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________________ ३३६ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ - अवस्थामें श्राजाते हैं फिर स्कन्ध बन जाते हैं इस परिणमनकी प्रत्येक शक्ति मूलतः प्रत्येक जीवद्रव्यमें है। तरह उनका विविध परिणमन होता रहता है । जीव हाँ अनादिकालीन अशुद्धताके कारण उनका विकास और पुद्गलमें वैभाविकी शक्ति है जिसके कारण वे विभिन्न प्रकारसे होता है। चाहे हो भव्य या अभव्य, विभाव परिणमनका भी प्राप्त होते हैं। दोनों ही प्रकारके प्रत्यक जीव एक-जैसी शक्तियोके आधार हैं शुद्ध दशामे सभी मुक्त एक-जैमी शक्तियोंद्रव्यगतशक्ति के स्वामी बन जाते हैं और प्रतिममय अग्रण्ड शुद्ध धर्म, अधर्म. आकाश थे तीन द्रव्य एक एक है। परिणमनमे लीन रहते हैं । मंमारी जीवाम भी कालाणु असंख्यात है । प्रत्यक कालागुमे एक-जैसी मूलतः मी शक्तियाँ है। इतना विशेष है कि अभव्यशक्तियाँ है। बतना करनेकी जितने अविभागप्रतिच्छद- जीवोमे केवलनानादिशक्तियोके अविभावकी शक्ति वाली शक्ति एक कालाणुमें है वैसी ही दूसरं कालाणु- नहीं मानी जाती । उपर्युक्त विवेचनसे एक बात में। इस तरह कालाणुओंमें परस्पर शक्ति-विभिन्नता निर्विवादरूपसेम्पष्ट हो जाता है कि चाहे द्रव्य चेतन हा या परिणमन-विभिन्नता नही है।। या अचेतन, प्रत्येक मूलतः अपनी अपनी चेतनपुद्रलद्रव्यके एक अणुमें जितनी शक्तियाँ हैं उतनी अचेतन शक्तियोका धनी है उनमें कहीं कुछ भी न्यूनाही और वैमी ही शक्तियाँ परिणमन-योग्यता अन्य धिकता नहीं है। अशुद्धदशामे अन्य पर्यायशक्तियाँ पुद्गलाणुओमें हैं । मूलतः पुद्गल-अणुद्रव्योमे शक्तिभेद, भी उत्पन्न हो जाती हैं और विलीन होती रहती हैं। योग्यताभेद या स्वभावभेद नहीं है। यह सो सम्भव है परिणमनके नियतत्वकी सीमाकि कुछ पुद्गलाणु मूलतः स्निग्ध स्पर्शवाले हो और उपयुक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि द्रव्योमें परिदूसरं मूलतः रूक्ष. कुछ शीत और कुछ उष्ण, पर णमन होनेपर भी कोई भी द्रव्य सजातीय या उनके ये गुण नियत नहीं, रूक्षगुणवाला भी विजातीय व्यान्तररूपमें परिणमन नहीं कर सकता। स्निग्धगुणवाला बन सकता है तथा स्निग्धगुण- अपनी धारामें सदा उसका परिणमन होता रहता है। वाला भी रूक्ष। शीत भी उष्ण बन सकता है उष्ण द्रव्यगत मूल स्वभावकी अपेक्षा प्रत्येक द्रव्यके अपने भी शीत । तात्पर्य यह कि पुदलाणुओंमें ऐसा कोई परिणमन नियत हैं। किसी भी पुद्गलाणुके वे सभी जातिभेद नहीं है जिससे किसी भी पुद्गलाणुका पदलसम्बन्धीपरिणमन प्रतिसमय हो सकते हैं और पुद्रलसम्बन्धी कोई परिणमन न हो सकता हो । किमी भी जीवके जीवसम्बन्धी अनन्त परिणमन । पुद्रलद्रव्यके जितने भी परिणमन हो सकते हैं उन यह तो सम्भव है कि कुछ पर्यायशक्तियोसे सीधा सबकी योग्यता और शक्ति प्रत्येक पुद्गलागुगुमें स्व- सम्बन्ध रखनेवाले परिणमन कारणभूत पर्यायशक्तिभावतः है. यही द्रव्यशक्ति कहलाती है। स्कन्ध- के न होने पर न हों। जैसे प्रत्येक पुदलपरमारणु यद्यपि अवस्थामें पर्यायशक्तियाँ विभिन्न हो सकती है । जैसे घट बन मकता है फिर भी जबतक अमुक परमाणुकिसी निस्कन्धमें मम्मिलित परमाणुका उष्ण- स्कन्ध मिटीरूप पर्यायको प्राप्त न होंगे तबतक उनमें स्पर्श और तेजोरूप था. पर यदि वह अग्निस्कन्धसे मिटीरूप पर्यायशक्तिके विकाससे होनेवाली घटपयोय जुदा हो जाय तो उमका शीतस्पर्श तथा कृष्णरूप हो नहीं हो सकती। परन्तु मिट्टापर्यायसे होनेवाली घट. सकता है। और यदि वह स्कन्ध ही भस्म बन जाय सकोरा आदि जितनी पर्याय सम्भवित है वे निमित्ततो सभी परमाणुओंका रूप और स्पर्श आदि बदल के अनुसार कोई भी हो मकती हैं । जैसे जीवमें मकते हैं। __ मनुष्यपर्यायमें अग्यिसे देखनेकी योग्यता विकसित है ___सभी जीवद्रव्योंकी मूल स्वभावशक्तियों एक तो वह अमुक समयमें जो भी सामने आयेगा उसे जैसी हैं. ज्ञानादि अनन्तगुण और अनन्त चैतन्य- देखेगा। यह कदापि नियत नहीं है कि अमुक समयम
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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