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________________ समन्नभद्र-भारतीके कुछ नमूने किरण ७ ] परस्परनिरपेक्ष पृथग्भूत द्रव्य-पर्याय एकान्तकी व्यस्थान बन सकनेका समर्थन होता है। द्रव्यादिके सर्वथा एकान्त में युक्त्यनुशासन घटित ही नहीं होता।' (तत्र युक्तयनुशासन क्या वस्तु है. उसे अगली कारिका मे स्पष्ट करके बतलाते हैं -) erssगमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपां युक्त्यनुशामनं ते । प्रतिक्षणं स्थित्युदय - व्ययात्मतत्त्व-व्यवस्था सदिहाऽर्थरूपम् ||४८|| • प्रत्यक्ष और आगमसे अविरोधरूप - अबाधित विपयस्वरूप - अर्थका जो अर्थ प्ररूपण है- अन्यथानुपपत्येकलक्षण साधनरूप अर्थमे साध्यरूप अर्थका प्रतिपादन है— उसे युक्तयनुशासन - युक्तिवचन-कहते है और वही (हे वीर भगवान् ) आपको अभिमत है ।" · (यहाँ आपके मतानुसार युक्तयनुशासनका एक उदाहरण दिया जाता है और वह यह है कि) अर्थका रूप प्रतिक्षण (प्रत्येक समय) स्थिति (धान्य) उदय (उत्पाद) और व्यय ( नाश) रूप तत्त्वव्यवस्थाको लिये हुए है, क्योंकि वह सन है।' (इस युक्तयनुशासन में जो पक्ष है वह प्रत्यक्षविरुद्ध नहीं है, क्योंकि अर्थका धौव्योत्पादव्ययात्मक रूप जिस प्रकार बाह्य घटादिक पदार्थोमं अनुभव किया जाता है उसी तरह आत्मादि श्राभ्यन्तर पदार्थों मे भी उसका साक्षात अनुभव होता है। उत्पादमात्र तथा व्ययमात्र की तरह स्थितिमात्रका — सर्वथा धौव्यका — सर्वत्र अथवा कही भी साक्षात्कार नहीं होता। और अर्थ इम व्योत्पादव्ययात्मक रूपका अनुभव बाधक प्रमाणका अभाव सुनिश्चित होनेसे अनुपपन्न नही है - उपपन्न है, क्योंकि कालान्तर में धौव्योत्पादव्ययका दर्शन होनेसे उसकी प्रतीति सिद्ध होती है. अन्यथा खर- विषाणादिकी तरह एकवार भी उसका योग नहीं बनता । अतः प्रत्यक्ष-विरोध नही आगम-विरोध भी इम युक्तमनुशासनके साथ घटित नहीं हो सकता; क्योंकि उत्पादव्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत' | २४६ यह परमागमवचन प्रसिद्ध है— सर्वथा एकान्तरूप आगम दृष्ट (प्रत्यक्ष ) तथा इष्ट (अनुमान) के विरुद्ध अर्थका अभिधायी होनेसे ठग पुरुषके वचन की तरह प्रसिद्ध अथवा प्रमाण नहीं है। और इसलिये पक्ष निर्दोष है। इसी तरह सतरूप साधन भी असिद्धादि दोपासे रहित है । अतः अर्थका रूप प्रतिक्षण धौव्योत्पादव्ययात्मक है सत होनसे.' यह युक्तयनुशासनका उदाहरण समाचान है ।) (इस तरह तो यह फलित हुआ कि एक ही वस्तु नाना-स्वभावको प्राप्त है जो कि विरुद्ध है। तब उसकी सिद्धि कैसे होती है उसे स्पष्ट करके बतलाते हैं -) नानात्मतामप्रजहत्तदेकमेकात्मतामप्रजहच्च नाना । अङ्गाङ्गिभावात्तव वस्तु तद्यत् क्रमेण वाग्वाच्यमनन्तरूपम् ||४९|| ' (हे वीर जिन ) आपके शासनमे जो (जीवादि) वस्तु एक है (सत्वरूप एकत्व - प्रत्यभिज्ञानका विषय होनेसे वह (समीचीन नाना ज्ञानका विषय होने से ) नानात्मता (अनेकरूपता) का त्याग न करती हुई ही वस्तुको प्राप्त होती है—जा नानात्मताका त्याग करती है वह वस्तु ही नहीं, जैसे दूसरोंके द्वारा परिकल्पित ब्रह्माद्वैत आदि । (इसी तरह) जो वस्तु (अबाधित नानाज्ञानका विषय होनसे) नानात्मक प्रसिद्ध है वह एकात्मताको न छोड़ती हुई ही आपके मनमे वस्तुत्वम्पसे अभिमत है— श्रन्यथा उसके वस्तुत्व नहीं बनता, जैसे कि दूसरोंके द्वारा अभिमत निरन्वय नानान्तरणरूप वस्तु । अतः जीवादिपदार्थ समूह परस्पर एक-दूसरेका त्याग न करनेसे एक-अनेक. स्वभावरूप है, क्योंकि वस्तुत्वकी अन्यथा उपपत्ति वनती ही नहीं' यह युक्तयनुशासन है. 1 (इस प्रकारकी वस्तु वचनके द्वारा कैसे कही जा सकती है ? ऐसी शङ्का नही करनी चाहिए, क्योंकि) वस्तु जो अनन्तरूप है वह अङ्ग अङ्गीभावके कारण गुण-मुख्यकी विवक्षाको लेकर क्रममे वचनगांवर
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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