SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ फिरण १] रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका भिन्नक त्व ऐसी हालतमें रत्नकरण्डका छठा पद्य अभी तक मानकर ही प्रोफेसर सा० की चारों आपत्तियोंपर मेरे विचाराधीन हो चला जाता है। फिलहाल, अपना विचार और निर्णय प्रकट कर देना चाहता हूं। वर्तमान चर्चाके लिये, मैं उसे मूलग्रन्थका अंग और बह निम्नप्रकार है। (भगलो किरणमें समाप्य) रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका मिन्नकर्तव ( लेखक- डा. हीरालाल जैन, एम० ए० ) रत्नकरएटश्रावकाचार और प्राप्तमीमांसा एक गुणस्थानवर्ती साधुका अभिप्राय है। किन्तु न तो ही प्राचार्यकी रचनाएँ हैं, या भिन्न भिन्न, इस वे यह बतला सके कि छठे गुणस्थानीय साधुको विषयपर मेरे 'जैनइतिहासका एक विलुप्त अध्याय' वीतराग व विद्वान विशेषण लगानेका क्या प्रयोजन शीर्षक निबन्धसे लगाकर अभी तक मेरे और है, और न यह प्रमाणित कर सके कि उक्त गुणपं० दरबारीलालजी कोठियाके छह लेख प्रकाशित स्थानमें सुग्व दुःखको वेदना होते हुए पाप-पुण्यके हो चुके हैं, जिनमें उपलब्ध साधक-बाधक प्रमाणों बन्धका अभाव कैसे संभव है। और इसी बातपर का विवेचन किया जा चुका है। अब कोई नई उक्त कारिकाको युक्ति निर्भर है। अत: उन दोनों बात सन्मुख पानेकी अपेक्षा पिष्टपेषण ही अधिक प्रन्थोंके एक-कर्तृत्व स्वीकार करने में यह विरोध होना प्रारम्भ हो गया है और मौलिकता केवल बाधक है। कट-वाक्योंके प्रयोगमें शेष रह गई है। अतएव में दसरी आपत्ति यह थी कि शक संवत १४७ से प्रस्तुत लेग्बमें संक्षेपत: केवल यह प्रकट करना पूर्वका कोई उल्लेख रत्नकरण्डाका नहीं पाया चाहता कि उक्त दोनों रचनाओंको एक ही प्राचार्य जाता और न उसका आप्रमीर्मासाके साथ एककर्तृत्व की कृतियां मानने मे जी श्रापत्तियां उपस्थित हुई थी संबन्धी कोई स्पष्ट प्राचीन प्रामासिक उल्लेख उपलउनका कहांतक समाधान होसका है। ब्ध है। यह आपत्ति भी जैसोकी तैसी उपस्थित है। __मैंने अपने गत लेग्यके उपसंहारमें चार तीसरी भापत्ति यह थी कि रत्नकरण्डका जो सर्व आपत्तियोंका उल्लेख किया था जिनके कारण रत्न- प्रथम उल्लेख शक संवत १४७ में वादिराज कप्त पार्श्व. करण्ड और श्राप्तमीमांसाका एककतत्व सिद्ध नहीं नाथ चरितमें पाया जाता है उसमें वह स्वामी समन्तहोता। प्रथम आपत्ति यह थी कि रत्नकरण्डा- भद्र-कृत न कहा जाकर योगीन्द्र-कृत कहा गया है। नुसार प्राप्तमें नप्रिपासादि असातावेदनीय कर्मजन्य और वह उल्लेख स्वामी-कृत देवागम (प्तमीमांसा) वेदनाांका पाव होता है, जबकि आममीमांसाकी और देव-कृत शब्दशास्त्रके उल्लेखोंके पश्चात किया कारिका १३ में बीतराग सर्वज्ञके दुःखकी वेदना गया है कि हरिवंशपुराण व श्रादिपुराण जैसे प्राचीन स्वीकार की गई है जो कि कम सिद्धान्तकी प्रामाणिक ग्रंथोंमें 'देव' शब्दद्वारा देवनन्दि पूज्यपाद व्यवस्थाओंके अनुकूल है। पंडितजीका मत है और उनके व्याकरण पंथ जैनेन्द्र व्याकरणका ही कि उक्त कारिकाके वीतगगग विद्वान मुनिसे सटे उत्तेव पाया जाता है, अतः स्पष्ट है कि वादिराजने
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy