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अनेकान्त
वर्ष
क्या है ? तथा उक्त विद्वानोंका उक्त कथन क्या संगत इन पदार्थों के बारे में उससे प्रश्न करता था तब वह एवं अभ्रान्त है ? इन बातोपर सक्षेपमें प्रस्तुत लेखमें चतुष्कोटि विकल्पद्वारा यही कहता था कि 'मैं जानता विचार किया जाता है।
होऊँ तो बतलाऊँ और इसलिये निश्चयसे कुछ भी संजय वेलढिप्रत्तका वाद (मत)
नहीं कह सकता।' अतः यह तो विल्कुल स्पष्ट है कि भगवान महावीरके समकाल में अनेक मत-प्रवर्तक संजय अनिश्चिततावादी अथवा संशयवादी था और विद्यमान थे। उनमें निम्न छह मत-प्रवतक बहुत उसका मत आना
उसका मत अनिश्चिततावाद या संशयवादरूप था। प्रसिद्ध और लोकमान्य थे
राहलजीने स्वयं भी लिखा है + कि "संजयका १ अजितकेश कम्बल, २ मक्खलि गोशाल दर्शन जिस रूपमें हम तक पहुंचा है उससे तो उसके ३ पूरण काश्यप, ४ प्रक्र ध कात्यायन, ५ संजय वेल- दर्शनका अभिप्राय है, मानवको साजबुद्धिको भ्रममें द्विपुत्त, और ६ गौतम बुद्ध ।
डाला जाये, और वह कुछ निश्चय न कर भ्रान्त धारइनमें अजितकेश कम्बल और मक्खलि गोशाल णाओंको अप्रत्यक्ष रूपसे पुष्ट करे ।" भौतिकवादी, पूरण काश्यप और प्रक्रुध कात्यायन जैनदर्शनका स्थाद्वाद और अनेकान्तवादनित्यतावादी, सञ्जय वेलट्रिपुत्त अनिश्चिततावादी और गौतम बुद्ध क्षणिक अनात्मवादी थे।
परन्तु जैनदर्शनका स्याद्वाद संजय के उक्त अनिप्रकृप्तमें हमे सञ्जयके मतको जानना है। अतः
श्चिततावाद अथवा संशयवादसे एकदम भिन्न और उनके मतको नीचे दिया जाता है। दीघनिकाय' में
निर्णय-कोटिको लिये हुए है । दोनोमें पूर्व-पश्चिम उनका मत इस प्रकार बतलाया है
अथवा ३६ के अंको जैसा अन्तर है । जहां संजयका "यदि आप पछे,- 'क्या परलोक है', तो यदि
वाद अनिश्चयात्मक है वहां जैनदशनका स्याद्वाद निश्च मैं समझता होऊँ कि परलोक है तो आपको बतलाऊँ
यात्मक है। वह मानवकी सहज बुद्धिको भ्रममें नहीं कि परलोक है। मै ए भी नही कहता वैसा भी
डालता. बल्कि उसमे आभासित अथवा उपस्थित
विरोधों व सन्देहोंको दूर कर वस्तु-तत्त्वका निर्णय नही कहता, दूसरी तरहसे भी नहीं कहता। मैं यह भी नहीं कहता कि 'वह नही है। मैं यह भी नहीं
कराने में सक्षम होता है स्मरण रहे कि समग्र (प्रत्यक्ष कहता कि 'वह नहीं नहीं है। परलोक नहीं है, पर
और परोक्ष) वस्तु-तत्त्व अनेकधर्मात्मक है- उसमे लोक नही नहीं।' देवता (=औपपादिक प्राणी) हैं...
अनेक (नाना) अन्त (धर्म-शक्ति-स्वभाव) पाये जाते देवता नहीं हैं, हैं भी और नहीं भी, न हैं और न
हैं और इसलिये उसे अनेकान्तात्मक भी कहा जाता नहीं हैं।...... अच्छे बुरे कम फल हैं, नहीं हैं,
है। वस्तुतत्त्वकी यह अनेकान्तात्मकता निसर्गत: है, हैं भी और नही भी, न हैं और न नहीं है। तथा
अप्राकृतिक नहीं। यही वस्तुमें अनेक धर्मोका गत (=मुक्तपुरुप) मरने क बाद होते है. नहीं होते स्वीकार व प्रतिपादन जैनाका अनेकान्तवाद है। हैं......? -यदि मुझसे एसा पूछे. तो मैं यदि
संजयके वादको, जो अनिश्चिततावाद अथवा संशयऐसा समझता होऊँ ....तो ऐसा आपको कहं । मै
वाद के नामसे उल्लिखित होता है, अनेकान्तवाद ऐसा भी नहीं कहता, वैसा भी नहीं कहता...... कहना अथवा बतलाना किसी तरह भी उचित एवं यह बौद्धोद्वारा उल्लेखित संजयका मत है। इसमें
सङ्गत नहीं है, क्योंकि संजयके बाद में एक भी सिद्धांत पाठक देखेंगे कि संजय परलोक, देवता. कर्मफल की स्थापना नहीं है; जैसाकि उसके उपरोक्त मत-प्रद. और मुक्तपुरुष इन अतीन्द्रिय पदार्थों के जानने में
र्शन और राहुल जीके पूर्वोक्त कथनसे स्पष्ट है। किन्तु असमर्थ था और इसलिये उनके अस्तित्वादिके बारे अनेकान्तवाद में अस्तित्वादि सभी धर्माकी स्थापना में वह कोई निश्चय नहीं कर सका। जब भी कोई + १ देखो, 'दर्शन-दिग्दर्शन' पृ० ४६२