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किरण १]
रत्नकरण्डके कर्तत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय
चर्चाको उठाया था-शेष तीन आपत्तियां तो उसमें करता है। रही सर्वज्ञता, उसके सम्बन्धमें कुछ नहीं बादको पुष्टि प्रदान करने के लिये शामिल होती रही कहा है इसका कारण यह जान पड़ता है कि प्राप्त हैं। और इस दृष्टिसे प्रोफेसर साहबने मेरे उस मीमांसामें उसकी पृथक विस्तारसे चर्चा की है इसलिये पत्र-प्रेषणादिको यदि अपनी प्रथम आपत्तिके परिहार- उसके सम्बन्धमें कुछ नहीं कहा। श्लोक ६ में यद्यपि का एक विशेष प्रयत्न समम लिया है तो वह स्वाभा. सब दोप नहीं आते, किन्तु दोषोंकी संख्या प्राचीन विक है, उसके लिये में उन्हें कोई दोष नहीं देता। मैंने परम्परामें कितनी थी यह खोजना चाहिये। शोककी अपनी दृष्टि और स्थितिका स्पष्टीकरण कर दिया है। शब्दरचना भी समन्तभद्रके अनुकूल है, अभी और मेरा उक्त पत्र जिन विद्वानोंको भेजा गया था।
विचार करना चाहिये।" (यह पूरा उत्तर पत्र है)। उनमें से कुछ का तो कोई उत्तर ही प्राप्त नहीं हा, "इम समय बिल्कुल फुरसतमें नहीं हैं .. .. कुछने अनवकाशादिके कारण उत्तर देने में अपनी यहां तक कि दो तीन दिन बाद आपके पत्रको पूरा असमर्थता व्यक्त की, कछने अपनी महमति प्रकट की पढ़ सका। - ... पद्यके बारेमें अभी मैंने कुछ भी और शेपने असहमति । जिन्होंने सहमति प्रकट की
नहीं सोचा था, जो समस्यायें आपने उसके बारे में
उपस्थित की हैं वे आपके पत्रको देखने के बादही उन्होंने मेरे कथनको 'बुद्धिगम्य तकपूर्ण' तथा युक्ति
मेरे सामने आई हैं, इसलिये इसके विषय में जितनी वादको 'अतिप्रबल' बतलाते हए उक्त छठे पद्यको संदि
गहराईके साथ आप सोच सकते हैं मैं नहीं, और ग्धरूपमें तो स्वीकार किया है। परन्तु जब तक किसी
फिर मुझे इस समय गहराईके साथ निश्चित होकर भी एक प्राचीन प्रतिमें उसका अभाव न पाया जाय
सोचनेका अवकाश नहीं इसलिये जो कुछ मैं लिख तब तक उसे 'प्रक्षित' कहने में अपना संकोच व्यक्त
रहा हूं उसमें कितनी दृढ़ता होगी यह मैं नहीं कह किया है। और जिन्होंने असहमति प्रकट की है सकता फिर भी आशा है कि आप मेरे विचारों पर उन्होंने उक्त पद्यको ग्रन्थका मौलिक अङ्ग बतलाते हुए ध्यान देंग" उसके विषय में प्रायः इतनी ही सूचना की है कि वह
इतना हा सूचना का है कि वह हां, इन्हीं विद्वानों मेंसे तीनने छठे पद्यको संदग्धि पर्षे पामें वर्णित आपके तीन विशेपणासे 'उत्सन्न- अथवा प्रक्षित करार दिये जाने पर अपनी कछ शंका दोष, विशेषण के स्पष्टीकरण अथवा व्याख्यादिको लिये अथवा चिन्ता भी व्यक्त की है, जो इस प्रकार है:हए है। और उस सूचनादि पर से यह पाया जाता है
"(छठे पद्यक संदग्धि होनेपर) ज्वें पद्यकी
पटाके संदधि होने कि वह उनके सरसरी विचारका परिणाम है-प्रश्नके संगति श्राप किस तरह बिटलाएंगे और यदि वे अनुरूप विशेष ऊहा पोहसे काम नहीं लिया गया की स्थिति संदग्ध होजाती है तो वां पा भी अपने अथवा उसके लिये उन्हें यथेष्ट अवसर नहीं मिल सका। आप मंदग्धिताकी कोटि में पहुंच जाता है।" चुनांचे कुछ विद्वानोंने उसकी सूचना भी अपने पत्रों में "यदि पद्य नं० ६ प्रकरण के विरुद्ध है, तो की है जिसके दो नमने इस प्रकार हैं:
७ और भी संकटमें ग्रस्त हो जायेंगे।" "रत्नकरण्डश्रावकाचारके जिस शोककी ओर "नं०६ के पद्यको टिप्पणीकारकृत स्वीकार आपने ध्यान दिलाया है, उसपर मैने विचार किया किया जाय तो मूलग्रन्थकारद्वारा लक्षण में विशेषण मगर मैं अभी किसी नतीजेपर नहीं पहुंच सका। देकर भी ७.८में दोका ही समर्थन या स्पष्टीकरण शोक ५ में उच्छिन्नदोष, सर्वज्ञ और आगमेशीको प्राप्त किया गया पूर्व विशेपणके सम्बन्धमें कोई स्पष्टीकरण कहा है, मेरी दृष्टि में उच्छिन्नदोपको व्याख्या एवं पुष्टि नहीं किया यह दोपापत्ति होगी।" भोक करता है और बागमेशीकी व्याख्या भोक । इन तीनों आशंकाओं अथवा आपत्तियोंका