल्कि समाज और राष्ट्रघातक सिद्ध हो रहे थे । गाँधीजी के जीवन में निवृत्ति और प्रवृत्तिका ऐसा सुमेल जैनममाजने देखा जैसा गुलाबके फूल और सुवास में। फिर तो मात्र गृहस्थांकी ही नहीं, बल्कि त्यागी अनगारों तककी आँखें खुल गई। उन्हे अब जैन शास्त्रांका असली मम दिखाई दिया या वे शास्त्रोंको नये अर्थ में नये सिरसे देखने लगे। कई त्यागी अपना भिक्षुत्रेष रखकर भी या छोड़कर भी निवृत्ति प्रवृत्तिके गङ्गा-यमुना संगममें स्नान करने श्राये और वे अब भिन्न-भिन्न सेवाक्षेत्रामे पड़कर अपना अनगारपनास अर्थ मे साबित कर रहे है। जैन गृहस्थकी मनोदशामे भी निष्क्रिय निवृत्तिका जो घुन लगा था वह हटा और अनेक बूढ़े जवान निवृत्ति प्रिय जैन स्त्री-पुरुष निष्काम प्रवृत्तिका क्षेत्र पसन्द कर अपनी निवृत्ति-प्रियताको सफल कर रहे है। पहले भिक्षुभिक्षुणियोंके लिये एक ही रास्ता था कि या तो वे वेष धारण करनेके बाद निष्क्रिय बनकर दूसरोकी सेवा लते रहे, या दूसरोकी सेवा करना चाहे तो वे वेप छोडकर प्रति बनकर समाजवाह्य हो जाये । गॉधीजीके नये जीवनके नय अर्थने निष्प्राणसे त्यागी वर्गमे भी धर्मचेतनाका प्राण स्पन्दन किया। अब उसे न तो जरूरत ही रही भिक्षुवेष फेंक देनेकी और न डर रहा अप्रतिष्ठितरूपसे समाजबाह्य होनेका । अब fasara सेवाप्रिय जैन भिक्षुगण के लिए गाँधीजी के जीवनने ऐसा विशाल कार्य-प्रदेश चुन दिया है, जिसमे कोई भी त्यागी निर्दम्भ भावसे त्यागका आस्वाद लेना हुआ समाज और राष्ट्रके लिए आदर्श बन सकता गाँधीजी जैन धर्मको देन [ ३७३ विजय कैसे पाया जा सकता है ? अनेकान्तवाद के हिमायती क्या गृहस्थ क्या त्यागी सभी फिर केबन्दी और गच्छ गणके ऐकान्तिक कदाग्रह और झगड़ेमें फॅसे थे । उन्हें यह पता ही न था कि अनेकान्तका यथार्थ प्रयोग समाज और राष्ट्र की सब प्रवृत्तियों में कैसे सफलतापूर्वक किया जा सकता है ? गाँधीजी तख्तेपर आये और कुटुम्ब, समाज, राष्ट्रकी सब प्रवृत्तियों में अनेकान्तदृष्टिका ऐसा सजीव और सफल प्रयोग करने लगे कि जिससे आकृष्ट होकर समझदार जैनवर्ग यह अन्तःकरणसे महसूस करने लगा कि भङ्गजाल और वादविजयमें तो अनेकान्तका कलेवर ही है। उसकी जान नहीं । जान तो व्यबहारके सब क्षेत्रों में अनेकान्तदृष्टिका प्रयोग करके विरोधी दिखाई देने वाले बलोका संघर्ष मिटाने में ही है । जैनपरम्पराको अपने तत्वज्ञान के अनेकान्त सिद्धान्तका बहुत बड़ा गर्व था । वह समझती थी कि ऐसा सिद्धान्त अन्य किसी धर्म परम्पराको नसीब नहीं है; पर खुद जैन परम्परा उस सिद्धान्तका सर्व लोक हितकारक रूपसे प्रयोग करना तो दूर रहा. पर अपने हित में भी उसका प्रयोग करना जानती न थी। वह जाननी थी इतना ही कि उस वादके नाम पर भङ्गजाल कैसे किया जा सकता है और विवादमें जैन परम्परामे विजय सेठ और विजया सेठानी इस दम्पती युगलके ब्रह्मचर्य की बात है । जिसमें दोनों का साहचर्य और सहजीवन होते हुए भी शुद्ध ब्रह्मचर्य पालनका भाव है। इसी तरह स्थूलिभद्र मुनिके ब्राचर्य की भी कहानी है जिसमें एक मुनिने अपनी पूर्व परिचित वेश्या के सहवासमें रह कर भी विशुद्ध ब्रह्मचर्य पालन किया है। अभी तक ऐसी कहानियाँ लोकोत्तर समझी जाती रहीं। सामान्य जनता यही समझती रही कि कोई दम्पती या स्त्री-पुरुष साथ रह कर विशुद्ध ब्रह्मचर्य पालन करे तो वह दैवी चमत्कार जैसा है। पर गॉधीजीके ब्रह्मचर्यवासने इस अति कठिन और लोकोत्तर समझी जाने वाली बातको प्रयत्न साध्य पर इतनी लोकगम्य साबित कर दिया कि आज अनेक दम्पती और स्त्री-पुरुष साथ रह कर विशुद्ध ब्रह्मचर्य पालन करनेका निर्दम्भ प्रयत्न करते हैं। जैन समाजमें भी ऐसे अनेक युगल मौजूद हैं। अब उन्हें कोई स्थूलिभद्र की कांटिमे नहीं गिनता । हालांकि उनका ब्रह्मचर्य - पुरुषार्थ वैसा ही है। रात्रिभोजन त्याग और उपभोग- परिभोग परिमाण तथा उपवास. श्रायंबिल जैसे व्रत नियम नये युगमें केवल उपहास की दृष्टिसे देखे जाने लगे थे और श्रद्धालु लांग Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] अनेकान्त [ वर्ष : - इन व्रतोंका आचरण करते हुए भी कोई तेजस्विता कारण ही अब जैन समाज अहिंसा, स्त्री-समानता प्रकट न कर सकते थे। उन लोगोंका व्रत-पालन वर्ग-समानता, निवृत्ति और अनेकान्तदृष्टि इत्यादि केवल रूढ़िधर्म-सा दीखता था । मानों उनमें भावप्राण अपने विरासतगत पुराने सिद्धान्तोंको क्रियाशील रहा ही न हो। गाँधीजीने इन्हीं व्रतोमें ऐसा प्राण और सार्थक साबित कर सकता है। ड्का कि आज कोई इनके मखौलका साहस नहीं जैन परम्परामें "ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा कर सकता। गाँधीजीके उपवासके प्रति दुनिया भर नमस्तस्मै" जैसे सर्वधर्मसमन्वयकारी अनेक उद्गार का आदर है। उनके रात्रिभोजनत्याग और इने-गिने मौजूद थे। पर आम तौरसे उसकी धर्मविधि और खाद्य पेयके नियमको पारोग्य और सुभीते की दृष्टि प्राथना बिल्कुल साम्प्रदायिक बन गई थी। उसका से भी लोग उपादेय समझते हैं। हम इस तरह की चौका इतना छोटा बन गया था कि उसमें उक्त अनेक बातें देख सकते हैं जो परम्परासे जैन समाज उद्गारके अनुरूप सब सम्प्रदायोका समावेश दुःसंभव में चिरकालसे चली आती रहनेपर भी तेजोहीन-सी होगया था। पर गाँधीजी की धर्मचेतना ऐसी जागदीखती थीं, पर अब गाँधीजीके जीवनने उन्हें श्राद- रित हुई कि धर्माका बाड़ाबन्दीका स्थान रहा ही नहीं। रास्पद बना दिया है। गाँधीजीकी प्रार्थना जिस्र जैनने देखी सुनी हो वह . कृतज्ञता पूर्वक बिना कबूल किये रह नहीं सकता कि जैनपरम्पराके एक नहीं अनेक सुसंस्कार जो 'ब्रह्मा वा विष्णुर्वा' की उदात्त भावना या 'राम कहो सुप्त या मूर्छित पड़े थे उनको गाँधीजी की धर्मचेतनाने, रहिमान कहां' की अभेद भावना जो जैन परम्परामें स्पंदित किया, गतिशील किया और विकसित भी किया। यही कारण है कि अपेक्षाकृत इस छोटेसे मात्र साहित्यिक वस्तु बन गई थी; उसे गाँधीजीने और विकसित रूपमें सजीव और शाश्वत किया। समाजने भी अन्य समाजों की अपेक्षा अधिक हम गाँधीजीकी देनको एक-एक करके न तो गिना संख्यक सेवा-भावी स्त्री-पुरुषोंको राष्ट्रके चरणोंपर अर्पित किया है, जिसमें बूढ़े, जवान. स्त्री-पुरुष होन सकते हैं और न ऐसा भी कर सकते है कि गाँधीजी हार तरुण-तरुणी और त्यागी भिक्षु वर्गका भी की अमुक देन तो मात्र जैन-समाजके प्रति ही है और अन्य समाजके प्रति नही । वर्षा होती है तब समावेश होता है। रती । सूर्य चन्द्र प्रकाश फेंकते है तब मानवताके विशाल अर्थमें तो जैन समाज अन्य भी स्थान या व्यक्तिका भेद नहीं करते । तो भी समाजोसे अलग नहीं। फिर भी उसके परम्परागत जिसके घड़े में पानी आया और जिसने प्रकाशका संस्कार अमुक अंशमें इतर समाजोसे जुदे भी है। सुख अनुभव किया, वह तो लौकिक भापामे यही ये संस्कार मात्र धर्म कलेवर बन धर्मचेतनाकी कहंगा.कि वर्षा या चन्द्र सूयने मेरेपर इतना उपभूमिकाको छोड़ बैठे थे । यो तो गाँधीजीने विश्वभरके कार किया। इमी न्यायसे इस जगह गाँधीजीकी देन समस्त सम्प्रदायों की धर्मचेतनाको उत्प्राणित किया का उल्लेख है, न कि उम देनको मर्यादाका । है; पर साम्प्रदायिक दृष्टिसे देखें तो जैन समाजको गाँधी के प्रति अपने ऋणका अंशसे भी तभी मानना चाहिये कि उनके प्रति गॉधीजीकी बहुत बड़ी अदा कर सकत है जब हम उनके निर्दिष्ट मार्गपर और अनेकविध देन है। क्योंकि गाँधीजीकी देन चलनेका दृढ़ संकल्प करे और चले। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय इतिहास में अहिंसा ( लेखक - श्रीदेवेन्द्रकुमार ) 1441 सृष्टि और मनुष्यका विकास कैसे हुआ, यह प्रश्न अभी भी विवाद प्रस्त है । धार्मिक कल्पना और वैज्ञानिक अनुसन्धान भी इस विषयमे हमारी अधिक सहायता नहीं करते । इतिहासकारोंने सृष्टि विकासके जो सिद्धान्त स्थिर किये हैं उनके अनुसार मानव जातिका इतिहास कुछ ही हजार वर्षोंका है। अग्रेज इतिहासकार, एम० जी० वेल्सने विश्व इतिहासकी रूपरेखा खींचते हुए, ई० पू० छठवीं सदीको मानवीय सभ्यताकी विभाजक रेखा स्वीकार किया है। आपके अनुसार यह सदी ही वह समय है जब मानवजातिने दर्शन और चिन्तनके नये युगमें कदम रक्खा । और तभी से आधुनिक विचारधाराकी नींव पड़ी। एच० जी० वेल्सका यह भी कहना है कि आरम्भिक युगों मनुष्य निरा असभ्य था । बहुत युगों के विकास के बाद उसमे विचारपूर्वक सोचने की चेतना आई और उसने रक्तिम बलिदान, पुरोहिती तथा आडम्बर के विरुद्ध क्रान्ति की, यह क्रान्ति भारत, बेवोलीन, चीन और एफेससमे एक साथ हुई। इस काल में कई समाज नेता और सुधारक उत्पन्न हुए, जिन्होंने पुराने गुरुडमका विरोध कर नये श्रादर्शों की प्रतिष्ठा की। उनके मतसे सरल जीवन और आत्मसंयम ही जीवन सुखी बनानेका सच्चा उपाय था। जहाँ तक विश्व इतिहासकी दृष्टिसे विचार करनेका प्रश्न है, उक्त लेखकका कथन प्रायः ठीक है । परन्तु भारतीय इतिहास में यह 'मामाजिक क्रान्ति' ई० पू० छटवीं सदीके कई सौ वर्ष पहिले हो चुकी थी; भगवान महावीर और बुद्धने जिस विचार धारापर जोर दिया वह बहुत प्राचीनकाल से भारतीय जीवनमे प्रवाहित होती चली आ रही थी, उसका ठीक आकलन किये बिना हम अहिंसाका सही विकास नहीं समझ सकते । 'वेद वाङ्गमय' भारतका ही नहीं विश्वका प्राचीन वाङ्गमय है । उसका तथा दूसरी सभ्यताओंके विकास का अध्ययन करनेसे एक बात विशेषरूपसे हमारा ध्यान आकर्षित करती है और वह यह कि सभी सभ्य मानव जातियाँ आरम्भमें शिकार और खेतीबाडीसे अपना कार्य चलाती रहीं। इस प्रथाके साथ 'शुबलि ' अनिवार्य रूपसे जुड़ी हुई थी। कहीं-कहीं मनुष्योंकी भी बलि दी जाती थी, वेदोंमें मनुष्यबलिका उल्लेख नहीं मिलता परन्तु पशुबलिका स्पष्ट विधान है। यज्ञ वैदिक आर्योंका प्रधान सामाजिक उत्सव था । उसमें सभी जातिके लोग भाग लेते । यज्ञका मुख्य लक्ष्य ऐहिक सुख-समृद्धि था, धन धान्यकी बढ़ती और शत्रुओंका संहार ही आरम्भिक धार्योंकी धामिकताका उद्देश्य था। पर ज्यों-ज्यों उनमें विचार चेतना बढ़ी त्यों-त्यों पशुबलिके विरुद्ध भीषण प्रतिक्रिया जोर पकड़ती गई। इस प्रतिक्रियाका स्पष्ट भास हमें उत्तर वैदिककालमें होने लगता है । आगे चलकर 'मोलह महाजनपद' युगमें वह आभास, कोरा आभास ही नहीं रह जाता किन्तु अहिंसा भारतीय संस्कृति की 'रीढ' बन जाती है। महावीर और बुद्धके युगसन्देशोंके लिये पृष्ठभूमि बहुत पहिले से बनना शुरू होगई थी, और एक प्रकारसे उनके समय भारतीय राजनीति, समाजसंस्थान और दार्शनिक विचार स्पष्टरूपसे अपना आकार-प्रकार ग्रहण कर चुके थे, उन्होंने उसमें केवल 'अहिंसा और मनुष्यता' का दार्शनिक एवं आध्यात्मिक सौन्दर्य प्रतिष्ठित कर उसे नई दिशामें मोड़ा। ऊपर कहा जा चुका है कि महावीर और बुद्धके पहले ही 'हिंसा और अहिंसा' का संघर्ष शुरू Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ] अनेकान्त [ वर्ष होचुका था । 'यह संघर्ष' धार्मिक हिंसाके अनौचित्य- परन्तु कभी भी उनके भावोंमें विकृति नहीं आई। से प्रारम्भ हुआ । परन्तु धीरे-धीरे वह मानव-समाज इन दो उदाहरणोंसे इम बातमे सन्देह नहीं रह जाता के सभी अङ्गोंमें फैलता गया। इसका क्रमिक विकास कि भारतीय इतिहासमें अहिसाकी प्रतिष्ठा व्यक्तिसमझने के लिये दो एक घटनाओंका अङ्कन कर देना साधना और त्यागके बलपर ही हुई। नेमिकुमार जरूरी है। वैदिक वाङ्गमयमें ऐमी बहुत-सी कहानियों और पाश्वनाथ किसी सम्प्रदायके नहीं थे, क्योंकि का उल्लेख मिलता है जिससे इतना ऐतिहासिक तथ्य सम्प्रदाय उस समय नहीं थे। ये लोग चाहे जिस स्पष्ट निकल आता है कि 'वसु' चैचोमयरके समय वर्गके रहे हों, परन्तु वे उन विचारकोंमे नहीं थे जो धार्मिक सुधारकी एक लहर चली जो यज्ञोंमें पशुके यज्ञमे पशुवलि आदिके समर्थक थे। मै समझता हूँ बजाय अत्रकी आहुति देनेके पक्षमे थी। तथा जो हिमा और अहिसाका यह विचार तभीसे मनुष्यके कर्मकाण्ड और तपकी जगह भक्ति और सदाचारपर साथ चला रहा है जबसे उसमें सोचने बल देती थी। आगे चलकर यही विधि सात्वत- समझनकी बुद्धि आई। विधि कहलाई। इसके साथ वासुदेव कृष्ण संकर्षण उपनिषद और सोलह महाजन-पद-युगमें यह प्रद्युम्न एवं अनुरुद्धका नाम जुड़ा हुया है। यह प्रतिक्रिया अधिक स्पष्टरूपसे दिखाई देने लगती है। सात्वत विधि पूणरूपसे अहिंसक थी। पर इसमे आर्य अब 'जन' से जनपद और जनपदस महाजन अहिंसाका भाव एकाएक नहीं आया, विश्वमें कोई पद संस्कृतिमें पहुँच चुके थे । साथ ही उनमे भी घटना बिना कारण नहीं घटती। सात्वत पूजा महाजनपदसे 'साम्राज्यनिर्माण की प्रतिक्रिया चल विधिक विषयमें भी यही समझना चाहिये। जैन रही थी। हिंसा और अहिंसाका ठीक व्यक्तित्व इस पुराणोंमें यदुकुमार 'नेमिनाथ' के वैराग्यकी घटना समय हमारे सामने आया । यह दो रूपमे व्यक्त हश्रा इस बातका स्पष्ट प्रमाण है किस तरह आर्योंके जीवन एक ओर तो वे लोग थे जो पिछली दार्शनिक और संस्कृतिमें परोपकारके लिये कुछ लोग अपने परम्पराको छोड़नेके लिये प्रस्तुत न थे और उसमे व्यक्तिगत सुखको लात मारकर साधनामय जीवन उनकी पूरी आत्मा थी, परन्तु उसके व्यावहारिक स्वीकार कर रहे थे । नेमिनाथ रथपर बैठे, राजुलको रूपमे उन्होंने अहिसाको स्वीकार कर लिया। इस व्याहने जा रहे थे, रास्तेमे उन्होंने देखा बहुतमे पशु- प्रकार पहले पहल उपनिषदोंमे सुनाई दिया "लवा पक्षी एक बेड़े में घिरे छटपटा रहे हैं। उन्होंने पूछा एते प्रदृढ़ा-यज्ञरूपा" ये यज्ञ फूटी नावकी तरह हैं, क्यों ? उत्तर मिला, साथी क्षत्रिय कुमारोंको भोजन सृष्टिके अन्दर एक चेतन शक्ति है जो उसका संचाके लिये इनका शिकार होगा ? युवकका हृदय करुणा लन करती है, प्रायः उस शक्तिको ब्रह्म कहते हैं, इस और समानानुभूतिसे भर आया, उन्होंने 'मौर' उतार प्रकार इन्द्र, वरुण आदि पुराने वैदिक देवताओंकी कर दीक्षा ले ली। जब राजुलने यह सुना तो वह गद्दीपर उपनिषदोंके विचारकोंने ब्रह्मकी स्थापना कर साध्वी भी उमङ्गोंकी चिता जलाकर गिरनार पर्वन दी! और यज्ञवाली पूजाविधिके बजाय, एक नये पर तपस्या करने लगी। उनके इम साधना और आचरण-मार्गका उपदेश दिया। यह आचरण-मार्ग त्यागमय जीवनका जो असर गुजरात और प्राम- था दुश्चरितसे विराम, इन्द्रियों का वशीकरण, मनकी पासकी लोकसंस्कृतिपर पड़ा वह आज भी अमिट चिता और पवित्रता। कठ-उपनिषदमें मनुष्यकी है। उसके बाद दूसरा उदाहरण पाश्वनाथका है, कि जीवनकी यात्राका चरम लक्ष्य विष्णुपदकी प्राप्ति उन्होंने किस प्रकार सहिष्णुता और धैर्यसे व्यक्तिगत कहा गया है। इन विचारोंसे स्पष्ट है कि 'आत्मतत्त्व' विरोधका बदला चुकाया । एक नहीं कितने ही जन्मों की और आर्योकी चिंताका विकास होरहा था, परन्तु तक वे विरोधी हिंसाका अहिंसक सामना करते रहे इसके सिवा एक और वर्ग था जो आत्मतत्त्वको Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] मानने हुए भी अनीश्वरवादी था. भगवान बुद्ध संभतः इसी वर्ग थे उन्होंने देखा कि मनुष्य श्रज्ञात ईश्वर और आत्मतत्त्वके मोहमें पड़ कर विविध अन्धविश्वासों एवं संग्रहशील प्रवृत्तियोंमें उलझा है. फलतः ईश्वर और आत्माका निषेध करते हुए उन्होंने वर्तमान और दृश्यमान दुख- समूहके विरोधका उपाय बताया | भगवान बुद्ध पूर्वतः अहिंसावादी थे. महावीर और बुद्ध तात्त्विक अन्तर यह था कि महावीर आत्माकी सत्ता स्वीकार करते हुए भी उसे ईश्वर होने के योग्य समझते है. उपनिषद् में एक ही ब्रह्मको समूची चेतनाका प्रतिनिधि स्वीकार किया गया है । इस तरह ये तीनों विचार धाराएँ अपने ढङ्ग से भारतीय संस्कृतिमे अहिंसक भावना ढाल रही थी साकी दार्शनिक पृष्टभूमिमे आगे चलकर इन विचारोंका बहुत गहरा असर दिखाई देगा। सबसे बड़ी बात यह है कि दार्शनिक चिंतनमें भेद होते हुए भी 'अहिंसा' की उपासनामें भारतीय विचारकोंकी समान आस्था बढ़ी | महावीर और बुद्धकी धमदेशना का तो ऐसा प्रभाव पड़ा कि यज्ञोकी प्रथा भारतीय सामाजिक जीवनसे एक दम उठ गई और उसके स्थानपर सात्विक जीवन, मित आहार-विहार एवं श्रात्म-चिन्तनकी प्रवृत्ति बड़ी यज्ञकी जगह भक्ति, भारतीय लोक-जीवन में स्फुरित हुई । वैदिकांकी आश्रम - प्रणाली' मे श्रहिसाका भाव ही सर्वोपरि दीख पड़ता है ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासी इन चारों श्रश्रमोके क्रमिक अध्ययनसे यह भली भाँति स्पष्ट होजाता है कि वैदिक साधककी जीवन-साधना किस प्रकार आागेके श्राश्रमांमे अहिंसक एकान्त किचन और आत्म-निर्भर होती चली गई है । उच्चकोटिके सन्यासीको परमहंस' की संज्ञा दी गई है इसका अर्थ है आत्मा' । परम अर्थात् उत्कृष्ट आत्मविकासका यह उत्कृष्ट रूप बलिदान और बाह्य आडम्बर से कथमपि प्राप्य नहीं, वह श्रात्मचिन्तन और साधना द्वारा ही सम्भव है। ऊपर इस बातका सकेत हो चुका है कि भारतीय संस्कृतिमें पशुबल' चित्य और अनौचित्यके सिलसिले में हिंसा और भारतीय इतिहास में अहिंसा [ ३७७ अहिंसाका प्रश्न उठा था परन्तु इसका आशय यह नहीं है कि उसका प्रभाव समाजके सामूहिक और व्यक्तिगत जीवन पर नहीं पड़ा । दार्शनिक जागरणके साथ साथ हिंसा की परिभाषामें भी बहुतमा हेरफेर हुआ एक समय नारा था 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" – इसका सीधा अर्थ था कि अहिंसा अच्छी वस्तु है परन्तु वैदिकी हिंसा भी हिंसा नहीं अपितु हिंसा ही है । पर यह तर्क अधिक दिन नहीं ठहरा । श्रार्य जीवनके धार्मिक क्षेत्रोंमें रक्तपात तो नहीं हुआ किन्तु भोग विलास और सामाजिक उत्सव में अभी भी कर हिंसा होती थी । अशोककी धर्मनीति एवं सामाजिक सुधारोंसे इन बातों पर अच्छा प्रभाव पडता है। मनुष्य में अपने विश्वास और विचारो के प्रति बहुत ही कट्टर ममता होती है. एक बार जो विचार उसके मनमें जम जाता उमे शीघ्र हटाना बहुत कठिन है। पिछली धार्मिक क्रान्ति में हिंसा अवश्य कम हुई थी परन्तु पुनः लोग उसकी ओर आकृष्ट होरहे थे । बुद्ध और महावीरके प्रयत्नों से धार्मिक श्रहिमाका प्रसार तो हुआ परन्तु सामाजिक जीवनमें वह अभी पूरे तौरपर प्रतिष्ठित नहीं हुई थी। इतने विशाल देशमें महमा युगोके संस्कारों को बदलना भी आसान बात नहीं थी । अशांक जब शासनारूड हुआ तो उसने भीरतीय इतिहासमें एक सर्वथा नई और उदान्त नीतिका प्रवर्तन किया । यह नीति कलिङ्ग युद्धको लेकर शुरू हुई। या तुरन्त राज्य स्थापनाका कार्य जारी करते हुए उसने कलिङ्ग (उड़ीसा) पर हमला बोला। कहते हैं उसमें २|| लाख कलिङ्ग वासियांने अपनी स्वाधीनताके लिये प्राणाहुति दे दी। इस भयङ्कर रक्तपातने विजेता अशोकके विचारोंपर गहरी छाप डाली। उसने तलवारकी अपेक्षा धर्मविजय द्वारा अपने राज्यका विस्तार किया उस समय सामाजिक उत्सव तथा खानपानमें बहुत ही भोंडी हिंसा होती थी. अशांकने उसे विहिसा' कहा है। 'समाज' और 'विहार यात्रा' जिसमें कि अकारण पशुओका वध होता था उसने बन्द करवा दी और उसके स्थानपर धर्मयात्राकी नींव डाली। . Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ] भनेकान्त [ वर्ष आधुनिक 'रथयात्रा' उसीका विकसित रूप है। मिलता है. यह ई० पू० का जैनग्रन्थ है । उसमें अशोककी अहिंसा नीतिका उद्देश्य अकारण हिंसा अहिंसाका यह लक्षण किया है। एवं भोंडी करताको रोकना था प्रायः वह सबके प्रति 'मरद व जियद व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिसा । समचयाका पक्षपाती था, उसके सारे कार्य और नीति पयदस्स पत्थि बंधो हिसामित्तण समिदस्स ॥' इसी भावनासे अनुप्राणित थे एक राजाके नाते वह जीव मरे या न मरे, किन्तु जो श्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति जिस प्रकारकी अहिमा बिना किसी साम्प्रदायिक करता है वह हिसक है पर जो प्रयत्नशील है हिंसा आग्रहके प्रसारित कर सकता था उसमें अशोकने कोई हो जानेगरी निर्दोष है। कार-कसर नहीं रखी, कुछ ऐतिहामिकोंने मार्य प्राचार्योंने इसीलिये 'मा' और 'प्रमाद' को साम्राज्यके पतनमें उसकी 'धर्मविजय' की नीतिको हिंसा कहा है। इसी सिद्धान्नको तत्त्वार्थसूत्र में इस दोषी ठहराया है, पर जिन्होंने इतिहासका बारीकीसे प्रकार प्रथित किया गया है-'प्रमत्तयोगा-प्राणव्यपरोमनन किया है. उनसे यह बात छिपी नहीं कि अशोक पणे हिंसा अर्थ है कि प्रमादके योगसे प्राणोका की नीतिके कारण ही भारत महत्तर बना और वह वियोजन करना, ये प्राण परके भी हो सकते हैं और अपनी संस्कृति एशिया तथा अन्य राष्ट्रों में फैला सका अपने भी। जैन अहिसाकी मौलिक और दार्शनिक यदि मौर्य साम्राज्यके पतनका कारण अशोककी नीति मीमांसा इससे बढ़ कर दसरी नहीं हो सकनी ? को माना जाय, तो शुङ्ग अरि गुप्त साम्राज्यके पतनका मनुष्य बृद्धि जो परे है और जबसे उसमें यह चेतना कारण क्या था ? अस्तु ! यहाँ इतिहासको छानबीन जाग्रत हुई वह किसी भी तत्त्व' को बिना दर्शनके करना हमाग लक्ष्य नहीं है। अशाकके बाद जिन स्वीकार नहीं करता। वेदयुगका क्रियाकांड भले ही लोगोंने अहिंसा और शान्तिकी नीतिको आगे बढ़ाया जिज्ञासा और भयमुलक रहा हो परन्तु आगे आर्य उनमे सम्प्रतिका नाम मर्वप्रथम लिया जायगा। विचारकोंने सृष्टि ईश्वर, लोक परलोक आदि पर सम्प्रतिने जैनधर्मके प्रसारके लिये अनेक जतन किये खूब चिन्तन किया बिना दार्शनिक समाधानके उन्होंने परन्तु यहाँ जैनधर्म या बौद्धधमका संकुचित अर्थ नहीं किसी बातको स्वीकार नहीं किया। लेना चाहिये। मनुष्य 'अहिमा' को क्यो अपनाए ? हिंसा क्या ___ मौर्य साम्राज्यके पतनके बादसे ई० प्रथम सदी है ? इत्यादि प्रश्नांका उत्तर खोजनेपर 'चेतन' 'तत्त्व' तक हम दो विचारोंका साथ-साथ विकास देखत है, की अनुभूति हुई; इस चेतन या जीव तत्त्वकी सत्ता पुष्यमित्र शुङ्गने न केवल शुगराज्य स्थापित किया अपितु प्रथक है यह वह जड़से उत्पन्न है ? वह स्वतन्त्र एक 'अश्वमेध-पुनरुद्धार' और धार्मिक रूढ़ियोंको पुनः इकाई है, या परमार्थसत्ताका एक अंश है. इन प्रश्नोंस्थापित किया उसकी घोषणा थी-“यो मे श्रमणशिपे का बहुत समय विचार होता रहा और तरह तरहके दास्यति तस्याहं दीनारं-शतं दास्यामि"-पिछले युगों मत खड़े हुएउनमें जो लोग 'ईश्वर'को कर्तारूप में भारतीय संस्कृतिसे जो धार्मिक हिसा उठती जारही मानते थे उनके विचारोका अन्त वेदान्त' विचार थीः इस युगमें वह पुनः जीवित हो उठी ठीक धारामें हुश्रा पर जो 'जीव'का स्वतन्त्र अस्तित्व इसी समय 'अहिंसाका वैज्ञानिक विवेचन लिखितरूप समझते थे, या जिन्होंने आत्मवाद'के गहरे मोहका में हमें देखनेका मिलता है। ऐसा जान पड़ता है कि निरसन करनेके लिए-अनात्मवाद और अनीश्वरशशासकोकी प्रतिक्रिया अधिक नहीं टिक सकी। वादका समर्थन किया-उनकी विचाराधारा श्रमण आर्य विचारकोंके सामने प्रश्न आया कि अहिंसाका कहलाई । इस प्रकार-आत्मानुभूति द्वारा चेतन'की दार्शनिक आधार क्या हो? इसका प्रथम विश्लेषण सत्ता हो जानेपर-भारतीय विचारकोकी दृष्टि बाह्य जहाँ तक इस लेखकका अनुमान है. 'श्रोधनियुक्ति में से हटकर अन्तरकी ओर उन्मुख हुई । उन्होंने हिसा Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] भारतीय इतिहासमें अहिंसा [३७६ या बलिद्वारा नहीं, अपितु ध्यान, धारणा एवं समाधि- ही वैष्णव भी करते हैं। इसके पीछे उनकी दार्शनिक को अपनी साधनामे जगह दी ! शङ्करके वेदान्तमें विचारधारा अवश्य कुछ भिन्न है ? 'ईश्वर'का चाहे जो रूप हो परन्तु यह स्पष्ट है कि अहिंसाके विषयमे जैनधर्मका दृष्टिकोण वस्तुतः उसमे हिंसाका लेशमात्र भी स्थान नहीं है ? इसी मौलिक है. यह मौलिकता इसमें है कि जैनविचारकोंने प्रकार वानप्रस्थ और सन्यास आश्रममे भी साधकोकी अहिसाकी व्याख्याका विचारविन्दु आत्माको माना जो चर्या गई है उसमें अपरिग्रह और अहिसा- है। इसे दूसरे शब्दोमें आध्यात्मिक भी कहा जा का सूक्ष्म विचार है ? श्रोपनियुक्ति'कारके अहिंसाका सकता है; 'अहिसा' या हिंसा-पहले स्व' में होती लक्षण और भारतीय साधनामें अहिसाका प्रवेश. है। बाहर तो उसकी प्रतिक्रिया ही देखनेमें आती है। एकाएक नही हो गया. वह सदियोकी चिन्तना और अहिंसाका विचार करते हुए न्हिोंने चार बातोंका. साधनाका परिणाम है । विभिन्न धर्मोके शास्त्रोका विचार किया है। हिस्य, हिंसक हिंसा और हिंसाका अध्ययन करनेसे यह स्पष्ट आभास हो जायगा कि फल । सूक्ष्मदृष्टिसे विचारनेपर यह स्वतः अनुभवमें किस प्रकार भारतीय विचारक एक दूसरसे प्रभावित पाता है कि व्यक्ति कपाय करके पहले स्वयं अपने होत रहे ? साम्प्रदायिकता भारतमें ७वी ८वी सदीके भावोंका हनन करता है इस लिए वह स्वयं हिंस्र बाद आई । इसके पहले खुलकर विचारोका आदान- और हिंसक है। यह बहुत ही सूक्ष्म विवेचन है ? प्रदान होता था। वास्तवमें देखा जाय तो श्रात्मा न तो हिंस्य है और न __'वेदान्त' की पृष्ठभूमि भागवतधर्म और बौद्ध- हिसक । गीताकारने कहा है:दर्शनके कुछ विचार है ' शुङ्गकालमे भागवत-धर्मको ‘य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । जन्म, उस विचारधाराने दिया था जो वेदयुगसे ही उभौ तौ न विजानीतौ नाऽयं हन्ति न हन्यते ॥' हिसाके विरोधमे उठी थी। चिरकालके संघर्पके बाद ऐसी स्थितिमें हिंसा और अहिंसाका प्रश्न ही उम समय इस विचारधाराकी इतनी प्रबलता थी- नहीं उठता? यह विवेचन वस्तु-स्वभावको देखनेकी कि हिसा पूजा विधानके प्रति जनता घृणा करने लगी दिखानेकी दृष्टिसे है। यदि व्यवहार-जगतमे उसे थी। इलिये भागवतधम और उसके उत्तरकालीनरुप लगाया जाय तो हमारी सारी व्यवस्था छिन्न-भिन्न वैष्णवधर्ममें अहिंसा' को प्रधान स्थान दिया गया ? हो जाय ? इसलिए 'अहिंसा का व्यवहारिक पक्ष गुप्तकालमे पुनः हिन्दुधर्मका उद्धार हुआ. परन्तु भी है। प्रकृत विश्वमे 'सुखदुख' भय और आशा इतिहासकी धारा सदैव आगे बढ़ती है. उसे पीछे नही का अनुभव सभीको होता है। प्रत्येक प्राणीमें जीनेका ढकेला जा मकता' यह कहा जा चुका है कि श्राोंने मोह है. चाहे वह कैसी परिस्थितिमें क्यों न हो; अतः धार्मिक उपासना प्रकृतिसे ग्रहण की थी। उन्होंने प्रकृति यथाशक्ति उनमें प्राणोकी विराधनासे बचना ही मे दो तत्त्व देखे, भद्र और भयङ्कर । इन्हींके आधार- व्यवहारिक अहिंसा है. जो साधक श्रालस्य रहित पर शिव और रुद्र इन दो शक्तियांकी कल्पना की गई; होकर. अपने लौकिक जीवनका निर्वाह करता हैऔर उसीके अनुरूप उसकी उपासना प्रचलित हुई। वह अहिंसक है पर और अध्यात्मिक साधनामें भागवद्धर्ममं उसे ब्रह्म' कहा गया और उसके विष्णु लगा हुआ प्रमादी मनुष्य हिंसक है ? इस तरह आदि अवतार स्वीकार किए गए-पर इन अवतारों- अहिंसाका सारा तत्त्वज्ञान प्रात्माकी जागरूकतापर की उपासनापद्धति पूर्ण अहिंमक रही ? प्राचार्य ही निर्भर रहता है ? शङ्करने सगुणकी जगह ब्रह्मको निर्गुण माना । परन्तु 'अहिंसा' अनुभूतिगम्य है ? वह तर्क सिद्ध नहीं अहिंमा वहाँ भी आवश्यक मानी गई। अहिमाका है? इमलिये अहिंसाका जितना भी नत्त्वज्ञान है. व्यवहार में जितना सूक्ष्मपालन जैन करते हैं-उतना वह 'आत्मानुभूति' पर अवलम्बित है ? मनुष्यने Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० ] जब अपने में स्थित चैतन्यका अनुभव किया होगा तभी उसके मनमें दूसरे प्राणियोंके प्रति ममताका भाव जमा होगा ? किन्तु मानव जातिके इतिहासमें अनुभूत भी बुद्धिका विषय बनती रही है ? भगवान् बुद्ध सामने जब दार्शनिक प्रश्न आए तो उन्होने मौन रहना ही श्र ेष्ठ समझा । उन्होने विश्वमैत्री. ममता और सदाचारका जो भी उपदेश किया वह अनुभूतिसे ही उद्भूत था. परन्तु श्रागे चलकर - उस अनुभूतिकी जो छानवीन हुई— उसने उनके धर्मको दर्शनकी अनेक धाराओ में बॉट दिया। 'अहिंसा' की भी यही गत हुई। पं० आशाधर' (१३वीं सदी) के समय मॉस भक्षण' करना चाहिए या नहीं, आदि तार्किक प्रश्न पूछे जाते थे । उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सागार धर्मामृतमें ऐसे ही प्रश्नांका बहुत ही कटु उत्तर दिया है । किमीने तर्क उपस्थित किया कि प्राणीका अङ्ग होनेसे माँस भी भक्षणीय है; जैसे गेहूँ आदि ! इसपर आशाधरजीने उत्तर दिया है- प्राणीका अङ्ग हानेसे ही प्रत्येक चीज भक्षणीय नहीं होजाती ! क्योंकि स्त्रीत्व रहनेपर भी पत्नी ही भाग्य है न कि माता ? तो फिर इसका निर्णय कैसे हो; साफ है कि विवेक-बुद्धि ? हमे स्वयं सोचना होगा कि व्यवहार मे कैसा आचरण अहिमा - हो सकता है ? सम्भवतः इसके विवेचन के लिये और व्यवहार में हिसाको खा करनेके लिये उसमे भेद कल्पित हुए ! आखिर खण्डरूप में ही कोई सिद्धान्त जनता के जीवनतक पहुँच सकता है ? अनेकान्त [ वर्ष जाता ? विरोधी और आरम्भ-सम्बन्धी हिंसा इसलिये अनिवार्य है; क्योंकि गृहस्थका सांसारिक उत्तरदायित्वके लिये वह आवश्यक है ? अहिंसाका यह संतुलितरूप ही एक ओर युद्धमे हत्याका विधान करता है और दूसरी ओर जलगालन का उपदेश करता है । वैदीययुगमें जैन- गृहस्थके आचार-विचारमें जो अहिंसक बारीकियों दीख पड़ती है, वे आज भी ज्योकी त्यां है; उनके इस आचार-विचारको देखकर, सहस्रो लांग जैन-धर्मकी अहिंसाको अव्यवहार्य समझने लगते है ? इसमें सन्देह नहीं कि शास्त्रोंके रूढ़िवादी अध्ययनसे गृहस्थोंमें बहुत-सा मुनिधर्म प्रवेश पा गया है ! व्यक्तिकी दृष्टिसे चाहे यह कितनी ही उच्चकोटि की साधना हो, परन्तु समाजकी दृष्टिसे वह किसी कामकी नही । इसमें व्यर्थ अहङ्कारकी पुष्टि होती. पर व्यक्तिकी आलोचना सिद्धान्तकी आलो चना नही है । श्रहिंसाका सम्पूर्ण आचरण गृहस्थोके लिये असम्भव है, इसलिये उन्हें संकल्पी - हिंसासे बचनेका प्रयत्न करना चाहिए ! इसका आशय यह है कि वह संकल्प करके दूसरोको हानि पहुंचानेकी चेष्टा न करेगा. परन्तु साथमे उसका जीवन इतना मरल और आडम्बर शून्य होना चाहिए कि जिससे अप्रत्यक्षरूप से भी वह अपने लिये दूसरोंके हित न छीनें । यदि वह अपने भोग-विलासका अधिक विस्तार करता है तो निश्चित है कि उसके लिये अधिक विरोधी और आरम्भी - हिंसा करना पड़ेगी ? और ऐसे व्यक्तिके लिये - संकल्पी अहिंसाका कोई मूल्य नहीं रह सर्वभूत दयाका भाव सभी धर्मो में अच्छा कहा गया है । इसलिये वे हिंसा, झूठ, चोरी, दुःशील और परिग्रहसे बचनेका उपदेश करते है, या इस उपदेशमे भी अहिंसाका भाव दिया हुआ है और इसका सङ्गांत तभी ठीक बैठ सकती है जब अहिसाका सम्बन्ध श्रात्मासे माना जाय । झूठ बोलना, चोरी करना और परस्त्रीगमन करना क्यो बुरा है ? जबकि देखा गया है कि उससे मनुष्यको एक प्रकारका सुख सन्तोष मिलता है । इस सुख-सन्तोषसे आत्माको वचित करना उसे दुख पहुँचाना है; और यह हिंसा ही है ? यदि हम आत्माको पकड़कर चले तो सहजमे इस प्रश्न का उत्तर मिल जायगा । हम स्वयं अनुभव करते हैं कि झूठ चारीसे जा सुख मिलता है वह क्षणिक है । क्षणिक ही नहीं, दूसरे क्षणमे दुखदायी भी है। क्यों ? वह आत्माके व्यक्तित्वका हनन करता है । वह सुख नही. सुखाभास है । आत्मा स्वयं अच्छे-बुरे कार्यका निर्णायक है. और यही वह श्रात्म- न्याय है जिससे पापी व्यक्ति, क़ानून और समाजसे बचकर भी श्रात्मग्लानिमें गलता रहता है। जैन - वाङ्गमय मे पाँच पापोके मूल में हिंसा' को ही बताया गया है. इसलिये Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] भारतीय इतिहासमें अहिसा [३८१ - पाँच महाव्रतोके मूलमें अहिंसा ही निहित ममझना हत्या पर घृणाके गीत लिखे जा रहे थे और दूसरी चाहिए। ओर-जीवनमें गहरी और विषाक्त आसक्ति बढ़ 'अहिसा' से न केवल भारतीयांका जीवन ही रही थी। जिस तरह राजपूतोंकी वीरता-प्रेम एवं संस्कृत हुा अपितु-उसके स्थापत्य, ललितकला भोग-विलासमे निखर रही थी उसी तरह-अहि और वाङ्गमयपर भी उसकी अमिट छाप पड़ी। मौर्य- सकोकी अहिंसा जीवतन्तुओंको बचाती हुईकालसे गाँधीयुग तक जितना जो भी विकास. कलादिका मनुष्यका शोषण कर रही थी। अंग्रेजांकी शासनहुश्रा उममें भारतीयोंकी सहज सुकुमार वृत्तियों और छायाम दानोंके लिए छूट थी। एक ओर-कालीके भावोकी ही अभिव्यक्ति हुई है। कुछ स्थल और मन्दिरोमे बलिकी स्वतन्त्रता थी और दूसरी ओर देवस्थान अवश्य ऐसे है जहाँ अभी भी धार्मिक जैनियोके अहिमा चरणमें किसी प्रकारकी बाधा न हत्या हाती पर नगण्यम्पमे। भारतमे वस्तुतः आए इसका भी सुप्रबन्ध था। जैनी चतुर्दशीको हरा आज अहिंमाका भाव इतना उग्र है कि कट्टरसे कट्टर शाक नहीं खा सकता परन्तु परोकी टोपी और विदेशी सनातनी भी अश्वमेधी वात भी नहीं कर सकता ? चमड़ेके जूते पहन सकता है ? फिर भी वहअनुव्रती है ? क्यो, कारण स्पष्ट है विश्वशान्तिके नामपर जा कुछ एक मारवाडी वैष्णव, एक बार पिजरापोल खोलकर यश अभी हालमे हुए- उनका शाकल्य एकदम अपनी दयाका प्रदर्शन करता है और दूसरी ओरमात्विक था । आरम्भमे भारतीय जीवन कितना कलकत्ता. बम्बई एवं अहमदाबादम शाषितांको हड़ियांअमंस्कृत था. इसकी कल्पना भी इस युगमे नही की पर बड़ी हलियाँ बरी करता है ? प्रश्न उठता है जा मकती, कोई भी ममाज धीर संस्कृत होता है। कि जीवनमे यह अमङ्गति-कयो ? जिम देशमे मनुष्योंश्राज गा-हत्या बहुत बड़ा पाप है. परन्तु पुराने- की इतनी दुर्दशा हो, वहाँ 'अहिमा के इस प्रदर्शनका समयमे वह आम रिवाज था। उत्तररामचरित' में क्या मूल्य ? क्या भारतीय अहिसा मनुष्यके प्रति प्रेम जब 'विश्वामित्र' आश्रममे पहुँच तो उनके स्वागतमे करना नहीं सिखाती ? जिस देशके पूर्वजोने चीन और एक बलियाका वध किया गया। 'भवभूति' ने इस जापानकी कर हिसक जातियोको भी अहिंसाका पाठ क्रिया के लिए-मिड़ामड़ायता' शब्दका प्रयोग किया दिया जिम महादेशने बुद्ध जैसे अहिंसाके पुजारीको है। कलकत्तेकी काली या इस प्रकारका अन्य प्राकृत उत्पन्न किया जो आज श्राधसे अधिक विश्वका पूज्य देवियाका छोड़कर, शेष हिन्दू देवता अब अहिमक है, जिन्होंने अहिंमाके तत्त्वज्ञानको मुक्तिके चरमविंदु उपासनासे ही मन्तुष्ट हात है? हिन्द सन्ता. तक पहुंचाया उम देशके मनुष्य दुनिया मबर्म वेदान्तियों और वैष्णवोंने इस बारेमें अकथनीय प्रयत्न अधिक दरिद्र दान और पीड़ित हों. यह बात महमा किए। विभिन्न विचारधाराप्रोके रहत हए भी हिसा- ममझमे नहीं पानी ? अहिंसा और हिंसाका जो के प्रति सभी धर्मोकी आस्था है। मंघर्ष वैदिकयुगमे शुरू हुआ था इसमें संदेह नहीं इस प्रकार इतिहासकी गतिके साथ जहां अहिसा उसमे अहिमाका विजय हुई। परन्तु अब हिंमा भारतीय जीवनधारामें स्पन्दित हो रही थी. वहाँ दृमर रूपमे अपना प्रभाव बढ़ा रही है? उसमे कुछ रूढ़ियाँ भी श्रा चलीं। सिद्धान्त जब तक गाँधीजीने उम प्रभावको ममझ लिया था और गतिशील रहते है तभी तक वे हमार जीवनको उसके उपचारका भी उन्होंने जतन किया था। अपने सुसंस्कृत और स्वस्थ बना सकते है पर जब उसमे जीवनमे उन्होंने जा काम किया वह यह कि अहिसा जड़ता था जाता है तो सहसा चट्टानकी तरह हमारे का रूढ़ियांसे मुक्तकर जीवनमे प्रतिष्ठित किया: विकासका रोक देते हैं। मध्ययुगमे अहिमाम इस गाँधीजीकी अहिसाकी जितनी बालोचना हुई. उतनी प्रकारकी स्थिरता आई। एक और 'भाखा' में 'जीव- शायद ही विश्व-इतिहासम किमी सिद्धान्तकी हुई हो। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ ] हिंसा में आस्था रखने वालोंने तो उनकी आलोचना की ही, किन्तु अहिंसाबादियोंने भी कोई कोर-कसर उठा नहीं रखी, पर वे विचलित नहीं हुए । आजसे कुछ सौ वर्ष पहले यदि गाँधी उत्पन्न हुए होते तो शायद ही आजकी दुनिया यह विश्वास करती कि धरतीपर ऐसा भी व्यक्ति हो सकता है। प्रत्येक अहिंसावादीके सामने — यह प्रश्न साकार हो उठता है कि क्या उसमे वही आत्मा है जिसके बलपर गाँधीजी इस घोर हिसक और विज्ञानवादी युगमें श्रद्धा और श्रहिंसापर जीते रहे । जिए ही नहीं, उन्होंने भौतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त की ! और एक दिन दुनियाने दुख और आश्चर्य से सुना कि उनकी विजयी आत्मा, एक विक्षिप्त व्यक्तिकी गोलीका शिकार होगयी । हम जीकर जीते हैं, पर गॉधाजी मरकर भी जिए । श्रहिंसा व्यापक तत्त्व है. उसे किसी शास्त्रीय मर्यादा में नहीं बाँधा जा सकता; उसपर भी गॉधीजी ऐसे समयमें जन्मे थे जब उन्हे विचित्र समस्याओ का सामना करना पड़ा उन्होने अहिंसाका अभ्यास शास्त्रसे नहीं जीवनसे किया था । अपना यह जीवन गुजरातकी लोकसंस्कृतिसे बहुत अनुप्राणित है. वह ठीक उस प्रदेशके थे जहाँ आजसे कई हजार वर्ष पहले एक ‘राजकुमार' पशुओं के आर्तनादसे विरक्त होकर वनमें तपस्या करने चला गया था; उसका नाम नेमकुमार था, शुरू में इसकी चर्चा श्राचुकी है। ऐसा लगता है कि उनके तपस्वी जीवनका प्रभाव अब भी गुजरातके वायुमण्डलमें व्याप्त है। महापुरुष जीवनकालमें जनताको प्रभावित करते है पर मरनेपर उनके संस्कार—करणकणमें भर जाते हैं ? और हजारों सदियों बाद, वे पुनः नये आदर्शोंकी प्रेरणा देते है ? नेमिकुमारके समय क्षत्रिय-वगके श्रामोद-प्रमादके लिए - पशुओकी हत्या होती थी परन्तु गांधीयुगमे मनुष्यकी दशा पशु से भी अधिक दयनीय हो उठी थी ? ब्रिटिश सङ्गीनने समूचे देशके चैतन्यको कुचल रक्खा था ? उससे उद्धार पाना आसान नहीं था । मै समझता हूं भारतीय इतिहासमे जितना काम गॉधीके सिरपर आया, उतना किसी दूसरे व्यक्तिपर नहीं । अनेकान्त [ वर्ष गॉधीजी अहिंसक परम्पराकी ही एक कड़ी थे ? इसी दृष्टिसे उनकी अहिंसाकी परख करनी चाहिए ? उनकी मृत्युके बाद पुनः हिंसा और अहिंसाका प्रश्न हमारे सामने हैं। गाँधीवादियोंकी असफलताने इस प्रश्नको और भी उम्र बना दिया है ? स्वतन्त्र होनेके बाद देशके सामने अनेक समस्याएँ हैं और यदि उनका हल नहीं हुआ निश्चय है कि देशमें पुनः नई व्यवस्थाओ को जारी करनेके लिए क्रान्तियाँ होंगी ? गाँधीजी या अहिंसा के नामपर उन - क्रान्तियों को रोका नहीं जा सकता ? धीरे धीरे ये शक्तियाँ जोर पकड़ रही हैं। शक्ति पानेके बाद जो शिथिलता और कुण्ठित विचारकता श्राती है, वर्तमान शासन उससे वश्वित नहीं है ? धार्मिक हिसावादियोंको हिसा मुक्तिपरक - सी हो गई है ? वर्तमान जीवनकी समस्याओं से उनका सम्बन्ध ही दिखाई नहीं देता; क्योकि उनकी मारी चेष्टाएँ ऐसे प्रश्नोके सुलझाने में लगी हुई है - जो इस लोकसे पर है ? नवयुवको जीवनमें विदेशी विचारधारा घर करती जा रही है; एक बार फिर यह प्रश्न हमारे सामने है कि क्या भारताय संस्कृति - अपनी सामाजिक व्यवस्था के लिए - किसी विदेशी काकांको अपनाएगी ? व्यापार क्षेत्रमें इस देशके पूँजीपतियोंने सदैव पश्चिमका अनु किया है। उसके विरोध में गाँधीजीनं गृहोद्योग और प्राम्य सुधारकी बाते रक्खी थी पर वे मानो उनके महाप्रयाणके बाद ही विदा हो लीं ? और आर्थिक निर्माण एवं जनताके बिकासका प्रश्न हमारे सामने हैं ? यदि किसी विदेशी विचारधाराने एक हर देशपर आक्रमण कर दिया तो यह निश्चित है कि हमारा, पिछले इतिहासका गौरव नष्ट हो जायगा, उसके बाद भारतीय इतिहासमें हिंसा कथाकी वस्तु रह जायगी ? भावी इतिहास लेखक कहेंगे कि हमने -गॉधीजीको पूजा. पर उनको धरोहर नही बचा सके ? सन्मति निकेतन, नरिया लडा, बनारस) ४ सितम्बर ४८ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहारक्षेत्रके प्राचीन मूर्ति-लेख (संग्रहाफ-प० गोविन्ददास जैन, न्यायतीर्य, शास्त्री) प्रास्ताविक वर्मका शासन (राज्य) था और अहारका उस समय 'मदनेशसागरपुर' नाम था। सुदूरकालमें बुन्देलखण्डकी भव्य वसुन्धरा बुन्देलों यहॉकी मूर्तियोंके शिलालेखोंसे पता चलता है कि की अमर गाथाश्रोसे तो गौरवान्वित होती रही, खण्डेलवाल. जैसवाल. मेडवाल. लमेचू, पौरपाट. माथमें जैन संस्कृति और उमके अमर माहित्यकी गृहपति, गोलापूर्व. गोलाराड, अवधपुरिया. गर्गराट संरक्षणी भी रही । वह मानते है कि बुन्देलखण्ड आदि अनेक जातियोका अस्तित्व था । इन सभी एक समय जैनियोका अच्छा और प्रधान केन्द्र रहा जातियोंकी प्रतिष्ठित मूर्तियाँ यहाँ विद्यमान है। है, इसका प्रमाण अनेक उस प्राचीन जैनतीर्थ, विशाल जैनमन्दिर. जिनविम्बाके शिलालेख और उन यहाँ वि० सं० ११३से लेकर वि० सं० १८६६ शिलालेखामें उल्लिग्वित जैनांकी विभिन्न अनेक उप तककी प्राचीन मूर्तियाँ पाई जाती हैं। अतः ज्ञात जातियाँ आदि है। होता है कि बीचकी एक-दो सदियोंको छोड़कर बराबुन्देलखण्ड में खजुराहा. देवगढ. सीरोंन. चन्देरी. बर १७वीं सदीसे लेकर १६वी सदी तक विम्ब थूयौन पवा पपौग द्रोगागिरि शिंदीगिरि बाणपुर प्रतिष्ठा यहाँ होती रहीं। मूल नायक भगवान् आदि अनेक प्राचीन पवित्र क्षेत्र है। इनमे कई क्षेत्र शान्तिनाथकी प्रतिविम्बसे जो विक्रमकी तेरहवीं सदीता प्रकाशमे प्राचक है और उनके शिलालेखादि भी मे प्रतिष्ठित हुई है. १०० वर्ष पहलेको यहाँ प्रतिमाएँ प्रकाशित हाचके है परन्तु कई क्षेत्र अभी पूर्ण प्रकाश- पाइजाता है। - मे नहीं आय और न उनके शिलालेख वगैरह ही यहा भट्टारकाका शताब्दया तक गाहया रहा है. प्रकाशमे आये हैं। अहारक्षेत्र भी ऐसे ही क्षेत्रोंमस. मा शिलालेखासे मालूम हाता है। यहाँ के तत्कालीन एक है । जिस प्रकार अनेक प्राचीन मूर्तियो तथा एक प्रभावपूर्ण अतिशयने तो अहारके नामको आज मन्दिरोंके भग्नावशेष देवगढ आदि स्थानाम पाय तक अमर रमवा है। कहते है कि यहाँ एक धर्मात्मा जाते हैं-उसी तरह अहारमे भी वे यत्र तत्र पाय व्यापारी (सम्भवतः जनश्रठी प्राणाशाह) का रांगा, जाते है । इनपर उत्कीर्ण शिलालेखोंमे प्रतीत होता है जा बहुन तादादमे था. चाँदो हा गया था। उसने कि श्रीधारकी प्राचीन बस्तीका नाम मदनेशमागर- अपन उस तमाम द्रव्य अपने उस तमाम द्रव्यका चैत्य-चत्यालय तथा धमापुर' था। इसके तत्कालीन शासक श्रीमदनवम्म थे- यतनाक निर्माणम ही लगा दिया। तभीसे यहाँ धार्मिक जो चन्देलोमे प्रमुख और प्रभावशाली एवं यशस्वी मान्यताप्राक म मान्यताओके साथ अनेक स्तूपांके रुपमें और भी चन्देल नरेश थे। विक्रमकी ग्यारवीं-तरहवीं सदीके अनेक मान्दर निमाण अनेक मन्दिर निर्माण कराये गये जिनकी निश्चित शिलालेखोमे जो अहारजीमे विद्यमान हैं मदनेश- संख्या बताना असंभव है। सागरपुरका नाम स्पष्टतया आता है। श्रीअहारके खुदाई करनेपर यहॉपर उत्तरोत्तर बहुत तादादमें पास जो विशाल सरोवर बना हुआ है वह आज भी खण्डित मूर्तियाँ भूगर्भसे प्राप्त हो रही हैं। जिनमें 'मदनसागर' के नामसे विश्रु त है। इससे यह जान अनेकांकी श्रासने शिलालेग्वांस अङ्कित है। अनेकोंके पड़ता है कि ग्यारहवीं मदीमें यहाँ चन्देल नरेश मदन- पानांपाङ्ग खण्डित हो चुके हैं। मूर्तियाँ अनेक वर्षों Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ तक भूगर्भमें निहित रही फिर भी उनकी पॉलिश करेण्यः । पुण्यैक मूर्तिरभवद् वसुहाटिकायाम् । कीतिर्जगज्योंकी त्यों चमदकार है। त्रयपरिभ्रमणश्रमार्त्ता यस्य स्थिराजनि जिनायतमूर्तियोंके प्रतिष्ठा लेखोंसे पता चलता है कि उस नाच्छलेन ॥ एकस्तावदनूनबुद्धिनिधिना श्रीशान्ति ममय संस्कृतका अच्छा प्रचार था। प्रशस्तियाँ प्रायः चैत्यालयो दृष्ट्यानन्दपुरे परः परनरानन्दप्रदः श्रीमता। संस्कृतमें ही लिखी जाती थीं। लिपि चाहे प्राचीन हो येन श्रीमदनेशसागरपुरे तजन्मनो निम्मिमे । सोऽयं श्रीष्टिया अर्वाचीन। वरिष्ठगल्हण इति श्रीरल्हाख्यादभूत् ॥३।। तस्मादजायत श्री अहारक्षेत्रमें जो शिलालेखयक्त मनियाँ कुलाम्बर पूर्णचन्द्रः श्रीजाहडस्तदनुजोदयचन्द्रनामा। एकः खण्डित और अखण्डित रूपमें उपलब्ध हैं उन्हींके परोपकृतिहेतुकृतावतारो धर्मात्मकः पुनरमोघसुदानशिलालेखोका यह महत्वपूर्ण संग्रह पाठकोंके सामने सारः ॥४॥ ताभ्यामशेषदुरितौघशमैकहेतु निर्मापितं प्रस्तुत है। कई लेख घिसने तथा आसनोके टूटनेसे भुवनभूषणभूतमेतत् श्रीशान्ति चैत्यमिति नित्यसुखप्रदात् । पूरे २ नहीं पढ़े जा सके हैं, उसके लिय लखक मुक्तिश्रियो वदनवीक्षणलोलुपाभ्याम् ॥५॥ सम्बत् १२३७ क्षम्य है। मार्गसुदी ३ शक श्रीमत्परमद्धिदेवविजयराज्ये । चन्द्र___इसमें जहाँ संशोधन प्रतीत हो उसे विद्वजन भास्करसमुद्रतारका यावदत्र जनचित्तहारकाः। धर्मकारिमुझ सूचित करनेकी कृपा करेंगे। मैं उनका बड़ा कृतशुद्धकीर्तनं तावदवजयतात् सुकीर्तनम् ।। वल्हणस्य आभारी होऊँगा। यदि इस सपहसे पाठकोको थोड़ा सुतः श्रीमान् रूपकारामहामतिः । पापटावास्तुशास्त्रज्ञस्तेन भी लाभ पहुँचा तो मैं अपना श्रम सफल समदूंगा। विम्बंसुनिर्मितम् । __ भावार्थः-वीतरागके लिये नमस्कार (है) जिन्होने शिला-लेख (मूर्तिलेख) बानपुरमें एक सहस्रकूट चैत्यालय बनवाया वे गृह पतिवंशरूपी कमलाका प्रफुल्लित करने के लिये सूयके मूर्ति देशी पाषाणसे निर्मित है। पॉलिश मटियाले समान श्रीमान देवपाल यहाँ (इस नगरमे) हुए । रजकी चमकदार है। करीब २२ फुटकी शिलापर १८ श्लोक २-उनके रत्नपाल नामक एक श्रेष्ठ पुत्र हुए फुट ऊँची यह विशालकाय मूर्ति खड्गासन सुशोभित जो बसुहाटिकामें पवित्रताकी एक (प्रधान) मूत्ति थे। है। श्रासनके दोनों ओर दो यक्षिणियांकी मूर्तियाँ जिसकी कीर्ति तीनो लोकोमे परिभ्रमण करनेके श्रमसे उत्कीर्ण है। जिनके अद्भ वगैरह खण्डित हो चुके हैं। थककर इस जिनायतनके बहाने ठहर गई। दोनों ओर दो इन्द्र खड़े हैं । मूर्तिका दाँया हाथ टूट श्लोक ३–श्रीररहणके वेष्ठियांमें प्रमुख, श्रीमान् गया था वह दूसरे पाषाणसे पुनः बनाया गया है। गल्हयाका जन्म हा जो ममप्रबद्धिके निधान थे उसपर पॉलिश भी किया गया है परन्तु पहले और जिन्होंने नन्दपुरमे श्रीशान्तिनाथ भगवानका पॉलिशसे नहीं मिल सका है। नासिका पैगंके अंगूठे अगूठ एक चैत्यालय बनवाया था, और इतर सभी लोगोंको आदि उपाङ्ग भी पुनः जोड़े गये है। प्रासनपर दोनों आनन्द देनेवाला दूसरा चैत्यालय अपने जन्मस्थान ओर दो हिरण खड़े है। उमके नीचे शिलालेग्व है जो श्रीमदनेशसागरपुरमें बनवाया था। करीब ४ इञ्च लम्बा और हइश्च चौड़ा है। शिला श्लोक ४-उनसे कुलरूपी आकाशके लिये पूर्णलेख इस प्रकार है चन्द्रके समान श्रीजाहड उत्पन्न हुए । उनके छोटे लेख नम्बर १ भाई उदयचन्द्र थे । उनका जन्म प्रधानतासे परोपकार ॐ नमो वीतरागाय | गृहपतिवंशसरोरुह के लिये हुआ था। वे धर्मात्मा और अमांघदानी थे। सहस्ररश्मिः सहस्रकूटं यः । बाणपुरे व्यधितासीत् श्लोक ५-मुक्तिरूपी लक्ष्मीके मुखावलोकनके श्रीमानिह देवपाल इति ॥१॥ श्रीरलपाल इति तत्तनयो लिये लोलुप उन दोनो भाइयाने समस्त पापोके क्षयका Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहारक्षेत्रके प्राचीन मूर्ति-लेख किरण १० ] कारण, पृथ्वीका भूषण स्वरूप और शाश्वतिक महान् आनन्दको देनेवाला श्रीशान्तिनाथ भगवानका यह प्रतिबिम्ब निर्मापित किया । संवत १२३७ अगहन सुदी ३, शुक्रवार, श्रीमान् परमर्द्धिदेवके विजय राज्यमें ६ - इस लोकमे जब तक चन्द्रमा सूर्य, समुद्र और तारागण मनुष्योके चित्तोंका हरण करते हैं तब तक धर्म्मकारीका रचा हुआ सुकीर्तिमय यह सुकीर्त्तन विजयी रहे। के पुत्र महामतिशाली मूर्तिनिर्माता और वास्तु शास्त्र ज्ञाता श्रीमान पापट हुए. उन्होने इस प्रतिविम्बकी सुन्दर रचना की । नोट - इम लेखकी प्रथम पंक्ति में बाणपुरके जिस सहस्रकूट चैत्यालयका उल्लेख आया है वह वहाँ अब भी विद्यमान है । यद्यपि उसकी भी अधिकांश मूर्त्तियाँ खडित हो चुकी है तथा वे सभी मूर्तियाँ और चैत्यालय उत्कृष्ट शिल्पकलाके उत्तम आदर्श हैं। दूसरे में जो "बसुहाटिकायां" पद आया है इससे विदित होता है कि यह किसी प्रसिद्ध नगरीका नाम रहा होगा। इस श्लोक में वर्णित नन्दपुर भी इसी नगरके करीब होना चाहिये जो उस समय प्रसिद्ध था । तथा "मदनेशसागरपुर” जो पद श्राया है उससे ज्ञात होता है कि वह सम्भवत: इसी स्थान - अहार —का नाम रहा होगा। यहाँ के तालाबको आज भी 'मदनमागर' कहते हैं । फुट यह मूर्ति क़रीब १३ फुटकी शिलापर क़रीब ११ ऊँनी खड्गासन । मूर्त्तिके कुछ उपाङ्ग छिल गये हैं । नासिको उपस्थ इन्द्रिय तथा पैरोंके अंगूठे टूट गये हैं । बाँया हाथ पुनः जोड़ा गया है। शिला लेखका बहुभाग टूट गया है। भाव को लेकर पूर्ति की है । चिह्न बकरेका है। पालिश मटियाले रङ्गकी है। लेख नम्बर २ ॐ नमो वीतरागाय । बभूव रामा नयनाभिरामा, श्रीरहणस्येह महेश्वरस्य । गंगेवगंगागत [ ३८५ पंकसंगा, जड़ाशयानेव परं नवोढ़ा ||१|| गार्हस्थधर्मनितरां ग्रहणप्रवीणा, निरंतरप्र मनिधानधात्री । पुत्रत्रयं मंगलकार्यसूता, येषां च कीर्त्तिरिव सत्वरधर्मवृत्तिः ॥२॥ तेषां गगियकल्पः प्रथमतनुभवः पुण्यमूत्तिः प्रसूतः । स्कन्दो भूतेशमेवागुणवतिरुदयादित्यनामापरस्य । ख्याताधर्मे कुमुदशशिलघुभ्रातृयुग्मेवियुक्त', संसारासारतां ...... हिवुद्धिः || ३ || वित्तानि विद्युदिव सत्वर गत्वराणि, राजीविनी जलसामनि व जीवतानि । तुल्यानि "गणस्यहि यौवनानि **** 118 11 भावार्थ:- वीतराग के लिये नमस्कार हो । श्रीरल्हूण के महेश्वरकी तरह पापोंसे रहित नवविवाहित नयनोको प्यारी गङ्गा नामकी स्त्री हुई | १|| जो हमेशा गृहस्थ धर्मको ग्रहण करनेमें चतुर तथा हमेशा प्रेमकी निधानभूत थी । उमने मङ्गलरूप तीन पुत्र पैदा किये। जिनकी कीर्त्तिके समान जल्दी धर्ममें प्रवृत्ति हुई | २ || उन तीनो पुत्रामेंसे पुण्यकी मूर्तिके समान महादेवको कार्त्तिकेयके मानिन्द पहला पुत्र पैदा हुआ। उसने अपने छोटे दो भाइयोके वियोग होनेसे तमाम संसार की असारताको जाना। तथा दान और धर्ममें है बुद्धि जिसकी ऐसे उसने धनको बिजलीके समान जल्दी नाशवान जाना। तथा जीवनको जल-बुदबुदेके समान माना । तथा बादलोकी चञ्चलताके समान यौवनको माना । फिर तमाम धनको निज हित में लगाकर ही धन्य माना । ४ ॥ यह क़रीब ६ इनका मटियाले पाषाणका एक भग्नावशेष मात्र है । इसकी पालिश बहुत कुछ शान्तिनाथकी मूर्त्तिसे मिलती है। चिह्नकी जगह कुछ अस्पष्ट निशान है जो अच्छी तरह नहीं देखा जा सकता। शिलालेखका बहुत भाग टूट गया है। कुछ शब्द पढ़े गये जो नीचे उद्धृत किये जाते हैं:--- लेख नम्बर ३ सं० १२३७ मार्ग सुदी ३ शुको साहु श्रीपाल सुत साहु गेल्या.... ........। बाक़ी हिस्सा नहीं है । यह मूर्ति मन्दिर नं० १ के प्रांगणकी दीवार में खचित है। मूर्त्तिका शिर धड़ से अलग है. परन्तु Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ] अनेकान्स [ वर्ष ६ चूनासे पुनः जोड़ा गया है। मूर्ति करीब १।। फुट धर्मपत्री मामने प्रतिमा बनवाई। उनका पुत्र महीपती पद्मासन है। पाषाण काला है । चिह्नको देखकर और वे उसे प्रतिदिन नमस्कार करते हैं। पुष्पदन्तकी मालूम होती है। कुछ शिलालेखका हिस्सा यह मूर्ति भी नं० १ मन्दिरके चौककी दीवारमें दीवारमें बन्द है. अतः पूरा नहीं पढ़ा जा सका। चिन दी गई है। शिर धदसे अलग है। चूनासे पुनः लेख नम्बर ४ जोड़ दिया गया है। दोनों हाथोकी अंगुलियाँ नहीं ____ सं० १२.६ वैशाख सुदी १३ श्रीमदनसागरपुरे हैं। चिह्न बैलका है मूर्ति चमकदार काले पाषाणकी मेडवालान्वये साहु कोकासुत साहुकारकम्प पडिमा है। आमन विशाल है। कारपिता ॥ लेख नम्बर ७ ___ भावार्थः-मेडवाल जातिभूषण साहु कोका तथा सं० १२१३ श्रीमाधुन्वये साहुश्रीयशकरसुत साहुश्रीपुत्र कारकम्पने सं० १२०९के वैशाख सुदी १३के दिन यशराय तस्य पुत्रैनः कमल यशधरी दार्याराउ प्रणप्रतिमा बनवाई। मन्ति नित्यम् ।। ___ मूर्ति न० ४की भाँति मन्दिर नं० १के प्रांगणमें भावार्थ:-सं० १२१३में (प्रतिष्ठित की गई इस है, शिर धसे अलग है, पुनः जोड़ा गया है। मूर्तिकी मूर्तिको) माघुवंशमें पैदा होनेवाले शाह यशकर उनकी हथेली मय अँगुलियोके छिल गई है। चिह्न बन्दरका धर्मपत्नी उनके पुत्र यशराय उनके पुत्र तीन हुये-कमल है।२ फुटकी अवगाहना है। पाषाण काला तथा यशधर-दार्याराउ, ये सब प्रतिदिन प्रणाम करते हैं। चमकीला है । मूर्ति पद्मासन है। यह मूर्ति भी मन्दिर नं. १ के चौकमे खचित है। लेख नम्बर ५ शिर धदसे अलग होनेपर पुनः जोड़ा गया है। दोनों ____ सं० १.१० वैशाख सुदी १३ पौरपाटान्वये हाथोंके पहुँचा मय अँगुलियोंके नहीं हैं। दाएँ पैरके साहु ढूंदू भार्या यशकरी तत्सुत साद भार्या दिल्हीनलबी टकनोसे नीचेका हिस्सा नहीं है (छिल गया है) तथा तत्सुत पोपति एते प्रणमन्ति नित्यम् ।। बा' पैरकी जंघा छिल गई है। चिह्न चन्द्रका है। भावार्थ:-पौरपाटान्वयमे पैदा होने वाले साह ३ फुट अवगाहना है। श्रासन पद्मासन है। काले ढूंद उनकी धर्मपत्री यशकरी उनका पुत्र साद उसकी पाषाण की है। पनी दिल्हीलक्ष्मी उसके पुत्र पोपति ये मब इस लेख नम्बर ८ विम्बकी सं० १२१८के वैशाख सुदी १३को प्रतिष्ठा सं० १२१८ वैशाख सुदी १३ लामेचूकान्वये साहु कराकर सदा उसे नमस्कार करते हैं। क्षते तद्भार्या बप्रा तयोः सुत नायक कमलबिन्द तद्भायो ___ यह मूर्ति भी मन्दिर नं० १के प्रांगणमें दीवारमें साल्ही सुत लघुदेव एते प्रणमन्ति नित्यम् ।। खचित है। शिर धडसे अलग है परन्तु पुनः चूनासे भावार्थ:-लमेचूकुलमे पैदा होनेवाले साहु क्षते जोड़ दिया गया है। दाँये हाथकी अंगुलियों नहीं हैं। उनकी पत्नी बप्रा उन दोनोंके पुत्र नायक कमलबिन्द चिह्न शजका है। ३ फुट ऊंची. पद्मासन काले पाषाण उनकी पत्नी माल्दी पुत्र लघुदेव येसं०१२१० वैशाखसुदी की है। आसन विशाल है। १३का विम्वप्रतिष्ठा कराकर प्रतिदिन प्रणाम करते है। लेख नम्बर ६ यह मूर्ति भी मन्दिर नं. १ के चौकम शिर जोड़ सं० १२१६ माघमुदी १३ खडि[खंडे]लवालान्वये कर खचित है। हथेली छिल चुकी है। चिह्न कुछ नहीं साहु सल्हण तस्य भार्या माम तेन कर्मक्षयार्थ प्रतिमा ज्ञात होता है। करीब ३ फूट उंची है. पद्मासन है। । कारापिता। तस्य सुत महिपति प्रणमन्ति नित्यम् ॥ काले पाषाणसे बनी है। भावार्थ:-सं० १२१६के माघ सुदी १३के दिन लेख नम्बरह खरडेलवाल वंशमे पैदा होनेवाले साहु सल्हण उनकी सं० १२०९ वैशाख सुदी १३ गृहपत्यन्वये सासु मल्ह Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] तस्य पुत्र मातन तस्य मगिनी आल्ही एते नित्यं प्रणमन्ति । भावाथ: - गृहपति (गहोई) वंशोत्पन्न साह अल्ह उसके पुत्र मातन उसकी बहिन आल्ही य सं० १२०० वैशाख सुदी १३को बिप्रतिष्ठा कराकर प्रतिदिन प्रणाम करते हैं। हारक्षेत्र प्राचीन मूर्ति-लेख मूर्त्तिके दोनो तरफ इन्द्र बड़े है । कुछ हिस्से छिल गये है जैसे -- दाढ़ी - नासिका अंगुली । बाकी सर्वाङ्ग सुन्दर हैं । करीब ५ फुट अवगाहना को लिये हुए खड्गासन है । पाषाण काला तथा चमकदार है। चिह्न ace कुछ नहीं है । शिलालेख घिम गया है। कुछ हिस्सा पढ़ा जा सका जं। इस प्रकार हैलेख नम्बर १० सं० १२०३ माघ सुदी १३ साहु जगचन्द्र पुत्र *** ******* सखवंत I ****************** १३को साह दिने बिम्ब भावार्थ:-सं० १२०३ माघमुदी चन्द्र और उनके पुत्र सुखवंत प्रतिष्ठा कराई। यह मूर्ति भी मन्दिर नं० १ के चौकमें चिनी है। शिर धड़से अलग होनेपर भी जोड़ा गया है। दोनों हाथोंके पहुँचे छिल गये है। बैलका चिह्न | करीब १|| फुटका गाना है. आसन पद्मासन है । पाषाण काला है। 