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अनेकान्त
[ वर्पह
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एकान्तमे करता है, अन्यथा नहीं क्योंकि वह यथा- ही कोई व्यवस्था बनती है-क्योंकि उसमें भी प्रमापाधि-विशेषणानुसार-विशेपका-धर्म-भेद अथवा णाभावकी दृष्टिसे कोई विशेप नहीं है, वह भी सकलधर्मान्तरका-यातक होता है. जिमका वस्तुम मद्भाव प्रमाणोके अगोचर है।' पाया जाता है।'
(द्रव्यमात्रकी, पर्यागमात्रकी नथा पृथग्भूत द्रव्य(यहाँपर किमीका यह शा नहीं करनी चाहिय पर्यायमात्रकी व्यवस्था न बन मकनेसे) यदि सर्वथा कि जीवादि तच्च भी नव प्रधान तथा गौणम्प एकान्त द्वयात्मक एक तत्व माना जाय तो यह मर्वथा द्वयात्म्य का प्राप्त होजाता है, क्योंकि) नच नो अनकान्त है- एककी अर्पणाके माथ विरुद्ध पडता है.-सर्वधा एकत्वअनेकान्तात्मक है और वह अनेकान्त भी अनेकान्त- के माथ द्वयात्मकता बनती ही नहीं-क्योकि जो द्रव्यरूप है. एकान्तम्प नही, कान्त तो उसे नयकी की प्रतीनिका हेतु है और जो पर्यायकी प्रतीतिका अपेक्षासे कहा जाता है-प्रमाणकी अपेक्षासे नही. निमित्न है वे दाना यदि परम्परम भिन्नात्मा है ना केमे कमांकि प्रमाण मकलाप होता है-विकलाप नही नदात्मक एक तत्त्व व्यवस्थित होता है ? नहीं होता, विकलरूप तत्त्वका एकदेश कहलाता है जो कि नय- क्योंकि अभिन्नका भिन्नात्माओक माथ एकत्वका का विषय है और इमीम मकलम्प तत्त्व प्रमाणका विरोध है । जब वे दानो आत्मा एकसे अभिन्न है तर विषय है । कहा भी है-सकलादेशः प्रमाणाधीनः भी एक ही अवस्थित होता है. क्योंकि सर्वथा एकमे विकलादशो नयाधीनः ।'
अभिन्न उन दोनोंक एकत्वकी मिद्धि होती है, न कि और वह तत्व दा प्रकारम व्यवस्थित है-एक द्वयात्म्य (दयात्मकता) की. जो कि एकत्वके विरुद्ध है। भवार्थवान होनेमे-द्रव्यरूप, जिसे मद्रव्य नथा कौन सा अमृढ (ममझदार) है जो प्रमाणको अङ्गी. विधि भी कहते है, और दमग व्यवहारवान हान- कार करता हुआ सर्वथा एक बम्नुके दो भिन्न अात्मा पयायप, जिसे अमद्रव्य गण तथा प्रतिपध भी की अपणा-विवक्षा कर 7-मूढक सिवाय दृमग कहते है । इनसे भिन्न उमका दमग कार्ड प्रकार नहीं है कोई भी नहीं कर सकता । अतः द्वयात्मक तत्व जो कुछ है वह मब इन्ही दो भेदोके अन्तर्भूत है।'
मर्वथा एकापणाक-एक तत्त्वकी मान्यताक-माथ न द्रग्य-पर्याय-पृथग-व्यवस्था
विरुद्ध ही है, पमा मानना चाहिये। द्वै यात्म्यमेकाऽर्पणया विरुद्धम् ।
(तब अविरुद्ध तत्व कैसे सिद्ध होवे ? इसका
ममाधान करते हुए आचार्य महोदय बतलातहैं--) धर्मी च धर्मश्च मिथविधेमो
(किन्तु हे वीर जिन :) आपके मतमे स्याद्वादन सर्वथा तेऽभिमती विरुद्धौ ॥४७॥ शासनमे-य धर्मों (द्रव्य) और धर्म (पर्याय) दानो 'मर्वथा द्रव्यकी (द्रव्यमेव' इस द्रव्यमात्रात्मक असर्वथारूपसे तीन प्रकार-भिन्न, अभिन्न तथा एकान्तकी) कोई व्यवस्था नहीं बनती क्योंकि सम्पूर्ण भिन्नाभिन्न-माने गये है और (इसलिय सर्वथा पायाने रहित द्रव्यमात्रतत्त्व प्रमाणका विषय नही विरुद्ध नहीं है। क्योकि सर्वथारूपसे तीन प्रकार है-प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणसे वह सिद्ध नहीं माने जानेपर भी ये प्रत्यक्षादि प्रमाणांसे विरुद्ध ठहरते होता अथवा जाना नहीं जासकता; न सर्वथा पर्यायकी हैं और विरुद्धरूपमें आपको अभिमत नहीं हैं। अतः (पर्यायएव-क मात्र पर्याय ही-इम एकान्त स्यात्पदात्मक वाक्य न तो धर्ममात्रका प्रतिपादन करता सिद्धान्तकी कोई व्यवस्था बनती है क्योकि द्रव्यकी है न धर्मीमात्रका, न धर्म-धर्मी दोनोंको सर्वथा अभिन्न एकान्तकी तरह द्रव्यसे रहित पर्यायमात्रतत्त्व भी प्रतिपादन करता है. न सर्वथा भिन्न और न सर्वथा किमी प्रमाणका विपय नहीं है, और न सर्वथा भिन्नाऽभिन्न । क्योकि ये सब प्रतीतिके विरुद्ध है। पृथग्भूत-परम्परनिरपेक्ष-द्रव्य-पर्याय ( दोनों) की और इससे द्रव्य-एकान्तकी, पर्याय-एकान्तकी तथा