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किरण ३]
वार्त्तिक और प्रमाणपरीक्षामे भी उसके दो ही भेद करता। केवल प्रन्थकारोंके विवक्षाभेद या दृष्टिभेदको स्पष्टतः बतलाये हैं । यथा
प्रकट करता है ।
(क) 'तत् द्विधैकत्वमादृश्यगोचरत्वेन निश्चितम् ' -त० श्लो० पृ० १६० । (ख) 'द्विविधं हि प्रत्यभिज्ञान तदेवेदमित्येकत्व निबन्धन तादृशमेवेदमिति सादृश्यनिबन्धनं च ।'
१७ शङ्का - श्रतिक्रम और व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार इनमें परस्पर क्या अन्तर है ?
प्र० प० पृ० ६६ । अतः यह एक आचार्यमान्यताभेद ही समझना चाहिए।
१६ शङ्का - जैमा प्रत्यभिज्ञानको लेकर आपने जैनन्यायमं आचार्यका मान्यताभेद बतलाया है वैसा और भी किसी विपयको लेकर उक्त मान्यतामेव पाया जाता है ?
१६ समाधान - हॉ पाया जाता है
शङ्का ममाधान
(क) आचार्य माणिक्यनन्दि और उनके व्याख्याकार आचार्य प्रभाचन्द्र तथा अनन्तवीर्य आदिने हत्वाभासके चार भेद बतलाये है- श्रसिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिश्चित्कर । यथा हत्वाभामा सिद्धविरुद्धानैकान्निकाऽकिचित्करा" परी ज्ञा ६२५ । पर वादिराजसूरिने उसके तीन ही भेद गिनाये है। यथा-
'तत्र त्रिविधो हेत्वाभास अमिद्धानेका न्निकविरुद्ध विकल्पात ।' प्रमाणनिगाय १०५० ।
(ख) इसी तरह जहाँ अन्य अनेक श्राचार्यों ने परोक्षप्रमाणकं स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये पाँच भेद प्रतिपादन किये हैं वहाँ आचार्य वादिराजन परोक्षके दो ही भेद बतलाये है और उन दो भेदोंमें अन्य प्रसिद्ध पाँच भेदोका स्वरुचि अनुसार अन्तर्भाव किया है। यथा-
'तच्च (पक्ष) द्विविधमनुमानमागमश्चति । श्रनुमान मपि द्विविध गाणमुख्य विकल्पात । तत्र गागमनुमान त्रिविध स्मरण प्रत्यभिज्ञा तर्कश्चति । तम्य चानुमानत्व यथा पूर्वमुत्तरोत्तर हेतुतयाऽनुमान निबन्धनत्वात ।' डा.नि. पृ. ३३
इसी तरह के प्राचार्यकिं मान्यताभेद और भी मिल सकते हैं। कहने का मतलब यह कि जैनमिद्धान्त की तरह जैन न्यायमं भी आचार्योंका मतभेद उपलब्ध होता है और यह मतभेद कोई विरोध उत्पन्न नहीं
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१७ समाधान - मानसिक शुद्धिकी हानि होना अतिक्रम है और मनमे विषयाभिलापा होना व्यतिक्रम हैं। तथा इन्द्रियोंमे श्रालस्य (असावधानी) का होना अतिचार है और लिये व्रतको तोड़ देना अनाचार है। यथा
श्रतिक्रमी मानमशुद्धिहानिर्व्यतिक्रमो यो विषयाभिलाषः । तथाविचारः कग्णालभत्व भगो अनाचार इह बतानाम् ॥ -पट् प्रा० टी० पृ० १६८ (उद्धृत) । १६ शङ्खा - नरकगतिमे सातवी पृथिवीमं क्या सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है ?
१८ समाधान - हाँ, मानवी पृथिवीमं भी सभ्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है। सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थवार्तिक आदि ग्रन्थोंमें नरकगतिमं सम्यक्त्वकी उत्पत्तिकं कारको निम्न प्रकार बतलाया है
'नारकारणा प्राक् चतुर्थ्या' सम्यग्दर्शनम्य साधन पाचिद् जातिस्मरण | केपाविद धर्मश्रवण | नेपाचित वेदनाभि गमः । चतुर्थीमारस्य श्रा सप्तम्या नारका जातिग्मग्गा वेदनाभिमवथ । --सर्वाधांम० पृ० १२ ।
'तत्रोपरि निसृप प्रायवीप नारकास्त्रिमि कारणं. सम्यक्त्वमुपजनयन्ति काचजाति मृत्या, फचिडम अत्या केचिदनाभिभूता । श्रधस्ताचतमृप पृथिवी द्वाभ्यां कारणाच्या चिजाति स्मृत्या, अपर वेदनाभिमताः । - तस्वार्थवा पृ० ७२ ॥
इन उद्धरणांम बतलाया गया है कि नरकगतिम पहलेकी तीन पृथिवियोंम तीन कारणोंगे सम्यग्दर्शन होता है- जाति स्मरगा, धर्मश्रवण और वेदनाभिभव मे । नीचे की चार पृथिवियोंम धर्मश्रवणको छोड़कर शेष दो कारणों-जातिम्मरगा और वेदनाभिभवमे उत्पन्न होता है । अतएव सातवी पृथिवीमं दा कारणोंका सद्भाव रहनेमें वहाँ सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाना है । परन्तु निकलते ममय वह छूट जाता है । ३-४-४८ ] - दरबारीलाल कोठिया