1 लेख नम्बर १९ । सं० १२०३ माघसुदी १३ गोलापूर्वान्वये साहु भावदेव भार्या जसमती पुत्र लक्ष्मीवन प्रणमन्ति नित्यम् भावार्थ:- गालापूर्ववंशमे पैदा होनेवाले शाह भावदेव उनकी धर्मपत्नी जसमता पुत्र लक्ष्मवनने १२०३ माघ सुदी १३ को प्रतिष्ठा कराकर सब प्रतिदिन प्रणाम करते हैं। [ ३८७ श्रीदेवचन्द्र सुत दामर भार्या श्रपिली प्रणमन्ति नित्यम् । भावार्थ:-- गोलाराड वंशोत्पन्न शाह श्रीदेवचन्द्र उनके पुत्र दामर उनकी पत्नी त्रपिली सं० १२३७के अगहन सुर्दा ३ शुक्रवारको प्रतिष्ठा कराकर प्रतिनि प्रणाम करते हैं। यह मूर्त्ति भी मन्दिर नं० १ के चौकमें चिनी है। शिर घड़से अलग होनेपर पुनः जोड़ दिया गया है । चिह्न कुछ नहीं है । करीब १|| फुट ऊँची पद्मासन काले पाषाणकी है। लेख नम्बर १२ यह मूर्ति भी मन्दिर नं० १के चौक में विराजमान है। दोनो और इन्द्र खड़े हैं। सिर्फ नासिका छिल गई है। बाकी स्वर्वाङ्ग सुन्दर है । चिह्न हिरणका है। करीब 31 फुट ऊँची खडगासन है । काले पाषाणसे, निर्मित है । लेख नम्बर १३ सं० १२९६ माघसुदी १३ शुक जैसवालान्वये साहु श्रीघण तद्भार्या सलषा तस्य पुत्र साहु श्रमदेव - तथा कामदेव सुत लखमदेव तस्य प्रयेदेवचन्द्रवाल्हू सांति - हाल प्रभृतयः प्रणमन्ति नित्यम् । मंगलं । महाश्रीः ॥ भावार्थ:-- जैसवाल वंशमें पैदा होनेवाले शाह घण उनकी पत्नी सलषा उसके पुत्र शाह आमदेव तथा कामदेव उसके पुत्र शाह लखमदेव उसके गृहमे पैदा होनेवाले देवचन्द्र - बालू- सांति- हालू प्रभृतिने सं० १२१६ माघ सुदी १३ शुक्रवारके दिन विम्ब प्रतिष्ठा कराई। यह मूर्त्ति भी मन्दिर नं १के चौकमे शिर जोड़ कर चिन दी गई है। बाक़ी सर्वाङ्ग सुन्दर है। चिह्न हाथीका है। फुट ऊँची पद्मासन है । पाषाण काला है । लेखका कुछ हिस्सा छिल गया है। लेख नम्बर १४ साहु श्रीमल्हण तस्य सुत वाकु तम्य सुत लाल तस्य भार्या नाधर तयोः सुत वाल्हराउआमदेव अजितं जिनं प्रणमन्ति नित्यम् । सं० १२०३ माघ सुदी १३ । भावार्थ:-शाह श्रीमल्हण उनके पुत्र बाकु उनके पुत्र लाल उसकी पत्नी नाधर उन दोनोंके पुत्र दोबाल्हराय - आमदेव अजित जिनका प्रतिदिन प्रणाम सं० २०३७ मार्ग सुदी ३ शुक े गोलारादान्वये साहु करते हैं। सं० १००३ माघ सुदी १३ का प्रतिष्ठा हुई। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ ] यह मूर्ति भी मन्दिर नं० १के चौककी दीवारमें स्वचित है। मूर्त्तिका शिर धड़ से अलग होनेपर पुनः जोड़ दिया है। चिह्न जगह एक कमल है। जो किसी कलाका द्योतक है । २। फुट पद्मासन है । पाषाण काला है। लेख नम्बर १५ सं० १२०९ आषाढ वदी ८ गुरौ जयसवालान्वये साहु श्रीवाहड़ तत्सतो सोमपति मल्हणौ तथा साहु श्री नमिचन्द्र तत्सुतौ माहिल - पंडित देल्हणौ तथा साहु श्रीरत तत्सुताः - सीद - भावु - कल्हणाः एते नित्यं प्रणमन्ति । भावार्थ:- जैसवालवंशों पैदा हुए शाह श्रीबाहड़ उनके पुत्र दो - सोमपति और मल्हण । तथा शाह श्रीनमिचन्द्र उनके पुत्र दो - माहिल पंडित तथा देल्हण । तथा शाह श्रीरत उनके पुत्र तीन-सीद, भाव और कल्ह इन्होंने सं० १२०० आषाढ़ वदी ८ गुरुवारको प्रतिष्ठा कराई। ये सब सदा प्रणाम करते हैं। यह मूर्त्ति भी मन्दिर नं० १के चौकमे शिर जोड़ कर चिन दी गई है। चिह्न शेरका है । २। फुटकी ऊँची पद्मासन है । काला पाषाण है । बाकी सर्वाङ्ग सुन्दर है लेख नम्बर १६ 1 सं० १२३७ मार्ग सुदी ३ शुक्र । उपशमक्षमः ॥ श्रीवीरदेव इत्यासीत्, खण्डेलान्वयभास्करः । प्रतिद्यावार्यतेयोभूत्तत्पुत्रो कमला निवास वसतिः, कमलदलाक्षः प्रसन्न मुखकमलः । बुधकमल- कमलबन्धुः विकलंकः कमलदेव इति ॥ श्री वीरवर्द्ध मानस्य विम्बं तत्पुण्यवृद्धये । कारितं केशवेनेदं तत्पुत्रेण निर्मलम् ॥ साहु श्रीमामटस्याऽपि पुत्रो देवहरानिघः । तेनापि कारितं चैत्यं तर्वादेवात्र वेतसा । भावार्थ: खण्डेलवाल वंशोत्पन्न सद्वशके लिये सूर्यके समान वीरदेव हुए। जो बड़े बुद्धिमान थे। उन के पुत्र अनुपमेय था । जो लक्ष्मीका निवास था. जिसकी आँखें कमलपत्र के समान थीं। जिसका मुख अनेकान्त [ वर्ष प्रसन्न था । और जो पंडितरूपी कमलोंको विकसित करनेके लिये सूर्य था । और जो निर्मल था - ऐसे कमलदेव हुए । उनके पुत्र केशवने पुण्य-वृद्धि के लिये श्रीवीर बर्द्धमान भगवानकी प्रतिमा बनवाई | यह मूर्ति भी मन्दिर नं १ के चौकमे चिनी है । शिर धड़से अलग है । पुनः जोड़ा गया है। बाकी सर्वाङ्ग सुन्दर है । करीब २ फुट पद्मासन है । पाषाण काला है। चिह्न दण्डका है । लेख नम्बर १७ सं० १९६६ चैत्र सुदी १३ गर्गराटान्वये साहु वाक तस्य सुत साह लालसाल्हण नाइव तम्य सुत साहु मालुराज सोमदेव एते नित्यं प्रणमन्ति । भावार्थ:-राट वंशमें पैदा होनेवाले शाह वाक उनके पुत्र शाह लालसाल्हण नाइब उसके पुत्र दो - मालुराज और सोमदेवने १९६६ के चैत्र सुदी १३को विम्ब प्रतिष्ठा कराई। ये सब सदा प्रणाम करते है । यह मूर्त्ति भी मन्दिर नं० १ के चौकमं शिर जोड़ कर चिन दी गई है। बाकी सर्वाङ्ग सुन्दर । चिह्न शेर प्रतीत होता है | १|| फुटकी ऊँची पद्मासन है । पाषाण काला है । लेख नम्बर १८ कुट कान्वये पंडितस्रीलक्ष्मणदेवस्तस्य शिष्य श्रीमदार्यादेवः तथा आर्यिका ज्ञानस्त्री साहेलिकामामातिणी एतया जिनविम्बं प्रतिष्ठापितम् ॥ सं १२१३ । भावार्थ:- कुटकवंशमे पैदा होनेवाले पंडितश्री लक्ष्मणदेव उनके शिष्य श्रीमदार्यदेव तथा श्रर्यिका ज्ञानस्त्री-सहेल्लिका-मामातिणी इन्होने सं० १०१३ में fararast प्रतिष्ठा कराई। यह मूर्त्ति मन्दिर नं० १के बाहरी जीनाके बाई तरफ एक छोटी कुटी में विराजमान है। दोनों तरफ इन्द्र खड़े हैं। आसनके नीचे देत्रियाँ बैठी हैं। दाई तरफका आसन टूट जानेसे देवीकी मूर्ति भी टूट गई है । मूर्ति प्रायः अखण्डित है । सिर्फ घुटनोंपर तथा नासिका तथा दाढ़ीका हिस्सा छिल गया है। दाएँ हाथका अंगूठा तथा पासकी अंगुली टूट गई है। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] अहारक्षेत्रके प्राचीन मूर्ति-लेख [३८६ बायें हाथके उपरका हिस्सा छिल गया है। करीब उनके पुत्र चार-सोम. जनपाहुइ. लाखू. लाले इन्होने ६ फुटकी खड़गासन है। काला पाषाण है। चिह्न प्रतिविम्ब प्रतिष्ठा कराई। हिरणका है। लेख घिस गया है। इस लिये पूरा पढ़ा मूर्तिका शिर पूरा खण्डित है। करीब १।। फुटकी नहीं जाता। पद्मासन है । काले पाषाणकी बनी हुई है। चिह्न शक्ल लख नम्बर १६ का है। शिलालेख स्पष्ट दोग्यता है । मूर्तिकी पॉलिश __ सं० १२१६ माघमदी १३ शकदिने कुटकान्वये पंडित चमकदार है। स्त्रीमंगलदेव तस्य शिष्य भट्टारक पद्मदेव तत्पढ़ें ...... लेख नम्बर २१ ........ ................... ___ सं० १२२८ फागुनसुदी १० जैसवालान्वये साहु देन्द्र ... .. .... ...... ' " भ्रात ईल्ह सत बाल्ह सत कुल्हा वीकलोहट वाल्ह सुत भावार्थ:-कुटकवशोत्पन्न पंडित श्रीमंगलदेव आसवन प्रणमन्ति नित्यम् ॥ उनके शिष्य भट्रारक पद्मदेव उनकी पट्टावलीमें हुए भावार्थ:-जैसवाल वंशोत्पन्न माह देन्द्र उनके ने मं० १२१६ भाई ईल्ह उनके पुत्र वाल्ह उनके पुत्र कुल्हा वीकके माघ सुदी १३ शुक्रवार के दिन विम्ब प्रतिष्ठा कराई। लाहट वालू उनके पुत्र श्रासवन इन्होंने वि० सं० मृर्त्तिके दोनों तरफ इन्द्र खड़े हैं। मूर्ति घुटनाके १२२८ के फागुन सुदी १ को विम्ब-प्रतिष्ठा कराई। पामसे बिल्कुल टूट गई है। दोनो हिस्मे जोड़कर मृतिका शिर नहीं है। तथा दोनो हाथ भी नहीं मन्दिर नं.१ चबूतरेपर लिटा दी गई है। चिह्न है। सिर्फ घरमय आसनके रूपमे उपलब्ध है। चिह्न वगैरह कुछ नहीं है। दो व्यक्तियोने मिलकर प्रतिष्ठा वगैरह कुछ नहीं है लेख स्पष्ट है। करीब सा फुटकी कगई है मा लेग्वम विदित होता है। इसी दिन पद्मामन है । काला पाषाण है। पॉलिश चमकदार है। इसी अवगाहनाकी ३ मूर्तियों और भा उक्त दानो लग्ब नम्बर. व्यक्तियोंने प्रतिष्ठिन कराई है। करीब ६ फुटकी बड़- सं० १२३७ म १ शक गोलापूर्वान्वये साहु गायन है। पापाण काला है। यशार्ह पुत्र ऊदे तथा वील्हण एते श्रीनेमिनाथं नित्यं लेग्य नम्बर २० प्रणमन्ति । मंगलं महाश्री ॥ सं० १२०३ माघसदी १३ जैसवालान्वये साह खोने भावाथः-गोलापूव-वंशात्पन्न शाह यशाह उनके भार्या यशकरी मत नायक साहपाल-वील्हे माल्हा परमे पुत्र ऊदे तथा वील्हण ये श्रानेमिनाथको मं० १२३के महीपति सुत श्रीरा प्रणमन्ति नित्यम् । अगहनमुद्री ३ शुक्रवारको प्रतिष्ठा कराकर नित्य सं० १२०३ माघसदी १३ जैसवालान्वये साह बाहड प्रणाम करते है। भार्या शिवदवि सुतसाम जनपाहुड लाग्वू लोले प्रणमन्ति मृतिका शिर और दोनों हाथ नहीं हैं। मिर्फ नित्यम् ॥ धड और श्रासन विद्यमान है। आमनपर लेग्बके ___ भावार्थ:-जैसवालवंशात्पन्न शाह ग्वाने उनकी अनिरिक्त कुछ नहीं है । चिह्न बैलका है। करीब डेड धर्मपत्नी यशकरी उनके पुत्र नायक माहुपाल्ह वील्हे- फट ऊँची पद्मामन है। पापा काला है। माल्हा-परमे-महीपति ये पॉच तथा महीपतिके पुत्र लेग्व नम्बर ०३ श्रीराने सं० १२०३ माघ सुदी १३ का विम्ब-प्रतिष्ठा संवत् १२१४ फागुन वदी ४ सोमे अवधपरान्वये कराई। ठक्कर श्रीनान सुत ठक्कर नीनेकस्य भार्या पाल्हणि नित्यं सं० १२०३ माघ सुदी १३ को जैमवालवंशमे प्रणमन्ति कर्मक्षयाय । पैदा होनेवालं. शाह वाहह उनकी धर्मपत्नी शिवदेवि भावार्थ:-अवधपुरिया वंशात्पन्न ठक्कुर नान्न Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] उनके पुत्र ठक्कुर नीनेक उनकी धर्मपत्नी पाल्हणिने सं० १२१४ के फागुन वदी ४ सोमवारको प्रतिष्ठा कराई । कर्मोंके क्षयके लिये प्रतिदिन नमस्कार करते हैं अनेकान्त मूर्त्तिका शिर नहीं है। बाकी तमाम श्रङ्गोपाङ्ग विद्यमान है । चिह्न शेरका है। हथेली कुछ छिल गई है । करीब १|| फुट ऊँची पद्मासन है । पाषाण काला है । लेख नम्बर २४ संवत् १२०० अषाड़ वदी ४ शक जैसवालान्वये नायक श्रीसाहुकसस प्रतिमा गोठिता । भावार्थ:--- जैसवालवंशोत्पन्न नायक श्रीसाहु कसम सम्बत् १२०० के अपाढ़ वदी ४ शुक्रवारको प्रतिमा प्रतिष्ठा कराई | मूर्त्तिका शिर और दोनो हाथोंके पहुँचे नहीं हैं। वाकी हिस्सा ज्योंका त्यों उपलब्ध है। चिह्न शेरका है। करीब १।। फुट ऊँची पद्मासन है । पाषाण काला है । लेख नम्बर २५ संवत् १२१३ गालापूर्वान्वये साहु साल्ह भार्या सलषा तयोः सुत पोखन एते प्रणमन्ति नित्यम् । श्राषाडसुदी २ । भावार्थ:- गोला पूर्व वंशोत्पन्न शाह साल्ह उसकी धर्मपत्नी सलपा इन दोनोंके पुत्र पांखन इन्होंने सवत १२१३ अषाढ़ सुदी २को प्रतिविम्ब पधराई । ये नित्य प्रणाम करते है । 1 मूर्तिका शिर और दोनों हाथो के अतिरिक्त बाकी धड़ उपलब्ध है। चिह्नकी जगह अष्टदल कमल करीब १|| फुट ऊँची पद्मासन है । पाषाण काला है। लेख नम्बर २६ [ बर्ष तथा जैसवाल वंशोत्पन्न बाहड़ उनकी धर्मपत्नी सिवदे उनकी पुत्री -सावनी- मालती पदमा - मदनाने उक्त सम्वन्में उक्त महात्माओं के श्रादेशसे अपने द्रव्यका सदुपयोग किया । मूर्त्तिके आसन के अतिरिक्त शिर और धड़ कुछ भी नहीं है । सनसे पता चलता है कि प्रतिविम्ब मनोज्ञ थी । चिह्न शेरका है। करीब २ फुट ऊंची पद्मासन है । पाषाण काला है | संवत् १२९६ फागुन वदी सोमदिने सिद्धान्तश्री सागरसेन श्रर्यिका जयश्री रिषिणी रतनरिषि प्रणमन्ति नित्यम् | जैसवालान्वये साहु बाडभार्या व पुत्री सावनी मालती पदमा मदना प्रणमन्ति नित्यम् । भावाथ:-संवत १२१६ के फागुन वदी सोम'को सिद्धान्तश्री सागरसेन तथा आर्यिका जयश्री और श्री रतनऋषिने वस्त्र - प्रतिष्ठा कराई। लेख नम्बर २७ सम्वत् २०१० मइतिबालान्वये साहु श्रीसेटो भार्या महिव तयोः पुत्राः श्रील्हा श्रीबर्द्धमान माल्हा, एते श्र ेयसे प्रणमन्ति नित्यम् । वैशाख सुदी १३ । भावार्थ:-- वि० सं० २०१० के वैशाख सुदी १३को मडितवालवंशोत्पन्न शाह सेठा उनकी धर्मपत्नी महिव उनके पुत्र श्रील्हा - श्रोवर्द्धमान मालहा ये सब पुण्य वृद्धिके लिये प्रतिदिन प्रणाम करते हैं । मूर्त्तिका शिर र दोनो हाथोंकी हथेली नहीं है। बाकी तमाम हिस्सा उपलब्ध है । चिह्न सेहीका प्रतीत होता है। करीब १|| फुट ऊँची पद्मासन | पाषाण काला है। पालिश चमकदार हैं। लेख नम्बर २८ सम्वत् १००० चैत्रसुदी १२ लमेचुकान्वये साहु भाने भार्या पद्मा सुत हरसेन, नायक कदलसिंह, देवपाल्ह एते प्रणमन्ति नित्यम् । भावाथः - वि० सं० १२०० के चैतमुदी १२को इस प्रतिविम्बकी प्रतिष्ठा हुई । लमचूवंशोत्पन्न शाहभाने उनकी पत्नी पद्मा. उनके पुत्र हरसेन. नायक दलसिंह देवपाल्ह ये प्रतिदिन प्रणाम करते हैं । मूर्त्तिका शिर तथा बायाँ हाथ नहीं है। आसपर दोनों हथेली नहीं है । चिह्न वगैरह कुछ नहीं । करीब १।। फुट ऊंचा पद्मासन है । पाषाण काला है । लेख नम्बर २६ संवत् १२०० अषाड़वदी ८ जैसवालान्वये साहु खोने भार्या जाउह सत साढू तथा पाल्ह वील्हा-श्राल्हेपदमा यसे प्रणमन्ति । ( क्रमशः Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहानी SHOOR ROO (लेखक -श्रीबालचन्द्र जैन एम० ए० साहित्यशास्त्री) शेगीके सिरहाने बैठी नर्स उसे एकटक देख रही देकर लोग समझ लेते हैं हम नर्सको रोटी देते हैं। ।। थी। 'कितनी शान्ति और सौम्यता है इसके पर तुम जो रातदिन अपनी सुध भूलकर. उन्हें ८ चेहरेपर. किन्तु हाय रे भाग्य । एसा भोला और • जीवनदान देती हो, इसे क्या ये दुनियावाले कभी सरल व्यक्ति भी मानसिक वेदनाओंका शिकार हो समझ पाते हैं. १ नहीं। दूसरोके श्रमको नही समझ गया। उसे सहानुभूति थी रागीसे। मकले ये दुनियावाले और वे समझालेकी कोशिश भी रोगीकी नींद टूटी। मुझे कोई नहीं रोक मकता' तो नहीं करते नर्स !"-रोगीने गहरी साँस ली। -वह बबडाया-दुनियाकी काई शक्ति मुझ रोक दुमरोकी इज्जत, विद्या, बुद्धि और सेवाको तराजूपर नहीं सकती. मैं जाऊँगा दर. इम पापभरी दुनियामे तौलनेवालांकी सेवा तुम क्यो करती हो नर्स!" रोगी बहुन दूर. जहाँ मनुष्यका निशान भी न होगा. उसके उद्विग्न हा रहा था-"उन्हे तड़प-तड़पकर मर क्यों पापोकी छाया भी न होगी. मै जाऊंगा रोगीने नहीं जाने देती, अपने कर्माका फल क्यो नही भोगने उठनेकी चेष्टा की। देता" रागीकी सदय आँखें नसकी आँखोंसे मिल गई। ____“ईश्वरके लिए लेटे रहिए" नर्मने महारा देकर नस चुप थी। उसे पुनः लिटाना चाहा। ___ बोला. बोलो सेवार्का देवी, दुनियाभरके पापियो"ईश्वर ईश्वरका नाम लेनेवाली तुम कौन" का मृत्युशय्यासे जगाकर उनमें जीवनी शक्ति भरकर रोगाने कठोर प्रश्न किया। दुनियाके पापोकी संख्या क्यों बढ़ाती हो" कहनेक 'जी मैं नर्म' नर्मने मृदु उत्तर दिया। साथ ही रोगीने झटकेसे करवट बदली। "तुम यहाँ क्या करने आई " रोगीने फिर पूछा। “जिलाना और मारना तो ईश्वरके हाथकी बात "आपकी मेवा" नर्सका जबाब था। है चन्द्रबाबू . हम तो अपना कर्तव्य करते हैं" नर्सने "सेवा हा-हा-हा!" रोगी ठहाका मारकर हँसा धीरसे कहा। -'तुम सेवा करती हो, दसरांकी सेवा कितना इंश्वर'-चन्द्रका जैसे तीर लगा-"तमने फिर सुन्दर शब्द है सेवा" रोगीने पागलकी हसी-हॅमी। ईश्वरका नाम लिया"-वह तड़प उठा- 'जानती जी. दमरोकी सेवा करना ही हमारा धर्म है. नहीं. मैं ईश्वरका दुश्मन है। ईश्वर । टनियाभर नर्सका यही कर्तव्य है" नर्म डरत-डरते बोली। ठगोंका मरदार" उमने मुंह फेर लिया। तुम इसे धर्म मानती हो नर्म । लेकिन कभी "ऐसा न कहिए। उस दयालु परमात्माको बुरातुमने अपनी भी सेवा की दुनियाने कभी तुम्हारी भला कहकर पापके भागी न बनिए ।" नर्सने सेवाओका मूल्य चुकाया ? थाड़ेसे चॉदीके टुकड़े अनुरोध किया। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ "तुम उसे दयालु कहती हो, परमात्मा कहती हो, था-डाकर आपको यहाँ ले आए और कल रातभर जिमने थैली-पतियोंको गरीबोंका शोषण करनेका आपकी सेवामें लगे रहे । अब हालत कुछ ठीक बल दिया, गरीबोंके मौलिक अविकारोंकी माँगको देखकर सबेरे ही घर गए हैं और जाते समय मुझे अनैतिक और विद्रोह बताकर उन्हें चिर गुलामीमें आपकी पूरी फिकर करनेकी आशा दे गए हैं" नर्सने बाँध दिया, जिसने दुनियाभरके अत्याचारों और सरलतासे यह बात कह दी. जिसे डाकर किशोर अनाचारोंको धार्मिक प्रश्रय दिया, उसे तुम दयालु छिपाना चाहता था। परमात्मा कहती हो नस ! पत्थरके भगवानको दयाका "तो यों कहो कि मुझे इस घणित दनियामें फिरसे अवतार कहते तुम्हें अपनेपर हँसी नहीं पाती देवी” खींच लानेवाला डाकृर किशोर ही है । नीच ! -चन्द्र खीझ रहा था-'भोली नारी सबको अपने धोखेबाज मेग सर्वस्व छीनकर अब मेरी स्वतन्त्रता जैसा ही समझती है। उसने करवट बदली। भी छीनना चाहता है। मेरे जीवनभरकी मित्रताकी नर्सने कोई उत्तर न दिया। कमरा नीरव हो गया. कोई कदर न करनेवाला पापी है कहाँ ?" चन्द्रकी दोनो चुप थे। ऑखें लाल हो गई ____ "आपके दवा पीनेका समय हो गया, मैं अभी “वे घर गए हैं चन्द्रवाबू . आप शान्त हो जाइप" लाई" नर्सने नीरवता भङ्ग की। नर्सने मीठे अनुनय भरे स्वरमें प्रार्थना की। "दवा ! क्यों ? मुझे हुआ क्या जो दवा पिलाती "ठीक, अच्छा ही हुआ कि वह यहाँ नहीं है। मैं हो।" रोगीने आँखें खोली। उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहता. मुझे उससे __जी. आप अस्वस्थ हैं, आपको दवा पीनी ही नफरत है. उसकी सूरतसे नफरत है, उसके पेशेसे चाहिए, मैं अभी लाई” नर्स दवा बनानेको चल दी। नफरत है । मैं जाऊँगा, अभी जाऊँगा” चन्द्रने उठने "नर्स ठहरो । मैं पूर्ण स्वस्थ हूं मुझे दवाकी की चेष्टा की। आवश्यकता नहीं" रोगीने निषेध किया। ___ "नहीं-नहीं, लेटे रहिए चन्द्रबाबू" नर्सने कंधे ___ "नहीं, आपको दवा पीनी ही चाहिए चन्द्रबाबू, पकडकर उसे फिर लेटानेकी चेष्टा की। पर इस बार आपका स्वास्थ्य अभी ठीक नहीं हुश्रा ।” नर्सने वह रोगीको मनानेमे असफल रही। चन्द्र उठ खड़ा अनुनय की। हुश्रा और वेगसे दरवाजकी ओर बढ़ा। किसने कहा तुमसे कि मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं ___"मान लीजिए चन्द्रबाबू . मत जाइए आपका है" चन्द्रने मधुर हँसी हॅमी। स्वास्थ्य ठीक नहीं है, डाकृरके सार प्रयत्नोपर पानी _ "डाकृरने, वे आपको मेरी निगरानीमें छोड़ गए फेरकर अपने जीवनका खतरमे न डालए।” नसकी हैं । मुझे अपनी ड्यूटी करने दीजिए अन्यथा डाकृर ऑखे डबडबा पाई। नाराज होगे।" नर्सने सरल प्रार्थना की। "मै यहाँ क्षणभर भी नहीं ठहर सकता देवी, ___ "डाकर' चन्द्रने विस्मयसे ऑखें फाड़ी-"कौन अपनी बहिनका खून करनेवाले दुष्ट डाकृरकी सूरत मैं डाकर 7 उसने प्रश्न किया। नहीं देख सकता । मैं चला, अपनी बहिनके पास__ "डाकृर किशोर" नर्सने उत्तर दिया। देखो देखो वह मुझे बुला रही है"-चन्द्र वेगसे • “डाकर किशार ! तो क्या मैं डाकृर किशारक अस्पतालसे बाहर हो गया। अस्पतालमें हूं" रोगीकी जिज्ञासा बढ़ी। नर्स रोकती रह गई। "जी हाँ, आप उन्हीके अस्पतालमें है। और वही आपका इलाज भी कर रहे हैं। आप अपने डाकृरने जब कमरमें प्रवेश किया तो रोगीके कमरेमें बेहोश पड़े थे-शायद आपने जहर खा लिया पलङ्गको खाली पाया और नर्सको एक कोनेमें खड़े Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०] [ ३६३ आँसू बहाते देखा। ही जानता था कि वह डाकृर किशोरकी सूरत भी नहीं "नर्स, चन्द्र कहाँ है ?” उसके स्वरमें तीव्रता थी। देखना चाहता। विक्षिप्त मस्तिष्क और कमजोर शरीर "जी, वह चले गए" नर्सने लड़खड़ाते स्वरमें आखिर टकरा गया सामनेसे आनेवाली मोटर कारसे। उत्तर दिया। ड्राईवरके बहुत बचानेपर भी दुर्घटना हो ही गई और ___कहाँ ?" डाकृरके स्वरमें भयानक आशङ्काजन्य चन्द्र भूमिपर गिर पड़ा। उसका सिर फट गया। कम्पन था। भीड़ एकत्र हो गई । डाकृर किशोरका अस्पताल ___अनजानी जगह । मैंने उन्हें बहुत रोका पर वे दूर न था। तत्परतासे उसे वहाँ ले जाया गया, जहाँ मके नहीं," नर्सने काँपते हुए. जबाब दिया--"आपका से कुछ समय पूर्व भागनेके कारण ही यह दुर्घटना अस्पताल जानकर वे एकक्षण भी नहीं रुके" उसने हुई थी। आगे कहा। _ "चन्द्र !" अकृर किशोरकी आँग्वोंमें ऑसू भर तो वही हुआ जिसका मुझे भय था । तुमने आय उसकी यह हालत देखकर। उसे बता ही दिया कि मैं उसका इलाज कर रहा हूं। "तूने यह क्या किया चन्द्र !" डाकृरके इस प्रभ वह मुझे अपनी बहिनका हत्यारा समझता है नर्स ! का उत्तर देता कौन ? दुर्घटनाके बाद ही चन्द्र बेहोश मेरी सुरतसे नफरत करता है वह । पर मैं क्या करता, होगया था। उसका सारा शरीर रक्तमें सन गया था। मैं किसीकी आयुसे तो लड़ नहीं सकता। मैंने लाख "नर्स ! ऑपरेशनकी तैयारी कगे. चन्द्र वापस प्रयत्न किए पर क्षमाको कालके गालसे न निकाल आगया।" किशोरने भर्गये स्वरमे कहा। सका। मैंने उसे जो झूठा आश्वासन दिया था कि जी डाकर !" आँसू पोंछती नर्स ऑपरेशन क्षमा अच्छी हो जायगी, वह सिर्फ उसकी रक्षाके थिएटरकी ओर चल दी। लिये । क्योकि मैं जानता था कि क्षमा ही उसके जीवनका महारा है और उसके जीवनका अन्त चन्द चन्द्रने आँख खाली। के जीवनका भी अन्त है। इसलिये बहिनको मृत्यु _ "अब आप अच्छे हैं ?" नर्सने उसके सिरपर निश्चित जानते हुए भी मैं उससे छिपाये रहा और हाथ फेरते धीरसे कहा। उसने मेरे कश्चनपर विश्वास किया। पर उस अँधरी "मैं, मैं अच्छा हूँ ! मैं कहाँ हूँ. तुम कौन हो?" रातमें जब दीपक बुझ ही गया तो मैं चन्द्रकी नज़रोमें चन्द्र समझ न पारहा था कि वह कहाँ है? धाखेबाज़ बन गया। उसने धारणा बना ली है कि मैं "आप अस्पतालमें है चन्द्र भइया !" नर्सको ही क्षमाका हत्यारा हूँ. मैं उसे बचा सकता था पर चन्द्रसे भाई जैसा स्नेह होगया था। मोटर दुर्घटनामें मैने उसे बचाया नहीं। मेरा मित्र मुझसे नफरत करने पड़ जानेसे आपके दिमागको चोट पहुँची थी. लेकिन लगा। दया और ममताकी देवीके उठनेके साथ ही अ अब सब ठीक है, ऑपरेशन सफल हुआ। डाकृर सारी दुनिया उसके लिये दया और ममतासे शून्य अभी आते ही होंगे । आप उनसे मिलेंगे चन्द्र हो गई-वह पागल हो गया। चन्द्र-मेरा चन्द्र भइया !" नर्स अभी भी उसके सिरपर हाथ फेर रही थी। उसे वापस लाना होगा नर्स, उसे वापस लाना ____ "भइया. तुमने मुझे भइया कहा । पर तुम तो होगा ।" डाकृर विह्वल हो उठा। “मैं आदमी भेजती हूँ।" नर्स बाहर हो गई। क्षमा नहीं हो। वह तो चली गई मुझे छोड़कर।" २ चन्द्रने आँखें फाड़कर नर्सको देखा। चन्द्र अस्पतालसे भागा तो, पर उसे कुछ भी हॉ, मैं क्षमा नहीं, पर क्षमाकी भाँति ही मैं ज्ञान न था कि वह कहाँ जारहा है। वह सिर्फ इतना आपकी सेवा कर सकती हूँ। मुझे दे दीजिये क्षमाका Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] अनेकान्त [वर्ष किया । पवित्र स्थान चन्द्र भइया !" नर्सने आँसू भरकर किया । कहा-"श्राप मुझे 'भइया' कहनेका अधिकार दे "मैंने कहा न था चन्द्र, कि बहिनको तुमसे अलग दीजिये ।" न होने दूंगा!" किशोरकी ऑखें गीली हो गई। "तुम कहोगी मुझे भइया ? मेरी बहिन बनोगी, “हाँ किशोर !" चन्द्रने आँखें बन्द कर ली। मुझे जीवनका दान दोगी ? मेरे निरुत्साह और 'अब तुम आराम करो, मैं जाता हूँ। फिर निराश जीवनमें उत्साह और आशाकी ज्योति प्रदीप्त आऊँगा । पर अब भागना नहीं और न अपने किशोर करोगी देवी" चन्द्रने नर्समें वही देवीरूप देखा। से नफरत ही करना ।" किशोरने व्यङ्ग किया। ___ हाँ भइया !" नर्सकी आँखोंसे झर-झर आँसू "मुझे क्षमा कर दो किशोर !” चन्द्रने पश्चात्ताप बह पड़े। "तो आओ, मेरे गलेसे लग जाओ बहिन ! तुम "अच्छा यह सब पीछेकी बात है, हम निपट सचमुच मेरी बहिन हो, क्षमा जैसी ही ममतामयी हो लेंगे। अभी मुझे कई आवश्यक कार्य है, मै जाता तुम ! क्षमा, मैंने तुम्हें पा लिया !” चन्द्रने नर्सका हूँ।" किशोर चल दिया। दरवाजेतक पहुँचकर वह छातीसे लगाने के लिये हाथ पसार दिये। एक क्षण सका। भाई और बहिनके सम्मिलनका दृश्य सचमुच "अपने भाईको भागने मत देना नर्स!” वह अपूर्व था। दोनोंकी आँखोंसे अश्रुधारा बह रही थी। मुस्कराया। डाकर किशोरने इसी समय कमरेमें प्रवेश किया। “जी, आप विश्वस्त रहें. भइया अब नहीं ___"किशोर, डाकृर किशोर ! मेरी बहिन भा गई, भागेंगे।" मुस्कराहटके साथ नर्सने चन्द्र को देखा। क्षमा आ गई किशोर " चन्द्रने किशोरका स्वागत "हाँ, अब मैं नहीं भागूंगा।" चन्द्र भी मुस्कराया। अपभ्रंशका एक शृङ्गार-वीर काव्य वीरकृत जंबूस्वामिचरित (लेखक-श्रीरामसिंह तोमर) विक्रम संवत् १०७६में वीर कवि-द्वारा निर्मित पारंभिय पच्छिमकेवलहिं जिहं कह जंबूसामिहि ॥ जम्बूस्वामिचरित अपभ्रंशकी एक महत्वपूर्ण रचना इसी भूनिका-प्रसङ्ग में आगे कविने रस. काव्यार्थ है। प्रस्तुक कृतिके ऐतिहासिक पक्षसे सम्बन्धित एक के उल्लेख किये हैं और स्वम्भू, त्रिभुवन जैसे कवियों सुन्दर लेख प्रेमी-अमिनन्दन-प्रन्थमें श्री पं. परमानन्द तथा रामायण और सेतुबन्ध जैसी विख्यात कृतियोंजी जैनने लिखा है। यहाँ कृतिके साहित्यिक पक्षपर का स्मरण किया हैविचार किया जावेगा। कविने अपनी कृतिको सन्धियोंके सुइ सुहयरु पढइ फुरंतु मणे । अन्तमें 'शृङ्गार-वीर-महाकाव्य' कहा है किन्तु कृतिकी कव्वत्थु निवेसइ पियवयणे । प्रारम्भिक भूमिकामें उसने कथा कहनेकी प्रतिज्ञा की है रसभावहि रंजिय विउसयणु । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] अपभ्रंशका एक शृङ्गार-वीर काव्य [ ३९५ सो मुयवि सयंभु अण्णु कवणु । मगध मण्डलमें वर्धमान प्राम था, जहाँ वेदघोष सो वेय-गव्वु जइ नउ करइ । करनेवाले, यज्ञमें पशुओंकी बलि देनेवाले, सोमपान तहो कज्जे पवणु तिहुयणधरइ । करनेवाले, परस्पर कटुवचन बोलनेवाले अनेक ब्राह्मण रहते थे । उस प्राममें अत्यन्त गुणवान महकइ वि निबद्धउ न कव्वभेउ । ब्राह्मण-दम्पति श्रुतकण्ठ-सोमशर्मा. रहते थे। उनके रामायणम्मि पर सुणिउ सेउ । १-२-३ दो पुत्र भवदत्त और भवदेव थे। जब उन दोनोंकी कृतिके प्रारम्भमें इस प्रकारके उल्लेख बिना प्रयो- आयु क्रमशः १८. १० वर्ष थी, अतकण्ठ चिरजन्मोंमें जनके नहीं हो सकते हैं। प्रस्तुत कृति 'कथा' है अर्जित पाप कर्मोंके फलस्वरूप कुष्ठ रोगसे पीड़ित अथवा शृङ्गार-वीररस प्रधान महाकाव्य इसकी हुआ और जीवनसे निराश होकर चिता बनाकर परीक्षा करनेके पूर्व कृतिकी कथावस्तु संक्षेपमें देखना अग्निमें जल गया। प्रियविरहसे सोमशर्मा भी अग्निमें आवश्यक है। में जल मरी। शोक संतप्त दोनों भाइयोंको स्वजनोंने मङ्गलाचरण तथा कथानिर्दशके अनन्तर कविने शान्त किया। उन्होंने अपने माता-पिताकेसंस्कार किये। सजन-दुर्जनों, पूर्वके कवियों आदिका स्मरण किया है. भवदत्तका मन संसारमें नहीं रमता था अतः वह और नम्रतापूर्वक काव्य रचनामें अपनी असमर्थता दीक्षा लेकर शुद्ध चरित्र दिगम्बर होगयाप्रकट की है। फिर कविने अपना और अपने सहायकोका उल्लेख किया है। इस छोटीसी प्रस्तावनाके दसणु स लहंतउ विसयचयंतउ सुद्धचरित्त दियबरु । अनन्तर कविने मगधदेश, और उसमें स्थित राज- गुरु वयण सवरण रइ दिढमइ विहरह कम्मासयक्यसंवरु ।। ९ -७ ॥ गृहनगर उसके निवासियोंके सुन्दर काव्यशैलीमें उवयार बुद्धि समणीय परहो, तो हुय भवयत्त दियंबरहो । वर्णन उपस्थित किये हैं। वहाँके श्रेणिक राजा तथा उनकी रानियोंका वर्णन किया है। नगरके समीपस्थ उपवनमें भगवान वद्ध मानके समवसरण रचे जानेका इस प्रकार बारह वर्षतक तपस्या करनेके पश्चात् समाचार पाकर पुरजनों सहित मगधेश्वर इन्द्र द्वारा भवदत्त एक बार संघके साथ अपने ग्रामके समीप निर्मित समवसरण-मण्डपमें पहुँचकर जिन भगवान- पहुँचा । संघकी आज्ञासे वह भवदेवको संघमें दीक्षित की स्तुति करके बैठते हैं। (सन्धि १) करनेके लिये वर्धमान प्राममें गया । इस समय प्रणाम करके विनय भावसे श्रेणिकराज जिनवर- भवदेवका दुर्मर्षण और नागदेवीकी पुत्री मागवसूसे से जीवतत्त्वके सम्बन्धमें जिज्ञासा करता है। गणधर परिणय होरहा था । भाईके आगमनका समाचार राजासे जीवके सम्बन्धमें व्याख्या कर रहे थे उसी सुनकर वह उससे मिलने आया और स्नेहपूर्ण मिलन समय आकाश मार्गसे तेजपुञ्ज विद्युन्माली भासुर के पश्चात् उसे भोजनके लिये घरमें लेजाना चाहता आया। और विमानसे उतरकर जिनदेवको प्रणाम था। भवदेवको इसके अनन्तर भवदत्त अपने संघमें करके बैठ गया। तेजवानदेवके सम्बन्धमें राजाके लेगया और वहाँ मुनिवरने उससे तपश्चर्याव्रत लेनेको पूछनेपर गणधरने बताया कि वह (विद्युन्माली) कहा । भवदेवको इधर शेष विवाह-कार्य सम्पन्न करके अन्तिम केवली होगा। अभी उसकी आयुके केवल विषय-सुखोंका आकर्षण था, किन्तु भाईकी इच्छाका सात दिन है किन्तु उसे अभी तेजने नही छोड़ा। अपमान करनेका साहस उसे नहीं हुआ और प्रव्रज्या राजाने उस देवके ऐश्वर्यसे प्रभावित होकर उसके पूर्व (दीक्षा) लेकर वह देश-विदेशोंमें संघके साथ बारह जन्मोंकी कथा सुननेकी इच्छा प्रकट की। जिनदेवने वर्षतक भ्रमता रहा । एक दिन अपने मामके पाससे उसकी कथाको इस प्रकार प्रारम्भ किया निकला । भवदेव घर जाकर विषयोंके सुखोंका Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ - आस्वादन करना चाहता था, किन्तु भवदत्तने फिर और सातवें दिन मनुष्यरूपमें अवतरित होगा । उसे रोक दिया । भवदेव अन्तमें संसारको त्यागकर श्रेणिकराजने वर्धमान जिनसे फिर. विद्युन्माली जिन अन्तिम दीक्षा ले लेता है। दोनों भाई तप करते हुए चार देवियोके साथ रमण करता था, उनके पूर्व अवसान-समयमें पंडितमरणसे मरते हैं. दोनों सनत्कु- भवान्तरोके विषयमें पूछा। जिनवरने बताया कि चंपा मार स्वर्गमें जाते हैं और वहाँ सप्तसागर आयु तक नगरीमें सूरसेन नामक धन-सम्पन्न श्रेष्ठी था. उसकी वास करते हैं, देवयोनिमें रहकर वे विमानोंमें चढ़कर जयभद्रा, सुभद्रा. धारिणी. यशोमती नामक चार रमण करते हैं । (सन्धि २) स्त्रियाँ थीं। वह श्रेष्ठी पूर्वसंचित पापकर्मोके फलस्वरूप ___ भवदत्तका जन्म स्वर्गसे च्युत होनेपर पंडरोकिनी व्याधिग्रस्त होकर मर गया और उसकी चाराँ पत्नियाँ नगरीमें वनदन्त राजाकी रानी यशोधनाके पत्रके रूप आजिका होगई । तपःसाधन करनेके पश्चात मरकर में हुआ और भवदेव वीतशोका नगरीके राजा वे स्वर्गमें विद्युन्मालीकी पत्नियाँ हुई। इसके पश्चात महापद्मकी रानी वनमालाके पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ। श्रेणिकराजने विद्युञ्चरके विषयमें पूछा कि इतना भवदत्तका नाम सागरचन्द रक्खा गया और भवदेव तेजवान होनेपर भी वह चोरत्वको क्यों प्राप्त हुआ ? का शिवकुमार। शिवकुमारका एकसौपाँच (सयपंच) जिनवरने बताया कि मगधदेशमें हस्तिनापुर नगर था. राजकन्याओंसे परिणय होगया और कोड़ियों उनके वहाँ विसन्धर राजा था, उमकी प्रिया श्रीसेना थी, अङ्गरक्षक थे। उन्हें बाहर नहीं जाने दिया जाना था। उसका पुत्र विद्युञ्चर हुआ। वह सकल विद्याओं में उधर पुंडरीकिनी नगरीके समीप उपवनमें चारण पारङ्गत था । विद्याबलसे वह चोरी करता था। मुनियोंसे पूर्व जन्मका वृत्तान्त सुनकर सागरचन्दने औषधिसे ग्वम्भ बनाकर रत्रिको अपने पिताके घरमें संन्यास (साधुदीक्षा) व्रत ले लिया था और द्वादश- पहुँचकर चोरी कर लेता था, जगते हुए राजाको सुपुप्त विधि तपश्चर्या में रत था। एक बार वह वीतशोका। कर देता था और कटि-हार आदि आभूषण उतार नगरीमें पहुँचा । शिवकुमारने प्रासादोके ऊपरसे लेता था, वह राज्य छोडकर राजगृह नगरी चला गया मुनियोंको देखा । उसे पूर्व जन्मोंका स्मरण हो आया और चारा करने लगा। इसीसे उसका नाम विद्यञ्चर और वैराग्य-भावोंका उसके मनमें उदय हुआ । यह हुश्रा (सन्धि ३)। देखकर राजप्रासादमें कोलाहल मच गया। राजाने चतुर्थ सन्धि वीरकविकी प्रशंसासे प्रारम्भ होती आकर कुमारको समझाया कि घरमे ही रहकर तप है। वर्धमान जिस समय कथा प्रारम्भ कर रहे थे कि और व्रतोंका पालन हो सकता है, संन्यास लेनेकी एक यक्ष उठकर नाचने लगा। पश्चिम केवली मगधमें आवश्यकता नहीं है । पिताके वचनोंको मानकर अरहदास वणिकके कुलमें जन्म होनेकी बात सुनकर कुमारने नवविध श्रेष्ठ ब्रह्मचर्यव्रत धारण किया, वह आनन्दित होकर नाच रहा था। विस्मित होकर तरुणीजनोके पास रहते हुए भी उनसे वह विरक्त राजाने आनन्दसे नाचते हुए यक्षसे प्रश्न किया। रहता था। उपवास करता था। दूसरे घरोसे भिक्षा जिनेन्द्रने इस प्रकार उत्तर दिया-सइत्तउ नगरी थी लेकर पारणा करता था। इस प्रकार तप करके अन्तमें वहाँ सन्तप्रिय (संताप्पिउ) वणिक रहता था। उसकी इस लोकको छोड़कर वह विद्युन्माली देव हुश्रा। गोत्रवती प्रिया थी अरहदास उसका पुत्र था, दूसरा दससागर उसकी आयु हुई और चार देवियोंके साथ पुत्र जिनदास था। जिनदास तरुण अवस्थामे दुर्व्यसुख भोग करता था। उधर सागरचन्द भी मरकर सनोंमें फंस गया। मदिरा पीता था, इतक्रीड़ामें रत सुरलोकमें इन्द्र के समान देव हुआ । वर्धमान जिनने रहता था । किन्तु उसने अन्तमें श्रावक व्रत लेकर राजाको बताया कि यही विद्युन्माली वहाँ आया था पाप विमर्जित किए और वह मरकर यक्ष हुआ इसके Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] अपभ्रंशका एक शृङ्गार-वीर काव्य [३९७ भाई अरहदासके यहाँ विद्युन्मालीका अन्तिम केवली- वहाँ जाकर कन्याके साथ परिणय करनेकी प्रार्थना के रूपमें जन्म होगा यह सुनकर हर्षित होकर यह करता है । जम्बू अकेले जाकर विद्याधरसे युद्ध करते नाच रहा है। सातवी रात्रिके चतुर्थ प्रहरमें अरहदाम हैं। मृगाङ्कराजा कन्या जम्बूस्वामीको समर्पित कर देता की प्रियाने जम्बूफल आदि वस्तुएँ स्वनमें देखीं । स्वप्नों है । पीछेसे श्रेणिकराजकी सेना भी देशान्तरोंमें का फल बताते हुए मुनि कहते है कि उमके एक पुत्र भ्रमण करती हुई पहुँच जाती है। रत्नशेवर(-सिंहहोगा जो सोलह बरस रहकर दीक्षा लेगा। समया- चूल) विद्याधरकी हार होगी मा प्रनीत होने लगता नुकूल जम्बू जन्म लेते हैं और शीघ्र विद्याध्ययन है (मन्धि ५)। समाप्त करते हैं। जम्बूफल स्वप्नमें उनकी माताने देखा . छठी मन्धिका प्रारम्भ कुछ प्राकृत पद्योंमें की गई था इसलिये उनका नाम जम्बूस्वामी रखा गया। कविवीरकी कवि-प्रतिभाकी प्रशसासे होता है। उस जम्बृस्वामी अत्यन्त सुन्दर थे नगरकी रमणियाँ उन्हें सम्पूर्ण मन्धिमे जम्बूस्वामीके युद्ध कौशलका वर्णन देखकर आसक्त होजाती थीं और विरहका अनुभव किया गया है। अन्तमे रत्रशेखरका मृगाङ्कराजा पराकरने लगती थी। ___जित कर देता है और जम्बू सहस्रो भटोको परास्त उसी नगरमें समुद्रदत्त श्रेष्ठ रहता था. उसके कर देत है । युद्धका वर्णन बड़ी क्षमतापूर्वक कविने चार सुन्दर पुत्रियाँ थीं. समुद्रदत्तने उन कुमारियांका किया है । युद्धके प्रसङ्ग में श्रद्धत, बीभत्म व्यापारीका विवाह जम्चस्वामीसे करना निश्चित किया। विवाहकी चित्रण करत हुए कविने माङ्गोपाङ्ग युद्ध वर्णन किया तैयारियों हो रहीं थी इतने में ही वसन्त ऋतु आ है। आठ सहस्र विद्याधगंका उसने परास्त कर दिया। पहुंची, सब लोग वमन्नात्मवके लिए राजाद्यानमे अन्तम पराजित रत्नसिहको वह क्षमा कर देता है। जात। क्रीम्याक उपरान्त सरति खेदको दर करनेके विद्याधर रत्नमिह पाँचसो विमान लेकर जम्बके साथ लिए मगेवर जलक्रीडा सब करते है सब लोग जब उसे मगध पहुंचाने चल-देता है। विमान नांदकुमल वस्त्र श्राभूपणाको पहनकर नगरकी ओर जा रहे थे (गम्मायकुरुल) शिवरपर पहुंचता है जहाँ मगधेशी कि एक प्रमत्त गज आकर सबका त्रस्त कर देना है सेनाका स्कधावार था जम्बूने उतरकर उनसे भेट की। जब मब भयभीत होकर भाग रहे थे जम्ब उसे वीरता गगनगात सबका राजासे परिचय कराता है मृगाड़की पूर्वक परास्त कर देते है (मन्धि ४)। पुत्रीमे शुभ मुहूनमें जम्बूका विवाह होता है। जम्बू जिम ममय अपने नगरमे प्रवेश कर रहे थे उपवनमे __ वीरताके इम कार्यसे प्रसन्न होकर राजाने जम्बूकुमारका अपने बराबर आसन दिया। जब यह महर्षि सुधर्मस्वामी पश्च शिष्या सहित आते हैं। महर्षिका जम्बूस्वामी भक्तिपूर्वक नमस्कार करते है राजसभा चल रही थी उसी समय आकाशसे. एक विमान वहाँ पहुंचा और एक विद्याधर सम्मुख उप (मन्धि ६-७)। स्थित हश्रा। उसने अपना निवास सहसमिग' नगरी मुनिसे जम्बूस्वामी अपने पूर्व-भावोंका वृत्तान्त .मे बताया तथा उसका नाम गगनगति था। उसने सुनत है और तदनन्तर घर आकर माता पिताको बताया कि केरल नगरीके राजा मृगाङ्कने उनकी बहिन प्रणाम करके प्रव्रज्याव्रत लेनेका विचार करते हैं। मालतासे विवाह किया है और उसकी पुत्री विलाम- पुत्रके एसे वचन सुनकर माता म वर्ती अत्यन्त रमणीय है। हंसद्वीपमे निवास करने जम्बूका वह समझाना है कि उसके वैराग्य लेनेस कुल वाले विद्याधरसे रत्नसिहने मृगाङ्कसे उस कन्याको विलीन हो जावेगा । इसी समय सागरदत्तके द्वारा मॉगा । राजाके न देनेपर उसने केरलनगरीपर कुमारी प्रपित व्यक्ति पाकर जम्बूका विवाह निश्चित करता है को लेनेके लिए धावा कर दिया। वह विद्याधर जम्बूसे और सागरदत्तकी चार कन्याओसे जम्यूका विवाह Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ हो जाता है। और कविने शृङ्गारके अनेक उपकरणों- विहुणवि सिरु विभियचित्त बुचई मामु ण वणियवरु । के साथ जम्बू और नव परिणीतावधुओंके संभोग पञ्चक्षु दइउ इय सत्तिए अवस होसि तुहं वीरणरु ।१९। शृङ्गारका वर्णन किया है। कविने इस सन्धिको विस्मितचित्त होकर शिर हिलाकर कहता हैअत्यन्त उपयुक्त विवाहोत्सव' नाम दिया है (संधि ) मामा वणिकमात्र ही नहीं है, प्रत्यक्ष देवसे प्राप्त शक्ति __ महिलाओंके मोहसे उत्पन्न प्रेमसे जम्बूके हृदयमें से युक्त अवश्य तुम वीर पुरुष हो । (सन्धिह) वैराग्य उत्पन्न होता है। महिलाओंकी वे निन्दा करत दसवी सन्धिमे कई मनोहर आख्यान जम्यू और हैं. उनकी विरक्ति भावनाको दूर करनेके लिए जम्बू- विद्युञ्चरद्वारा कहे गये है। जम्बू वैराग्यमें उपसंहार की प्रियतमाएँ कमलश्री. कनकश्री. विनयश्री, रूपश्री होनेवाल आख्यान कहकर विषय-भागाकी निस्सारता प्राचीन कथानक कहती है; जम्बू इसके विपरीत दिखाते हैं और विद्युञ्चर वैराग्यको निरर्थक बतानेवाले वैराग्यकं महत्वको प्रतिपादित करनेवाली कहानियाँ पाख्यान कहता है। अन्तमे जम्बूकी दृढ़तासे वह कहत है । बात करते-करते इस प्रकार आधी रात प्रभावित होजाता है। जम्बू सुधमस्वामीसे तपस्याकी बीत गई किन्तु कुमारका मन सांसारिक प्रेममें नहीं दीक्षा ले लेत है, सभी उनकी पत्नियाँ आर्यिका होजाती लगा. इमी समय विद्युचर चोरी करता हुआ नगरमें है विद्युञ्चर भी प्रव्रज्याका व्रत ले लेता है। सुधर्मआया स्वामी निर्वाण प्राप्त करते हैं। जम्बूस्वामी केवलज्ञान गउ अद्धरत्त वोल्लंतहो तो वि कुमार ण भव रमई। प्राप्त करते हैं और अन्तमें संल्लेखना करते हुए निर्वाण तहें काले चोर विज्जुचरु चोरेवइ परे परिभमई ॥१॥ प्राप्त करते हैं । विद्युञ्चर भ्रमण करता हुआ ताम्रलिप्त नगरमें घूमता हुश्रा जम्बूके गृहमें विद्यचर पुरमे पहुंचता है जहाँ कात्यायनी भद्रमासके प्राधान्य पहुंचता है। जम्बूकी माता मोई नहीं थी, चारका के समाचार जाननेपर उसने कहा कि वह जो चाह सो ग्यारहवी मन्धिमे विद्युमरके दविधधर्म पालनले ले। विद्यञ्चरका जब जम्बूकी माता शिवदेवासे जम्ब द्वारा और तपस्याद्वारा अन्तमे ममाधिमरण पूर्वक की वैराग्य-भावनाके विषयमें ज्ञात हा तो उसने सर्वार्थसिद्धि प्राप्तिका वर्णन है ग्रन्थकी ममाप्ति करते प्रतिज्ञा की कि या तो वह जम्बूकुमारके हृदयमें हुए कविन कहा है कि उसकी कृतिका पाठ करनेसे विषयोंमें रति उत्पन्न कर देगा और नहीं तो स्वयं मङ्गलकी प्राप्ति होती है। तपस्या-व्रत ले लेगा जम्बूस्वामिचरितकी ग्यारह सन्धियोमेसे प्रायः वहुवयण-कमल-रसलंपुड भमरु कुमारु ण जइ करमि । । प्रत्येक सद् काव्यकी प्रशसा की गई है। कविने आएणसमाणु विहाणए तो तव चरणु हउं विसरमि।२३। १ सन्धि प्रथममे कई उल्लेखोंके साथ अन्तमे कहा है वधुओके वदनकमलमें कुमारको रम-लम्पट 'कव्वेय पूर्वसिद्धर्थ वा भयोपक्रियते मया' । भ्रमर यदि नहीं करूँ तो मैं भी इसीके समान प्रातः- सन्धि ३के प्रारम्भमे निम्न प्राकृत पद्य है:काल तपश्चरण करूंगा।' - वालक्कोलासुवि वीर वयण पसरत कब्ब-पीऊस । जम्बूकी माता रात्रिको उसी समय उस चोरको करणपुडएहि पिजह जणेहि रस मउलियछेहि ॥१॥ अपना छोटा भाई कहकर जम्बूके समीप लेजाती है। भरहालकारसलक्खणाइ लक्खे पयाइ विरयती । जम्बू वेष बदले हुए विद्युञ्चरको देखकर उसमे कुशल वीरस्स वयणरगे सरस्सई जयउ गच्चती ॥२॥ प्रश्न करके पूछते हैं कि उसने किन-किन देशो भ्रमण सन्धि ५के प्रारम्भमे स्वयम , पुष्पदन्त ओर देवदत्त किया। व्यापारके भ्रमण किय देशोके नामांको सुनकर कवियोंकी प्रशसाके साथ वीरकी प्रशसा की गई है:जम्बू उसे बड़ा वीर समझते हैं दिवसेहिं दह कवित्त णिलए णिलयम्मि दूरमायगणं । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] अपभ्रंशका एक शृङ्गार-वीर काव्य [ ३९६ 'सुकवित्व' रचना करनेकी इच्छा प्रथम सन्धिमें प्रकट वह पीछे नहीं हठता । कविने भवदेवके भावद्वंद्वका की है और अपनेको उसके अयोग्य कहा है। इस प्रकार चित्रण किया है। जब उसका भाई मुनिसे 'सुकवित्त करण मण वावडेण' । १-३ . कहना कि भवदेव 'तप चरणु लहेसई' (तपश्चरण प्राप्त इस प्रकारके उल्लेखोंसे प्रस्तुत कृति केवल धार्मिक करेगा) वह सोचता हैकथा-कृति नहीं ज्ञात होती और कविने स्वयं भी उसे सुणंतु मणि डोल्लइ । निठुर केम दियंवरु वोलइ । महाकाव्य कहा है. जिसमें शृङ्गार और वीर रसोंकी तुरिउ तुरिउ घरि जामि पवित्तमि , प्रधानता है। कृतिकी ग्यारह मन्धियोंमें कथा-रसके सेसु विवाह कज्जु निव्वत्तमि । अनुकूल इम प्रकार है। दुल्लहु सुख्यविलासु व भुजमि , . प्रथम मन्धिम भूमिकास्वरूप जिनकेवलीके सम नववहुवाए समउ सुहु भुजमि ॥२-१॥ वसरणका वर्णन हैं और श्रेणिकके उस धर्मसभामें किन्तु भाईके वचनोका उस ध्यान आता हैजानेकी कथा है। इस मन्धिमें कथा कही गई है और तो बरि न करमि एह अपमाउ, देश, नगर श्रादिके सुन्दर वर्णन भी है। किसी विशेष जेड सहोयरु जणणु समाउ ॥२-१३॥ रम-परिपाकके लिये इस मन्धिमें स्थान नहीं मिल __ 'इसका अपमान कदापि नहीं करूँगा ज्येष्ठ सका। श्रेणिकके भक्तिभावमें उत्साह है जिसे शान्त सहोदर पिताके ममान है।' और दीक्षित होनेके लिये स्वीकृति देता है । दीक्षाके ममय वह मन्त्रीका उच्चारण रमका स्थायी कहा जा सकता है। प्रस्तुत मन्धिमें वीर और शृङ्गार रसका कोई स्थान नहीं है। भी ठीक नहीं कर पारहा था; क्योकि उसका मन नव यौवना पनीमे लगा थादूसरी सन्धिमे श्रेणिकके प्रश्नका उत्तर गणधर पाढंतहं अक्खरु मउ श्रावइ । देते है। इसी समय बड़े लटकीय कौशलसे कविने लडहंगउ कलत्त परझायइ ॥३-१४॥ जम्बके जन्मान्नरोसे सम्बन्धित कथाका प्रारम्भ क्यिा दीक्षित होकर बारह वषतक भ्रमण किया और है। अतः जम्बूचरितका प्रारम्भ इसी सन्धिसे होता है। वह भ्रमण करता हुआ अपने ग्राम बधमानके पास हम देखनेका प्रयत्न करेंगे कि प्रमुग्व चरित्रम कहाँतक । आया. ग्रामके सम्पकके स्मरणसे उसके हृदयमें शृङ्गार और वीर रसोका चित्रण हुआ है और कविका कावका विषय-वासना जागृत होजाती है। कविने उसकी इन अपनी कृतिको शृङ्गार-वीर रससे युक्त रचना कहना उद्दाम भावनाओको इस प्रकार चित्रित किया है:कहॉतक संगत है। चिक्कसंतु चित्तु परिश्रोसइ , ___ जम्बूके पूर्व जन्मोकी कथा कहते हुए ऋषि बताते परिसु दिवसु न हुयउ न होसइ । हैं कि एक पूर्व जन्ममे ब्राह्मणपुत्र भवदेव थे। उनके तो वरि घरहो जामिपिय पेक्खमि , बड़े भाई भवदत्त जैनधर्मकी दीक्षा ले चुके थे । भवदेव विसय सुक्ख मणवल्लह चक्खमि ॥२-१५॥ का जब विवाह होरहा था भवदत्त आता है. भवदव चिकने (स्नेहाभिषिक्त) चित्तको वह परितोषित विवाह-कार्य अधूरा छोड़कर भाईकी आज्ञा मानता , ___ करता है, इस प्रकारका दिन न हुआ है न होगा, तो हुश्रा दीक्षा लेकर चला जाता है। एक ओर उसे । उस अवश्य घर जाकर प्रियाका दर्शन करूँगा और मनकिंचित नवविवाहका भी ध्यान है किन्तु वैराग्यसे भी वल्लभ विषय-सुखोंका आस्वादन करूँगा।' सपइ पुणो णियत्त जाए कह वल्लहे वीरे ॥२॥ समयानुकूल भवदत्त श्राकर उसे संबोधित करता सन्धि ६मे इस प्रकार एक पद्य है: है और वह कुपथसे बच जाता है। इसी प्रसङ्गमें देत दरिद्द पर वसण दुम्मणं सरस-कव्व-सव्वस्सं । कविने जम्यूचरितके सबसे कोमल और रमणीय कइ वीर सरिस-पुरिसं धरणि धरती कयथासि ॥१॥ स्थलका चित्रण किया है। ग्रामसे लगे हुए चैत्यग्रहमें - --- Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ] अनेकान्त [वर्ष ६ भवदेव जाता है और वहाँ एक क्षीणकाय स्त्री तपस्या- पात्र विजय पाते हैं, तपके लिए उनमें 'वीर'का स्थायी में रत बैठी थी, उससे भवदेव अपने और भवदत्तके 'उत्साह' पाठकोंको दीख सकता है। इस शृङ्गार विषयमें पूछता है । वह स्त्री सब बताती है कि किस भावना और उत्माह' भावनाका संघर्ष इस सन्धिमें प्रकार वे दोनों ब्राह्मणपुत्र संसार तरङ्गोंको पारकर पर्याप्त सुन्दर रूपमें वर्णित हुआ है और वह कविको दिगम्बर होगए थे। और भवदेवने नागवसुसे विवाह शृङ्गार वीरकाव्य बनानेमें महायक है। किया था. वह भवदेवके यौवनावस्थामें तपत्रत लनेकी भवदेवका जन्म वीतशोकानगरीके राजकुमार प्रशंसा करती है। उसने भवदेवको पहिचान लिया के रूपमें होता है। उसका विवाह एकसी पाँच राजथा, वह उसकी पत्नी थी: कन्याओसे कर दिया जाता है. राजप्रासादोके बाहर तरणतणेवि इंदियदवणु । जानेमे शिवकुमार (भवदेवका इस जन्मका नाम) पर दीसइ पइ मुयवि अण्णुकवणु ॥ देखरग्ब रखी जाती है। एक बार उम नगरीमे सागरपरिगलिए वयसिसव्वहुविजई, चन्द मुनिके आगमसे नगरीमे कालाहल हुआ (भवविसयाहिलास हवि उवसमई । दत्तका जन्म सागरचन्द नामसे पुण्डरीकिनी नगरीमे कच्चेपल्लट्टइ को रयणु, हुआ था और वह मुनि हो गया था)। शिवकुमारने पित्तलइ हेमु विक्कइ कवणु । २ १८ धवलगृहक ऊपरसे मुनिको देखा और उसे जाति 'तरूणावस्थामें इन्द्रियांका दमन करने वाला स्मरण हो आया । वह मूछित होगया और तपत्रत तुम्हारे अतिरिक्त और कौन है, अवस्थाके परिगलित लेना चाहता है. राजा उसे उस पथसे दूर करना होनेपर मभी यती हैं जब कि विषयाभिलाषाएँ उप- चाहता है। राजा आर राजकुमारके प्रमङ्गकी कुछ शमित हो जाती है काँचको रबसे कौन बदलंगा और पंक्तियो इस प्रकार है. राजा उसे शृङ्गार और राजपीतलसे सोनेको कौन बेचेगा।' नागवम् उममे कहती वैभवर्म रत रहनेके लिए कहता है किन्तु कुमारका कि उसके जानेपर उसके एकत्रित धनस उसने वह मन वैराग्यके लिए दृढ़ हैचैत्य बनवाया है। उमका धर्मढ़ताको सुनकर भवदेव श्राहासइ चक्केसरु तणुरुहु, लज्जित होता है, मुनिके पास जाकर मब वृत्तान्त कवणु कालु पावज्जते किर तुहु । सुनाकर सविशेप दीक्षा लेता है। भवदत्तके माथ तप अखयणिहाणु रयणरिदिल्ली, करता हुआ वह और भवदन्त अनशन करके पण्डित रायलच्छि तुहु भुजहि भल्ली । मरणसे देह त्याग कर तृतीय स्वगका जान है। भगइ कुमार ताय जय सुदरु, विषयोकी ओर झुकनेकी मनुष्यकी शाश्वत दुर्व ता कहि चक्कवट्टि हरि हलहर । लताका सुन्दर विश्लेषण करन हुए कविने भवदेवको समलकाल रगवणव वर इत्ती, उसपर विजय पाते हुए चित्रित किया है। शृङ्गारके वसमई वेसव केण ण भुत्ती । १.८ श्रालम्बन विभाव यहाँ भवदेव और नागवसु । फिर राजा कहता है कि रागद्वेषका त्याग करनेपर मंचारीभावांका सुन्दर चित्रण हुआ है. पुगनी तपतकी क्या आवश्यकता है घरवास करते हुए ही स्मृतियाँ ग्रामकी मन्निकटता भवदेवके हृदयमे विपय- नियम व्रताको धारण करना चाहिये । कुमार पिताके सुखका जागृत करत हैं अतः उदीपन कहे जा सकन वचनको मानकर मन वचन. कायसे नवविध ब्रह्मचर्य हैं. शृङ्गारकं पूर्ण चित्रणकं लिए कथाकी परम्पगके व्रत धारण करनेका व्रत लेता है। तरुणियोंके पास कारण कवि विवश था और परिस्थितियांके कारण हानेपर भी वह उम औरमे उदास रहता है। परगृहसे नायक नायिका दानी तपत्रन लेते है। दुर्बलताओम भिक्षा लाता है। बहुत वर्ष तप करनेके पश्चात ममय संघर्ष ही वाररस' का यहाँ प्रतीक है. उनपर कथाके आनेपर वह विरक्त होगया और देह त्यागकर Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] अपभ्रंशका एक शृङ्गार-वीर काव्य [ ४०१ विद्युन्मालीदेव हुआ। शृङ्गारके समस्त साधन रहते सङ्गीत, कोमलवृत्ति और शृङ्गारके अनुकूल माधुर्यहुए भी शिवकुमारका मन उससे विरक्त रहा उस गुण-प्रधान ऐसे वर्णनोंको व्यक्त करनेकी क्षमता द्वन्दको कविने यहाँ समस्त सद्उपदेशोके साथ दिखानेके लिये ऐसे वर्णन अच्छे प्रमाण हैं। कुछ व्यक्त किया है। शृङ्गारका अर्थ इस प्रसङ्गमें विषया- पंक्तियाँ इस प्रकार पढ़ी जामकती है:भिलाषा' करना उचित होगा। विषयाभिलाषाओपर मंछ मंदार मयरंद गंदण वर्ण , वैराग्य भावनाकी विजय दिखाई गई है। इस सन्धिके कुंद करवंद वयकुंद चंदण घृणं । अनुसार कृतिका नाम 'शृङ्गार-वैराग्य' कृति कहना तरल दल तरल चल चवलि कयलीसुहं, उचित होगा. 'शृङ्गारवीर' कृति नहीं। दक्ख पउमक्ख रुद्दक्ख खोणीरुहं । सन्धि चतुथसे जम्बूस्वामी कथा प्रारम्भ होती है। कुसुम रय पयर पिजरिय धरणीयलं. जम्बूकुमार अत्यन्त रूपवान थे। उनको देखकर नगर तिक्ख नहु चंवु करायल्ल खंडियफलं । की रमणियाँ उनके रूपपर आसक्त होजाती थी। रुक्ख रुक्खंमि कप्पयरु सियभासिरी, परकीया ऊढा नायिकाओके विरहका कविने प्रमङ्गवश रइवराणत्त अवयराण माहवसिरी॥४-१६|| वर्णन किया है जिसमें ऊहात्मकता भी पर्याप्त मात्रामें उद्दीपन सामग्रीके रूपमें उद्यान और वसन्तका मिलती है। शृङ्गारवर्णनके इस प्रसङ्गकी कुछ पंक्तियाँ वर्णन कविने बड़ी सफलता पूर्वक किया है । उपवनमें इस प्रकार उद्धृत की जामकती है: क्रीड़ा करनेके पश्चात् सभी मिथुन सुरति खेदका काहिवि विरहाणल संपलित्त । अनुभव करत हैं और उसे दूर करनेके लिये जलक्रीड़ा अंसुजलोह कवोलरिणत्त । के लिये सब सरोवरमें जाते हैं। जलक्रीड़ाके पश्चात् पल्लट्टइ हत्थु करंतु सुरणु । सब निकलकर वस्त्रादि धारण करते हैं और निवासोंकी वंतिमु चूडुल्लउ चुरण चुराणु । ओर जाते हैं। शृंगारके समस्त उपकरणोसे पूर्ण इस काहिनि हरियंदण रसु रमेइ । चित्रके साथ जम्बका शीर्य कविने संग्रामशुर नामक लग्गंत अंगि छमछम छमेइ ॥४-१३॥ श्रणिक राजाके भयङ्कर पट्टहस्तीका उनके द्वारा इस कलात्मक परम्पराका निर्वाह करके कविने पराजित चित्रित करके दिखाया है। इस सन्धिमें समुद्रदत्त नामक उसी नगरमें रहने वाले श्रोष्ठिकी श्रृंगारका सुन्दर और बहुत कुछ पूर्ण चित्र कविने पद्मश्री, कनकश्री, विनयश्री और रूपश्री नामक चार प्रस्तुत किया है। कन्याओका शिखनख वर्णन प्रस्तुत किया है। वर्णनके पाँचवी सन्धिसे श्रृंगारमूलक वीररसका प्रारम्भ अन्तमें कवि कहता है कि किमी अन्य प्रजापतिने इन होता है। केरल राजाकी पुत्री विलासवतीको रनशेखर कुमारियोंका निर्माण किया है: विद्याधरसे बचानेके लिये जम्बू अकेले ही उससे युद्ध जाणमि एक्कु जे विहि घडइ सयलु विजगु सामएणु । करने जात है। उनमे वीरके स्थायीभाव 'उत्साह का जि पुणु प्रायउ णिम्मविउ कोवि पयावइ अण्णु ॥४-१४ अच्छा उद्रेक चित्रित किया है. पीछे श्रेणिकराजकी ___ जम्बू जैसे अतीव रूपवान वरके अनुरूप इन सेना भी बड़े उत्साह से सजधजके साथ चलती है। अनुपम रूपवती कुमारियोका जम्बूसे विवाह होजाता अमाधारण धैर्य के साथ जम्बू रबशेखरके साथ युद्ध है। बड़े कौशलसे कविने नायक-नायिकओको समान करनेको प्रस्तुत होत हैं। युद्ध करते समय सैनिकोंके रूपसे युक्त चित्रित किया है। जोवनके एसे चित्रमय हृदयमें स्वामिभक्तिकी योनत वीरोक्तियाँ कहते हैं और न्दर अवसरके अनुकूल कविने कोमल पदावलीका अनेक उदात्त भावनाओंका उदय होता है। सैनिकोंकी प्रयोग करत हुए वसन्तका वर्णन किया है। अपभ्रंशमै रमणियाँ भी सैनिकोंका युद्ध में जानेकी प्रेरणा देती हुई Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ] दिखती हैं। भयङ्कर युद्ध होता है और परिणामस्वरूप बीभत्स चित्रणकी भी ओर संक्षेपमें कविने ध्यान दिया है। विद्याधर विद्या- बलसे माया- युद्ध करता है। कभी मंझावात चलने लगती है. कभी प्रलयजल बरसने लगता है। अद्भुत रस यहाँ वीरको सहायता करता दिखता है । विद्याधरने राजा मृगाङ्कको बाँध लिया. जम्बूने युद्ध करते हुए राजाको छुड़ा लिया और पराजित करके उसे भगा दिया । जम्बूकी विजयपर नारद श्रानन्दसे नाचने लगते हैं, सर्वत्र आनन्द होने लगता है । विद्याधर गगनगति प्रकट होकर मृगाङ्कराजसे जम्बूकुमारका परिचय देता है । वीररस के इस विस्तृत प्रसंगके पश्चात् ही कवि शृङ्गारकी भूमिका प्रारम्भ कर देता है। अनेकान्त [ वर्ष यद्यपि सब लोग उन्हें ऐसा न करनेको समझाते हैं। विवाहके प्रसङ्ग में कविने वैराग्यकी स्थितिको छोड़कर सुन्दर विवाहका वर्णन प्रस्तुत किया है. विवाहके 'दाइजे', तथा भोजनके सरल वर्णन किए हैं, जम्बू नववधुओं के साथ वासगृह में जाते हैं। इस प्रसङ्गमें कविने महिलाओके हाव-भावों (चेष्टाओं) का अच्छा चित्रण किया है । जम्बूका मन इन सब व्यापारोमे में नही रमता, उसकी पत्नियाँ अनेक कथाएँ कहती हैं किन्तु वह दृढ़ रहता है । विद्युच्चर भी जम्बूके हृदय में संसारके प्रति आसक्ति उत्पन्न करानेमे श्रमफल होता है । कथाकी समाप्ति वैराग्यमें होती है । ससारके मायामोहसे विरक्त होकर जम्बू उनकी पत्नियाँ. विद्युवर सभी तपस्या करते है और सद्गति प्राप्त करते हैं । कृतिमें कविनं वीररस. शृङ्गार और शान्ति रस के सफल चित्र प्रस्तुत किए हैं। चरित्र चित्रण भी कवि पूर्ण सफल हुआ है । पूर्वजन्मोसे ही जम्बूकी प्रवृत्ति कर्त्तव्यमे दृढ़ और धार्मिक है. जम्बू अत्यन्त साहसी वीर है, उनकी चारित्रिक दृढ़ताको बड़े ही सफल ढङ्गसे कविने व्यक्त किया है— तरुणियोके पास रहते हुए भी वह उनमे विरक्तिभाव रखता है पासट्टिओवि तरुणी गियरु, arrt इवहि पुंजिउव्व कयरु ॥ ३-६ ॥ अनेक प्रकारकी उक्तियांका उसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता उद्धरत वोलत होतो, वि कुमारु ण भवे रमइ ॥ ६-११ साहसकी परीक्षाके दो प्रसङ्ग मिलते है-: - उन्मक्त हाथीको वह परास्त कर देता है (संधि ४) और अकेला ही विद्याधर रत्नशेखर और उसकी सेनापर विजय कर लेता है। उसका व्यक्तित्व प्रभावशाली है इसी लिए विद्युच्चर भी उसका अनुसरण करता है । इन सब गुण के साथ उसमें महज्जनोचित शिष्टाचारीके भी दर्शन होते हैं । माताकी आज्ञाका वह पालन करता है। विद्युश्चरका परिचय उसकी माता अपने भाईके रूपमें कराती है-वह देखते ही खड़ा होजाता मृगाङ्क राजा जम्बूको केरल नगरी दिखाते हैं । नगरका रर्माणियाँ जम्बूका देखकर कहने लगती है कि विलासवती धन्य है जिसके हाथमे श्र णिकराजका समस्त राज-वैभव रहेगा | जम्बू और विलासवतीका परिणय होता है । जम्बू मगध पहुँचते हैं और यहीं से शृङ्गार और वैराग्य ( संसार में अनुरक्त प्रवृत्ति तथा निवृत्ति) का प्रसङ्ग प्रारम्भ होता है। आठवीं मन्धिसे यह प्रसङ्ग प्रारम्भ होता है। मुनिसे अपने पूर्व भवोकी कथा सुनकर जम्मू के हृदय में वैराग्य भावनाका उदय होता है। दीक्षा देनेके पूर्व गणधर जम्बूसे माता-पिता की आज्ञा लेनेको कहते हैं: इय सोऊंण मलहरी वोs ari गणहरो | तावच सुहणिहेलणं, पुच्छसु पिय माया जणं ॥ ८-२ ॥ 3 जम्बूकी माता पुत्रकी वैराग्य भावनाको देखकर मूर्छित होजाती है। कुमारकी वैराग्य-भावनासे सभी कुटुम्बी दुखी दिखते है किन्तु जम्बूका मन दृढ़ था :पिउ मायरिबंधवजणहिं दुक्खिय महिं झावि कव न बुज्झइ । सच्च अज्जु जे तव चरणु वइ-tray लिउ कुमारु किमरुज्झइ ॥८-८|| जम्बूकी निवेरपूर्ण मनस्थितिको देखकर भी पद्मश्री आदि चार कम्यायें उनसे परिणय करती हैं। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] है, प्रणाम करता है और कुशल पूछता है: अपभ्रंशका एक कार-वीर काव्य 3 " तं नियविकुमार समुट्ठियउ दरपणमिय सिरु समहिट्ठियउ । अणोरणालि गण रसभरिया वह पीढहिं वेणेवि वइसरिया । पुच्छ्रिज्जइ कुसलु पंथ समिउ बहुदिवस माम कहि कहि भमिउ ॥६- १८ || " जम्बूका चरित्र सब प्रकारसे एक धर्ममें दृढ़ आदर्श योद्धा, उदात्तचरित्र व्यक्ति विरक्त त्यागी महापुरुपका है। अन्य पात्रोंके चरित्रमें सम्यक विकास नही मिलता और न वह आवश्यक ही था । विद्युवरके दर्शन एक सब प्रकार से भले किन्तु चोरके रूपमें होते हैं - अन्तमे वह भी तपस्वी हो जाता है। महिलाओके चरित्र में जम्बूकी पत्नियां और उसकी माताके चित्र मिलते हैं । उनमें स्वाभाविक कोमलता और सरता है । वे सब अन्तमे श्रर्यिकाएं होजाती है । प्रायः ऐसी धारणा है कि जैनसाहित्यमे स्त्रियांकी निन्दा की गई है. वह ग़लत है । इन कृतियोंमे आदर्श के चित्र मिलत है। नारीके प्रति घृणाका भाव नही मिलता, मूल दुष्प्रवृत्तिका कहीं कहीं उन्हें कारण मानकर उनकी भर्त्सना अवश्य की गई है यथा जब जम्बूकी पत्नियाँ हाव-भाव दिखाकर उसे श्रासक्त करना चाहता है तब वह कहता है : " हा हा महिला - मोह णिबद्ध उ मण काल - सप्पाहि जगु खद्धउ । बुच्चइ हरु अमिय महु वासउ अवरु जो गाउ विउ वयणासउ ॥ ६-१ ॥ वर्णन:- अन्य अपभ्रंश जैन काव्योंके समान प्रस्तुत कृतिमें भी अनेक समृद्ध वर्णन मिलते हैं । नगर, ग्राम, अरण्य, ऋतु सूर्योदय, सूर्यास्त, नखशिख, सेना युद्ध आदिके सरल और कहीं-कहीं अलंकृत वर्णन कविने प्रस्तुत किये है। बड़े-बड़े वर्णनांके अतिरिक्त छोटे छोटे चित्र भी कविने सफलता पूर्वक चित्रित किए हैं: - श्रोणिकराजके उन्मत्त हाथी के चित्रणसे कुछ पंक्तियों इस प्रकार हैं; उसकी [ ४०३ विकरालताका स्पष्टस्वरूप सामने आ जाता है: उद्दंड - सुंडकय - सलिलविट्ठि पयभार asar कुमपि । दुद्धर - रिउ वलहरु णं णव जलहरु-गरुय गज्जिर - रव भरियदरि । जण - मारण-सीलउ वइवसलीलउ - सो संपत्तउ तेत्थु करि ||४-२०|| इसी प्रकार थोडेसे शब्दोंमे विद्युवरका चित्रण किया है: - पयडिय किराउ मयवेसपडु, आजाणु लंब परिहाण पडु । वंकुडिय कच्छकयढिल्ल कडि, कण्ांत लुलाविय केसलडि । पुट्टीनिहित्त कयबद्ध भरु, उग्गंटिय वि सरिस कु चधरु | उत्तमंग पंगुरियतणु सिढिलाह रोहदंतरु वयणु । डोल्लंत बाहुलय ललिय-करु वासहरि पयट्ठउ विज्जुच्चरु । ।। ६-१८ ॥ अलङ्कारो प्रयोग कविने दो प्रकारके किये हैं. एक चमत्कार प्रदर्शनके लिये और दूसरे स्वाभाविक प्रयोग । प्रथम प्रकारके प्रयोगके उदाहरणरूपमे विध्याटवी वर्णनसे निम्न पंक्तियाँ उद्धृत की जामकती हैं; जिनमें कोई रस नहीं है : , " " मारह - रणभूमिव स - रहभीए हरि अज्जुण उल सिहंडि दीए । गुरु आसस्थाम कलिगवार गयगज्जिर ससर महीस सार । लंकारणयरी व स- रावणीय चंदणहि चार कलावणीय । सपलास सकंचरण अक्खघट्ट, सविहीसरण कइकुल फलरसह ।। ५-८ ॥ उपर्युक्त पंक्तियों में श्लेषके प्रयोगसे दो अर्थ निकलते हैं. स-रह ( रथ सहित और एक भयानक जन्तु हरि - कृष्ण और सिंह, अर्जुन और वृक्ष. नहुल और नकुल जीव, शिखडि और मयूर आदि) । इस कवि चमत्कारके अतिरिक्त सरसता बर्द्धक प्रयोग भी कविने किये हैं। यद्यपि वे हैं इसी प्रकारके; माला यमकका एक उदाहरण इस प्रकार है: Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ] *तउय संजायं महादंड जुज्झं, जुज्यंतपत्ति कोतग्गखग्गि । वावल्लभल्ल सवल्ल, मुसु' दिए सीहम्ममाण चरणोष्णं । अणोरणदंसणारुट्टणिद्ववियमिट्ठसुरणासणनिलं, - तमत्तमायंगं । मायंगदंत संघट्ट हिस ं तहुय बहुफुलिंग पिगलिय सुरवइविमा || सुरहू विमाण संगयरण ॥ ७-६ ॥ arrer, विभावना और यमकके एक साथ प्रयोग निम्न पंक्तियोंमें पढ़ सकते हैं : अनेकान्त " " दिणि-दिणि रयणिमाणु जहं खिज्जइ, दूरपियाण णिद्दतिह विज्जइ । दिवि - दिवि दिवस पहरु जिह वट्टइ, कामुयाण तिह रह-रसु वट्टइ । दिवि - दिवि जिह चूयउ मउरिज्जइ माणिणीमाणहो तिह मउरि (व)ज्जइ । सलिलु शिवाराहं जिह परि हिज्जइ सिंह भूस माहिं परि हिज्जइ । मालइ समु भमरु जिह वज्जइ, घरे घरे गहेरु तूरु तहिं वज्जइ ||३-१२ ॥ सादृश्य-मूलक अलङ्काराके प्रयोग कविने बड़े स्वाभाविक ढङ्गसे किये हैं। इस प्रकारके प्रसङ्गों में कविने बड़ी सरल कल्पनाके कही-कहीं प्रयोग किये हैं — एक-दो उदाहरण इस प्रकार हैं । सूर्यास्तके ममय सूर्यका वर्णन कविने निम्न पंक्तियोंमें किया है: परिures हरुमवहो विडिउ । फलुव दिवायर मंडलु विहडिउ || रत'वर जुवल ऐसेविणु । कुंकुम पके पियले करेविणु ॥ खणु अच्छेवि दुक्ख संभलिउ । श्रप्पउ घोरस मुद्दे घति ॥ ।। ८-१३ ।। और भी इसी प्रसङ्गमें कुछ पंक्तियाँ हैं; चन्द्रोदय का वर्णन है : [ वर्ष ह जालगवक्खय पसरिय लालउ । गोरस भंतिए लिए विडालउ ॥८- १४॥ 'गवाक्षजालमेंसे प्रकाश आरहा था, उसे गोरसभ्रान्तिसे विडाल चाट रहा था।' ह गेरहइ समरिपडिउ मरणेविणु करि सिर मुत्ताहलु ||८ - १४ || 'शबरी पड़े हुए बेर फलको शिरका मुक्ताफल समझकर ग्रहण करती है ।' इस प्रकार अनेक अलङ्कारोंके सुन्दर प्रयोग कृति में हुए हैं, जिनसे सौन्दर्य वृद्धि हुई है। सुभाषित और लोकोक्तियाँ भी व्यवहृत हुई है। इसके अतिरिक्त कृतिमें श्रादिसे अन्त तक जम्बूकी वैराग्य-भावनासे पूर्ण धार्मिक वातावरण है, कापालिक, जांगी, सिद्धो श्रादिके कई स्थलोंपर उल्लेख मिलते है जो तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक परिस्थितिपर प्रकाश डाल सकते हैं। हुए कृतिम अपभ्रंशके प्रिय और प्रचलित छन्दोंके प्रयोग हैं-जैसे घत्ता, प्रज्झटिका प्रमुख हैं किन्तु उनके अतिरिक्त स्रग्विणी, भुजङ्गप्रयात, द्विपदी दंडक, दोहाके प्रयोग किए हैं अन्त्यनुप्रास ( यमक) का सर्वत्र छन्दोमें प्रयोग किया है और कहीं-कही अन्तर्यमकका भी प्रयोग मिलता है। प्रतियोंका ठीक अध्ययन करने पर छन्दोंका सम्यक अध्ययन किया जा सकता लय, सङ्गीत प्रसङ्गके अनुकूल बदलनेको, अपूर्व क्षमता वीरकी इस कृति में मिलती 1 भमिए तमंधयार वर यच्छिए। दिण्णउ दीवउ णं राहलच्छिए जोराहारसेण भुश्रणु किउ मुद्धउ । खीर महराणवम्मि बुद्धउ किं गयाउ अमियलव विहह । कि कप्पूर पूर करण णिवडहिं ॥८- १४॥ भ्रान्तिके दो एक उदाहरण इस प्रकार -- 1 कृतिक भाषा अन्य जैन अपभ्रंश चरित काव्योंके समान ही सौरसेनी अपभ्रंश है । स्वयम्भू श्रौर लक्षित होता है। कुछ गाथा प्राकृतमें भी मिलते हैं । पुष्पदन्तकी वरनशैलीका अनेक स्थलोंपर प्रभाव प्रस्तुत कृति परम्परागत प्राप्त वैराग्यपूर्ण जम्बूके चरित्रको काव्यात्मक ढङ्गसे प्रस्तुत करनेका एक अभिनव प्रयास है । कवि बहुत दूर तक उसे महाबर्णन वीरोदात्त नायक आदि अनेक महाकाव्य की काव्यका रूप देने में सफल हुआ है । रस. अलङ्कार विशेषताएँ कृति में मिलती है। क्या ही अच्छा हो यदि यह कृति शीघ्र प्रकाशमें आ सके । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Anima a responent andespe AR wamomommar PaweiNARA PMAngAMRAPalghamme ८ REASE श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादी वर्णी Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज - सेवकोंके पत्र जैनधर्मभूषण ब्र० शीतलप्रसादजीके पत्र [गताङ्कसे आगे] (२२) लखनऊ २३-१-२७ हो तो लिखें। सबसे धर्मस्नेह कहें पं० फतहचन्द, डा. हर्मन जैकोबीको महापुराण प्राकृत पुष्पदन्त महबूबसिंह, उमरावसिंह आदिसे कृत चाहिये सो यह लिखित देहली व जैपुरके भण्डारों (२५) . में है । आप एक प्रति स्वाध्यायके लिये तुर्त भिजवा १-ट्रैकोंकी प्राप्ति छपने भेज दी है। देवें जो शुद्ध होवे, अपभ्रंश भाषाके अभ्यासी हैं। २-लेख मैं जनवरीके अन्त तक भेजनेकी चेष्टा भूलें नहीं। उनसे पहले पत्र व्यवहार करें। (२३) वर्धा १६-१ ३ केवल चम्पतरायजीको कोई अच्छा पद देना पत्र पाया देहलीमें प्रो० ग्लैसीनपका व्याख्यान ___ चाहिये यह नाम पसन्द नहीं है व स्वागत कैसा हुआ। भाई चम्पतरायजीके साथ वे ४-आपने अग्रेजी पत्र बहुत अच्छा छपवाया है कुछ दिन घूम तो ठीक हो। आपकी जयन्तीमें हमारा ५-आप हिन्दी साहित्यज्ञाताके नाम महेन्द्रकुमार आना शायद ठीक न होगा। लोग घृणा करेंगे वस सम्पादक वीर सन्देश' मोती कटरा आगरा बिना भले प्रकार विचार किये मुझे न बुलाना। जैन मन्दिरसे जाने परिषदका जल्सा कहीं करावें। ६-पंडित गिरिधर शर्मा झालरापाटन हिन्दीके अच्छे विद्वान है। डा० गङ्गानाथमा अलाहा(२४) लखनऊ २६-११ पत्र ता० २३-११ पाया। बादका भी सन्देशके लिए लिखें। जो नाम १-पुस्तक कामताप्रसादको भेजी है आपने दिये हैं उनको बुला सकते हैं। २-जीवकांड छप चुका, कर्मकांड चालू है जुगमन्दरलाल वारिस्टरका पग अब अच्छा है ३-अभी १ माससे अधिक ठहरना होगा उनको बुलावें या सभापति बनानेकी चेष्टा करें। -अजितप्रसादजीको आप स्वयं लिखें, मेरे श्राप उत्साहसे काम करते रहें। सच्चे भावसे कहनेसे न आएंगे करें, नाम न चाहें प्रचार चाहें, यश स्वयं होगा। ५-आप पुस्तकका प्रचार कर रहे हैं धन्यवाद है ___लखनऊ परिषद्में आप मित्र-मण्डली सहित खूब अजैनोंको बाँटनेका उद्यम करें। जरूर पधारें व उत्साह बढ़ावें, बाबू उमरावसिंह, ६-तत्वार्थसूत्रका अनुवाद जुगमन्दरदास कृत जौहरीमल आदिको लावें । मेरा धर्मस्नेह सबसे कहें। आपने देखा होगा उमीको चम्पतरायजी (०६) . लखनऊ १६-१-२७ से करवाया जावे १-आप सत्यभावसे उद्योग करें सफलता होगी। ७-यहाँसे मेरे पास Lcensus of India पद चम्पतरायजीको 'जैनसिद्धान्तरन्न' देना 1921 नहीं है आप नकल भिजवा दें तो हम ठीक होगा । अपनी कमेटी में पास करा लेवे मित्रमें छाप दें। ड्राफ्ट फिर भेज देंगे। मदरास स्मारक तैयार है ५००) लगेंगे कोई दानी २-सभापति मोतीसागरको १ दिन करें व १ दिन Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] समाज-सेवकोंके पत्र [४०७ प्रोफेसर हीरालालको करें, वे छपा हुआ जाकर ४ बजे फरीदकोट पहुँचूँ । वहाँ भाषण देकर व्याख्यान ऐतिहासिक अच्छा देंगे या जे. एल. ता० १४की रातको चलकर १५को सबेरे देहली प्राजैनी आसके तो अच्छा है। मोटो आप तज- जाऊँ। वहाँसे १५की रातको अवश्य बनारस जाना वीज करें। राय ले लेवें। होगा। ता० १७को वार्षिकोत्सव है। वहाँ जाना बहुत जैनमित्रके खास अङ्कके लिये आप प्रकाशक जरूरी है उससे धर्मको जागृति होगी। पं० दरबारीकापडियाजीसे पत्र व्यवहार करें। लालके लिए सेठ ताराचन्दको बराबर लिखते रहें। जिनेन्द्रमतदर्पण २ प्रति व हिन्दीके दो ट्रैक और (२९) काशी ४-७-२७ जिनसे जैनधर्मका ज्ञान हो वी० पी० से लखनऊमें हमको एक जैनधर्मके ज्ञाता अजैन सिंघई कमलापत भगवानदास जैन विद्वान्से भेंट हुई इनका पता यह है । आगामी वारासिवनी, जि० बालाघाट सी. पी., शीघ्र भेज दें। जयन्तीपर इनसे भी लेख मँगाइये । पुस्तकों व ट्रैकों (२७) लखनऊ २६-१-२७ का प्रचार करनेका पत्रोंमें नोटिस आदि निकालने आपकी इच्छानुसार सनातनजैनमत पुस्तक चाहिये । भाई चम्पतरायजोसे कोई धार्मिक सेवा लिखकर बड़े परिश्रमसे आज रजिस्ट्रोसे भेजी है। यह लेनी योग्य है। बड़ी उपयोगी पुस्तक है। जल्सेमे जितने पढ़े-लिखे डा० प्राणनाथ डी. एस. सी. (लन्दन) जैन, अजैन श्रावें सबको बाँटने लायक है सो आप पी. एच. डी. (वायना) विद्यालङ्कार, एम.आर. ए. एस. २००० छपवालें, मूल्य भी रखें। अपनी कमेटीके C/o इलाहाबाद बैक, बनारस मेम्वरोको जमाकर सुना दें कोई बात बदलनेकी कहें (३०) वर्धा १६-३-२८ तो मुझे पत्र द्वारा लिखें, कापीमे न बदलें जैसी मैंने १-लेख भेज चुका हूँ पहुँच दें व सदुपयोग करें लिखी है वैसी ही छापें सूरतवाले जल्दी छाप सकेगे सूरतमें ही छपवावें। वे मेरे अक्षर पहचानते हैं वही अच्छे कागज टाईपमे २-काङ्गड़ीमें सार्वधर्म सम्मेलनमें मैं भाषण दे छपवावें। मैंने सूरतको लिख दिया है । नत्थनलालजी सकता हूँ। एक तो विषय मालूम हो व समय व शम्भूदयालजीको जरूर बिठा लेना। पुस्तक सुना नियत होजावे । आप मण्डलकी ओरसे भिजकर राय मेरेको लिखना, जिनेन्द्रमतदपण ५ प्रति वादें व उनका स्वीकारता पत्र मुझे भेज दें अन्य कुछ हिन्दी-उदूके ट्रैक परिषदें बॉटनेको भेज तो मैं तैयारी करूँ। वहाँ ठहरने आदिका देवे । आप भी मित्रों सहित पधारें अवश्य, यहाँ प्रबन्ध योग्य होना उचित होगा। प्रचार भी कुछ होगा फिर वहाँसे गयाजी चले जावें। ३-दक्षिणमें पूनाके एक मराठी विद्वानने जैनधर्म मेरा लेख सनातनजैनमतपर १॥ घण्टा होगा। यह धारण किया है वह भाषण भी दे सकता है उसका प्रोग्राममें रखना. समय रातका रखना, पहले या मध्य नाम जैनमित्र इस वर्षमे है उसका एक लेख में रखना मैं यथाशक्ति आनेकी कोशिश करूँगा। छपा है मैं जैनी क्यों हुआ। श्राप फाइलमें देख आप उत्साहसे काम करें। सर्व भाइयांसे धर्मस्नेह कहें। लेके वह सकता है उसके लिए आप प्रोफे(२८) १६-३-२७ मर ए. वी लट्टे दीवान कोल्हापुरको व संपादक आपका जल्सा ता० १३. १४, १५को है ठीक प्रगति आणिजिन विजय साङ्गलीकेटको लिखें। लिखें। फरीदकोट वाले जोर दे रहे हैं। मैं ऐमा जीवदया सभा आगरामें दयाके संपादक ब्राह्मण चाहता हूँ कि ता. १३की रातको देहलीसे जाऊँ या थे विद्वान है जैनधर्म धारण किया है वह भी अगर हा रातकी गाडीमें न जा मत तो सबेरे ५ बजे कुछ कह सकेंगे। (क्रमशः) Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASDOOSDOSOSOVA वीरसेवामन्दिर सरसावाके प्रकाशन aE SDCDC % १ अनित्य-भावना श्रा० पद्मनन्दिकृत भावपूर्ण और हृदयग्राही महत्वकी कृति, साहित्य-तपस्वी पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तारके हिन्दी-पद्यानुवाद और भावार्थ सहित । मूल्य ।) २ आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थसूत्र मरल-मंक्षिप्त नया सूत्र-ग्रन्थ, पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारकी सुबोध हिन्दी-व्याख्यासहित । मूल्य ।) ३ न्याय-दीपिका (महत्वका नया संस्करण)-अभिनव धर्मभूपण-यति रचित न्याय-विषयकी सुबोध प्राथमिक रचना । न्यायाचार्य पं० दग्बारीलाल कोठिया द्वारा सम्पादित, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत (१०१ पृष्ठकी) प्रस्तावना, प्राक्कथन, परिशिष्टादिसे विशिष्ट, ४०० पृष्ठ प्रमाण, लागत मूल्य ५) । इसकी थोड़ी ही प्रतियाँ शेप रही है। विद्वानो और छात्रोने इस मंस्करणको खूब पसन्द किया है। शीघ्रता करे । फिर न मिलने पर पछताना पड़ेगा। ४ सत्साधु-स्मरणमङ्गलपाठ___अभूतपूर्व सुन्दर और विशिष्ट सङ्कलन, सङ्कायना पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार । भगवान महावीरसे लेकर जिनसेनाचाय पर्यन्त के २१ महान जैनाचार्याक प्रभावक गुग्णस्मरणो से युक्त । मूल्य ॥) ५ अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड पञ्चाध्यायी तथा लादीमंहिता आदि ग्रन्थो के रचयिता पंडित राजमल्ल-विरचित अपूर्व आध्यात्मिक कृति, न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल कोठिया और पं० परमानन्दजी शास्त्रीक मरल हिन् । अनुवादादि-महिन तथा मुग्न्तार पण्डित जुगलकिशारजी-द्वारा लिग्वित विस्तृत प्रस्तावना से विशिष्ट । मूल्य शा) ६ उमास्वामिश्रावकाचार-परीक्षा मुब्तार श्रीजुगलकिशारी-द्वारा लिखित ग्रन्थ-परीक्षाओका इतिहाम-गहित प्रथम अश। मूल्य चार आने। ७ विवाह-समुद्दश्य प. जुगलकिशारजी मुख्तार-द्वारा रचित विवाहके रहस्यको बतलानेवाला और विवाहोंक अवमरपर वितरण करने योग्य सुन्दर कृति। ।।) D वीरसेवामन्दिर में मभो साहित्य प्रचारकी दृष्टिले नैयार किया जाता है, व्यवमायके लिये नहीं । इसीलिये काग़ज़, छपाई आदिके दाम बढ़ जानेपर भी पुस्तकोका मूल्य वही पुराना (सन १९४३का) रखा है। इतनेपर भी १०) से अधिककी पुस्तकोंपर उचित कमीशन दिया जाता है। । OG प्रकाशन विभाग–वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) | Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ काशीके प्रकाशन | PANAANAMA १. महाबंध-(महधवल सिद्धान्तशास्त्र) प्रथम भाग । हिन्दी टोका सहित मूल्य १२) । २. करलक्खण-(सामुद्रिक शास्त्र) हिन्दी अनुवाद सहित । हस्तरेखा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ । सम्पादक-प्रो० प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम० ए०, अमरावती। मूल्य १)। ३. मदनपराजय- कवि नागदेव विरचित (मूल संस्कृत) भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावना सहित । जिनदेवके कामके पराजयका सरस रूपक । सम्पादक और अनुवादक-पं० राजकुमारजी सा०। मू०८) ४. जैनशासन-जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करने वाली सुन्दर रचना । हिन्द विश्वविद्यालयके जैन रिलीजनके एफ० एक के पाठ्यक्रममे निर्धारित । मुखपृष्ठपर महावीरस्वामीका तिरङ्गा चित्र । मूल्य ४/-) ५. हिंदी जैन-साहित्यका संक्षिप्त इतिहास-हिन्दी जैन-माहित्यका इतिहास तथा परिचय । मूल्य २)। ६. आधुनिक जैन-कवि-वर्तमान कवियोंका कलात्मक परिचय और सुन्दर रचनाएँ । मूल्य ३|||| ७. मुक्ति-दत-अञ्जना-पवनञ्जयका पुण्यचरित्र (पौराणिक रौमांस) मू०४) ८. दो हजार वर्षकी पुरानी कहानियां-(६४ जैन कहानियाँ) व्याख्यान तथा प्रवचनों में उदाहरण देने योग्य । मूल्य ३)। ९. पथचिह्न-(हिन्दी-साहित्यकी अनुपम पुस्तक) स्मृति रेखाएँ और निबन्ध । मूल्य २)। १०. पाश्चात्यतर्क शास्त्र-(पहला भाग) एफ० ए० के लॉजिकके पाठ्यक्रमकी पुस्तक । लेखक-भिक्षु जगदीशजी काश्यप, एफ. ए०, पालि-अध्यापक, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी । पृष्ठ ३८४ । मूल्य ४॥। ११. कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्नमूल्य २)। १२. कमडग्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची-(हिन्दी) मूडबिद्रीके जैनमठ, जैनभवन, मिद्धान्तवसदि तथा अन्य प्रन्थभण्डार कारवल और अलिपूरके अलभ्य ताडपत्रीय प्रन्थोंके सविवरण परिचय । प्रत्येक मन्दिरमें तथा शास्त्र-भण्डारमें विराजमान करने योग्य । मूल्य १३)। एR वीरसेवामन्दिरके सब प्रकाशन भी यहाँपर मिलते हैं प्रचारार्थ पुस्तक मँगाने वालोंको विशेष सुविधाएँ A भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस । gayePATTERNE KINARORAREPREPARARAKHARWEARNIREENIERMERRYRANTIPS SASRAEXDESIGNMMCRACTERTAMAYAKY Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. A-731 शेर-ओ-शायरी FORIGIURIORGERIERGARMOKGhuKSakarSHTRNERacet [उर्दू के सर्वोत्तम १५०० शेर और १६० नज़्म] प्राचीन और वर्तमान करिने मनमान लोक-प्रिय ३१ कलाकारोंके मर्मस्पर्शी पद्योंका सङ्कलन और उर्दू-कविताकी गतिविधिका आलोचनात्मक परिचय प्रस्तावना-लेखक हिन्दी-साहित्य सम्मेलनके सभापति महापंडित राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं 'शेरोशायरी"के छ सौ पृष्ठोंमें गोयलीयजीने उर्दू - कविताके विकास और उसके चोटीके कवियोंका काव्य-परिचय दिया । यह एक कवि-हृदय, साहित्य-पारखीके श्राधे जीवनके परिश्रम और साधनाका फल है। हिन्दीको ऐसे अन्योकी कितनी आवश्यकता है. इसे कहनेकी आवश्यकता : नहीं । उर्दू-कवितासे प्रथम परिचय प्राप्त करनेवालोके लिये इन बातोका जानना अत्यावश्यक है। गोयलीयजी जैसे उर्दू-कविताके मर्मज्ञका ही यह काम था. जो कि इतने संक्षेपमें उन्होने उर्दू 'छन्द और कविता"का चतुमुखीन परिचय कराया । गोयलीयजीके संग्रहकी पंक्ति-पंक्तिसे उनकी अन्तदृष्टि और गम्भीर अध्ययनका परिचय मिलता है । मैं तो समझता हूँ इस विषयपर ऐसा प्रन्थ वही लिख सकते थे।" कर्मयोगीके सम्पादक श्रीसहगल लिखते हैं “वर्षोंकी छानबीनके बाद जो दुर्लभ सामग्री श्रीगोयलीयजी भेंट कर रहे हैं इसका जवाब हिन्दी-संसारमें चिराग़ लेकर ढूंढनेसे भी न मिलगा, यह हमारा दावा है।" पर मंग्या .. ! भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड, बनारस Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aw estinathainstituentldNIRMALAM - कार्तिक, मार्गशीर्ष २००५ :: नवम्बर, दिसम्बर १९४९ वीरसेवामन्दिरका त्रयोदशवर्षीय महोत्सव - - मा - mms - - - आज मुझे यह प्रकट करते हुए बड़ा ही भानन्द होता है कि भारतके महान् सन्त और आध्यात्मिक नेता पूज्य श्री १०५ शल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य वैशाख वदि १ ता० १४ अप्रल १९४६ को अपने सङ्घ-सहित वीरसेवामन्दिर सरसावा (सहारनपुर )में पधार रहे हैं और वे यहाँ एक सप्ताह तक ठहरेंगे। इस स्वर्णावसरपर वैशाख वदी ५ व ६ ता० १७, १८ अप्रेल दिन रविवार तथा सोमवारको वीरसेवामन्दिरके त्रयोदशवर्षीय अधिवेशनका आयोजन किया गया है। अतः समाजके सब सज्जनोंसे सानुरोध निवेदन है कि वे इस अपूर्व समारोहके शभावसर पर अपने परिवार तथा मित्रों-सहित अवश्य पधारनेकी कृपा करें और वीरसेवामन्दिरके अनेक उल्लेखनीय महत्वके साहित्यिक एवं ऐतिहासिक कार्योंका साक्षात्परिचय प्राप्त करनेके साथ ही पूज्य बणीजीके प्रवचनोंसे यथेष्ट लाभ उठावें । इस महोत्सवको सफल बनानेके लिये स्वागत-समितिका निर्माण होचुका है और उसने सोत्साह अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया है।। अधिष्ठाता वीरसेवामन्दिर सरसावा, जि. सहारनपुर संस्थापक प्रवर्तक बीम्मेबामन्दिर,मरमावा दमगरल जुगलकिशोर 'मुग्ख्तार मुनि कान्तिमागर | किरण दरबारीलाल न्यायाचार्य ११-१२) अयोध्याप्रमाद गोयलीय । सञ्चालक व्यवस्थापक भारतीय ज्ञानपीठ, काशी Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ संग ४. सन्मतिसिद्धसेनाचार्य मामा द्वात्रिशिका ४१० विषय पृष्ठ विषय १. सिद्धसेन-स्मरण ... ४०६ ७. सुधार-सूचना-[प्रकाशक ... ४७५ २. शासन-चतुर्विंशिका (मुनिमदनकीर्तिकृत)- ८. मानवजातिके पतनका मूलकारण [पं० दरबारीलाल कोठिया . ४१० संस्कृतिका मिथ्यादर्शन३. सिद्धसेन-स्वयंभूस्तुति (प्रथमा द्वात्रिशिका) [पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ४७७ [सिद्धसेनाचार्य प्रणीत ... ४१५ ६. चम्पानगर-श्यामलकिशोर झा ४८१ ४. सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन १०. सम्पादकीय (१)-राष्ट्र-भाषापर जैन[श्रीजुगलकिशोर मुख्तार .. ४१७ दृष्टिकोण [मुनि कान्तिसागर .. ४८३ ५. धर्म और वर्तमान परिस्थितियाँ सम्पादकीय (२) अनेकान्तकी वर्पसमाप्ति पिं० नेमिचन्द्र शास्त्री ४६७ और अगला वर्प-[जुगलकिशोर मुख्तार ४८७ ६. ब्रह्माश्रुतसागरका समय और साहित्य ११. प्रकाशकीय वक्तव्य[पं० परमानन्द जैन शास्त्री ४७४ [अयोध्याप्रमाद गायलीय . ४८६ ग्राहकोंसे ज़रूरी निवेदन इस संयुक्त किरणके साथ अनेकान्तका जहाँ हवाँ वर्ष समाप्त होरहा है वहाँ सब ग्राहकांका चन्दा भी समाप्त होरहा है। अगले वर्ष अनेकान्तका मुद्रण और प्रकाशन 'भारतीय-ज्ञानपीठ' काशीके तत्त्वावधानमें बनारससे समयपर हुआ करेगा, उसकी प्रथम किरण एक विशेषाङ्कक रूपमे छपना शुरू होगई है और वह सभी ग्राहकांका जिनका चन्दा नहीं आया है. अग्रलके प्रायः प्रथम मप्ताहमे वी० पासे भेजी जावेगी। अतः प्रेमी ग्राहकांसे सानुरोध निवेदन है कि वे बनारमस वी० पी० आनेपर उसे अवश्य छुड़ानेकी कृपा करे और विशपाङ्कके महत्वपूर्ण लेखासे यथेष्ट लाभ उठाये। -प्रकाशक अनेकान्तको प्राप्त सहायता वीरसेवामन्दिरको प्राप्त सहायता गत किरण नं०८मे प्रकाशित महायताके बाद अनेकान्तकी गत वा किरणमे प्रकाशित अनेकान्तको जो महायता प्राप्त हुई है वह निन्न महायताके बाद वीरसेवामन्दिरको जो सहायता प्रकार है और उसके लिये दातार महानुभाव प्राप्त हुई वह निम्न प्रकार है और उसके लिये धन्यवादके पात्र है: दातार महानुभाव धन्यवादके पात्र:११) श्रीशिखरचन्द दीनानाथ जैन, गञ्जमुगर २०१) रावराजा मर संठ हुकमचन्दजी नाईट, (ग्वालियर) सिद्धचक्रविधानके उपलक्षमे, इन्दौर (पीविवाहकी खुशामे निकाले हुए मार्फत श्रीवृजलाल जैन । दानमेस)। १०) श्रीदिगम्बर जैनममाज बाराबडी, मार्फत २५) श्रीमती कस्तूरीवाई जेन टोरा नीमतूरवाली कल्याणचन्दजी विशारद। इन्दौर, मार्फत श्रीदौलतराम जा मित्र'। ७) डा० पन्नालालजी जैन सम्भल. पुत्र विवाहाप- २५) ला० धूमोमल धर्मदासजा कागजी देहली लक्षमे, मार्फत विष्णुकान्तजी मुरादाबाद । और लाला मुंशीलालजा कागजी देहली २१) साहू रमेशचन्दजी नजोबावाद, साहू मूल- (पुत्र-पुत्रांक विवाहापलक्षमें निकाले हुए चन्दजाके स्वर्गवासपर निकाले दानमंसे । दानमसे) । १०) सेठ चम्पालाला पाटनी मु. राजशाही, १०) लाला शिव्बामलजी जैन अम्बाला छावनी विवाहोपलक्षम, मा० इन्द्रचन्दजी जैन । (गिद्धचक्रविधानके उपलक्षम) मार्फत पडित ५) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी कलकत्ता, दरवारीलालजी कोठिया। पुत्रविवाहापलक्षमे । १०) ला० नारायणदास रूढामलजी जैन शामिला० नारायणदास रूड़ामलजी शामियानेवाले यानेवाले, सहारनपुर (ला. रूड़ामलजीके सहारनपुर, ला० रूड़ामलजीके स्वर्गवासपर। स्वर्गवाससे पूर्व निकाले हुए दानमेसे)। ५) श्रीभागचन्द दयाचन्दजी जैन, गोंदिया सी० ७) ला० सुरेन्द्रकुमार प्रकाशचन्दजी जैन, सुलपी०, पुत्रविवाहोपलक्षमें। तानपुर जि. सहारनपुर (विवाहोपलक्षमें)। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 'सन्मति - सिद्धसेना' मूल्य वार्षिक ५) विश्व तत्व-प्रकाशक अहम् नीतिविशेष ध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । | परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ तत्व-संघातक वर्ष ६ बोरसेवामन्दिर ( समन्तभद्राश्रम ), सरसावा, जिला सहारनपुर किरण ११ कार्तिक शुक्ल, बीरनिर्वाण - सवत् २४७, विक्रम संवत् २००५ सिद्धसेन - स्मरण जगत्प्रसिद्ध-बोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः । बोधयन्ति सतां बुद्धि सिद्धसेनस्य सूक्तयः ॥ - हरिवंशपुराणे, श्री जिनसेनः प्रवादि-करि-यूथानां केशरी नय- केशरः । सिद्धसेन - कविर्जीयाद्विकल्प - नखराङ्कुरः ॥ - श्रादिपुराणे, भगवज्जिनसेनः सदाऽवदातमहिमा सदा ध्यान-परायणः । सिद्धसेन - मुनिर्जीयाद्भट्टारक - पदेश्वरः || - रत्नमालायां, शिव कोटि : मदुक्ति- कल्पलतिकां सिञ्चन्तः करुणाऽमृतैः । कवयः सिद्धसेनाद्या वर्धयन्तु हृदिस्थिताः || - यशोधरचरिते, कल्याणकीर्तिः नवम्बर १६४८ N इस किरणका मूल्य १) Ni Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमन्मुनिमदनकीर्ति-विरचिता शासन-चतुस्त्रिंशिका [यह मुनि मदनकीर्ति विरचित एक सुन्दर एवं प्रौद रचना है। इसमें दिगम्बर शासनका महत्व ख्यापित करते हुए उसका जयघोष किया गया है। जहाँ तक हमेशात है इसकी मात्र एक ही प्रति उपलब्ध है और जो पिछले वर्ष श्रद्धय पं० नाथूरामजी प्रेमी बम्बई के पाससे पं० परमानन्दजीद्वारा वीरसेवामन्दिरको प्राप्त हुई थी। यह पाँच पत्रात्मक सटिष्पण प्रति बहुत कुछ जीर्ण-शीर्ण है और लगभग चालीस-पैंतालीस स्थानोंपर इसके अक्षर अथवा पद वाक्य, पत्रोफे परस्पर चिपक जाने आदिके कारण प्रायः मिट-से गये हैं और जिनके पढ़ने में बड़ी कठिनाई महसूस होती है। प्रेमीजीने भी यह अनुभव किया है और अपने 'जैनसाहित्य और इतिहास' (पृ. १३६)में लिखा है-"इस प्रतिमें लिखनेका समय नहीं दिया है परन्तु वह दो-तीनसौ वर्षसे कम पुरानी नहीं मालूम होती। जगह जगह अक्षर उड़ गये है जिससे बहुतसे पद्य पूरे नहीं पढ़े जाते।" हमने सन्दर्भ, अर्थसंगति, अक्षरविस्तारक यंत्र आदि साधनोंद्वारा परिश्रमके साथ सब जगहके अक्षरोंको पढ़कर पद्योंको पूरा करनेका प्रयत्न किया हैसिर्फ दो जगह के अक्षर नहीं पढ़े गये और इसलिये उनके स्थानपर बिन्दु " बना दिये गये हैं। अब तक इस कृतिके प्रकाशमें न आसकने में संभवतः यही कठिनाई बाधक रही जान पड़ती है । अस्तु । इस कृतिमें कुल ३६ पद्य हैं। पहला पद्य अगले ३२ पद्योंके प्रथमाक्षरोंसे बनाया गया है जो अनुष्टुप वृत्तमें है और अन्तिम पद्य प्रशस्ति-पद्य है जिसमें रचयिताने अपने नामोल्लेखके साथ अपनी कुछ अात्म-चर्याका संसूचन (निवेदन) किया है और जो मालिनी छन्दमें है। शेष ३४ पद्य ग्रन्थविषयसे सम्बद्ध है और शार्दूलविक्रीडित वृत्तमें हैं। इन चौतीस पद्योंमे दिगम्बर शासनकी महिमा और विजयकामना प्रकट को गई है। अतएव यह मदनकीर्तिकी रचना 'शासनचतुस्चिशि (शति)का' अथवा 'शासनची तीसी' जैसे सार्थक नामोसे जनसाहित्यमें प्रसिद्धिको प्राप्त है। इसमे विभिन्न स्थानों और वहाँ के दिगम्बर जिनबिम्बोंके अतिशयों, प्रभावों और चमत्कारोंके प्रदर्शनद्वारा यह बतलाया गया है कि दिगम्बर शासन सब प्रकारसे जयकारकी क्षमता रखता है और उसके लोकमे बड़े ही प्रभाव तथा अतिशय रहे हैं। कैलाशके जिनबिम्ब, पोदनपुरके बाहुबली, श्रीपुरके पार्श्वनाथ, हुलगिरिके शखजिन, धाराके पार्श्वनाथ, बृहत्पुरके बृहदेव, जैनपुर (जैनबद्री)के दक्षिणगोम्मट, पूर्वदिशाके पार्श्वजिनेश्वर, वेत्रवती (नदी)के शान्तिजिन, उत्तरदिशाके जिनबिम्ब, सम्मेदशिखरके बीस तीर्थकर, पुष्पपुरके श्रीपुष्पदन्त, नागद्रहतीर्थके नागहृदेश्वरजिन, सम्मेदशिखरकी अमृतवापिका, पश्चिमसमुद्रतटके चन्द्रप्रभजिन, छायापाव विभु, श्रीश्रादिजिनेश्वर, पावापुरके भीवीरजिन, गिरनारके श्रीनेमिनाथ, चम्पापुरीके श्रीवासुपूज्य, नर्मदाके जलसे अभिषिक्त श्रीशान्तिजिनेश्वर, अवरोधनगरफे मुनिसुव्रजिन, विपुलगिरिका जिनाबम्ब, विन्ध्यगिरिके जिनचैत्यालय, मेदपाट (मेवाड़) देशस्थ नागफणीग्रामके श्रीमलिजिनेश्वर और मालवदेशस्थ मगलपुर के श्रीअभिनन्दनजिन इन २६ के अतिशयो तथा चमत्कारोंका इसमें कथन है। साथ ही, यह भी प्रतिपादन किया गया है कि वैशेषिक (कणाद), मायावी, योग, साख्य, चार्वाक और बादों द्वारा भी दिगम्बर शासन समाभित हुआ है। इस तरह यह रचना एक प्रकारसे दिगम्बर शासनके प्रभावकी प्रकाशिका है। इसके कर्ता मुनिमदनकीर्ति प० श्राशाधरजीके, जिनका समय विक्रमकी १३वीं शताब्दी सुनिश्चित है, समकालीन थे श्रार इसलिये इनका समय भी वि० की १२वीं शताब्दी है। प्रस्तुत रचना हिन्दी अनुवाद के साथ वारसेवामन्दिरसे यथाशीघ्र प्रकाशित की जायेगी। ओर उसमें रचना तथा रचयिताके सम्बन्धमे विस्तृत प्रकाश डाला जायेगा। -दरबारीलाल कोठिया] Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 999999६ Jeeeeeee शासन- चतुखिशिका यत्पापनासाद्वालोयं ययौ सोपास्त्रयं स्मयं । शुक्षत्यसौ यतिर्जेनमृचुः श्रीपूज्यसिद्धयः ॥ १॥ यद्दीपस्य शिखेव भाति भविनां नित्यं पुनः पर्वसु भूभृन्मूर्द्धनि बासिनामुपचित- प्रीति प्रसन्नात्मनाम् । कैलाशे जिनबिम्बमुत्तमधमत्सौवर्णवणं सुरा वन्द्यन्तेऽद्य दिगम्बरं तदमलं दिग्वाससां शासनम् ॥ १ ॥ पादाङ्गुष्ट-नख- प्रभासु भविनामाऽऽभान्ति पश्चाद्भवा यस्यात्मीयभवा जिनस्य पुरतः स्वस्योपवास- प्रमाः । अद्यापि प्रतिभाति पोदनपुरे यो वन्द्य-वन्द्यः स वै देवो बाहुबली करोतु बलवद्दिग्वाससां शासनम् ॥ २ ॥ पत्रं यत्र विहायसि प्रविपुले स्थातुं क्षणं न क्षमं तत्राssस्ते गुणरत्नरोहण गिरिर्यो देवदेवो महान् । चित्रं नाऽत्र करोति कस्य मनसो दृष्टः * पुरे श्रीपुरे स श्रीपार्श्वजिनेश्वरो विजयते दिग्वाससा शासनम् ॥ ३ ॥ वासं सार्थपतेः पुरा कृतवतः शङ्खान् गृहीत्वा बहून् सद्धर्मोद्यतचेतसो हुल गिरौ कस्याऽपि धन्यात्मनः । प्रातर्मार्गमुपेयुषो न चलिता शङ्खस्य गोणी पदं यावच्छजिनो ६ निरावृति 'रभादिग्वाससां शासनम् ॥ ४ ॥ सानन्दं निधयो नवाऽपि नवधा यं स्थापया किरे वाप्यां पुण्यवतः स कस्यचिदहो स्वं स्वादिदेश प्रभुः " । धारायां धरणारगाधिप शितच्छत्र - श्रिया राजते श्रीपार्श्वो नवखण्ड-मण्डित-तनुर्दिग्वाससां शासनम् २ ॥ ५ ॥ द्वापञ्चाशदनूनपाणिपरमोन्मानं करे: पाभियं चक्रे जिनमर्ककीर्तिनृपतिर्माचाणमेकं महत ४ । तन्नान्ना स बृहत्पुरे वरबृहद्द वाख्यया गीयते श्रीमत्यादिनिषिद्धिकेयमत्रतादिग्वाससां शासनम ॥ ६ ॥ लोकैः पञ्चशतीमितैरविरतं सहत्य निष्पादितं यत्कक्षान्तरमेकमेव महिमा सोऽन्यस्य कस्याऽस्तु भो ! । यो देवैरतिपूज्यते प्रतिदिन जैने पुरे साम्प्रतं देवा दक्षिणगोम (म्म)टः स जयताद्दिग्वाससां शासनम् ॥ ७ ॥ यं दुष्टो न हि पश्यति चणमपि प्रत्यक्षमेवाऽखिलं सम्पूर्णावयवं मरीचिनिचयं शिष्टः पुनः पश्यति । १ (प्रेतन) वृत्तानामाद्यक्ष ( निर्मितः) श्लोकोऽयम् । २ श्रग्रतः अभवाः श्रात्मीयभवाः श्रभान्ति । ३ यः पार्श्वजिनेश्वरः तत्र विहायसि नभमि ) श्रास्ते । ४ दृष्टः सन् । ५ सागरदत्ताभिधानस्य । ६ तावत् शंखदेवः । ७ दिगम्बररूपः । कर्त्तारः । ६ कर्मतापत्र | १० स्वकीय स्वरूपं । ११ यः प्रभुः श्रीपार्श्वनाथः । १२ प्रति । १३ पचभिः करैः सह द्वापञ्चाशत् सप्तपञ्चाशत् इत्यर्थः । १४ कथंभूतं शासनं महत् । १५ स जिनः । ९६ इयं श्रीमती आदि निषिद्धिका इति च लोकैर्गीयते । ४१ EEEEEE Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानकान्त GEEEEEEEEEEEEECCCCCCCEEEEEEEEEEEEEEEEEESel पूर्वस्यां दिशि पूर्वमेव पुरुषैः सम्पूज्यते' सन्ततं स श्रीपार्श्वजिनेश्वरो दृढयते दिग्वाससा शासनम् ॥ ८ ॥ यः पूर्व भुवनेकमण्डनमणिः श्रीविश्वसेनाऽऽदरात् निश्चक्राम महादधेरिव हृदात्सदत्रवत्याद्भुतम् । क्षुद्रोपद्रव - वर्जितोऽवनितले लोक नरीनर्तयन् स श्रीशान्तिजिनेश्वरो विजयते दिग्वाससां शासनम् Hell योगा यं परमेश्वरं हि कपिलं सांख्या निज' योगिनो बौद्धा बुद्धमज हरिं द्विजवरा जल्पन्त्युदीच्यां दिशि । निश्वीरं वृषलाञ्छनं ऋजुतनुं देवं जटाधारिणं निर्ग्रन्थं परमं तमाहुरमलं दिग्वाससां शासनम् ॥१०॥ सोपानेषु सकष्टमिष्ठसुकृतादारुह्य यान् वन्दति सौधर्माधिपतिप्रतिष्ठितवपुष्काये जिना' विशतिः । प्रख्याः स्वप्रमितिप्रभाभिरतुला सम्मेदपश्वीरुहि भव्योऽन्यस्तु न पश्यति ध्रुवमिदं दिग्वाससां शासनम् ॥११।। पाताले परमादरेण परया भक्त्याऽचितो व्यन्तरैयो देवरधिकं स तोपमगमत्कस्यापि पुंसः पुरा । भूभृन्मध्यतलादुपयनुगतः'' श्रीपुष्पदन्तः प्रभुः श्रीमत्पुष्पपुरे विभाति नगरे दिग्वाससां शासनम् ॥१२॥ सप्टेति द्विजनायकहरिरिति .... ... वेश्रवै बौध्देर्बुद्ध इति प्रमोदविवशैः शलीति माहेश्वरः । कुष्टानिष्ट-विनाशनो जनदृशां योऽलक्ष्यमूर्ति विभुः स श्रीनागहृदेश्वरो जिनपतिदिग्वाससां शासनम् ॥१३॥ यस्याः पाथसि नामविंशतिभिदा पूजाअष्टधा क्षिप्यते मंत्रोचारण- बन्धुरेण युगपन्निर्ग्रन्थरूपात्मनाम् । श्रीमत्तीर्थकृतां यथायथमियं संसंपनीपद्यने सम्मेदामतवापिकेयमवताहिग्वाससां शासनम् ॥१४॥ स्मार्ताः। पाणिपुटोदनादनमिति ज्ञानाय मित्र-द्विपोरात्मन्यत्र च साम्यमाहुरसकृन्नर्ग्रन्थ्यमेकाकितां । प्राणि-क्षान्तिमद्वेषतामुपशम वेदान्तिकाश्चापरेर तद्विद्धि प्रथमं पुराण-कलितं दिग्वाससां शासनम्। ॥१५॥ यस्य स्नानपयोऽनुलिप्तमखिलं कुष्ट दनीध्वस्यते सौवरणस्तवकेशनिम्मितमिव क्षेमङ्करं विग्रहम् । शश्वद्भक्तिविधायिनां शुभतमं चन्द्रप्रभः स प्रभुः तीर पश्चिमसागरस्य जयताहिग्वाससां शासनम् ॥१६॥ शुद्धे सिद्धशिलातले सुविमले पञ्चामृतस्नापिते कपूरागुरु-कुंकुमादिकुसुमैरभ्यर्चिते सुन्दरैः । BCCCESCECESSESCCCCCCCRECEGESSEEEEEEEEEEEEE १ यः सम्पूज्यते । २ प्रति । ३ निजं परमेश्वरं । ४ ब्रह्माणं । ५ श्रवस्त्र । ६ प्रति । ७ सन्तीति अध्याहारः । तु पुनः । ६ कस्यचित् । १. सन् । ११ प्रति । १२ सन् । १. प्रति । १४ स्मृतिपाठकाः। १५ आहुः इति क्रिया अत्रापि योज्या। १६ प्रति। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] शासन-चतुर्विंशिका [ ४१३ BREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE8888er फुल्लत्कार - फणापति-स्फुटफटा - रत्नावली-भासुरः छायापार्श्वविभुः भ भाति जयतादिग्वाससा शासनम् ॥१७॥ क्षाराम्भोधिपयः सुधाद्रव इव प्रत्यक्षमाऽऽस्वाद्यते ............. ......... ..." रसकृत् यच्छायया संभरत् । पूर्तपूततमः स पञ्चशतको दण्डप्रमाणः प्रभुः श्रीमानादिजिनेश्वरो स्थिरयते दिग्वाससां शासनम् ॥१८॥ तिर्यञ्चोऽपि नमन्ति यं निज-गिरा गायन्ति भक्त्याशया दृष्टेयस्य पदद्वये शुभदृशो' गच्छन्ति नो दुर्गतिम् । देवेन्द्रार्चित • पाद - पङ्कज- युगः पावापुरे पापहा श्रीमद्वीरजिनः स रक्षतु सदा दिग्वाससां शासनम् ॥१६॥ सौराष्ट्र यदुवंश-भूषण-मणेः श्रीनेमिनाथस्य या मूर्तिर्मुक्तिपथोपदेशन - परा शान्ताऽऽयुधाऽपोहनात् । वस्त्रैराभरणविना गिरिवर देवेन्द्र-संस्थापिता चित्त-भ्रान्तिमपाकरोतु जगतो दिग्वासमां शासनम् ॥२०॥ यस्याऽद्याऽपि सुदुन्दुभि-स्वरमलं पूजां सुराः कुर्वते भव्य प्रेरित-पुष्प-गन्ध-निचयोऽध्यारोहति दमा (भू) तले । नित्यं नृतन-पूजयाऽर्चित - तनुः श्रीवासपूज्योऽवभात् चम्पायां परमेश्वरः सुखकरो दिग्वाससां शासनम् ।। २१॥ तिर्यग्वेपमुपास्य पश्यत तपो वैशेपिकेना(णा)ऽऽदरात् भव्योत्सृष्ट- कणरवश्यमसम-ग्रासं सदा कुर्वता । चक्रे घोरमनन्यचीर्णमखिल काऽऽनिहन्तु त्वरा तत्तेनाऽपि समाश्रित सुविशदं दिग्वामसां शासनम् ।। २२ ।। जैनाभासमत विधाय कुधिया यैरप्यदो मायया ह्रस्वारम्भ-ग्रहाश्रया हि विविधग्रामः स वासा (सां) पतिः । भाण्डांदण्डकरीऽर्यंत म च पुनः निर्ग्रन्थलेशस्ततो युक्त्या तैपि माधु भापितमिदं दिग्वाससां शासनम ॥२३॥ नाऽभुक्तं किल कर्मजालमसकृत संहन्यते जन्मिनां योगा इत्यवबुध्य भस्म - कलितं देह जटा-धारिणे । मून स्थाचरणं च भक्ष्यमशनं ये चक्रिरे तैरपि प्रोक्तं हि प्रथमं प्रवन्धममलं दिग्बाससां शासनम ॥२४॥ मूर्तिः कम शुभाऽशुभं हि भविनां मुंक्त पुनश्चेतनः शुद्धो निर्मल-नि:क्रिया-गुण इहाऽकर्त्तति सांख्योऽब्रवीत । संसर्गस्तददृष्टरूपजनितस्तेनाऽपि संमन्यते वै तेनाऽपि समाश्रित सुविशदं दिग्वासमां शासनम् ॥२५॥ चार्वाकेश्वरितोज्झितैरभिमतो जन्मादि-नाशान्तको जीवः क्षमादिमयस्तथाऽस्य न पुनः स्वर्गापवर्गों कचिन । RECEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEBBS, १ प्रति । २ सति । ३ सम्यग्दृष्टयः । ४ गिरिनारपर्वते । ५ प्रति । ६ यस्येति अत्रापि on सम्बन्धो (सम्बद्धयते इति) ज्ञेयः। श्रात्मा। ८शुद्धः सन् | ६ जन्म श्रादौ यस्य स जन्मादिः । आ नाशोऽन्ते यस्यासो नाशान्तः। पश्चात् कर्मधारयः। स्वायें कः। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४] बनेकान्त - न्यायाऽऽयातवचोऽनुसार-धिषणैरात्मान्तर मन्यते यैस्तैव (स्तै)चितमेव देवपरम दिग्याससां शासनम् ।।२६।। श्रीदेवीप्रमुखाभिरर्चितपदाम्भोजः सुरा (मुदा)पि कचिन् कल्याणेऽत्र निवेशितः पुनरतो मो चालितुं शक्यते । यः पूज्यो जलदेवताभिरतुल - सन्नर्मदा - पाथसि श्रीशान्तिविमलं म रक्षतु सदा दिग्वासमां शासनम ॥२७॥ पूर्व या श्रममाजगाम सरितां नाथास्तु दिव्या शिला तस्यां देवगणान् द्विजस्य दधतस्तस्थौ जिनेशः स्थिरम । कोपाद्विप्रजनावरोधनगरे देवैः प्रपूज्याम्बरे दः यो मुनिसुव्रतः स जयतादिग्बाससां शासनम ॥२८॥ जा(ज्या)यानामपरिग्रहोऽपि भविनां भूयाद्यदि अयसे तत्कस्यास्ति न सोऽधमोऽपि विधिना हस्वस्तदर्थं मतः । क्षीणारम्भपरिग्रहं शिवपदं को वा न वा मन्यते इत्याऽऽलौकिकभाषितं विजयते दिग्वाससां शासनम् ||२६|| सिक्ते सत्सरितोऽम्बुभिः शिखरिणः सम्पूज्य देशे वरे सानन्दं विपुलस्य शुद्धहदयरित्येव भव्यैः स्थितैः । निर्ग्रन्थं परमहतो यदमलं बिम्बं दरीदृश्यते याववादशयोजनानि तदिदं दिग्वामसां शासनम् ।। ३०॥ धर्माऽधर्म-शरीर-जन्य - जनक -स्वर्गापवर्गादिके मर्वस्मिन् क्षणिके न कस्यचिदहो तद्वन्ध-मोक्ष-क्षणः । इत्याऽऽलोच्य सुनिर्मलेन मनमा तेनापि यन्मन्यते बौद्धनाऽऽत्मनिबन्धनं हि तदिदं दिग्याससां शासनम् ॥३१॥ यस्मिन् भूरिविधातुरेकमनसो भक्ति नरस्याऽधुना तत्काल जगतां त्रयऽपि विदिता जैनेन्द्रबिम्बालयाः । प्रत्यक्षा इव भान्ति निर्मलदशा देवेश्वराऽभ्यर्चिता विन्ध्ये भूरूहि भासुरऽतिमहिते दिग्वाससां शासनम् ॥३२॥ आस्ते सम्प्रति मेदपाटविषये ग्रामो गुणग्रामभूनाम्ना नागफणीति तत्र कृषता लब्धा शिला केनचित । स्वप्नं बद्धमहार्जिकामिह ददी स्वाकारनिर्मापणे स श्रीमल्लिजिनेश्वरो विजयते दिग्वामसां शासनम् ॥३३॥ श्रीमन्मालवदेश • मङ्गलपुरे म्लेच्छैः प्रतापागतः भग्ना मूर्तिरथोऽभियोजित-शिराः सम्पूर्णतामाऽऽययो। यस्योपद्रवनाशिनः कलियुगेऽनेकप्रभावयुतः स श्रीमानभिनन्दनः स्थिरयते दिग्वासमां शासनम् ॥३४॥ इतिहि मदनकीर्तिश्चिन्तयन्नाऽऽत्मचित्ते विगलति सति रात्रेस्तुर्यमागार्द्धभागे । कपट-शत-विलासान दुष्टवागन्धकारान् जयति विहरमाणः साधुराजीव-बन्धुः ॥३५॥ REEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE इति शासनानुचुत्रीसी (चतुर्विंशिका) समाना। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेन-स्वयम्भूस्तुतिः [प्रथमा द्वात्रिंशिका ] (उपजातिः) स्वयम्भुवं भूत-सहस्रनेत्रमनेकमेकाक्षर-भाव-लिङ्गम । अव्यक्तमव्याहत-विश्वलोकमनादिमध्यान्तमपुण्यपापम् ।। १ ।। समन्त-सर्वाक्ष-गुणं निरक्ष स्वयम्प्रभ सर्वगताऽवभासम् । अतीत-संख्यानमनन्तकल्पमचिन्त्यमाहात्म्यमलोकलोकम् ।। ।। कुहंतु-तर्कोपरत-प्रपञ्च-सद्भाव-शुद्धाऽप्रतिवादवादम् । प्रणम्य सच्छासन-वर्धमान स्तोष्ये यतीन्द्र जिनवर्धमानम् ।।३।। न काव्य-शक्तर्न परस्परेय॑या न वीर-कीर्ति-प्रतिबोधनेच्छया । न केवलं श्राद्धतयैव नृयसे गुणज्ञ-पूज्योऽसि यतोऽयमादरः ॥ ४॥ परस्पराक्षेप-विलुप्त-चेतसः स्ववाद-पूर्वाऽपर-मूढ-निश्चयान् । समीक्ष्य तत्त्वात्पथिकान् कुवादिनः कथं पुमान स्याच्छिथिलादरस्त्वयि ॥५॥ वदन्ति यानेव गुणान्धचेतसः समेत्य दोपान किल ते स्वविद्विपः । त एव विज्ञान-पथागताः सतां त्वदीय-सून-प्रतिपत्ति-हेतवः ॥६॥ कृपां वहन्तः कृपरणेपु जन्तुपु स्वमांस-दानेष्वपि मुक्तचेतसः । त्वदायमप्राप्य कृतार्थकौशलं स्वतः कृपां संजनयन्त्यमेधसः ॥७॥ जनाऽयमन्यः कमणात्मकैरपि स्वनिष्ठित-लश-विनाश-काहलैः । विकुत्मयंस्त्वदूचनाऽमृनौपधं न शान्तिमाप्नोति भवाति-विलवः ।।८।। प्रपश्चित-तुल्लक-तर्क-शामनैः पर-प्रणेयाऽल्पमतिर्भवासनैः । त्वदीयमन्मार्गविलोमचेष्टितः कथं नु न म्यात्मुचिरं जनाऽजनः ।।६।। परस्परं क्षुद्रजनः प्रतीपगानिहैव दण्डेन युनक्ति वा न वा । निरागसस्त्वत्प्रतिकूलवादिनो दहन्त्यमुत्रेह च जाल्मवादिनः ॥१०॥ अविद्यया चेद्यगपद्विलक्षणं क्षणादि कृत्स्नं न विलोक्यते जगत । ध्रवं भवद्वाक्पविलोमदुर्नयांश्चिरानुगांस्तानुपगृह्य शेरते ||१|| समृद्धपत्रा अपि मच्छिखण्डिनो यथा न गच्छन्ति गतं गरुत्मतः । सुनिश्चितज्ञेयविनिश्चयास्तथा न ते गतं यातुमलं प्रवादिनः ॥१२॥ य एष षड़जीव-निकाय-विस्तरः परैरनालीढपथस्त्वयोदितः । अनेन सर्वज्ञ-परीक्षण-क्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः ।।१३।। वपुः स्वभावस्थमरक्तशोणितं पराऽनुकम्पासफलं च भाषितम् । न यस्य मर्वज्ञ-विनिश्चयस्त्वयि द्वयं करोत्येतदसौ न मानुषः ॥१४॥ अलब्धनिष्ठाः प्रसमिद्धचेतसस्तव प्रशिष्याः प्रथयन्ति गद्यशः । न तावदप्येकसमूह-संहताः प्रकाशयेयुः परवादि-पार्थिवाः ॥१५।। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदान संसार-विकार-संस्थितिविगाह्यते त्वत्प्रतिघातनोन्मुखैः । शठस्तदा सजनवल्लभोत्सवो न किञ्चिदस्तीत्यभयैः प्रबोधितः ॥१६॥ स्वपक्ष एवं प्रतिबद्धमत्सरा यथाऽन्यशिष्याः स्वरुचि-प्रलापिनः । निरुक्तसूत्रस्य यथार्थवादिनो न तत्तथा यत्तव कोऽत्र विस्मयः ॥१७॥ नय-प्रमङ्गाऽपरिमयविस्तरैरनेकभङ्गाऽभिगमार्थ-पेशलैः । अकृत्रिम.स्वादुपदैर्जनं जनं जिनेन्द्र साक्षादिव पासि भाषितैः ॥१८।। विलक्षणानामविलक्षणा सती त्वदीयमाहात्म्य-विशेष-सम्भली । मनांसि वाचामपि मोह पिच्छलान्युपेत्य तेऽत्यद्भुत भाति भारती ।।१।। असत्सदेवेति परस्पर-द्विषः प्रवादिनः कारण-कार्य-तार्किणः । तुदन्ति यान वाग्विषकण्टकान्न तैभवाननेकान्त शिवोक्तिर्यत ॥२०॥ निमर्ग-नित्य-क्षणिकार्थ वादिनः तथा महत्सूक्ष्म-शरीर-दर्शिनः । यथा न मम्यहमतयस्तथा मुने भवाननेकान्त-विनीतमुक्तवान ॥२१॥ मुखं जगद्धर्मविविक्ततां परे वदन्ति तेष्वेव च यान्ति गौरवम । त्वया तु येनैव मुखेन भाषितं तथैव ते वीर गतं सुतैरपि ||२२|| तपोभिरेकान्त-शरीर-पीडनैर्ऋताऽनुबन्धैः श्रत-सम्पदाऽपि वा । त्वदीय-वाक्य-प्रतिबोध-पेलवैरवाप्यते नैव शिवं चिरादपि ।।२३।। न राग-निभंसन-यन्त्रमीदृशं त्वदन्यदृग्भिश्चलितं विगाहितम् । यथेयमन्तःकरणोपयुक्तता बहिश्च चित्रं कलिलामनं तपः ||२४|| विराग-हेतु-प्रभवं न चेत्सुख न नाम तत्किश्चिदिति स्थिता वयम् । स चेन्निमित्तं स्फुटमेव नास्ति न त्वदन्यतः स त्वयि येन केवलः ।।२।। न कर्म कर्तारमतीत्य वर्तते य एव कर्ता स फलान्युपाते । तदष्टधा पुद्गल मूर्ति-कर्मजं यथात्थ नैवं भुवि कश्चनाऽपरः ॥२६॥ न मानसं कर्म न देहवाङ्मयं शुभाऽशुभ-ज्येष्ठ-फलं विभागशः । यदात्थ तेनैव समीक्ष्य-कारिणः शरण्य सन्तस्त्वयि नाथ बुद्धयः ॥७॥ यदा न कोपादि-वियुक्त लक्षणं न चाऽपि कोपादि-ममम्त-लक्षणम । त्वमात्थ सत्त्वं परिणाम लक्षण तदेव ते वीर विबुद्धलक्षणम | क्रियां च सज्ञान-वियोग निष्फलां क्रिया विहीनां च विबोध-सम्पदम । निम्म्यता लश-समूह-शान्तयं त्वया शिवायाऽऽलिग्वितेव पद्धतिः न्हा मुनिभितं नः परतन्त्र-युक्तिषु स्फुरन्ति याः काशनसूक्त सम्पदः । तवैव ताः पूर्वमहार्णवात्थिता जगत्प्रमाणं जिन वाक्यविः पः ॥३०॥ शता बराद्या लवसप्तमोत्तमाः सुरभा दृष्टपरापरास्त्वया । त्वदीय योगाऽऽगम-मुग्ध शक्तयस्त्यजन्ति मानं सुरलोकजन्मजम ॥३॥ (शिखरिणी) जगन्नकावम्थं युगपदखिलाऽनन्त विषय यदेतत्प्रत्यक्षं तव न च भवान कस्यचिदपि । अनेनैवाऽचिन्त्य-प्रकृतिरम सिद्धस्तु विदुषां समीक्ष्यैतद्वारं तव गुणकथात्का वयमपि ॥३२॥ इति श्रीसिद्धसेनाचार्य-प्रणीत-स्वयम्भूस्तुतिः । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन [श्रीजुगलकिशोर मुख्तार] 'सन्मतिमूत्र' जैनवाङमयमें एक महत्वका गौरवपूर्ण ग्रन्थरत्न है, जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें समानरूपसे माना जाता है । श्वेताम्बरामें यह 'सम्मतितक', 'सम्मतितर्कप्रकरण' तथा 'मम्मतिप्रकरण' जैन नामोसे अधिक प्रसिद्ध है, जिनमे सन्मति'की जगह 'सम्मति' पद अशुद्ध है और वह प्राकृत 'सम्मइ' पदका गलत संस्कृत रूपान्तर है। पं० सुखलालजी और पं० बेचरदामजीने, ग्रन्थका गुजगनी अनुवाद प्रस्तुत करते हुए प्रस्तावनामें इस गलतीपर यथेष्ट प्रकाश डाला है और यह बतलाया है कि 'सन्मति' भगवान महावीरका नामान्तर है जो दिगम्बर-परम्परामें प्राचीनकालसे प्रसिद्ध तथा 'धनञ्जयनाममाला मे भी उल्लेखित है, ग्रन्थ-नामके साथ उसकी योजना होनेसे वह महावीरके सिद्धान्तोके साथ जहाँ प्रन्थके सम्बन्धको दर्शाता है वहाँ श्लेपरूपसे श्रप्टमति अर्थका सूचन करता हुश्रा प्रन्थकर्ताके योग्य स्थानको भी व्यक्त करता है और इसलिये औचित्यकी दृष्टिसे 'सम्मति के स्थानपर 'सन्मति' नाम ही ठीक बैठता है। तदनुसार ही उन्होंने ग्रन्थका नाम 'सन्मति-प्रकरण' प्रकट किया है। दिगम्बर-परम्पराके धवलादिक प्राचीन ग्रन्थोंमे यह सन्मतिसूत्र (मम्मइसुत्त) नामसे ही उल्लेग्वित मिलता है। और यह नाम मन्मति-प्रकरण नामसे भी अधिक औचित्य रखता है। क्योंकि इसकी प्रायः प्रत्येक गाथा एक सूत्र है अथवा अनेक सूत्रवाक्यांको साथमे लिये हुए है। पं० सुखलालजी आदिने भी प्रस्तावना (पृ० ६३)में इस बातको स्वीकार किया है कि 'सम्पूर्ण मन्मान ग्रन्थ सूत्र कहा जाता है और इसकी प्रत्येक गाथाको भी सूत्र कहा गया है।' भावनगरकी श्वेताम्बर सभासे वि० सं० १९६५मे प्रकाशित मूलप्रतिमें भी "श्रीसंमतिसूत्र समाप्तमिति भद्रम” वाक्यके द्वारा इसे सूत्र नामके साथ ही प्रकट किया है-तर्क अथवा प्रकरण नामके साथ नहीं। इसकी गणना जैनशामनके दर्शन-प्रभावक ग्रन्थोमें है । श्वेताम्बगेंके 'जीतकल्पचूर्णि ग्रन्थकी श्रीचन्द्रमूरि-विरचित विपमपदव्याग्न्या' नामकी टीकामें श्रीअकलङ्कदेवके 'सिद्धिविनिश्चय' ग्रन्थके साथ इम 'सन्मति' ग्रन्थका भी दर्शन-प्रभावक ग्रन्थोमे नामोल्लेग्व किया गया है और लिखा है कि से दर्शनप्रभावक शास्त्रोका अध्ययन करते हुए माधुको अकल्पित प्रतिसेवनाका दोप भी लगे तो उसका कुछ भी प्रायश्चित्त नहीं है वह साधु शुद्ध है।' यथा “दमण त्ति-दमण-पभावगाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छय-सम्मत्यादि गिण्हंतोsसंथरमाणो जं अकप्पियं पडिसेवइ जयणाए तत्थ सो सुद्धोऽप्रायश्चित्त इत्यर्थः ।" इससे प्रथमाल्लंग्विन मिद्विविनिश्चयको तरह यह ग्रन्थ भी कितने अमाधारण महत्वका है इमे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते है। एसे ग्रन्थ जैनदर्शनकी प्रतिष्ठाका स्व-पर हृदयोमे अङ्कित करनेवाले होते है। तदनुसार यह ग्रन्थ भी अपनी कीर्तिको अक्षुण्ण बनाय हुए है। १ "अणेण सम्मइसुत्तेण सह कथमिदं वक्खाणं ण विरुज्झदे ? इदि ण, तत्थ पजायस्स लक्तणं खदणो भावब्भुवगमादो।" (धवला १) ‘ण च सम्मइसुत्तेण सह विरोहो उजुसुद-णय विसय भावणिक्खेवमस्सिदूण तप्पउत्तीदो।" (जयधवला) २ श्वेताम्बरोंके निशीथ ग्रन्थकी चूर्णिमें भी ऐसा ही उल्लेख है: "दंसबगाही-दसणणाणप्पभावगाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छय-संमतिमादि गेयह तो असंथरमाणे जं कधियं पनिवति जयगाने नाश मो मटो भातापिनी Antar ---- . Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ । अगफान्त इस प्रन्थके तीन विभाग हैं जिन्हें 'काण्ड' संज्ञा दी गई है। प्रथम काण्डको कुछ हस्तलिखित तथा मुद्रित प्रतियोंमें 'नयकाण्ड' बतलाया है-लिखा है "नयकएडं सम्मत्त" और यह ठीक ही है। क्योंकि सारा काण्ड नयके ही विषयको लिये हुए है और उसमें द्रव्यार्थिक तथा पर्यायांर्थिक दो नयोको मूलाधार बनाकर और यह बतलाकर कि 'तीर्थकर वचनोंके सामान्य और विशेषरूप प्रस्तारके मूलप्रतिपादक ये ही दो नय हैं-शेष सब नय इन्हीके विकल्प हैं', उन्हीके भेद-प्रभेदों तथा विषयका अच्छा सुन्दर विवेचन और संसूचन किया गया है। दूसरे काण्डको उन प्रतियोंमें 'जीवकाण्ड' बतलाया है-लिखा है "जीवकंडयं सम्मत्तं"। पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीकी रायमें यह नामकरण ठीक नहीं है. इसके स्थानपर 'ज्ञानकाण्ड' या 'उपयोगकाण्ड' नाम होना चाहिये; क्योंकि इस काण्डमें, उनके कथनानुसार जीवतत्त्वकी चर्चा ही नहीं है.-पूर्ण तथा मुख्य चर्चा ज्ञानकी है। यह ठीक है कि इस काण्डम ज्ञानकी चर्चा एक प्रकारसे मुख्य है परन्तु वह दर्शनकी चर्चाको भी साथ लिये हुए हैउसासे चर्चाका प्रारम्भ है-और ज्ञान-दर्शन दाना जीवद्रव्यका पर्याय है, जीवद्रव्यसे भिन्न उनकी कही कोई सत्ता नहीं, और इमलिये उनकी चर्चाको जीवद्रव्यकी ही चर्चा कहा जासकता है। फिर भी ऐसा नहीं है कि इसमें प्रकटरूपसे जीवतत्त्वका काई चर्चा ही न हो-दूसरी गाथामे दव्वदिओ वि होऊण दमण पज्जवट्टि होई' इत्यादिरूपसे जीवद्रव्यका कथन किया गया है, जिसे पं. सुखलालजी आदिने भी अपने अनुवादमे "आत्मा दर्शन वखत" इत्यादिरूपसे स्वीकार किया है। अनेक गाथाओंम कथन-मम्बन्धको लिये हुए सर्वज्ञ, केवलो, अर्हन्त तथा जिन जैसे अर्थपदोंका भी प्रयोग है जो जीवके ही विशेष है। और अन्तकी 'जीवो अगाइणिहणो'से प्रारम्भ होकर 'अण्णं वि य जीवपजाया' पर समाप्त होनेवाली सान गाथाओं में तो जीवका स्पष्ट ही नामोल्लेखपूर्वक कथन है-वही चर्चाका विषय बना हुआ है। ऐसी स्थितिमे यह कहना समुचित प्रतीत नहीं होता कि 'इम काण्डमें जीवतत्त्वकी चर्चा ही नहीं है और न 'जीवकाण्ड' इस नामकरणको सर्वथा अनुचित अथवा अयथार्थ हा कहा जा सकता है। कितने ही प्रन्थोमें ऐसी परिपाटी देखनेमे आती है कि पर्व तथा अधिकारादिके अन्तमें जा विषय चर्चित होता है उसीपरसे उस पर्वादिकका नामकरण किया जाना है, इस दृष्टिसे भी काण्डके अन्त में चर्चित जीवद्रव्यकी चर्चाकै कारण उसे 'जीवकाएड' कहना अनुचित नहीं कहा जा सकता। अब रही तीसरे काण्डकी बात, उसे कोई नाम दिया हुआ नहीं मिलता। जिस किसान दा काण्डोका नामकरण किया है उसने तीसरे काण्डका भी नामकरण जरूर किया होगा, सम्भव है खोज करते हुए किसी प्राचीन प्रतिपरसे वह उपलब्ध हो जाए। डा० पी० एल० वैद्य एम.एने, न्यायावतारकी प्रस्तावना (Introduction)में, इस काण्डका नाम अमन्दिग्धरूपसे 'अनेकान्तवादकाण्ड' प्रकट किया है। मालूम नहीं यह नाम उन्हें किस प्रतिपरसे उपलब्ध हुआ है। काण्डके अन्तमें चर्चित विपयादिकका दृष्टिसे यह नाम भी ठाक हो सकता है। यह काण्ड अनेकान्तदृष्टिको लेकर अधिकांशमें सामान्य-विशेषरूपसे अर्थकी प्ररूपणा और विवेचनाको लिये हुए है. और इसलिये इसका नाम 'सामान्य-विशेषकाण्ड' अथवा द्रव्य-पर्याय-काएद' जैसा भी कोई हो सकता है। पं. सुखलालजी और पं० बेचरदास जीने इसे ज्ञेय-काण्ड' सूचित किया है, जो पूर्व-काण्डको ज्ञानकाण्ड' नाम देने और दोनों काण्डोके नामोंमें श्रीकुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत प्रवचनसारके ज्ञान-ज्ञेयाधिकारनामोंके साथ समानता लानेकी दृष्टिसे सम्बद्ध जान पड़ता है। १ तित्थयर-वयण सगह-विसेस-पत्थारमूल वागरणी। दबहिश्रो य पजवणश्रो य सेसा वियप्पासिं ॥३॥ २ जैसे जिनसेनकृत हरिवंशपुराणके तृतीय सर्गका नाम 'भेणिकप्रश्नवर्णन', जब कि प्रभके पूर्वमें वीरके Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थकी गाथा - संख्या ५४, ४३, ७० के क्रमसे कुल १६७ है । परन्तु पं० सुखलाल - जी और पं० बेचरदासजी उसे अब १६६ मानते हैं; क्योंकि तीसरे काण्डमें अन्तिम गाथाके पूर्व जो निम्न गाथा लिखित तथा मुद्रित मूलप्रतियोंमें पाई जाती है उसे वे इसलिये वादको प्रक्षिप्त हुई समझते हैं कि उसपर अभयदेवसूरिकी टीका नहीं है : जे विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ग णिव्वडइ । तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अगंतवायस्स ॥ ६९ ॥ Loc इसमें बतलाया है कि जिसके बिना लोकका व्यवहार भी सर्वथा बन नहीं सकता उस लोकके अद्वितीय (असाधारण) गुरु अनेकान्तवादको नमस्कार हो ।' इस तरह जो अनेकान्तवाद इस सारे ग्रन्थकी आधारशिला है और जिसपर उसके कथनोंकी ही पूरी प्राणप्रतिष्ठा अवलम्बित नहीं है बल्कि उस जिनवचन, जैनागम अथवा जैनशासनकी भी प्राणप्रतिष्ठा अवलम्बित है, जिसकी अगली (अन्तिम) गाथामें मङ्गल कामना की गई है और ग्रन्थकी पहली (आदिम) गाथामे जिसे 'सिद्धशासन' घोषित किया गया है, उसीकी गौरव गरिमाको इस गाथामें अच्छे युक्तिपुरस्सर ढङ्गसे प्रदर्शित किया गया है। और इसलिये यह गाथा अपनी कथनशैली और कुशल - साहित्य-योजनापरसे प्रन्थका अङ्ग होनेके योग्य जान पड़ती है तथा ग्रन्थकी अन्त्य मङ्गल-कारिका मालून होती है । इसपर एकमात्र अमुक टीकाके न होनेसे ही यह नहीं कहा जा सकता कि वह मूलकारके द्वारा योजित न हुई होगी, क्योंकि दूसरे प्रन्थोंकी कुछ टीकाएँ ऐसी भी पाई जाती हैं जिनमेसे एक टीकामें कुछ पद्य मूलरूपमें टीका सहित हैं तो दुसरीमें वे नही पाये जाते' और इसका कारण प्रायः टीकाकारको ऐसी मूलप्रतिका ही उपलब्ध होना कहा जा सकता है जिसमें वे पद्य न पाये जाते हो । दिगम्बराचार्य म (सन्मति ) देवकी टीका भी इस ग्रन्थपर बनी है, जिसका उल्लेख वादिराजने अपने पार्श्वनाथचरित (शक संo १४५ ) के निम्न पद्यमें किया है: नमः सन्मतये तम्मै भव- कूप निपातिनाम् । सन्मतिर्विवृता येन सुखधाम - प्रवेशिनी ॥ यह टीका अभी तक उपलब्ध नही है —योजका कोई खास प्रयत्न भी नहीं हो सका । इसके सामने आनेपर उक्त गाथा तथा और भी अनेक बातोपर प्रकाश पड़ सकता है; क्योंकि यह टीका सुमतिदेव की कृति होनेसे ११वीं शताब्दीके वेताम्बरीय आचार्य अभयदेवकी टीकासे कोई तीन शताब्दी पहलेकी बनी हुई होनी चाहिये । श्वेताम्बराचार्य मल्लवादीकी भी एक टीका इस प्रन्थपर पहले बनी है जो आज उपलब्ध नहीं है और जिसका उल्लेख हरिभद्र तथा उपाध्याय यशोविजयके ग्रन्थोमें मिलता है । इस प्रन्थमें विचारको दृष्टि प्रदान करनेके लिये, प्रारम्भसे ही द्रव्यार्थिक (द्रव्यास्तिक) और पर्यायार्थिक (पर्यायास्तिक) दो मूल नयोको लेकर नयका जो विषय उठाया गया है वह प्रकारान्तरसे दूसरे तथा तीसरे काण्डमें भी चलता रहा है और उसके द्वारा नयवादपर छा प्रकाश डाला गया है । यहाँ नयका थोड़ा-सा कथन नमूने के तौरपर प्रस्तुत किया जाता है, जिससे पाठकोंको इस विषयकी कुछ झॉकी मिल सके: १ जैसे समयसारादिग्रन्थोंकी अमृतचन्द्रसूरिकृत तथा जयसेनाचार्यकृत टीकाएँ, जिनमें कतिपय गाथा न्यूनाधिकता पाई जाती है । २ “उक्त च बादिमुख्येन श्रीमल्लवादिना सम्मतो” (अनेकान्तजयपताका ) " दायें कोटिशा भगा निर्दिष्टा मल्लवादिना । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जगत प्रथमकाण्डमें दोनों नयोंके सामान्य-विशेष-विषयको मिश्रित दिखलाकर उस मिश्रितपनाकी चर्चाका उपसंहार करते हुए लिखा है दवट्टिो त्ति तम्हा पत्थि यो नियम सुद्धजाईयो। . ण य पञ्जवडिओ णाम कोई भयणाय उ विसेसो ॥९॥ 'अतः काई द्रव्यार्थिक नय ऐसा नहीं जा नियमसे शुद्धजातीय हो-अपने प्रतिपक्षी पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा न रखता हुआ उसके विषय-स्पर्शसे मुक्त हो । इसी तरह पर्यायार्थिक नय भी कोई ऐमा नही जो शुद्धजातीय हो-अपने विपक्षी द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा न रखता हुआ उसके विषय-स्पर्शसे रहित हो। विवक्षाको लेकर ही दोनोंका भेद है-विवक्षा मुख्य-गौणके भावको लिये हुए होती है, द्रव्यार्थिकमें द्रव्य-सामान्य मुख्य और पर्याय-विशेष गौण होता है और पर्यायार्थिकमे विशेष मुख्य तथा सामान्य-गौण होता है।' - इसके बाद बतलाया है कि- पर्यायार्थिकनयका दृष्टिमे द्रव्यार्थिकनयका वक्तव्य (सामान्य) नियमसे अवस्तु है। इसी तरह द्रव्यार्थिकनयको दृष्टिमे पर्यायार्थिकनयका वक्तव्य (विशेष) अवस्तु है। पर्यायार्थिकनयकी दृष्टिमे सर्व पदार्थ नियमसे उत्पन्न हात है और नाशको प्राप्त हाते हैं। द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिमे न काई पदार्थ उत्पन्न होता है और न नाशको प्राप्त होता है। द्रव्य पर्याय(उत्पाद-व्यय)के विना और पर्याय द्रव्य(ध्रौव्य)के विना नहीं होत; क्योकि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य य तानों द्रव्य-सत्का अद्वितीय लक्षण है। । य तीनों एक दृमरके माथ मिलकर ही रहते हैं, अलग-अलगरूपमे ये द्रव्य (सन)के कोई लक्षण नहीं होते और इसलिये दोनो मूल नय अलग-अलगरूपमें-एक दुसरेकी अपेक्षा न रखते हुएमिथ्यादृष्टि हैं। तीसरा कोई मूलनय नहीं है और ऐमा भी नहीं कि इन दोनों नयों में यथार्थपना न समाता हो-वस्तुके यथार्थ स्वरूपको पूर्णतः प्रतिपादन करनेमें य असमर्थ होक्योंकि दोनों एकान्त (मिथ्याष्टियाँ) अपेक्षाविशपको लेकर ग्रहण किये जाते ही अनकान्त (सम्यग्दृष्टि) बन जाते है। अर्थात दाना नयांमसे जब काई भी नय एक दृसरकी अपेक्षा न रखता हुआ अपने ही विपयका मनरूप प्रतिपादन करनेका आग्रह करता है तब वह अपने द्वारा ग्राह्य वस्तुके एक अरामें पूर्णताका माननेवाला हानमे मिथ्या है और जब वह अपने प्रतिपक्षी नयकी अपेक्षा रखता हुआ प्रवनंता है-उसके विपयका निरसन न करता हुआ तटस्थरूपसे अपने विपय (वक्तव्य)का प्रतिपादन करता है-तब वह अपने द्वारा ग्राह्य वस्तुके एक अंशको अंशरूपमें ही (पूर्णरूपमे नहीं) माननेके कारण सम्यक व्यपदेशको प्राप्त होता है। इम सब आशयकी पॉच गाथाएँ निम्न प्रकार है दव्यट्टिय-वत्तव्यं अवत्थु णियमेण पञ्जवणयस्स । तह पज्जवत्थ अवत्धुमेव दबट्टियणयस्स ॥१०॥ उप्पज्जति वियंति य भावा पजवणयस्स । दव्वट्ठियस्स सव्वं सया अणुप्पण्णमविणट्ठ ॥११॥ दव्वं पज्जव-विउयं दव्व-वियुत्ताय पज्जवाणत्थि । उपाय-ट्रिह-भंगा हाद दवियलक्खणं एय ॥१२॥ १ "पजयविजुद दब्ब दवविजुत्ता य पजवा णस्थि । दोरह अणण्णभूद भाव समणा परूविति ॥१-१२॥" -पञ्चास्तिकाये, श्रीकुन्दकुन्दः । सद्रव्यलक्षणम् ॥ २६ ॥ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत् ॥ ३०॥ -तत्त्वार्थसूत्र अ०५ । २ तीसरे कापडमें गुणार्थिक (गुणास्तिक) नयको कल्पनाको उठाकर स्वयं उसका निरसन किया गया है Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए पुण संगहो पाडिक्कमलक्खणं दुवेण्हं पि । तम्हा मिच्छादिट्ठी पत्तयं दो वि मूल-गया ॥१३॥ ण य तइयो अस्थि गयो ण य सम्मत्त तेसु पडिपुगणं । जेण दुवे एगंता विभज्जमारणा अणेगंता ॥१४॥ इन गाथाओंके अनन्तर उत्तर नयोकी चर्चा करते हुए और उन्हें भी मूलनयोंके समान दुनय तथा सुनय प्रतिपादन करते हुए और यह बतलाते हुए कि किसी भी नयका एकमात्र पक्ष लेनेपर संसार, सुख, दुख, बन्ध और मोक्षकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती, सभी नयांके मिथ्या तथा सम्यक रूपको स्पष्ट करते हुए लिखा है तम्हा सब्वे वि णया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा । अण्णोरणणिस्सिा उण हवंति सम्मत्तसम्भावा ॥२१॥ 'अतः सभी नय–चाह वे मूल या उत्तरोत्तर कोइ भी नय क्यों न हों जो एकमात्र अपने ही पक्षके साथ प्रतिबद्ध है वे मिथ्यादृष्टि है-वस्तुको यथार्थरूपसे देखनेप्रतिपादन करने में असमर्थ है। परन्तु जो नय परस्परमे अपेक्षाको लिये हुए प्रवर्तत है वे सब सम्यग्दृष्टि है-वस्तुको यथार्थरूपसे देखने-प्रतिपादन करनेम समर्थ है। तीसरे काण्डमे नयवादको चर्चाको एक दुसर ही ढङ्गसे उठाते हुए, नयवादके परिशुद्ध और अपरिशुद्ध पसे दो भेद सूचित किये है. जिनमे परिशुद्ध नयवादको आगममात्र अथका-केवल श्रु तप्रमाणके विपयका-साधक बतलाया है और यह ठीक ही है; क्योकि परिशुद्धनयवाद मापेक्षनयवाद होनेसे अपने पक्षका-अशोका-प्रतिपादन करता हुआ परपक्षका-दमरे अंशो-का निराकरण नहीं करता और इसलिय दुसरं नयवादके साथ विरोध न रखनके कारण अन्तको अ तप्रमाणके समग्र विषयका ही माधक बनता है। और अपरिशुद्ध नयवादको 'दुनिक्षिप्त' विशेपणके द्वारा उल्लेखित करते हुए स्वपक्ष तथा परपक्ष दानाका विघातक लिखा है और यह भा ठाक ही है, क्योंकि वह निरपक्षनयवाद हानेसे एकमात्र अपने ही पक्षका प्रतिपादन करता हुआ अपनसे भिन्न पक्षका सर्वथा निराकरण करता है-विरोधवृत्ति होनस उसके द्वारा श्र तप्रमाणका काई भी विपय नही सधता और इस तरह वह अपना भी निराकरण कर बैठता है। दूसर शमीम यह कहना चाहिए कि वस्तुका पूर्णरूप अनेक सापेक्ष अशा धमांसे निर्मित है जो परम्पर अविनाभाव-मम्बन्धको लिय हुए है, एकके अभावमें दृसरका अस्तित्व नहीं बनता यो. इलिय जा नयवाद परपक्षका मवथा निषेध करता है वह अपना भी निपचक होना-पाक अभावमे अपन स्वरूपको किसी तरह भी सिद्ध करनेम समर्थ नहीं हो सकता । नयवादक इन भदा और उनके स्वम्पनिर्दशके अनन्तर बतलाया है कि जितने वचनमाग है उतने ही नयवाद है और जितने (अपरिशुद्ध अथवा परस्परनिरपेक्ष एवं विराधी) नयवाद हैं उतने परसमय -जैनेनरदर्शन है। उन दशनामे कपिलका सांख्यदर्शन द्रव्याथिक नयका वक्तव्य है। शुद्धादनके पुत्र बुद्धका दशन परिशुद्ध पयायनयका विकल्प है। उलूक अर्थात कगादने अपना शास्त्र (वैशेषिक दर्शन) यद्यपि दोनों नयोके द्वारा प्ररूपित किया है फिर भी वह मिथ्यात्व है-अप्रमाण है, क्योंकि ये दोनो नयष्टियाँ उक्त दर्शनमे अपने अपने विपयकी प्रधानताके लिये परस्परमे एक दृमरेकी कोई अपेक्षा नहीं रखता।' इस विषयसे सम्बन्ध रखनेवाली गाथा निम्न प्रकार है परिसुद्धो णयवाओ आगममेत्तस्थ-साधको होइ । मोनाशिो नोगिmamim ....... Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 01 J जावयां वयवहा तावइया चेव होंति णयवाया। जावइया गयवाया तावइया चैव परसमयो ||४७|| जं काविलं दरिसणं एयं दव्वट्ठियस्स बत्तव्वं । सुद्धोरण- तणस्स उ परिसुद्धो पजवविअप्पो ||४८ || दोहि वि एहि णीयं सत्थमुलूए तह वि मिच्छत्त ं । जं सविसप्पहारण तरणेण अणोरणणिरवेक्खा ॥ ४९ ॥ इनके अनन्तर निम्न दो गाथाओ में यह प्रतिपादन किया है कि 'सांख्योंके सद्वादपक्षमें बौद्ध और वैशेषिक जन जो दोष देते हैं तथा बौद्धो और वैशेषिकोके असद्व (दपक्षमें सांख्य जन जो दोष देते है वे सब सत्य है- सर्वथा एकान्तवाद में वैसे दोप आते ही हैं। ये दोनों सद्वाद और असद्वाद दृष्टियाँ यदि एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हुए संयोजित हो जायँ - समन्वयपूर्वक अनेकान्तदृष्टिमें परिणत हो जायँ -- तो सर्वोत्तम सम्यग्दशन बनता है; क्योंकि ये सत असतरूप दोनों दृष्टियाँ अलग अलग संसारके दुःखसे छुटकारा दिलाने में समर्थ नहीं हैं—दोनोंके सापेक्ष संयोगसे ही एक-दूसरेकी कमी दूर होकर संसारके दुःखोंसे शान्ति मिल सकती है:-- जे संतवाय-दोसे सकोल्या भांति खाणं । संखाय सव्वाए तेमिं सव्वे वि ते सच्चा ॥ ५०॥ उ भयोवणीया सम्मद्द मरणमणुत्तर होंति । जं भव- दुक्ख-विमोक्खं दो वि एण पूति पाडिक ॥५१॥ इस सब कथनपरसे मिथ्यादर्शनों और सम्यग्दर्शनका तत्त्व सहज ही समझ में जाता है और यह मालूम हो जाता है कि कैसे सभी मिध्यादर्शन मिलकर सम्यग्दर्शनके रूपमें परिणत हो जाते हैं। मिथ्यादर्शन अथवा जैनेतरदर्शन जब तक अपने अपने वक्तव्यके प्रतिपादनमें एकान्तताको अपनाकर परविरोधका लक्ष्य रखते हैं तब तक वे सम्यग्दर्शनमें परिणत नहीं होते, और जब विरोधका लक्ष्य छोड़कर पारस्परिक अपेक्षाको लिये हुए समन्वयकी दृष्टिको अपनाते है तभी सम्यग्दर्शन में परिणत हो जाते हैं और जैनदशन कहलाने के योग्य होते हैं । जैनदर्शन अपने स्याद्वादन्याय द्वारा समन्वयकी दृष्टिको लिये हुए है- समन्वय ही उसका नियामक तत्त्व है, न कि विरोध - और इसलिये सभी मिथ्यादर्शन अपने अपने विरोधको भुलाकर उसमें समा जाते है । इसीसे प्रन्थकी अन्तिम गाथामें जिनवचनरूप जिनशासन अथवा जैनदर्शनकी मङ्गलकामना करते हुए उसे 'मिथ्य - दर्शनोंका समूहमय' बतलाया है। वह गाथा इस प्रकार है: भद्द मिच्छादंसण - समूहमइयरस अमयसारस्स ॥ जिणवयणस्स भगवओो संविग्गसुहाहिगम्मस्म ॥७०॥ इसमें जैनदर्शन ( शासन) के तीन खास विशेषणोंका उल्लेख किया गया है— पहल विशेषण मिथ्यादर्शनसमूहमय दूसरा अमृतसार और तीसरा संविग्नसुखाधिगम्य है । मिथ्यादर्शनोंका समूह होते हुए भी वह मिध्यात्वरूप नहीं हैं, यही उसकी सर्वोपरि विशेषता है और यह विशेषता उसके सापेक्ष नयवाद में सन्निहित है-सापेक्ष नय मिथ्या नहीं होते, निरपेक्ष नय ही मिथ्या होते हैं'। जब सारी विरोधी दृष्टियाँ एकत्र स्थान पाती हैं तब फिर १ मिध्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यैकान्तताऽस्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥१८ - नामिमपलभतः Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११ ] सन्मात-सिद्धसनाक [४२३ . उनमें विरोध नहीं रहता और वह सहज ही कार्य-साधक बन जाती हैं। इसीपरसे दूसरा विशेषण ठीक घटित होता है, जिसमें उसे अमृतका अर्थात् भवदुःखके अभावरूप अविनाशी मोक्षका प्रदान करनेवाला बतलाया है क्योंकि वह सुख अथवा भवदुःखविनाश मिथ्यादर्शनोंसे प्राप्त नहीं होता, इसे हम ५१वीं गाथासे जान चुके हैं। तीसरे विशेषणके द्वारा यह सुझाया गया है कि जो लोग संसारके दु:खों-क्लेशोंसे उद्विग्न होकर संवेगको प्राप्त हुए हैं-सच्चे मुमुक्षु बने हैंउनके लिये जैनदर्शन अथवा जिनशासन सुखसे समझमें आने योग्य है-कोई कठिन नहीं है। इससे पहले ६४वी गाथामें 'अत्थगई उण णयवायगहणलीणा दुरभिगम्मा' वाक्पके द्वारा सत्रोंकी जिस अर्थगतिको नयवादके गहन-वनमें लीन और दुरभिगम्य बतलाया था उसीको ऐसे अधिकारियोके लिये यहाँ सुगम घोषित किया गया है, यह सब अनेकान्तदृष्टिकी महिमा है। अपने ऐसे गुणोके कारण ही जिनवचन भगवत्पदको प्राप्त है-पूज्य है। ग्रन्थकी अन्तिम गाथामें जिस प्रकार जिनशासनका स्मरण किया गया है उसी प्रकार वह आदिम गाथामें भी किया गया है। आदिम गाथामें किन विशेषणोंके साथ स्मरण किया गया है यह भी पाठकोके जानने योग्य है और इसलिये उस गाथाको भी यहाँ उद्धत किया जाता है सिद्ध सिद्धत्थाणं ठाणमणोवमसुहं उवगयाणं । कुसमय - विसारणं सासण जिणाणं भव - जिणाणं ॥१॥ इसमे भवको जीतनेवाले जिनों-अर्हन्तोके शासन-आगमके चार विशेषण दिये गये हैं-१ सिद्ध • सिद्धार्थों का स्थान, ३ शरणागतोंके लिये अनुपम सुखस्वरूप, ४ कुसमयाएकान्तवादरूप मिथ्यामतांका निवारक । प्रथम विशेषणके द्वारा यह प्रकट किया गया है कि जनशासन अपने ही गुणोसे आप प्रतिष्ठित है। उसके द्वारा प्रतिपादित सब पदार्थ प्रमाणसिद्ध है--कल्पित नही है-यह दूसरे विशेषणका अभिप्राय है और वह प्रथम विशेषण सिद्धत्वका प्रधान कारण भी है। तीसरा विशेषण बहुत कुछ स्पष्ट है और उसके द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि जो लाग वास्तवम जैनशासनका आश्रय लेते हैं उन्हें अनुपम मोक्ष-सुख तककी प्राप्ति होती है। चौथा विशेषण यह बतलाता है कि जैनशासन उन सब कुशासनो-मिथ्यादशनोके गवको चूर-चूर करनेकी शक्तिसे सम्पन्न है जो सर्वथा एकान्तवादका आश्रय लेकर शासनारूढ बने हुए है और मिथ्यातत्त्वोके प्ररूपण-द्वारा जगतमें दुःखोंका जाल फैलाये हुए है। इस तरह आदि-अन्तकी दोनों गाथाओंमें जिनशासन अथवा जिनवचन (जैनागम) के लिये जिन विशेषणोंका प्रयोग किया गया है उनसे इस शासन(दर्शन)का असाधारण महत्त्व और माहात्म्य ख्यापित होता है। और यह केवल कहनेकी ही बात नहीं है बल्कि सारे ग्रन्थमे इसे प्रदर्शित करके बतलाया गया है। स्वामी समन्तभद्रके शब्दामे 'अज्ञान-अन्धकारकी व्याप्ति(प्रमार )को जैसे भी बने दूर करके जिनशासनके माहात्म्यको जो प्रकाशित करना है उसीका नाम प्रभावना है। यह ग्रन्थ अपने विषय-वर्णन और विवेचनादिके द्वारा इस प्रभावनाका बहुत कुछ साधक है और इमीलिये उसकी भी गणना प्रभावक-ग्रन्थोंमें की गई है। यह ग्रन्थ जैनदर्शनका अध्ययन करनेवालों और जैनदर्शनसे जैनेतर दर्शनोंके भेदको ठोक अनुभव करनेको इच्छा रखनेवालोके लिये बड़े कामकी चीज है और उनके द्वारा खास मनायांगके साथ पढ़े जाने तथा मनन किये जानेके योग्य है। इसमें अनेकान्तके अङ्गस्वरूप जिस नयवादकी प्रमुख चचो है और जिसे एक प्रकारसे 'दुरभिगम्य गहन-वन' Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "४२४) बतलाया गया है-अमृतचन्द्रसूरिने भी जिसे 'गहन' और 'दुरासद' लिखा है-उसपर जैन वाङ्मयमें कितने ही प्रकरण अथवा 'नयचक्र' जैसे स्वतन्त्र ग्रन्थ भी निर्मित हैं, उनका साथमें अध्ययन अथवा पूर्व-परिचय भी इस ग्रन्थके समुचित अध्ययनमें सहायक है। वास्तवमें यह ग्रन्थ सभी तत्त्वजिज्ञासुओं एवं आत्महितैषियोके लिये उपयोगी है। अभी तक इसका हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ है। वीरसेवामन्दिरका विचार उसे प्रस्तुत करनेका है। [क] ग्रन्थकार सिद्धसेन और उनकी दूसरी कृतियां इस सन्मति' ग्रन्थके कर्ता आचार्य सिद्धसेन है इसमें किसीको भी कोई विवाद नहीं है। अनेक ग्रन्थोंमें ग्रन्थनामके साथ सिद्धसेनका नाम उल्लेखित है और इस ग्रन्थके वाक्य भी सिद्धसेन-नामके साथ उद्धृत मिलते हैं, जैसे जयधवलामे प्राचार्य वीरसेनने ‘णामठवणा दवियं' नामकी छठी गाथाको · उक्तं च सिद्धसेणेण" इस वाक्यक साथ उद्धृत किया है और पश्चवस्तुमें आचार्य हरिभद्रने 'पायरियसिद्धसेणेण सम्मईप पइट्रिअजसेणं" वाक्यके द्वारा सन्मति'को सिद्धसेनकी कृतिरूपमें निर्दिष्ट किया है, साथ ही 'कालो सहाव णियई' नामकी एक गाथा भी उसकी उद्धृत की है। परन्तु ये सिद्धसेन कौन हैं-किम विशेष परिचयको लिये हुए हैं ? कौनसे सम्प्रदाय अथवा आम्नायसे सम्बन्ध रखते है ?. इनके गुरु कौन थे ? इनकी दुमरी कृतियाँ कौन-सी हैं ? और इनका समय क्या है ? ये सब बातें ऐमी है जो विवादका विषय जरूर हैं। क्योंकि जैनसमाजमे सिद्धसेन नामके अनेक प्राचार्य और प्रखर तार्किक विद्वान भी हो गये हैं और इस ग्रन्थमे ग्रन्थकारने अपना कोई परिचय दिया नहीं. न रचनाकाल ही दिया है-ग्रन्थकी आदिम गाथामे प्रयुक्त हुए 'सिद्धं' पदके द्वारा श्लेपरूपमे अपने नामका मूचनमात्र किया है, इतना ही समझा जा सकता है। कोई प्रशस्ति भी किमी दृमरे विद्वानके द्वारा निर्मित होकर ग्रन्थके अन्तमें लगी हुई नही है। दूमर जिन ग्रन्थोंग्वासकर द्वात्रिशिकाओ तथा न्यायावतार-को इन्हीं आचार्यको कृति समझा जाता और प्रतिपादन किया जाता है उनमें भी कोई परिचय-पद्य तथा प्रशस्ति नहीं है और न कोई ऐसा स्पष्ट प्रमाण अथवा युक्तिवाद ही सामने लाया गया है जिससे उन सब ग्रन्थोका एक ही सिद्धसेन-कृत माना जा सके। और इसलिय अधिकांशमे कल्पनाओ तथा कुछ भ्रान्त धारणाओके आधारपर ही विद्वान लोग उक्त बातोंके निर्णय तथा प्रतिपादनमे प्रवृत्त होते रहे हैं, इमीसे कोई भी ठीक निगा य अभी तक नहीं हो पाया-वे विवादापन्न ही चली जाती हैं और सिद्धसेनके विषयमे जो भी परिचय-लेख लिखे गये है वे सब प्रायः खिचड़ी बने हुए हैं और कितनी ही ग़लतफहमियोको जन्म दे रहे तथा प्रचारमें ला रहे हैं। अतः इस विषयमें गहरे अनुसन्धानके माथ गम्भीर विचारकी जरूरत है और उसीका यहाँपर प्रयत्न किया जाता है। " दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो सम्प्रदायोमें सिद्धमेनके नामपर जो ग्रन्थ चढ़े हुए हैं उनमेंसे कितने ही ग्रन्थ तो ऐसे है जो निश्चितरूपमें दूसरे उत्तरवर्ती सिद्धसेनोकी कृतियाँ हैं; जैसे १ जीतकल्पचूर्णि २ तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी टीका ३ प्रवचनमारोद्धारकी वृत्ति ४ एकविशतिस्थानप्रकरण (प्रा.) और ५ सिद्धि यसमुदय (शक्रस्तव) नामका मन्त्रगर्भित गद्यस्तोत्र । कुछ ग्रन्थ से है, जिनका सिद्धसेन-नामके साथ उल्लेख तो मिलता है परन्तु आज वे उपलब्ध नहीं हैं, जैसे १ बृहत् पड्दशनसमुनय (जैनग्रन्थावली पृ०६४),२ विषाग्रग्रहशमन१ देखो, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय--"इति विविधभग-गहने सुदुम्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम्"। (५८) "अत्यन्तनिशितधार दुरासद जिनवरस्य नयचक्रम"। (५६) २ हो सकता है कि यह ग्रन्थ हरिभद्रसूरिका 'पडदर्शनसमुच्चय' ही हो और किसी गलतीसे सूरतके उन - Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११ ] सन्मात-सिद्धसनाक । ४२५ वर कृतिकोसनका ही नानाजता है विधि, जिसका उल्लेख उग्रादित्याचार्य (विक्रम हवी शताब्दी)के कल्याणकारक' वैद्यक ग्रन्थ (२०-८५)में पाया जाता है। और ३ नीतिसारपुराण, जिसका उल्लेख केशवसेनसूरि (वि० सं० १६८८) कृत कर्णामृतपुराणके निम्न पद्योंमें पाया जाता है और जिनमें उसकी श्लोकसंख्या भी १५६३०० दी हुई है सिद्धोक्त-नीतिसारादिपुराणोद्भूत-सन्मतिं । विधास्यामि प्रसन्मार्थ ग्रन्थं सन्दर्भगर्भितम् ॥१९॥ खंखाग्निरसवाणेन्दु (१५६३००) श्लोकसंख्या प्रसूत्रिता । नीतिसारपुराणस्य सिद्धसेनादिसूरिभिः ॥२०॥ उपलब्ध न होनेके कारण ये तीनों ग्रन्थ विचारोंमें काई सहायक नहीं हो सकते। इन आठ प्रन्थोंके अलावा चार ग्रन्थ और हैं-१ द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २ प्रस्तुत सन्मतिसूत्र, ३ न्यायावतार और ४ कल्याणमन्दिर । 'कल्याणमन्दिर' नामका स्तोत्र ऐसा है जिसे श्वेताम्बर सम्प्रदायमे सिद्धसेनदिवाकरकी कृति समझा और माना जाता है। जबकि दिगम्बर परम्परामें वह स्तोत्रके अन्तिम पद्यमें मूचित किये हुए 'कुमुदचन्द्र' नामके अनुसार कुमुदचन्द्राचार्यकी कृति माना जाता है। इस विषयमें श्वेताम्बर-सम्प्रदायका यह कहना है कि सिद्धसेनका नाम दीक्षाके समय कुमुदचन्द्र' रवा गया था, आचार्यपदके समय उनका पुराना नाम ही उन्हें दे दिया गया या, ऐसा प्रभाचन्द्रसूरिके प्रभावकचरित (सं० १३३४,से जाना ज ता है और इसलिये कल्याणमन्दिर में प्रयुक्त हुआ कुमुदचन्द्र' नाम सिद्धसेनका ही नामान्तर है।' दिगम्बर समाज इसे पीछेकी कल्पना और एक दिगम्बर कृतिको हथियानेकी योजनामात्र समझता है; क्योकि प्रभावकचरितमे पहले सिद्धमेन-विपयक जो दो प्रबन्ध लिखे गये है उनमें कुमुदचन्द्र नामका कोई उल्लेग्न नहीं है-पं० सुग्वलाली और पं. बेचरदानजीने अपनी प्रस्तावनामे भी इस बातको व्यक्त किया है। बादके बने हुए मेम्तुगाचार्यके प्रबन्धचिन्तामणि (सं० १३६१)में और जिनप्रभसूरिके विविधतीर्थकल्प (सं० १३८६)में भी उसे अपनाया नहीं गया है। राजशेखरके प्रबन्धकांश अपरनाम चतुर्विशतिप्रबन्ध (सं० १४०५)मे कुमुदचन्द्र नामको अपनाया जरूर गया है परन्तु प्रभावकचरितके विरुद्ध कल्याणमन्दिरस्तोत्रको पार्श्वनाथद्वात्रिशिका'के रूपमे व्यक्त किया है और साथ ही यह भी लिखा है कि वीरकी द्वात्रिशद्वात्रिशिका स्तुतिसे जब कोई चमत्कार देखनेमे नहीं आया तब यह पार्श्वनाथद्वात्रिशिका रची गई है, जिसके ११वे से नहीं किन्तु प्रथम पद्यसे ही चमत्कार प्रारम्भ हो गया । ऐसी स्थितिम पाश्वनाथद्वात्रिंशकाके रूपमे जा कल्याणमन्दिरस्तांत्र रचा गया वह ३२ पोका कोई दूसरा ही होना चाहिय न कि वतमान कल्याणमन्दिरस्तात्र जिमका रचना ४४ पद्योंम हुई है, और इससे दानो कुमुदचन्द्र भी भिन्न होने चाहिये । इसके सिवाय, वर्तमान कल्यागामन्दिरस्तोत्रमे प्रारभारसभृतनभांसि रजांसि गंपात' इत्यादि तीन पद्य ऐसे हैं जो पाश्वनाथको दैत्यकृत उपसगसे युक्त प्रकट करते है. जो दिगम्बर मान्यताके अनुकूल और श्वेताम्बर मान्यता प्रतिकूल हैं. क्योंकि श्वेताम्बरीय -- --- - जिसपरसे जैनग्रन्थावलीमें लिया गया है; क्योंकि इसके साथमे जिस टीकाका उल्लेख है उसे 'गुणरत्न' की लिखा है और हरिभद्रके षड्दर्शनसमुच्चयपर भी गुणरत्नकी टीका है। १ "शालाक्यं पूज्यपाद-प्रकटितमधिकं शल्यतत्र चप त्रस्वामि-प्रोक्त विषोग्र ग्रहशमनविधिः सिद्धसेनैः प्रसिद्धः" २ "इत्यादिश्रीवीरद्वात्रिशद्वात्रिंशिका कृता । परं तस्मात्तादृशं चमत्कारमनालोक्य पश्चात् श्रीपावनाथद्वात्रिशिकामभिकत कल्याणमन्दिरस्तवं चक्र प्रथमश्लोके एव प्रासादस्थितात् शिखिशिखाग्रादिव Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ । अनकान्त [ब आचाराङ्ग-नियुक्तिमें वद्धमानको छोड़कर शेष २३ तीर्थक्करोंके तपःकर्मको निरुपसर्ग वर्णित किया है। इससे भी प्रस्तुत कल्याणमन्दिर दिगम्बर कृति होनी चाहिये। प्रमुख श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीने ग्रन्थकी गुजराती प्रस्तावनामें विविधतीर्थकल्पको छोड़कर शेष पाँच प्रबन्धोंका सिद्धसेन-विषयक सार बहुपरिश्रमके साथ दिया है और उसमें कितनी परस्पर विरोधी तथा मौलिक मतभेदकी बातोंका भी उल्लेख किया है और साथ ही यह निष्कर्ष निकाला है कि 'सिद्धसेन दिवाकरका नाम मूलमें कुमुदचन्द्र नहीं था, होता तो दिवाकर-विशेषणकी तरह यह श्रतिप्रिय नाम भी किसी-न-किसी प्राचीन ग्रन्थमें सिद्धसेनकी निश्चित कृति अथवा उसके उद्धत वाक्योंके साथ जरूर उल्लेखित मिलता-प्रभावकचरितसे पहलेके किसी भी ग्रन्थमें इसका उल्लेख नहीं है । और यह कि कल्याणमन्दिरको सिद्धसेनकी कृति सिद्ध करनेके लिये कोई निश्चित प्रमाण नहीं है-वह सन्देहास्पद है।' एसी हालतमें कल्याणमन्दिरकी बातको यहाँ छोड़ ही दिया जाता है। प्रकृत-विषयके निर्णयमे वह कोई विशेष साधक-बाधक भी नहीं है। अब रही द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, सन्मतिसूत्र और न्यायावतारकी बात । न्यायावतार एक ३२ श्लोकोका प्रमाण-नय-विषयक लघुग्रन्थ है, जिसके श्रादि-अन्तमें कोई मङ्गलाचरण तथा प्रशस्ति नहीं है. जो आमतौरपर श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेनदिवाकरकी कृति माना जाता है और जिसपर श्वे सिद्धर्षि (सं०९६२)की विवृति और उम विवृतिपर देवभद्रकी टिप्पणी उपलब्ध है और ये दोनो टीकाएँ डा० पी० एल० वैद्यके द्वारा सम्पादित होकर सन् १९८मे प्रकाशित हो चुकी है। सन्मतिसूत्रका परिचय ऊपर दिया ही जा चुका है। उसपर अभयदेवसूरिकी-५ हजार श्लोक-परिमाण जो सस्कृतटीका है वह उक्त दोनो विद्वानोके द्वारा सम्पादित होकर सं० १९८७में प्रकाशित हो चुकी है। द्वात्रिशद्वात्रिंशिका ३२३२ पद्योंकी ३२ कृतियाँ बतलाई जाती है, जिनमेसे १ उपलब्ध है। उपलब्ध द्वात्रिंशिकाएँ भावनगरकी जैनधर्मप्रसारक सभाकी तरफसे विक्रम संवत् १९६५मे प्रकाशित हो चुकी हैं। ये जिस क्रमसे प्रकाशित हुई है उसी क्रमसे निर्मित हुई हो मा उन्हें देखनेसे मालूम नहीं होता-वे बादको किमी लेखक अथवा पाठक-द्वारा उस क्रमसे संग्रह की अथवा कराई गई जान पड़ती है। इस बातको पं. सुखलालजी आदिने भी प्रस्तावनामे व्यक्त किया है। साथ ही यह भी बतलाया है कि 'ये सभी द्वात्रिंशिका सिद्धसेनने जैनदीक्षा स्वीकार करनेके पीछे ही रची हो ऐसा नहीं कहा जा सकता, इनमेंसे कितनी ही द्वात्रिंशिका (बत्तीसियाँ) उनके पूर्वाश्रममें भी रची हुई हो सकती हैं। और यह ठीक है, परन्तु ये मभी द्वात्रिशिकाएँ एक ही सिद्धसेनकी रची हुई हों ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, चुनाँचे २१वी द्वात्रिंशिकाके विषयमें पण्डित सुग्वलालजी आदिने प्रस्तावनामें यह स्पष्ट स्वीकार भी किया है कि उसकी भाषारचना और वर्णित वस्तुकी दुमरी बत्तीमियोके साथ तुलना करनेपर ऐसा मालूम होता है कि वह बत्तीसी किसी जुदे ही सिद्धसेनकी कृति है और चाहे जिस कारणसे दिवाकर (सिद्धसेन)की मानी जानेवाली कृतियोमें दाखिल होकर दिवाकरके नामपर चढ़ गई है। इसे महावीरद्वात्रिशिका' लिखा है-महावीर नामका इममें उल्लेग्य भी है, जब कि और किसी १ "सव्वेसि तवो कम्म निरुवसग्गं तु वरिणय जिणाण । नवर तु वड्डमाणस्स सोवसग्गं मुणेयव्व ॥२७६॥" २ यह प्रस्तावना ग्रन्थके गुजराती अनुवाद-भावार्थके साथ सन् १९३२मे प्रकाशित हुई है और ग्रन्थका यह गुजराती संस्करण चादको अग्रेजीमें अनुवादित होकर 'सन्मतितर्क के नामसे सन १९३६में प्रकाशित हुश्रा है। ३ यह द्वात्रिशिका अलग ही है ऐसा ताडपत्रीय प्रतिसे भी जाना जाता है, जिसमें २० ही द्वात्रिशिकाएँ अङ्कित है और उनके अन्तमें "ग्रन्थान८३० मंगलमस्तु" लिखा है, जो ग्रन्थकी समाप्तिके साथ उसकी Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशिकामें 'महावीर' नामका उल्लेख नहीं है-प्रायः 'वीर' या 'वर्द्धमान' नामका ही उल्लेख पाया जाता है। इसकी पञ्चसंख्या ३३ है और ३३वें पद्यमें स्तुतिका माहात्म्य दिया हुआ है। ये दोनों बातें दूसरी सभी द्वात्रिंशिकाओंसे विलक्षण है और उनस इसके भिन्नकतत्वकी द्योतक हैं। इसपर टीका भी उपलब्ध है जब कि और किसी द्वात्रिंशिकापर कोई टीका उपलब्ध नहीं है। चंद्रप्रभसूरिने प्रभावकचरितमें न्यायावतारकी, जिसपर टीका उपलब्ध है, गणना भी ३२ द्वात्रिंशिकाओंमें की है ऐसा कहा जाता है परन्तु प्रभावकचरितमें वैसा कोई उल्लेख नहीं मिलता और न उसका समर्थन पूर्ववर्ती तथा उत्तरवर्ती अन्य किसी प्रबन्धसे ही होता है। टीकाकारोने भी उसके द्वात्रिशद्वात्रिंशिकाका अंग होनेकी कोई बात सूचित नहीं की, और इस लिये न्यायावतार एक स्वतंत्र ही ग्रन्थ होना चाहिये तथा उसी रूपमें प्रसिद्धिको भी प्राप्त है। २१वीं द्वात्रिशिकाके अन्तमें 'सिद्धसेन' नाम भी लगा हुआ है, जबकि ५वी द्वात्रिंशिकाको छोड़कर और किसी द्वात्रिंशिकामे वह नहीं पाया जाता। हो सकता है कि ये नामवाली दोनों द्वात्रिंशिकाएँ अपने स्वरूपपरसे एक नहीं किन्तु दो अलग अलग सिद्धसेनोसे सम्बन्ध रखती हो और शेष विना नामवाली द्वात्रिंशिकाएँ इनसे भिन्न दूसर ही सिद्धसेन अथवा सिद्धसेनोंकी कृतिस्वरूप हों । पण्डित सुखलालजी और पण्डित बेचरदासजीने पहली पाँच द्वात्रिंशिकाओंको, जो वीर भगवानकी स्तुतिपरक है, एक अप (समुदाय )में रक्खा है और उस ग्रूप (द्वात्रिंशिकापश्चक)का स्वामी समन्तभद्रके स्वयम्भूस्तोत्रके साथ साम्य घोषित करके तुलना करते हुए लिखा है कि स्वयम्भूस्तोत्रका प्रारम्भ जिस प्रकार स्वयम्भू शब्दसे होता है और अन्तिम पद्य (१४३)में प्रन्थकारने श्रेषरूपसे अपना नाम समन्तभद्र सूचित किया है उसी प्रकार इस द्वात्रिंशिकापञ्चकका प्रारम्भ भी स्वयम्भू शब्दसे होता है और उसके अन्तिम पद्य (५, ३२)मे भी ग्रन्थकारने श्रेषरूपमे अपना नाम सिद्धसेन दिया है। इससे शेष १५ द्वात्रिंशिकाएँ भिन्न ग्रप अथवा ग्रूपासे सम्बन्ध रखती हैं और उनमे प्रथम ग्रूपकी पद्धतिको न अपनाये जाने अथवा अन्तम ग्रन्थकारका नामोल्लेख तक न हानेके कारण वे दूसर सिद्धसेन या सिद्धसेनोंकी कृतियाँ भी हो सकती हैं। उनमेसे ११वीं किसी राजाकी स्तुतिको लिये हुए है, छठी तथा आठवी समीक्षात्मक हैं और शेष बारह दार्शनिक तथा वस्तुचर्चा वाली हैं। इन सब द्वात्रिंशिकाओंके सम्बन्धमे यहाँ दो बातें और भी नोट किये जानेके योग्य हैं-एक यह कि द्वात्रिंशिका (बत्तीसी) होनेके कारण जब प्रत्येककी पद्यसंख्या ३२ होनी चाहिये थी तब वह घट-बढ़रूपमे पाई जाती है। १०वीमे दो पद्य तथा २१वीं में एक पद्य बढ़ती है, और वीमें छह पद्योकी, १२वीमे चारकी तथा १५वीमे एक पद्यकी घटती है। यह घट-बढ़ भावनगरकी उक्त मुद्रित प्रतिमें ही नहीं पाई जाती बल्कि पूनाके भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट और कलकत्ताकी एशियाटिक सोसाइटीकी हस्तलिखित प्रतियोमे भी पाई जाती है। रचना-समयकी तो यह घट-बढ़ प्रतीतिका विषय नहीं-पं० सुखलालजी श्रादिने भी लिखा है कि 'बढ़-घटकी यह घालमेल रचनाके बाद ही किसी कारणसे होनी चाहिये।' इसका एक कारण लेखकोंकी असावधानी हो सकता है। जैसे १६वी द्वात्रिंशिकामें एक पद्यकी कमी थी वह पूना और कलकत्ताकी प्रतियोंसे पूरी हो गई। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि किमीने अपने प्रयोजनके वश यह घालमेल की हो । कुछ भी हो, इससे उन द्वात्रिंशिकाओंके पूर्णरुपको समझने श्रादिमें बाधा पड़ रही है। जैसे ११वीं द्वात्रिंशिकासे यह मालूम ही नहीं होता कि वह कौनसे राजाकी स्तुति है, और इससे उसके रचयिता तथा रचना-कालको जानने में भारी बाधा उपस्थित है। यह नही हो सकता कि किसी विशिष्ट राजाकी स्तुति की नाग और रमों या जी-मेगा Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४J .. . . - नाम बराबर दिया हुआ है, फिर यही उससे शून्य रही हो यह कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता। अतः जरूरत इस बातकी है कि द्वात्रिशिका-विषयक प्राचीन प्रतियों की पूरी खोज की जाय। इससे अनुपलब्ध द्वात्रिंशिकाएँ भी यदि कोई होंगी तो उपलब्ध हो सकेंगी और उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओंसे वे अशुद्धियाँ भी दूर हो सकेंगी जिनके कारण उनका पठन-पाठन कठिन हो रहा है और जिसकी पं० सुखलालजी आदिको मी भारी शिकायत है। दूसरी बात यह कि द्वात्रिशिकाओंको स्तुतियाँ कहा गया है। और इनके अवतारका प्रसङ्ग भी स्तुति-विषयका ही है; क्योंकि श्वेताम्बरीय प्रबन्धोके अनुसार विक्रमादित्य राजा की ओरसे शिवलिङ्गको नमस्कार करनेका अनुरोध होनेपर जब सिद्धसेनाचार्यने कहा कि यह देवता मेरा नमस्कार सहन करनेमें समर्थ नहीं है-मेरा नमस्कार सहन करनेवाले दूसरे ही देवता हैं-तब राजाने कौतुकवश, परिणामकी कोई पर्वाह न करते हुए नमस्कारके लिये विशेष आग्रह किया। इसपर सिद्धसेन शिवलिङ्गके सामने प्रासन जमाकर बैठ गये और इन्होंने अपने इष्टदेवकी स्तुति उच्चस्वर आदिके साथ प्रारम्भ कर दी; जैसा कि निम्न वाक्योंसे प्रकट है: " श्रुत्वेति पुनरासीनः शिवलिङ्गस्य स प्रभुः । * उदाजहे स्तुतिश्लोकान् तारस्वरकरस्तदा ॥१३८॥" -प्रभा० च० "ततः पद्मासनेन भूत्वा द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकाभिर्देवं स्तुतिमुपचक्रमे ।" -विविधतीर्थकल्प, प्रबन्धकोश । परन्तु उपलब्ध २१ द्वात्रिंशिकाओंमें स्तुतिपरक द्वात्रिंशिकाएँ केवल सात ही हैं. जिनमें भी एक राजाकी स्तुति होनेसे देवताविषयक स्तुतियोंकी कोटिसे निकल जाती है और इस तरह छह द्वात्रिशिकाएँ ही ऐसी रह जाती हैं जिनका श्रीरवीरवर्द्धमानकी स्तुतिसे सम्बन्ध है और जो उस अवसरपर उच्चरित कही जा सकती हैं-शेष १४ द्वात्रिंशिकाएँ न तो स्तुति-विषयक हैं, न उक्त प्रसङ्गके योग्य हैं और इसलिये उनकी गणना उन द्वात्रिंशिकाओं में नहीं की जा सकती जिनकी रचना अथवा उच्चारणा सिद्धसेनने शिवलिङ्गके सामने बैठ कर की थी। यहाँ इतना और भी जान लेना चाहिये कि प्रभावकचरितके अनुसार स्तुतिका प्रारम्भ "प्रकाशितं त्वयैकेन यथा सम्यग्जगत्त्रयं ।” इत्यादि श्लोकोंसे हुआ है, जिनमेंसे "तथा हि" शब्दके साथ चार श्लोकोको' उद्धृत करके उनके आगे "इत्यादि लिखा गया १ "सिद्धसेणेण पारद्धा बत्तीसियाहि जिणथुई" x x -(गद्यप्रबन्ध-कथावली) "तस्सागयस्स तेणं पारद्धा जिण्थुई समत्ताहिं । बत्तीसाहिं बत्तीसियाहिं उद्दामसद्दण ॥" -(पद्यप्रबन्ध; स०प्र० पृ०५६) "न्यायावतारसूत्रं च श्रीवीरस्तुतिमप्यथ । द्वात्रिंशच्छलोकमानाश्च त्रिशदन्याः स्तुतीरपि ॥ १४३ ।।" -प्रभावकचरित २ ये मत्प्रणामसोदारस्ते देवा अपरे ननु । किं भावि प्रथम त्वं द्राक् प्राह राजेति कौतुकी ॥ १३५ ॥ देवानिजप्रणम्यांश्च दर्शय त्वं वदनिति । भूपतिर्जल्पितस्तेनोत्पाते दोषो न मे नृप ॥ १३६ ।। ३ चारों श्लोक इस प्रकार हैं: प्रकाशितं त्वयैकेन यथा सम्यग्जगत्त्रयम् । समस्तैरपि नो नाथ ! वरतीर्थाधिपैस्तथा ॥ १३९ ।। विद्योतयति वा लोकं यथैकोऽपि निशाकरः। समुद्गतः समयोऽपि तथा कि तारकागणः॥ १४०॥ - ----- A m ar नामवेयर . .." Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Los है। और फिर न्यायावतारसूत्र च' इत्यादि श्लोकद्वारा ३२ कृतियोंकी और सूचना की गई है, जिनमेंसे एक न्यायावतारसूत्र, दूसरी श्रीवीरस्तुति और ३० बत्तीस बत्तीस श्लोकोंवाली दूसरी स्तुतियाँ हैं । प्रवन्धचिन्तामणिके अनुसार स्तुतिका प्रारम्भ "प्रशान्तं दर्शनं यस्य सर्वभूताऽभयप्रदम् । मांगल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते ॥" __ इस श्लोकसे होता है, जिसके अनन्तर “इति द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका कृता" लिखकर यह सूचित किया गया है कि वह द्वात्रिंशद्वात्रिशिका स्तुतिका प्रथम श्लोक है। इस श्लोक तथा उक्त चारों श्लोकोमेंसे किसीसे भी प्रस्तुत द्वात्रिशिकाओंका प्रारम्भ नही होता है, न ये श्लोक किसी द्वात्रिंशिकामे पाये जाते हैं और न इनके साहित्यका उपलब्ध प्रथम २० द्वात्रिंशिकाओंके साहित्यके साथ कोई मेल ही खाता है। ऐसी हालतमे इन दोनों प्रबन्धों तथा लिखित पद्यप्रबन्धमे उल्लखित द्वात्रिशिका स्तुतियाँ उपलब्ध द्वात्रिशिकाओंसे भिन्न कोई दूसरी ही होनी चाहियें। प्रभावकचरितके उल्लेखपरसे इसका और भी समर्थन होता है; क्योंकि उसमे 'श्रीवीरस्तुति के बाद जिन ३० द्वात्रिंशिकाओको “अन्याः स्तुतिः” लिखा है वे श्रीवीरसे भिन्न दूसरे ही तीर्थङ्करादिकी स्तुतियाँ जान पड़ती है और इसलिये उपलब्ध द्वात्रिशिकाओके प्रथम अप द्वात्रिशिकापञ्चकमे उनका समावेश नहीं किया जा सकता, जिस मेंकी प्रत्यक द्वात्रिंशिका श्रीवीरभगवानसे ही सम्बन्ध रखती है। उक्त तीनो प्रबन्धोके बाद बने हुए विविधतीर्थकल्प और प्रबन्धकोश (चतुर्विशतिप्रबन्ध)में स्तुतिका प्रारम्भ 'स्वयंभुवं भूतसहस्रनेत्र' इत्यादि पद्यसे होता है. जो उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओंके प्रथम ग्रूपका प्रथम पद्य है, इसे देकर "इत्यादि श्रीवीरद्वात्रिंशद्वात्रिशिका कृता" एसा लिखा है । यह पद्य प्रबन्धवर्णित द्वात्रिशिकाओका सम्बन्ध उपलब्ध द्वात्रिशिकाओके साथ जोड़नेके लिये बादको अपनाया गया मालूम होता है, क्योकि एक तो पूर्वरचित प्रबन्धोसे इसका कोई समर्थन नहीं होता, और उक्त तीनों प्रबन्धोंसे इसका स्पष्ट विरोध पाया जाता है। दूसरे, इन दोनों प्रन्थोमें द्वात्रिंशद्वात्रिशिकाको एकमात्र श्रीवीरसे सम्बन्धित किया गया है और उसका विषय भी “देवं स्तोतुमुपचक्रमे" शब्दोके द्वारा 'स्तुति' ही बतलाया गया है; परन्तु उस स्तुतिको पढ़नेसे शिवलिङ्गका विस्फोट होकर उसमेंसे वीरभगवानकी प्रतिमाका प्रादुर्भूत होना किसी प्रन्थमें भी प्रकट नहीं किया गया-विविधतीर्थकल्पका कर्ता आदिनाथकी और प्रबन्धकोशका कर्ता पार्श्वनाथकी प्रतिमा प्रकट होना बतलाता है। और यह एक अमङ्गत-सी बात जान पड़ती है कि स्तुति तो किसी तीर्थङ्करकी की जाय और उसे करते हुए प्रतिमा किसी दूसरे ही तीर्थङ्करकी प्रकट होवे। इस तरह भी उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओंमें उक्त १४ द्वात्रिंशिकाएँ, जो स्तुतिविषय तथा वीरकी स्तुतिसे सम्बन्ध नहीं रखती, प्रबन्धवर्णित द्वात्रिशिकाओंमें परिगणित नहीं की जा सकतीं। और इसलिये पं० सुखलालजी तथा पं० बेचरदासजीका प्रस्तावनामें यह लिखना कि 'शुरुआतमे दिवाकर (सिद्धसेन )के जीवनवृत्तान्तमे स्तुत्यात्मक बत्तीसियों (द्वात्रिंशिकाओं)को ही स्थान देनेकी जरूरत मालूम हुई और इनके साथमें संस्कृत भाषा तथा पद्यसंख्यामें समानता रखनेवाली परन्तु स्तुत्यात्मक नहीं ऐसी दूसरी घनी बत्तीसियाँ इनके जीवनवृत्तान्तमें स्तुत्यात्मक कृतिरूपमें ही दाखिल होगई और पीछे किसीने इस हकीकतको देखा तथा खोजा ही नहीं कि कही जानेवाली बत्तीस अथवा उपलब्ध इक्कीस बत्तीसियोंमें नो वाद्भुतमुलूकस्य प्रकृत्या क्लिष्टचेतसः। स्वच्छा अपि तमस्स्वेन भासन्ते भास्वतः कराः ॥ १४२॥ लिखित पद्यप्रबन्धमें भी ये ही चारों श्लोक 'तस्सागयस्स तेणं पारद्धा जिणथुइ' इत्यादि पद्यके मामा पानसे मार दि .inararu - ....-1 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितनी और कौन स्तुतिरूप हैं और कौन कौन स्तुतिरूप नहीं हैं और इस तरह सभी प्रबन्धरचयिता आचार्योंको ऐसी मोटी भूलके शिकार बतलाना कुछ भी जीको लगने वाली बात मालूम नहीं होती । उसे उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओंकी सङ्गति बिठलानेका प्रयत्नमात्र ही कहा जा सकता है, जो निराधार होनेसे समुचित प्रतीत नहीं होता । द्वात्रिशिकाओंकी इस सारी छान-बीनपरसे निम्न बातें फलित होती हैं१. द्वात्रिंशिकाएँ जिस क्रमसे छपी हैं उसी क्रमसे निर्मित नहीं हुई हैं । २. उपलब्ध २१ द्वात्रिंशिकाएँ एक ही सिद्धसेनके द्वारा निर्मित हुई मालूम नहीं होतीं । ३. न्यायावतारकी गणना प्रबन्धोल्लिखित द्वात्रिंशिकाओं में नहीं की जा सकती । ४. द्वात्रिशिका की संख्या में जो घट-बढ़ पाई जाती वह रचनाके बाद हुई है और उसमें कुछ ऐसी घट-बढ़ भी शामिल है जो कि किसीके द्वारा जान-बूझकर अपने किसी प्रयोजनके लिये की गई हो। ऐसी द्वात्रिंशिकाओंका पूर्ण रूप अभी अनिश्चित है । ५. उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओंका प्रबन्धो में वर्णित द्वात्रिंशिकाओंके साथ, जो सब स्तुत्यात्मक हैं और प्रायः एक ही स्तुतिप्रन्थ 'द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका' की अङ्ग जान पड़ती है, सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता । दोनो एक दूसरे से भिन्न तथा भिन्नकतृ के प्रतीत होती है । ऐसी हालत में किसी द्वात्रिशिकाका कोई वाक्य यदि कहीं उद्धृत मिलता है तो उसे उसी द्वात्रिंशिका तथा उसके कर्ता तक ही सीमित समझना चाहिये, शेष द्वात्रिंशिकाओं में से किसी दूसरी द्वात्रिंशिकाके विषयके साथ उसे जोड़कर उसपरसे कोई दूसरी बात उस वक्त तक फलित नहीं की जानी चाहिये जब तक कि यह साबित न कर दिया जाय कि वह दूसरी द्वात्रिंशिका भी उसी द्वात्रिंशिकाकारकी कृति है । अस्तु । अब देखना यह है कि इन द्वात्रिंशिकाओं और न्यायावतारमेंसे कौन-सी रचना मन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन आचार्यकी कृति है अथवा हो सकती है ? इस विषय में पण्डित सुखलालजी और पं० बेचरदासजीने अपनी प्रस्तावनामें यह प्रतिपादन किया है कि २१वीं द्वात्रिंशिका को छोड़कर शेष २० द्वात्रिंशिकाएँ, न्यायावतार और सन्मति ये सब एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ हैं और ये सिद्धसेन वे है जो उक्त श्वेताम्बरीय प्रबन्धोके अनुसार वृद्धवादीके शिष्य थे और 'दिवाकर' नामके साथ प्रसिद्धिको प्राप्त हैं । दूसरे श्वेताम्बर विद्वानोंका विना किसी जाँच-पड़तालके अनुसरण करनेवाले कितने ही जैनेतर विद्वानो की भी ऐसी ही मान्यता है और यह मान्यता ही उस सारी भूल-भ्रान्तिका मूल है जिसके कारण सिद्धसेन - विषयक जो भी परिचय-लेख अब तक लिखे गये वे सब प्रायः खिचड़ी बने हुए हैं, कितनी ही गलतफहमियोंको फैला रहे है और उनके द्वारा सिद्धसेन के समयादिकका ठीक निर्णय नहीं हो पाता। इसी मान्यताको लेकर विद्वद्वर पण्डित सुखलालजीकी स्थिति सिद्धसेनके समय-सम्बन्धमें बरावर डाँवाडोल चली जाती है । आप प्रस्तुत सिद्धसेनका समय कभी विक्रमकी छठी शताब्दीसे पूर्व पूर्वी शताब्दी' बतलाते हैं, कभी छठी शताब्दीका भी उत्तरवर्ती समय कह डालते हैं, कभी सन्दिग्धरूपमे छठी या सातवी शताब्दी निर्दिष्ट करते हैं और कभी पूवीं तथा छठी शताब्दीका मध्यवर्तीकाल प्रतिपादन करते हैं । और बड़ी मजेकी बात यह है कि जिन प्रबन्धोंके आधारपर सिद्धसेनदिवाकर का परिचय दिया जाता है उनमें 'न्यायावतार' का नाम तो किसी तरह एक प्रबन्धमें पाया भी जाता है परन्तु सिद्धसेनकी कृतिरूपमे सन्मतिसूत्रका कोई उल्लेख कहीं भी उप१ सम्मतिप्रकरण प्रस्तावना पृ० ३६, ४२, ६४, ६४ / २ ज्ञानविन्दु-परिचय पृ० ६ । ३ सन्मतिप्रकरण के अंग्रेजी सस्करणका फोरवर्ड (Foreword) और भारतीयविद्या में प्रकाशित 'श्रीसिद्धसेनदिवाकरना समयनो प्रश्न' नामक लेख - भा० वि० तृतीय भाग पृ० १५२ । 09. LALALA भ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mes सन्नास-सत्ताक । ४२१ लब्ध नहीं होता। इतनेपर भी प्रबन्ध-वर्णित सिद्धसेनकी कृतियों में उसे भी शामिल किया जाता है ! यह कितने आश्चर्यकी बात है इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। प्रन्थकी प्रस्तावनामें पं० सुखलालजी आदिने, यह प्रतिपादन करते हुए कि 'उक्त प्रबन्धोंमें वे द्वात्रिंशिकाएँ भी जिनमें किसीकी स्तुति नहीं है और जो अन्य दर्शनों तथा स्वदर्शनके मन्तव्योके निरूपण तथा समालोचनको लिये हुए है स्तुतिरूपमें परिगणित हैं और उन्हें दिवाकर(सिद्धसेन)के जीवनमें उनकी कृतिरूपसे स्थान मिला है, इसे एक पहेली' ही बतलाया है जो स्वदर्शनका निरूपण करनेवाले और द्वात्रिंशिकाओसे न उतरनेवाले (नीचा दर्जा न रखनेवाले) 'सन्मतिप्रकरण'को दिवाकरके जीवनवृत्तान्त और उनकी कृतियोंमें स्थान क्यों नहीं मिला। परन्तु इस पहेलीका कोई समुचित हल प्रस्तुत नहीं किया गया, प्रायः इतना कहकर ही सन्तोष धारण किया गया है कि 'सन्मतिप्रकरण यदि बत्तीस श्लोकपरिमाण होता तो वह प्राकृतभाषामें होते हुए भी दिवाकरके जीवनवृत्तान्तमें स्थान पाई हुई संस्कृत बत्तीसियोके साथमें परिगणित हुए विना शायद ही रहता।' पहेलीका यह हल कुछ भी महत्व नहीं रखता । प्रबन्धोसे इसका कोई समर्थन नहीं होता और न इस बातका कोई पता ही चलता है कि उपलब्ध जी द्वात्रिशिकाएँ स्तुत्यात्मक नहीं हैं वे सब दिवाकर सिद्धसेनके जीवनवृत्तान्तमें दाखिल हो गई है और उन्हें भी उन्हीं सिद्धसेनकी कृतिरूपसे उनमें स्थान मिला है, जिससे उक्त प्रतिपादनका हो समर्थन होता-प्रबन्धवर्णित जीवनवृत्तान्तमें उनका कही कोई उल्लेख ही नहीं है। एकमात्र प्रभावकचरितमे 'न्यायावतार'का जो असम्बद्ध, असमर्थित और असमञ्जम उल्लेख मिलता है उसपरसे उसकी गणना उस द्वाविशद्वात्रिंशिकाके अङ्गरूपमें नहीं की जा सकती जा सब जिन-स्तुतिपरक थी. वह एक जुदा ही स्वतन्त्र ग्रन्थ है जैसा कि ऊपर व्यक्त किया जा चुका है। और सन्मतिप्रकरणका बत्तीस श्लोकपरिमाण न होना भी सिद्धसेनके जीवनवृत्तान्तसे सम्बद्ध कृतियोमें उसके परिगणित हानेके लिये कोई बाधक नहीं कहा जा सकता-खासकर उस हालतमें जब कि चवालीस पद्यसंख्यावाले कल्याणमन्दिरस्तोत्रको उनकी कृतियाम परिगणित किया गया है और प्रभावकचरितमे इस पद्यसंख्याका स्पष्ट उल्लेख भी माथमे मौजूद है। वास्तवमें प्रबन्धोपरसे यह ग्रन्थ उन सिद्धसेनदिवाकरकी कृति मालूम ही नहीं होता. जो वृद्धवादीके शिष्य थे और जिन्हे आगमग्रन्थोंको संस्कृतमें अनुवादित करनेका अभिप्रायमात्र व्यक्त करनेपर पारश्चिकप्रायश्चित्तक रूपमे बारह वर्ष तक श्वताम्बर संघसे बाहर रहनेका कठार दण्ड दिया जाना बतलाया जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थका उन्हीं सिद्धसेनकी कृति बतलाना, यह सब बादकी कल्पना और योजना ही जान पड़ती है। पं० सुखलालजीने प्रस्तावनामे तथा अन्यत्र भी द्वात्रिंशिकाओ. न्यायावतार और सन्मतिसूत्रका एककतृत्व प्रतिपादन करनेके लिये कोई खास हेतु प्रस्तुत नहीं किया, जिससे इन सब कृतियोका एक ही प्राचार्यकृत माना जा सके, प्रस्तावनामे केवल इतना ही लिख दिया है कि 'इन सबके पीछे रहा हुश्रा प्रतिभाका समान तत्त्व ऐसा माननेके लिये ललचाता है कि ये सब कृतियाँ किसी एक ही प्रतिभाके फल है।' यह सब कोई समर्थ युक्तिवाद न होकर एक प्रकारसे अपनी मान्यताका प्रकाशनमात्र हैं; क्योकि इन सभी प्रन्थोपरसे प्रतिभाका ऐसा कोई असाधारण समान तत्व उपलब्ध नहीं होता जिसका अन्यत्र कही भी दर्शन न होता हा । स्वामी समन्तभद्रके मात्र स्वयम्भूस्तोत्र और आप्तमीमांसा ग्रन्थोंके साथ इन ग्रन्थोकी तुलना करते हुए स्वयं प्रस्तावनालेखकाने दोनोंमें 'पुष्कल साम्य'का होना स्वीकार किया १ ततश्चतुश्चत्वारिशद्वृत्तां स्तुतिमसो जगी । कल्याणमन्दिरेत्यादिविख्यातां जिनशासने ॥१४४॥ -वृद्धवादिप्रबन्ध पृ०१०१। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ है और दोनों आचार्योंकी प्रन्थनिर्माणादि-विषयक प्रतिभाका कितना ही चित्रण किया है। और भी अकलङ्क-विद्यानन्दादि कितने ही प्राचार्य ऐसे हैं जिनकी प्रतिभा इन प्रन्थोंके पीछे रहनेवाली प्रतिभासे कम नहीं है, तब प्रतिभाकी समानता ऐसी कोई बात नहीं रह जाती जिसकी अन्यत्र उपलब्धि न हो सके और इसलिये एकमात्र उसके आधारपर इन सब ग्रन्थोंको, जिनके प्रतिपादनमें परस्पर कितनी ही विभिन्नताएँ पाई जाती हैं, एक ही प्राचार्यकृत नहीं कहा जा सकता । जान पड़ता है समानप्रतिभाके उक्त लालचमें पड़कर ही बिना किसी गहरी जाँच-पड़तालके इन सब ग्रन्थोंको एक ही प्राचार्यकृत मान लिया गया है; अथवा किसी साम्प्रदायिक मान्यताको प्रश्रय दिया गया है जबकि वस्तुस्थिति वैसी मालूम नहीं होती। गम्भीर गवेषणा और इन ग्रन्थोंकी अन्तःपरीक्षादिपरसे मुझे इस बातका पता चला है कि सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन अनेक द्वात्रिशिकाओंके कर्ता सिद्धसेनसे भिन्न हैं। यदि २१वीं द्वात्रिंशिकाको छोड़कर शेष २० द्वात्रिंशिकाएँ एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ हों तो वे उनमेंसे किसी भी द्वात्रिंशिकाके कर्ता नहीं हैं, अन्यथा कुछ द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता हो सकते हैं। न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेनकी भी ऐसी ही स्थिति है वे सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेनसे जहाँ भिन्न हैं वहाँ कुछ द्वात्रिंशिकाओके कर्ता सिद्धसेनसे भी भिन्न है और उक्त २० द्वात्रिंशिकाएँ यदि एकसे अधिक सिद्धसेनोंकी कृतियाँ हों तो वे उनमेंसे कुछके कर्ता हो सकते हैं, अन्यथा किसीके भी कर्ता नही बन सकते। इस तरह सन्मतिसूत्रके कर्ता, न्यायावतारके कर्ता और कतिपय द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता तीन सिद्धसेन अलग अलग है-शेष द्वात्रिंशिकाओके कर्ता इन्हींमेंसे कोई एक या दो अथवा तीनो हो सकते हैं और यह भी हो सकता है कि किसी द्वात्रिंशिकाके कर्ता इन तीनोंसे भिन्न कोई अन्य ही हों। इन तीनों सिद्धसेनोका अस्तित्वकाल एक दूसरेसे भिन्न अथवा कुछ अन्तरालको लिये हुए है और उनमें प्रथम सिद्धसेन कतिपय द्वात्रिंशिकाओके कर्ता, द्वितीय सिद्धसेन सन्मतिसूत्रके कर्ता और तृतीय सिद्धसेन न्यायावतारके कर्ता है। नीचे अपने अनुसन्धान-विषयक इन्हीं सब बातोंको संक्षेपमें स्पष्ट करके बतलाया जाता है: (१) सन्मतिसूत्रके द्वितीय काण्डमें केवलीके ज्ञान-दर्शन-उपयोगोंकी क्रमवादिता और युगपद्वादितामें दोष दिखाते हुए अभेदवादिता अथवा एकोपयोगवादिताका स्थापन किया है। साथ ही ज्ञानावरण और दर्शनावरणका युगपत् क्षय मानते हुए भी यह बतलाया है कि दो उपयोग एक साथ कहीं नहीं होते और केवलीमें वे क्रमशः भी नहीं होते । इन ज्ञान और दर्शन उपयोगोंका भेद मनःपर्ययज्ञान पर्यन्त अथवा छद्मस्थावस्था तक ही चलता है, केवलज्ञान होजानेपर दोनोंमें कोई भेद नहीं रहता-तब ज्ञान कहो अथवा दर्शन एक ही बात है, दोनोमें कोई विषय-भेद चरितार्थ नहीं होता। इसके लिये अथवा आगमग्रन्थोसे अपने इस कथनकी सङ्गति बिठलानेके लिये दर्शनकी 'अर्थविशेषरहित निराकार सामान्यग्रहणरूप' जो परिभाषा है उसे भी बदल कर रक्खा है अर्थात् यह प्रतिपादन किया है कि 'अस्पृष्ट तथा अविषयरूप पदार्थमें अनुमानज्ञानको छोड़कर जो ज्ञान होता है वह दर्शन है। इस विषयसे सम्बन्ध रखनेवाली कुछ गाथाएँ नमूनेके तौरपर इस प्रकार हैं: मणपजवणाणतो णाणस्स दरिसणस्स य विसेसो । केवलणाणं पुण दंसणं ति गाणं ति य समाणं ॥३॥ केई भणंति 'जइया जाणइ तइया ण पासइ जिणो' ति । सुत्तमवलंबमाणा तित्थयरासायसाभीरू ॥४॥ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साराराक - केवलणाणावरणक्खयजायं केवलं जहा गाणं । तह दंसणं पि जज्जह णियप्रावरणक्खयस्संते ॥५॥ सुत्तम्मि पेव 'साई अपजवसियं' ति केवलं वृत्त । सुत्तासायणभीरूहि तं च दन्वयं होई ॥७॥ संतम्मि केवले दंसबम्मि गाणस्स संभवो एत्थि । केवलणाणम्मि य दंसणस्स तम्हा सणिहणाई ॥८॥ दसणणाणावरणक्खए समाणम्मि कस्स पुब्वअरं । होज समं उप्पाओ हंदि दुवे पत्थि उवोगा ॥९॥ अण्णायं पासंतो अद्दिट्ट च अरहा वियाणंतो । किं जाणइ किं पासइ कह सवण्णू ति वा होइ ॥१३॥ णाणं अप्पुढे अविसए य अथम्मि दंसणं होइ । मोत्तण लिंगो जं अणगयाईयविसएसु ॥२५॥ जं अप्पुट्ठ भावे जाणइ पासइ य केवली णियमा । . तम्हा तं णणं दसणं च अविसेसो सिद्ध ॥३०॥ इसीसे सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन अमेदवादके पुरस्कतो माने जाते हैं। टीकाकार अभयदेवसूरि और ज्ञानविन्दुके कर्ता उपाध्याय यशोविजयने भी ऐसा ही प्रतिपादन किया है। ज्ञानविन्दुमें तो एतद्विषयक सन्मति-गाथाओंकी व्याख्या करते हुए उनके इस वादको "श्रीसिद्धसेनोपज्ञनव्यमतं" (सिद्धसेनकी अपनी ही सूझ-बूझ अथवा उपजरूप नया मत) तक लिखा है। ज्ञानबिन्दुकी परिचयात्मक प्रस्तावनाके आदिमें पं० सुखलालजीने भी ऐसी ही घोषणा की है। (२) पहली, दूसरी और पाँचवीं द्वात्रिशिकाएँ युगपद्वादकी मान्यताको लिये हुए हैं; जैसा कि उनके निम्न वाक्पोंसे प्रकट है:क-"जगनै कावस्थं युगपदखिलाऽनन्तविषय यदेतत्प्रत्यक्षं तव न च भवान् कस्यचिदपि । अनेनैवाऽचिन्त्य-प्रकृति-रस-सिद्धस्तु विदुषां समीक्ष्यैतवारं तव गुण-कथोत्का वयमपि ॥१-३२॥" ख-"नाऽर्थान् विवित्ससि न वेत्स्यसि नाऽप्यवेत्सी ने ज्ञातवानसि न तेऽच्युत ! वेद्यमस्ति । त्रैकाल्य-नित्य-विषमं युगपच विश्वं पश्यस्यचिन्त्य-चरिताय नमोऽस्तु तुभ्यम् ॥२-३०॥" ग-"अनन्तमेक युगपत् त्रिकालं शब्दादिभिनिप्रतिघातवृत्ति ॥