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किरण २ ]
समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने
'स्वभाव से ही जगतकी स्वच्छन्द - वृत्ति-- यथेच्छ प्रवृत्ति- है इसलिये जगतके ऊँचे दर्जे के अनाचार - मार्गो में हिंसा. झूठ, चोरी, कुशील (अब्रह्म) और परिग्रह नामके पाँच महापापों में भी कोई दोष नहीं, ऐसी घोषणा करके उनके अनुष्ठान जैसी सदोष प्रवृत्तिको निर्दोष बतलाकर - जो लोग दीक्षा के समकाल ही मुक्तिको मानकर अभिमानी हो रहे हैं - सहजग्राह्य हृदय में मन्त्रविशेषारोपण के समय ही मुक्ति हो जाने ( मुक्तिका सर्टिफिकेट मिल जाने का जिन्हें अभिमान है— अथवा दीक्षाका निरास जैसे बने वैसे (दीक्षानुठानका निवारण करने के लिये) मुक्तिको जो ( मीमांसक) अमान्य कर रहे हैं और मांसभक्षण, मदिरापान तथा मैथुनसेवन जैसे अनाचार के मार्गोंके विषय में स्वभावसे हो जगतकी स्वच्छन्द प्रवृत्तिको हेतु बताकर यह घोषणा कर रहे हैं कि उसमें कोई दोष नहीं है + वे सब (हे वीर जिन !) आपकी दृष्टिसे - बन्ध, मोक्ष और तत्कारण- निश्चय के निबन्धनस्वरूप आपके स्याद्वाद दर्शन से - बाह्य हैं और (सर्वथा एकान्तवादी होने से ) केवल विभ्रम में पड़े हुए हैं तस्वके निश्चयको प्राप्त नहीं होते- यह बड़े ही खेद अथवा कष्टका विषय है !!" व्याख्या- इस कारिका में 'दीक्षासम मुक्तिमाना: ' पद दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । एक अर्थ में उन मान्त्रिकों (मन्त्रवादियों) का ग्रहण किया गया है जो मन्त्र -दीक्षा के समकाल ही अपनेको मुक्त हुआ समझ कर अभिमानी बने रहते हैं, अपनी दीक्षा को यम-नियम रहिता होते हुए भी अनाचारको क्षयकारिणी समर्थदीक्षा मानते हैं और इस लिए बड़ेसे बड़ा अनाचार - हिंसादिक घोर पाप करते हुए भी उसमें कोई दोप नहीं देखते - कहते हैं 'स्वभावसे ही यथेच्छ प्रवृत्ति होने के कारण बड़े से बड़े अनाचार के माग भी दोष के कारण नहीं होते और इसलिये उन्हें उनका आचरण करते हुए भी प्रसिद्ध जीवन्मुक्तिकी तरह कोई दोष नहीं लगता।' दूसरे अर्थ में उन मीमांसकोंका भइण किया गया है जो कर्मों के क्षयसे उत्पन्न अनन्तज्ञानादिरूप मुक्तिका होना नहीं मानते. यम-नियमादिरूप दीक्षा भी नहीं मानते और स्वभाव से ही जगत के भूतों (प्राणियों) की स्वच्छन्द-प्रवृत्ति बतलाकर मांसभक्षण, मदिरापान और यथेच्छ मैथुन सेवन - जैसे अनाचारों में कोई दोष नहीं देखते। साथ ही वेद-विहित पशुवधादि ऊंचे दर्जे के अनाचार मार्गोको भी निर्दोष बतलाते हैं, जबकि वेद-बाह्य ब्रह्महत्यादिको निर्दोष न बतलाकर सदोप ही घोषित करने हैं। ऐसे सब लोग वीर- जिनेन्द्र की दृष्टि अथवा उनके बतनाये हुए सन्मार्ग से बाह्य हैं, ठीक तत्त्वके निश्चयको प्राप्त न होने के कारण सदोषको निर्दोष मानकर विभ्रममें पड़े हुए हैं और इसीलिये आचाय महोदयने उनकी इन दृपित प्रवृत्तियोंपर खेद व्यक्त किया है और साथ ही यह सूचित किया है कि हिसादिक महा अनाचारोंके जो मागें हैं वे सब सदोष हैं उन्हें निर्दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता, चाहे वे वेदादि किसी भी आगमविहित हों या अनागमविहित हों ।
जानता ।
+ १ 'न मामभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।"
सवार मणियां
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१ जो अपनेको जानता है वह सबको जानता। जो अपनेको नहीं जानता वह सबको नहीं
कुन्द कुन्द
- सुकरात
२ हमारी इच्छाएँ जितनी कम हों, उतने ही हम देवताओंके समान हैं।
३ यह भी हो सकता है कि गरीबी पुण्यका फल हो और अमीरो पापका ।
४ कुशाग्रबुद्धि महान् कार्योंको प्रारम्भ करती है; पर परिश्रम उन्हें पूरा करता है ।
-म० गांधी
एमर्सन