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किरण २]
सञ्जय वेलट्रिपुत्त और स्याद्वाद
मुक्तपुरुष जैसे-परोक्ष विषयोंपर करता था। जैन वाला राहलजी जैसा महापण्डित जैनदर्शन और उसके संजयको युक्तिको प्रत्यक्ष वस्तुओंपर लागू करते हैं। इतिहासको छिपाकर यह कैसे लिख गया कि "संजय उदाहरणार्थ सामने मौजूद घटकी सत्ताके बारेमें यदि के वादको ही संजयके अनुयायियोंके लुप्त हो जानेपर जैन-दर्शनसे प्रश्न पूछा जाय, तो उत्तर निम्न प्रकार जैनोंने अपना लिया। क्या वे यह मानते हैं कि मिलेगा
जैनधर्म व जैनदर्शन और उनके माननेवाले जैन (१) घट यहां है?-होसकता है -स्यादस्ति)।
संजयके पहले नहीं थे ? यदि नहीं, तो उनका उक्त (२) घट यहां नहीं है?-नहीं भी हो सकता लिखना असम्बद्ध और भ्रान्त है। और यदि मानते (स्यादु नास्ति)।
हैं, तो उनकी यह बड़ी भारी ऐतिहासिक भूल है, जिसे (३) क्या घट यहां है भी और नहीं भी है
स्वीकार करके उन्हें तुरन्त ही अपनीभूलका परिमार्जन है भी और नहीं भी हो सकता है (स्याद् अस्ति च ।
करना चाहिये। यह अब सर्व विदित होगया है नास्ति च)।
और प्रायः सभी निष्पक्ष ऐतिहासिक भारतीय तथा (४) 'हो सकता है। (स्याद्) क्या यह कहा जा पाश्चात्य विद्वानोंने स्वीकार भी कर लिया कि जैनसकता है ?-नहीं, 'स्याद्' यह अ-वक्तव्य है। धर्म व जैनदर्शनके प्रवर्तक भगवान महावीर ही नहीं
(३) घट यहां हो सकता है। (स्यादस्ति) क्या थे. अपितु उनसे पूर्व हो गये ऋषभदेव आदि २३ यह कहा जा सकता है?-नहीं, 'घट यहां हो सकता तीर्थकर उनके प्रवर्तक है, जो विभिन्न समयमि हुए हैं है' यह नहीं कहा जा सकता।
और जिनमें पहले तीर्थकर ऋषभदेव, २२ वें तीर्थङ्कर (६) घट यहां नहीं हो सकता है' (स्याद् नास्ति) अरिष्टनेमि (कृष्णके समकालीन और उनके चचेरेक्या यह कहा जा सकता है?-नहीं, 'घट यहां नहीं भाई) तथा २३ वें तीर्थकर पाश्वनाथ तो ऐतिहासिक हो सकता' यह नहीं कहा जा सकता।
महापुरुष भी सिद्ध हो चुके हैं। अत: भगवान महा(७) घट यहां 'हो भी सकता है', नहीं भी हो वीरके समकालीन संजय और उसके अनुयायियोंके सकता है, क्या यह कहा जा सकता है? नहीं, 'घट पर्व जैनधर्म व जैनदर्शन और उनके माननेवाले जैन यहां हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है। यह नहीं विद्यमान थे, और इसलिये उनके द्वारा संजयके वादको कहा जा सकता।
अपनानेका राहुलजीका आक्षेप सर्वथा निराधार और इस प्रकार एक भी सिद्धान्त (=याद)की स्थापना
असंगत है। ऐसा ही एक भारी आक्षेप अपने बौद्ध न करना, जो कि संजयका वाद था, उसीको संजयके
प्रन्थकारोंको प्रशंसाकी धुनमें वे समप्र भारतीय विद्वाअनुयायियोंके लुप हो जानेपर जैनोंने अपना लिया,
नोंपर भी कर गये, जो अक्षम्य है। वे इसी 'दर्शन और उसकी चतुर्भगी न्यायको सप्तभङ्गीमें परिणत ।
दिग्दर्शन' (पृष्ठ ४४८) में लिखते हैंकर दिया।"
"नागार्जुन, असंग, पसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्ममालूम होता है कि इन विद्वानोंने जैनदर्शनके
कोर्ति,- भारतके अप्रतिम दार्शनिक इसी पारामें स्याद्वाद-सिद्धान्तको निष्पक्ष होकर समझनेका प्रयत्न
। पैदा हुए थे। उन्हींके हो उच्छिष्ट-भोजी पीछेके प्रायः नहीं किया और अपनी परम्परासे जो जानकारी उन्हें मिली उसीके आधारपर उन्होंने उक्त कथन किया। सारे ही दूसरे भारतीय दार्शनिक दिखलाई पड़ते हैं।"
अच्छा होता, यदि वे किसी जैन विद्वान् अथवा दार्श- राहुलजी जैसे कलमशूरोंको हरेक बातको और निक जैन ग्रन्थसे जैनदर्शनके स्याद्वादको समझकर प्रत्येक पदवाक्यादिको नाप-जोख कर ही कहना और उसपर कुछ लिखते। हमें आश्चर्य है कि दर्शनों और लिखना चाहिए। उनके इतिहासका अपनेको अधिकारी विद्वान मानने. अब सञ्जयका वाद क्या है और जैनोंका स्याद्वाद