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अनेकान्त .
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आशय प्राय: एक ही है और वह यह कि यदि छठे चायने 'आप्तस्य वाचिका नाममाला प्ररूपयन्नाह' पद्यको असंगत कहा जावेगा तो ७३ तथा वें पद्यको इस प्रस्तावना वाक्यके द्वारा यह सूचना की है। भी असंगत कहना होगा। परन्त बात ऐसी नहीं है। वं पद्यमें प्राप्तकी नाममालाका निरूपण है। परन्तु छठा पद्य ग्रन्थका अंग न रहने पर भी वे तथा वें उन्होंने साथमें प्राप्तका एक विशेषण 'उक्तदोपैविवर्जिपद्यको असंगत नहीं कहा जा सकताः क्योंकि वें तस्य' भी दिया है. जिसका कारण पूर्वमें उत्सन्न. पद्यमें सर्वज्ञकी, आगमेशीकी अथवा दोनों विशेषणोंकी दोषकी दृष्टिसे प्राप्तके लक्षणात्मक पद्यका होना कहा व्याख्या या स्पष्टीकरण नहीं है, जैसाकि अनेक जा सकता है। अन्यथा वह नाममाला एकमात्र विद्वानोंने भिन्न भिन्न रूपमें उसे समझ लिया है। 'उत्सन्नदोषाप्त' की नहीं कही जा सकती; क्योंकि उसमें तो उपलक्षणरूपसे प्राप्तकी नाम-मालाका उसमें 'परंज्योति' और 'सर्वज्ञ' जैसे नाम सर्वज्ञ उल्लेख है, जिसे 'उपलाल्यते पदके द्वारा स्पष्ट प्राप्तके, 'साव:' और 'शास्ता' जैसे नाम आगमेशी घोषित भी किया गया है, और उसमें प्राप्तके तीनों (परमहितोपदेशक) प्राप्तके स्पष्ट वाचक भी मौजूद हो विशेषणोंको लक्ष्य में रखकर नामोंका यथावश्यक हैं। वास्तवमें वह श्राप्तके तीनों विशेषणोंको संकलन किया गया है। इस प्रकारकी नाम-माला लक्ष्यमें रखकर ही संकलित की गई है, और इसलिये देनेकी प्राचीन समय में कुछ पद्धति जान पड़ती है, वे पद्यकी स्थिति ५वें पद्यके अनन्तर ठीक बैठ जिसका एक उदाहरण पूर्ववर्ती श्राचये कुन्दकुन्दके जाती है, उसमें असंगति जैसी कोई भी बात नहीं है। 'मोक्खपाहुड' में और दसरा उत्तरवर्ती प्राचार्य ऐसी स्थिति में ७वें पद्यका नम्बर ६ होजाता है और पूज्यपाद (देवनन्दी) के 'समाधितंत्र में पाया जाता तब पाठकोंको यह जानकर कुछ आश्चर्यसा होगा है। इन दोनों ग्रन्थों में परमात्माका स्वरूप देनेके कि इन नाममालावाले पद्योंका तीनों ही प्रन्थोंमें ६टा अनन्तर उसकी नाममालाका जो कुछ उल्लेख किया नम्बर पड़ता है, जो किसी आकस्मिक अथवा है वह ग्रन्थ क्रमसे इस प्रकार है :
रहस्यमय-घटनाका ही परिणाम कहा जा सकता है। मलरहिओ कलचत्तो प्रणिदिनो केवलो विसुद्धप्पा इस तरह ६ठे पाके अभावमें जब ७वां पद्य
असंगत नहीं रहता तब दवां पद्य असंगत हो ही नहीं निर्मलः केवलः शद्धो विविक्तः प्रभुरव्ययः ।।
सकता; क्योंकि वह वें पद्यमें प्रयुक्त हुए 'विरागः
और 'शास्ता' जैसे विशेषण-पदोंके विरोधकी शंकाके परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ॥६॥ समाधानरूप में है।
इन पद्यों में कुछ नाम तो समान अथवा इसके सिवाय, प्रयत्न करने पर भी रत्नकरण्डसमानार्थक हैं और कुछ एक दूसरेसे भिन्न हैं, और की सी कोई प्राचीन प्रतियां मुझे अभी तक उपलब्ध इससे यह स्पष्ट सूचना मिलती है कि परमात्माको नहीं हो सकी है, जो प्रभाचन्द्रकी टीकासे पहले की उपलक्षित करनेवाले नाम तो बहुत हैं, ग्रन्थकारोंने अथवा विक्रमकी ११ वीं शताब्दीको या उससे भी अपनी अपनी रुचि तथा आवश्यकताके अनुसार पहलेकी लिखी हुई हों। अनेकवार कोल्हापुरके उन्हें अपने अपने प्रन्याम यथास्थान ग्रहण किया है। प्राचीनश स्त्र भण्डारको टटोलने के लिये डा एएन० समाधितंत्रग्रन्थके टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्रने, उपाध्ये जीसे निवेदन किया गया; परन्तु हरबार 'तद्वाचिका नाममालां दर्शयन्नाह' इस प्रस्तावना- यही उत्तर मिलता रहा कि भट्रारकजी मठमें मौजूद वाक्य के द्वारा यह सूचित भी किया है कि इस छठे नहीं हैं, बाहर गये हुये हैं- वे अक्सर बाहर ही श्लाकमें परमात्माक नामकी वाचिका नाममालाका घुमा करते हैं- और बिना उनकी मौजूदगीके मठके निदर्शन है। रत्नकरण्डकी टीकामें भी प्रभाचन्द्रा- शास्त्रमंडारको देवा नहीं जा सकता।