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संजय वेलट्टिपुत्त और स्याहाद
(लेखक-न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाल जैन, कोठिया)
दर्शनके स्याद्वाद सिद्धान्तको कितने ही (१) है ?-नहीं कह सकता। जैन विद्वान ठीक तरहसे समझनेका प्रयत्न (२) नहीं है ?-नहीं कह सकता।
नहीं करते और धर्मकीर्ति एवं शङ्करा- (३) है भी नहीं भी नहीं कह सकता। चार्यकी तरह उसके बारेमें भ्रान्त
(४) न है और न नहीं है ?-नहीं कह सकता। उल्लेख अथवा कथन कर जाते हैं,
इसकी तुलना कोजिए जैनोंके सात प्रकारके यह बड़े ही खेदका विषय है। काशी हिन्दविश्ववि- स्याद्वादसेद्यालयमें संस्कृत-पाली विभागके प्रोफेसर पं० बलदेव (१) है ? हो सकता है (स्याद् अस्ति) उपाध्याय एम० ए० साहित्याचायने सन् १९४६ में (२) नहीं है ?-नहीं भी हो सकता (स्यानास्ति) 'बौद्ध-दर्शन' नामका एक प्रन्थ हिन्दीमें लिखकर प्रका- (३) है भी नहीं भी ?-है भी और नहीं भी हो शित किया है, जिसपर उन्हें इक्कीससौ रुपयेका सकता है (स्यादस्ति च नास्ति च) डालमियां-पुरस्कार भी मिला है। इसमें उन्होंने, उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा सकते (वक्तव्य) बुद्धके समकालीन मत-प्रवर्तकोंके मतोंको देते हुए, है ? इसका उत्तर जैन 'नहीं' में देते हैंसंजय वेलट्रिपुत्तके अनिश्चिततावाद मतको भी बौद्धोंके (४) स्याद् (हो सकता है) क्या यह कहा जा 'दीघनिकाय (हिन्दी०पृ०२२) प्रन्थसे उपस्थित सकता (वक्तव्य) है?-नहीं, स्याद् अ-बक्तव्य है। किया है और अन्तमें यह निष्कर्ष निकाला है कि "यह (१) 'स्याद् अस्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, अनेकान्तवाद प्रतीत होता है। सम्भवतः ऐसे हो
'स्याद् अस्ति' प्रवक्तव्य है।
थाट अस्ति भाधारपर महावीरका स्याद्वाद प्रतिष्ठित किया गया
(६) 'स्याद नास्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं,
'स्याद् नास्ति' अवक्तव्य है। इसी प्रकार दर्शन और हिन्दीके ख्यातिप्राप्त बौद्ध (७) 'स्याद अस्ति च नास्ति च' क्या यह वक्तविद्वान् राहुल सांकृत्यायन अपने 'दर्शन-दिग्दर्शन' में व्य? नहीं, 'स्याद् अस्ति च नास्ति च' अ-बक्तलिखते हैं
व्य है। "माधनिक जैन-दर्शनका आधार 'स्याद्वाद' ६, दोनोंके मिलानेसे मालूम होगा कि जैनोंने संजयजो मालूम होता संजय वेलट्रिपुत्तके चार अगावाले
के पहलेवाले तीन वाक्यों (प्रश्न और उत्तर दोनों) को अनेकान्तवादको (!) लेकर उसे सात अङ्गवाला किया
अलग करके अपने स्याद्वादको छ भङ्गियों बनाई है, गया है। संजयने तत्त्वों (-परलोक, देवता) के
और उसके चौथे वाक्य "न है और न नहीं है" को बारे में कुछ भी निश्चयात्मक रूपसे कहनेसे इन्कार करते
छोड़कर 'स्याद्' भी प्रवक्तव्य है यह सातवाँ मङ्ग हुए उस इन्कारको चार प्रकार कहा है
तैयार कर अपनी सप्तमङ्गी पूरी की। * १ देखो, बौद्धदर्शन पृ० ४० ।
उपलभ्य सामग्रीसे मालूम होता है, कि संजय + २ देखो, दर्शनदिग्दर्शन पृ० ४६६-६७ ।
अनेकान्तबादका प्रयोग परलोक, देवता, फर्मफल,
था
"