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________________ जैन अध्यात्म [पं. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य पदार्थस्थिति मर्वव्यापी है । धर्म और अधर्म लोकाकाशके बराबर है। पुद्गल और काल अणुरूप हैं। जीव असंख्यातप्रदेशी 'नाऽसतो विद्यते भावो नाऽभावो विद्यते सतः' है और अपने शरीरप्रमाण विविध आकारोमे जगतमें जा मत् है उमका सर्वथा विनाश नहीं हो मिलता है। एक पदलद्रव्य ही ऐसा है जो सजातीय सकता और मवेथा नए किसी असन्का सद्रूपम अन्य पुदलद्रव्योंसे मिलकर स्कन्ध बन जाता है और उत्पाद नहीं हो सकता। जितने मौलिक द्रव्य इस कभी कभी इतना रासायनिक मिश्रण हा जाता है कि जगतमे अनादिसे विद्यमान है वे अपनी अवस्थाश्रामे उसके अणुओकी पृथक सत्ताका भान करना भी परिवर्तित हात रहत है। अनन्तजीव. अनन्तानन्त कठिन होता है । तात्पर्य यह कि जीवद्रव्य और पुद्गलपुद्गल अणु, एक धर्मद्रव्य. एक अधर्मद्रव्य, एक द्रव्यमें अशुद्ध परिणमन होता है और वह एक दसरे आकाश और असंख्य कालाणु इनसे यह लाक के निमित्तसे। पदलमें इतनी विशेषता है कि उसकी व्याप्त है। ये छह जातिके द्रव्य मौलिक है. इनमेसे न अन्य सजातीयपुदलासे मिलकर स्कन्ध-पर्याय भी तो एक भी द्रव्य कम हो सकता और न कोई नया उत्पन्न होती है पर जीवी दसरे जीवमे मिलकर स्कन्ध होकर इनकी संख्यामें वृद्धि कर सकता है। को पर्याय नहीं होती। दो विजातीय द्रव्य बँधकर एक द्रव्य अन्यद्रव्यरूपमें परिणमन नहीं कर सकता. पर्याय नहीं प्राप्त कर सकते। इन दा द्रव्योके विविध जीव जीव ही रहेगा पुद्गल नहीं हो सकता। जिस तरह , परिणमनोंका स्थूलरूप यह दृश्यजगत् है। विजातीय द्रव्यरूपमे किसी भी द्रव्यका परिणमन नहीं होता उसी तरह एक जीव दूसरे मजातीयजीव- द्रव्य-परिणमनद्रव्यरूप या एक पुद्गल दूसरे सजातीय पुद्गलद्रव्यरूप- प्रत्येक द्रव्य परिणामीनित्य है । पूर्वपर्याय नष्ट मे सजातीय परिणमन भी नहीं कर सकता। प्रत्येक होती है उत्तर उत्पन्न होती है पर मूलद्रव्यकी धारा द्रव्य अपनी पर्यायो-अवस्थाओकी धारामे प्रवाहित है अविच्छिन्न चलती है । यही उत्पाद-व्ययकिसी भी विजातीय या सजातीय द्रव्यान्तरकी धारामें नौव्यात्मकता प्रत्येक द्रव्यका निजी स्वरूप है। धर्म, उसका परिणमन नही हो सकता । यह सजातीय अधर्म. श्राकाश और कालद्रव्योका सदा शुद्ध परिया विजातीय द्रव्यान्तरमे असंक्रान्ति ही प्रत्येक णमन ही होता है। जीवद्रव्यमें जो मुक्त जीव है द्रव्यकी मौलिकता है। इन द्रव्योंमें धर्मद्रव्य. अधर्म- उनका परिणमन शुद्ध ही होता है कभी भी अशुद्ध द्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्योंका परिणमन सदा नहीं होता। समारी जीव और अनन्त पुद्गलद्रव्यका शुद्ध ही रहता है. इनमें विकार नहीं होता. एक जैसा शुद्ध और अशुद्ध दोनों ही प्रकारका परिणमन होता परिणमन प्रतिसमय होता रहता है। जीव और पुदल है। इतनी विशेषता है कि जा समारी जीव एकबार इन दो द्रव्योमे शुद्धपरिणमन भी होता है तथा अशुद्ध मुक्त होकर शुद्ध परिणमनका अधिकारी हुआ वह परिणमन भी। इन दो द्रव्योमें क्रियाशक्ति भी है जिमस फिर कभी भी अशुद्ध नहीं होगा पर पुदलद्रव्यका : इनमे हलन-चलन.आना-जाना आदि क्रियाएँ होती है। कोई नियम नहीं है। वे कभी स्कन्ध बनकर अशुद्ध शेष द्रव्य निष्क्रिय हैं वे जहाँ है वहीं रहते है। आकाश परिणमन करते हैं तो परमाणुरूप होकर अपनी शुद्ध
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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