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अनेकान्त
[ वर्ष ६
खड़ी हैं, और जो कुछ ऊहापोह अब तक हुई है उससे होना स्वाभाविक है, प्रधानता लेकर ही मै इस लेखके वे और भी प्रबल व अकाट्य सिद्ध होती हैं।" लिखने में प्रवृत्त हो रहा हूं।
कुछ भी हो और दूसरे कुछ ही समझते रहें, सबसे पहले मैं अपने पाठकोंको यह बतला देना परन्तु इतना स्पष्ट है कि प्रो० साहब अपनी उक्त चार चाहता हूं कि प्रस्तुत चर्चाके वादी-प्रतिवादी रूपमें श्रापत्तियोंमेंसे किसीका भी अब तक समाधान अथवा स्थित दोनों विद्वानांके लेखांका निमित्त पाकर मेरी समुचित प्रतिवाद हुआ नहीं मानते, बल्कि वर्तमान प्रवृत्ति रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यपर सविशेषरूपसे ऊहापोहके फलस्वरूप उन्हें वे और भी प्रबल एवं विचार करने एवं उसकी स्थितिको जांचनेकी ओर हुई अकाट्य समझने लगे हैं। अस्तु ।
.. और उसके फलस्वरूप ही मुझे वह दृष्टि प्राप्त हुई जिसे अपने वर्तमान लेखमें प्रो० साहबने मेरे दो पत्रों
___ मैंने अपने उस पत्र में व्यक्त किया है जो कुछ विद्वानों और मझे भेजे हए अपने एक पत्रको उद्धृत किया है को उनका विचार मालुम करने के लिये भेजा गया था इन पत्रांको प्रकाशित देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई- और जिसे प्रोफेसर साहबने विशेष महत्वपूर्ण एवं उनमें से किसीके भी प्रकाशनसे मेरे ऋद्ध होने जैसी
निर्णयाथ आवश्यक समझकर अपने वर्तमान लेखमें तो कोई बात ही नहीं हो सकती थी, जिसकी प्रोफेसर साहबने अपने लेखमें कल्पना की है। क्योंकि
उद्धृत किया है। विद्वानोंको उक्त पत्रका भेजा जाना उनमें प्राइवेट जैसी कोई बात नहीं है, मै तो स्वयं ही
प्रोफेसर साहबकी प्रथम आपत्तिके परिहारका कोई उन्हें 'समीचीनधर्मशास्त्र की अपनी प्रस्तावनामें
खास प्रयत्न नहीं था, जैसा कि प्रो० साहबने समझा
खास प्रयत्न नहा था, प्रकाशित करना चाहता था-चुनांचे लेखके साथ है बल्कि उसका प्रधान लक्ष्य अपने लिये इस बातका भेजे हुए पत्रके उत्तरमें भी मैंने प्रो० साहबको इस निर्णय करना था कि 'समीचीन धर्मशास्त्र में जो कि बातकी सूचना कर दी थी। मेरे प्रथम पत्रको, जो कि प्रकाशनके लिये प्रस्तुत है, उसके प्रति किस प्रकारका रत्नकरण्डके 'क्षुत्पिपासा' नामक छठे पद्य के संबन्धमें व्यवहार किया जाय-उसे मूलका अङ्ग मान लिया उसके ग्रन्थका मौलिक अङ्ग होने-न होने-विषयक जाय या प्रक्षिप्त। क्योंकि रत्नकरण्डमें 'उत्सन्नदोष गम्भीर प्रश्रको लिये हुए है, उद्धृत करते हुए प्रोफेसर प्राप्त'के लक्षणरूपमें उसकी स्थितिके स्पष्ट होनेपर साहबने उसे अपनी "प्रथम आपत्तिके परिहारका एक अथवा 'प्रकीत्यते के स्थानपर 'प्रदोषमुक' जैसे किसी विशेष प्रयत्न" बतलाया है, उसमें जो प्रश्न उठाया है पाठका आविर्भाव होनेपर में आप्तमीमांसाके साथ उसे बहुत ही महत्वपूर्ण' तथा 'रत्नकरण्डके कर्तृत्व- उसका कोई विरोध नहीं देखता है। और इसी लिये विषयसे बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध रखनेवाला घोषित किया तत्सम्बन्धी अपने निर्णयादिको उस समय पत्रों में है और 'तीनों ही पत्रोंको अपने लेख में प्रस्तुत करना प्रकाशित करने की कोई जरूरत नहीं समझी गई, वह वर्तमान विषय के निर्णयार्थ अत्यन्त आवश्यक सूचित सब समीचीनधर्मशास्त्रकी अपनी प्रतावनाके लिये किया है। साथ ही मुझसे यह जानना चाहा है कि सुरक्षित रक्खा गया था। हां, यह बात दूसरो है मैंने अपने प्रथम पत्रके उत्तर में प्राप्त विद्वानोंक पत्रों कि उक्त. 'क्षुत्पिपामा' नामक पदाके प्रतित होने अथवा
आदिके आधारपर उक्त पद्यके विषय में मुलका अङ्ग मल ग्रन्थका वास्तविक अङ्ग सिद्ध न होनपर होने न-होनेको बाबत और समूचे ग्रन्थ (रत्नकरण्ड) साहबकी प्रकृत चर्चाका मूलाधार ही समाप्त हो जाता के कतृत्व विषय में क्या कुछ निर्णय किया है। इसी है; क्योंकि रत्नकरण्डके इम एक पद्यको लेकर ही जिज्ञासाको, जिसका प्रो० मा० के शब्दों में प्रकृत उन्होंने प्राप्तमीमांसागत दोष-स्वरूपके साथ उसके विषयसे रचि रखनेवाले दमरे हृदयों में भी उत्पन्न विरोधकी कल्पना करके दोनों ग्रन्थोंके भिन्न कतै वकी