५-२१॥" दुरापमाप्तं यदचिन्त्य-भूति-ज्ञानं त्वया जन्म-जराऽन्तक तेनाऽसि लोकानभिभूय सर्वान्सर्वज्ञ ! लोकोत्तमतामुपेतः ॥५-२२॥" Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - इन पद्योंमें ज्ञान और दर्शनके जो भी त्रिकालवर्ती अनन्त विषय हैं उन सबको युगपत् जानने-देखनेकी बात कही गई है अर्थात् त्रिकालगत विश्वके सभी साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म-स्थूल, दृष्ट-अदृष्ट, ज्ञात-अज्ञात, व्यवहित-अव्यवहित आदि पदार्थ अपनी-अपनी अनेक-अनन्त अवस्थाओं अथवा पर्यायों-सहित वीरभगवान्के युगपत् प्रत्यक्ष हैं, ऐसा प्रतिपादन किया गया है। यहाँ प्रयुक्त हुआ 'युगपत्' शब्द अपनी खास विशेषता रखता है और वह ज्ञान-दर्शनके योगपद्यका उसी प्रकार द्योतक है जिसप्रकार स्वामी समन्तभद्रप्रणीत आप्तमीमांसा (देवागम)के "तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम्" (का० १०१) इस वाक्यमें प्रयुक्त हुआ 'युगपन्' शब्द, जिसे ध्यानमें लेकर और पादटिप्पणीमे पूरी कारिकाको उद्धृत करते हुए पं० सुखलालजीने ज्ञानबिन्दुके परिचयमें लिखा है-"दिगम्बराचार्य समन्तभद्रने भी अपनी 'प्राप्तमीमांसा में एकमात्र योगपद्यपक्षका उल्लेख किया है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि 'भट्ट अकलङ्क'ने इस कारिकागत अपनी 'अष्टशती' व्याख्यामें योगपद्य पक्षका स्थापन करते हुए क्रमिक पक्षका, संक्षेपमें पर स्पष्टरूपमें, खण्डन किया है, जिसे पादटिप्पणीमे निम्न प्रकारसे उद्धृत किया है: "तज्ज्ञान-दर्शनयोः क्रमवत्तौ हि सर्वज्ञत्वं कादाचित्कं स्यात् । तस्तत्सिद्धिरिति चेत् सामान्य-विशेष-विषययोर्विगतावरणयारयुगपत्प्रतिभासायोगात् प्रतिबन्धकान्तराऽभावात् ।" ऐसी हालतमे इन तोन द्वात्रिंशिकाओके कर्ता वे सिद्धसेन प्रतात नहीं होते जो सन्मतिसूत्रक कर्ता और अभेदवादके प्रस्थापक अथवा पुरस्का है, बल्कि वे सिद्धसेन जान पड़त हे जो केवलाके ज्ञान और दर्शनका युगपत् होना मानत थे । एस एक युगपद्वादी सिद्धसेनका उल्लेख विक्रमी वी-हवी शताब्दीक विद्वान आचार्य हरिभद्रने अपना 'नन्दीवृत्ति में किया है। नन्दीवृत्तिम 'केई भणंति जुगवं जाणइ पासइ य कंवली नियमा' इत्यादि दो गाथाओंको उद्धृत करके, जो कि जिनभद्रक्षमाश्रमणके विशेषणवता' ग्रन्थकी है. उनकी व्याख्या करत हुए लिखा है "केचन सिद्धसेनाचार्यादयः भणंति, कि ? 'युगपद' एकस्मिन्न व काले जानाति पश्यति च, कः ? केवली, न त्वन्यः, नियमात् नियमेन ।" नन्दीसूत्रके ऊपर मलयगिरिसूरिने जो टीका लिखी है उसमे उन्होंने भी युगपद्वादका पुरस्कर्ता सिद्धसेनाचार्यको बतलाया है । परन्तु उपाध्याय यशोविजयने, जिन्होने सिद्धसेनको अभेदवादका पुरस्कर्ता बतलाया है, ज्ञानबिन्दुमे यह प्रकट किया है कि 'नन्दीवृत्तिमें सिद्धसेनाचार्यका जो युगपत् उपयोगवादित्व कहा गया है वह अभ्युपगमवादके अभिप्रायसे है, न कि स्वतन्त्रसिद्धान्तके अभिप्रायसे; क्योकि क्रमोपयोग और अक्रम ( युगपत् ) उपयोगके पर्यनुयोगाऽनन्तर ही उन्होंने सन्मतिमे अपने पक्षका उद्भावन किया है, जो कि ठीक नहीं है। मालूम होता है उपाध्यायजीकी दृष्टिमे सन्मतिके कर्ता सिद्धसेन ही एकमात्र सिद्धसेनाचाय- के रूपमे रहे हैं और इसीसे उन्होंने सिद्धसेन-विषयक दो विभिन्न वादोंके कथनोसे उत्पन्न हुई असङ्गतिको दूर करनेका यह प्रयत्न किया है, जो ठीक नहीं है। चुनॉचे पं० सुखलालजीने उपाध्यायजीके इस कथनको कोई महत्व न देते हुए और हरिभद्र जैसे बहुश्र त आचार्यके इस प्राचीनतम उल्लेखकी महत्ताका अनुभव करते हुए ज्ञानबिन्दुके परिचय (पृ०६०)में अन्तको यह लिखा है कि 'समान नामवाले अनेक प्राचार्य होते आए हैं। इसलिये असम्भव नहीं कि १ "यत्त युगपदुपयोगवादित्व सिद्धसेनाचार्याणां नन्दिवृत्तावुक्त तदभ्युपगमवादाभिप्रायेण, न तु स्व तन्त्रसिद्धान्ताभिप्रायेण, क्रमाऽक्रमोपयोगद्वंयपर्यनुयोगानन्तरमेव स्वपक्षस्य सम्मती उद्भावितत्वादिति हव्यम ।" -ज्ञानबिन्दु पृ० ३३ । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११ । सन्मात-सद्धसनाक । ४३५ सिद्धसेनदिवाकरसे भिन्न कोई दूसरे भी सिद्धसेन हुए हों जो कि युगपद्वादके समर्थक हुए हों या माने जाते हों।" वे दूसरे सिद्धसेन अन्य कोई नहीं, उक्त तीनों द्वात्रिंशिकाओंमेंसे किसीके भी कर्ता होने चाहिये । अतः इन तीनों द्वात्रिंशिकाओंको सन्मतिसूत्रके कर्ता आचार्य सिद्धसेनकी जो कृति माना जाता है वह ठीक और सङ्गत प्रतीत नहीं होता। इनके कर्ता दूसरे ही सिद्धसेन है जो केवलीके विषयमें युगपद्-उपयोगवादी थे और जिनकी युगपद्-उपयोगवादिताका समर्थन हरिभद्राचार्य के उक्त प्राचीन उल्लेखसे भी होता है। (३) १९वीं निश्चयद्वात्रिशिकामें "सर्वोपयोग-द्वविध्यमनेनोक्तमनक्षरम्" इस वाक्यके द्वारा यह सूचित किया गया है कि 'सब जीवोके उपयोगका द्वैविध्य अविनश्वर है।' अर्थात् कोई भी जीव संसारी हो अथवा मुक्त, छमस्थज्ञानी हो या केवली सभीके ज्ञान और दर्शन दोनो प्रकारके उपयोगोका सत्व होता है-यह दूसरी बात है कि एकमें वे क्रमसे प्रवृत्त (चरितार्थ) होते हैं और दूसरेमें आवरणाभावके कारण युगपत् । इससे उस एकोपयोगवादका विरोध आता है जिसका प्रतिपादन सन्मतिसूत्रमें केवलीको लक्ष्यमें लेकर किया गया है और जिसे अभेदवाद भी कहा जाता है। ऐसी स्थितिमें यह १६वीं द्वात्रिंशिका भी सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेनकी कृति मालूम नहीं होती। (४) उक्त निश्चयद्वात्रिंशिका १६में श्र तज्ञानको मतिज्ञानसे अलग नहीं माना हैलिखा है कि 'मतिज्ञानसे अधिक अथवा भिन्न श्रुतज्ञान कुछ नही है. श्रुतज्ञानको अलग मानना व्यर्थ तथा अतिप्रसङ्ग दोषको लिये हुए है। और इस तरह मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानका अभेद प्रतिपादन किया है। इसी तरह अवधिज्ञानसे भिन्न मनःपर्ययज्ञानकी मान्यताका भी निषेध किया है-लिखा है कि 'या ता द्वीन्द्रियादिक जीवोके भी, जो कि प्रार्थना और प्रतिघातके कारण चेष्टा करते हुए देखे जात हैं, मनःपर्ययविज्ञानका मानना युक्त होगा अन्यथा मन:पययज्ञान कोई जुदा वस्तु नहीं है। इन दानो मन्तव्योके प्रतिपादक वाक्य इस प्रकार है:"वैयर्थ्यातिप्रसंगाभ्यां न मत्यधिकं श्रतम् । सर्वेभ्यः केवलं चक्ष स्तमः-क्रम-विवेककृत् ॥१३॥" "प्रार्थना-प्रतिघाताभ्यां चेष्टन्ते द्वीन्द्रियादयः । मनःपर्यायविज्ञानं युक्त तेषु न वाऽन्यथा ॥१॥" यह सब कथन सन्मतिसूत्रके विरुद्ध है, क्योकि उसमे श्रुतज्ञाम और मनःपर्ययज्ञान दोनाका अलग ज्ञानांके रूपमे स्पष्टरूपसे स्वीकार किया गया है-जैसा कि उसके द्वितीय' काण्डगत निम्न वाक्योसे प्रकट है: "मणपजवणाणतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो ॥३॥" "जेण मणोविसयगयाण दसणं णस्थि दध्वजायाणं । तो मणपञ्जवणाणं णियमा गाणं तु णिद्दिढ ॥१९॥" "मणपजवणाणं दमणं ति तेणेह होइ ण य जुत्त । भएणइ णाणं णोइंदियम्मि ण घडादयो जम्हा ॥२६॥" "मइ-सुय-णाणणिमित्तो छडमत्थे होइ अत्थउवलंभो । एगयरम्मि वि तेसिं ण दंसणं दंसणं कत्तो ? ॥२७॥ जं पञ्चक्खग्गहणं णं इंति सुयणाण-सम्मियो अत्था । तम्हा दंसणसदो ण होइ सयले वि सुयणाणे ॥२८॥" १ तृतीयकाण्डमें भी भागमश्र तज्ञानको प्रमाणरूपमें स्वीकार किया है। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४२६ । ऐसी हालतमें यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि निश्चयद्वात्रिंशिका (१९) उन्हीं सिद्धसेनाचार्यकी कृति नहीं है जो कि सन्मतिसूत्रके कर्ता हैं- दोनोंके कर्ता सिद्धसेननामकी समानताको धारण करते हुए भी एक दूसरेसे एकदम भिन्न है। साथ ही, यह कहनेमें भी कोई सङ्कोच नहीं होता कि न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन भी निश्चयद्वात्रिंशिकाके कर्तासे भिन्न हैं; क्योंकि उन्होंने श्रुतज्ञानके भेदको स्पष्टरूपसे माना है और उसे अपने प्रन्थमें शब्दप्रमाण अथवा आगम( श्रुत-शास्त्र )प्रमाणके रूपमे रक्खा है, जैसा कि न्यायावतारके निम्न अपने ग्रन्थमें शब्द प्रमाणके रूपमे रक्खा वाक्यांसे प्रकट "दृष्टेप्टाऽव्याहताद्वाक्यात्परमार्थाऽभिधायिनः। तत्त्व-ग्राहितयोत्पन्न मान शाब्दं प्रकीर्तितम् ॥८॥ 'प्राप्तोयज्ञमनुल्लंध्यमदृष्टेष्ट विरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत्सार्व शाखं कापथ-घट्टनम् ॥॥" "नयानामेकनिष्ठानां प्रवृत्तः श्रुतवम॑नि । सम्पूर्णार्थविनिश्वायि स्याद्वादश्रु तमुच्यते ॥३०॥" इस सम्बन्धमें पं० सुखलालजीने, ज्ञानबिन्दुकी परिचयात्मक प्रस्तावनामे, यह बतलाते हुए कि 'निश्चयद्वात्रिंशिकाके कर्ता सिद्धसेनने मति और श्रुतमे ही नहीं किन्तु अवधि और मनःपर्यायमें भी आगमसिद्ध भेद-रेखाके विरुद्ध तर्क करके उसे अमान्य किया है। एक फुटनोट-द्वारा जो कुछ कहा है वह इस प्रकार है: "यद्यपि दिवाकरश्री(सिद्धसेन)ने अपनी बत्तीसी (निश्चय. १९)में मति और श्रुतके अभेदको स्थापित किया है फिर भी उन्होने चिरप्रचलित मति-श्रुतके भेदकी सर्वथा अवगणना नहीं की है। उन्होंने न्यायावतारमें आगमप्रमाणको स्वतन्त्ररूपसे निर्दिष्ट किया है। जान पड़ता है इस जगह दिवाकरश्रीने प्राचीन परम्पराका अनुसरण किया और उक्त बत्तीसीमे अपना स्वतन्त्र मत व्यक्त किया। इस तरह दिवाकरश्रीक ग्रन्थोंमें श्रागमप्रमाणको स्वतन्त्र अतिरिक्त मानने और न माननेवाली दोनों दर्शनान्तरीय धाराएँ देखा जाती है जिनका स्वीकार ज्ञानबिन्दुमें उपाध्यायजीने भी किया है।” (पृ. २४) इस फुटनोटमें जो बात निश्चयद्वात्रिंशिका और न्यायावतारके मति-श्र त-विषयक विरोधके समन्वयमें कही गई है वही उनकी तरफसे निश्चयद्वात्रिंशिका और सन्मतिके अवधिमनःपर्यय-विषयक विरोधके समन्वयमें भी कही जा सकती है और समझनी चाहिये। परन्तु यह सब कथन एकमात्र तीनो ग्रन्थोकी एक्कत त्व-मान्यतापर अवलम्बित है, जिसका साम्प्रदायिक मान्यताको छोड़कर दूसरा कोई भी प्रबल आधार नहीं है और इसलिये जब तक द्वात्रिंशिका, न्यायावतार और सन्मतिसूत्र तीनोंको एक ही सिद्धसेनकृत सिद्ध न कर दिया जाय तब तक इस कथनका कुछ भी मूल्य नहीं है। तीनो ग्रन्थाका एक-कर्तृत्व अभी तक सिद्ध नहीं है। प्रत्युत इसके द्वात्रिंशिका और अन्य ग्रन्थोके परस्पर विरोधी कथनोंके कारण उनका विभिन्नकतक होना पाया जाता है। जान पड़ता है पं० सुखलालजीके हृदयमे यहाँ विभिन्न सिद्धसेनोंकी कल्पना ही उत्पन्न नहीं हुई और इसी लिये वे उक्त समन्वयकी कल्पना करनेमे प्रवृत्त हुए हैं, जो ठीक नहीं है, क्योकि सन्मतिके कर्ता सिद्धसेन-जैसे स्वतन्त्र विचारक यदि निश्चयद्वात्रिंशिकाके कर्ता होते तो उनके लिये कोई वजह नहीं थी कि वे एक ग्रन्थमें प्रदर्शित अपने स्वतन्त्र विचारोको दबाकर दूसरे ग्रन्थमें अपने विरुद्ध परम्पराके विचारोंका अनुसरण करते, खासकर उस हालतमें जब कि वे सन्मतिमें उपयोग-सम्बन्धी युगपद्वादादिकी प्राचीन परम्पराका खण्डन करके अपने अभेदवाद-विषयक नये स्वतन्त्र विचारोको प्रकट करते हुए देखे जाते हैं-वहीपर वे श्र तज्ञान और मनःपर्ययज्ञान-विषयक अपने उन स्वतन्त्र १ यह पद्य मूलमें स्वामी समन्तभद्रकृत रक्षकरमडकका है, वहींसे उब्त किया गया है। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण-१५ । सन्मात-सद्धसनाक [४३७ विचारोंको भी प्रकट कर सकते थे, जिनके लिये बानोपयोगका प्रकरण होनेके कारण वह स्थल (सन्मतिका द्वितीय काण्ड) उपयुक्त भी था; परन्तु वैसा न करके उन्होंने वहाँ उक्त द्वात्रिंशिकाके विरुद्ध अपने विचारोंको रक्खा है और इसलिये उसपरसे यही फलित होता है कि वे उक्त द्वात्रिंशिकाके कर्ता नहीं हैं-उसके कर्ता कोई दूसरे ही सिद्धसेन होने चाहिये। उपाध्याय यशोविजयजीने द्वात्रिंशिकाका न्यायावतार और सन्मतिके साथ जो उक्त विरोध बैठता है उसके सम्बन्धमें कुछ नहीं कहा। यहाँ इतना और भी जान लेना चाहिये कि श्र तकी अमान्यतारूप इस द्वात्रिंशिकाके कथनका विरोध न्यायावतार और सन्मतिके साथ ही नहीं है बल्कि प्रथम द्वात्रिंशिकाके साथ भी है, जिसके सुनिश्चितं नः' इत्यादि ३०वें पद्यमें जगत्प्रमाणं जिनवाक्पविषः' जैसे शब्दोंद्वारा अहत्प्रवचनरूप श्रतको प्रमाण माना गया है। (५) निश्चयद्वात्रिंशिकाकी दो बातें और भी यहाँ प्रकट कर देनेकी हैं, जो सन्मतिके साथ स्पष्ट विरोध रखती है और वे निम्न प्रकार हैं:"ज्ञान-दर्शन-चारित्राण्युपायाः शिवहेतवः । अन्योऽन्य-प्रतिपक्षत्वाच्छुद्धावगम-शक्तयः ॥शा" इस पद्यमें ज्ञान. दर्शन तथा चारित्रको मोक्ष-हेतुओंके रूपमें तीन उपाय(मार्ग) बतलाया है-तीनोको मिलाकर मोक्षका एक उपाय निर्दिष्ट नहीं किया; जैसा कि तत्त्वार्थसूत्रके प्रथमसूत्रमें मोक्षमार्गः' इस एकवचनात्मक पदके प्रयोग-द्वारा किया गया है। अतः ये तीनो यहाँ समस्तरूपमे नही किन्तु व्यस्त (अलग अलग) रूपमें मोक्षके मार्ग निर्दिष्ट हुए हैं और उन्हें एक दूसरेके प्रतिपक्षी लिखा है। साथ ही तीनो सम्यक विशेषणसे शून्य हैं और दर्शनको ज्ञानके पूर्व न रखकर उसके अनन्तर रक्खा गया है जो कि समूची द्वात्रिंशिकापरसे श्रद्धान अर्थका वाचक भी प्रतीत नहीं होता। यह सब कथन सन्मतिसूत्रके निम्न वाक्योंके विरुद्ध जाता है. जिनमे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी प्रतिपत्तिसे सम्पन्न भव्यजीवको संसारके दुग्योका अन्तकारूपमे उल्लेग्वित किया है और कथनको हेतुवाद सम्मत बतलाया है (३-४४) तथा दर्शन शब्दका अर्थ जिनप्रणीत पदार्थोका श्रद्धान ग्रहण किया है। साथ ही सम्यग्दर्शनके उत्तरवर्ती सम्यग्ज्ञानको सम्यग्दशनसे युक्त बतलाते हुए वह इस तरह सम्यग्दर्शनरूप भी है, ऐसा प्रतिपादन किया है (२-३२. ३३): 'एवं जिणपएणत्ते सद्दहमाणस्स भावओ भावे । पुरिसम्साभिणिबोहे दंससदो हवा जुत्तो ॥२-३२॥ सम्मएणाणे णियमेण दंसणं दसणे उ भयणिज्जं । सम्मएणाणं च इमं ति भत्थयो होइ उववरणं ॥२-३३॥ भविओ सम्मद सण-णाण-चरित्त-पडिवत्ति-संपएणो । णियमा दुक्खंतकडो ति लक्खणं हेउवायस्स ॥३-४४॥ निश्चयद्वात्रिशिकाका यह कथन दमरी कुछ द्वात्रिशिकाओंके भी विरुद्ध पड़ता है, जिसके दो नमूने इस प्रकार है: "कियां च संज्ञान-वियोग-निष्फलां क्रिया-विहीनां च विबोधसंपदम् । निरस्यता क्लेश समूह शान्तये त्वया शिवायालिखितेव पद्धतिः ॥१-२६॥" “यथाऽगद-परिज्ञानं नालमाऽऽमय-शान्तये । अचारित्रं तथा ज्ञामं न बुद्धयध्य(व्य)वसायतः ॥१७-२७॥" Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८] अनेकान्त [वर्ष इनमेंसे पहली द्वात्रिंशिकाके उद्धरणमें यह सूचित किया है कि 'वीरजिनेन्द्रने सम्यग्ज्ञानसे रहित किया (चारित्र)को और क्रियासे विहीन सम्यग्ज्ञानकी सम्पदाको क्लेशसमूहकी शान्ति अथवा शिवप्राप्तिके लिये निष्फल एवं असमर्थ बतलाया है और इसलिये ऐसी क्रिया तथा ज्ञानसम्पदाका निषेध करते हुए ही उन्होंने मोक्षपद्धतिका निर्माण किया है।' और १७वी द्वात्रिंशिकाके उद्धरणमें बतलाया है कि जिस प्रकार रोगनाशक औषधका परिज्ञानमात्र रोगकी शान्तिके लिये समर्थ नहीं होता उसी प्रकार चारित्ररहित ज्ञानको समझना चाहिए-वह भी अकेला भवरोगको शान्त करने में समर्थ नहीं है। ऐसी हालतमें ज्ञान दर्शन और चारित्रको अलग-अलग मोक्षकी प्राप्तिका उपाय बतलाना इन द्वात्रिशिकाओके भी विरुद्ध ठहरता है। “प्रयोग-विस्रसाकर्म तदभावस्थितिस्तथा । लोकानुभाववृत्तान्तः कि धर्माऽधर्मयोः फलम् ॥१६-०४॥ आकाशमवगाहाय तदनन्या दिगन्यथा । तावप्येवमनुच्छेदात्ताभ्यां वाऽन्यमुदाहृतम् ॥१६-२५॥ प्रकाशवदनिष्टं स्यात्साध्ये नार्थस्तु न श्रमः । जीव पुद्गलयोरेव परिशुद्धः परिग्रहः ॥१६-२॥" इन पद्योंमें द्रव्योंकी चर्चा करते हुए धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्योंकी मान्यताको निरर्थक ठहराया है तथा जीव और पुद्गलका ही परिशुद्ध परिग्रह करना चाहिए अर्थात् इन्ही दो द्रव्योको मानना चाहिए, ऐसी प्रेरणा की है। यह सब कथन भी सन्मतिसूत्रके विरुद्ध है, क्योंकि उसके तृतीय काण्डमें द्रव्यगत उत्पाद तथा व्यय (नाश)के प्रकारोको बतलाते हुए उत्पादके जो प्रयोगजनित (प्रयत्नजन्य) तथा वनसिक (स्वाभाविक) से दो भेद किये हैं उनमे वैनसिक उत्पादके भी समुदायकृत तथा ऐकत्विक ऐसे दो भेद निर्दिष्ट किये हैं और फिर यह बतलाया है कि ऐकत्विक उत्पाद आकाशादिक तीन द्रव्यो (आकाश, धर्म अधम)में परनिमित्त. से होता है और इसलिये अनियमित होता है। नाशकी भी ऐसी ही विधि बतलाई है। इससे सन्मतिकार सिद्धसेनकी इन तीन अमूर्तिक द्रव्यांक. जो कि एक एक है, अस्तित्व-विषयमे मान्यता स्पष्ट है। यथा: "उप्यायो दुवियप्पो पोगजणिो य विस्ससा चेव । तत्थ उ पओगजणिओ समुदयवायो अपरिसुद्धो ॥३२॥ साभावियो वि समुदयको व्व एगत्तियो व्व होज्जाहि । आगासाईप्राणं तिएहं परपच्चोऽणियमा ॥३३॥ विगमस्स वि एस विही समुदयजणियम्मि सो उ दुवियप्पो । समुदयविभागमेत्त अत्यंतरभावगमणं च ॥३४॥" इस तरह यह निश्चयद्वात्रिशिका कतिपय द्वात्रिशिकाओं, न्यायावतार और सन्मतिके विरुद्ध प्रतिपादनोंको लिये हुए है। सन्मतिके विरुद्ध तो वह सबसे अधिक जान पड़ती है और इसलिये किसी तरह भी सन्मतिकार सिद्धसेनकी कृति नही कही जा सकती। यही एक द्वात्रिशिका ऐसी है जिसके अन्तमें उसके कर्ता सिद्धसेनाचार्यको अनेक प्रतियोंमे श्वेतपट (श्वेताम्बर) विशेषणके साथ द्वेष्य' विशेषणसे भी उल्लेखित किया गया है, जिसका अर्थ द्वेषयोग्य, विरोधी अथवा शत्रुका होता है और यह विशेषण सम्भवतः प्रसिद्ध जैन सैद्धान्तिक मान्यताओंके विरोधके कारण ही उन्हें अपनी ही सम्प्रदायके किसी असहिष्णु विद्वान्-द्वारा दिया गया जान पड़ता है। जिस पुष्पिकावाक्पके साथ इस विशेषण पदका प्रयोग किया गया है वह भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट पूना और एशियाटिक सोसाइटी बङ्गाल (कलकत्ता की प्रतियोंमें निम्न प्रकारसे पाया जाता है Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११ । सन्मात-सिद्धसनाक । ४३९ "द्वष्य-श्वेतपटसिद्धसेनाचार्यस्य कृतिः निश्वयद्वात्रिंशिकैकोनविंशतिः।" दूसरी किसी द्वात्रिशिकाके अन्तमें ऐसा कोई पुष्पिकावाक्प नहीं है। पूर्वकी १८ और उत्तरवर्ती १ऐसे १६ द्वात्रिंशिकाओंके अन्तमें तो कर्ताका नाम तक भी नहीं दिया हैद्वात्रिंशिकाकी संख्यासूचक एक पंक्ति 'इति' शब्दसे युक्त अथवा वियुक्त और कहीं कहीं द्वात्रिंशिकाके नामके साथ भी दी हुई है। (६) द्वात्रिंशिकाओंकी उपर्युक्त स्थितिमें यह कहना किसी तरह भी ठीक प्रतीत नहीं होता कि उपलब्ध सभी द्वात्रिंशिकाएँ अथवा २१वीको छोड़कर बीस द्वात्रिंशिकाएँ सन्मतिकार सिद्धसेनकी ही कृतियाँ हैं; क्योंकि पहली, दूसरी, पाँचवीं और उन्नीसवीं ऐसी चार द्वात्रिंशिकाओंकी बाबत हम ऊपर देख चुके हैं कि वे सन्मतिके विरुद्ध जानेके कारण सन्मतिकारकी कृतियाँ नहीं बनतीं । शेष द्वात्रिंशिकाएँ यदि इन्हीं चार द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता सिद्धसेनामेसे किसी एक या एकसे अधिक सिद्धसेनोंकी रचनाएँ हैं तो भिन्न व्यक्तित्वके कारण उनमेंसे कोई भी सन्मतिकार मिद्धसेनकी कृति नहीं हो सकती। और यदि ऐसा नहीं है तो उनमेंसे अनेक द्वात्रिशिकाएँ सन्मतिकार सिद्धसेनकी भी कृति हो सकती हैं परन्तु हैं और अमुक अमुक है यह निश्चितरूपमें उस वक्त तक नहीं कहा जा सकता जब तक इस विपयका कोई स्पष्ट प्रमाण सामने न आजाए। (७) अब रही न्यायावतारकी बात, यह ग्रन्थ सन्मतिसूत्रसे कोई एक शताब्दीसे भी अधिक बादका बना हुआ है, क्योकि इसपर समन्तभद्रस्वामीके उत्तरकालीन पात्रस्वामी (पात्रकेसरी) जैसे जैनाचार्योंका ही नहीं किन्तु धर्मकीर्ति और धर्मोत्तर जैसे बौद्धाचार्योंका भी स्पष्ट प्रभाव है। डा. हर्मन जैकोबीके मतानुसार' धर्मकीर्तिने दिग्नागके प्रत्यक्षलक्षण में 'कल्पनापोढ' विशेषणके साथ 'अभ्रान्त' विशेषणकी वृद्धिकर उसे अपने अनुरूप सुधारा था अथवा प्रशस्तरूप दिया था और इसलिये "प्रत्यक्ष कल्पनापोढमभ्रान्तम" यह प्रत्यक्षका धर्मकीर्ति-प्रतिपादित प्रसिद्ध लक्षण है जो उनके न्यायबिन्दु ग्रन्थमें पाया जाता है और जिसमें 'अभ्रान्त' पद अपनी खाम विशेषता रखता है। न्यायावतारके चौथे पद्यमे प्रत्यक्षका लक्षण, अकलङ्कदेवकी तरह 'प्रत्यक्ष विशदं ज्ञानं' न देकर, जो "अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशं प्रत्यक्षम" दिया है और अगले पद्यमे, अनुमानका लक्षण देते हुए, 'तदभ्रान्त प्रमाणवात्समक्षवन" वाक्पके द्वारा उसे (प्रत्यक्षको) 'अभ्रान्त' विशेषणसे विशेषित भी सूचित किया है उससे यह साफ ध्वनित होता है कि सिद्धसेनके सामने-उनके लक्ष्यमे-धर्मकीर्तिका उक्त लक्षण भी स्थित था और उन्होंने अपने लक्षणमें ग्राहक' पदके प्रयोग-द्वारा जहाँ प्रत्यक्षको व्यवमायात्मक ज्ञान बतलाकर धर्मकीर्तिके 'कल्पनापोढ' विशेषणका निरसन अथवा वेधन किया है वहाँ उनके 'अभ्रान्त' विशेषणको प्रकारान्तरसे स्वीकार भी किया है। न्यायावतारके टीकाकार सिद्धर्षि भी ग्राहक' पदके द्वारा बौद्धो (धर्मकीर्ति)के उक्त लक्षणका निरसन होना बतलाते हैं । यथा ___"ग्राहकमिति च निर्णायकं दृष्टव्यं, निर्णयाभावेऽर्थग्रहणायोगात् । तेन यत् ताथागतैः प्रत्यपादि 'प्रत्यक्षं कल्पनापाढमभ्रान्तम्' [न्या. बि. ४] इति, तदपास्तं भवति । तस्य युक्तिरिक्तत्वात् ।" इसी तरह 'त्रिरूपालिङ्गाद्यदनुमेय ज्ञान तदनुमानं' यह धर्मकीर्तिके अनुमानका लक्षण है। इसमें त्रिरूपात्' पदक द्वारा लिङ्गको त्रिरूपात्मक बतलाकर अनुमानके साधारण १ देखो, 'समराहच्चकहा की जैकोबीकृत प्रस्तावना तथा न्यायावतारकी डा. पी. एल. वैद्यकृत प्रस्तावना । २ "प्रत्यक्ष कल्पनापोढ नामजात्याद्यसयुतमा” (प्रमाणसमुच्चय)। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - लक्षणको एक विशेषरूप दिया गया है। यहाँ इस अनुमानज्ञानको अभ्रान्त या भ्रान्त ऐसा कोई विशेषण नहीं दिया गया; परन्तु न्यायविन्दुकी टीकामें धर्मोत्तरने प्रत्यक्ष-लक्षणकी व्याख्या करते और उसमें प्रयुक्त हुए 'अभ्रान्त' विशेषणकी उपयोगिता बतलाते हुए "प्रान्तं ह्यनुमानम्" इस वाक्पके द्वारा अनुमानको भ्रान्त प्रतिपादित किया है । जान पड़ता है इस सबको भी लक्ष्यमें रखते हुए ही सिद्धसेनने अनुमानके "साध्याविनामुनो(वो) लिङ्गात्साध्यनिश्चायकमनुमान" इस लक्षणका विधान किया है और इसमें लिङ्गका 'साध्याविनाभावी' ऐसा एकरूप देकर धर्मकीर्तिके 'त्रिरूप'का-पक्षधर्मत्व, सपक्षेसत्व तथा विपक्षासत्वरूपका निरसन किया है। साथ ही, 'तदभ्रान्तं समक्षवत्' इस वाक्यकी योजनाद्वारा अनुमानको प्रत्यक्षकी तरह अभ्रान्त बतलाकर बौद्धोंकी उसे भ्रान्त प्रतिपादन करनेवाली उक्त मान्यताका खण्डन भी किया है। इसी तरह न प्रत्यक्षमपि भ्रान्तं प्रमाणत्वविनिश्चयात्" इत्यादि छठे पद्यमें उन दूसरे बौद्धोंकी मान्यताका खण्डन किया है जो प्रत्यक्षको अभ्रान्त नहीं मानते । यहाँ लिङ्गके इस एकरूपका और फलतः अनुमानके उक्त लक्षणका आभारी पात्र स्वामीका वह हेतुलक्षण है जिसे न्यायावतारकी २२वीं कारिकामें "अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम्" इस वाक्यके द्वारा उद्धृत भी किया गया है और जिसके आधारपर पात्रस्वामीने बौद्धोके त्रिलक्षणहेतुका कदर्थन किया था तथा त्रिलक्षणकदर्थन' नामका एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही रच डाला था, जो आज अनुपलब्ध है परन्तु उसके प्राचीन उल्लेख मिल रहे हैं। विक्रमकी ८वीं-हवीं शताब्दीके बौद्ध विद्वान शान्तरक्षितने तत्त्वसंग्रहमें त्रिलक्षणकदथनसम्बन्धी कुछ श्लोकोंको उद्धृत किया है और उनके शिष्य कमलशीलने टोकामे उन्हें अन्यथेत्यादिना पात्रस्वामिमतमाशङ्कते” इत्यादि वाक्योके माथ दिया है। उनमेसे तीन श्लोक नमूनेके तौरपर इस प्रकार हैअन्यथानुपपन्नत्वे ननु दृष्टा सुहेतुता । नाऽसति त्र्यंशकस्यापि तस्मात् क्लीबास्खिलक्षणाः॥ १३६४ ॥ अन्यथानुपपन्नत्वं यस्य तस्यैव हेतुता । दृष्टान्तौ द्वावपि स्तां वा मा वा तौ हि न कारणम् ॥१३६८।। अन्यथानुपपनत्वं यत्र तत्र प्रयेण किम् ? । नान्यथानुपपनत्वं यत्र तत्र त्रियेण किम् ? ॥ १३६६ ।। इनमेंसे तीसरे पद्यको विक्रमकी ७वीं-वीं शताब्दीके२ विद्वान अकलङ्कदेवने अपने 'न्यायविनिश्चय (कारिका ३२३)में अपनाया है और सिद्धिविनिश्चय (प्र०६)में इसे स्वामीका 'अमलालीढ पद' प्रकट किया है तथा वादिराजने न्यायविनिश्चय-विवरणमें इस पद्यको पात्रकेसरीसे सम्बद्ध 'अन्यथानुपपत्तिवार्तिक' बतलाया है। धर्मकीर्तिका समय ई० सन् ६२५से ६५० अर्थात् विक्रमकी ७वी शताब्दीका प्रायः चतुर्थ चरण, धर्मोत्तरका समय ई० सन् ७२५से ७५० अर्थात् विक्रमकी ८वीं शताब्दीका प्रायः चतुर्थ चरण और पात्रस्वामीका समय विक्रमकी ७वीं शताब्दीका प्रायः तृतीय चरण पाया जाता है, क्योकि वे अकलङ्कदेवसे कुछ पहले हुए है। तब सन्मतिकार सिद्धसेनका समय वि० संवत् ६६६से पूर्वका सुनिश्चित है जैसा कि अगले प्रकरणमें स्पष्ट करके बतलाया १ महिमा स पात्रकेसरिगुरोः पर भवति यस्य भक्तयासीत् । पद्मावती सहाया त्रिलक्षणकदर्थनं कत्तम् ॥ -मल्लिषेणप्रशस्ति (भ. शि० ५४ ) २ विक्रमसंवत् ७०० में अकलहदेवका बौद्धोंके साथ महान् वाद हुश्रा है, जैसा कि अकलङ्कचरितके 'निम्न पद्यसे प्रकट हैविक्रमार्क-शकान्टीय शतसप्त-प्रमाजषि । कालेऽकलब-यतिनो बौद्ध दो महानभत।। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • किरण ११) सन्मात-सडसनाक 1४४१ जायगा। ऐसी हालतमें जो सिद्धसेन सन्मतिके कर्ता है वे ही न्यायावतारके कर्ता नहीं हो सकते-समयकी दृष्टिसे दोनों प्रन्थोंके कर्ता एक-दूसरेसे भिन्न होने चाहिये। इस विषयमें पं० सुखलालजी आदिका यह कहना है कि 'प्रो० टुची (Tousi) ने दिग्नागसे पूर्ववर्ती बौद्धन्यायके ऊपर जो एक निबन्ध रॉयल एशियाटिक सोसाइटीके जुलाई सन् १९२९के जर्नलमें प्रकाशित कराया है उसमें बौद्ध-संस्कृत-प्रन्थोंके चीनी तथा तिब्बती अनुवादके आधारपर यह प्रकट किया है कि 'योगाचार्य भूमिशाख और प्रकरणार्यवाचा नामके ग्रन्थोमें प्रत्यक्षकी जो व्याख्या दी है उसके अनुसार प्रत्यक्षको अपरोक्ष, कल्पनापोढ, निर्विकल्प और भूल-विनाका अभ्रान्त अथवा अव्यभिचारी होना चाहिये । साथ ही अभ्रान्त तथा अव्यभिचारी शब्दोंपर नोट देते हुए बतलाया है कि ये दानों पर्यायशब्द है, और चीनी तथा तिब्बती भाषाके जो शब्द अनुवादोंमें प्रयुक्त हैं उनका अनुवाद अभ्रान्त तथा अव्यभिचारी दोनो प्रकारसे हो सकता है । और फिर स्वयं अभ्रान्त' शब्दको ही स्वीकार करते हुए यह अनुमान लगाया है कि धर्मकीर्तिने प्रत्यक्षकी व्याख्यामे 'अभ्रान्त' शब्दकी जो वृद्धि की है वह उनके द्वारा की गई कोई नई वृद्धि नहीं है बल्कि सौत्रान्तिकांकी पुरानी व्याख्याको स्वीकार करके उन्होंने दिग्नागकी व्याख्यामें इस प्रकारसं सुधार किया है। योगाचार्य-भूमिशास्त्र असङ्गके गुरु मैत्रयकी कृति है. असङ्ग (मैत्रेय ?)का समय ईसाकी चौथी शताब्दीका मध्यकाल है, इससे प्रत्यक्षके लक्षणमें 'अभ्रान्त' शब्दका प्रयोग तथा अभ्रान्तपनाका विचार विक्रमकी पाँचवी शताब्दीके पहले भले प्रकार ज्ञात था अर्थात् यह (अभ्रान्त) शब्द सुप्रसिद्ध था । अतः सिद्धसेनदिवाकरके न्यायावतारमें प्रयुक्त हुए मात्र 'अभ्रान्त' पदपरसे उस धर्मकीर्तिके बादका बतलाना जरूरी नहीं। उसके कता सिद्धसेनको प्रसङ्गके बाद और धर्मर्कातिके पहले माननेमे कोई प्रकारका अन्तराय (विघ्न-बाधा) नहीं है।' इस कथनमें प्रो-टुचीके कथनको लेकर जो कुछ फलित किया गया है वह ठीक नहीं है; क्योकि प्रथम तो प्रोफेसर महाशय अपने कथनमे स्वयं भ्रान्त है-वे निश्चयपूर्वक यह नहीं कह रहे हैं कि उक्त दोनो मूल संस्कृत ग्रन्थोमे प्रत्यक्षका जो व्याख्या दी अथवा उसके लक्षणका जो निर्देश किया है उसमे 'अभ्रान्त' पदका प्रयोग पाया ही जाता है बल्कि साफ तौरपर यह सूचित कर रहे हैं कि मूलग्रन्थ उनके सामने नहीं, चीनी तथा तिब्बती अनुवाद ही सामने है और उनमे जिन शब्दाका प्रयोग हुआ है उनका अर्थ अभ्रान्त तथा अव्यभिचारि दोनो रूपसे हो सकता है। तीसरा भी कोई अर्थ अथवा संस्कृत शब्द उनका वाच्य हो सकता हो तो उसका निषेध भी नही किया। दूसरे, उक्त स्थितिमे उन्होने अपने प्रयोजनके लिये जो अभ्रान्त पद स्वीकार किया है वह उनकी रुचिकी बात है न कि मूलमें अभ्रान्त-पदके प्रयोगकी कोई गारंटी है और इसलिये उसपरसे निश्चितरूपमे यह फलित कर लेना कि 'विक्रमकी पॉचवी शताब्दीक पहले प्रत्यक्षके लक्षणमें अभ्रान्त' पदका प्रयोग भले प्रकार ज्ञात तथा सुप्रसिद्ध था' फलितार्थ तथा कथनका अतिरेक है और किसी तरह भी समुचित नहीं कहा जा सकता । तोसरे, उन मूल संस्कृत प्रन्थोंमे यदि 'अव्यभिचारि' पदका ही प्रयोग हो तब भी उसके स्थानपर धमकीतिने अभ्रान्त' पदकी जो नई योजना का है वह उसीकी योजना कहलाएगी और न्यायावतारमें उसका अनुसरण होनेसे उसके कर्ता सिद्धसेन धर्मकीतिके बादके ही विद्वान् ठहरेंगे। चौथे, पात्रकेसरीस्वामीके हेतु लक्षणका जो उद्धरण न्यायावतारमें पाया जाता है और जिसका परिहार नहीं किया जा सकता उससे सिद्धसेनका धर्मकीर्तिके १ देखो, सन्मति के गुजराती संस्करणकी प्रस्तावना पृ. ४१, ४२, और अग्रेजी संस्करणकी प्रस्तावना पृ० १२-१४ । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ । [ वर्ष ९. बाद होना और भी पुष्ट होता है। ऐसी हालतमें न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेनको असङ्गके बाद और धर्मकीर्तिके पूर्वका बतलाना निरापद नहीं है-उसमें अनेक विघ्न-बाधाएँ उपस्थित होती हैं । फलतः न्यायावतार धर्मकीर्ति और पात्रस्वामीके बादकी रचना होनेसे उन सिद्धसेनाचार्यकी कृति नहीं हो सकता जो सन्मतिसूत्रके कर्ता । जिन अन्य विद्वानोंने उसे अधिक प्राचीनरूपमें उल्लेखित किया है वह मात्र द्वात्रिंशिकाओं, सन्मति और न्यायावतारको एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ मानकर चलनेका फल है । कान्त इस तरह यहाँ तक के इस सब विवेचनपरसे स्पष्ट है कि सिद्धसेनके नामपर जो भी ग्रन्थ चढ़े हुए हैं उनमेंसे सन्मतिसूत्रको छोड़कर दूसरा कोई भी ग्रन्थ सुनिश्चितरूपमें सन्मतिकारकी कृति नहीं कहा जा सकता - अकेला सन्मतिसूत्र ही असपत्नभावसे अभीतक उनकी कृतिरूपमें स्थित है । कलको अविरोधिनी द्वात्रिंशिकाओमेंसे यदि किसी द्वात्रिंशिकाका उनकी कृतिरूपमें सुनिश्चय हो गया तो वह भी सन्मति के साथ शामिल हो सकेगी । (ख) सिद्धसेनका समयादिक अब देखना यह है कि प्रस्तुत ग्रन्थ 'सम्मति' के कर्ता सिद्धसेनाचार्य कब हुए है और किस समय अथवा समय के लगभग उन्होंने इस ग्रन्थकी रचना की है। ग्रन्थ में निर्माणकालका कोई उल्लेख और किसी प्रशस्तिका आयोजन न होनेके कारण दूसरे साधनोंपरसे ही इस विषयको जाना जा सकता है और वे दूसरे साधन हैं प्रन्थका अन्तःपरीक्षण - उसके सन्दर्भ - साहित्यकी जांच द्वारा बाझ प्रभाव एवं उल्ल खादिका विश्लेपण, उसके वाक्यो तथा उसमे चर्चित खास विषयोका अन्यत्र उल्लेख आलोचन - प्रत्यालोचन, स्वीकार - अस्वीकार अथवा खण्डनमण्डनादिक और साथ ही सिद्धसेनके व्यक्तित्व विषयक महत्व के प्राचीन उद्गार | इन्हीं सब साधनो तथा दूसरे विद्वानोके इस दिशामे किये गये प्रयत्नोको लेकर मैंने इस विषय में जो कुछ अनुसंधान एवं निर्णय किया है उसे ही यहॉपर प्रकट किया जाता है: (१) सन्मति के कर्ता सिद्धसेन केवलीके ज्ञान दर्शनोपयोग-विषयमें अभेदवादके पुरस्कर्ता हैं यह बात पहले (पिछले प्रकरण में) बतलाई जा चुकी है। उनके इस अभेदवादका खण्डन इधर दिगम्बर सम्प्रदायमें सर्वप्रथम कलंकदेवके राजवार्त्तिकभाष्यमें' और उधर श्वेताम्बर सम्प्रदायमें सर्वप्रथम जिनभद्रक्षमाश्रमणके विशेषावश्यकभाष्य तथा विशेषणवती नामके प्रन्थोमें मिलता है। साथ ही तृतीय काण्डकी 'रणत्थि पुढवीविसिट्टो' और 'दोहिं वि एहिं णीयं' नामकी दो गाथाएँ (५२, ४६) विशेषावश्यकभाष्यमें क्रमशः गा० न० २१०४.२१६५ पर उद्धृत पाई जाती हैं। इसके सिवाय, विशेषावश्यकभाष्यकी स्वोपज्ञटीकामे ' 'गामाइतियं दवट्ठियरस' इत्यादि गाथा ७५ की व्याख्या करते हुए ग्रन्थकारने स्वयं " द्रव्यास्तिकनयावलम्बिनौ संग्रह - व्यवहारौ ऋजुसूत्रादयस्तु पर्यायनयमतानुसारिणः आचार्यसिद्धसेनाऽभिप्रायात्” इस वाक्यके द्वारा सिद्धसेनाचार्यका नामोल्लेखपूर्वक उनके सन्मतिसूत्र-गत मतका उल्लेख किया है, ऐसा मुनि पुण्यविजयजीके मंगसिर सुदि १० मी सं० २००५के एक पत्रसे मालूम हुआ है। दोनों १ राजवा० भ ० अ० ६ सू० १० वा० १४-१६ | २ विशेषा० भा० गा० ३०८६ से (कोट्याचार्यकी वृत्तिमें गा० ३७२६से) तथा विशेषणवती गा० १८४ से २८०; सन्मति प्रस्तावना पृ० ७५ | ३ उद्धरण विषयक विशेष ऊहापोहके लिये देखो, सन्मति प्रस्तावना पृ० ६८, ६६ ॥ ४ इस टीका के अस्तित्वका पता हालमें मुनि पुण्यविजयजीको चला है। देखो, भी आत्मानन्दप्रकाश Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्नाभरासाक L००१ ग्रन्थकार विक्रमकी ७वीं शताब्दीके प्रायः उत्तरार्धके विद्वान् हैं। अकलंकदेवका विक्रम सं०७०० में बौद्धोंके साथ महान वाद हुआ है जिसका उल्लेख पिछले एक फुटनोटमें अकलंकचरितके आधारपर किया जा चुका है, और जिनभद्रक्षमाश्रमणने अपना विशेषावश्यकभाष्य शक सं०५३१ अर्थात् वि० सं०६६६ में बनाकर समाप्त किया है। प्रन्थका यह रचनाकाल उन्होंने स्वयं ही ग्रन्थके अन्तमें दिया है, जिसका पता श्री जिनविजयजीको जैसलमेर भएडारकी एक अतिप्राचीन प्रतिका देखते हुए चला है। ऐसी हालतमे सन्मतिकार सिद्धसेनका समय विक्रम सं०६६६से पूर्वका सुनिश्चित है परन्तु वह पूर्वका समय कौन-सा है? –कहाँ तक उसकी कमसे कम सीमा है -यही आगे विचारणीय है। (२) सन्मतिसूत्रमें उपयोग-द्वयके क्रमवादका जोरोके साथ खण्डन किया गया है, यह बात भी पहले पतलाई जा चुकी तथा मूल ग्रन्थके कुछ वाक्योंको उद्धृत करके दर्शाई जाचुकी है। उस क्रमवादका पुरस्कर्ता कौन है और उसका समय क्या है ? यह बात यहाँ खास तौरसे जान लेनेकी है। हरिभद्रसूरिने नन्दिवृत्तिमे तथा अभयदेवसूरिने सन्मतिकी टीकामे यद्यपि जिनभद्रक्षमाश्रमणको क्रमवादके पुरस्कर्तारूपमे उल्लेखित किया है परन्तु वह ठीक नहीं है; क्योंकि वे तो मन्मतिकारके उत्तरवर्ती है. जबकि होना चाहिये कोई पूर्ववर्ती। यह दूसरी बात है कि उन्होने क्रमवादका जोरोके साथ समर्थन और व्यवस्थित रूपसे स्थापन किया है, संभवतः इसीसे उनका उस वादका पुरस्कर्ता समझ लिया गया जान पड़ता है। अन्यथा, क्षमाश्रमणजी स्वयं अपने निम्न वाक्यो द्वारा यह सूचित कर रहे हैं कि उनसे पहले युगपद्वाद, क्रमवाद तथा अभेदवादके पुरस्कर्ता हो चुके है: "केई भणंति जुगवं जाणइ पासइ य केवली णियमा । अण्णे एगंतरियं इच्छंति सुअोवएसेणं ॥ १८४ ॥ भएणे ण चेव वीसुदंसणमिच्छति जिणवरिंदस्स । जं चि य केवलणाग तं चि य से दरिसण विति ॥ १८५॥-विशेषणवती ___पं० सुखलालजी आदिने भो कथन-विरोधको महमूम करते हए प्रस्तावनामें यह स्वीकार किया है कि जिनभद्र और मिद्धसेनमे पहले कमवादके पुरस्कर्तारूपमें कोई विद्वान् हाने ही चाहिये जिनके पक्षका सन्मतिमें खण्डन किया गया है। परन्तु उनका कोई नाम उपस्थित नहीं किया। जहाँ तक मुझे मालूम है वे विद्वान नियुक्तिकार भद्रबाह होने चाहिय. जिन्होंने आवश्यकनियुक्तिके निम्न वाक्य-द्वारा क्रमवादकी प्रतिष्ठा की है णामि दसणंमिश्र इत्तो एगयरयंमि उवजुत्ता । सव्वस्स केवलिम्सा(स्स वि) जुगवं दो णस्थि उवोगा ॥९७८ ॥ ये नियुक्तिकार भद्रबाहु श्रुतकवली न होकर द्वितीय भद्रबाहु हैं जो अष्टाङ्गनिमिस तथा मन्त्र-विद्याके पारगामी होनेके कारण 'नैमित्तिक'' कहे जाते है, जिनकी कृतियों में १ पावयणी१ धम्मकहीर वाई३ णमित्तिश्रो४ तवस्सी५ य । विजा६ सिद्धो य कई८ अव पभावगा भणिया ॥१॥ अजरक्ख१ नदिसेणोर सिरिगुत्तविणेय३ भद्दबाहू४ य । खवग५ऽजखवुड६ समिया७ दिवायरो वा इदाऽऽहरणा ||२|| -'छेदसूत्रकार अने नियुक्तिकार' लेखमें उद्धृत । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्रबाहुसंहिता और उपसग्गहरस्तोत्रके भी नाम लिये जाते हैं और जो ज्योतिर्विद् वराहमिहरके सगे भाई माने जाते हैं। इन्होंने दशाश्रुतस्कन्ध-नियुक्तिमें स्वयं अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहुको 'प्राचीन' विशेषणके साथ नमस्कार किया है।, उत्तराध्ययननियुक्तिमें मरणविभक्तिके सभी द्वारोंका क्रमशः वर्णन करनेके अनन्तर लिखा है कि पदार्थोंको सम्पूर्ण तथा विशदरीतिसे जिन (केवलज्ञानी) और चतुर्दशपूर्वी २ (श्रुतकेवली ही) कहते हैं-कह सकते हैं: और आवश्यक आदि ग्रन्थोंपर लिखी गई अनेक नियुक्तियोंमें आर्यवन, आर्यरक्षित, पादलिप्ताचार्य, कालिकाचार्य और शिवभूति आदि कितने ही ऐसे आचार्योंके नामों. प्रसङ्गों, मन्तव्यों अथवा तत्सम्बन्धी अन्य घटनाओका उल्लेख किया गया है जो भद्रबाहु श्र तकवलीके बहुत कुछ बाद हुए हैं-किसी-किसी घटनाका समय तक भी साथमें दिया है, जैसे निहवोकी क्रमशः उत्पसिका समय वीरनिर्वाणसे ६०६ वर्ष बाद तकका बतलाया है ये सब बातें ओर इसी प्रकारकी दूसरी बातें भी नियुक्तिकार भद्रबाहुको श्र तकेवली बतलानेके विरुद्ध पड़ती हैं-भद्रबाहुश्रु तकेवलीद्वारा उनका उस प्रकारसे उल्लेख तथा निरूपण किसी तरह भी नहीं बनता । इस विषयका सप्रमाण विशद एवं विस्तृत विवेचन मुनि पुण्यविजयजीने आजसे कोई सात वर्ष पहले अपने 'छेदसूत्रकार और नियुक्तिकार' नामके उस गुजराती लेखमें किया है जो ‘महावीर जैनविद्यालय रजत-महोत्सव-पन्थ में मुद्रित है। साथ ही यह भी बतलाया है कि 'तित्थोगालिप्रकीर्णक, आवश्यकचूर्णि, आवश्यक-हारिभद्रीया टीका परिशिष्टपर्व आदि प्राचीन मान्य प्रन्थोंमें जहाँ चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु (श्र तकेवली)का चरित्र वणन किया गया है वहाँ द्वादशवर्षीय दुष्काल"छेदसूत्रोंकी रचना आदिका वर्णन तो है परन्तु वराहमिहरका भाई होना, नियुक्तिग्रन्थों, उपसर्गहरस्तात्र, भद्रबाहुसंहितादि ग्रन्थोकी रचनासे तथा नैमित्तिक होनेसे सम्बन्ध रखनेवाला कोई उल्लख नही है। इससे छेदमूत्रकार भद्रबाहु और नियुक्ति श्रादिके प्रणेता भद्रबाहु एक दूसरेसे भिन्न व्यक्तियाँ हैं। इन नियुक्तिकार भद्रबाहुका समय विक्रमकी छठी शताब्दीका प्रायः मध्यकाल है; क्योंकि इनके समकालीन सहोदर भ्राता वराहमिहरका यही समय सुनिश्चित है-उन्होंने अपनी 'पञ्चसिद्धान्तिका के अन्तमें, जो कि उनके उपलब्ध ग्रन्थोंमे अन्तकी कृति मानी जाती है, अपना समय स्वयं निर्दिष्ट किया है और वह है शक संवत् ४२७ अर्थात विक्रम संवत् ५६२ । यथा"सप्ताश्विवेदसंख्यं शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ । अर्धास्तमिते मानी यवनपुरे सौम्यदिवसाद्य ॥८" जब नियुक्तिकार भद्रबाहुका उक्त समय सुनिश्चित हो जाता है तब यह कहनेम कोई आपत्ति नहीं रहती कि सन्मतिकार सिद्धसेनके समयकी पूर्व सीमा विक्रमकी छठी शताब्दीका तृतीय चरण है और उन्होने क्रमवादके पुरस्कर्ता उक्त भद्रबाहु अथवा उनके अनुसा किसी शिष्यादिके क्रमवाद-विषयक कथनको लेकर ही सन्मतिमे उसका खण्डन किया है। १ वदामि भद्दबाहु पाईण चरिमसगलसुयणाणि । सुत्तस्स कारगमिसि दसासु कप्पे य ववहारे ॥१॥ २ सव्वे एए दारा मरणविभत्तीद वरिणया कमसो । सगलणि उणे पयत्ये जिणचउदसपुब्बि भासते ॥२३३॥ ३ इससे भी कई वर्ष पहले आपके गुरु मुनि श्रीचतुरविजयजीने श्रीविजयानन्दसूरीश्वरजन्मशताब्दिस्मारकग्रन्थमे मुद्रित अपने 'श्रीभद्रबाहुस्वामी' नामक लेखमें इस विषयको प्रदर्शित किया था और यह सिद्ध किया था कि नियुक्तिकार भद्रबाहु श्रुतकेवली भद्रबाहुसे भिन्न द्वितीय भद्रबाहु हैं और वराहमिहरके सहोदर होनेसे उनके समकालीन हैं । उनके इस लेखका अनुवाद अनेकान्त वर्ष ३ किरण १२में प्रकाशित हो चुका है। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - "किरण ११ सन्मात-नसबूसना इस तरह सिद्धसेनके समयकी पूर्व सीमा विक्रमकी छठी शताब्दीका तृतीय चरण और उत्तरसीमा विक्रमकी सातवीं शताब्दीका तृतीय चरण (वि० सं०५६२से ६६६) निश्चित होती है। इन प्रायः सौ वर्षके भीतर ही किसी समय सिद्धसेनका प्रन्थकाररूपमें अवतार हुआ और यह ग्रन्थ बना जान पड़ता है। (३) सिद्धसेनके समय-सम्बन्धमें पं० सुखलालजी संघवीकी जो स्थिति रही है उसको ऊपर बतलाया जा चुका है। उन्होने अपने पिछले लेखमें, जो 'सिद्धसेनदिवाकरना समयनो प्रश्न' नामसे 'भारतीयविद्या के तृतीय भाग (श्रीबहादुरसिंहजी सिंधी स्मृतिग्रन्थ)में प्रकाशित हुआ है, अपनी उस गुजराती प्रस्तावना-कालीन मान्यताको ओ सन्मतिके अंग्रेजी संस्करणके अवसरपर फोरवर्ड (foreword), लिखे जानेके पूर्व कुछ नये बौद्ध ग्रन्थोके सामने आनेके कारण बदल गई थो और जिसकी फोरवर्डमें सूचना की गई है फिरसे निश्चितरूप दिया है अर्थात् विक्रमको पाँचवी शताब्दीको ही सिद्धसेनका समय निर्धारित किया है और उसीको अधिक सङ्गत बतलाया है। अपनी इस मान्यताकके समर्थनमें उन्होंने जिन दा प्रमाणोका उल्लेख किया है उनका सार इस प्रकार है, जिसे प्रायः उन्हीके शब्दोके अनुवादरूपमें सङ्कलित किया गया है: (प्रथम) जिनभद्रक्षमाश्रमणने अपने महान् ग्रन्थ विशेषावश्यक भाष्यमें, जो विक्रम मंवत् ६६६में बनकर समाप्त हुआ है, और लघुपन्थ विशेषणवतीमे सिद्धसेनदिवाकरके उपयोगाऽभदवादकी तथैव दिवाकरकी कृति सन्मतितकके टीकाकार मल्लवादीके उपयोग-योगपद्यवादकी विस्तृत समालोचना की है । इससे तथा मल्लवादीके द्वादशारनयचक्रके उपलब्ध प्रताकामे दिवाकरका सूचन मिलने और जिनभद्रंगणिका सूचन न मिलनेसे मल्लवादी जिनभद्रसे पूर्ववर्ती और सिद्धसेन मल्लवादीसे भी पूर्ववर्ती सिद्ध होत है। मल्लवादीको यदि विक्रमकी छठी शताब्दाक पूर्वाधमे मान लिया जाय तो सिद्धसेन दिवाकरका समय जो पाँचवी शताब्दी निर्धारित किया गया है वह अधिक सङ्गत लगता है। (द्वितीय) पूज्यपाद देवनन्दीने अपने जैनेन्द्रव्याकरणके वेत्तेः सिद्धसेनस्य' इस सूत्रमे मिद्धसेनके मतविशेषका उल्लेख किया है और वह यह है कि सिद्धसेनके मतानुसार 'विद्' धातुक र' का आगम होता है, चाहे वह धातु सकर्मक ही क्यों न हो। देवनन्दीका यह उल्लख बिल्कुल सच्चा है, क्योकि दिवाकरकी जो कुछ थोड़ीसी संस्कृत कृतियाँ बची है उनमेसे उनकी नवमी द्वात्रिंशिकाके २२वें पद्यमें विद्रतः' ऐसा 'र' आगम वाला प्रयोग मिलता है। अन्य वैयाकरण जब 'सम्' उपसर्ग पूर्वक और अकर्मक 'विद्' धातुके र' आगम स्वीकार करते हैं तब सिद्धसेनने अनुपसर्ग और सकर्मक 'विद्' धातुका 'र' आगमवाला प्रयोग किया है । इसके सिवाय, देवनन्दी पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि नामकी तत्त्वार्थ-टीकाके सप्तम अध्यायगत १३वें सूत्रकी टीकामें सिद्धसेनदिवाकरके एक पद्यका अंश 'उक्त च' शब्दके साथ उद्धत पाया जाता है और वह है 'वियोजयति चासुभिन च वधेन संयुज्यते ।" यह पद्यांश उनकी नीसरो द्वात्रिशिकाके १६वें पद्यका प्रथम चरण है। पूज्यपाद देवनन्दीका समय वर्तमान मान्यतानुसार विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वार्ध है अर्थात् पॉचवीं शताब्दीके अमुक भागसे छठी शताब्दीके अमुक भाग तक लम्बा है। इससे सिद्धसेनदिवाकरकी पाँचवी शताब्दीमे होनेकी बात जो अधिक सङ्गत कही गई है उसका खुलासा हो जाता है। दिवाकरको देवनन्दीसे १ फोरवर्डके लेखकरूपमें यद्यपि नाम 'दलसुख मालवणिया'का दिया हुश्रा है परन्तु उसमें दी हुई उक्त सूचनाको पण्डित सुखलालजीने उक्त लेखमें अपनी ही सूचना ओर अपना ही विचार-परिवर्तन स्वीकार किया है। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ] अमकान्त [बष8. पूर्ववर्ती या देवनन्दीके वृद्ध समकालीनरूपमें मानिये तो भी उनका जीवनसमय पाँचवीं शताब्दीसे अर्वाचीन नहीं ठहरता। इनमेंसे प्रथम प्रमाण तो वास्तवमें कोई प्रमाण ही नहीं है। क्योंकि वह 'मल्लवादीको यदि विक्रमकी छठी शताब्दीके पूर्वार्धमें मान लिया जाय तो इस भ्रान्त कल्पनापर अपना आधार रखता है। परन्तु क्यों मा- लिया जाय अथवा क्यों मान लेना चाहिये, इसका कोई स्पष्टीकरण साथमें नहीं है। मल्लवादीका जिनमद्रसे पूर्ववर्ती होना प्रथम तो सिद्ध नहीं है, सिद्ध होता भी तो उन्हें जिनभद्रके समकालीन वृद्ध मानकर अथवा २५ या ५० वर्ष पहले मानकर भी उस पूर्ववतित्वको चरितार्थ किया जा सकता है. उसके लिये १०० वर्षसे भी अधिक समय पूर्वकी बात मान लेनेकी कोई जरूरत नहीं रहती। परन्तु वह सिद्ध ही नहीं है, क्योंकि उनके जिस उपयोग-योगपद्यवादकी विस्तृत समालोचना जिनभद्रके दो ग्रन्थों में बतलाई जाती है उनमें कहीं भी मल्लवादी अथवा उनके किसी ग्रन्थका नामोल्लेख नहीं है, होता तो पण्डितजी उस उल्लेखबाले अंशको उद्धृत करके ही सन्तोष धारण करते, उन्हें यह तर्क करनेकी जरूरत ही न रहती और न रहनी चाहिये थी कि 'मल्लवादीके द्वादशारनयचक्रके उपलब्ध प्रतीकामे दिवाकरका सूचन मिलने और जिनभद्रका सूचन न मिलनेस मल्लवादी जिनभद्रसे पूर्ववर्ती है। यह तर्क भी उनका अभीष्ट-सिद्धिमे कोई सहायक नहीं होता; क्योकि एक तो किसी विद्वानके लिये यह लाजिमी नहीं कि वह अपने ग्रन्थमे पूर्ववर्ती अमुक अमुक विद्वानांका उल्लेख कर ही कर । दूसरे, मूल द्वादशारनयचक्रक जब कुछ प्रतीक ही उपलब्ध है वह पूरा ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है तब उसके अनुपलब्ध अंशोमे भी जिनभद्रका अथवा उनके किसी ग्रन्थादिकका उल्लेख नहीं इसकी क्या गारण्टो ? गारण्टीके न होने और उल्लेखापलब्धिकी सम्भावना बनी रहनेसे मल्लवादीको जिनभद्रके पूर्ववर्ती बतलाना तकदृष्टिसे कुछ भी अर्थ नही रखता। तीसरे, ज्ञानबिन्दुकी परिचयात्मक प्रस्तावनामें पण्डित सुखलालजा स्वय यह स्वीकार करते है कि "अभी हमने उस सारे सटीक नयचक्रका अवलोकन करके देखा तो उममे कहीं भी केवलज्ञान और केवलदर्शन (उपयांगद्वय)के सम्बन्धमे प्रचलित उपयुक्त वादी (क्रम, युगपत् , और अभेद) पर थोड़ी भी चर्चा नहीं मिली। यद्यपि सन्मतितर्की मल्लवादि-कृत-टीका उपलब्ध नहीं है पर जब मल्लवादि अभेदसमर्थक दिवाकरके ग्रन्थपर टीका लिखें तब यह कैसे माना जा सकता है कि उन्होने दिवाकरके ग्रन्थकी व्याख्या करते समय उसीमे उनके विरुद्ध अपना युगपत पक्ष किसी तरह स्थापित किया हो । इस तरह जब हम सोचते है तब यह नहीं कह सकते हैं कि अभयदेवके युगपद्वादके पुरस्कारूपसे मल्लवादीके उल्लेखका आधार नयचक्र या उनकी सन्मतिटीकामेसे रहा होगा।" साथ ही, अभयदेवने सन्मतिटीकामें विशेपणवतीकी केई भणति जुगवं जाणइ पासइ य केवली णियमा" इत्यादि गाथाको उद्धन करके उनका अर्थ देते हुए केई' पदके वाच्यरूपमे मल्लवादीका जो नामोल्लेख किया है और उन्हे युगपद्वादका पुरस्कर्ता बतलाया है उनके उम उल्लेखकी अभ्रान्ततापर सन्देह व्यक्त करते हुए. पण्डित सुखलालजी लिखते है-"अगर अभयदेवका उक्त उल्लेखांश अभ्रान्त एवं साधार है तो अधिकसे अधिक हम यही कल्पना कर सकते है कि मल्लवादीका कोई अन्य युगपत् पक्षसमर्थक छोटा बड़ा ग्रन्थ अभयदेवके सामने रहा होगा अथवा ऐसे मन्तव्यवाला काई उल्लेख उन्हे मिला होगा।” और यह बात ऊपर बतलाई ही जा चुकी है कि अभयदेवसे कई शताब्दी पृर्वके प्राचीन आचार्य हरिभद्रसूरिने उक्त केई' पदके वाच्यरूपमे सिद्धसेनाचार्यका नाम उल्लेखित किया है. पं० सुखलालजीने उनके उस उल्लेखको महत्व दिया है तथा सन्मतिकारसे भिन्न दूसरे सिद्धसेनकी सम्भावना व्यक्त की है, और वे दूसरे सिद्धसेन उन द्वात्रिशिकाओके कर्ता हो सकते है जिनमें युगपद्वादका समर्थन पाया जाता है. इसे भी ऊपर Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.ma दर्शाया जा चुका है। इस तरह जब मल्लवादीका जिनभद्रसे पूर्ववर्ती होना सुनिश्चित ही नहीं है तब उक्त प्रमाण और भी निःसार एवं बेकार हो जाता है। साथ ही, अभयदेवका मल्लवादीको युगपद्वादका पुरस्कर्ता बतलाना भी भ्रान्त ठहरता है। यहाँपर एक बात और भी जान लेनेकी है और वह यह कि हालमें मुनि श्रीजम्बूविजयजीने मल्लवादीके सटीक नयचक्रका पारायण करके उसका विशेष परिचय 'श्री श्रआत्मानन्दप्रकाश' (वर्ष ४५ अङ्क ७)में प्रकट किया है, उसपरसे यह स्पष्ट मालूम होता है कि मल्लवादीने अपने नयचक्रमें पद-पदपर 'वाक्यपदीय' ग्रन्थका उपयोग ही नहीं किया बल्कि उसके कर्ता भर्तृहरिका नामोल्लेख और भतृहरिके मतका खण्डन भी किया है। इन भतृहरिका समय इतिहासमें चीनी यात्री इत्सिनके यात्राविवरणादिके अनुसार ई. सन ६०८से ६५० (वि० सं०६५७से ७०७) तक माना जाता है; क्योंकि इत्सिङ्गने जब सन ६६१में अपना यात्रावृत्तान्त लिखा तब भतृहरिका देहावसान हुए ४० वर्ष बीत चुके थे। और वह उस समयका प्रसिद्ध वैयाकरण था। ऐसी हालतमें भी मल्लवादी जिनभद्रसे पूर्ववर्ती नहीं कहे जा सकते। उक्त समयादिककी दृष्टिसे वे विकमकी प्रायः पाठवी-नवमी शताब्दीके विद्वान हो सकते हैं और तब उनका व्यक्तित्व न्यायबिन्दुको धर्मोत्तर'-टीकापर टिप्पण लिखनेवाले मल्लवादीके साथ एक भी हो सकता है । इस टिप्पणमें मल्लवादीने अनेक स्थानोंपर न्यायबिन्दुकी विनीतदेव-कृत-टीकाका उल्लेख किया है और इस विनीतदेवका समय गहुलसाकृत्यायनने, वादन्यायकी प्रस्तावनामें, धर्मकीर्तिके उत्तराधिकारियोकी एक तिब्बती सूचापरसे ई० सन् ७७५से ८०० (वि० सं० ८५७) तक निश्चित किया है। इस सारी वस्तुस्थितिको ध्यानमें रखते हुए ऐसा जान पड़ता है कि विक्रमकी १४वीं शताब्दीके विद्वान प्रभाचन्द्र ने अपने प्रभावकचरितके विजयसिहसूरि-प्रबन्धमें बौद्धों और उनके व्यन्तरोको वादमे जीतनेका जो समय मल्लवादीका वीरवत्सरसे ८८४ वर्ष बादका अर्थात् विक्रम सवत् ४१४ दिया है और जिसके कारण ही उन्हें श्वेताम्बर समाजमें इतना प्राचीन माना जाता है तथा मुनि जिनविजयने भी जिसका एकवार पक्ष लिया है। उसके' उल्लेखमें जरूर कुछ भूल हुई है। पं० सुखलालजीने भी उस भूलको महसुस किया है, तभी उसमें प्रायः १०० वर्षकी वृद्धि करके उसे विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वार्ध (वि० सं० ५५०) तक मान लेनेको बात अपने इस प्रथम प्रमाणमे कही है। डा० पी० एल० वैद्य एम० ए०ने न्यायावतारकी प्रस्तावनामें, इस भूल अथवा गलतीका कारण 'श्रीवीरविक्रमात्'के स्थानपर 'श्रीर्वारवत्सरान्' पाठान्तरका हो जाना सुझाया है। इम प्रकारके पाठान्तरका हो जाना कोई अस्वाभाविक अथवा असंभाव्य नहीं है किन्तु सहजसाध्य जान पड़ता है। इस सुझावके अनुसार यदि शुद्ध पाठ 'वीरविक्रमात्' हो तो मल्लवादीका समय वि० सं० ८८४ तक पहुँच जाता है और यह समय मल्लवादीके जीवनका प्रायः अन्तिम समय हो सकता है और तब मल्लवादीको हरिभद्रके प्रायः समकालीन कहना होगा; क्योकि हरिभद्रने 'उक्तं च वादिमुख्यन मल्लवादिना' जैसे शब्दांके द्वारा अनेकान्तजयपताकाकी टीकामें मल्लवादीका स्पष्ट उल्लेख किया है। हरिभद्रका समय भी विक्रमकी हवी शताब्दीके तृतीय १ बौद्धाचार्य धर्मोत्तरका समय पं. राहुलसांकृत्यायनने वादन्यायकी प्रस्तावनामें ई. स. ७२५से ७५०, (वि. सं. ७८२से ८०७) तक व्यक्त किया है। २ श्रीवीरवत्सरादथ शताष्टके चतुरशीति-संयुक्त । जिग्ये स मल्लवादी बौद्धांस्तव्यन्तरांश्वाऽपि ॥३॥ ३ देखो, जैनसाहित्यसशोधक भाग २ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oom | अनकान्त 1 वर्ष ह चतुर्थ चरण तक पहुँचता है; क्योंकि वि० सं० ८५७के लगभग बनी हुई भट्टजयन्तकी न्यायमञ्जरीका 'गम्भीरगर्जितारम्भ' नामका एक पद्य हरिभद्रके षड्दर्शनसमुच्चयमें उद्धृत मिलता है, ऐसा न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने न्यायकुमुदचन्द्रके द्वितीय भागकी प्रस्तावनामें उद्घोषित किया है। इसके सिवाय, हरिभद्रने स्वयं शाखूवार्तासमुच्चयके चतुर्थस्तवनमें 'एतेनैव प्रतिक्षिप्तं यदुक्तं सूक्ष्मबुद्धिना' इत्यादि वाक्यके द्वारा बौद्धाचार्य शान्तरक्षितके मतका उल्लेख किया है और स्वोपज्ञटीकामें 'सूक्ष्मबुद्धिना' का 'शान्तरक्षितेन' अर्थ देकर उसे स्पष्ट किया है । शान्तरक्षित धर्मोत्तर तथा विनीतदेवके भी प्रायः उत्तरवर्ती हैं और उनका समय राहुल सांकृत्यायनने वादन्यायके परिशिष्टोंमें ई० सन् ८४० (वि० सं० ८६७) तक बतलाया है । हरिभद्रको उनके समकालीन समझना चाहिये । इससे हरिभद्रका कथन उक्त समयमें बाधक नहीं रहता और सब कथनोंकी सङ्गति ठीक बैठ जाती है । नयचक्र के उक्त विशेष परिचयसे यह भी मालूम होता है कि उस ग्रन्थमें सिद्धसेन नामके साथ जो भी उल्लेख मिलते हैं उनमें सिद्धसेनको 'आचार्य' और 'सूरि' जैसे पदो साथ तो उल्लेखित किया है परन्तु 'दिवाकर' पदके साथ कहीं भी उल्लेखित नहीं किया है. तभी मुनि श्रीजम्बू विजयजीकी यह लिखने में प्रवृत्ति हुई है कि "श्रा सिद्धसेनसूरि सिद्धसेनदिवाकरज सभवतः होवा जोइये” अर्थात् यह सिद्धसेनसूरि सम्भवतः सिद्धसेनदिवाकर ही होने चाहिये-भले ही दिवाकर नामके साथ वे उल्लेखित नहीं मिलने । उनका यह लिखना जनकी धारणा और भावनाका ही प्रतीक कहा जा सकता है, क्योंकि 'होना चाहिये' का कोई कारण साथमें व्यक्त नहीं किया गया। पं० सुखलालजीने अपने उक्त प्रमाणमे इन सिद्धसेनको 'दिवाकर' नामसे ही उल्लेखित किया है, जो कि वस्तुस्थितिका बड़ा ही गलत निरूपण हैं और अनेक भूल-भ्रान्तियोंको जन्म देने वाला है-किसी विपयको विचार के लिये प्रस्तुत करनेवाले निष्पक्ष विद्वानां द्वारा अपनी प्रयोजनादि - सिद्धिके लिये वस्तुस्थितिका ऐसा गलत चित्रण नहीं होना चाहिये | हॉ, उक्त परिचयसे यह भी मालूम होता है कि सिद्धसेन नामके साथ जो उल्लेख मिल रहे हैं उनमेसे कोई भी उल्लेख सिद्धसेनदिवाकरके नामपर चढ़े हुए उपलब्ध ग्रन्थोंमेंसे किसीमें भी नहीं मिलता है। नमूने के तौरपर जो दो उल्लेख परिचयमें उद्धृत किये गये हैं उनका विषय प्रायः शब्दशास्त्र (व्याकरण) तथा शब्दनयादिसे सम्बन्ध रखता हुआ जान पड़ता है। इसमे भी सिद्धसेन के उन उल्लेखांको दिवाकरके उल्लेख बतलाना व्यर्थ ठहरता है । रही द्वितीय प्रमाणकी बात, उससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि तीसरी और नवमी द्वात्रिशिका के कर्ता जो सिद्धसेन हैं वे पूज्यपाद देवनन्दीसे पहले हुए है— उनका समय विक्रमकी पाँचवीं शताब्दी भी हो सकता है । इससे अधिक यह सिद्ध नहीं होता कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन भी पूज्यपाद देवनन्दीसे पहले अथवा विक्रमकी ५वी शताब्दी में हुए हैं। १. वीं शताब्दीके द्वितीय चरण तकका समय तो मुनि जिनविजयजीने भी अपने हरिभद्र के समयनिर्णयवाले लेखमे बतलाया है। क्योंकि विक्रमसंवत् ८३५ (शक स० ७००) मं बनी हुई कुवलयमालामे उद्योतनसूरिने हरिभद्रको न्यायविद्यामें अपना गुरु लिखा है । हरिभद्रके समय, सयतजीवन और उनके साहित्यिक कार्योंकी विशालताको देखते हुए उनकी श्रायुका अनुमान सो वर्षके लगभग लगाया जा सकता है और वे मल्लवादीके समकालीन होनेके साथ-साथ कुवलयमाला की रचना के कितने ही वर्ष बाद तक जीवित रह सकते हैं । २ " तथा च श्राचार्यसिद्धसेन ग्रह "यत्र अर्थी वाचं व्यभिचरति न (ना) भिधानं तत् ॥” [वि० २७७] "अस्ति भवति विद्यति वर्ततयः सन्निपातपष्ठाः सत्तार्था इत्यविशेष खोक्कत्वात् सिद्धसेनसूरिणा ।" [वि. १६६ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सन्मति-सिद्धसेनाक [४४९ इसको सिद्ध करनेके लिये पहले यह सिद्ध करना होगा कि सन्मतिसूत्र और तीसरी तथा नवमी द्वात्रिंशिकाएँ नीनों एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ हैं। और यह सिद्ध नहीं है। पूज्यपादसे पहले उपयोगद्वयके क्रमवाद तथा अभेदवादके कोई पुरस्कर्ता नहीं हुए हैं. होते तो पूज्यपाद अपनी सर्वार्थसिद्धिमें सनातनसे चले आये युगपद्वादका प्रतिपादनमात्र करके ही न रह जाते बल्कि उसके विरोधी वाद अथवा वादोंका खण्डन जरूर करते परन्तु ऐसा नहीं है, और इससे यह मालूम होता है कि पूज्यपादके समयमें केवलीके उपयोग-विषयक कमवाद तथा अभेदवाद प्रचलित नहीं हुए थे-वे उनके बाद ही सविशेषरूपसे घोषित तथा प्रचारको प्राप्त हुए है. और इसीसे पूज्यपादके बाद अकलङ्कादिकके साहित्यमें उनका उल्लेख तथा खण्डन पाया जाता है। क्रमवादका प्रस्थापन नियुक्तिकार भद्रबाहुके द्वारा और अभेदवादका प्रस्थापन सन्मतिकार सिद्धसेनके द्वारा हुआ है। उन वादोंके इस विकासक्रमका समर्थन जिनभद्रकी विशेषणवतीगत उन दो गाथाओं (केई भणंनि जुगवं' इत्यादि नम्बर १८४, १८५)से भी होता है जिनमें युगपन , क्रम और अभेद इन तीनो वादोके पुरस्कर्ताओंका इसी क्रमसे उल्लेख किया गया है और जिन्हे ऊपर (न० में) उद्धृत किया जा चुका है। पं० सुग्वलालजीने नियुक्तिकार भद्रबाहुको प्रथम भद्रबाहु और उनका समय विक्रमकी दूसरी शताब्दी मान लिया है. इसीसे इन वाटोंक क्रम-विकामको समझने में उन्हें भ्रान्ति हुई है। और वे यह प्रतिपादन करनेमे प्रवृत्त हुए है कि पहले क्रमवाद था. युगपनवाद बादको सबसे पहले वाचक उमास्वाति'-द्वारा जैन वाङमयमे प्रविष्ट हुआ और फिर उसके बाद अभदवादका प्रवेश मुख्यत: सिद्धसेनाचायके द्वारा हुआ है। परन्तु यह ठीक नहीं है। क्योकि प्रथम तो युगपतवादका प्रतिवाद भद्रबाहुकी आवश्यकनियुक्तिक "सव्वस्स कंवालस्स वि जगवं दाथि उवोगा' इम वाक्यमे पाया जाता है, जो भद्रबाहुका दूसरी शताब्दीका विद्वान माननके कारण उमाम्वानिके पूर्वका ठहरता है और इसलिये उनके विरुद्ध जाना है। दमर, श्रीकुन्दकुन्दाचायक नियममार-जैसे ग्रन्थी और आचार्य भूतबालके पटवण्डागममें भी युगपतवादका स्पष्ट विधान पाया जाता है । य दाना आचार्य उमास्वातिके पूर्ववर्ती हैं और इनक युगपद्वाद-विधायक वाक्य नमूनेक तौरपर इस प्रकार हैं: ___ "जुगवं वट्टइ गाण केवलणाणिस्स दंसण च तहा । दिणयर-पयास-तावं जह वट्टा तह मुणेयव्वं ॥" (णियम०१५९)। "सयं भयवं उप्पण-गाण-दरिसी सदेवाऽसुर-माणसस्म लोगस्स आगदि गर्दि चयणोववादं बधं मोक्ख इद्धि ठिदि जुदि अणभागं तक कलं मणोमाणमियं भुत्तं कदंपडिसंविदं श्रादिकम्मं अरहकम्मं मब्बलोए मन्चजीवे सव्वभावे सव्व सम जाणदि पस्मादि विहरदित्ति ।"-(पटखएडा० ४ पयडि अ. सू० ७८)। १ "स उपयोगो द्विविधः । शानोपयोगी दर्शनोपयोगचं ति । ........"साकार जानमनाकार दर्शनमिति । तच्छद्मस्थेष क्रमेण वर्तते । निरावरणेषु युगपत् ।" २ ज्ञानबिन्दु परिचय पृ०५, पादटिप्पा । ३ “मतिज्ञानादिचर्तुप पर्यायेणोपयोगी भवति, न युगपत् । सभिन्नशानदर्शनस्य तु भगवनः केवलिनो युगपत्मर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चानुममयमपयोगी मवति।" -तत्स्वार्थभाष्य १३१। ४ उमास्वातिवाचकको ५० सुखलालजीने विक्रमकी तीसरीमे पाँचवीं शताब्दीके मध्यका विद्वान् बतलाया है। (जा. वि. परि. पृ० ५४)। ५ इस पूर्ववर्तित्वका उल्लेख भवरणबेलगोलादिके शिलालेखों तथा अनेक ग्रन्थप्रशस्तियों में पाया जाता है। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ] अनकान्त ऐसी हालतमें युगपत्वादकी सर्वप्रथम उत्पत्ति उमास्वातिसे बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता, जैनवाङ्मयमें इसकी अविकल धारा अतिप्राचीन कालसे चली आई है। यह दूसरी बात है कि क्रम तथा अभेदकी धाराएँ भी उसमें कुछ बादको शामिल होगई हैं; परन्तु विकास-क्रम युगपत्वादसे ही प्रारम्भ होता है जिसकी सूचना विशेषणवतीकी उक्त गाथाओं (केई भणंति जुगवं' इत्यादि)से भी मिलती है। दिगम्बराचार्य श्रीकुन्दकुन्द, समन्तभद्र और पूज्यपादके ग्रन्थोमें क्रमवाद तथा अभेदवादका कोई ऊहापोह अथवा खण्डन न होना पं० सुखलालजीको कुछ अखरा है; परन्तु इसमें अखरनेकी कोई बात नहीं है। जब इन आचार्योके सामने य दोनो वाद आए ही नहीं तब वे इन वादोका उहापोह अथवा खण्डनादिक कैसे कर सकते थे ? अकलङ्कके सामने जब ये वाद आए तब उन्होंने उनका खण्डन किया ही है, चुनॉचे पं० सुखलालजी स्वयं ज्ञानबिन्दुके परिचयमे यह स्वीकार करते हैं कि “सा खण्डन हम सबसे पहले अकलङ्ककी कृतियाम पात हैं।" और इमलिय उनसे पूर्वकी-कुन्दकुन्द. समन्तभद्र तथा पूज्यपादकी-कृतियोमे उन वादाकी कोई चर्चाका न होना इस बातको और भी साफ तौरपर सूचित करता है कि इन दोनों वादोकी प्रादुभूति उनके समयके बाद हुई है। सिद्धसेनके सामने ये दोनों वाद थे-दोनोंकी चर्चा सन्मतिमे की गई है-अतः य सिद्धसेन पूज्यपादके पूर्ववर्ती नहीं हो सकते। पूज्यपादने जिन मिद्धसेनका अपने व्याकरणमे नामोल्लेख किया है वे कोई दूसरे ही सिद्धसेन होने चाहिये। यहॉपर एक खास बात नोट किये जानेके योग्य है और वह यह कि पं० सुखलालजी सिद्धसेनका पूज्यपादसे पूर्ववर्ती सिद्ध करने के लिय पूज्यपाीय जैनेन्द्र व्याकरणका उक्त सूत्र ती उपस्थित करते हैं परन्तु उसी व्याकरणके दूसर समकक्ष सूत्र "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य” को देखत हुए भी अनदेखा कर जाते है-उसक प्रति गजनिर्मालन-जैसा व्यवहार करत है-और ज्ञानबिन्दुकी परिचयात्मक प्रस्तावना (पृ०५५)मे विना किसी हेतुके ही यहाँ तक लिखनेका साहस करते हैं कि 'पूज्यपादके उत्तरवर्ती दिगम्बराचार्य समन्तभद्र"ने अमुक उल्लेख किया ! साथ ही, इम बातको भी भुला जात है कि मन्मतिकी प्रस्तावनामें वे स्वयं पूज्यपादको समन्तभद्रका उत्तरवर्ती बतला आए है और यह लिख आए है कि 'स्तुतिकाररूपसे प्रसिद्ध इन दाना जैनाचार्याका उल्लेख पूज्यपादने अपने व्याकरणके उक्त सूत्रांम किया है. उनका कोई भी प्रकारका प्रभाव पूज्यपादकी कृतियापर होना चाहिये ।' मालूम नहीं फिर उनके इस साहमिक कृत्यका क्या रहस्य है। और किस अभिनिवेशक वशवर्ती होकर उन्होने अब यो ही चलती कलमसे समन्तभद्रका पूज्यपादके उत्तरवर्ती कह डाला है । इसे अथवा इसके औचित्यका वे ही स्वयं समझ सकत है। दूसरे विद्वान तो इसमे कोई औचित्य एवं न्याय नहीं देखत कि एक ही व्याकरण ग्रन्थमे उल्लखित दो विद्वानोमेसे एकको उस ग्रन्थकारके पूर्ववर्ती और दुमरको उत्तरवर्ती बतलाया जाय और वह.भी विना किसी युक्ति के । इसमे सन्देह नहीं कि पण्डित सुखलालजाकी बहुत पहलेसे यह धारणा बनी हुई है कि सिद्धसेन समन्तभद्रके पूर्ववर्ती है और वे जैसे तैसे उसे प्रकट करने के लिय काई भी अवसर चूकत नहीं है। हो सकता है कि उमाकी धुनमें उनसे यह कार्य बन गया हो, जो उस प्रकटीकरणका ही एक प्रकार है, अन्यथा वैमा कहनेके लिये कोई भी युक्तियुक्त कारण नहीं है। पूज्यपाद समन्तभद्रके पूर्ववर्ती नहीं किन्तु उत्तरवर्ती हैं, यह बात जैनेन्द्रव्याकरणके उक्त "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य" सूत्रसे ही नही किन्तु श्रवणबेलगोलके शिलालेखों आदिसे भी भले प्रकार जानी जाती है.' । पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि' पर समन्तभद्रका स्पष्ट प्रभाव है, इसे १ देखो, श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं० ४० (६४), १०८ (२५); 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास)पृ० १४१...१४.३ः तथा 'जैन जगत' वर्ष ६ अङ्क १५-१६में प्रकाशित 'समन्तभद्रका समय और डा. के. बी. Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सrmirewort । हर तमा 'सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव' नामक लेखमें स्पष्ट करके बतलाया जा चुका है। समन्तभद्रके रखकरण्ड'का 'आप्नोपशमनुलंध्यम' नामका शाखलक्षणवाला पूरा पद्य न्यायावतारमें उद्धृत है, जिसको रत्नकरएडमें स्वाभाविकी और न्यायावतारमें उद्धरण-जैसी स्थितिको खूब खोलकर अनेक युक्तियोके साथ अन्यत्र दशाया जा चुका है। उसके प्रक्षिप्त होनेकी कल्पना-जैमी बात भी अब नहीं रही; पाकि एक ता न्यायावतारका समय अधिक दूरका न रहकर टीकाकार सिद्धर्षिक निकट पहुँच गया है दूसरे उममें अन्य कुल वाक्प भी समर्थनादिके रूपमें उद्धृत पाये जाते हैं। जैसे “साध्याविनाभुवो हेतोः" जैसे वाक्य हेतुका लक्षण श्राजानेपर भी "अन्यथानुपपन्नत्व तोर्लक्षणमीरितम” इस वाक्यमे उन पात्रस्वामीके हेतुलक्षणको उद्धृत किया गया है जो ममन्तभद्रके देवागमसे प्रभावित होकर जैनधर्ममें दीक्षित हुए थे। इसी तरह "दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात" इत्यादि पाठवें पद्यमें शाब्द (आगम) प्रमाणका लक्षण आजानेपर भी अगले पद्यमे समन्तभद्रका "आप्तोपशमनुल्लध्यमदृष्टेष्टविरोधकम" इत्यादि शास्त्रका लक्षण ममर्थनादिके रूपमे उद्धृत हुआ समझना चाहिये । इसके सिवाय, न्यायावतारपर ममन्तभद्रके देवागम (आप्तमीमांसा)का भी स्पष्ट प्रभाव है; जैसा कि दोनो प्रन्योंमें प्रमाणके अनन्तर पाय जानेवाले निम्न वाक्योंकी तुलनापरसे जाना जाता है: “उपेक्षा फलमाऽऽद्यस्य शेषम्याऽऽदान-हान-धीः । पूर्वा(वै) वाज्ञान नाशो वा सर्वम्याऽस्य स्वगोचरे ॥१०॥" (देवागम) "प्रमाणम्य फलं साक्षादज्ञान विनिवर्तनम् । कंवलम्य मुखोपेक्ष' शेषम्याऽऽदान-हान धीः॥२८॥" (न्यायावतार) ऐसी स्थितिमे व्याकरणादिके कर्मा पूज्यपाद और न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन दानो ही स्वामी समन्तभद्र के उत्तरवर्ती हैं. इसमे मंदेह के लिये कोई स्थान नही है। सन्मतिसूत्रक कर्ता मिद्धमेन चूंकि नियुक्तिकार एवं नमित्तिक भद्रबाहके बाद हुए हैं- उन्होंने भद्रबाहु के द्वारा पुरस्कृत उपयोग-क्रमवादका ग्वएडन किया है और इन भद्रबाहका समय विक्रमकी छठी शताब्दीका प्रायः तृतीय चरण पाया जाता है. यही समय मन्मतिकार सिद्धसेनके समयकी पूर्वसीमा है. जैमा कि ऊपर सिद्ध किया जा चुका है। पूज्यपाद इस समयसे पहल गङ्गवंशी राजा अविनीन (ई. मन ४३०-४८) तथा उसके उत्तराधिकारी दुर्विनीतके समयमे हए है और उनके एक शिप्य वनन्दीने विक्रम संवत ५२६मे द्राविडसंघकी स्थापना की है जिमका उल्लेग्व देवसेनरिक दर्शनमार (वि० सं० ६६०) ग्रन्थमे मिलता है। श्रन: मन्मतिकार मिद्धसेन पूज्यपादक उत्तरवर्ती हैं. पूज्यपादक उत्तरवर्ती होनेसे समन्तभद्रक भी उत्तरवर्ती है सा मिद्ध होता है। और इमलिय समन्तभद्रकं स्वयम्भूस्तोत्र तथा आतमीमामा (देवागम) नामक दो पाठक' शीर्षक लेख पृ० १८-२३, अथवा “दि एनल्म ऑफ दि भाय हारकर रिसर्च इन्स्टिटय ट पूना वाल्यूम १५ पार्ट १-२में प्रकाशित Salmantalbhadra', diet and Dr K. B. Pathak पृ० ८१-८८ । १ देवी, अनेकान्त वर्ष ५, किरण १०-११ पृ. ३४६-३५२ । २ देखा, 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) पृ० १२६-१३१ तथा अनेकान्त वर्ष कि. १से ४में प्रकाशित 'रनकरण्डके कतृत्वविषयम मेरा विचार र निर्णय' नामक लेख पृ० १०२-१०४ । ३ यहां 'उपेक्षा के साथ सुखकी वृद्धि का गई है, जिसका अज्ञाननिवृत्ति तथा उपेक्षा(रागादिककी निवृत्तिरूप अनासक्ति)के साथ अविनाभावी सम्बन्ध है। ४ "सिरिपुजपादसीसो दाविडमघस्स कारगी दुद्दा । णामण वजणदी पाहुडवेदी महासत्तो ॥२४॥ पचसए छन्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्षिणमहुराजादो दाविडसघो महामाहो ॥२" Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -800 प्रन्थोंकी सिद्धसेनीय सन्मतिसूत्रके साथ तुलना करके पं० सुखलालजीने दोनों आचार्योंके इन ग्रन्थों में जिस वस्तुगत पुष्कल साम्य'की सूचना सन्मतिकी प्रस्तावना (पृ०६६)में की है उसके लिये सन्मतिसूत्रको अधिकांशमें सामन्तभद्रीय प्रन्थोंके प्रभावादिका आभारी समझना चाहिये। अनेकान्त-शासनके जिस स्वरूप-प्रदर्शन एवं गौरव-ख्यापनकी ओर समन्तभद्रका प्रधान लक्ष्य रहा है उसीको सिद्धसेनने भी अपने ढङ्गसे अपनाया है। साथ ही सामान्य-विशेष-मातृक नयोंके मर्वथा-श्रसर्वथा, सापेक्ष-निरपेक्ष और सम्यक-मिथ्यादि-स्वरूपविषयक समन्तभद्रके मौलिक निर्देशोंको भी आत्मसात किया है। सन्मतिका कोई कोई कथन समन्तभद्र के कथनसे कुछ मतभेद अथवा उसमें कुछ वृद्धि या विशेष आयोजनको भी साथमें लिये हुए जान पड़ता है, जिसका एक नमूना इस प्रकार है: दव्वं खित्त कालं भावं पज्जाय-देम-संजोगे । भेदं च पडुच्च समा भावाणं पएणवणपज्जा ॥३-६०॥ इस गाथामे बतलाया है कि 'पदार्थोंकी प्ररूपणा द्रव्य, क्षेत्र, काल. भाव, पर्याय. देश मयोग और भेदको आश्रित करके ठीक होती है;' जब कि समन्तभद्रने “सदेव सर्व को नेच्छेन स्वरूपादिचतुष्टयात्" जैसे वाक्योके द्वारा द्रव्य. क्षेत्र, काल और भाव इस चतुष्टयको ही पदार्थप्ररूपणका मुख्य साधन बतलाया है। इससे यह साफ जाना जाता है कि समन्तभद्रके उक्त चतुष्टयमे मिद्धसेनने बादको एक दूसरे चतुष्टयकी और वृद्धि की है. जिसका पहलसे पूक्के चतुष्टयमें ही अन्तर्भाव था। रही द्वात्रिंशिकाओके कर्ता मिद्धसेनकी बात. पहली द्वात्रिशिकामे क उल्लेख-वाक्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है, जो इस विषयमें अपना खास महत्व रखता है: य एप पड्जीव-निकाय-विस्तरः परैरनालीढपथम्त्वयोदितः । अनेन सयज्ञ-परीक्षण-क्षमास्त्वयि प्रसादादयसोत्सवाः स्थिताः ॥१३॥ इसमें बतलाया है कि हे वीरजिन ' यह जो पट् प्रकारके जीवोंके निकायों (समूहों) का विस्तार है और जिसका मार्ग दूसरोके अनुभवमे नहीं आया वह आपके द्वारा उदित हुआ -बतलाया गया अथवा प्रकाशमे लाया गया है। इसीसे जो मर्वज्ञकी परीक्षा करने में समर्थ है वे (श्रापको सर्वज्ञ जानकर) प्रसन्नताके उदयरुप उत्सवके साथ आपमें स्थित हुए है-बड़े प्रमन्नचित्तसे आपके आश्रयम प्राप्त हुए और आपके भक्त बने है। वे समर्थ-सर्वज्ञ-परीक्षक कौन है जिनका यहाँ उल्लेख है और जो आप्तप्रभु वीरजिनेन्द्रकी मर्वज्ञरूपमे परीक्षा करनेके अनन्तर उनके सुदृढ़ भक्त बने है ? वे है, स्वामी ममन्तभद्र. जिन्होने श्रातमीमांसा द्वारा सबसे पहले मर्वज्ञकी परीक्षा' की है. जो परीक्षाके अनन्तर वीरकी स्तुतिरूपमें 'युक्त्यनुशामन' म्तोत्रके रचने में प्रवृत्त हा है। और जो स्वयम्भू स्तोत्रके निम्न पद्योमें सर्वज्ञका उल्लेख करते हुए उसमें अपनी स्थिति एवं भक्तिको स्वयि सुप्रसन्नमनमः स्थिता वयम्" इस वाक्यके द्वारा स्वयं व्यक्त १ श्रकलङ्कदेवने भी 'अष्टशती' भाध्यमे श्रासमीमांसाको "सर्वज्ञविशेषपरीक्षा" लिखा है और वादि राजसूरिने पार्श्वनाथचरितमें यह प्रतिपादित किया है कि 'उमी देवागम(श्राप्तमीमांसा)के द्वारा स्वामी (ममन्तभद्र)ने अाज भो सर्वशको प्रदर्शित कर रक्खा है: "स्वामिनश्चरित तस्य कस्य न विस्मयावहम् । देवागमेन सर्वज्ञो येनाऽद्यापि प्रदर्श्यते ।।" २ युक्तयनुशासनकी प्रथमकारिकामें प्रयुक्त हुए 'अद्य पदका अर्थ श्रीविद्यानन्दने टीकामें "अस्मिन् काले परीक्षाऽवसानसमये" दिया है और उसके द्वारा प्राप्तमीमांसाके बाद युक्तयनुशासनकी रचनाको सूचित किया है। २४२: तथा niu ... na ... Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - करते हैं, जो कि " त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः" इस वारका स्पष्ट मूलाधार जान पड़ता है : बहिरन्तरप्युभयथा च, करणमविधाति नार्थकृत् । नाथ ! युगपदखिलं च सदा, त्वमिदं तलाऽऽमलकवद्विवेदिथ ॥१२६।। अत एव ते बुध नुतस्य, चरित-गुराम तोदयम् । न्याय विहितमवधार्य जिने, त्वयि सुप्रसनमनसः स्थिता वयम् ॥१३०॥ इन्ही स्वामी समन्तभद्रको मुख्यतः लक्ष्य करके उक्त द्वात्रिशिकाके अगले दो पद्य' कहे गये जान पड़ते है. जिनमेसे एकमे उनके द्वारा अन्तिमें प्रतिपादित उन दो दो बातोंका उल्लेग्व है जो सर्वज्ञ-विनिश्चयकी सूचक है और दूसरमे उनके प्रथित यशकी मात्राका बड़े गौरवके साथ कीर्तन किया गया है। अतः इस द्वात्रिशिकाके कर्ता सिद्धसेन भी समन्तभद्रके उत्तरवर्ती है। समन्तभद्रके स्वयम्भूस्तात्रका शैलीगत, शब्दगत और अथगत कितना ही साम्य भी इममे पाया जाता है. जिसे अनुमरण कह मकत है और जिसके कारण इस द्वात्रिशिकाको पढ़ते हुए कितनी ही वार इसके पदविन्यामादिपरसे मा भान होता है मानो हम स्वयम्भूम्तात्र पढ़ रहे है। उदाहरणके नौरपर स्वयम्भूस्तोत्रका प्रारम्भ जैसे उपजातिछन्दमें स्वयम्भुवा भूत' शब्दोसे होता है वैसे ही इम द्वात्रिशिकाका प्रारम्भ भी उपजातिछन्दमे 'स्वयम्भुवं भूत' शब्दोसे होता है। स्वयम्भूस्तोत्रमे जिस प्रकार समन्त संहत, गत. उदित, समीक्ष्य, प्रवादिन, अनन्त, अनेकान्त-जैसे कुछ विशेष शब्दोंका, मुने. नाथ, जिन, वीर-जैसे सम्बोधन-पदोका और ५ जितक्षुल्लकवादिशामनः, २ स्वपक्षमौस्थित्यमदावलिप्ता, ३ नैतत्समालीढपदं त्वदन्यः. ४ शेरते प्रजाः, ५ अशेषमाहात्म्यमनारयन्नपि ६ नाऽसमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयः, ७ अचिन्त्यमाहितम, आहन्त्यमचिन्त्यमद्भुत. ८ सहस्राक्षः, स्वद्विपः, १. शशिरूचिशुचिशुक्ललोहितं वपुः. १५ स्थिता वयं-जैसे विशिष्ट पद-वाक्योका प्रयोग पाया जाता है उसी प्रकार पहली द्वात्रिशिकामे भी उक्त शब्दों तथा सम्बोधन पदाक साथ १ प्रपत्रितक्षुल्लकतकशासनैः, २ स्वपक्ष एव प्रतिबद्धमत्मराः. ३ परैग्नालीढपथस्त्वयादितः, ४ जगत् शेग्ने, ५ त्वदीयमाहात्म्यविशेषसंभली भारती. ६ ममीक्ष्यकारिणः, । अचिन्त्यमाहात्म्यं, ८ भूनमहस्रनेत्रं, हत्वत्प्रतिघातनान्मुग्वैः. १० वपुः स्वभावस्थमरक्तशोणितं, ११ स्थिता वयंजैसे विशिष्ट पद-वाक्योका प्रयोग देखा जाता है. जो यथाक्रम स्वयम्भूम्तांत्रगत उक्त पदोके प्रायः समकक्ष है। स्वयम्भूम्नात्रमे जिम तरह जिनस्तवनके माथ जिनशामन-जिनप्रवचन तथा अनकान्तका प्रशंसन एवं महत्व ख्यापन किया गया है और वारजिनेन्द्रक शासनमाहात्म्यको तव जिनशामनविभवः जयति कलावपि गुग्णानुशासनविभवः' जैसे शब्दोद्वाग कलिकालमे भी जयवन्त बतलाया गया है उसी तरह इम द्वात्रिंशिकामे भी जिनस्तुतिके साथ जिनशामनादिका संक्षेपमें कीर्तन किया गया है और वीरभगवानको 'मच्छासनवर्द्धमान' लिग्वा है। इम प्रथम द्वात्रिशिकाक कर्ता सिद्धर्मन ही यदि अगली चार द्वात्रिंशिकाओंक भी का है जैसा कि पं० सुखलालजीका अनुमान है, ना य पाँची ही द्वात्रिंशिका, जो वीरस्तुतिसे मम्बन्ध रखती हैं और जिन्हें मुख्यतया लक्ष्य करके ही आचार्य हेमचन्द्रने 'क सिद्धसेन १ "वपुः स्वभावस्थमरक्तशोणित पराऽनुकम्पा सफल च भाषितम् । न यस्य सर्वज्ञ विनिश्चयस्त्वयि द्वय करोत्येतटसो न मानुषः ॥१४॥ अलन्धनिधाः प्रसमिदचंतसस्तव प्रशिप्याः प्रथयन्ति यद्यशः । न तावदप्येकसमूहसंहनाः प्रकाशयेयुः परवादिपार्थिवाः ||१५|| Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतयो महार्थाः' जैसे वाक्यका उचारण किया जान पड़ता है, स्वामी समन्तभद्रके उत्तरकालीन रचनाएँ हैं। इन समीपर समन्तभद्रके प्रन्थोंकी छाया पड़ी हुई जान पड़ती है। इस तरह स्वामी समन्तभद्र न्यायावतारके कर्ता, सन्मतिके कर्ता और उक्त द्वात्रिंशिका अथवा द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता तीनो ही सिद्धसेनोंसे पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। उनका समय विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दी है, जैसा कि दिगम्बर पट्टावली में शकसंवत् ६० (वि० सं० १९५)के उल्लेखानुसार दिगम्बर समाजमें आमतौरपर माना जाता है। श्वेताम्बर पट्टावलियोंमें उन्हें 'सामन्तभद्र' नामसे उल्लेखित किया है और उनके समयका पट्टाचायरूपमें प्रारम्भ वीरनिर्वाणसंवत् ६४३ अर्थात् वि० सं० १७३से बतलाया है । साथ ही यह भी उल्लवित किया है कि उनके पट्टशिष्यने वीर नि० सं०६६५ (वि० सं० २२५)२ में एक प्रतिष्ठा कराई है. जिससे उनके समयकी उत्तरावधि विक्रमकी तीसरी शताब्दीके प्रथम चरण तक पहुँच जाती है। इससे समय-सम्बन्धी दोनो सम्प्रदायोंका कथन मिल जाता है और प्रायः एक ही ठहरता है। मी वस्तुस्थितिमें पं० सुग्यलालजीका अपने एक दूसरे लेख 'प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर मे, जो कि भारतीयविद्या'के उसी अङ्क (तृतीय भाग)में प्रकाशित हुआ है. इन तीनों ग्रन्थाक कर्ता तीन सिद्धसेनाका एक ही सिद्धसेन बतलाते हुए यह कहना कि 'यही सिद्धसेन दिवाकर " आदि जैनतार्किक "- जैन परम्परामें तकविद्याका और तर्कप्रधान सस्कृत वाङमयका आदि प्रणेता", "आदि जैनकवि". "आदि जैनम्तुतिकार". "आद्य जैनवादी" और · प्राय जैनदार्शनिक" है? क्या अर्थ रखता है और कैसे सङ्गन हो मकता है ? इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते है। सिद्धसेनके व्यक्तित्व और इन सब विपयोमे उनकी विद्यायोग्यता एवं प्रतिभाके प्रति बहुमान रखते हुए भी स्वामी समन्तभद्रकी पूर्वस्थिति और उनके अद्वितीय-अपूर्व माहित्यकी पहलेसे मौजूदगीमें मुझ इन सब उद्गारांका कुछ भी मृल्य मालूम नहीं होता और न प० सुग्वलालजीके इन कथनोमे कोई सार हा जान पड़ता है कि-(क) 'मिद्धसेनका सन्मति प्रकरण जैनदृष्टि और जैन मन्तव्यांका तकशैलीसे स्पष्ट करने तथा स्थापित करनेवाला जैनवाडमयमे सर्वप्रथम ग्रन्थ है तथा (ख) स्वामा समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र और युक्तयनुशासन नामक ये दो दार्शनिक स्तुतियाँ मिद्धमेनकी कृतियांका अनुकरण है। तर्कादि-विषयोमे समन्भद्रकी योग्यता और प्रतिभा किसीसे भी कम नहीं किन्तु सर्वोपरि रही है, इसीसे अकलदेव और विद्यानन्दादि-जैसे महान् तार्किका-दार्शनिको एवं वादविशारदों आदिने उनके यशका खुला गान किया है, भगवज़िनसेनने आदिपुराणमे उनके यशको कवियो, गमको, वादियो तथा वादियोंके मस्तकपर चूडामणिकी तरह सुशोभित बनलाया है (इसी यशका पहली द्वात्रिशिका तव शिष्याः प्रथयन्ति यद्यशः' जैसे शब्दोमे उल्लेख है) और साथ ही उन्हें कविब्रह्मा-कवियोको उत्पन्न करनेवाला विधाता-लिखा है नथा उनके वचनरूपी वनपातसे कुमतरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड हो गये, ऐसा उल्लेख भी किया है । और इमलिय १ देग्यो, हस्तलिखित सस्कृत प्रन्योंके अनुसन्धान-विषयक डा० भाण्डारकरकी सन् १८८३ ८४की रिपोर्ट पृ. ३२०; मिस्टर लेविस गइसकी 'इन्स्क्रिपशन्स ऐट श्रवणबेल्गोल'की प्रस्तावना और कर्णाटकशब्दानुशासनकी भूमिका । २ कुछ पट्टावलियोंमें यह समय वी० नि० सं० ५६५ अथवा विक्रमसंवत् १२५ दिया है जो किसी गलतीका परिणाम है और मुनि कल्याणविजयने अपने द्वारा सम्पादित 'तपागच्छ पट्टावली में उसके सुधारकी सूचना की है। ३ देखा, मुनिश्री कल्याण विजयजी द्वारा सम्पादित 'तपागच्छपट्टावली' पृ. ७६-८१ । ४ विशेषके लिये देखो, 'सत्साधुस्मरण-मगलपाठ' पृ. २५से ५१ । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मांत-सिखसेनाइ मासमन्तभन्द्रकी किसी माह। तब सिद्धसेनमय भी श्वेताम्बर माग उपलब्ध जैनवाङमयमें समयादिककी दृष्टिसे आद्य तार्किकादि होनेका यदि किसीको मान अथवा अय प्राप्त है तो वह स्वामी समन्तभद्रको ही प्राप्त है। उनके देवागम (आप्तमीमांसा), युक्तयनुशासन, स्वयम्भूस्तोत्र और स्तुतिविद्या (जिनशतक) जैसे अन्य भाज भी जैनसमाजमें अपनी जोड़का कोई ग्रन्थ नहीं रखते। इन्हीं प्रन्थोंको मुनि कल्याणविजयजीने भी उन निर्ग्रन्थचूड़ामणि श्रीसमन्तभद्रकी कृतियाँ बतलाया है जिनका समय भी श्वेताम्बर मान्यतानुसार विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दी है । तब सिद्धसेनको विक्रमकी ५वीं शताब्दीका मान लेनेपर भी समन्तभन्द्रकी किसी कृतिको सिद्धसेनकी कृतिका अनुकरण कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता। इस सब विवेचनपरसे स्पष्ट है कि पं० सुखलालजीने सन्मतिकार सिद्धसेनको विक्रमकी पांचवीं शताब्दीका विद्वान् सिद्ध करने के लिये जो प्रमाण उपस्थित किये है वे उस विषयको सिद्ध करनेके लिये बिल्कुल असमर्थ हैं। उनके दूसरे प्रमाणसे जिन सिद्धसेनका पूज्यपादसे पूर्ववर्तित्व एवं विक्रमकी पाँचवी शताब्दी में होना पाया जाता है वे कुछ द्वात्रिशिकाओके कर्ता है न कि सन्मतिसूत्रके, जिसका रचनाकाल नियुक्तिकार भद्र बाहुके समयसे पूर्वका सिद्ध नहीं होता और इन भद्रबाहुका समय प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् मुनि श्रीचतुरविजयी और मुनिश्री पुण्यविजयाने भी अनेक प्रमाणोक आधारपर विक्रमकी छठी शताब्दीक प्रायः तृतीय चरण तकका निश्चित किया है। पं० सुखलालीका उसे विक्रमकी दूसरी शताब्दी बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता । अतः सन्मतिकार मिद्धसेनका जो समय विक्रमकी छठी शताब्दी के तृतीय चरण और सातवी शताब्दीक तृतीय चरणका मध्यवर्ती काल निर्धारित किया गया है वहीं समुचित प्रतीत होता है. जब तक कि काई प्रबल प्रमाण उमक विराधर्म मामने न लाया जावे। जिन दृमर विद्वानाने इस समयसे पूवका अथवा उत्तरममयका कल्पना का है वह सब उक्त तीन सिद्धसनाका एक मानकर उनमसे किसी एकक ग्रन्थका मुख्य करक की गई है अर्थात् पूर्वका समय कतिपय द्वात्रिशिकााक उल्लखाका लक्ष्य करके और उत्तरका समय न्यायावतारको लक्ष्य करके कल्पित किया गया है। इस तरह तीन सिद्धसेनोको एकत्वमान्यना ही सन्मतिसूत्रकारके ठीक समयनिर्णयमे प्रबल बाधक रही है, इसाक कारण एक सिद्धसनक विषय अथवा तत्सम्बन्धी घटनाओको दूसरे सिद्धसेनांक साथ जोड़ दिया गया है, और यही वजह है कि प्रत्यक सिद्धमेनका परिचय थोड़ा-बहुत खिचड़ी बना हुआ है। (ग) सिद्धसेनका सम्प्रदाय और गुणकीर्तन अब विचारणीय यह है कि मन्मतिसूत्रके कर्ता मिद्धसेन किस सम्प्रदायके प्राचार्य थे अर्थात दिगम्बर सम्प्रदायस सम्बन्ध रखते है या श्वताम्बर सम्प्रदायसे और किस रूपमे उनका गुण-कीर्तन किया गया है। प्राचार्य उमास्वाति(मी) और स्वामी समन्तभद्रकी तरह सिद्धसनाचार्यकी भी मान्यता दोनो मम्प्रदायोंमें पाई जाती है। यह मान्यता केवल विद्वत्ताक नाते आदर-सत्कारक रूपम नहीं और न उनक किमी मन्तव्य अथवा उनके द्वारा प्रतिपादित किसी वस्तुतत्व या सिद्धान्त-विशेषका ग्रहण कग्नक कारण ही है बल्कि उन्हें अपने अपने सम्प्रदायक गुरुरूपमें माना गया है. गुर्वावलियों तथा पट्टावलियोंमें उनका उल्लेख किया गया है और उसा गुरुष्टिसे उनके स्मरण, अपनी गुणज्ञताको साथमे व्यक्त करते हुए, लिख गय है अथवा उन्हें अपनी श्रद्धाञ्जलियाँ अर्पित की गई है। दिगम्बर सम्प्रदायमे सिद्धसेनका सेनगण (संघ)का चाय माना जाता है और सेनगणका पट्टावली में उनका उल्लेख है। हरिवंश १ तपागच्छपड़ावली भाग पहला पृ०E.| २ जैनसिद्धान्तभास्कर किरण १०२८। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त पुराणको शकसम्बत् ७०५में बनाकर समाप्त करनेवाले श्रीजिनसेनाचार्यने पुराणके अन्तमें दी हुई अपनी गुर्वावलीमें सिद्धसेनके नामका भी उल्लेख किया है। और हरिवंशके प्रारम्भमें समन्तभद्रके स्मरणानन्तर सिद्धसेनका जो गौरवपूर्ण स्मरण किया है वह इस प्रकार है:जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः । बोधयन्ति सता बुद्धि सिद्धसेनस्य सूक्तयः॥३०॥ इसमें बतलाया है कि सिद्धसेनाचार्यकी निर्मल सूक्तियाँ (सुन्दर उक्तियाँ) जगत्प्रसिद्ध-बोध (केवलज्ञान)के धारक (भगवाम् ) वृषभदेवकी निर्दोष सूक्तियोंकी तरह सत्पुरुषोंकी बुद्धिको बोधित करती हैं-विकसित करती हैं।' यहाँ मूक्तियोंमें सन्मतिके साथ कुछ द्वात्रिशिकाओंकी उक्तियाँ भी शामिल समझी जा सकती है। उक्त जिनसेन-द्वारा प्रशमित भगवजिनसेनने श्रादिपुगणमें सिद्धसेनको अपनी हार्दिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते हुए उनका जो महत्वका कीर्तन एवं जयघोष किया है वह यहाँ खासतौरसे ध्यान देने योग्य है:"कवयः सिद्धसेनाद्या वयं तु कवयो मताः । मण्यः पनरागाद्या ननु काचोऽपि मेचकः । प्रवादि-करियूथाना केशरी नयकेशरः । सिद्धसेन कवियिाद्विकल्प-नखरांकुरः ॥" इन पद्योमेमे प्रथम पद्यमें भगवजिनसेन जो स्वयं एक बहुत बड़े कवि हुए हैं. लिम्वते हैं कि 'कवि तो (वास्तवमें) मिद्धसेनादिक हैं. हम नो कवि मान लिय गय है। (जैसे) मरिण तो वास्तवमें पद्मगगादिक है किन्तु काच भी (कभी कभी किन्हीके द्वाग) मेचकमणि समझ लिया जाता है। और दूसरे पद्यमे यह घोषणा करते है कि जो प्रवादिरूप हाथियों के ममूहके लिय विकल्परूप-नुकीले नम्बोमे युक्त और नयरूप केशरोको धारण किये हुए केशरीसिंह हैं वे मिद्धसन कवि जयवन्न हो-अपने प्रवचन-द्वारा मिथ्यावादियोके मतांका निरमन करते हुए सदा ही लोकहदयामें अपना मिक्का जमाए रग्वे-अपने वचन-प्रभावको अङ्कित किय रहें।' यहाँ सिद्धसेनका कविरूपमे स्मरण किया गया है और उसीमे उनके वादित्वगुणको भी समाविष्ट किया गया है। प्राचीन समयमें कवि माधारण कविता-शायरी करनेवालोको नहीं कहते थे बल्कि उम प्रतिभाशाली विद्वानको कहते थे जो नये-नय सन्दर्भ, नई-नई मौलिक रचनाएँ तय्यार करनेमे ममर्थ हो अथवा प्रतिभा ही जिसका उज्जीवन हो, जो नाना वर्णनाओंमें निपुण हो. कृती हो. नाना अभ्यामोंमें कुशाग्रबुद्धि हो और व्युत्पत्तिमान (लौकिक व्यवहारोमें कुशल) हो । दृमरे पद्यमे सिद्धसेनको केशरी-सिहको उपमा देते हुए उसके साथ जो 'नय-केशरः' और विकल्प-नवराकरः' जैसे विशेषण लगाये गये हैं उनके द्वारा खास तौरपर सन्मतिसूत्र लक्षित किया गया है. जिसमें नयोका ही मुख्यतः विवेचन है और अनेक विकल्पोद्वारा प्रवादियोंके मन्तव्यों-मान्यसिद्धान्तोका विदारण (निरसन) किया गया है। इमी मन्मतिसूत्रका जिनसेनने जयधवला'मे और उनके गुरु बीरसेनने धवलामें उल्लेख किया है और उमके माथ घटित किये जानेवाले विरोधका परिहार करते हुए उसे अपना एक मान्य प्रन्थ प्रकट किया है, जैसा कि इन सिद्धान्त प्रन्थोके उन वाक्योसे प्रकट है जो इस लेखके प्रारम्भिक फुटनाटमें उद्धृत किये जा चुके है। १ समिद्धसेनोऽभय भीमसेनको गुरू परो तो जिन-शान्ति-सेनको ।।६६-२६।। २ "कवितनसन्दर्भः" । "प्रतिभोजीवनो नाना-वर्णना निपुणः कविः । नानाऽभ्यास-कुशाग्रीयमतिभ्युत्पत्तिमान् कविः ॥" -अलङ्कारचिन्तामणि । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११] सन्मतिसिद्धसेना - नियमसारकी टीकामें पद्मप्रभ मलधारिदेवने सिद्धान्तोदनीष सिद्धसेने....."बन्दे वाक्पके द्वारा सिद्धसेनकी वन्दना करते हुए उन्हें सिद्धान्तकी जानकारी एवं प्रतिपादनकौशलरूप उचनीके स्वामी' सूचित किया है। प्रतापकीर्तिने प्राचार्यपूजाके प्रारम्भमें दी हुई गुर्वावलीमें "सिद्धान्तपाथोनिधिलब्धपारः श्रीसिद्धसेनोऽपि गणस्य सारः" इस वाक्पके द्वारा सिद्धसेनको 'सिद्धान्तमागरके पारगामी' और 'गणके मारभूत' बतलाया है । मुनिकनकामरने 'करकंडुचरिउ'मे, सिद्धसेनको समन्तभद्र तथा प्रकलङ्कदेवके ममकक्ष 'श्रुतजलके समुद्र" रूपमें उल्लेखित किया है। ये सब श्रद्धांजलि-मय दिगम्बर उल्लेख भी सन्मतिकार-सिद्धसेनसे सम्बन्ध रखते हैं, जो खास तौरपर सैद्धान्तिक थे और जिनके इस सैद्धान्तिकत्वका अच्छा आभास प्रन्थके अन्तिम काण्डकी उन गाथाओं (६१ आदि)से भी मिलता है जो श्रुतधर-शब्दसन्तुष्टों, भक्तमिद्धान्नज्ञो और शिष्यगणपरिवृत-बहुश्रुतमन्योकी आलोचनाको लिए हुए है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें चाय मिद्धमेन प्रायः 'दिवाकर' विशेषण अथवा उपपद (उपनाम)के माथ प्रमिद्धिको प्राप्त हैं। उनके लिये इस विशेषण-पदके प्रयोगका उल्लेख श्वेताम्बर साहित्यमे सबसे पहले हरिभद्रसूरिक 'पञ्चवस्तु' प्रन्थमे देखनेको मिलता है, जिसमें उन्हें दुःषमाकालरूप गत्रिके लिय दिवाकर (सूर्य)के ममान होनेसे दिवाकर की प्राग्न्याको प्राप्त हुए लिखा है । इसके बादसे ही यह विशेषण उधर प्रचारमें आया जान पड़ता है; क्योकि श्वेताम्बर चूर्णिया तथा मल्लवादीके नयचक्र-जैसे प्राचीन ग्रन्थोंमें जहाँ मिद्धसेनका नामाल्लेग्व है वहाँ उनके साथम दिवाकर' विशेपणका प्रयोग नहीं पाया जाता है। हरिभद्र के बाद विक्रमकी ११वी शताब्दीके विद्वान अभयदेवमूरिने सन्मति का प्रारम्भमें से उमी दुःपमाकालरात्रिक अन्धकारका दूर करनेवालेके अथमे अपनाया है। श्वेताम्बर सम्प्रदायकी पट्टावलियांमे विक्रमी छठी शताब्दी आदिकी जो प्राचीन पट्टावलिया है-जैस कल्पसूत्रस्थविरावली(थेरावली) नन्दीसूत्रपट्टावलो. दुःषमाकाल-श्रमणसंघस्तव-उनम तो सिद्धसनका कहीं काई नामोल्लख ही नहीं है । दुःषमाकालश्रमणसंघकी अवचूरिम, जो विक्रमकी हवी शताब्दीसे बादकी रचना है, सिढसनका नाम जमर है किन्तु उन्हे दिवाकर' न लिखकर 'प्रभावक' लिखा है और साथ ही धर्माचार्यका शिष्य सूचित किया है-वृद्धवादीका नहीं: "अत्रान्तरे धर्माचार्य-शिष्य-श्रीसिद्धसेन प्रभावकः ॥" दसरी विक्रमी १५वी शताब्दी आदिकी बनी हुई पट्टावलियोंमे भी कितनी ही पट्टावलियाँ पसा हैं जिनमे सिद्धसनका नाम नहीं है-जैसे कि गुरुपर्वक्रमवर्णन, तपागच्छपट्टावलासूत्र, महाबारपट्टपरम्परा, युगप्रधानमम्बन्ध (लाकप्रकाश) और मूरिपरम्परा। हाँ, तपागच्छपट्टावलासूत्रको वृत्तिम. जा विक्रमी १७वी शताब्दी (सं० १६४८)की रचना है, सिद्धसेनका 'दिवाकर' विशेषणके माथ उल्लेख जरूर पाया जाता है। यह उल्लेख मूल पट्टावलीकी १ ता मिसेण मुममतभद्द अकलकदेव सुअजलसमुद । क. २ २ श्रायरियमिद्धमेणेण मम्मइए पठिअजमेगा । दूसमाणमा-दिवागर कप्यन्तणो तदबावण ॥१०४८ ३ देखो, सन्मतिसूत्रको गुजराती प्रस्तावना पृ० ३६, ३७ पर निशीथचूर्णि (उद्देश ४) और दशार्गिके उल्लेख तथा पिछले समय-सम्बन्धी प्रकरणम उद्धृत नयचक्रके उल्लेख । ४ "इति मन्वान प्राचार्यों दुषमाऽरसमाश्यामासमयोद्भतसमस्तजनाहार्दसन्तमसविध्वंसकत्वेनावासयथार्थाभिधानः सिद्धसेनदिवाकरः तदुपायमतसम्मत्याख्यप्रकरणाकरण प्रवर्तमानः ..... स्तबामिधायिकां गाथामाह।" Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 वर्ष ५वीं गाथाकी व्याख्या करते हुए पट्टाचार्य इन्द्रदिन्नसूरिके अनन्तर और दिन्नसूरिके पूर्वकी न्याख्यामें स्थित है । इन्द्रदिन्नसूरिको सुस्थित और सुप्रतिबुद्धके पट्टपर दसवाँ पट्टाचार्य बतलानेके बाद “अत्रान्तरे" शब्दोंके साथ कालकसूरि आर्यरवपुट्टाचार्य और आर्यमंगुका नामोल्लेख समयनिर्देशके साथ किया गया है और फिर लिखा है: "वृद्धवादी पादलिप्तश्चात्र । तथा सिद्धसेनदिवाकरो येनोजयिन्या महाकाल-प्रासाद-रुद्रलिङ्गस्फोटनं विधाय कल्याणमन्दिरस्तवेन श्रीपार्श्वनाथबिम्बं प्रकटीकृतं, श्रीविक्रमादित्यश्व प्रतिबोधितस्तद्राज्यं तु श्रीवीरसप्ततिवर्षशतचतुष्टये ४७० संजातं ।" इसमें वृद्धवादी और पादलिप्तके बाद सिद्धसेनदिवाकरका नामोल्लेख करते हुए उन्हें उज्जयिनीमें महाकालमन्दिरके रुद्रलिङ्गका कल्याणमन्दिरस्तोत्रके द्वारा स्फोटन करके श्रीपार्श्वनाथकेबिम्बको प्रकट करनेवाला और विक्रमादित्यराजाको प्रतिबोधित करनेवाला लिखा है। साथ ही विक्रमादित्यका राज्य वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष बाद हुआ निर्दिष्ट किया है, और इस तरह सिद्धसेन दिवाकरको विक्रमकी प्रथम शताब्दीका विद्वान् बतलाया है, जो कि उल्लेग्वित विक्रमादित्यको गलतरूपमे समझनेका परिणाम है। विक्रमादित्य नामक अनेक राजा हुए हैं। यह विक्रमादित्य वह विक्रमादित्य नहीं है जो प्रचलित संवतका प्रवर्तक है, इस बातका पं० सुखलालजी आदिने भी स्वीकार किया है। अस्तु, तपागच्छ-पदावलीका यह वृत्ति जिन आधारोपर निर्मित हुई है उनमे प्रधान पद तपागच्छका मुनि सुन्दरसूरिकृत गुर्वावलाको दिया गया है, जिसका रचनाकाल विक्रम सवत् १४६६ है। परन्तु इस पट्टावलाम भी सिद्धसेनका नामोल्लेख नहीं है। उक्त वृत्तिसे कोई १०० वर्ष बादके (वि० सं० १७३६ के बादक) बने हुए पट्टावलीसारोद्धार' ग्रन्थमे सिद्धसेनदिवाकरका उल्लेख प्रायः उन्ही शब्दोमे दिया है जा उक्त वृत्तिमे 'तथा' से 'संजातं' तक पाय जात है । और यह उल्लेख- इन्द्रदिन्नसूरिक बाद · अत्रान्तरे" शब्दोके साथ मात्र कालकमूरिके उल्लेखानन्तर किया गया है-आयखपुट, आर्यमंगु, वृद्धवादी और पादलिप्त नामके आचार्योका कालकसूरिक अनन्तर और सिद्धसेनक पूर्वमें कोई उल्लेख ही नहीं किया है। वि० सं० १७८६ से भी बादकी बनी हुई 'श्रीगुरुपट्टावली' मे भी सिद्धसेनदिवाकरका नाम उज्जयिनीकी लिङ्गस्फोटन-सम्बन्धी घटनाक साथ उल्लेखित है । इस तरह श्वे. पट्टावलियों-गुर्वावलियोमें सिद्धसेनका दिवाकररूपमे उल्लेख विक्रमकी १५वीं शताब्दीके उत्तरार्धसे पाया जाता है, कतिपय प्रबन्धोमें उनके इस विशेषणका प्रयोग सौ-दो मौ वर्ष और पहलेसे हुआ जान पड़ता। रही स्मरणाकी बात. उनकी भी प्रायः ऐसा ही हालत है-कुछ स्मरण दिवाकर-विशेषणका साथमे लिय हुए है और कुछ नही है। श्वेताम्बर साहित्यसे सिद्धसेनके श्रद्धाञ्जलिरूप जो भी स्मरण अभी तक प्रकाशमें आये हैं वे प्रायः इस प्रकार है: १ देखो, मुनि दर्शनविजय-द्वारा सम्पादित 'पट्टावलीसमुचय' प्रथम भाग । २ "तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरोपि जातो येनोजयिन्यां महाकालप्रासादे रुद्रलिगस्फोटनं कृत्वा कल्याणमन्दिर स्तवनेन श्रीपार्श्वनाथबिम्ब प्रकटीकृत्य भीविक्रमादित्यराजापि प्रतिबोधितः भीवीरनिर्वाणात् सप्ततिवर्षाधिक शतचतुष्टये ४७०ऽतिक्रमे भीविक्रमादित्यराज्य सजातं ॥१०॥ पट्टावलीसमुख्य पृ० १५० ३ "तथा श्रीसिद्धसेन दिवाकरेणोजयिनीनगर्यो महाकाल प्रासादे लिंगस्फोटनं विधाय स्तुत्या ११ काव्ये श्रीपार्श्वनाथविम्ब प्रकटीकृतं, कल्याणमन्दिरस्तोत्रं कृतं ।"-पा. स. पू. १६६। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मात-सनसनाह [ ४६ - (क) उदितोहन्मत-व्योम्नि सिरसेनदिवाकरः । चित्रं गोभिः क्षितौ जई कविराज-बुध-प्रभा ।। यह विक्रमकी १३वीं शताब्दी (वि० सं० १२५२) के प्रन्थ अममचरित्रका पद्य है। इसमें रमसूरि अलवार-भाषाको अपनाते हुए कहते है कि महन्मतरूपी भाकाशमें सिद्धसेनदिवाकरका उदय हुआ है. आश्चर्य है कि उसकी वचनरूप-किरणोंसे पृथ्वीपर कविराजकीवृहस्पतिरूप 'शेष' कविकी-और बुधकी-बुधप्रहरूप विद्वर्गकी-प्रभा लजित होगईफीकी पड़ गई है। (ख) तमः स्तोमं स हन्तु श्रीसिद्धसेनदिवाकरः । यस्योदये स्थितं मूकैरुलकैरिव वादिभिः॥ यह विक्रमकी १४वीं शताब्दी (सं० १३२४) के प्रन्थ समरादित्यका वाक्य है, जिसमें प्रद्युम्नसूरिने लिखा है कि वे श्रीसिद्धसेन दिवाकर (भज्ञान) अन्धकारके समूहको नाश करें जिनके उदय होनेपर वादीजन उल्लुओकी तरह मूक होरहे थे-उन्हें कुछ बोल नही आता था ।' (ग) श्रीसिद्धसेन हरिभद्रमुरवाः प्रसिद्धास्ते सूरयो मयि भवन्तुतिप्रसादाः । येषां विमृश्य सततं विविधानिवन्धान शास्त्रं चिकीर्षति तनुप्रतिभोऽपि माइक् ॥ यह 'स्थाद्वादरत्नाकर' का पद्य है। इममे १२वी-१३वी शताब्दीक विद्वान वादिदेवसूरि लिखते है कि 'श्रीसिद्धसेन और हरिभद्र जैसे प्रसिद्ध प्राचार्य मेरे ऊपर प्रसन्न होवे, जिनके विविध निबन्धांपर बार-बार विचार करके मर जैसा अल्प-प्रतिभाका धारक भी प्रस्तुत शाके रचनेमे प्रवृन होता है।' (घ) क सिद्धसेन-स्तुतयो महार्था अशिक्षितालापकला क चैषा । तथापि यूथाधिपतेः पथस्थः खलद्गतिस्तस्य शिशर्न शोच्यः ॥ यह विक्रमका १२वी-१३वी शताब्दीक विद्वान आचार्य हमचन्द्रकी एक द्वात्रिंशिका स्तुतिका पद्य है। इसमें हमचन्द्रसूर सिरूसनक प्रति अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पण करते हुए लिखत है कि 'कहाँ ता सिद्धसनकी महान् अथवाला गम्भीर स्तुतियाँ पार कहाँ अशिक्षित मनुष्यांके आलाप-जैसी मरी यह रचना ? फिर भी यूथके अधिपनि गजराजके पथपर चलता हुआ उसका बच्चा (जिस प्रकार) सलितगति होता हुआ भी शांचनीय नही होता-उसी प्रकार मै भी अपने यूथाधिपति आचार्य के पथका अनुमरण करता हुआ स्खलितगति हानेपर शोचनीय नहीं हूँ।' यहाँ स्तुतयः' 'यूथाधिपतेः' और 'तस्य शिशुः' ये पद खास सौरसे ध्यान देने योग्य हैं। 'स्तुनयः' पदके द्वारा सिद्धसेनीय प्रन्याकम्पमें उन द्वात्रिशिकाओंकी सूचना कांगई है जो स्तुत्यात्मक हैं और शेष पदोंक द्वारा सिद्धसेनको अपने सम्प्रदायका प्रमुख आचार्य और अपनेका उनका परम्परा शिष्य घोषित किया गया है। इस तरह श्वेताम्बर सम्प्रदायके आचार्यरूपम यहाँ वे सिद्धसेन विवक्षित हैं जो कतिपय स्तुतिरूप द्वात्रिशिकाओके कर्ता है. न कि व सिद्धसेन जो कि स्तुत्यतर द्वात्रिशिकाओक अथवा खासकर सन्मतिसूत्रके रचयिता है। श्वेताम्बरीय प्रबन्धामे भा, जिनका कितना हो परिचय ऊपर आचुका है, उन्हीं सिद्धसनका उल्लेख मिलता है जो प्रायः द्वात्रिंशिकाग्री अथवा द्वात्रिशद्वात्रिशिका-स्तुतियोके कर्तारूपमे विवक्षित हैं। सन्मतिसूत्रका उन प्रबन्धोमें कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है। ऐसी स्थितिमें सन्मतिकार सिद्धसेनके लिय जिस दिवाकर' विशेषणका हरिभद्रमूरिने स्पष्टरुपसे उल्लेख किया है वह बारका नाम-माम्यानिक कारण द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता मिटमेन न्यायाला Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YLERS कर्ता सिद्धसेनके साथ भी जुड़ गया मालूम होता है और संभवतः इस विशेषणके जुड़ जानेके कारण ही तीनों सिद्धसेन एक ही समझ लिये गये जान पड़ते हैं। अन्यथा. पं० सुखलालजी आदिके शब्दों (प्र० पृ० १०३) में जिन द्वात्रिंशिकाओंका स्थान सिद्धसेनके प्रन्थोंमें चढ़ता हुआ है। उन्हींके द्वारा सिद्धसेनको प्रतिष्ठितयश बतलाना चाहिये था, परन्तु हरिभद्रमूरिने वैसा न करके सन्मतिके द्वारा सिद्धसेनका प्रतिष्ठितयश होना प्रतिपादित किया है और इससे यह साफ ध्वनि निकलती है कि सन्मतिके द्वारा प्रतिष्ठितयश होने वाले सिद्धसेन उन सिद्धसेनसे प्रायः भिन्न हैं जो द्वात्रिंशिकाओंको रचकर यशस्वी हुए हैं। हरिभद्रसूरिके कथनानुसार जब सन्मतिके कर्ता सिद्धसेन दिवाकर'की आख्याको प्राप्त थे तब वे प्राचीनसाहित्यमें सिद्धसेन नामके विना 'दिवाकर' नामसे भी उल्लेखित होने चाहिये, उसी प्रकार जिस प्रकार कि समन्तभद्र 'स्वामी' नामसे उल्लेखित मिलते हैं। । खोज करनेपर श्वेताम्बरसाहित्यमें इसका एक उदाहरण 'अजरक्वनंदिसेणो' नामकी उम गाथामे मिलता है जिसे मुनि पुण्यविजयजीने अपने छेदसूत्रकार और नियुक्तिकार' नामक लेखमें 'पावयणी धम्मकहीं' नामकी गाथाके माथ उद्धृन किया है और जिसमें आठ प्रभावक प्राचार्योंकी नामावली देते हुए दिवायरो' पदके द्वारा सिद्धमेनदिवाकरका नाम भी मूचित किया गया है। ये दोनों गाथाएँ पिछले समयादिसम्बन्धी प्रकरणके एक फुटनोटमें उक्त लेग्वकी चर्चा करते हुए उद्धृत की जा चुकी हैं। दिगम्बर माहित्यमे 'दिवाकर'का यतिरूपसे एक उल्लेख रविषेणाचार्यके पनचरितकी प्रशस्तिके निम्न वाक्यमें पाया जाता है. जिसमे उन्हें इन्द्र-गुरुका शिष्य, अर्हन्मुनिका गुरु और रविपेणके गुरु लक्ष्मगासेनका दादागुरू प्रकट किया है: आसीदिन्द्रगुरोर्दिवाकर-यतिः शिष्योऽस्य चाहन्मुनिः ।। तस्माल्लक्ष्मणसेन सन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम् ॥१०३-१६७॥ इस पद्यमें उल्लेखित दिवाकरयतिका सिद्धसेनदिवाकर हाना दो कारणोंसे अधिक सम्भव जान पड़ता है-एक तो समयकी दृष्टिसे और दूसरे गुम-नामकी दृष्टिसे। पद्मचरित वीरनिर्वाणसे १२०३ वर्ष ६ महीने बीतनेपर अर्थात् विक्रमसंवत् ७३४में बनकर समाप्त हुआ है. इससे रविषेणके पड़दादा (गुरुके दादा) गुरुका समय लगभग एक शताब्दी पूर्वका अर्थात् विक्रमकी ७वी शताब्दीके द्वितीय चरण (६२६-६५०)के भीतर आता है जो सन्मतिकार -सिद्धसेनके लिये ऊपर निश्चित किया गया है। दिवाकरके गुरुका नाम यहाँ इन्द्र दिया है, जो इन्द्रसेन या इन्द्रदत्त आदि किमी नामका संक्षिप्तरूप अथवा एक देश मालूम होता है। श्वेताम्बर पट्रावलियोंमें जहाँ सिद्धसेनदिवाकरका नामोल्लेख किया है वहाँ इन्द्रदिन्न नामक पट्टाचार्यके बाद 'अत्रान्तरे जैसे शब्दोके साथ उस नामकी वृद्धि की गई है। हो सकता है कि सिद्धसेनदिवाकरके गुरुका नाम इन्द्र-जैसा होने और सिद्धसेनका सम्बन्ध प्राय विक्रमादित्य अथवा संवत्प्रवर्तक विक्रमादित्यके साथ समझ लेनेकी भूलके कारण ही सिद्धसेनदिवाकरका इन्द्रदिन्न आचार्यकी पट्टवाक्ष-शिष्यपरम्परामे स्थान दिया गया हो। यदि यह कल्पना ठीक है और उक्त पगमें 'दिवाकरयतिः' पद सिद्धसेनाचार्यका वाचक है तो कहना होगा कि सिद्धसेनदिवाकर रविषेणाचार्यके पड़दादागुरु होनेसे दिगम्बर सम्प्रदायके प्राचाय थे। अन्यथा यह कहना अनुचित न होगा कि सिद्धसेन अपने जीवनमें दिवाकर'की पाख्याको प्राप्त नहीं थे, उन्हें यह नाम अथवा विशेषया बादको हरिभद्रसूरि अथवा उनके निकटवर्ती किसी पूर्बाचार्यने १देखो, माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालामें प्रकाशित रतकरयडभावकाचारकी प्रस्तावना पृ०८। २ दिशताभ्यधिके समासहसे समतीतेऽद्ध चतुष्कवर्षयुक्ते । जिनभास्कर- बमान-सिद्ध चरितं पनमुनेरिदं निषदम् ॥१२३-१८१ ॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... सन्माल-सब्सना [ ११ मलद्वारकी भाषामें दिया है और इसीसे सिद्धसेनके लिये उसका स्वतन्त्र उल्लेख प्राचीनसाहित्यमें प्रायः देखनेको नहीं मिलता। श्वेताम्बरसाहित्यका जो एक उदाहरण ऊपर दिया गया है वह रबशेखरसूरिकृत गुरुगुणषट् त्रिशनपत्रिंशिकाकी स्वोपावृत्तिका एकवाक्य होनेके कारण ५०० वर्षसे अधिक पुराना मालूम नहीं होता और इसलिये वह सिखसेनकी दिवाकररूपमें बहुत बादकी प्रसिद्धिसे सम्बन्ध रखता है। आजकल तो सिद्धसेनके लिये 'दिवाकर' नामके प्रयोगकी बाढ़-सी रही है परन्तु अतिप्राचीन कालमे वैसा कुछ भी मालूम नही होता। यहॉपर एक बात और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि उक्त श्वेताम्बर प्रबन्धों तथा पट्टावलियोंमें सिद्धसेनके साथ उज्जयिनीके महाकालमन्दिरमें लिङ्गस्फोटनादि-सम्बन्धिनी जिस घटनाका उल्लेख मिलता है उसका वह उल्लेख दिगम्बर सम्प्रदायमें भी पाया जाता है, जैसा कि सेनगणकी पट्रावलीके निम्न बाक्पसे प्रकट है: “(स्वस्ति) श्रीमदुज्जयिनीमहाकाल संस्थापन-महाकाललिङ्गमहीधर-वाग्वजदण्डविष्ट्याविष्कृत श्रीपार्वतीर्थेश्वर प्रतिद्वन्द-श्रीसिद्धसेनभट्टारकाएपम् ॥१४॥" ऐसी स्थितिम द्वात्रिशिकाांके कर्ता सिद्धसेनके विषयमे भी सहज अथवा निश्चितरूपसे यह नहीं कहा जा मकना कि वे एकान्ततः श्वेताम्बर सम्प्रदायके थे सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसनकी तो बात ही जुदा है। परन्तु सन्मतिकी प्रस्तावनामे पं. सुग्यलालजी और पण्डिन बेचग्दाम ने उन्हें एकान्ततः श्वेताम्बर सम्प्रदायका श्राचाय प्रतिपादित किया है-लिखा है कि वे श्वेताम्बर थे, दिगम्बर नहीं' (पृ० १८४)। परन्तु इस बातको सिद्ध करनेवाला कोई समथं कारण नहीं बतलाया. कारणरुपमे केवल इतना ही निर्देश किया है कि 'महावीरके गृहस्थाश्रम तथा चमरन्द्रक शरणागमनकी बात मिद्धमेनने वर्णन की है जो दिगम्बरपरम्परामे मान्य नहीं किन्तु श्वेताम्बर अागमाके द्वारा निर्विवादरूपसे मान्य है और इसके लिये फुट. नोटमे ५वी द्वात्रिशिकाके छठे और दृमर्ग द्वात्रिंशिकाक तीसरे पद्यको देखनेकी प्रेरणा की है, जो निम्न प्रकार है: "अनेकजन्मान्तरभग्नमानः स्मरी यशोदाप्रिय यत्पुरस्ते । चचार निहींकशरस्तमर्थ त्वमेव विद्यासु नयज्ञ कोऽन्यः ॥५.६॥" "कृत्वा नवं सुरवधूभयरोमहर्ष देत्याधिपः शतमुख-भ्रकुर्टीवितानः । त्वत्पादशान्तिगृहसंश्रयलन्धचेता लज्जातनुध ति हरेः कुलिशं चकार ॥२-३॥" इनमेंसे प्रथम पद्यमें लिखा है कि 'हं यशोदाप्रिय ! दुसरे अनेक जन्मोंमें भममान हुश्रा कामदेव निर्लज्जतारूपी बाणको लिय हुए जो आपके सामने कुछ चला है उसके अर्थको श्राप ही नयके ज्ञाता जानत है, दृमरा और कौन जान सकता है अर्थात यशोदाके साथ आपके वैवाहिक सम्बन्ध अथवा रहस्यका सममनेक लिय हम असमर्थ है। दूसरे पद्यमें देवाऽसुर-संग्रामके रूपमें एक घटनाका उल्लेख है, 'जिममें दैत्याधिप असुरेन्द्रने सुरवधुओंको भयभीतकर उनके रोंगटे खड़े कर दिय। इससे इन्द्रका भ्रकुटी तन गई और उसने उसपर वन छोड़ा, असुरेन्द्रने भागकर वीरभगवानके चरणोंका आश्रय लिया जो कि शान्तिके धाम है और उनके प्रभावसे वह इन्द्रके बनको लज्जासे क्षीणद्युति करनेमें समर्थ हुआ। अलंकृत भाषामें लिखी गई इन दोनों पौराणिक घटनाओंका श्वेताम्बर मिद्धान्तोंके साथ काई खास सम्बन्ध नहीं है और इमलिय इनके इस रूपमें उल्लेम्न मात्रपरस यह नहीं कहा जा सकता कि इन पद्योके लेखक मिसेन वास्तवमें यशोदाके माथ भ. महावीरका विवाह होना और असुरेन्द्र (चमरेन्द्र) का सेना मजाकर तथा अपना भयंकर रूप बनाकर युद्धक लिय स्वर्गमें जाना आदि मानने थे, और इमलिय श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्राचार्य थ; Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ । क्योंकि प्रथम तो श्वेताम्बरोंके आवश्यकनिर्यक्ति आदि कल प्राचीन आगमों में भी दिगम्बर आगमोंकी तरह भगवान् महावीरको कुमारभ्रमणके रूपमें अविवाहित प्रतिपादित किया है। और असुरकुमार-जातिविशिष्ट-भवनवासी देवोंके अधिपति चमरेन्द्रका युद्धकी भावनाको लिये हुए सैन्य सजाकर स्वर्गमें जाना सैद्धान्तिक मान्यताओंके विरुद्ध जान पड़ता है। दूसरे, यह कथन परवक्तब्यके रूपमें भी हो सकता है और आगमसूत्रोमें कितना ही कथन परवक्तव्यके रूपमे पाया जाता है इसकी स्पष्ट सूचना सिद्धसेनाचार्यने सन्मतिसूत्र में की है और लिखा है कि झाता पुरुषका (युक्ति-प्रमाण-द्वारा) अर्थकी सङ्गतिके अनुसार ही उनको व्याख्या करनी चाहिए। यदि किसी तरहपर यह मान लिया जाय कि उक्त दोनों पद्योमें जिन घटनाओंका उल्लेख है वे परवक्तव्य या अलङ्कारादिके रूपमें न होकर शुद्ध श्वेताम्बरीय मान्यताएँ हैं तो इससे केवल इतना ही फलित हो सकता है कि इन दोनों द्वात्रिंशिकाओं (२,५)के कर्ता जो सिद्धसेन है वे श्वेताम्बर थे। इससे अधिक यह फलित नही हो सकता कि दूसरी द्वात्रिशिकाओं तथा सन्मतिसूत्रके का सिद्धसेन भी श्वेताम्बर थे, जबतक कि प्रबल युक्तियोके बलपर इन सब ग्रन्थोंका का एक ही सिद्धसेनको सिद्ध न कर दिया जाय, परन्तु वह सिद्ध नहीं है जैसा कि पिछले एक प्रकरणमें व्यक्त किया जा चुका है। और फिर इस फलित होनेमें भी एक बाधा और आती है और वह यह कि इन द्वात्रिंशिकाओमे काई कोई बात ऐसी भी पाई जाती है जो इनके शुद्ध श्वेताम्बर कृतियाँ हानेपर नहीं बनती, जिसका एक उदाहरण तो इन दानोंमें उपयोगद्वयके युगपत्वादका प्रतिपादन है, जिसे पहले प्रदर्शित किया जा चुका है और जो दिगम्बर परम्पराका सर्वोपरि मान्य सिद्धान्त है तथा श्वेताम्बर आगमोंकी क्रमवाद-मान्यताके विरुद्ध जाता है। दूसरा उदाहरण पॉची द्वात्रिशिकाका निम्न वाक्य है: "नाथ त्वया देशितसत्पथस्थाः स्त्रीचेतसाऽप्याश जयन्ति मोहम् । . नेवाऽन्यथा शीघ्रगतिर्यथा गां प्राची यियामुर्विपरीतयायी ॥२५॥" इसके पूर्वार्धमें बतलाया है कि हं नाथ ।-रिजिन! श्रापक बतलाय हुए सन्मार्गपर स्थित वे पुरुष भी शीघ्र माहको जीत लेत है--महिनायकमक सम्बन्धका अपने आत्मासे पूर्णतः विच्छेद कर देत है-जा वाचतसः' हात है-स्त्रिया-जैसा चित्त (भाव) रखत है अर्थात् भावली होत हैं। और इससे यह साफ ध्वनित है कि स्त्रियाँ माहको पूर्णतः जातनेमे समर्थ नही होती, ती स्त्रीचित्तके लिय मोहको जातनका बात गौरवका प्राप्त होती है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमे जब त्रियाँ भी पुरुषोंकी तरह मोहपर पूर्ण विजय प्राप्त करके उसी भवसे मुक्तिको प्राप्त कर सकता है तब एक श्वेताम्बर विद्वानके इस कथनमें कोई महत्व मालूम नहीं होता कि 'खियो-जैसा चित्त रखनेवाले पुरुष भी शीघ्र माहको जीत लेत है, वह निरथक जान पड़ता है। इस कथनका महत्व दिगम्बर विद्वानांके मुखसे उच्चरित होनेमे हा है जो खाका मुक्तिकी अधिकारिणी नहीं मानते फिर भी स्त्रीचित्तवाले भावत्री पुरुषांके लिये मुक्तिका विधान करते है। अतः इस वाक्यके प्रणेता सिद्धसेन दिगम्बर हाने चाहिये, न कि श्वेताम्बर, और यह समझना चाहिय कि उन्होने इसो द्वात्रिंशिकाके छठे पद्यमे यशोदाप्रिय' पदके साथ जिस घटनाका उलेख किया है वह अलकारकी प्रधानताको लिये हुए परवक्तव्यके रूपम उसी प्रकारका कथन है १ देखो, श्रावश्यकनियुतिगाथा २२१, २२२, २२६ तथा अनेकान्त वर्ष ४ कि. ११-१२ पृ० ५७९ पर प्रकाशित 'श्वेताम्बरोंमें भी भगवान् महावीरके अविवाहित होनेकी मान्यता' नामक लेख। २ परवत्तम्बयपस्खा अविसिवा तेसु तेसु मुत्तम्। मत्थगईन उतेसि वियजय बारामो कुयार ॥२-१८॥ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११] सन्मति-सिरसेना [४६३ - जिस प्रकार कि ईश्वरको कर्ता-हर्ता न माननेवाला एक जैनकवि ईश्वरको उलहना अथवा उसकी रचनामें दोष देता हुश्रा लिखता है "हे विधि ! मल भई तुमतें, समझे न कहाँ कस्तरि बनाई । दीन कुरङ्गनके तनमें, तृन दन्त धरै करना नहि भाई। क्यों न रची तिन जीभनि जे रस-काव्य करै परको दुखदाई । साधु-अनुग्रह दुर्जन-दण्ड, दुहूँ सधते विसरी चतुराई !" इस तरह सन्मतिके कर्ता सिद्धसेनको श्वेताम्बर सिद्ध करनेके लिये जो द्वात्रिशिकाओके उक्त दो पद्य उपस्थित किये गये है उनसे सन्मतिकार सिद्धसेनका श्वेताम्बर सिद्ध होना तो दूर रहा, उन द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता सिद्धसेनका भी श्वेताम्बर होना प्रमाणित नही होता जिनके उक्त दोनो पद्य अङ्गरूप हैं । श्वेताम्बरत्वकी सिद्धिके लिये दूसरा और कोई प्रमारण उपस्थित नहीं किया गया और इससे यह भी साफ मालूम होता है कि स्वयं सन्मतिसूत्रमें ऐसी कोई बात नहीं है जिससे उसे दिगम्बरकृति न कहकर श्वेताम्बरकृति कहा जा सके, अन्यथा उसे जरूर उपस्थिन किया जाता । सन्मतिमे ज्ञान-दर्शनोपयांगके अभेदवादकी जो खास बात है वह दिगम्बर मान्यताके अधिक निकट है. दिगम्बरांके युगपवादपरसे ही फलित होती है-न कि श्वेताम्बरोके क्रमवादपरसे, जिसके खण्डनमे युगपद्वादका दलालोको सन्मतिमे अपनाया गया है। और श्रद्धात्मक दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानके अभेदवादकी जो बात सन्मति द्वितीयकाण्डकी गाथा ३२-३३मे कही गई है नमके बीज श्रीकुन्दकुन्दाचार्य के समयसार ग्रन्थमे पाये जाते है। इन बीजोकी बातको पं० सुखलालजी आदिने भी सन्मतिकी प्रस्तावना (पृ. ६.)मे स्वीकार किया है-लिखा है कि "सन्मतिना (कांक- गाथा ३०) श्रद्धा-दर्शन अने ज्ञानना एक्यवादनु बीज कुदकुंदना समयसार गा० १-१३ मां' स्पष्ट छे।" इसके मिवाय, ममयमारकी 'जो परमादि अपारणं' नामकी १४वी गाथामें शुद्धनयका स्वरूप बनलाते हुए जब यह कहा गया है कि वह नय आत्माको विशेषरूपसे देखता है तब उसमें ज्ञान-दर्शनोपयोगी भेद-कल्पना भी नहीं बनती और इम दृष्टि से उपयोग-द्वयकी अभेदवादनाक बीज भी ममयसारमै मन्निहित है "सा कहना चाहिये। हाँ, एक बात यहाँ और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि पं० सुखलालजीने 'मिद्धमेनदिवाकरना ममयनो प्रश्न' नामक लेग्यमे देवनन्दी पूज्यपादको "दिगम्बर परम्पराका पक्षपाती सुविद्वान्" बतलाते हुए सन्मतिकं कर्ता सिद्धमेनदिवाकरको "श्वेताम्बरपरम्पराका समर्थक आचार्य" लिखा है. परन्तु यह नहीं बतलाया कि वे किम रुपमें श्वेताम्बरपरम्पराके समर्थक है। दिगम्थर और श्वेताम्बरमे भेदकी रेखा खींचनेवाली मुख्यतः तीन बातें प्रमिद्ध हैं- स्त्रीमुक्ति, २ केवलिभुक्ति (कवलाहार) और ३ मवनमुक्ति, जिन्हें श्वेताम्बर सम्प्रदाय मान्य करता और दिगम्बर सम्प्रदाय अमान्य ठहगता है। इन तीनोमस एकका भी प्रतिपादन सिद्धसेनने अपने किसी ग्रन्थमें नहीं किया है और न इनके अलावा अलंकृत अथवा शृङ्गारित जिनप्रतिमाओके पूजनादिका ही कोई विधान किया है, जिसके मण्डनादिककी भी मन्मतिक टीकाकार अभयदेवसूरिको जरूरत पड़ी है और उन्होंने मूलमे वैमा काई खास प्रसन्न होते १ यहाँ जिस गाथाकी सूचना की गई है वह 'दसणणाणचरित्ताणि' नामकी १६वीं गाया है। इसके अतिरिक्त 'वबहारेणुबदिस्सद णागिस्स चरित्त दसणं गाणं' (७), 'मम्मद सणणाण एसो लहदि त्ति वरि ववदेस' (१४४), और 'णाणं सम्मादिट्ट दु संनम मुत्तमंगपुष्वगयं' (४०४) नामकी गाथाओंमें भी अमेदवादके बीज संनिहित हैं। २ मारतीयविद्या, तृतीय भाग पृ० १५४ । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ । हुए भी उसे यों सी टीकामें लाकर घुसेड़ा है। ऐसी स्थितिमें सिद्धसेनदिवाकरको दिगम्बरपरम्परासे भिन्न एकमात्र श्वेताम्बरपरम्पराका समर्थक आचार्य कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता । सिद्धसेनने तो श्वेताम्बरपरम्पराकी किसी विशिष्ट बातका कोई समर्थन न करके उल्टा उसके उपयोग-द्वय-विषयक क्रमवादकी मान्यताका सन्मतिमें जोरोंके साथ खएडन किया है और इसके लिये उन्हें अनेक साम्प्रदायिक कट्टरताके शिकार श्वेताम्बर प्राचार्योंका कोपभाजन एवं तिरस्कारका पात्र नक बनना पड़ा है। मुनि जिनविजयजीने 'सिद्धसेनदिवाकर और स्वामी समन्तभद्र' नामक लेखमें उनके इस विचारभेदका उल्लेख "सिद्धसेनजीके इस विचारभेदके कारण उस समयके सिद्धान्त-प्रन्थ-पाठी और आगमप्रवण आचार्यगण उनको 'तम्मन्य' जैसे तिरस्कार-व्यञ्जक विशेषणोंसे अलंकृत कर उनके प्रति अपना सामान्य अनादर-भाव प्रकट किया करते थे।" "इस (विशेषावश्यक) भाष्यमे क्षमाश्रमण (जिनभद्र)जीने दिवाकरजीके उक्त विचारभेदका खूब ही खण्डन किया है और उनको 'पागम-विरुद्ध-भापी' बतलाकर उनके सिद्धान्तको अमान्य बतलाया है।' "सिद्धसेनगणीने 'एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्व्यः' (१-३१) इम सूत्रकी व्याख्यामें दिवाकरजीके विचारभेदके ऊपर अपने ठीक वाग्बाण चलाय है। गणीजीके कुछ वाक्य देखिये- 'यद्यपि केचित्पण्डितंमन्याः सूत्रान्यथाकारमर्थमाचक्षते तर्कबलानुबिद्धबुद्धयो वारंवारेणोपयोगो नास्ति, तत्त न प्रमाणयामः, यत आम्नाय भूयांसि सूत्राणि वारंवारेणोपयोग प्रतिपादयन्नि ।" दिगम्बर साहित्यमे ऐसा एक भी उल्लेख नहीं जिसमे सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेनके प्रति अनादर अथवा तिरस्कारका भाव व्यक्त किया गया हो-सर्वत्र उन्हे बड़े ही गौरवक साथ स्मरण किया गया है, जैसा कि ऊपर उद्धृत हरिवंशपुराणादिके कुछ वाक्यासे प्रकट है। प्रकलङ्कदेवने उनके अभेदवादके प्रति अपना मतभेद व्यक्त करते हुए किसी भी कटु शब्दका प्रयोग नहीं किया, बल्कि बड़े ही श्रादरके साथ लिखा है कि "यथा हि असदुद्भूतमनुपदिष्ट च जानाति तथा पश्यति किमत्र भवता हीयते"-अर्थात केवली (मर्वज्ञ) जिस प्रकार अमद्भूत और अनुपदिएको जानता है उसी प्रकार उनको देवता भी है इसके माननेमें आपकी क्या हानि होती है ?-वास्तविक बात तो प्रायः ज्याकी यो एक ही रहती है। अकलङ्कदेवके प्रधान टीकाकार आचार्य श्रीअनन्तवीर्यजीने सिद्धिविनिश्चयकी टीकामे अमिद्धः सिद्धसेनस्य विरुद्धा देवनन्दिनः । द्वेधा समन्तभद्रस्य हेतुरकान्तमाधने।' इस कारिकाकी व्याख्या करते हुए सिद्धसेनको महान् आदर-सूचक 'भगवान्' शब्दके माथ उलेखित किया है और जब उनके किमी स्वयूथ्यने-स्वमम्प्रदायके विद्वानने-यह आपत्ति की कि 'सिद्धसेनने एकान्तके साधनमे प्रयुक्त हेतुको कही भी अमिद्ध नहीं बतलाया है अत: एकान्तके साधनमे प्रयुक्त इंतु सिद्धसेनकी दृष्टिमे सिद्ध है। यह वचन सूक्त न होकर अयुक्त है, तब उन्होंने यह कहते हुए कि 'क्या उसने कभी यह वाक्प नहीं सुना है' सन्मतिसूत्रकी जे संतवायदासे' इत्यादि कारिका (३-५०) को उद्धृत किया है और उसके द्वारा एकान्तसाधनमे प्रयुक्त हेतुको सिद्धसेनको दृष्टिमे 'असिद्ध' प्रतिपादन करना सन्निहित बतलाकर उसका समाधान किया है। यथा:१ देखा, सन्मति-तृतीयकापगत गाथा ६५की टीका (पृ. ७५४), जिसमें "भगवत्प्रतिमाया भूषणाद्या. रोपण कर्मक्षयकारण" इत्यादि रूपसे मण्डन किया गया है। २ जनसाहित्यसशोधक, भाग १ मत पृ० १०, ११। करते हुए लिखा है२ परवत्सम्बयपस्खा अविसिहा तेसु तमु सुत्तमुरा भय Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११ सम्मति-सिशसेना [४६५ "प्रसिद्ध इत्यादि, स्वलक्षणैकान्तस्य साधने सिद्धावनीक्रियमानायो सों हेतुः सिक्सेनस्य भगवतोऽसिद्धः। कयमिति चेदुच्यते ..." | ततः सूक्तमेकान्तसाधने हेतुरसिद्धः सिद्धसेनस्येति । कश्चित्स्वयूथ्योऽत्राह-सिद्धसेनेन कचित्तस्याऽसिद्धस्याऽवचनादयुक्तमेतदिति । नेन कदाचिदेतत् पतं-'जे संतवायदोसे सक्कोल्लया भणंति संखाणं । संखा य असव्वाए तेसिं सब्वे वि ते सथा।" इन्ही सब बाताको लक्ष्यमें रखकर प्रसिद्ध श्वताम्बर विद्वान स्वर्गीय श्रीमोहनलाल दलीचन्द देशाई बीए. ए , एल-एल. बी. एडवोकेट हाईकोर्ट बम्बईने, अपने ‘जैन-साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' नामक गुजराती प्रन्थ (पृ. ११६)मे लिखा है कि "सिद्धसेनसूरि प्रत्यनो आदर दिगम्बरो विद्वानोमा रहेलो देखाय छे" अर्थात् (मन्मतिकार) सिद्धसेनाचायके प्रति आदर दिगम्बर विद्वानोमे रहा दिखाई पड़ता है-श्वेताम्बरोमे नहीं। साथ ही हरिवंशपुराण, राजवार्मिक, सिद्धिविनिश्चय-टीका, रत्नमाला, पाश्वनाथचरित और एकान्तखण्डन-जसे दिगम्बर ग्रन्थों तथा उनके रचयिता जिनसेन, अकलङ्क, अनन्नवीर्य, शिवकाटि, वादिराज और लक्ष्मीभद्र(धर) जैसे दिगम्बर विद्वानाका नामाल्लेख करते हुए यह भी बतलाया है कि 'इन दिगम्बर विद्वानाने सिद्धसनसूरि-सम्बन्धी और उनके सन्मतितक-सम्बन्धी उल्लेख भक्तिभावसे किय हैं. और उन उल्लेखांसे यह जाना जाता है कि दिगम्बर प्रन्थकारांमे घना समय तक सिद्धसेनके (उक्त) ग्रन्थका प्रचार था और वह प्रचार इतना अधिक था कि उमपर उन्होंने टीका भी रची है। इस सारी परिस्थितिपरसे यह माफ समझा जाता और अनुभवमे आता है कि मन्मनिमूत्रके कर्ता सिद्धसेन एक महान दिगम्बराचार्य थे. और इसलिये उन्हें श्वेताम्बरपरम्पराका अथवा श्वेताम्बरत्वका समर्थक आचार्य बतलाना कोरी कल्पनाके सिवाय और कुछ भी नहीं है। वे अपने प्रवचन-प्रभाव आदिके कारण श्वेताम्बरमम्प्रदायमें भी उसी प्रकारसे अपनाये गय है जिस प्रकार कि स्वामी समन्तभद्र जिन्हें श्वेताम्बर पट्टालियाम पट्टाचार्य तकका पद प्रदान किया गया है और जिन्हें पं० मुखलाल, पं. बंचरदाम और मुनि जिनविजय आदि बड़े-बड़े श्वेताम्बर विद्वान भी अब श्वेताम्बर न मानकर दिगम्बर मानने लगे हैं। । कतिपय द्वात्रिशिकाओके का सिद्धसेन इन सन्मानकार सिद्धसेनसे भिन्न तथा पूर्ववर्ती दमर ही मिद्धसेन है. जैसा कि पहले व्यक्त किया जा चुका है. और सम्भवतः वे ही उज्जयिनीके महाकालमन्दिरवाली घटनाक नायक जान पड़त है। हो सकता है कि वे शुरूसे श्वेताम्बर सम्प्रदायम ही दीक्षित हुए हो. परन्तु श्वेताम्बर आगमाका संस्कृतमें कर देनेका विचारमात्र प्रकट करनेपर जब उन्हें बारह वर्ष के लिये मंघबाह्य करने-जैसा कठोर दण्ड दिया गया हो तब वे सविशेषरूपसे दिगम्बर साधुओक सम्पर्कमे आप ही उनके प्रभावसे प्रभावित तथा उनके संस्कारों एवं विचार्गको ग्रहण करनेमे प्रवृत्त हुए हो-ग्यामकर समन्तभद्रम्वामीके जीवनवृत्तान्ती और उनके माहित्यका उनपर मवम अधिक प्रभाव पड़ा हो और इमी लिये वे उन्ही-जैसे स्तुत्यादिक कार्योक करनेमे दचित्त हुए हो। उन्हींक मम्पर्क एवं संस्कारों में रहते हुए ही मिद्धसेनमे उज्जयिनीकी वह महाकालमन्दिरवाली घटना बन पड़ी हो. जिमसे उनका प्रभाव चारो ओर फैल गया हो और उन्हे भारी राजाश्रय प्राप्त हुआ हो । यह सब देखकर ही श्वेताम्बरसंघका अपनी भूल मालूम पड़ी हो. उसने प्रायश्चित्तकी शेष अवधिको रद्द कर दिया हो और सिद्धसेनको अपना ही माधु नथा प्रभावक आचार्य घापित किया हो। अन्यथा, द्वात्रिशिकापरसे सिद्धसेन गम्भीर विचारक एवं कठोर समालोचक होनेके साथ साथ जिस उदार स्वतन्त्र और निर्भय-प्रकृतिके समर्थ विद्वान जान पड़ते हैं उससे यह आशा नहीं की जा मकती कि उन्होंने ऐसे अनुचित एवं अविवेकपूर्ण दण्डको यों ही चुपके-से गर्दन मुका कर मान लिया हो, उसका कोई प्रतिरोध न किया हो अथवा अपने लिये Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ब कोई दूसरा मार्ग न चुना हो। सम्भवतः अपने साथ किये गये ऐसे किसी दुर्व्यवहारके कारण ही उन्होंने पुराणपन्थियों अथवा पुरातनप्रेमी एकान्तियोंकी (द्वा०६में) कड़ी आलोचनाएँ की हैं। यह भी हो सकता है कि एक सम्प्रदायने दूसरे सम्प्रदायकी इस उज्जयिनीवाली घटनाको अपने सिद्धसेनके लिये अपनाया हो अथवा यह घटना मूलतः काँची या काशीमें घटित होनेवाली समन्तभद्रकी घटनाकी ही एक प्रकारसे कापी हो और इसके द्वारा सिद्धसेनको भी उसप्रकारका प्रभावक ख्यापित करना अभीष्ट रहा हो। कुछ भी हो, उक्त द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता सिद्धसेन अपने उदार विचार एवं प्रभावादिके कारण दोनो सम्प्रदायोंमें समानरूपसे माने जाते है--चाहे वे किसी भी सम्प्रदायमे पहले अथवा पीछे दीक्षित क्यों न हुए हों। परन्तु न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेनकी दिगम्बर सम्प्रदायमें वैसी कोई खास मान्यता मालूम नहीं होती और न उस प्रन्थपर दिगम्बरोंकी किसी खास टीका-टिप्पणका ही पता चलता है, इसीसे वे प्रायः श्वेताम्बर जान पड़ते हैं। श्वेताम्बरोंके अनेक टीका-टिप्पण भी न्यायावतारपर उपलब्ध होते हैं-उसके 'प्रमाणं स्वपराभासि' इत्यादि प्रथम मोकको लेकर तो विक्रमकी ११वी शताब्दीके विद्वान् जिनेश्वरसूरिने उसपर 'प्रमालक्ष्म' नामका एक सटीक वार्तिक ही रच डाला है, जिसके अन्तमें उसके रचनेमे प्रवृत्त होनेका कारण उन दुर्जनवाक्योको बतलाया है जिनमें यह कहा गया है कि इन 'श्वेताम्बरोंके शब्दलक्षण और प्रमाणलक्षणविषयक कोई ग्रन्थ अपने नहीं हैं, य परलक्षणोपजीवी है-बौद्ध तथा दिगम्बरादि ग्रन्थासे अपना निर्वाह करनेवाले है-अतः ये आदिसे नहीं-किसी निमित्तसे नये ही पैदा हुए अर्वाचीन हैं। साथ ही यह भी बतलाया है कि 'हरिभद्र, मन्जवादी और अभयदेवसूरि-जैसे महान् आचार्योक द्वारा इन विषयांकी उपेक्षा किय जानेपर भी हमने उक्त कारणसे यह 'प्रमालक्ष्म' नामका ग्रन्थ वार्तिकरूपमे अपने पूर्वाचायका गौरव प्रदर्शित करनेके लिय (टाका"पूर्वाचार्यगौरव-दर्शनार्थ") रचा है और (हमार भाई) बुद्धिसागराचार्यने सस्कृत-प्राकृत शब्दोकी सिद्धिके लिय पद्यामे व्याकरण ग्रन्थकी रचना की है। इस तरह सन्मतिसूत्रक का सिद्धसेन दिगम्बर और न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन श्वेताम्बर जाने जाते है। द्वात्रिशिकायमसे कुछ के कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर और कुछके कर्ता श्वेताम्बर जान पड़त है और वे उक्त दाना सिद्धसेनोसे भिन्न पूर्ववर्ती तथा उत्तरवर्ती अथवा उनसे अभिन्न भी हो सकते है। ऐसा मालूम होता है कि उर्जायनाकी उस घटनाक साथ जिन सिद्धसेनका सम्बन्ध बतलाया जाता है उन्होंने सबसे पहले कुछ द्वात्रिशिकााकी रचना की है, उनके बाद दूसरे सिद्धसनाने भी कुछ द्वात्रिंशिकाएँ रची है और वे सब रायताओके नामसाम्यक कारण परस्परमे मिल जुल गई है, अतः उपलब्ध द्वात्रिशिकाओमे यह निश्चय करना कि कौन-सी द्वात्रिशका किस सिद्धसनकी कृति हे विशेष अनुसन्धानसे सम्बन्ध रखता है। साधारणतौरपर उपयोग-द्वयके युगपद्वादादिकी दृष्ट्रिसे, जिसे पाछे स्पष्ट किया जा चुका है, प्रथमादि पाँच द्वात्रिशिकाओको दिगम्बर सिद्धसेनकी, १६वी तथा २५वी द्वात्रिशिकाओको श्वेताम्बर सिद्धसेनकी और शेष द्वात्रिशिकाओका दानामेसे किसी भी सम्प्रदायक सिद्धसेनकी अथवा दोनो ही सम्प्रदायोके सिद्धसेनाकी अलग अलग कृति कहा जा सकता है। यही इन विभिन्न सिद्धसेनोके सम्प्रदाय-विषयक विवेचनका सार है। वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता. ३१-१२-१९४८ १ देखो, बार्तिक नं. ४०१से ४०५ और उनकी टीका अथवा जैनहितैषो भाग १३ अङ्क ६-१०में प्रकाशित मुनि जिनविजयजीका 'प्रमालक्षण' नामक लेख । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्य वार्षिक ५ ) विश्व तत्त्व-प्रकाशक मनै ॐ अहम का नीतिविरोधी लोकल्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज गुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ तस्व-सपा वर्ष | वीर सेवामन्दिर ( समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जिला सहारनपुर किरण १२ मार्गशीशुक्ल, वीरनिर्वाण-मवन २४७४, विक्रम सवन २००५ धर्म और वर्तमान परिस्थितियाँ (ले० - नामचन्द्र शास्त्री, ज्योतिषाचार्य, साहित्यरत्न ) ११वी किरणक मूल्यमे शामिल दिसम्बर १६४८ मानवता धर्म है और मानवजीवनको विकासकी ओर ले जानेवाले नियम धर्मके अङ्ग है। विचारके लिये मानवजावनको प्रधान तीन क्षेत्रामे विभक्त किया जा सकता हैशारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक । नित्य. चैतन्य और अखण्ड आत्माके विकास एवं उसके मूल स्वरूपमे प्रतिष्ठित होनेके लिये उपर्युक्त तीनों शक्तियाँ साधन है। इनके विकास द्वारा ही चरम लक्ष्य आत्माकी अनुभूति होता है अथवा जो आत्माका अस्तित्व नहीं भी मानते है, उनके लिये भी उक्त तानों क्षेत्रोंके विकास की नितान्त आवश्यकता है। क्योंकि मानवकी मानवता इन नानीकं विकामका ही नाम है। अतएव धर्मका लक्ष्य भी इन तीनों शक्तियोंके विकसित करनेका है। जब तक इन तीनोम कोई भी शक्ति अविकसित रहती है. मानव अपूर्ण ही रहता है। स्पष्ट करनेके लिये यो कहा जा सकता है कि शरीरके विकास के अभाव मे मानसिक शक्तियांका विकास नहीं और मानसिक शक्तियांके कमजोर होने पर आध्यात्मिक शक्तिका विकास सम्भव नही. अतः आजके वैज्ञानिकों के यहां भी क्रिया, विचार और भावना इन तीनोकी अविकसित अवस्थामें व्यक्तिगत जीवन निष्क्रिय जीवन होगा। व्यक्तिकी निष्क्रियता अपने तक ही सीमित नही रहेगी प्रत्युत उसका व्यापी प्रभाव समाजपर पड़ेगा; जिसका फल मानव समाजके विनाश या उसकी असभ्यता में प्रकट होगा । १ शरीर की उस शक्तिका नाम शारीरिक विकाम है, जहाँ भोजन के अभाव में उसकी स्थिति रह सके । मानसिक शक्तिका अर्थ ज्ञानका चरम विकास हे तथा आध्यात्मिक शक्तिका अर्थ श्रात्मस्वरूपके है। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शारीरिक शक्तिकी परिभाषा और उसके विकासके धार्मिक नियम शारीरिक शक्तिमें मानवका स्थूल शरीर, उसकी इन्द्रियाँ-हाथ, पैर, नाक, कान प्रभृति शामिल हैं। इस शक्तिको विकसित करनेका काम भी धर्मका है, अर्थात् समाजके वे नियम जिनके द्वारा इस शक्तिका पूर्ण विकास हो सके, इसके विकासमें किसी प्रकारकी बाधा उत्पन्न न हो। मनुष्यको प्रारम्भसे ही शारीरिक आवश्यकताओकी पूर्तिके लिये भोजन, वस्त्र की आवश्यकता होती है, उसे रहनेके लिये स्थान और आने-जानेके लिये सवारी भी चाहिये। इन आवश्यकताकी वस्तुओंके मिलनेसे उसका शरीर पुष्ट होता है. इन्द्रियोंमे पुष्टि श्राती है तथा समस्त शरीरके अङ्गोपॉगरूप शारीरिक शक्तिका विकास होता है। ममाजमें आवश्यकता की वस्तुएँ थोड़ी हैं और उनके लेने वाले अत्यधिक हैं। इसलिये समाजके सभी सदस्योको वस्तुओके वितरणके लिय राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक नियमोका निर्माण किया जाता है, जो कि शारीरिक शक्तिके विकसित करनेके लिय धार्मिक नियम है। किन्तु इतना स्मरण रखना होगा कि जब इस शक्तिका चरम विकास हो जाता है, उस समय य क्षुद्र नियम लागू नहीं होते है। इसीलिये इन नियमोको स्थिर नहीं माना जा सकता. किन्तु एक समयम निर्मित नियम दूसरे समयके लिये अनुपयोगी भी साबित हो सकते है। अतएव आजकी परिस्थितियो के प्रकाशमे शक्तित्रयके विकासका देखना आवश्यक है। शारीरिक शक्तिके साधन अर्थकी व्यापकता और सिक्केका प्रचलन शरीरके विकासके लिये अर्थकी कितनी आवश्यकता है. यह किमीसे छुपा नहीं । भोजन, वस्त्र, सवारी प्रभृति ममस्त पदार्थ अर्थके अन्तर्गत है। केवल रुपयका नाम अर्थ नहीं है। आजसे सहस्रो वर्ष पूर्व एक ऐमा भी युग था, जिसमें मिक्का नही था. कंवल वस्तुओ के परस्पर विनिमयसे काय चलत थे। लेकिन जब इस विनिमयकी क्रियासे मानवका शारीरिक आवश्यकताकी पूर्तिमे बाधा आने लगी तो अर्थके प्रतीक मिक्केका जन्म हुआ । स्पष्ट करनेके लिय यो कहा जा सकता है कि कुछ ऐसे व्यक्ति है, जिनमेमे एकक पास गेहूँ. चना आदि अन्न है, दुसरा एक ऐसा आदमी है जिमके पाम मवेशी हैं, तीसग एक सा व्यक्ति है जिमके पास वस्त्र है। पहले व्यक्तिका फली की आवश्यकता है, दृमरका अनाज की आवश्यकता और तीसरको तरकारियां की। ये तीनो हा व्यक्ति अपनी-अपनी आवश्यकता की वस्तुकी प्राप्तिके लिये छटपटा रहे हैं। पहला अनाज वाला व्यक्ति फलोकी दुकानपर गया और फल वालसे अनाजके बदलेमे फल देनेका कहा, किन्तु फल वालेका अनाज की आवश्यकता नहीं। अतः अनाजसे फलोका विनिमय नहीं करना चाहता अथवा अधिक अनाजके बदलेमे कम फल देना चाहता है, इससे पहले व्यक्तिके सामने विकट समस्या है। दुमर व्यक्तिको अनाज चाहिये. अतः वह मवेशी लेकर गया और बदलेमे अनाज मँगाने लगा. किन्तु पहले व्यक्तिको मवेशी की जरूरत नहीं, उसे तो फल चाहियें। इसलिये उसने मवेशीके बदलेमे अनाज देनेसे इन्कार कर दिया अथवा एक मवेशी लेकर थाडासा अनाज देना चाहता है. जिससे दूसरा व्यक्ति अपना आवश्यकता पूर्ति किये बिना ही लौट आता है। यही अवस्था तीसरे की है. उसे भी अपनी आवश्यकता की पूतिमे बाधा है। यदि ये व्यक्ति और भी कई प्रकारके पदार्थ-नमक, मिर्च, ममाला प्रभृति खरीदना चाहें तो इन्हें ये पदार्थ भी बड़ी कठिनाईसे मिलेगे। समाजकी इम कठिन ममस्याको सुलझानेके लिये धार्मिक नियम सिक्केके प्रचलनके रूपमें आविर्भूत हुआ। समाजकी छीना-झपटीकी समस्या को अर्थके प्रतिनिधि सिक्केने दूरकर मानवको उन्नत बनाने में बड़ा योग दिया है। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १२ ] धर्म और क्तमान परिस्थितियाँ [४६९ सिक्केका प्रचलन एक धार्मिक नियम है सिक्केका प्रचलन एक धार्मिक नियम है इस बातकी पुष्टि सिक्केके इतिहाससे स्वयं होजाती है। सिक्का किसी व्यापारी द्वारा नहीं चलाया गया है. बल्कि इसे किसी राजा ने चलाया है। इमका रहस्य यह है कि सिक्के की धाक और साख तभी जम सकती थी, जब समाजको इस बातका विश्वास हो जाता है कि इसकी धातु निर्दोष और तोल सही है यदि व्यापारी वर्ग इसका प्रचलन करता तो वह अपनी चालाकीसे उक्त दोनो बातोका निर्वाह यथार्थरूपमे नहीं कर सकता, जिसका परिणाम सिक्के राज्यमें भी अराजकता होती और थोड़े दिनोमे मिक्का भी निकम्मी चीज बन जाता। अतः धोरवेबाजीका दूर करनेके लिये तथा समाजमे अमन-चैन स्थापित करनेके लिय सिक्केके बीचमे राजाको पड़ना पड़ा। इस प्रकार इस धार्मिक नियमने व्यक्ति और समाजकी अनेक समस्याओकी जटिलताको दूर कर दिया। शारीरिक शक्ति विकासक र्थसम्बन्धी धार्मिक नियमोंका ऋमिक विकास यद्यपि मुद्राके जन्म होजानेसे मानवकी शारीरिक शक्तिके विकासमे सुविधा प्राप्त हुई है। पर कुछ चालाक और धूर्त व्यक्ति अपने बौद्धिक कौशलसे अन्य व्यक्तियोंके श्रमका अनुचित लाभ उठाकर उनका शापण करते हैं. जिमम मानव-समाजमे दो वर्ग स्थापित हो जात है-एक शापित और दृसग शापक । प्रागैतिहासिक कालस ही मानव अपनी शारीरिक शक्तिके विकासक लिय धार्मिक नियमाका प्रचलन करता चला आरहा है। परिस्थितियोके अनुमार सदा इन नियमाम संशोधन होता रहा है। उदयकाल और आदिकालमें जब लोग वैयक्तिक सम्पत्ति रखने लगे थे. अर्थार्जनके असि, मास. कृपि. सेवा, शिल्प और बाणिज्यके नियम प्रचलित किय गय थे, जिन नियमांमे श्राबद्ध होकर मानव शारीरिक शक्तिका विकमित करने के लिय अर्थ प्राप्त करना था। जब-जब आर्थिक व्यवस्थामं विपमना या अन्य किन्हीं भी कारणांसे बाधा उत्पन्न हुई धमने उसे दूर किया। अहिमा, सत्य, अचीयं और परिग्रह-परिमाण से नियम है, जो आर्थिक समस्याका मंतुलन समाजमे रखते है। अर्थ-सम्बन्धी इन धार्मिय. नियमाका पालन राजनाति और ममाज इन दानाक द्वारा ही हो सकता है । गजनीति मदा आर्थिक नियमांक आधारपर चलती है तथा समाजको भित्ति इसापर अवलम्बित है। वर्तमान कालीन आर्थिक नियमांक विचारविनिमयसे तो यह बात और भी स्पष्ट हो जानी है। पूजीवादी विचारधाराका धार्मिक दृष्टिकोण सम्भवत: कुछ लोग पूजीवादी विचारधागका नाम मुनकर चौक उठगे और प्रभ करेंगे कि धर्मक साथ इसका सम्बन्ध कैमा ? यह ना एक मामाजिक या राजनैतिक प्रभ है, धर्मको इमक बीचमे डालना उचित नहीं । किन्तु विचार करनपर यह म्पष्ट मालूम हो जायगा कि धर्मका सम्बन्ध आजकी या प्राचीनकालकी मी आर्थिक विचारधागोमे है। यदि यह कहा जाय कि किसी विशेप परिस्थनिमे कोई आर्थिक विचारधारा धार्मिक नियम है, तो अनुचित न होगा, क्योकि वह अपने समयमे ममाजमे शान्ति और व्यवस्था स्थापित करती है। पूजीवादकी परिभाषा समाजके चन्द व्यक्ति अपने बुद्धिकौशल द्वाग उत्पनिके साधनापर एकाधिकार कर उत्पादन मामग्रीको क्रियात्मकरूप देनके लिय मजदुगको नौकर रख लत है। मजदूर अपने - श्रमसे अर्थार्जन करते हैं, जिसके बदलमे पूँजीपति उन्हें वेतन देत है. परन्तु यह वेतनश्रमकी Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ] अनेकान्त [वर्ष अपेक्षा कम होता है। जितना मजदूरोंको देनेके बाद बच जाता है, वह पूँजपतियोंके कोषमें सश्चित होता है। इस प्रकार समाजमें व्यवसायिक क्रान्तिके फलस्वरूप पूँजी कुछ ही स्थानोमें सश्चित हो जानी है, यही पूँजीवाद कहलाता है। पूँजी उत्पादनके प्रधान चार साधन हैभूमि, मज़दृरी, पूंजी और संगठन । इन चारोकी श्राय लगान या किराया, पारिश्रमिक-वेतन, व्याज और लाभ कहलाती है ।। पूजीवाद और धर्म एक युग ऐसा था. जब समाजकी सुव्यवस्थाके लिये पूँजीवादकी आवश्यकता थी। स्वभावतः देखा जाता है कि जब पृश्वीपर जनसंख्याकी वृद्धि हो जाती है, तब व्यक्तित्व विकासकी भावना प्रबल हाती है तथा समाजका प्रत्येक सदस्य अहङ्कार और व्यक्तिगत स्वार्थोके लिय भौतिक उन्नतिम स्पर्धा करता है, यही एक-दुसरंकी बढ़ा-चढ़ाकी भावन पूँजीवाद का जन्म देनी है। प्राचानयुगमें जब जनसख्या सामित था, उस समय समाजका शक्तिका बढ़ानके लिय पंजीवादका धार्मिकरूप दिया गया था। वस्तुतः समाजकी शक्तिके लिये कुछ ही स्थानोंमे पूजीका मश्चित करना आवश्यक था। लेकिन उस युगमे मंचित करनेवाला व्यक्ति अकेला ही उस सम्पत्तिक उपभोग करनेका अधिकारी नहीं था, वह रक्षकके रूपमें रहता था, तथा आवश्यकता पड़नेपर उसे अपनी सम्पत्ति समाजको देनी पड़ती थी। उस समय ममाज संचालनके लिये एक ऐसी व्यवस्थाको आवश्यकता थी, जिसके द्वारा आवश्यकता पड़नेपर पर्याप्त धन लिया जा सके। पूजीवादकी आलोचना ___ मंमारकी सभी वस्तुएँ गुण-दोपात्मक हुआ करती हैं। प्रेमी काई व्यवस्था नहीं मिलेगी, जिममें केवल गुगा या दांप ही हो । पूजावाद जहाँ धार्मिक दृष्टिमे एक युगमे समाजव्यवस्थामे सहायक था, वहाँ आज समाजके लिय हानिकारक है। क्योंकि जब राग-द्वेप युक्त अपरिमित भौतिक उन्नतिमे जगतमें विपमता अत्यधिक बढ़ जाती है. उस ममय विषमता जन्य दुग्वोंसे छुटकारा पाने के लिये प्रत्येक मानव तिलमिलाने लगता है, जिसकी प्रतिक्रियास्वरुप अन्य सामाजिक व्यवस्था जन्म ग्रहण करती है। क्योंकि वहाँ आर्थिक विचारधारा प्रत्यक व्यक्तिके लिय धार्मिक हो सकती है जिससे शारीरिक शक्तिको विकसित करनेवाले साधन आसान से प्राप्त हो सके। आज समाजमें चलनेवाला शोषगा (exploitation) जो कि पूँजीवादका कारण है, अधार्मिक है। शाषण ममाजके प्रत्येक सदस्यको उचित और उपयुक्त मात्रामे शरीर धारणकी आवश्यक सामग्री देनमे बाधक है। अतः पूजीवाद आजके लिय अधार्मिक है। धर्म और माक्से-विचारधारा यद्यपि लोग मार्क्सको धर्मका विरोधी मानते है. पर वास्तविक कुछ और है। मार्क्सने जिस आदर्श समाजको कल्पना की है. वह धर्मके बिना एक कदम भी नहीं चल सकता। पर इतना सुनिश्चित है कि माक्सकी धर्म परिभाषा केवल शारीरिक शक्तिके विकास तक ही सीमित है. मानसिक आध्यात्मिक शक्तिके विकास पर्यन्त उसकी पहुंच नहीं । जीवनके लिये सिर्फ भोजन और वन ही आवश्यक नहीं, किन्तु एक ऐसी वस्तुकी भी आवश्यकता है जो मानसिक और आध्यात्मिक तृप्तिमें कारण है; वह है संयम और आत्मनियन्त्रण । अतएव भौतिक दृष्टिसे समाजको सुव्यवस्थित करनेवाले आर्थिक परिस्थितिका निश्चयात्मक स्वभाव (Economicdeterminism). श्रेणीयद्ध. मल्यका नियम. अतिरिक्तार्थ, अतिरिक्तार्थको Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म भार वतमान परिस्थितियां बढ़ानेवाली पिपासाका विरोध और साधनोंके केन्द्रीयकरणका विरोध ये मासके सिद्धान्त भी संयम और भात्मनियन्त्रणके विना सफल नहीं हो सकते। धर्म और गांधी-विचारधारा गाँधी विचारधाराने, जोकि जैनआर्थिक विचारधाराका अंश है, समाजके विकासमें बड़ा योग दिया है। महात्माजीने मानवकी भौतिक उन्नतिकी अपेक्षा आध्यात्मिक उन्नतिपर अधिक जोर दिया है। उन्होंने जीवनका ध्येय केवल इह लौकिक विकास ही नहीं माना, किन्तु सत्य, अहिंसा और ईश्वरके विश्वास-द्वारा आत्मस्वरूपमें प्रतिष्ठित हो जाना ही जीवनका चरम लक्ष्य माना है । मानवकी आर्थिक समस्याको सुलझानेके लिये, जो कि आजकी एक आवश्यक चीज है, उन्होने असत्य और अहिंसाके सहारे मशीनयुगको समाप्त कर आत्मनिर्भर होनेका प्रतिपादन किया है। 'सादाजीवन और उच्चविचार' यह एक ऐसा सिद्धान्त है, जिसके प्रयोगद्वारा सारी समस्याएँ सुलझाई जा सकती हैं। सादगीसे रहनेपर व्यक्तिके सामने अावश्यकताएँ कम रहेगी, जिससे समाजकी छीना-झपटी दूर हो जायगी। आर्थिक समस्या और अपना दृष्टिकोण आजके युगमे शारीरिक आवश्यकताकी पूर्तिमें एकमात्र सहायक अर्थ है। इसकी प्राप्तिके लिय धार्मिक नियमांकी आवश्यकता है। अतः वर्तमानमें प्रचलित सभी मार्थिक विचारधाराओंका समन्वय कर कतिपय नियम नीचे दिये जाते है, जो कि जैनधर्म-सम्मत हैं और जिनके प्रयोगसे मानव समाज अपना कल्याण कर सकता है १-समाजका नया ढाँचा ऐसा तैयार किया जाय जिसमें किसीको भूखों मरनेकी नौबत न आवे और न काई धनका एकत्रीकरण कर सके। शोषण, जा कि मानवसमाजके लिये अभिशाप है, तत्काल बन्द किया जाय । २-अन्यायद्वारा धानार्जनका निषेध किया जाय-जुआ खेलकर धन कमाना, • सट्टा-लॉटरी द्वारा धनार्जन करना, चारी. ठगी, घूम, धूसंता और चोरबाजारी-द्वारा धनार्जन करना, बिना श्रम किये केवल धनके बलसे धन कमाना एवं दलाली करना आदि धन कमानेके साधनाका निषेध किया जाय । ३- व्यक्तिका आध्यात्मिक विकास इतना किया जाय, जिससे विश्वप्रेमकी जागृति हो और सभी समाजके सदस्य शक्ति-अनुमार कार्य कर आवश्यकतानुसार धन प्राप्त करें। ४-समाजमें आर्थिक समत्व स्थापित करने लिये मंयम और आत्मनियन्त्रणपर अधिक जोर दिया जाय, क्योंकि इसके बिना धनराशिका समान वितरण हो जानेपर भी चालाक और व्यवहार-कुशल व्यक्ति अपनी धूर्तता और चतुराईसे पूंजीका एकत्रीकरण करते ही रहेंगे। कारण, संसारमें पदार्थ थोड़े हैं, तृष्णा प्रत्येक व्यक्तिमें अनन्त है. फिर छीना-झपटी कैसे दूर हो सकेगी ? संयम ही एक ऐसा है, जिमसे समाजमें सुख और शान्ति देनेवाले आर्थिकप्रलोभनोकी त्यागवृत्तिका उदय होगा । सच्ची शान्ति त्यागमे है. मोगमें नहीं। भले ही भोगोंको जीवोंकी स्वाभाविक प्रवृत्ति कहकर उनकी अनिवार्यता बतलाई जाती रहे; परन्तु इस भोगवृत्तिसे अन्तमें जी ऊब जाता है। विचारशील व्यक्ति इसके खोखलेपनको समझ जाता है। यदि यह बात न होती तो आज यूरोपसे मौतिक ऐश्वर्यके कारण घबड़ाकर जो धर्मकी शरणमें आनेकी आवाज आ रही है, सुनाई नहीं पड़ती। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ] भनेकान्त मानवके विकासमें सहयोग देनेवाली राजनीति प्रागैतिहासिक-भोगभूमि-कालमें न कोई राजा था और न कोई प्रजा। सभी आनन्द और प्रेमसे अपना जीवन व्यतीत करते थे। किन्तु उदयकाल-कर्मभूमिके प्रारम्भमें जब स्वार्थीका संघर्ष होने लगा तो राज्यव्यवस्थाकी नीव पड़ी और उत्तरोत्तर इसमें विकास समय और आवश्यकताके अनुसार होता रहा । राज्य-संचालनकी तीन विधियाँ प्रमुख हैराजतन्त्र, अधिनायकतन्त्र और प्रजातन्त्र । तीनों तन्त्रोंकी व्याख्या और आलोचना राजतन्त्रमें शासनकी बागडोर ऐसे व्यक्तिके हाथमें होती है जो वंशपरम्परासे राज्यका सर्वोच्च अधिकारी चला आ रहा हो । अधिनायकतन्त्रमें शासनसूत्र एसे व्यक्तिके हाथमें होता है जो जीवनभरके लिये या किसी निश्चित काल तकके लिये प्रधान शासकके रूपमे चुन लिया जाता है और प्रजातन्त्र-प्रणाली में शासनसूत्र जनताके द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियोंके हाथमें होता है। . इन तीनों तन्त्रोंमें गुण-दोष दोनों हैं, फिर भी प्रजातन्त्रप्रणाली नैतिक, आर्थिक और सामाजिक विकासमें अधिक सहायक है। पर इस प्रणालीमे इस बातपर ध्यान रखना होगा कि निर्वाचन विना किसी पक्षपात और लेन-देनके हो । रुपयोके बलपर मत (वोट) खरीदकर किसी पदके लिये निर्वाचित होना परम अधार्मिकता है। भारतके नवनिर्माणमें प्रजातन्त्र प्रणाली ही उपयोगी हो सकती है। समय और परिस्थितियोके अनुसार यह प्रणाली व्यक्ति और समाजकी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियोका विकास कर सकती है। प्रेम, संयम और सहनशीलताक। दायित्व मानवमात्रका होता है, इससे कोई भी अपराध नहीं करता। क्योकि जनता अपने द्वारा निर्धारित नियमोकी अवहेलना नहीं कर सकती है। जब प्रत्यक व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक नियमांका पालन करेगा तो राजकीय शक्तिका सदुपयोग अन्य विकासके साधनोंमे किया जायगा। अतः यह प्रेमका शासन समाजकी सर्वाङ्गीण उन्नतिके लिये धार्मिक है। समाज और धर्म मानव सामाजिक प्राणी है, यह अकेले रहना पसन्द नहीं करता है, अत: उसे अपने विकासके लिये संगठनकी आवश्यकता होती है। किसी समानताके आधारपर जो संगठन किया जाता है, वही समाज कहलाता है। इस प्रकार जाति, धर्म, जाविका, संस्कृति, प्रान्त, देश प्रभृति विभिन्न बातोके नामपर सङ्गठित व्यक्तियांका समूह विभिन्न समाजामे बटा माना जायगा। अपने समाज-वर्गविशेषको श्रेष्ठ समझकर अन्य वर्गोंसे द्वेष करना, अधार्मिकता है। आज जातिद्वेष, धर्मद्वेष, प्रान्तविद्वेष. भाषाविद्वेष, व्यवसायविद्वप विभिन्न प्रकारके द्वप वर्तमान हैं, जिनके कारण समाजमे अत्यन्त अशान्ति है। राग और द्वेष य दानो ही अधर्म हैं, विशुद्ध प्रेमका व्यापकरूप ही धर्मके अन्तर्गत आता है। अतः अपनेका बड़ा और अन्यको छोटा समझकर घृणा करना अमानवता है। सामाजिक विकासके लिये निम्न धार्मिक नियमोंका पालन करना आवश्यक है १ सहानुभूति, २ अहार और द्वेषका त्याग, ३ 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना, जो व्यवहार अपनेको नही रुचता उसे अन्यके साथ महीं करना, ४ धार्मिक सहिष्णुता. Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १२ ] ५ नैतिकस्तरको उन्नत करनेके लिये सदाचार, भ्रातृत्व-भावना, नम्रता, वात्सल्य, सेवा-शुभ्र पाकी प्रवृत्ति आदि गुणोंका विकास एवं ६ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहकी । भावनाओंका प्रचार करना । मानसिक शक्ति और उसके विकासके साधन मानसिक शक्ति में बुद्धि, मन, हृदय और मस्तिष्कका विकास शामिल है । इन चारोंके विकसित हुए बिना धर्मका पालन यथार्थतः नही हो सकता। जिस प्रकार शरीरके विकासके लिये उत्तम भोजनकी आवश्यकता है उसी प्रकार मानवकी मानसिक शक्तिके विकासके लिये साहित्य और कलाकी आवश्यकता है। गहराईमे पैठनेपर पता लगता है कि कलाका अर्थ संकुचित नहीं, किन्तु सम्यक् प्रकार जीना भी कलामें परिगणित है । केवल पेट भरना और अन्त मे रामनाम सत्य हो जाना' जीना नहीं है, अतएव वे धार्मिक नियम कला है जिनके सेवन से शरीर ऐसा सबल हो. जिससे किसी भी प्रकारका रोग उत्पन्न न हो सके, आलस्य और थकावट न मालूम हो । मन इतना पवित्र हो जिससे बुरे विचार कभी उत्पन्न न हो, ऊँचे आदर्शकी कल्पनाएँ उद्बुद्ध हो, हृदय इतना निर्मल हो, कि दया और अहिंसाकी भावनाएँ उत्पन्न हो एवं बुद्धि ऐसी हो जिससे सत्-असत्का यथार्थ निरण्य कर सके । धर्मका कार्य इसी कलाको सिखलाना है, वासना उद्बुद्ध करनेवाली कलाको नही । आत्मिकशक्ति और उसके विकासके साधन श्रात्मिक गुण ज्ञान, दर्शन और चारित्रका विकास करना धर्मका चरम लक्ष्य हैं । इनके पूर्ण विकसित हानपर हा शुद्ध आत्मतत्त्वकी प्राप्ति होता है । धम आर वतमान पारास्थातथा [ ४७२ साधकके लिये सबसे आवश्यक यह है कि वह सर्व प्रथम श्रात्मतत्त्वका विश्वास कर अनात्मिक भावांको छोड़नेका प्रयत्न करे। जबतक मानवक बुद्धि भौतिक सुखोंकी ओर रहती हैं, आध्यात्मिक शक्तिका विकास नहीं होता, लेकिन जैसे-जैसे भौतिकतासे ऊपर उठता जाता है; आत्मिक गुग्ण प्रकट होने लगते है। जो संगम - इन्द्रियनिग्रह - भोजन-वस्त्रकी चिन्ता रखनेवाले व्यक्तिको बुरा मालूम होता है, वही संयम विकसित मस्तिष्क और हृदयवालको कल्याणकारी होता है । पर इसका अर्थ यह नहीं है कि वह प्रत्यक्षके प्रयोगसे इन्कार करता है, बल्कि यह है कि इन्द्रियजन्य सुख क्षणिक और विनाशीक होनेके कारण पूर्णतृप्तिमे असमर्थ हैं । पूर्णतृप्तिके साधन त्याग, विनय, संयम, आत्मचिन्तन, क्षमा, मार्दव, शौच और ब्रह्मचर्य आदि है । उपयुक्त विवेचनमे स्पष्ट है कि धर्मका सम्बन्ध जहाँ आत्मकल्याण के साथ है. वहाँ श्रजकी रोटी और वस्त्रकी समस्याओ को भी सुलझाना है । केवल आध्यात्मवाद आजके युगमें धर्मका विश्लेषण नहीं कर सकता । धमंसे लोगोके मनमें जो ग्लानि और उपेक्षा उत्पन्न होगई है. उसका मूल कारण आजकी समस्याओं को सुलझानेका प्रयत्न न करना ही है। यदि लोग धर्मको परलोककी वस्तु न मानकर आजकी दुनियाकी वस्तु समझें और आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक परिस्थितियांको सुलझाने में उसका उपयोग करें तो लोगोंके लिये धर्मं हौआ न रहे। यह तो ऐसा पवित्र पदार्थ है जिसके सामने ऊँच-नीच, छुआ-छूत. छोटा-बड़ा, घृणा द्वेष. कलह-राग, आदि बातें क्षणभर भी नहीं ठहर सकती है। आज लोगोंने धर्मके गलेको घोटकर उसे साम्प्रदायिकताका जामा पहना दिया है, जिससे वह सिर्फ परलोक की बस्तु बन गया है। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मश्रुतसागरका समय और साहित्य (लेखक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री) ब्रह्मश्रुतसागर मूलसंघ सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणके विद्वान् थे। इनके गुरुका नाम विद्यानन्दी था, जो भट्टारक पद्मनन्दीके प्रशिष्य और देवेन्द्रकीर्तिके शिष्य थे। और देवेन्द्रकीर्तिके बाद भट्टारक पदपर आसीन हुए थे। विद्यानन्दीके बाद उक्त पदपर क्रमशः मल्लिभूषण और लक्ष्मीचन्द्र प्रतिष्ठित हुए थे । इनमे मल्लिभूषणगुरु श्रुतसागरको परम आदरणीय गुरुभाई मानते थे और इनकी प्रेरणासे श्रुतसागरने कितने ही ग्रन्थोका निर्माण किया है। ये सब सूरतकी गद्दीके भट्रारक हैं । इस गद्दीकी परम्परा भ० पद्मनन्दीके बाद देवेन्द्रकीर्तिसे प्रारम्भ हुई जान पड़ती है। ब्रह्मश्रुतसागर भट्टारक पदपर प्रतिष्ठित नहीं हुए थे; किन्तु वे जीवनपर्यन्त देशव्रती ही रहे जान पड़ते है. उन्होने अपनेको ग्रन्थोंमें 'देशवती' शब्दसे उल्लेखित भी किया है। वे संस्कृत और प्राकृत भाषाके अच्छे विद्वान् थे। उन्हें 'कलिकाल सर्वज्ञ, उभय भाषाकविचक्रवर्ती, तार्किकशिरोमणि, परमागमप्रवीण और नवनवतिमहावादि विजेता' आदि अनेक उपाधियाँ प्राप्त थी जिनसे उनकी प्रतिष्ठा और विद्वत्ताका अनुमान लगाया जा सकता है। अब जानना यह है कि वे कब हुए हैं। यद्यपि श्रतसागरजीने अपनी कृतियोमें उनका रचनाकाल नहीं दिया जिससे यह बतलाया जा सके कि उन्होने अमुक ममयसे लेकर अमुक समय तक किन किन ग्रन्थोंकी किस क्रमसे रचना की है। किन्तु अन्य दुसरे साधनोके आधारसे यह अवश्य कहा जा सकता है कि ब्रह्मश्रु तसागरका समय विक्रमकी सोलहवी शताब्दीका प्रथम, द्वितीय व तृतीय चरण है। अर्थात् वे वि० सं० १५०८से १५७५के मध्यवर्ती विद्वान हैं। इसके दो श्राधार है एक तो यह कि भट्टारक विद्यानन्दीके वि० सं० १४६हसे वि० सं० ५५२३ तकके ऐसे मूर्तिलेख पाये जाते है जिसकी प्रतिष्ठा भ० विद्यानन्दीने स्वयं की है अथवा जिनमें भ० विद्यानन्दीके उपदेशसे प्रतिष्ठित हानेका समुल्लख पाया जाता है । और मल्लिभूषणगुरु' वि० सं० १५४४ तक या उसके कुछ समय बाद तक पट्टपर आसीन रहे हैं ऐमा सूरत आदिके मूर्तिलेखोसे स्पष्ट जाना जाता है। इससे स्पष्ट है कि भ० विद्यानन्दीके प्रियांशष्य ब्रह्म. श्र तसागरका भी यही समय है। क्योकि यह विद्यानन्दीके प्रधान शिष्य थे। दृसरा आधार यह है कि उनकी रचनाओमें एक 'व्रतकथाकोश'का भी नाम दिया हुआ है, जिसे मैने देहलीके पश्चायती मन्दिरके शास्त्रभण्डारमे देखा था और उमकी आदि अन्तकी प्रशस्तियाँ भी नोट की थी, उनम २४वी 'पल्यविधानकथा'की प्रशस्तिमें ईडरके राठौर राजाभानु अथवा रावभाणजीका उल्लेख किया गया है और लिखा है कि 'भानुभूपतिकी भुजारूपी तलवारके जल प्रवाहमे शत्रुकुलका विस्तृत प्रभाव निमग्न होजाता था और उनका मन्त्री हुबड कुलभूषण भोजराज था, उसकी पत्रीका नाम विनयदवी था जो अतीव पतित्रता साध्वी और जिनदेवके चरणकमलोकी उपासिका थी। उससे चार पुत्र उत्पन्न ----------- ---..-- - ----- ----------------- १ देखो, दानवीर माणिकचन्द पृ. ३७ । २ देखो, गुजरातीमन्दिर सूरतके मूर्तिलेख, दानवीर माणिकचन्द पृ० ५३, ५४ । ३ मलिभूषणके द्वारा प्रतिष्ठित पद्मावतीकी स० १५४४की प्रतिष्ठित एक मूर्ति, जो सूरतके बड़े मन्दिरजी में विराजमान है। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १२ ] ब्रह्मथ तसागरका समय ार साहित्य हुए थे, जिनमें प्रथम पुत्र कर्मसिह. जिमका शरीर भूरिरनगुणोसे विभूषित था और दूसरा पुत्र कुलभूषण काल था, जो शत्रुकुलके लिय कालस्वरूप था, तीसरा पुत्र पुण्यशाली श्रीघापर, जो सघन पापरूपी गिरीन्द्र के लिये वनके समान था और चौथा गङ्गाजलके ममान निर्मल मनवाला गङ्ग । इन चार पुत्रांके बाद इनका एक बहिन भी उत्पन्न हुई थी जो ऐमी जान पड़ती थी कि जिनवरके मुग्बम निकली हुई सरस्वती हो अथवा दृढ़सम्यक्त्ववाली रेवती हो, शीलवनी माता हो और गुणरत्नगशि गजुल हा' । श्र नसागरजीने स्वयं संघसहित उसके माथ गजपन्थ और तुङ्गीगिर आदिकी यात्रा की थी और वहाँ उसने नित्य जिन पूजनकी. तप किया और संघको दान दिया था। जैसा कि उक्त प्रशस्तिके निम्न पदासे स्पष्ट है: "श्रीभानुभूपति मजासिजलप्रवाह निर्मग्नशत्रकलजातततप्रभावः । सद द्ध्यहुबृहकुल वृहतीलदुर्ग श्रीमाजराजइति मत्रिवरा बभूव ॥४४॥" भायोग्य सा विनयदव्यभिधासुधीपमोद्गारवाककमलकातमुखी सखीव । लक्ष्म्याः प्रभार्जिनवरस्य पदाजभङ्गी साध्वीपनिवतगुणामणिचन्महाा ॥४॥ सा मूत भूरिगुणारत्नविभूपितागं श्रीकममिहमितिपत्रमनकरत्न । काल च शत्रकुलकाल मननपुराय श्रीघापरं घनतरागिरान्द्रवज ॥१५॥ गङ्गाजलप्रविलाच्यमनोनिकत तयं च वर्यतरमगजमत्र गंग । जाता पुरस्नदनुपुनन्तिका स्वमपा वकष मजिनपरम्य सरस्वतीच ॥४॥ सभ्यस्त्वदाय कलिता किलविताव मातव शीलमलिलीक्षितभूरिभूमिः । गजामतीव सुभगागुरागरत्नराशि वलासरस्वती इवाचति पुत्तलाह ॥४८॥ यात्रा चकार गजपगिरी ससघातनपा सिदधनी पुढव्रता सा । रान्छान्तिक गणममर्चनमहदीश निन्यार्चनं सकलसंघ मदत्तदानं ॥26॥ तुगागरो च बलभद्रमुनः पदाजभनी तथा सकतं यतिमश्चकार । श्रामालभूपणगुरुप्रवर्गपदशाच्छाब व्यधाय यदिदतिना दादाटं ॥५॥ -पत्यविधान कथा प्रशस्ति । उक्त प्रशस्ति पद्याम उल्लिम्बित भानुभूपनि इंटरक गटारवशा राजा थे। यह गवपूजाजी प्रथम पुत्र और गव नागयगादामजाक भार थे और उनके बाद गज्यपदपर आसान हा थ। इनके समय वि. स. १५ मे गुजगनके बादशाह मुहम्मदशाह द्वितीयन इंटरपर चढ़ाई की थी तब उन्होंने पहामि भागकर अपनी रक्षा की. बादमे उन्होंने मुलह करली थी। फारसी नवारीयोम इनका वारगय नामसे उल्लंग्य किया गया है। इनके दो पुत्र थे सूरजमल्ल और भीमसिह । रावनारगजान स. १५ मे १५५: नक गज्य किया है। इनके बाद गवमूरजमल्लजी म. १५५-में गच्यामान हुए थे। गवभागजाक गन्यकालम ही उक्त पयविधान कथा'की रचना हुई हैं। इसमें अ नमागरका ममय विक्रमको माइलवी शताब्दीका प्रथमद्वितीय चग्गा निश्चित हाना है। श्रतमागरकी मृत्यु कब और कहाँ हुई उसका कोई निश्चित आधार अबतक नहीं मिला इमाम उनके उत्तर समयको निश्चित मामा निर्धारित करना कठिन है. फिर भी म. १५८से पूर्व तक उमी मीमा जम्र है और जिसका अाधार निम्न प्रकार है: श्रतमागरने पं० आशाधरजाक महाअभिपकपाठपर एक टीका लिखी है जो अभिषेकपाठमग्रहमे प्रकाशित हो चुकी है। उसकी लेग्यक प्रशम्नि सं० १५८-की है. जिम १ देग्यो, भारतके प्राचान गजवश भाग ३ पृ. ४२७। २ स. १५८५की लिखी हुई श्र नमागरका पट पाहुट टाकाकी एक प्रति श्रामर के साम्नभण्डारमे मौजूद है और उसकी लेखक प्रशस्ति मेरी नाटबुकम उद त है। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त - भ० लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य ब्रह्मज्ञानसागरके पठनार्थ आर्या विमलश्रीकी चेली और भ० लक्ष्मीचन्द्र द्वारा दीक्षित विनयश्रीने स्वयं लिखकर प्रदान की थी। इसके सिवाय, ब्रह्मनेमिदत्तने अपने आराधनाकथाकोश, श्रीपालचरित, सुदर्शनचरित, रात्रिभोजनत्यागकथा और नेमिनाथ पुराण आदि प्रन्थों में श्रुतसागरका आदर पूर्वक स्मरण किया है। इन प्रन्थोमे आराधनाकथाकाश सं० १५७५के लगभगकी रचना है और श्रीपालचरित सं० १५८५में रचा गया है। शेष रचनाएँ इसी समयके मध्यकी या आसपासके समयकी जान पड़ती हैं। ब्रह्मश्रुतसागरकी अब तक ३६ रचनाओंका' पता चला है जिनमेंसे ८ टीकाप्रन्थ हैं और शेष सब स्वतन्त्र कृतियाँ हैं उनके नाम इस प्रकार हैं: १ यशस्तिलकचन्द्रिका, २ तत्त्वार्थवृत्ति, ३ तत्त्वत्रयप्रकाशिका, ४ जिनसहस्त्रनामटीका, ५ महाअभिपेकटीका, ६ षट्पाहुडटीका, ७ सिद्धभक्तिटीका, ८ सिद्धचक्राष्टकटीका, ज्येष्टजिनवरकथा, १० रविव्रतकथा, ११ सप्तपरमस्थानकथा, १२ मुकुटसप्तमकोथा, १३ अक्षयनिधिकथा, १४ षोडशकारणकथा, १५ मेघमालाव्रतकथा, १६ चन्दनषष्ठीकथा, १७ लब्धिविधानकथा, १८ पुरन्दरविधानकथा, १६ दशलाक्षिणीव्रतकथा, २० पुष्पाञ्जलिव्रतकथा, २१ अाकाशपञ्चमीकथा, २२ मुक्तावलिव्रतकथा, २३ निदुखसप्तमीकथा, २४ सुगन्धदशमीकथा, २५ श्रवणद्वादशीकथा, २६ रत्नत्रयव्रतकथा, २७ अनन्तव्रतकथा, २८ अशांकरोहिणीकथा, २६ तपोलक्षणपंक्तिकथा, ३० मेरुपंक्तिकथा, ३१ विमानपंक्तिकथा, ३२ पल्यविधानकथा । (इन कथाओमें नं० हसे लेकर ३२ तकक ग्रन्थ 'ब्रतकथाकांश' नामसे एक ग्रन्थमें सग्रह कर दिये गये है; परन्तु वे एक ग्रन्थके अङ्ग नहीं हैं उनमे भिन्न भिन्न व्यक्तियोके अनुरोध एवं उपदेशादि द्वारा रचे जानेका स्पष्ट उल्लेख निहित है इसीसे यहाँ उन्हें एक ग्रन्थका नाम न देकर स्वतन्त्र २४ ग्रन्थके रूपमे उल्लेखित किया है)। ३३ श्रीपालचरित, ३४ यशोधरचरित, ३५ औदार्यचिन्तामणी (प्राकृत स्वापज्ञवृत्तियुक्तव्याकरण) ३६ श्रुतस्कन्धपूजा। ता० २५-१-४६ सुधार-सूचना अनेकान्तकी गत १८वीं किरणके प्रथम पृष्ठपर प्रकाशित 'मदीया द्रव्यपूजा' नामकी कविताके छपने कुछ अशुद्धियाँ होगई है और कुछ उसके लेग्वक युगवीरजीने उसमें थोड़ा-सा नया संस्कार भी किया है अतः पाठक अपनी-अपनी प्रतिमें उसका निम्न प्रकारसे सुधार कर पढ़नेकी कृपा करें: प्रथम पद्यमें 'मयं'की जगह मिदं' और 'समर्पयामि इति'की जगह 'समर्पयऽहमिति' बना लेवे । द्वितीय पद्यमे एतच्चाऽऽहदि के स्थानपर एनन्म हदि', 'रसयुतै-रन्नादिपानःसह के स्थानपर 'रसयुतैरनादिभीगेचनैः'. 'त्वपण-चर्थता के स्थान पर त्वर्पण-मोघता' और सद्भेषजाऽऽनय॑वन् के स्थानपर 'मद्भेषजाऽऽनय॑वन्' ऐमा पाठ कर लवे । तृतीय पद्यमे 'तत्तम'की जगह 'तत्तत् किया जाना चाहिये। चतुथ पद्यमे 'शिगैन के स्थानपर 'शिरोऽग्र' और 'एतन्मे तव द्रव्य-पूजनमहो'के स्थानपर एतद्रव्यमुपूजनं मम विभो: बना लेना चाहिये । साथ ही इसके द्वितीय चरणमें द्वितीय पद्यके द्वितीय चरण-जैसा जो व्यर्थका डैश (-) पड़ा हुआ है उसे निकाल कर पूर्वापर अक्षरोको मिला देना चाहिये और अन्तमें लेखकका नाम 'युगवीर' दे देना चाहिये । -प्रकाशक १ नं. १, ५, ६की टीकाएँ प्रकाशित होचुकी हैं नं० २की टीका भारतीयज्ञानपीठकाशीसे प्रकाशित हो रही है। नं. ३, ४की टीकाएँ और शेष सब ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित हैं। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवजातिके पतनका मूल कारण-संस्कृतिका मिथ्यादर्शन (प्रो. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, भारतीयज्ञानपीठ काशी) संस्कृतिके स्वरूपका मिथ्यादर्शन ही मानवजातिके पतनका मुख्य कारण है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। यह अपने आस-पासके मनुष्यों को प्रभावित करता है। बच्चा जब उत्पन्न होता है तो बहुत कम संस्कारोको लेकर आता है। उत्पत्तिकी बात जाने दीजिये। यह आत्मा जब एक देहको छोड़कर दूसरा शरीर धारण करनेके लिये किसी स्त्रीके गर्भमें पहुंचता है ता बहुत कम संस्कारोको लेकर जाता है। पूर्व पयायकी यावन् शक्तियाँ उसी पर्यायके साथ समाप्त हो जाती हैं कुछ सूक्ष्म संस्कार ही जन्मान्तर तक जाते हैं। उस समय उसका आत्मा सूक्ष्मकार्मण शरीरके साथ रहता है। वह जिस स्त्रीके गर्भमे पहुंचता है वहाँ प्राप्त वीर्यकरण और रजःकरणमे बने हुए कललपिण्डमें विकसित होने लगता है। जैसे संस्कार उस रजकरण और वीर्यकामे होगे उनके अनुसार तथा माताके आहार-विहार विचारोके अनुकुल वह बढ़ने लगता है। वह तो कोमल मोमके समान है जैसा मॉचा मिल जायगा वैसा ढल जावेगा। अत: उसका 66 प्रतिशत विकास उन माता-पिताके मंस्कारोके अनुसार होता है । यदि उनमे कोई शारीरिक या मानसिक बीमारी है तो वह बच्चेमे अवश्य श्राजायगी। जन्म लेनेके बाद वह माँ बापके शब्दोंको मुनता है उनकी क्रियाांका देखता है। श्रामपासके लागांके व्यवहारके संस्कार उसपर क्रमशः पड़ते जाते हैं। और वह संस्कारोका पिण्ड बन जाता है। एक ब्राह्मणम उत्पन्न बालकका जन्मने ही यदि मुसलमानके यहाँ पालनेको रख दिया जाय तो उसमें वैसे हो खान-पान, बोलचाल, आचार-विचारक संस्कार पड़ जायेगे। वहीं उल्टे हाथ धाना, अब्बाजान बालना, सलामदुआ करना, मांम ग्याना उसी मग्गेमे पानी पीना, उमासे टट्टा जाना आदि। यदि वह किसी भीड़यकी मॉदमे चला जाता है ना वह चौपायाकी तरह चलने लगता है । कपड़ा पहिनना भी उसे नहीं सुहाना, नाखूनसे दमगको नोचता है। शरीरके आकारकं मिवाय सारी बात भड़ियो जमा हो जाती है। यदि किमी चाण्डाल का बालक ब्राह्मणके यहाँ पले तो उसमे बहुत कुछ सस्कार प्राणोक आजायगे। हा, नी माह तक चागडालाक शगग्मे जो उममें सस्कार पड़ है व कभा कभी उदबुद्ध होकर उसके चाण्डालत्वका परिचय कग देते है । नात्पर्य यह कि मानवजातिकी नृतन पीढ़ी के लिये बहुत कुछ माँ बाप उत्तरदायी है। उनकी बुरी आदत, खांटे विचार उस नवान पीढ़ीमे अपना घर बना लेन है। श्राज जगनम मब चिल्ला रहे है संस्कृनिकी रक्षा करो संस्कृति डूबी सस्कृति डूबी उसे बचाया। इम सस्कृनिक नामपर उसके अजायबघरमै अनक प्रकारका बहूदी भरी हुई है। कल्पित ऊँचनीच भाव, अमुक प्रकारके आचार-विचार, रहनसहन, बोलनाचालना, उठनाबैठना आदि सभी शामिल है। इस तरह जब चारों प्रारमे मस्कृनि रक्षाकी आवाज श्रारही है और यह उचित भी है तो सबसे पहिले सस्कृतिकी परीक्षा हाना जरूरी है। कहीं मंस्कृतिक नामपर मानवजातिके विनाशक माधनका पापण तो नही किया जा रहा। ब्रिटेनमें अंग्रेज जाति यह प्रचार करती रही कि-गोरी जातिको ईश्वरने काली जातिपर शामन करने के लिये ही भूतलपर भेजा है और इमी कुमंस्कृतिका प्रचार कर वे भारतीयोपर शामन करने रहे। यह तो हम लोगाने उनके ईश्वरको बाध्य किया कि वह उनसे कह दे कि अब शासन करना छोड़ दा और उसने Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ [वष है बाध्य होकर छोड़ दिया। जर्मनीने अपने नवयुवकोंसे इस संस्कृतिका प्रचार किया कि जर्मन एक आर्य रक्त है। वह सर्वोत्तम है। वह यहूदियोंके विनाशके लिये है और जगतमें शासन करनेकी योग्यता उसीमें है। यह भाव प्रत्येक जर्मन युवकमें उत्पन्न किया गया। उसका परिणाम द्वितीय महायुद्धके रूपमें मानवजातिको भोगना पड़ा और ऐसी ही कुसंस्कृतियोंके प्रचार से तीसरे महायुद्धकी सामग्री इकट्ठी की जा रही है। भारतवर्षमे सहस्रो वषसे जातिगत उश्चता-नीचता छुआछूत दासीदास प्रथा स्त्रीको पद दलित करनेको संस्कृतिका प्रचार धमके ठेकेदारोने किया और भारतीय प्रजाके बहुभागको अस्पृश्य घोषित किया, खियोंको मात्र भोग विलासकी सामग्री बनाकर उन्हें पशुसे भी बदतर अवस्थामे पहुंचा दिया। रामायण जैसे धर्मग्रन्थमें "ढोलगॅवार शूद्र पशु नारी । ये सब ताइनके अधिकारी।" जैसी व्यवस्थाएँ दी गई और मानवजातिमें अनेक कल्पित भेदोंकी सृष्टि करके एकवर्गके शोषणको शासनको विलासका प्रोत्साहन दिया, उसे पुष्पका फल बताया और उसके उच्छिष्ट कणोसे अपनी जाषिका चलाई । नारी और शूद्र पशुके समान करार दिय गए और उन्हे ढालकी तरह ताड़नाका पात्र बताया। इस धर्म व्यवस्थाको अाज संस्कृतिके नामसे पुकारा जाता है जिस पुराहितवगकी धमसे आजीविका चलती है उनकी पूरी सेना इस संस्कृतिका प्रचारिका है। पशुआका ब्रह्माने यज्ञके लिये उत्पन्न किया है अतः ब्रह्माजाक नियमके अनुसार उन्ह यज्ञम झाका । जस गाका रक्षाके बहाने मुसलमानोको गालियाँ दी जाती है उन याज्ञिकाका यज्ञशालामे गामधयज्ञ धमके नामपर बराबर होते थे। अतिथि सत्कारके लिय इन्हे गायकी बांछयाका भतो बनानम काइ सङ्कोच नहीं था। कारण स्पष्ट था ब्राह्मण ब्रह्माका मुख है, धमशास्त्रकी रचना उसके हाथमें थी। इस वर्गके हितके लिये वे जो चाह लिख सकत है। उनने तो यहाँ तक लखनका साहस किया है कि-ब्रह्माजीने सृष्टिको उत्पन्न करके ब्राह्मणांको सौप दी थी अर्थात् ब्राह्मण इस सारी सृष्टिके ब्रह्माजासे नियुक्त स्वामी है। ब्राह्मणांका असावधानासे ही दूसरे लोग जगत्के पदार्थोक स्वामी बने हुए है। यदि ब्राह्मण किसाका मारकर भा उसका सम्पत्ति छीन लेता है तो वह अपनी ही वस्तु वापिस लेता है, उसका वह लूट सत्कार्य है वह उस व्यक्तिका उद्धार करता है। इन ब्रह्ममुखोने ऐसी ही स्वार्थ पोषण करनेवाला व्यवस्थाएं प्रचारित की। जिससे दूसरे लोग ब्राह्मणके प्रभुत्वको न भूले । गर्भसे लेकर मरण तक सैकड़ो संस्कार इनकी आजीविकाके लिये कायम हुए। मरणके बाद श्राद्ध वार्षिक वार्षिक आदि श्राद्ध इनकी जीविकाके आधार बने । प्राणियोके नैसर्गिक अधिकारीका अपने आधीन बनानेके श्राधारपर संस्कृतिके नामसे प्रचार होता रहा है। ऐसी दशामें इस संस्कृतिका सम्यग्दशन हुए बिना जगत्मे शान्ति और व्यक्तिकी मुक्ति कैसे हो सकती है। वर्ग विशेषका प्रभुताके लिये किया जानेवाला यह विषैला प्रचार ही मानवजातिक पतन और भारतका पराधानताका कारण हुआ। आज भारतमे स्वातन्त्र्योदय हानेपर भी वही जहरीली धारा संस्कृतिरक्षा के नामपर युवकोके कोमल मस्तिष्कोपर प्रवाहित करनेका पूरा प्रयत्न वही वर्ग कर रहा है। हिन्दीक रक्षा के पीछे वही भाव हैं। पुराने समयमे इस बगने संस्कृतको महना दी थी और संस्कृतके उच्चारणको पुण्य और दूसरी जनभाषा-अपभ्रंशके उच्चारणको पाप बताया था। नाटकोमें स्त्री और शूद्रोस अपभ्रंश या प्राकृत भाषाका बुलवाया जाना उसी भापाधारित उच्चनीच भावका प्रतीक है। आज संस्कृत निष्ठ हिन्दीका समर्थन करनेवालोका बड़ा भाग जनभाषाकी अवहेलनाके भावसे ओत-प्रोत है। अतः जबतक जगत्के प्रत्येक द्रव्यकी अधिकार सीमाका वास्तविक यथार्थ दर्शन न हो तब तक यह धाँधली चलती रहेगी। धर्मरक्षा, संस्कृति रक्षा, गौरक्षा, हिन्दीरक्षा, राष्ट्रीयस्वयंसेवकसंघ, धर्मसंघ आदि बड़े-बड़े आवरण हैं। जैनसंस्कृतिने आत्माके अधिकार और स्वरूपकी ओर ही सर्वप्रथम ध्यान दिलाया Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "किरण १२ ] [ ४७ और कहा कि इसका सम्यग्दर्शन हुए बिना बन्धन- मोक्ष नही हो सकता । उसकी स्पष्ट घोषणा है The L मानवजातिके पतनका मूल कारण संस्कृतिका मिथ्यादर्शन १. प्रत्येक आत्मा स्वतन्त्र है, उसका मात्र अपने विचार और अपनी क्रियाओं पर अधिकार है, वह अपने ही गुण-पर्यायका स्वामी है । अपने सुधार - बिगाड़का स्वयं जिम्मेदार है । २. कोई ऐसा ईश्वर नही जो जगतके अनन्त पदार्थोंपर अपना नैसर्गिक अधिकार रखता हो, उसका नियन्त्रण करता हो, पुण्य-पापका हिसाब रखता हो और स्वर्ग-नरकमें जीवोंको भेजता हो, सृष्टिका नियन्ता हो । ३. एक आत्माका दूसरी आत्मापर तथा जड द्रव्योंपर कोई स्वाभाविक अधिकार नही है । दूसरी आत्माको अपने आधीन बनानेकी चेष्टा ही अनधिकार चेष्टा है अतएव हिंसा और मिथ्या दृष्टि हैं । ४. दूसरी आत्माएँ अपने स्वयंके विचारोंसे यदि किसी एकको अपना नियन्ता लोकव्यवहार के लिये नियुक्त करती या चुनती है तो यह उन आत्मायांका अपना अधिकार हुआ न कि उस चुनेजानेवाले व्यक्तिका जन्मसिद्ध अधिकार | अतः सारी लोक-व्यवहारव्यवस्था सहयोगपर निर्भर है न कि जन्मजात अधिकारपर । ५. ब्राह्मण क्षत्रियादि वर्ण-व्यवस्था अपने गुण-कर्मके अनुसार है जन्म से नही । ६: गोत्र एक पर्याय में भी बदलता है, वह गुण-कर्मके अनुसार है । ७. परद्रव्यांका संग्रह और परिग्रह ममकार और अहङ्कारका हेतु होनेसे बन्धकारक है । ८. दूसरे द्रव्योंको अपने आधीन बनानेकी चेष्टा ही समस्त अशान्ति, दुःख, संघर्ष और हिसाका मूल है। जहाँ तक अचेतन पदार्थोंके परिग्रहका प्रश्न है यह छीनाझपटीका कारण होनेसे संक्लेशकारक है अतः देय है । ६. स्त्री हो या पुरुष धर्ममे उसे कोई रुकावट नहीं। यह जुदी बात है कि वह अपनी शारीरिक मर्यादाके अनुसार ही विकास कर सकती है । १०. किसी वर्गविशेषका जन्मजात कोई धर्मका ठेका नहीं है । प्रत्येक आत्मा धर्मका अधिकारी है। ऐसी कोई क्रिया धर्म नहीं हो सकती जिसमे प्राणिमात्रका अधिकार न हो । ११. भाषा भावोको दूसरे तक पहुंचानेका माध्यम है अतः जनताकी भाषा ही माय है । १२ . वर्ण, जाति, रङ्ग देश, आदिके कारण आत्माधिकार में भेद नहीं है ये सब शरीराश्रित है । १३. हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई आदि पन्थ-भेद भी आत्माधिकारके भेदक नहीं हैं । आदि । १४. वस्तु अनेक धर्मात्मक है उसका विचार आदि उदार दृष्टिसे होना चाहिये । सीधी बात तो यह है कि हमें एक ईश्वरवादी शासक संस्कृतिका प्रचार इष्ट नहीं है । हमें तो प्राणिमात्रको समुन्नत बनानेका अधिकार स्वीकार करने वाली सर्वसमभावी संस्कृतिका प्रचार करना है । