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त्यागका कास्तविक रूप
(प्रवक्ता पूज्य श्री क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी, न्यायाचार्य)
[समाजका शायद कोई ही ऐसा व्यक्ति हो जो पूज्य वणीजी और उनके महान् व्यक्तित्वसे परिचित न हो। आप उच्चकोटिके विद्वान् होनेके अतिरिक्त सन्त, वक्ता, नेता, चारित्रवान् और प्रकृतिभद्र सहृदय लोकोत्तर महापुरुष हैं । महापुरुषोके जो लक्षण हैं वे सच श्रापमे विद्यमान हैं
और इसलिये जनता अापको बाबाजी एवं महात्माजी कहती है । अापकी अमृतवाणीमे वह स्वाभाविकता ,मरलता और मधुरता रहती है कि जिसका पान करनेके लिये जनता बड़ी ही उत्कण्ठित रहती है और पान करके अपनेको कृतकृत्य मानती है । श्राज 'अनेकान्त'के पाठकोके लिये उनके एक महत्वके अनुभवपूर्ण प्रवचनको, जिसे उन्होंने गत भादोके पयू पणपर्वम त्याग-धर्मके दिन दिया था, और जो अभी कहीं प्रकाशित भी नही हुआ, यहाँ दिया जाता है।
हम पण्डित पन्नालाल जी साहित्याचार्य मागरके अत्यन्त अाभारी हैं, जिन्होंने वीजीके पयूपणपर्वेमे हुए, प्रवचनोंके समस्त सङ्कलनको, जिसे उन्होने स्वय किया है, 'अनेकान्त' के लिये बड़ी उदारतासे दिया । प्रस्तुत प्रवचन उन्दी प्रवचनोंमसे एक है। शेष प्रवचन भी आगे दिये जावेंगे।
-कोठिया
चाहिये । आपके नगरमं यदि शरणार्थी श्रावे तो आज त्यागका दिन है। त्याग सबको करना
प्राणपनसे उनका उद्धार करो। मानवमात्र की सेवा चाहिये । अभी एक स्त्रीने अपने बच्चेको
करना प्रत्येक प्राणीका कर्तव्य है। आप लोग अच्छे बड़े जोरसे चाँटा दिया। चाँटा देकर उसने अपनी
अच्छे वस्त्र पहिने, अच्छा-अच्छा भोजन करे पर कपायका त्याग कर लिया। आप लोग भी अपनी
तुम्हारा पड़ौसी नङ्गा और भूखा फिर तो तुम्हारे अपनी कपायका त्याग कर दि शान्त होजाय तो धनको एकबार नहीं सौबार धिक्कार है। अब समय अच्छा है।
ऐसा है कि सुवर्णक जेवर और जरीके कपड़े पहनना त्यागका अर्थ छोड़ना होता है पर छोड़ा क्या बन्द कर देना चाहिये और सादी वेशभूषा तथा जाय ? जो चीज़ आपकी नही है उसे छोड़ दिया
॥ चीज़ आपकी नही है उसे छोड़ दिया सादा खानपान रखकर दुःखी प्राणियोंका उपकार जाय। अपने आत्माके सिवाय अन्य सब पदार्थोम करना चाहिये। ममत्व-भावको छोड़ दो, यही त्याग धर्म है।।
एकबार ईश्वरचन्द्र विद्यासागरकी माँ बनारस आज मंसारकी बड़ी विकट परिस्थिति है। आई। ईश्वरचन्द्र विद्यासागरको कौन नहीं जानता ? जिन्होंने अपनी सम्पत्ति छोड़ी, स्त्री छोड़ी, बच्चे छोड़े कलकत्ता विश्वविद्यालयका प्रिसिपल, हरएक ऊँचसे
और एक केवल चार रोटियोंके लिये शरणार्थी बने ऊँचे ऑफिसरसे उनकी पहिचान-मेलजोल । एक इधर-उधर भटक रहे हैं । उन लोगोंपर भी दुष्ट बार किसी ऊँचे ऑफिमरसे उनका मनमुटाव प्रहार कर रहे हैं। कैसा हृदय उनका है ? कैमा धर्म होगया। लोगोंने कहा कि वह उच्च अधिकारी है अत: उनका है ? इस समय तो प्रत्येक मनुष्यको स्वयं उससे विरोध करना ठीक नहीं; पर ईश्वरचन्द्रने भूखा और नगा रहकर भी दूसरोंकी सेवा करनी कड़ा जवाब दिया कि मैं अपने स्वाभिमानको नष्ट