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समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
युक्त्यनुशासन
विधिनिषेधोऽनमिलाप्यता च
नाम 'मप्तमगी' है। अतः नाना प्रतिपायजनोकी तरह
एक प्रतिपादाजनके लिये भी प्रनिपादन करने वालोका त्रिरेकशस्त्रिर्दिश एक एव ।
मप्न विकल्पात्मक वचन विरुद्ध नहीं ठहरता है।' त्रयो विकल्पास्तव मनधाऽमी
स्यादित्यपि स्याद्गुण-मुख्य-कल्पैस्याच्छन्दनेयाः सकलेऽर्थभेदे ।।४५।।
कान्तो यथोपाधि-विशेष-वीक्ष्यः । विधि. निषेध और अनभिलाग्यता-म्यादम्त्येव
तत्त्वं त्वनेकान्तमशेषरूपं म्यानाम्यव. म्यादवक्तव्यमवय एक-एक करके
द्विधा भवार्थ-व्यवहारवत्त्वात् ॥४६॥ (पदक) तीन मूल विकल्प है। इनके विपक्षमत धर्मकी मधि-मंयोजनाम्पमे द्विसंयोगज विकल्प तीन- • 'म्यान' (शब्द) भी गुण और मुख्य म्वभावाके म्यादस्नि-नाम्न्यव म्यादम्यवक्तव्यमेव.म्यान्नाम्न्यवन- द्वाग कल्पिन किये हुए एकान्तोका लिये हुए होता हैव्यमव-होते है और त्रिमयाज विकल्प एक- नयांके आदेशसे । अर्थात् शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकी म्यादम्ति-नाम्न्यवक्तव्यमेव ही होना है। इस तरहसे प्रधानतामें अस्तित्व-कान्त मुख्य है। शेप नास्तिमात विकल्प हवार जिन मम्पूर्ण अर्थभदमे-अशेष त्वादि-कान्त गौण है, क्योंकि प्रधानभावमेव विवक्षित जीवादितत्त्वार्थ-पायांम. न कि किमी एक पर्यायम- नहीं होत और न उनका निराकरण ही किया जाना आपके यहाँ (आपके शासनमे) घटिन हात है. दृमग- है। इमक मिवाय. मा अस्तित्व गधक मांगकी तरह के यहां नहीं कयोकि 'प्रतिपर्यायं मतभङ्गी" यह असम्भव है जो नाम्निन्वादि धर्माकी अपेक्षा नहीं आपके शासनका वचन है. दुसरं सर्वथा एकान्तवादियो- रग्बना । म्यान' शब्द प्रधान तथा गौणरूपमे ही उनका के शासनम वह बनता ही नहीं। और ये सब विकल्प द्योतन करना है-जिम पद अथवा धर्मक साथ वह 'म्यान' शब्दके द्वारा नेय है-नेतृत्वको प्राप्त है- प्रयुक्त होता है उसे प्रधान और शेष पदान्तगं अथवा अर्थात एक विकल्पके साथ स्थान शब्दका प्रयोग हाने- धमाका गांगा बतलाता है, यह उसकी शक्ति है। मे शंप छहो विकल्प उमके द्वारा गृहीत होत हैं. उनके व्यवहाग्नयके आदेश(प्राधान्य)मे नास्तित्वादिपुनः प्रयोगकी जरूरत नहीं रहती, क्योंकि स्यात्पढके एकान्त मुख्य है और अस्तित्व-एकान्त गौण है; क्यासाथमे रहनेसे उनके अर्थविषयम विवादका अभाव कि प्रधानरूपमे वह नव विक्षित नहीं होता और न होना है। जहाँ कहीं विवाद हो वहाँ उनके क्रमशः उमका निराकरण ही किया जाता है. अस्तित्वका प्रयोगमे भी कोई दोप नहीं है, क्योंकि एक प्रतिपाद्यके मर्वथा निराकरण करनेपर नास्तित्वादि धर्म बनते भी सप्त प्रकारकी विप्रतिपत्तियोका मगाव होता है- भी नही, जैसे कछवेके रोम । नास्तित्वादि धर्माके द्वारा उतने ही मंशय उत्पन्न होने है उतनी ही जिज्ञासाओ- अपक्षमान जो वस्तुका अस्तित्व धर्म है वह 'म्यान' की उत्पत्ति होती है और उतने ही प्रश्रवचनों (मवालों) शब्दके द्वारा द्यानन किया जाता है। इस तरह स्यान' की प्रवृत्ति होती है। और प्रश्नके वशमे एक वस्तुम नामका निपात प्रधान और गौणरूपमे जा कल्पना अविरोधरूपमे विधि-निषेधकी जा कल्पना है उमीका करता है वह शुद्ध (मापेक्ष) नय के आदेशरूप सम्यक