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ अनेकान्त जबतक हम इस सर्वसमा संस्कृतिका प्रचार नहीं करेंगे तबतक जातिगत उचत्व नीचत्त्व, स्त्रीतुच्छत्व आदिके दृषित विचार पीढ़ी दर पीढ़ी मानव समाजको पतनकी ओर ले जायेंगे। अतः मानव समाजकी उन्नतिके लिये आवश्यक है कि संस्कृति और धर्म विषयक दर्शन स्पष्ट और सम्यक हों। उसका आधार सर्वभूतमैत्री हो न कि वर्गविशेषका प्रभुत्व या जातिविशेषका उञ्चत्व । इस तरह जब हम इस आध्यात्मिक संस्कृतिके विषयमें स्वयं सम्यग्दर्शन प्राप्त करेंगे तभी हम मानव जातिका विकास कर सकेंगे। अन्यथा यदि हमारी दृष्टि मिथ्या हुई तो हम तो पतित हैं ही अपनी सन्तान और मानव सन्तानका बड़ा भारी अहित उस विषाक्त सर्वकषा संस्कृतिका प्रचार करके करेंगे। अतः मानव समाजके पतनका मुख्य कारण मिथ्यादर्शन और उत्थानका मुख्य साधन सम्यग्दर्शन ही हो सकता है। जब हम स्वयं इन सर्वसमभावी उदार भावोंसे सुसंस्कृत होगे तो वही संस्कार रक्तद्वारा हमारी सन्तानमे तथा विचार-प्रचारद्वारा पास-पड़ोसके मानव सन्तानोंमें जायेंगे और इस तरह हम ऐसी नृतन पीढ़ीका निर्माण करने में समर्थ होगे जो अहिसक समाज-रचनाका आधार बनेगी। यही भारतभूमिकी विशेषता है जो इसने महावीर और बुद्ध जैसे श्रमण सन्तो द्वारा इस उदार आध्यात्मिकताका सन्देश जगतको दिया। आज विश्व भौतिक विषमतासे त्राहि त्राहि कर रहा है। जिनके हाथमें बाह्य साधनोकी सत्ता है अर्थात् आध्यात्मिक दृष्टिसे जो अत्यधिक अनधिकार चेष्टा कर परद्रव्योंको हस्तगत करनेके कारण मिथ्या दृष्टि और बन्धवान् है वे उस सत्ताका उपयोग दूसरी आत्माओंको कुचलने में करना चाहते है। और चाहते है कि संसारके अधिकसे अधिक पदार्थोंपर उनका अधिकार हो और इस लिप्साके कारण वे सघर्ष, हिंसा. अशान्ति, ईर्षा, युद्ध जैसी तामस भावनाओंका मर्जन कर विश्वको कलुषित कर रहे है। धन्य है इस भारतको जो इस बीसवीं सदीमे भी हिंसा बर्बरताके इस दानवयुगमें भी उसी आध्यात्मिक मानवताका सन्देश देनेके लिय गाँधी जैसे सन्तको उत्पन्न किया। पर हाय अभागे भारत, तर ही एक कपूतने, कपूतने नहीं, उस सर्वकपा संस्कृतिने जिसमे जातिगत उच्चत्व, नीचत्व आदि कुभाव पुष्ट हान रह है और जिसके नामपर कराडों धमर्जावी लागोकी श्राजीविका चलती है, उस मन्तके शरीरको गोलीका निशाना बनाया। गॉधीकी हत्या व्यक्तिकी हत्या नहीं है, यह तो उम अहिमक मर्वममा संस्कृतिके हृदयपर उम दानवी साम्प्रदायिक, हिन्दूकी आटमें हिंसक विद्वेषिणी संस्कृतिका प्रहार है। अस्तु, मानवजातिके विकास और समुत्थानके लिये हमे संस्कृति विषयक सम्यग्दर्शन प्राप्त करना ही होगा और आत्माधिकारका सम्यग्ज्ञान लाभ करके उसे जीवनमें उतारना होगा तभी हम बन्धनमुक्त हो सकेगे। स्वयं स्वतन्त्र रह सकेंगे और दूसरोंको स्वतन्त्र रहनेकी उच्चभूमिका तैयार कर सकेंगे। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पानगर (लेखक-श्यामलकिशोर झा) ऑल इण्डिया रेडियो, पटना का चौपाल कार्यकम अच्छा गिना जाता है जिसका यश श्रीयुत् राधाकृष्णप्रसादको मिलना चाहिये, इन्होंने "बिहारके ऐतिहासिक स्थान" शीर्षक व्याख्यानमालाका आयोजन किया था जिसमें प्रस्तुत भाषण भी पढ़ा गया था। हम रेडियोके सौजन्यसे इसे यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं। -मुनि कान्तिसागर बिहारका अतीत बड़ा ही गौरवशाली रहा है । महान अशोकका बिहार दुनिया के दो बड़े धर्मो-बौद्धधर्म और जैनधर्मका जन्मस्थान रहा है। प्रतापी चन्द्रगुप्तका पाटलिपुत्र, स्वतन्त्र लिच्छिवियोकी वैशाली, रामायणके प्रसिद्ध राजा रोमपादका अङ्ग, नालन्दा और विक्रम-शिलाके प्रसिद्ध विद्यापीठ, ये सब ऐतिहासिक बिहारके एतिहासिक स्थान रहे हैं। परन्तु, यहाँ हम प्राचीनकालमें चम्पा तथा आधुनिक समयके चम्पानगरकी बात करते हैं। चम्पा प्राचीन भारतको एक प्रसिद्ध राजधानी रही है। हिन्दुओंके प्रसिद्ध धर्मग्रन्थ रामायण और महाभारतमें चम्पाका उल्लेख आया है। वैदिक एवं पौराणिक ग्रन्थोंमे चम्पाका वर्णन किया गया है जिससे पता चलता है कि उस जमाने में चस्पाका एक विशिष्ट स्थान था। प्राचीन साहित्यमे चम्पा नामक नगरीकी अनेकता है। इसके नाम भी बहुतसे रहे है । जैसे, चम्पा, चम्पावती. चम्पापुरी तथा चम्पानगरी आदि । प्रसिद्ध यात्री हुएनसॉगके कथनानुसार चम्पा स्याम देशका ही नामान्तर है। इसके विपरीत कर्नल मार्कोपोलोने कम्बोडियाक अन्तर्गत टानक्रीन नामक प्रदेशको चम्पा बतलाया है। तीसरा मत स्वर्गीय डा० सर ओरलाटान महोदयका है जिन्होंने पंजाबके चम्बा स्टेट (रियासत)को ही पुरातन चम्पा बतलाया है। कम्ब्रिज विश्वविद्यालयद्वारा सम्पादित और मुद्रित "चेपाय जातक" मे लिखा है कि अङ्ग देश और मगध देशक मध्यमे जो चम्पा नदी वाला प्रदेश है वही चम्पा है। इसी तरह चम्पाक स्थान निर्णयपर और भी बहुतसे विद्वानोने बहुत-सी राये पेश की है। यहाँ हम जिस चम्पानगरीकी बात कर रहे है, वह भागलपुर शहरसे ४ मील पश्चिम है। रामायण, पुराण आदि धमग्रन्थोमे वणित चम्पानगरी कभी एक प्रादेशिक राजधानी थी. परन्तु आज वह भागलपुर शहरकी सिर्फ एक मुहल्लाके रूपमें जानी जाती है। इसका प्रारम्भिक नाम चम्पा तथा चम्पामालिनी रहा है। रामायणमे कहा गया है कि चम्प। 'रोमपाद' नामक अङ्ग देशके राजाकी राजधानी थी। रामपादने राजा दशरथकी पुत्री शान्ताको गोद ले लिया था और रामपादके पोते चम्पाके नामपर ही इस नगरीका नाम चम्पानगर पड़ा था। जैन अन्धोंके अनुसार इस नगरीका प्रतिष्ठापक श्रेणिकका पुत्र कोणिक या इतिहास प्रसिद्ध अजातशत्र था। हरिवंशपुराणमें भी चम्पाके १७ शासकोके नाम गिनाये गये है. परन्त उसमे अङ्गके प्रसिद्ध शासक पौरव' का नाम नहीं आया है। पौरव' के बारेमे कहा जाता है कि उसने एक लाख घोड़े, एक हजार हाथी, एक हजार गाय और एक लाख सानेके मुहर दान किये थे। पौराणिक कालके बाद बौद्ध धर्मग्रन्थोंमे भी अङ्गकी महत्ताका वर्णन किया गया है। उसके बादके ग्रन्थ 'दशकुमार चरित्र' और कादम्बरीमे भी चम्पाका नाम आया है। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ अनकान्त [ वर्षे आधनिक चम्पानगर जैनियोंका बडा तीर्थ-स्थान है। वहाँ के दो भव्य जैनमन्दिरों. को देखनेसे पता चलता है कि चम्पानगर बहुत प्राचीन समयसे ही जैनधर्मका केन्द्र रहा है। विद्वानोंके कथनानुसार जैनोके बारहवें तीर्थङ्कर वासुपूज्यने यहीं जन्म लिया था। उनके अलावा, कहा जाता है कि जैनियोंके बारहवें तीर्थङ्कर महावीर भी कुछ वर्षों तक यहाँ रहे थे। बारहवें तीर्थङ्कर वासुपूज्यका मन्दिर नाथनगर मुहल्ले में है, जो आज भी शहरसे अलग बसा हुआ है और जिसे देखकर मन्दिरकी प्राचीनताका सहज ही अनुमान किया जा सकता है। चम्पानगरमें जैनियोंका एक दूसरा मन्दिर भी है जिसके बारेमें कहा जाता है कि उसे महावीर तीर्थङ्करके प्रमुख शिष्य सुधर्मने बनवाया था। कहा जाता है कि जिस समय सुधर्म चम्पानगरीमें पधारे थे, वहाँ कोणिकका शासन था। राजा कोणिकने खुले पाँव नगरके बाहर आकर सुधर्मका स्वागत किया था। चम्पा बहुत वैभव सम्पन्न नगर था । वह व्यापारका एक बड़ा केन्द्र था। वहाँ चान्दो सौदागर नामक प्रसिद्ध ल्यापारीके रहनेका वर्णन भी मिलता है। चम्पानगरका एक दूसरा मुख्य स्थान कर्णगढ़ है। स्थान इतनी ऊँचाईपर है कि उसे देखकर ही यह कहा जा सकता है कि प्राचीन समयमे वहाँ अवश्य ही किसी प्रतापी राजाका विशाल किला होगा। कुछ लोगोंका कहना है कि यह स्थान महाभारतके प्रसिद्ध सेनापति दानवीर कर्णका वासस्थान था। परन्तु, इतिहासके कुछ अन्य पंडितोका कहना है कि चम्पानगरका यह कणगढ़ तथा मुंगेर जिलेका कण चम्पा नामक स्थान, कर्ण सुवणके राजा “कर्णसेन" के प्रतिष्ठापित है। इस बातका अभी तक निर्णय नहीं हो सका है। परन्तु, इतना अवश्य है कि यदि कर्णगढकी खुदाई की जाय तो शायद प्राचीन बिहारके गौरवगाथाका एक नया अध्याय भी धरतीके गर्भसे प्रकाशमें लाया जा सकता है। आज कर्णगढ़में सरकारी पुलिस के रङ्गरूटोको शिक्षा दी जाती है। कौन जाने, कभी वहाँ कर्णके रथके पहियो और घोड़ोंके टापोंकी आवाज़ बड़े-बड़े वीरोके दिल न हिला देती हो। आज हमारे देशकी अवस्था बदल चुकी है। इसीलिये जरूरत इस बातकी है कि धरतीके अन्दर दबे हुए प्राचीन विहारके इतिहासका उद्धार किया जाय । और यदि ऐसी कोई योजना बने तो उस समय चम्पानगरको भी भूलना न चाहिए। १ भगवान् महावीर जैनोके चौबीसवें तीर्थङ्कर थे, तीन चातुर्मास रहे थे । स० । २ इसका पुष्ट प्रमाण अपेक्षित है। सं०। ३ भगवान् महावीर जब चम्पा पधारे तब कोणिक राज्यऋद्धि सहित वन्दना करने आया था, औप पातिक सूत्रमे इस घटनाको यथावत् रूपसे अङ्कित किया गया है। स०। ४ बिहार सरकारके वर्तमान शिक्षामन्त्री इसके लिए चेष्टा तो करते हैं परन्तु इन दिनों वे और और समस्याअोमे बुरी तरह उलझे हुए हैं। अापने पोस्टवार स्कीममे खोज की भी एक स्कीम रखी है। सरकारी काम ठहरा, देखें कब तक इस योजनाको क्रियात्मक रूप मिलता है। स० । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय १-राष्ट्र-भाषापर जैन दृष्टिकोण स्वाधीन भारतके सम्मुख आज जितनी भी समस्याएँ समुपस्थित है, उनमें राष्ट्रभाषाकी भी एक ऐसी जटिल समस्या है जिसपर देशकी आम जनता एवं बुद्धिजीवियोंका दृष्टिबिन्दु केन्द्रित है। सभी वर्ग एक स्वरसे स्वीकार करते हैं कि अब हमारी भावी शिक्षा अंग्रेजीके माध्यम द्वारा न होकर हमारी ही राष्ट्र-भाषा द्वारा सम्पन्न हो । राष्ट्र-भाषा कैसी हो, क्या हो. और उसका स्वरूप किस प्रकारका होना चाहिए । यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनको लेकर देशमें तहलका-सा मचा हुआ है। जहॉतक राष्ट्र-भाषाका प्रश्न है वहाँपर जैसा वायु-मण्डल अभी है वह न होना चाहिए था। भिन्न-भिन्न विद्वानो द्वारा राष्ट्र-भाषाके भिन्न-भिन्न स्वरूप जनताके सामने समुपस्थित हैं। यूं तो कई मत राष्ट्र-भापाके सम्बन्धमें प्रतिदिन अभिव्यक्त होते हैं। परन्तु प्रधानतः इन्हीं दो पक्षोंमें वे सभी अन्तरमुक्त हो जाते हैं। एक पक्षका कहना है कि राष्ट्रभाषा वही हो सकती है जिसमे आर्यभापा संस्कृतके शब्दोकी बाहुल्यता हो। और वह देवनागरी लिपिमे ही लिखी जाय । उपयुक्त पक्षके समर्थकोंका अभिमत है कि हिन्दी की उत्पत्ति ही सस्कृत भापासे हुई है। दूसरा पक्ष कहता है कि राष्ट्र-भापाका स्वरूप ऐसा होना चाहिए कि जनता सरलतासे उसे बाल और समझ सके। इसमें अरबी, फारसी एवं अन्य प्रान्तीय भाषाओके शब्द भा अमुक संख्यामे रहें. और वह उदू तथा देवनागरी लिपिओमे लिखा जाय । भाषा और संस्कृतिका अभिन्न सम्बन्ध रहा है। किसी भी देशकी संस्कृति एवं सभ्यताके उन्नतिशील अमरतत्त्वांका संरक्षण उसकी प्रधान भाषा तथा परिपुष्ट माहित्यपर अवलम्बित है। उभय धाराओंका चिर विकाम राष्ट्र-भाषा द्वारा ही सम्भव है। भाषा भावोंको व्यक्त करनेका साधननात्र है। ऐसी स्थितिमे हमारा प्रधान कर्तव्य यह होना चाहिए कि हम अपनी राष्ट्र-भाषाका स्वरूप समुचित रूपसे निर्धारित कर ले । यूं तो सभी जानते हैं कि भाषा. का निर्माण राष्ट्रके कुछ नेता नहीं करते हैं। वह स्वयं बनती है। कलाकारों द्वारा उसे बल मिलता है। अन्ततः वह स्वयं परिष्कृत हाकर अपना स्थान बना लेती है। परन्तु हमार देशका दुर्भाग्य है कि राजनतिक पुरुप कई भाषाओक शब्दोके सहारे एक नवीनभाषा बलात् जनतापर लाद रह है, जा सर्वथा अप्राकृतिक अवैज्ञानिक एव अमाननीय है। वे लोग एक प्रकारस प्रत्यक विषयपर राय देनेके अभ्यस्त-से हो गए हैं। इसीलिये सांस्कृतिक शुभेच्छुक राष्ट्र-भाषाके सुनिश्चित स्वरूपपर गम्भोरतासे अपना ध्यान आकृष्ट किए हुए है, जिनका अधिकार भी है। जिस व्यक्तिका जिम विषयपर गम्भीर अध्ययन न हो उसे उस विषयपर बोलनेका कुछ अधिकार नहीं रहता। जयपुर कॉग्रेसमे हमारे माननीय नेताओ द्वारा राष्ट्र-भापा पर जो कुछ भी कहा गया है. उमसे सुख नहीं मिलता। देशको सांस्कृतिक दृष्टिसे जीवित रखनेवाले कलाकारांके हृदयापर गहरी चोट लगी है। राष्ट्र-भाषा निर्धारित करनेका कार्य नेतागण अपनी कार्य सूचीसे अलगकर दें तो बहुत अच्छा होगा । क्योकि उन्हें अपनी प्रतिभाको विकसित करनेके लिए पर्याप्त क्षेत्र मिला है। उदाहरणके लिए मान लीजिए (यदि यह है तो सवथा असम्भव) कि कहींकी ईट कहीका रोड़ा बाली कहावतके अनुमार एक Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमानवीय भाषा नेताओं द्वारा निर्मित होकर फाइलोंमें लिखकर रख भी दी पर इससे होगा क्या। जब कलाकार, लेखक और आम जनता उसका व्यवहार न करेगी, और वह करे भी क्यों ? क्योंकि उनके पास तो पैतृक सम्पत्तिके रूपमें एक भाषा और साहित्य मिले हैं। जिनके बलपर वे अपनी भावनाओंको समुचितरूपसे व्यक्त कर लेगे। जनता भी उसे आत्म-सात कर लेगी। यदि राष्ट्र-भाषा नियतरूपसे करनी ही तो उसका उत्तरदायित्व उन उच्चकोटिके साहित्य मर्मज्ञोपर डालना चाहिए जिनका जीवन भाषा-विज्ञान और साहित्यके विभिन्न तत्त्वोसे ओत-प्रोत हो। प्रथम पक्षका मन्तव्य है कि संस्कृतनिष्ठ हिन्दी राष्ट्र-भाषा इसीलिए होनी चाहिए कि वह संस्कृतकी पुत्री है। श्राजके प्रगतिशील युगमें इस प्रकारकी बातोंका क्या अर्थ हो सकता है। वैयक्तिकरूपसे हम स्वयं संस्कृतनिष्ठ हिन्दीके पक्षपाती है। परन्तु हमें इस समर्थनके पृष्ठ भागमे वैदिक मनोभावनाका आभास मिलता है। वह व्यापक हिन्दीको और भी संकुचित बना देगी। साम्प्रदायिकताका कद परिणाम कैसा होता है, यह लिखनेकी बात नही । सारा विश्व इसे भुगत चुका है। अरबी-फारसीके बेमेल शब्दोंको हिन्दीमें ठूसना हम पसन्द नहीं करते है। न अपनी रचनाओमें ही ऐसे शब्दोंका व्यवहार करते है। हिन्दीको संस्कृतकी पुत्री कहना न केवल उसे अपने बलसे अर्जित पदसे ही गिराना है। अपितु अपनी बुद्धिसे शत्रुता करना है। हिन्दी साहित्यका गम्भीर अध्ययन करनेसे यह स्पष्ट होजाता है कि इसका उद्गम संस्कृतसे नहीं अपितु प्राकृत, अपभ्रंश आदि प्रान्तीय भाषाओं द्वारा हुआ है। संस्कृत चाहे उतनी पुष्ट-भापा क्यों न रही हो, फिर भी वह एक सम्प्रदायकी भाषा है। जबकि हिन्दी एक सम्प्रदायकी भाषा कभी नहीं रही। वह मानव भाषा रही है हिन्दू-मुसलमान आदि सन्तोंने इसी भाषाके द्वारा मानव सिद्धान्तोंका प्रचार सारे भारतमे किया। सच कहा जाय तो सन्त संस्कृतिके उच्चतम विकासमें हिन्दीने जो योगदान दिया है, वह अभूतपूर्व है। सारे भारतको १८०० वर्षों तक सांस्कृतिक सूत्रमे यदि किसी भी भाषाने बाँध रक्खा है तो वह केवल हिन्दी ने ही । स्पष्ट कहा जाय तो भारतीय मस्तिष्ककी समस्त चिन्ताओका विकास उस हिन्दीके द्वारा हुश्रा। जिसके स्वरूप निर्धारणमे आज जितनी माथापच्ची नहीं करनी पड़ी थी। अतः संस्कृतके अतिरिक्त अन्य प्रान्तीय भाषाओके शब्द अपेक्षाकृत अधिक पाए जाते है। जो शब्द खप गए हैं, उनको चुन-चुनकर बाहर करना राष्ट्र-भाषाके भण्डारको क्षति पहुंचाना है। यह हो सकता है कि एक ही भाषा प्रत्येक समयमे दो रूपोमे रहती है। विद्वद्भाग्य और लोकभोग्य। दूसरे पक्षकी बातको कोई भी समझदार व्यक्ति स्वीकार नहीं कर सकता। हमारा निश्चित विश्वास है कि थोड़े-थोड़े कई भाषाओंके शब्द एकत्र करने के बाद जो भापा बनती है वह इतनी पंगु होती है कि बृहत्तर वैयक्तिक परिवारमे भी विबधित नही हो सकती। ऐसी स्थितिमें भारतीय सस्कृति एवं लोक जीवनका समुचित व्यक्तिकरण हो ही कैसे सकता है। हिन्दुस्तानीकी हवा जिन राजनैतिक एवं सामाजिक समस्याओंको लेकर बड़ी की गई थी अब वैसी परिस्थिति नही रही। जिनको लक्ष करके इसकी सृष्टि की गई उन्होने अपना क्षेत्र स्वयं बना लिया है। राष्ट्र-भाषाकी समस्या उलझी हुई तो है ही परन्तु आन्दोलनके चक्करमें डालकर न जाने और भी क्यों जटिल बनाया जाता है। भारतीय विद्वान-जिनके हृदयमें भाषा विषयक प्रश्नके पश्चात् भागमें किसी भी तरहका सांप्रदायिक तत्त्व काम न करते हों-यदि राष्ट्र-भाषाके सम्बन्धमें जैन दृष्टिकोणको समझ लें तो समस्या बहुत कुछ अंशोंमें बिना किसी भी बासको सरलता पूर्वक समझाई जा सकती है। भारतीय भाषा और साहित्यके संरक्षणमें Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १२ [४८५ जैनाचार्योंने बहुत बड़ा योगदान दिया है। उनके सामने आदर्श था भगवान महावीरका । जिसमें अपनी विचार धाराका निर्मल प्रवाह तत्कालीन प्रान्तीय भाषा द्वारा बहाया था। भगवान बुद्धके उपदेश भी इस बातके प्रमाण हैं। जैन विद्वान संस्कृत आदि विद्वद्भोग्य भाषाओं में ग्रन्थ निर्माण करके ही चुप नहीं रहे हैं। उन्होने विभिन्न प्रान्तोमें रहकर प्रत्येक शताब्दियोंमें लोक भोग्य साहित्यकी सरिता बहाकर तत्कालीन लोक संस्कृतिको श्रालोकित किया। लौकिक भाषामें संस्कृतके प्रकाण्ड पण्डितोने रचना करना अपना अपमान समझा इससे वे एकाङ्गी साहित्य निर्माता ही रह गये । जिन जीवोकी गहराई तक वे न पहुंच सके। जब कि जैनाचार्योके सम्मुख सबसे बड़ी समस्या थी जनता की। वे जनताको दर्शन, एवं साहित्यक उच्चकोटिके तत्त्वोंका परिज्ञान सरल और बोधगम्य भाषामें कराना चाहते थे। इस कायमें वे काफी सफल रहे । इसका अर्थ यह नहीं कि वे विद्वद्रोग्य साहित्य निर्माणमें पश्चात् याद रहे। आज हम किसी भी प्रान्तके लोक साहित्यको उठा कर देखेंगे तो पता चलेगा कि प्रत्येक प्रान्तकी जनभाषाओके विकासमें भी जैनोंने साहित्य निर्माणमे कितना असांप्रदायिकतासे काम लिया है जब जिस भाषाका प्रभुत्व रहा उसीकी साधनामे वे तल्लीन रहे हैं। कारण कि जब संस्कृतिके नैतिक उत्थानकी भावनाओसे उनका हृदय ओत-प्रोत था। ऊपर हम लिख आए है कि हिन्दी भाव और भाषाकी दृष्टिसे अपभ्रंशकी पुत्री है अपभ्रंशका साहित्य जो कुछ भी आज भारतमे प्राप्त होता है, वह जैनांकी बहुत बड़ी देन है। भाव स्वातन्त्र इमकी बहुत बड़ी विशेषता है। राहुलजीके शब्दोमें "अपभ्रशके कवियोंका विस्मरण करना हमारे लिए हानिकी वस्तु है। यही कमी हिन्दी काव्यधाराके प्रथम स्रष्टा थे। वे अश्वघोष, भास, कालिदास और बागकी सिर्फ नूठी पत्तलें नही चाटते रहे । बल्कि उन्होंने एक योग्य पुत्रकी तरह हमारे काव्य-क्षेत्रमें नया सृजन किया है। नये चमत्कार नए भाव पैदा किए हैं। हमारे विद्यापति, कबीर, सूर, जायसी, और तुलसीके यही उज्जीवक और प्रथम प्रेरक रहे है। उन्हें छोड़ देनसे बीचके कालममे हमारी बहुत हानि हुई और आज भी उसकी सम्भावना है। - जैनोंने अपभ्रंश साहित्यकी रचना और उसकी सुरक्षामें सबसे अधिक काम किया है।" १३ तेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंशमें प्रौढत्व रहा। बादमे वही अपभ्रंश क्रमशः विकसित होते होते प्रान्तीय भाषाओके रूपमें परिणित हो गई। एक समय वह जनताकी भाषा थी ज्यो-ज्या उच्चकोटिके कलाकारो द्वारा समाहत होती गई त्या-त्यो वह विद्वद्भाग्य साहित्यकी प्रधान भाषा बन गई। अपभ्रंश भाषाका शब्द भण्डार विस्तृत है और बहुत कुछ अंशोमें वह संस्कृतकी अपेक्षा प्राकृतका अनुधारण करता है। अतः बिना किसी हिचकसे कहा जा सकता है. कि हिन्दीका उत्पत्ति स्थान अपभ्रंश है। जो परिवर्तनशील भाषा रही थी। दःख इस बातका है कि हिन्दी साहित्यके मर्मज्ञ विद्वान जैनोके इस विशाल अपभ्रश साहित्यसे एकदम परिचित नहीं है। यही कारण है कि आज राष्ट्र-भाषाकी समस्या उलझी हुई है। हिन्दी, गुजराती, मराठी, तामिल, कन्नड़ और राजस्थानी आदि सभी प्रान्तीय भाषाप्रोमे जैनोने न केवल भगवान महावीर' द्वारा प्रचारित मानव संस्कृति और सभ्यताके उच्चतम अमर तत्वोका सुबोध भाषामें गुम्फन किया अपितु तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, रीतिरिवाज एवं आध्यात्मिक तत्त्वोकी ओर भी सङ्केतकर जनताके नैतिक स्तरका ऊंचा उठाने का प्रयास किया है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रान्तमे जब कभी जिस भाषाका प्रभुत्व रहा उसीके माध्यम द्वारा जैनोंने अपने विचार जनताके समक्ष रक्खे हैं। 'प्रान्तीय' जानतिक Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ L वर्ष ह भाषाओं में साहित्यिक रचना करनेमें जो अपनेको अपमानित समझते थे वे पूँजीपति या एक वर्गविशेषके ही कलाकार रह गए हैं। जबकि जैनी जनताके पथ-प्रदर्शक के रूपमें रहे हैं। भाषाविषयक जैनोंके औदार्यपूर्ण आदर्शको श्राजके साहित्यिक यदि मान लें और राष्ट्र भाषाकी समस्या जनतापर छोड़ दें तो मार्ग बहुत सुगम हो जायेगा। यदि हमारे देशी शब्दोंसे ही समुचितरूपसे भावोका व्यक्तीकरण हो जाता है तब यह कोई आवश्यक नहीं है कि विदेशी शब्दों को चुन-चुनकर राष्ट्र-भाषामे ठूसें । जैन दृष्टिकोण राष्ट्र-भाषापर इतना अवश्य कहेगा कि हिन्दी उस राष्ट्रकी भाषा होने जारही है, जिसकी संस्कृतिमें विभिन्न सस्कृतियों और भाषाओं का समन्वयात्मक प्रयास वर्षोंसे चला आ रहा है। कई जातियोका यह महादेश है । उसपर यह सिद्धान्त कैसे लादा जा सकता है कि राष्ट्र-भाषामे अमुक भाषाके शब्द अधिक रहें | वैयक्तिकरूपसे हम भले ही संस्कृतनिष्ठ हिन्दीका व्यवहार करें । परन्तु भाषाका प्रश्न व्यष्टिसे न होकर समष्टिसे है । भाषाका प्रवाह शताब्दियोंसे जिस रूपसे चला आ रहा था उसीको कुछ परिवर्तितरूपमें क्यों नहीं बहने दिया जाता ? साहित्यिक भले ही कठिनतर शब्दोका प्रयोग करें, परन्तु अशिक्षित या अल्पशिक्षा प्राप्त मानवोंसे वे ऐसी आशा क्यो कर रहे हैं ? राष्ट्र-भाषा न बनारसी हिन्दी हो सकती है न लाहोरी उर्दू ही । किसी भी प्रान्तकी शब्दावलियोंसे प्रचलित शब्दोको यदि हम अपनी वर्तमान हिन्दीमे पचा लेते है तो बुरा ही क्या है ? क्योकि हिन्दी जीवित भाषा है मृत नहीं। जबतक जीवन है तबतक परिवर्तन होते ही रहेंगे। परिवतनशीलता के सिद्धान्नसे जितनी भी बचानेकी चेष्टा की जाएगी उतनी ही हमें हानि उठानी पड़ेगी । अतः संक्षिप्तमें जैन दृष्टिकोणका यही सारांश है कि राष्ट्र-भाषा हिन्दी सरलसुबोध होनी चाहिए। साथ ही साथ इस बातका ध्यान रक्खा जाय कि इसमें जहाँतक हो सके उन्हीं भाषाओंके शब्दोको बाहुल्यता रहे जिनमे आर्य संस्कृतिका समुचित व्यक्तीकरण सरलता पूर्वक हो सके। यह कोरा आदर्श ही नहीं है, अपितु शताब्दियों तक अनुभवकी वस्तु रहा है । डालमियानगर, ता० २१-१-४६ ई० मुनिका तिसागर २- अनेकान्तकी वर्ष - समाप्ति और अगला वर्ष 1 इस संयुक्त किरण (११, १२ ) के साथ अनेकान्तका नवमा वर्ष समाप्त हो रहा है। इस वर्ष में अनेकान्तने अपने पाठकोकी कितनी और क्या कुछ सेवा की उसे यहाँ बतलाने की जरूरत नहीं—वह उसके गुणग्राही पाठकोपर प्रकट है। हॉ. इतना जरूर कहना होगा कि इस वर्ष यदि कोई विशेष सेवाकार्य हो सका है तो उसका श्रेय सहयोगी सम्पादको और खासकर भाई अयोध्याप्रसादजी गोयलीय मन्त्री भारतीयज्ञानपीठकाशी' को प्राप्त है— उन्हीकी सुव्यवस्थाका वह फल है, और जो कुछ त्रुटि रही है वह सब मेरी है— मेरी अयोग्यताको ही उसका एकमात्र जिम्मेदार समझना चाहिये । मै यहॉपर जो कुछ बतलाना चाहता हूँ वह प्रायः इतना ही है कि अनेकान्त के आठवे व की समाप्तिपर, जिसका कार्यकाल १२की जगह २४ महीने का होगया था, मेरे सामने पत्रको बन्द करनेकी समस्या उपस्थित हो रही थी; क्योंकि प्रेसोंके आश्वासन - भङ्ग और गैजिम्मेदाराना रवैये आदिके कारण मैं बहुत त आगया था, मेरा दिल टूट गया था और मैं प्रेसको समुचित व्यवस्था न होने तक पत्रको बन्द करना ही चाहता था कि प० अजितकुमारजी शास्त्रीने, जो अपना अकलङ्क प्रेस' मुलतानसे सहारनपुर ले आए थे, मुझे वैसा करनेसे रोका और पूरी दृढ़ताके साथ अनेकान्तको अपने प्रेसमे बराबर समयपर छापकर देनेका वचन तथा आश्वासन दिया । तदनुसार ही अनेकान्तको अगले वर्ष निकालनेका संकल्प किया गया और उसकी सूचना 'सम्पादकीय Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १२ सम्पादकीय ४८७ वक्तव्य' में प्रकट कर दी गई। इसके बाद श्रीगोयलीयजी मुझसे मिले और उन्होंने भारतीयज्ञानपीठके साथ अनेकान्तका सम्बन्ध जोड़कर और उसके प्रकाशन, सञ्चालन एवं आर्थिक आयोजनकी सारी जिम्मेदारी को अपने ऊपर लेकर मुझे और भी निराकुल करनेका आश्वासन दिया | चुनाँचे हवें वर्षकी प्रथम किरणके शुरूमें है। मैंने अनेकान्तकी इस नई व्यवस्थादिको प्रकट करते हुए उसपर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की और उसीके आधारपर अनेकान्तके पाठकोंको यह आश्वासन दिया कि 'अब पत्र बराबर समयपर ( हर महीनेके अन्तमें) प्रकाशित हुआ करेगा ।' मुश्किल से दो किरण निकाल कर ही पं० अजितकुमारजी शास्त्री अपने प्रेसको देहली उठाकर ले गये और उन्होंने अपने दिये हुए सारे वचन तथा आश्वासनपर पानी फेर दिया ! मजबूर होकर अनेकान्तको फिरसे चार्ज बढ़ाकर रॉयल प्रेसकी शरण में ले जाना पड़ा, जो सहारनपुर में सबसे अधिक जिम्मेदार पोस समझा जाता है । परन्तु प्र समें उपयुक्त टाइपोंकी कमी के कारण प्रायः हर चार पेजके प्रफके पीछे एक विद्वानको प्रफरीडिङ्गके लिये सहारनपुर जाना आना पड़ा है, जिससे पत्रको समयपर निकाला जा सके जिसकी गोयलीयजी की ओर से सख्त ताकीद थी और इस तरह एक एक फार्मके पीछे कितना ही फालतू खर्च करना पड़ा है और दाबारा भी प्रसका चार्ज बढ़ाना पड़ा है; फिर भी पत्र समयपर प्रकाशित न हो सका और यह किरण ३-४ महीनेके विलम्बसे प्रकाशित हो रही है । गोयलीयजीको इस सारी स्थितिसे बराबर अवगत रक्खा गया है और अनेक बार यह प्रार्थना तथा प्रेरणा की गई है कि वे अनेकान्तकी छपाईकी सुव्यवस्था इलाहाबाद के प्रस अथवा बनारसक किसी अच्छे प्र ेसम करें, परन्तु हरबार उन्होने इस ओर प्रकरण का - कभीकभा लाजर्ननल प्र ेसके अधिक चार्ज और वहाँ ठीक व्यवस्था न बन सकनेकी बात भी कही, और इसलिये यह समझा गया कि आप अनेकान्तका समयपर सुन्दररूपमें प्रकाशित होना तो देखना चाहते हैं किन्तु किन्हीं कारणोके वश व्यवस्थाका भार अपने ऊपर लेकर भी, उसके लिये योग्य प्रसादिका व्यवस्था करनेमें योग देना नहीं चाहते। इसीस अन्तको विलम्बकी शिकायत होनेपर इधर से उस विषयमें अपनी मजबूरी ही जाहिर करना पड़ा । आठवें वर्षकी किरणें जब एक वर्षकी जगह दो वर्ष में प्रकाशित हो पाई थी और पाठकोको प्रतीक्षाजन्य बहुत कष्ट उठाना पड़ा था तब उनका विश्वास अनेकान्त के समयपर प्रकाशित होनेके विषय मे प्रायः उठ गया था और इसलिये उनका आगेके लिये ग्राहक न रहना बहुत कुछ स्वाभाविक था; चुनाँचे तीसरी किरण जब वी० पी० की गई तब लगभग आधे ग्राहको की वी० पी० वापिस हो गई। इधर पत्र मे फिरसे विलम्ब शुरू हो गया और उसमे सचालन विभागकी ओर से चित्रो आदिका कोई आयोजन नहीं हो सका, जो आजकल के पत्रांकी एक खास विशेषता है। इससे नये ग्राहकोको यथेष्ट प्रोत्साहन नहीं मिला और उधर छपाई तथा कागज आदिके चार्ज बढ़ गये । पत्रको सहायता भी कम प्राप्त हुई । इन्ही सब कारणांसे अनेकान्तको इस वर्ष काफी घाटा उठाना पड़ा है, जिसका मुझे खेद है । 1 कुछ दिन हुए न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने अपने एक पत्रमें यह सूचना की कि अनेकान्तको समयपर प्रकाशित करनेके लिये बनारस मे प्रसकी अच्छी योजना हा सकती : । तदनुसार गोयलीयजीको उसकी सूचना देते हुए फिरसे बनारस में ही छपाईकी याजना करनेका प्ररेणा की गई; परन्तु उन्होंने उत्तर में डालमियानगर से भेजे हुए अपने तीन माचके पत्र में यह लिखा कि बनारसमे भी छपाईकी अच्छी व्यवस्था नहीं है। ज्ञानपीठका प्रकाशन जिस Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८९ विषह धीमी रफ्तारसे होरहा है, उससे मुझे 'अनेकान्त' बनारससे प्रकाशित करनेकी तनिक भी हिम्मत नहीं होती।" इसे पढ़कर हृदयमें उदित हुई आशापर फिरसे तुषारपात हो गया और मैं यही सोचने लगा कि यदि गोयलीयजीने प्रेसकी कोई समुचित व्यवस्था न की तो मुझे अब वीरसेवामन्दिरकी ओरसे एक स्वतन्त्र प्रेस खड़ा करना ही होगा, जिसकी उसके तय्यार ग्रन्थोंके प्रकाशनार्थ भी एक बहुत बड़ी पारूरत दरपेश है और इसलिये इस किरणमें प्रेसकी व्यवस्था तक कुछ महीनोंके लिये अनेकान्तको बन्द रखनेकी सूचना कर देनी होगी। परन्तु पाठकोंको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि डालमियानगरसे बनारस जानेपर गोयलीयजीका विचार बदल गया और उनमें मुनिकान्तिसागरजी आदिकी प्रेरणाको पाकर उस हिम्मतका संचार हो गया जिसे वे अपनेमें खोए हुए थे और इसलिय अब वे बनारससे 'अनेकान्त'को प्रकाशित करनेके लिये तत्पर होगये है; जैसा कि इसी किरणमें अन्यत्र प्रकाशित उनके "प्रकाशकीय वक्तव्य'से प्रकट है। वक्तव्यके अनुसार अब 'अनेकान्त' बिलकुल ठीक समयपर निकला करेगा, सुन्दर तथा कलापूर्ण बनेगा, बहुश्रुत विद्वानोसे लेखोंके माँगनेके लिये मुंह खोलनेमें किसीको कोई संकोच नहीं होगा, जैनेतर विद्वानोके लेखोंसे भी पत्र अलंकृत रहेगा और उनके लेखोंको प्राप्त करनेमें आत्मग्लानि तथा हिचकचाटका कोई प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होगा-ज्ञानपीठ उसके पीछे जो भी व्यय होगा उसे उठानेके लिये प्रस्तुत है। और इसलिये 'अनेकान्त' आगेको घाटेमें न चलकर दूसरे पत्रोकी तरह लाभमें ही चलेगा, उसके हितैषियोकी संख्या भी आवश्यकतासे अधिक बढ़ जायगी और फिर गोयलीयजीको अपने विद्वानोका "प्रेसमें जूतियाँ चटकाते फिरना" भी नही खटकेगा अथवा उसका अवसर ही न आएगा। संक्षेपमें अबतक जो कुछ कमी अथवा त्रुटि रही है वह सब पूरी की जायगी। इससे अधिक ग्राहको तथा पाठकों आदिको और क्या आश्वासन चाहिये ? मुझे गायलीयजीके इन दृढ़ सङ्कल्पाको मालूम करके बड़ी प्रसन्नता हुई। हार्दिक भावना है कि उन्हें अपने इन सङ्कल्पोको पूरा का नं पूर्ण सफलताकी प्राप्ति होवे ओर मुझे अपने प्रिय 'अनेकान्त'को अधिक उन्नत अवस्थामें देखनेका शुभ अवसर मिले। अन्तमे मै इस वपके अपने सभी विद्वान लेखकों और सहायक सज्जनांका आभार व्यक्त करता हुआ उन्हे हृदयसे धन्यवाद देता हूँ और इस वर्षके सम्पादन-कार्यमे मुझसे जो कोई भूलें हुई हो अथवा सम्पादकीय कर्तव्यके अनुरोधवश किये गये मेरे किसी कार्य-व्यवहार से या स्वतन्त्र लेखसे किसी भाईका कुछ कष्ठ पहुँचा हो तो उसके लिय मै हृदयसे क्षमाप्रार्थी हूँ, क्योकि मेरा लक्ष्य जानबूझकर किसीको भा व्यथ कष्ट पहुंचानेका नही रहा है और न सम्पादकीय कर्तव्यमे उपेक्षा धारण करना ही मुझ कभी इष्ट रहा है। साथ ही, यह भी निवेदन कर देना चाहता हूँ कि अगले वर्ष मै पाठकांकी सेवामें कम ही उपस्थित हो सकूगा; क्योकि अधिक परिश्रम तथा वृद्धावस्थाके कारण मेरा स्वास्थ्य कुछ दिनोसे बराबर गड़बड़में चल रहा है और मुझे काफी विश्रामके लिये परामर्श दिया जा रहा है। वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता. २५-३-१६४६ जुगलकिशोर मुख्तार सर सेठ साहबका विवाहोत्सवपर अनुकरणीय दान अनेक पदविभूषित सर सेठ हुकुमचन्दजी इन्दौरके शुभ नामसे समाजका बच्चा २ परिचित है। राष्ट्र, समाज और धर्मके क्षेत्रमें आपके द्वारा प्रारम्भसे ही अनेक उल्लेखनीय सेवाएँ हुई हैं और आज भी होरही है। समाजके आह्वानपर आप सदा उसकी सेवाके लिये आगे खड़े मिलते हैं। उनकी दानवीरता, विनम्रता और सहानुभूति तो अतुलनीय हैं। और इन्हीं गुणोंके कारण वे आजकी स्थितिमें भी, जब पूँजी और अपूँजीका संघर्ष चालू है, Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय वक्तव्य वर्षके प्रारम्भमें 'अनेकान्त'के रूपमें परिवर्तन करने और उसमें प्रगति लानेके लिये श्रद्धेय पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठिया, पं० परमानन्दजी शास्त्री और मेरी वीरसेवामन्दिरमें एक बैठक की गई थी। इस बैठकमें काफी ऊहापोहके बाद सम्पादक मण्डलका निमाण किया गया था और उसमें अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त श्रद्धास्पद मुनि कान्तिसागरजीको भी सम्मिलित किया गया था तथा मेरी और पं० दरबारीलालजी कोठियाकी सेवायें भी स्वीकृत की गई थीं। हर्ष है कि मुनि कान्तिसागरजीने भ्रमणमें रहते हुए भी अपना पूर्ण सहयोग प्रदान किया। आन्तरिक अभिलाषा थी कि 'अनेकान्त'को जिस तरह हम देहलीसे प्रारम्भमे तीन वर्षोंसे प्रकाशित करते रहे हैं उसी तरहसे वह नियमितरूपमें निकलता रहे । लेकिन सहारनपुरके अच्छेसे अच्छे और जिम्मेदारसे जिम्मेदार प्रेससे मनमाने दामोंपर कण्ट्रेक्ट करनेपर भी न 'अनेकान्त' समयपर निकाल सके और न उसे सुन्दर ही बना सके। और इसी आत्मग्लानिके कारण हम जैनेतर विद्वानोसे लेख मॉगनेमें भी हिचकिचाते रहे। श्रद्धेय मुनिजीका विचार है कि 'अनेकान्त'का प्रकाशन बनारससे हो, जिससे प्रेसादि सम्बन्धी बहुत कुछ असुविधाओसे बचा जा सकेगा तथा जैनेतर विद्वानोके लेखोंसे भी उसे अलंकृत किया जा सकेगा। इसके लिय जो व्यय होगा ज्ञानपीठ उसको उठानेके लिये प्रस्तुत है। इस वर्षमे ज्ञानपीठने 'अनेकान्त'को काफी घाटेमें प्रकाशित किया है, जबकि आज हिन्दीके पत्र-पत्रिकाएँ लाभमे चल रही है तब जैनसमाज-जैसे सम्पन्न समुदायका पत्र यूँ रिं रि करके प्रकाशित हा, हमार सब उत्साहपर पानी फर देता है। समझमें नहीं आता कि हम किस मुंहसे बहुश्रुत विद्वानांसे लेख माँगे और प्रेसमे जूतियों चटकातं फिरें। खैर इसमे दोष हम अपना ही समझत है। जैसी पाठ्यसामग्री चाहिए वैसी उन्हें नहीं दे पाये और कलापूर्ण प्रकाशन भी नहीं कर पाय । हमारा विश्वास है कि हम काश : एसा करत तो अनेकान्तक हितैषियोको सख्या आवश्यकतासे अधिक बढ़ती और अनेकान्त और भी ज्यादा लोकप्रिय होता। हम अब आगामी वर्ष इस कमीका भी पूरा करनेका प्रयत्न करेगे। और अनेकान्तके निम्न स्थायी स्तम्भ जारी रखेंगे १-कथाकहानी, २-स्मृतिकी रेखाएँ, ३-कार्यकताओके पत्र, ४-गौरवगाथा, ५-हमारे पराक्रमी पूर्वज, ६-पुरानी बातोंकी खोज, ७-सुभाषित, ८-शङ्कासमाधान और ह-सम्पादकीय। अयोध्याप्रसाद गोयलीय मन्त्री 'भारतीय ज्ञानपीठ' काशी। लोक-प्रिय बने हुए हैं और लोक-हृदयोमे विशिष्ट आदरको प्राप्त है। निःसन्देह यह सद्भाग्य उनकी सेवाओका प्रतिरूप है, जो कम लोगोंको प्राप्त होता है। गत फरवरीमे आपके पौत्रका देहलीमे विवाह था, जो कहते हैं देहलोके ज्ञात इतिहासमे अभूतपूर्व था, उसके उपलक्षमे आपने छयालास हजार ४६०००)का अनुकरणीय दान किया है। पञ्चीस हज़ार देहलीकी विभिन्न संस्थाओके लिये और इक्कीस हजार समाजकी विविध संस्थाओंके लिये दिये गये हैं। जहॉतक हमे ज्ञात है. विवाहात्सवपर इतना बड़ा दान समाजमें पहला दान है। हमारे यहाँ विवाइके दूसर मदोंमे तो बड़ा खर्च किया जाता है पर दानमें बहुत कम निकाला जाता है। यदि समाज फिजूलखर्चीको घटाकर इस दिशामे गति करे तो विवाह एक बोझा मालूम न पड़ेगा और सामाजिक संस्थाएँ भी समृद्धि तथा समुन्नत होंगी। सरसेठ साहबने उक्त दानमेंसे दोसौ एक २०१) रुपये वीरसेवामन्दिरकी सहायतार्थ भी भिजवाये हैं जिसके लिये वे धन्यवादके पात्र है। -दरबारीलाल जैन, कोठिया Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीसरोजिनी नायडूका वियोग ! १ मार्च १९४६को रात्रिके ३॥ बजे हमारे प्रान्तकी गवर्नर श्रीसरोजिनी नायडूका हृदयकी गति रुक जानेसे सदाके लिये दुखद वियोग हो गया! आप स्वतन्त्रभारतमें युक्तप्रान्तकी प्रथम गवर्नर थीं। भारतीय और विश्वकी महिलासमाजके लिये यह गौरवकी बात है। राष्ट्रके स्वतन्त्रता-संग्राममें श्राप सदा गाँधीजीके साथ रहीं और अनेकों बार जेल गई। भारतके लिये आपकी सेवाएँ अद्भुत हैं। विश्वमें आप अपनी विख्यात कविताओं और मधुर एवं प्रतिभाशालिनी वक्तृताओंके कारण भारतकोकिला या बुलबुले हिन्दके नामसे मशहूर थीं। आपके वियोगमें सारे भारतने शोक प्रकट किया और ११ मार्चको सर्वत्र मातम मनाया गया। श्रापके स्थानकी शीघ्र पूर्ति होना कठिन जान पड़ता है। देशकी ऐसी विभूतिके प्रति वीरसेवामन्दिर परिवार अपनी शोक श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता है और परलोकमें सद्गति एवं सुख शान्तिकी भावना प्रकट करता है। एक समाजसेवकका निधन ! गत माघ कृष्णा २ सं० २००५को प्रसिद्ध समाजसेवी मास्टर मोतीलालजी संघी जयपुरका शोकजनक देहावसान हो गया ! मास्टर साहब एक निःस्वार्थसेवी और कर्मठ व्यक्ति थे। सहानुभूति और दयासे उनका हृदय भरा हुआ था। उनका सारा जीवन गरीबोंकी मदद करने, असहाय विद्यार्थियोकी सहायता करने और घरघर ज्ञान-प्रचार करने में बीता। उनका कोई ३० हजार पुस्तकोका पुस्तकालय, जिसे उन्होने १९२०मे स्थापित किया और जिसके द्वारा अपने जीवनकालमें २६ वर्ष तक जनताकी सेवा की. जयपुरके पुस्तकालयोंमें अच्छा और उल्लेखनीय माना जाता है। जयपुरके शास्त्रभएडारोसे हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सुप्राप्ति प्रायः मास्टर साहबके प्रयत्नांसे ही होती थी। उन्हें इस बातकी बड़ी इच्छा रहती थी कि अप्रकाशित ग्रन्थोका प्रकाशन हो और वे जनता तक पहुँचें। वीरसेवामन्दिर और उसके साहित्यिक कार्योंके प्रति उनका विशेष प्रेम था। विद्वानोके सहयोग सत्कारके लिये उनका हृदय सदा खुला रहता था। वे जयपुरकी ही नहीं, सारे समाजकी एक श्रेष्ठ विभूति थे। उनके निधनसे समाजका एक परखा हुआ और सच्ची लगनवाला सेवक उठ गया ! स्वर्गीय आत्माके लिये वीरसेवामन्दिर परिवार सद्गति एवं शान्तिकी कामना करना हुआ उनके कुटुम्बी जनाके प्रति हार्दिक समवेदना व्यक्त करता है। क्या ही अच्छा हो, मास्टर साहबके अमर स्मारक पुस्तकालयको समाज सुस्थिर और अमर बना दे। लाला रूढामलजी सहारनपुरका देहावसान ! सहारनपुरके लाला नारायणदास रूढामलजी जैन शामियानेवालोंका गत १९ फरवरी १९४९को देहावसान हो गया । आप बड़े हो सज्जन और धार्मिक थे। सबसे बड़े प्रेमसे मिलते थे । वीरसेवामन्दिर और उसके कार्योंसे विशेष प्रेम रखते थे। हम स्वर्गीय आत्माके लिये शान्तिको कामना और कुटुम्बी जनोंके प्रति समवेदना प्रकट करते हैं। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BAD REE PRE APER Me NHANIAMATALPA ॐ अहम् अनेकान्त सत्य-शान्ति और लोकहितके सन्देशका पत्र नीति-विज्ञान-दर्शन-इतिहास-साहित्य-कला और समाजशास्त्रके प्रौढ विचारोसे परिपूर्ण मासिक नवम वर्ष पौषसे मार्गशीर्ष, वीर निर्माण संपत् २४७४-७५ ORASURALA DRESURSURINO सम्पादक-मण्डल जुगलकिशोर मुख्तार (प्रधान सम्पादक) मुनि कान्तिसागर दरबारीलाल कोठिया न्यायाचार्य अयोध्याप्रसाद गोपलीय, डालमियानगर संचालक-व्यवस्थापक संस्थापक-प्रवर्तक वीरसेवामन्दिर, सरसावा भारतीयज्ञानपीठ, काशी प्रकाशक परमानन्द जैन शास्त्री वीरसेवामन्दिर, सरसावा जि. सहारनपुर मार्च वार्षिक मूल्य । पाँच रुपये । | एक किरणका । आठ आने सन् १९४६ libhi 0588856GESBj536 m aasan Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तके नववे वर्षकी विषय-सूची पृष्ठ विषय और लेखक पृष्ठ विषय और लेखक अतिशयक्षेत्र श्रीकुण्डलपुर-[श्रीरूपचन्द बजाज ३२१ गॉधीकी याद (कविता)-[फजलुलरहमान जमाली ८२ अद्भत बन्धन (कविता)-[प० अनूपचन्द न्याय- गाँधीजीका पुण्यस्तम्भ-डाक्टर वासुदेवशरण तीर्थ " " ७१ अग्रवाल .... .... ६१ अनेकान्त-[महात्मा भगवानदीन . १४३ गाँधीजीकी जैनधर्मको देन-प० सुखलाल संघवी ३६६ अपने ही लोगों द्वारा बलि किये गये महापुरुष १५७ चतर्थ वाग्भट और उनकी कृतियाँ-पं० परमाअपभ्रंशका एक शृङ्गार-वीर काव्य-रामसिंह नन्द जैन शास्त्री .... ... ७६ तोमर एम० ए० " ३६४ चम्पानगर-श्यामलकिशोर झा " ४८१ अपहरणकी आग झुलसी नारियाँ-[अयाध्या- जयस्याद्वाद-प्रो० गो-खुशालचन्द जैन एम.ए. १५४ प्रसाद गोयलीय' जीरापल्ली पार्श्वनाथ स्तोत्र-सिं० जुगलकिशोर मु. २४६ अमूल्य तत्त्वविचार-[श्रीमद्राजचन्द्र १४० जीवका स्वभाव-श्रीजुगलकिशार काराजी २५१ अहारक्षेत्रके प्रचीन मूर्तिलेख-[पं० गोविन्ददास जैन अध्यात्म-[प० महन्द्रकु..ार न्यायाचार्य ३३५ जी कोठिया .. ३८३ जैन कालानी और मेरा विचार-जुगलकिशोर मु. १३ अहिंसा तत्त्व-क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी ०१६ जैन तपस्वी (कविना)-[कवि भूधरदास ... १२५ आचार्यकल्प पं० टोडरमलजी-[पं० परमानन्द जैनधर्म बनाम समाजवाद-प. नेमिचन्द्र शास्त्री .... २५ ज्योतिपाचार्य आप्तमीमांसा और रत्नकरण्डका भिन्नकतृत्व जैनधर्मभूषण ब्र, मीतलप्रमादजीके पत्र डा० हीरालाल जैन एम० ए० " 8 -गायलीय ३५०,४०६ इज्जत बड़ी या रुपया-अयोध्याप्रमाद गायलीय १४१ जैनपुरातन अवशेष (विहंगावलोकन)-मुनिकथित स्वोपज्ञ भाष्य-[बा० ज्योतिप्रसाद एम.ए. २११ कान्तिसार ... २०५, २६१ करनीका फल (कथाकहानी)[अयोध्याप्रमाद तीन चित्र-[जमनालाल 'साहित्यरत्न' ३४१ __ गोयलीय ." " ७२ त्यागका वास्तविक रूप-क्षुल्लक गणेशप्रमादजी कामना (कविता)-[युगवीर' ... ३०७ वणी - २५०,१८३ कम और उसका काय-पं० फूलचन्द सिद्धान्त- दान-विचार-[क्षुल्लक गणेशप्रसादी वर्णी .... २६७ शास्त्री २५२ धर्म और वर्तमान परिस्थितियाँ-पं० नेमिचन्द्र कुत्ते (कथा-कहानी)- ध्याप्रमाद गोयलीय १८२ जैन ज्योतिषाचार्य "" ४६७ क्या सम्यग्दृष्टि अपर्याप्तकालमे स्त्रीवेदी हो सकता धर्मका रहस्य-पं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री ३०३ है ?-[बाबू रतनचन्द मुख्तार .... ७३ नर्स (कहानी)-बालचन्द एम० ए. ३६१ १८४ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) पष्ठ ३६ विषय और लेखक पृष्ठ विषय और लेखक निष्ठुर कवि और विधाताकी भूल (कविता) युगके चरण अलख चिरचंचल (कविता) -कविभूधरदास . .... २४५ तन्मय बुखारिया .... २४४ न्यायको उपयोगिता-[पं० दरबारीलाल रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयमें मेरा विचार और । न्यायाचार्य ... ... १७ निर्णय-[जुगलकिशोर मुख्तार ५, ५६. १०० पराक्रमी जैन-गोयलीय ..... १४५ रावणपार्श्वनाथकी अवस्थिति-[अगरचन्द परमात्मराजस्तात्र-[सं० जुगलकिशोर मुख्तार १६८ .... .२२२ पं. गोपालदासजी वरैया-[अयोध्याप्रसाद वर्णीजीका हालका एक आध्यात्मिक पत्र .... १८१ गोयलीय .... .... १०५ वर्नाडशाके पत्रका एक अंश-बाबू ज्योतिपं० शिवचन्द्र देहलीवाले-[बाबू पन्नालाल प्रसाद एम० ए० अग्रवाल .. ३०२ वादीभसिहसूरिकी एक अधूरी अपूर्व कृतिपाकिस्तानी पत्र-[गोयलीय २०७. २८६ [पं० दरबारीलाल कोठिया .... २६१ पाँच प्राचीन दि. जैन मूर्तियॉ-[मुनिकान्तिसागर ३११ विधिका विधान (कविता)-'युगवीर' किरण : पूज्य वीं गणेशप्रसादजीके हृदयाद्गार " २०१ का टाइटिल पृ. " " १ बुढ़ापा (कविता)-कवि भूधरदास " २१३ विमलभाई-अयोध्याप्रसाद गोयलीय .... ६१ ब्रह्मश्र तसागरका समय और साहित्य-पंडित विविध परमानन्द जैन शास्त्री ४७४ वीरशासन जयन्तीके अध्यक्ष क्षुल्लक गणेशप्रसाद भारतीय इतिहासमे अहिसा-[देवेन्द्रकुमार ३७५ जीका भापण .. भिक्षुक मनोवृत्ति-[अयोध्याप्रमाद गायलीय ११५ वीरशामन जयन्तीका पावन पर्व-पण्डित मथुरा संग्रहालयको महत्वपूर्ण जैनपुरातत्त्व दरबारीलाल .." .... २०३ सामग्रा-बालचन्द एम० ए० - ३४५ वैशाली (एक समस्या)-मुनिकान्तिसागर २६६ मदीया द्रव्यपना (कविता)-['युगवीर' " ३६५ व्यक्तित्व-अयोध्याप्रसाद गायलीय ३५५, ३०६ महात्मा गाँधाके निधनपर शोक प्रस्ताव ८१ पडावश्यक विचार-[सं० जुगलकिशोर मुख्तार २१४ महामुनि मुकमाल-ला. जिनेश्वरदाम .. १५८ शङ्कासमाधान-[पं० दरबारीलाल न्यायाचार्य महावीरकी मूर्ति और लगाटी-[श्रीलाकपाल ३६८ काठिया .... ३४.११३, १४८ मुजफ्फरनगर परिपद् अधिवेशन-[बावू माई शासनचतुनिशतिका (मुनि मदनकीतिकृत)दयाल जैन बी०ए० " २०४ [प० दरबारीलाल कोठिया .. ४१० मुरारमे वीरशासन जयन्तीका महत्वपूर्ण . शिमलाका प_पण पर्व-पं० दरबारीलाल उत्सव-[पं० दरबारीलाल काठिया ... २७५ काठिया .... ३२४ मूर्तिकला-[श्रीलाकपाल ... १२३ ." ३३३ श्रद्धाजलि (कविता)-श्रीब्रजलाल जैन .... २३२ मेरी द्रव्यपूजा (कविता)-[जुगलकिशोर मुख्तार ३२८ अगेरिकी पार्श्वनाथवस्तीका शिलालेख-बाब यशोधरचरित्र सम्बन्धी जैन साहित्य-अगर कामतप्रसाद जैन . चन्द नाहटा .... १०८ सन्मति विद्याविनाद-जुगलकिशार मुख्तार १६४ २२४ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय और लेखक पृष्ठ विषय और लेखक सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन-जुगलकिपोर मु. ४१७ साधुविवेक (कविता)-[६० दलीपसिह कागजी समन्तभद्रभारतीके कुछ नमूने (युनयनुशासन) टाइटिल किरण ५ [जुगलकिशोर मुख्तार १.४५,६०,२१५, २४७, २८७. साहित्य-परिचय श्रार स ore साहित्य-परिचय और समालोचन-पंडित २२९,३३६ दरबारीलाल कोठिया ४३.६० घ ३५८ समन्तभद्रभाष्य-[पं० दरबागल कोठिया ... ३३ साहित्य-परिचय और समालोचन- पं.डत समय रहते सावधान (कविता)-कवि भूधरदास १८६ ते मावान कविताभादास पं. परमानन्द शास्त्री " १६५,३६० समयसारकी महानता-[श्रीकानजी स्वामी ३३ ।। सिद्धसेन-स्वम्भृस्तुति .... ४१५ समवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश-जुगलकिशोर मु. १६६ सिद्धसेन-स्मरण ८३, ११६, १६४, २०८ सुखका उपाय (कविता)-युगवीर' टाइटिल किरण ६ २४१, २८० सेठीजीका अन्तिम पत्र-अयोध्याप्रसाद गोय. १६१ सम्पादकीय-मुनि कान्तिसागर २८४, ३२५, ३६३ सोमनाथका मन्दिर-बा० छोटेलाल सरावगी ६४ सम्यग्दृष्टि (कविता)-[कवि बनारसीदास ... १६७ स्वर्गीय मोहनलाल दलीचन्द देसाईसंगीतपुरके सालुवेन्द्र नरेश और जैनधर्म भवरलाल नाट्टा [बा० कामताप्रसाद .... ! स्वरूप-भावना-[सम्पादक __... १२६ 'संजद' शब्दपर इतनी आपत्ति क्यों ? हिन्दी-गौरव (कविता)-[५० हरिप्रसाद शर्मा [नेमचन्द बालचन्द गाँधी, वकील 'अविकसित संजय वेलट्टिपुत्र और स्याद्वाद-पंडित हिन्दीके दो नवीन काव्य-मुनि कान्तिसागर ३४३ दरबारीलाल न्यायाचार्य ५० होली होली है !! (कविता)- युगवीर' .... हि MAA Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भारतीय ज्ञानपाठक नय प्रकारान १. न्यायविनिश्चयविवरण-(प्रथमभाग) अकलङ्कदेवकृत न्यार्यावनिश्चयकी वादिराजसूरि-रचित व्याख्या। टिप्पणी आदि सहित। विस्तृत हिन्दी प्रस्तावनामे स्याद्वाद सप्तभङ्गी आदिके स्वरूपका विवेचन है । स्याद्वादपर किये जाने वाले आक्षपोका निराकरण है। इस भागमे आए हुए विषयोंका संक्षिप्त परिचय है। सम्पादक-प्रो. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य, पृ० सं०६००। मूल्य १५) २. तत्त्वार्थवृत्ति तत्त्वाथसूत्रकी श्र तसागरसूरिविरचित । हिन्दी मारसहित । विस्तृत हिन्दी प्रस्तावनामें तत्त्व, सम्यग्दर्शन, प्रमाण, नय स्याद्वाद. मप्तभङ्गी आदिका नृतन दृष्टिसे विवेचन है। सम्पादक-प्रा० महन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य, पृ. ६४० । मूल्य १६) ३. कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न कुन्दकुन्दस्वामीके पञ्चास्तिकाय, प्रवचनमार और समयमार इन तीन आध्यात्मिक निधियोका हिन्दामें विपय-परिचय । गरल सुबोध भापामे जैन तत्त्वज्ञान और अध्यात्मका रमास्वादन कीजिए। अनुवादकता-पं० शोभाचन्द्र भारिल्ल । मूल्य) ४. करलक्खण सामुद्रिकशास्त्र । हिन्दी अनुवाद-महिन । सम्पादक-प्रो. प्रफुल्लकुमार मादी । मूल्य १) ५. मदनपराजयहिन्दी अनुवाद-महिन । जिनदेवके द्वारा कामपगजयका सम्म सुन्दर म्पक । विस्तृत प्रम्नावना-सहित । सम्पादक-प्रा. राजकुमारजी साहित्याचार्य ।। मूल्य ८) ६. कन्नडप्रान्तीय नाडपत्रीय ग्रन्थसूचीगविद्री. अलियूर. कारकलके भण्डारीके अलभ्य ताडपत्रीय ग्रन्धोका मविवरण परिचय । विस्तृत हिन्दी प्रस्तावना-सहित । संपादक-पं० मुजबली शास्त्री। मूल्य १३) ७ शेर-यो-शायरी-उदक मन्तिम १५०० शेर और १६० नज्माका अपूर्व संग्रह । लेखक-अयोध्याप्रमादजी गोयलाय । मूल्य) ८. महावन्ध (महाधवल सिद्धान्तशास्त्र)-प्रथमभाग । भापानुवाद-महिन। मूल्य १२) ९. जनशासन-जैनधर्मका परिचय करने वाली सुन्दर पुस्तक । मृल्य ४ा) १०. आधुनिक जनकवि-वर्तमान कवियोंका कलात्मक परिचय। मूल्य ३) ११. हिन्दी जनमाहित्यका मंक्षिप्त इतिहास __ मूल्य ) १२. दा हज़ार वर्ष पुरानी कहानियां व्याख्यान तथा प्रवचनामे उदाहरण दन योग्य ६४ जैन कहानियोका मुन्दर संकलन । मूल्य ३) १३. पाश्चात्य तक शास्त्र मूल्य ६) १४. मुक्तिदूत अञ्जना-पवनञ्जयकी पुण्य गाथा।न पागणिक, रोमांस । हिन्दी साहित्यक्षेत्रमे भी मुक्तकण्ठसे प्रशसित सुन्दर कलाकृति । मूल्य ४) १५. पथचिह्व Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registered No. A.731 -- - rimaal NAMAT वीरसेवामन्दिर सरसावाके प्रकाशन wing Music -- - HEN Samirsing १ अनित्य-भावना ४ सत्साधु-स्मरणमङ्गलपाठ । अभूतपूर्व सुन्दर और विशिष्ट सङ्कलन, श्रा. पद्मनन्दिकृत भावपूर्ण और हृदय सङ्कलयिना पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार । प्राही महत्वकी कृति, साहित्य-तपस्वी पंडित भगवान महावीरसे लेकर जिनसेनाचार्य-पर्यन्त जुगलकिशारजी मुख्तारके हिन्दी-पद्यानुवाद के महान जैनाचार्योंक प्रभावक गुणस्मरणा और भावार्थ महित । मूल्य ।) से युक्त । मूल्य ॥) २ आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थसूत्र- ५ अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड पञ्चाध्यायी तथा लाटीसंहिता आदि ग्रन्थो सरल-मंक्षिप्त नया सूत्र-ग्रन्थ, पं० जुगल- के रचयिता पडित गजमल्ल-विरचित अपूर्व किशोरजी मुख्तारकी सुबांध हिन्दी-व्याख्या आध्यात्मिक कृति, न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल सहित । मूल्य ।) काठिया और प. परमानन्दजी शास्त्रीक मरल हिन्दी अनुवादादि-महित तथा मुख्तार पण्डित ३ न्याय-दीपिका जगलकिशारजा-द्वारा लिग्विन विस्तृत प्रस्तावना (महत्वका नया संस्करण)-अभिनव से विशिष्ट । मूल्य ११॥) धर्मभषणयति-विरचित न्याय-विषयकी सुबाध उमास्वामिश्रावकाचार-परीक्षाप्राथमिक रचना। न्यायाचार्य प० दरबागलाल मुख्तार श्रीजुगलकिशारजी-द्वारा लिग्विन काठिया द्वारा सम्पादित, हिन्दी अनुवाद, ग्रन्थ-परीक्षाका इतिहास-सहित प्रथम अंश। विस्तृत (१०१ पृष्ठको ) प्रस्तावना. प्राकथन, मूल्य चार आने। परिशिष्टादिसे विशिष्ट, ४०० पृष्ठ प्रमाण, लागत मूल्य ५) । इसकी थोड़ी ही प्रतियाँ शेष रहा है। ७ विवाह-समुद्देश्यविद्वाना और छात्रांने इम संस्करणको खूब प० जुगलकिशारजी मुख्तार-द्वारा रचित पसन्द किया है। शीघ्रता करें। फिर न मिलने विवाहके रहस्यका बतलानेवाला और विवाहांक पर पछताना पड़ेगा। अवसरपर वितरण करने योग्य सुन्दर कृति ।।) First - MAHI 44 वीरसेवामन्दिरमे सभी माहित्य प्रचारकी दृष्टिमे तैयार किया जाता है, व्यवसायकं लिय नहीं । इमीलिये काग़ज, छपाई श्रादिके दाम बढ़ जानेपर भी पुस्तकोका मूल्य वही पुराना (मन १६४३का) रग्बा है। इतनेपर भी १०) मे अधिककी पुम्नकोपर उचित कमीशन दिया जाना है। प्रकाशन विभाग-वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) H IND . SH " प्रकाशक-4. परमानन्द जैन शास्त्री भारतीयज्ञानपीठकाशीके लिये अासाराम खत्री द्वारा रॉयल प्रिटिंग प्रेस नया बाजार सहारनपरम मद्रित । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- _