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रत्नकरण्डके कर्तत्व-विषयमें मेरा विकार और निर्णय
[सम्पादकीय ] रत्नकरण्डश्रावकाचारके कर्तृत्व-विपयकी वर्तमान इसमें संदेह नहीं कि दोनों विद्वानोंने प्रकृत विषयको चर्चाको उठे हुए चारवप हो चुके-प्रोफेसर हीरालाल सुलझाने में काफी दिलचस्पीसे काम लिया है और जी एम० ए० ने 'जन इतिहासका एक विलुप्र अध्याय' उनके अन्वेषणात्मक परिश्रम एवं विवेचनात्मक नामक निबन्धमें इसे उठाया था. जो जनवरी सन प्रयत्नके फलस्वरूप कितनी ही नई बातें पाठकों के १६४४ में होनेवाले अखिल भारतवर्षीय प्राच्य सम्मे- सामने आई हैं। अच्छा होता यदि प्रोफेसर साहब लनके १२वें अधिवेशनपर बनारसमें पढ़ा गया था। न्यायाचार्यजोके पिछले लेग्वकी नवोद्भावित युक्तियां उस निबन्धमें प्रो० सा० ने, अनेक प्रस्तुत प्रमाणांसे का उत्तर देते हुए अपनी लेखमालाका उपसंहार करते, पुष्ट होती हुई प्रचलित मान्यताके विरुद्ध अपने नये जिससे पाठकोंको यह जाननेका अवसर मिलता कि मतकी घोपणा करते हुए, यह बतलाया था कि 'रत्न- प्रोफेसर साहब उन विशेप युक्तियोंके सम्बन्धमें भी करण्ड उन्ही ग्रन्थकार (स्वामी समन्तभद्र) की रचना क्या कुछ कहना चाहते हैं । हो सकता है कि प्रो० सा० कदापि नहीं हो सकती जिन्होंने प्राप्तमीमांसा लिखी के सामने उन युक्तियोंके सम्बन्धमें अपनी पिछली थी; क्योंकि उसके 'क्षुत्पिपासा' नामक पद्यमें दोषका बातोंके पिष्टपेपणके सिवाय अन्य कुछ विशेष एवं जो स्वरूप समझाया गया है वह प्राप्तमीमांमाकारके समुचित कहने के लिये अवशिष्ट न हो और इसीलिये अभिपायानुसार हो ही नहीं सकता।' साथ ही यह भी उन्होंने उनके "उत्तरमें न पड़कर अपनी उन चार सुझाया था कि इम ग्रन्धका का रत्नमालाके कर्ता आपत्तियोंको ही स्थिर घोषित करना उचित सममा शिवकोटिका गुरु भी हो सकता है। इसी घोषणाके हो, जिन्हें उन्होंने अपने पिछले लेख (अनेकान्त वर्ष प्रतिवादरूपमें न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठिया - किरण ३) के अन्तमें अपनी युक्तियोंके उपसंहारने जुलाई सन १६४४ में 'क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार रूपमें प्रकट किया था। और सम्भवत: इसी बातको स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है' नामका एक लेख दृष्टिमें रखते हए उन्होंने अपने वर्तमान लेखमें निम्न लिखकर अनेकान्त में इस चर्चाका प्रारम्भ किया था पाक्याँका प्रयोग किया हो:
और तबसे यह चर्चा दोनों विद्वानोंके उत्तर प्रत्युत्तर- "इस विषयपर मेरे 'जैन इतिहासका एक विलुप्त रूपमें बराबर चली आ रही है। कोठियाजीने अपनी अध्याय' शीर्षक निबन्धसे लगाकर अभी तक मेरे और लेग्यमालाका उपसंहार अनेकान्तकी गतकिरण १०.११ पं० दरबारीलालजी कोठियाके छह लेख प्रकाशित हो में किया और प्रोफेसर साहब अपनी लेग्वमालाका चुके हैं, जिनमें उपलब्ध साधक-बाधक प्रमाणोंका उपसंहार इसी किरणमें अन्यत्र प्रकाशित 'रत्नकरण्ड विवेचन किया जा चुका है। अब कोई नई बात
और आप्तमीमांसाका भिन्नकर्तृत्व' लेग्वमें कर रहे हैं। मन्मुख आनेकी अपेक्षा पिष्टपेषण ही अधिक होना दोनों ही पक्षके लेखामें यद्यपि कहीं कहीं कुछ पिष्ट- प्रारम्भ हो गया है और मौलिकता केवल कटु शब्दों के पेपण तथा खींचतानसे भी काम लिया गया है और प्रयोगमें शेष रह गई है।" एक दुसरेके प्रति आक्षेपपरक भापाका भी प्रयोग हुआ (आपत्तियांके पुनरुल्लेखानन्तर) "इस प्रकार है, जिससे कुछ कटुताको अवसर मिला। यह सब रत्नकरण्डश्रावकाचार और आप्तमीमांसाके एक कर्तृत्व यदि न हो पाता तो ज्यादह अच्छा रहता। फिर भी के विरुद्व पूर्वोक्त चारों आपत्तियां ज्योकी त्यों आज भी